BCom 3rd Year Auditing Alteration Share Capital Study material notes in Hindi

Table of Contents

BCom 3rd Year Auditing Alteration Share Capital Study material notes in Hindi: Reduction of Share Capital  Preliminary Expenses Underwriting Commission  Profit Prior to  Profit to  incorporation  Brokerage Management Directors Direction Remuneration Audit Committee Managing Director Manager Holding and Subsidiary companies Annual Accounts Concepts of True and False Form and Contents of Annual Accounts Reports of Direction:

Alteration Share Capital
Alteration Share Capital

BCom 3rd Year Auditing Depreciation and Reserves Study Material notes in hindi

अंश-पूंजी का परिवर्तन

(ALTERATION OF SHARE CAPITAL)

धारा 61 पास के अनुसार यदि कम्पनी के अन्तर्नियम आज्ञा देते हों तो वह सीमानियम में वर्णित अश-पूंजी में निम्नलिखित एक या अधिक ढंग से परिवर्तन कर सकती है।

(अ) नये अंशों का निर्गमन कर अंश पूंजी में वृद्धि करना;

(ब) अंश-पूंजी का एकीकरण (consolidation) करके अपने वर्तमान (existing) अंशों को अधिक राशि वाले अंशों में अपनी अंश-पूंजी को संघटित (Consolidated) या विभाजित करना;

(स) सम्पूर्ण या कुछ पूर्णदत्त अंशों को स्कन्ध में बदलना तथा उस स्कन्ध को किसी भी राशि वाले पूर्णदत्त अंशों में पुनर्परिवर्तित करना;

(द) अपने सभी अंशों या उनके किसी भाग को सीमानियम से निर्धारित राशि से कम राशि के अंशों में उप-विभाजित करना;

(य) उन अंशों को रद्द करना जो इस सम्बन्ध में प्रस्ताव पास होने की तिथि तक न तो लिये गये हैं अथवा लेने के लिए कोई व्यक्ति सहमत भी नहीं हुआ है, तथा इस प्रकार रद्द करने से अंशों की राशि से अंश-पूंजी की राशि को कम करना।

अंश-पूंजी के परिवर्तन के लिए न्यायालय की पूर्व अनुमति लेना आवश्यक नहीं है, लेकिन इसके लिए सदस्यों के द्वारा साधारण सभा में प्रस्ताव पास किया जाना चाहिए।

कम्पनी को इस परिवर्तन के एक माह के अन्दर रजिस्ट्रार के पास नोटिस भेजना चाहिए। यदि कम्पनी ने अधिकृत पूंजी में वृद्धि कर ली है तो उसे इस वृद्धि के लिए प्रस्ताव पास करने के तीस दिन के अन्दर रजिस्ट्रार के पास नोटिस भेजना चाहिए।

Alteration Share Capital Study

अंकेक्षक के कर्तव्य (1) अंकेक्षक को यह जानकारी करनी चाहिए कि अंश-पूंजी के परिवर्तन के लिए कम्पनी के अन्तर्नियम अनुमति देते हैं, अथवा नहीं।

(2) अंशधारियों की सभा की कार्यवाही-पुस्तक (minutes) का निरीक्षण करके ऐसे परिवर्तन के लिए प्राप्त अधिकार की जांच करनी चाहिए।

(3) आबंटन-सूची (allotment list) प्राप्त करनी चाहिए और उनका मिलान सदस्य-बही एवं अन्य सम्बन्धित लेखों की पुस्तकों की प्रविष्टियों से करना चाहिए।

(4) संचालकों की सभाओं की मिनट-बुक की जांच करनी चाहिए कि अंश-पूंजी के परिवर्तन के सम्बन्ध में क्या-क्या प्रस्ताव पास किये गये हैं।

(5) रद्द किये गये अंश-प्रमाण-पत्रों (cancelled share certificates) की जांच करनी चाहिए तथा । उनका नये प्रमाण-पत्रों के प्रतिपर्णों से मिलान करना चाहिए।

(6) यह देखना चाहिए कि विधान की धाराओं का पूर्णतया पालन किया गया है अथवा नहीं।

(7) यह देखना चाहिए कि चिट्टे में अंश-पूंजी खाता सही रूप में दिखाया गया है।

(8) अन्त में यह भी विश्वास कर लेना चाहिए कि रजिस्ट्रार को आवश्यक सूचना भेज दी गयी है। उसी प्रकार अन्तर्नियमों में वर्णित कार्य-पद्धति का भी अनुकरण किया जाना चाहिए।

Alteration Share Capital Study

अंश-पूंजी का प्रहासन

(REDUCTION OF SHARE-CAPITAL)

धारा 66 के अनुसार अंश-पूंजी का प्रहासन दो प्रकार से हो सकता है :

(1) अधिकृत पूंजी (nominal capital) के अनिर्गमित भाग (unissued shares) को रद्द करके प्रहासन। किया जा सकता है। इस प्रकार से किये गये प्रहासन के लिए ट्रिब्यूनल से अनुमति की आवश्यकता नहीं। पड़ती है।

(2) एक कम्पनी, यदि अन्तर्नियम अनुमति दे तो वह विशेष प्रस्ताव पास करके तथा टिब्यूनल से। अनुमति लेकर अंश-पूंजी का प्रहासन कर सकती है।

अंश-पूंजी का प्रहासन तीन प्रकार से हो सकता है:

(क) अपरिदत्त अश-पूंजी (capital not paid-up) वाले अंशों पर दायित्व कम करके या बिल्कुल समात करके प्रहासन किया जा सकता है। उदाहरण के लिए यदि 10 ₹ के अंश पर अभी 3 ₹याचित नहीं किया है. तो इस अयाचित राशि को बिल्कुल समाप्त किया जा सकता है या 3 रुपये के स्थान पर अभी 2 ₹ या ₹ कम किया जा सकता है।

(ख) उपर्युक्त ढंग से अंशों पर दायित्व रहया कम करते हए या न करते हए कम्पनी उस प्रदत्त । (paid-up) पूजी को रद्द कर सकती है जो नष्ट हो चुकी है या जो प्राप्त सम्पत्ति (available assets) द्वारा। प्रकट न होती हो। उदाहरण के लिए, जब लाभ-हानि खाते में अत्यधिक डेबिट शेष चल रहा है, और कम्पनी घाटे में चल रही है, तो इस हानि को अंशों की अधिकृत (nominal) एवं प्रदत्त (paid-up) पूजी क कम करने से (20 ₹ अंश को 5₹ वाला बना करके) समाप्त किया जा सकता है।

(ग) अंशों पर दायित्व रद्द या कम करते हए या न करते हए कम्पनी प्रदत्त पूंजी (paid-up capital)। के उस भाग को वापस कर सकती है जो उसकी आवश्यकताओं से अधिक हो और इसके लिए अपन। सीमानियम में परिवर्तन कर सकती है। यदि साधारण अंश-पूंजी कुल 2,50,000 ₹ है और इनमें से 50,000 ₹ के बराबर राशि को संचालक आवश्यकता से अधिक समझते हैं, तो इस 50,000 ₹ को अंशधारियों को वापस कर सकते हैं। इसके लिए अंश पूंजी खाता डेबिट करना होगा तथा बैंक खाते को क्रेडिट करना होगा।

यदि ट्रिब्यूनल आवश्यक समझे तो वह कम्पनी के नाम के एक भाग के रूप में अनिवार्य रूप से ‘और प्रहासित’ (and reduced) शब्दों का प्रयोग करने का आदेश दे सकता है।

ट्रिब्यूनल के आदेश की प्रमाणित प्रतिलिपि तथा ट्रिब्यूनल से स्वीकृत प्रस्ताव प्राप्त करने के पश्चात् रजिस्ट्रार के द्वारा रजिस्ट्रेशन प्रमाणित किया जायेगा। रजिस्ट्रार का प्रमाण-पत्र इस बात का सबूत होगा कि अंश पूंजी के प्रहासन से सम्बन्धित सभी वैधानिक कार्यवाही पूर्ण की जा चुकी है।

Alteration Share Capital Study

अंकेक्षक के कर्तव्य (1) अंकेक्षक को सबसे पहले अन्तर्नियम देखकर यह पता लगाना चाहिए कि कम्पनी को अंश-पूंजी के प्रहासन का अधिकार है अथवा नहीं।

(2) उसे संचालकों तथा सदस्यों की बैठकों के कार्य-विवरण की जांच करनी चाहिए।

(3) ट्रिब्यूनल की अनुमति का निरीक्षण करना चाहिए जिसमें इस प्रस्ताव के लिए स्वीकृति दी गयी है। का यह देखना चाहिए कि रजिस्ट्रार से प्रमाण-पत्र प्राप्त हुआ है अथवा नहीं।

(4) यह ध्यान रखना चाहिए कि ट्रिब्यूनल की अनुमति तथा प्रस्ताव रजिस्ट्रार के पास भेजना अनिवार्य है।

(5) सदस्य-वही में किये गये लेखों की जांच करनी चाहिए।

(6) यदि पंजी वापस की गयी हो तो सदस्यों से प्राप्त रोकड़ रसीदों से बही तथा पास-बक के लेखों की जांच करनी चाहिए।

(7) यह जांच करनी चाहिए कि पूंजी के प्रहासन से प्रभावित सम्पत्तियों को आर्थि से दिखाया गया है।

(8) सदस्यों के रजिस्टरों में की गयी समायोजनाओं की जांच करनी चाहिए।

(9) उसे यह भी देखना चाहिए कि कम्पनी के नाम के आगे और प्रहासित’ (and reduced) शब्दों  को लिख दिया गया है ।

(10) यह देखना उसका कर्तव्य है कि पार्षद सीमानियम (Memorandum) में भी आवश्यक संशोधन कर दिया गया है।

(11) अंश पूंजी की राशि का सत्यापन करना चाहिए।

(12) नए अंश प्रमाण-पत्रों के निर्गमन से, सम्बन्धित प्रतिपर्णो के सन्दर्भ में रद्द किए गए अंश प्रमाण-पत्रों का सत्यापन करना चाहिए।

Alteration Share Capital Study

प्रारम्भिक व्यय

(PRELIMINARY EXPENSES)

मत्वक कम्पना का स्थापना के समय कछ आवश्यक खर्च करने होते हैं। ये प्रारम्भिक व्यय कहे जाने। है। इस प्रकार के व्ययों के कुछ उदाहरण आगे दिये हए है ।।

(1) कम्पनी के सीमानियम, अन्तर्नियम, प्रविवरण तथा प्रसंविदे के तैयार करने के कानूनी व्यय।

(2) कम्पनी की रजिस्ट्री कराने तथा अन्य प्रलेख और प्रसंविदों के सम्बन्ध में किया गया व्यय।।

(3) कम्पनी के सीमानियम, अन्तर्नियम, अंशपत्र, याचना पत्र, आबंटन-पत्र, ऋणपत्र, वैधानिक पुस्तकें तथा अन्य बहियों के छपवाने का खर्च।

(4) विज्ञापन-व्यय जो कम्पनी के द्वारा पत्र-पत्रिकाओं में अपने प्रविवरण के छपवाने में किया जाता है। कभी-कभी प्रचार के लिए एजेण्टों की भी नियुक्ति की जाती है जिसका खर्च भी विज्ञापन-व्यय माना जाता है।

(5) विशेषज्ञों, इंजीनियरों तथा अन्य सलाहकारों को उनकी सेवा के उपलक्ष में दी गयी फीस प्रारम्भिक व्यय मानी जाती है।

प्रारम्भिक व्यय के सम्बन्ध में कुछ आवश्यक बातें निम्न है :

(1) प्रारम्भिक व्यय पूंजीगत स्वभाव का व्यय है, परन्तु प्राप्त सम्पत्तियों (available assets) के सहारे प्रदर्शित नहीं होता है, अतएव इसे लाभ में से यथासम्भव शीघ्र ही अपलिखित कर देना चाहिए। ।

(2) जब अंशों के निर्गमन में अधिमूल्य की प्राप्ति होती है, तो सामान्यतया इस अधिमूल्य में से प्रारम्भिक व्यय अपलिखित कर दिये जाते हैं। यह अधिकार धारा 78 के अनुसार दिया गया है।

(3) प्रारम्भिक व्यय कम्पनी के चिट्टे में विविध व्यय’ (miscellaneous expenditures) के अन्तर्गत अलग से दिखाये जाने चाहिए।

(4) अभिगोपन कमीशन (underwriting commission) तथा दलाली (brokerage) प्रारम्भिक व्ययों में सम्मिलित नहीं करने चाहिए, वरन् चिढ़े में अलग से दिखाने चाहिए।

अंकेक्षक के कर्तव्य (1) अंकेक्षक को यह देखना चाहिए कि केवल वे व्यय जिनका सम्बन्ध कम्पनी के समामेलन से है प्रारम्भिक खर्चों में अपलिखित किये गये हैं।

(2) उसे यह भी देखना चाहिए कि सम्पूर्ण प्रारम्भिक व्यय प्रथम वर्ष में ही अपलिखित तो नहीं कर दिये गये हैं, वरन् 3,5 या 7 वर्षों में अपलिखित किये गये हैं। सैद्धान्तिक दृष्टि से यह व्यवस्था उचित मानी जाती है, वैसे कम्पनी अधिनियम में इस आशय का कोई नियम नहीं है।

(3) अंकेक्षक को प्रारम्भिक व्ययों के भुगतान का प्रमाणन प्राप्त रसीदों, बिलों तथा बीजकों की सहायता से करना चाहिए। यदि पूर्ण व्यय या इनका कुछ भाग विक्रेताओं (vendors) के द्वारा किया गया हो, तो विक्रेताओं के साथ किये गये प्रसंविदे की जांच करनी चाहिए।

(4) यदि प्रविवरण निर्गमित किया गया हो, तो यह देखना चाहिए कि प्रारम्भिक व्ययों की रकम प्रविवरण में वर्णित रकम से अधिक तो नहीं है।

Alteration Share Capital Study

अभिगोपन कमीशन

(UNDERWRITING COMMISSION)

कोई कम्पनी किसी ऐसे व्यक्ति को कमीशन दे सकती है जो कम्पनी के अंशों या ऋणपत्रों के लिए किसी शर्त या बिना शर्त के अभिदान करने या करने का वचन देने अथवा अभिदान प्राप्त करने का वचन देने को तैयार होता है। ऐसे कमीशन के सम्बन्ध में नीचे लिखी गयी शर्ते हैं :

(1) यह भुगतान अन्तर्नियम में अधिकृत है।

(2) यह कमीशन अंशों पर उनके मूल्य के 5% से या अन्तर्नियमों द्वारा स्वीकृत रकम से, जो भी कम हो, अधिक नहीं होना चाहिए। ऋणपत्रों के सम्बन्ध में वैसे ही यह कमीशन 21% से अधिक नहीं होना चाहिए।

(3) कमीशन की रकम प्रविवरण या प्रविवरण के स्थान पर विवरण (statement in lieu of | prospectus) में वर्णित होनी चाहिए।

जब कुछ व्यक्ति या संस्थाएं किसी कम्पनी के प्रारम्भिक काल में अंशों या ऋणपत्रों जनता द्वारा खरीदे जाने का आश्वासन देते हैं, तो यह कार्य अभिगोपन (underwriting) कहा जाता है और इस कार्य को करने वाली संस्थाएं या व्यक्ति अभिगोपक (underwrity कहलाते हैं। कभी-कभी अधिक जिम्मेदारी होने की दशा में इस कार्य के कुछ भाग को किसा अन्य दे दिया जाता है, तो इसे उप-अभिगोपन (sub-underwriting) कहते हैं। जो कमीशन अभिगोपन काय लिए दिया जाता है वह अभिगोपन कमीशन (underwriting commission) कहलाता है।।

साधारण तौर से यह कमीशन रोकड़ में दिया जाता है, लेकिन कभी-कभी पूर्णदत्त अंशों के रूप में आंशिक रूप से रोकड़ और आंशिक रूप से पूर्णदत्त अंशों के रूप में दिया जाता है।

इस कमीशन के भुगतान के लिए किये गये प्रसविदे की प्रतिलिपि रजिस्टार के पास विवरण (prospectus) या प्रविवरण के स्थान पर विवरण (statement in lieuof prospectus) के फाइल करने के समय भेजनी चाहिए।

अंकेक्षक के कर्तव्य (1) अभिगोपन कमीशन के भगतान का प्रमाणन करने के लिए अंकेक्षक का अन्तर्नियमों का अध्ययन करना चाहिए और यह देखना चाहिए कि कम्पनी को इस प्रकार का कमीशन दन। का अधिकार है अथवा नहीं।

(2) कमीशन के बारे में अंकेक्षक को यह देखना चाहिए कि इन शर्तों का किस हद तक पालन किया गया है।

(3) अभिगोपकों (underwriters) के साथ किये गये प्रसंविदे की जांच करनी चाहिए और अभिगोपकों के प्रार्थना-पत्रों को भी देखना चाहिए।

(4) कमीशन की दर अधिकृत दर से अधिक नहीं होनी चाहिए और यदि कमीशन अंशों के रूप में दिया जा रहा है, तो देखना चाहिए कि उचित प्रसंविदे रजिस्ट्रार के पास फाइल कर दिये गये हैं। अंशों के निर्गमन के लिए संचालकों की मिनट-बुक देखनी चाहिए।

(5) यदि अंकेक्षक देखता है कि अभिगोपक की याचनाएं तथा आवंटन पर भुगतान अभी बाकी है और प्राप्त नहीं हुआ है, तो इस बात का उल्लेख उसे अपनी रिपोर्ट में कर देना चाहिए।

Alteration Share Capital Study

दलाली

(BROKERAGE)

कुछ दलालों या बैंकों द्वारा कभी-कभी कम्पनी के अंश जनता को बेचे जाते हैं। जो अंशधारी इन दलालों या एजेण्टों के माध्यम से अंश खरीदते हैं, उनके प्रार्थना पत्रों पर इनकी मोहर (stamp) लगी होती है। कम्पनी इस सेवा के बदले जो रकम देती है, उसे दलाली कहते हैं। ।

अंकेक्षक के कर्तव्य (1) अंकेक्षक को अन्तर्नियमों का निरीक्षण करके दलाली (brokerage) सेसम्बन्धित नियमों की जानकारी करनी चाहिए और यह देखना चाहिए कि इन नियमों का कहां तक पालन किया गया है।

(2) दलाली के भुगतान का प्रमाणन करने के लिए प्रार्थना-पत्रों की जांच करनी चाहिए और यह देखना चाहिए कि इन पर दलालों या एजेण्टों की मुहर लगी है अथवा नहीं।

(3) संचालकों की सभाओं की मिनट-बुक देखकर तत्सम्बन्धित प्रभाव की जांच करनी चाहिए।

(4) यह भी देखना चाहिए कि ऐसी दलाली की रकम जो अपलिखित नहीं हुई है, अलग से आर्थिक चिट्टे में स्पष्ट रूप से दिखायी गयी है।

समामेलन या कार्यारम्भ से पूर्व लाभ

(PROFIT PRIOR TO INCORPORATION)

सार्वजनिक कम्पनी कानूनी तौर से उस समय व्यापार प्रारम्भ कर सकती है, जब वह रजिस्ट्रार से व्यापार करने का प्रमाण-पत्र प्राप्त कर लेती है। यदि व्यापार पत्र प्राप्त कर लेती है। यदि व्यापार प्रारम्भ करने के लिए प्रमाण-पत्र न करने से पूर्व कम्पनी को कोई लाभ होता है, तो वह कार्यालय के पर्व नातों है, तो वह कार्यालय के पूर्व लाभ (Profit prior to incorporation) कहलाता।

प्रवर्तक (promoters) एक व्यापार के विक्रेताओं (vendors) से समझौता कर लेते हैं। है। जब कम्पनी के प्रवर्तक (promoters) एक व्यापक समायोजन से पूर्व व्यापार में लाभ कमाते रहते हैं, तो ऐसा लाभ वैधानिक दष्टि से अंशधारियों। और कम्पनी के समायोजन से पूर्व व्यापार में लाभ कम कर्ता है। हां, इस पूजी-लाभ का उपयोग अग्रांकित कार्यों के लिए किया जा सकता है। में नहीं बांटा जा सकता है। हां, इस पूंजी-लाभ

(1) विक्रेताओं (vendors) को देय राशि पर ब्याज के भुगतान के लिए। ऐसे व्याज का गणना समामेलना की तारीख तक होनी चाहिए।

(2) यदि विक्रेताओं से ख्याति प्राप्त की गयी हो तो ख्याति के अपलिखित करने के लिए।

(3) शेष रकम का उपयोग स्थायी सम्पत्तियों की कमी के पूर्वोपाय के लिए हो सकता है।

(4) अन्त में शेष रकम पंजी संचय खाते (Canital Reserve Account) में हस्तान्तरित कर दी जाती है।।

समामेलन या कार्यारम्भ के पूर्व लाभ की गणना करने की कठिनाई होती है, विशेषकर तब जबकि एक चालू व्यापार से प्राप्त करते समय उसके खाते तैयार नहीं किये जाते है। ऐसी अवस्था में इन लाभों को व्यापार के पूर्व तथा पश्चात् की दो अवधियों में विभक्त कर दिया जाता है। इस विभाजन का आधार नीचे दिया जाता है :

(क) कुल लाभ (gross profit) का विभाजन दोनों अवधियों में की गयी बिक्री (turnover) के आधार

पर किया जाता है।

(ख) प्रत्येक खर्चा: जैसे विज्ञापन, कमीशन, आदि के लिए भी बिक्री का ही आधार अपनाया जाता है।

(ग) अप्रत्यक्ष खों; जैसे वेतन, किराया, कर, आदि के लिए अवधि के समय का आधार प्रयोग में लाया जाता है। यदि समामेलन से पूर्व व्यापार में कुछ हानियां होती हैं, तो इसे :

(क) ख्याति खाते (Goodwill Account) में डेबिट कर दिया जाता है, अथवा

(ख) उचन्ती खाते (Suspense Account) में हस्तान्तरित कर दिया जाता है जिसे पूंजी-लाभ या अंशों। या ऋणपत्रों के निर्गमन पर प्राप्त अधिमूल्य या अंश हरण खाते (Forfeited Shares Account) की रकम में से अपलिखित कर दिया जाता है।

अंकेक्षक के कर्तव्य (1) अंकेक्षक को इस लाभ के निकालने की विधि की जांच करनी चाहिए और यह देखना चाहिए कि इस कार्य में उचित सिद्धान्तों को अपनाया गया है।

(2) यह देखना चाहिए कि इस लाभ को अंशधारियों में बांटा गया है, अथवा इसका उपयोग ऊपर वर्णित कार्यों के लिए किया गया है।

Alteration Share Capital Study

प्रबन्धन

(MANAGEMENT)

कम्पनियों के प्रबन्धन से अब शामिल है (1) संचालक, (2) प्रबन्ध संचालक, (3) प्रबन्धक, (4) विधि परामर्शदाता और (5) अंकेक्षक ये सभी संचलक मण्डल के नियन्त्रण एवं निर्देशन में कार्य करते हैं, और प्रबन्धन के अधीनस्थ होते हैं।

कम्पनी अधिनियम, 2013 की धाराएं 149, 151 से 165, 167 से 169 इनकी नियुक्ति, अधिकारों एवं कर्तव्यों, पारिश्रमिक आदि से सम्बन्धित हैं।

Alteration Share Capital Study

संचालक

(Directors)

नियुक्ति धारा 149 के अनुसार प्रत्येक सार्वजनिक कम्पनी में कम से कम तीन और निजी कम्पनियों में कम-से-कम दो संचालक, एक व्यक्ति कम्पनी में एक संचालक होने चाहिए। संचालक बोर्ड के अतिरिक्त एक कम्पनी नीचे लिखे व्यक्तियों में से किसी को अपने व्यापार के दैनिक प्रशासन (day-to-day administration) के लिए नियुक्त कर सकती है।

नोटइस उपधारा के लिए एक लघु अंशधारी वह है जो ऐसी सार्वजनिक कम्पनी में 20,000 ₹ या। कम के अंशों का धारक हो।

(क) प्रबन्ध-संचालक या संचालक (Managing Director or Wholetime Director); और

(ख) प्रबन्धक (Manager)

संचालक और प्रबन्धक सदैव व्यक्ति ही हो सकते हैं।

किसी कम्पनी में अधिकतम 15 संचालक हो सकते हैं, परन्तु कम्पनी विशेष प्रस्ताव के द्वारा 15 से भी अधिक संचालक नियुक्त कर सकती है।

महिला संचालक ऐसा कम्पनी जिसकी चुकता अंशपूंजी एक सौ करोड़ ₹ अथवा अधिक हो, अथवा जिसका वार्षिक आवते तीन सौ करोड़ र अथवा अधिक हो, कम-से-कम एक महिला संचालक का काला अपेक्षित है।

स्वतंत्र संचालक प्रत्येक सूचीकृत कम्पनी के कल संचालकों की संख्या का एक तिहाई भाग स्वतत्र संचालकों का होगा और केन्द्रीय सरकार की किसी सार्वजनिक कम्पनी के लिए न्यूनतम स्वतंत्र संचालका का। संख्या का निर्धारण कर सकती है। जिनकी चुकता अंश पूंजी 100 करोड़ र अथवा अधिक हो अथवा उनका आवर्त 300 करोड़ अथवा अधिक हो अथवा ऐसी सार्वजनिक कम्पनी जिसकी अदत्त उधार अथवा ऋण राशि अथवा ऋणपत्र अथवा निक्षेप 200 करोड़ से अधिक हो।।

किसी कम्पनी के सम्बन्ध में स्वतंत्र संचालक का आशय ऐसे संचालक से है जो प्रबन्ध संचालक अथवा पूर्णकालीन संचालक अथवा नामित संचालक नहीं हो :

(1) जो संचालक मण्डल की राय में निष्ठावान व्यक्ति है और जिसे सम्बन्धित अनुभव एवं विशेषज्ञता प्राप्त है।

(2) जो कम्पनी का उसकी सहायक अथवा एसोशियेट कम्पनी अथवा सूत्रधारी कम्पनी का प्रवर्तक नहीं है। (3) जिसका कम्पनी से कोई अर्थिक सम्बन्ध नहीं है।

स्वतंत्र संचालक का कार्यकाल सतत पांच वर्ष का हो सकता है और विशेष प्रस्ताव द्वारा पूनर्नियुक्त किया जा सकता है। स्वतंत्र संचालक एक कम्पनी में दो अवधियों से अधिक पद धारण नहीं करेगा, परन्तु तीन वर्ष के अन्तराल के बाद पुनर्नियुक्ति के लिए योग्य हो सकता है।

लघु अंशधारियों द्वारा संचालक की नियुक्ति किसी सूचीकृत कम्पनी के यहां एक ऐसा संचालक हो सकता है, जो लघु अंशधारियों द्वारा निर्धारित अवधि के लिए एवं विधि अनुसार नियुक्त किया गया हो।

प्रत्येक संचालक की नियुक्ति कम्पनी की साधारण सभा में की जाएगी और नियुक्ति से पूर्व उसके पास “संचालक पहचान संख्या (DIN)” का होना आवश्यक है।

स्वीकृति-संचालक रूप में नियुक्त कोई व्यक्ति अपना कार्यभार ग्रहण करने से पूर्व संचालक के रूप में कार्य करने की अपनी स्वीकृति निर्धारित प्रारूप में प्रदान करेगा जिसे नियुक्ति के तीस दिन के अन्दर रजिस्ट्रार के पास दाखिल कर दिया जाएगा।

संचालक के कर्तव्य कम्पनी अधिनियम के अनुसार कम्पनी के व्यापार का प्रबन्ध उसके संचालकों द्वारा किया जायगा. इसलिए संचालक कोई भी कार्य कर सकते है जब तक कि कम्पनी के अन्तर्नियम इस सम्बन्ध में कुछ प्रतिबन्ध न लगायें।

कम्पनी के संचालकों की दो प्रकार की स्थिति है—एक ओर वे कम्पनी की सम्पत्ति तथा धन के प्रन्यासी Trustees) हैं और दूसरी ओर कम्पनी के एजेण्ट है।’ प्रन्यासी होने के नाते उन्हें कम्पनी की सम्पत्ति तथा धन का सदपयोग करना चाहिए और ऐसे ही एजेण्ट की हैसियत से उन्हें अपने मालिक के हितों की रक्षा करनी चाहिए। कम्पनी के साथ वे ऐसे प्रसंविदे नहीं कर सकते हैं जिनमें उनका कोई हित होता है। धारा 301 के अनसार कम्पनी को उन प्रसंविदों के लिए जिनमें उसके संचालक हित रखते हैं. एक या अधिक रजिस्टर रखने होते हैं जिनको अंशधारियों के निरीक्षण के लिए कभी भी उपलब्ध किया जा सकता है।

धारा 179 के अनुसार एक कम्पनी के संचालक अपनी सभा में प्रस्ताव पास करके कम्पनी के लिए। नीचे लिखे अधिकारों का प्रयोग कर सकते हैं :

(क) अंशधारियों से याचना करना;

(ख) ऋणपत्रों का निर्गमन करना;

(ग) अन्य साधन से धन का उधार लेना;

(घ) कम्पनी के कोषों का विनियोग करना; और

(ङ) ऋण देना।

लेकिन बोर्ड की सभा में प्रस्ताव पास करके संचालक ग, घ तथा कु में वर्णित अधिकारी को बोर्ड द्वारा अवाशत सीमाओं तथा शर्तों के आधार पर नीचे लिखे व्यक्तियों या कमेटियों को दे सकते हैं।

(क) संचालकों की कोई कमेटी;

(ख) प्रबन्ध-संचालक; और

(ग) प्रबन्धक या कम्पनी का अन्य प्रमुख अधिकारी

(घ) कम्पनी की शाखा के सम्बन्ध में प्रमुख अधिकारी

धारा 180 के अनुसार कम्पनी की साधारण सभा से प्राप्त स्वीकृति के बिना संचालक निम्नलिखित कार्य नहीं कर सकते हैं:

(क) कम्पनी के सम्पूर्ण व्यवसाय की बिक्री करना, पट्टे पर देना या अन्य प्रकार से किसी को सौंप देना;

(ख) संचालक को दिए गये ऋणों के भुगतान के लिए समय देना;

(ग) कम्पनी की प्रदत्त-पूजी (paid-up capital) तथा स्वतन्त्र संचय (free reserve) से अधिक उधार लेना,

(घ) किसी सम्पत्ति को बिक्री से प्राप्त राशि को प्रन्यास-पत्रों (trust securities) के अतिरिक्त किसी अन्य प्रकार से विनियोग करना, और

(ङ) किसी दान या कल्याण कोष में पिछले तीन वर्षों के औसत शुद्ध लाभ के 5% में जो अधिक हो. उससे अधिक रकम न देना।

धारा 185 के अनुसार :

(क) संचालक मण्डल की अनुमति के बिना, कम्पनी का संचालक सामान, माल या सेवा के देने या क्रय-विक्रय या कम्पनी के अंशों या ऋणपत्रों के अभिगोपन के लिए कम्पनी से प्रसंविदा नहीं करेगा।

(ख) प्रत्येक संचालक को किसी प्रसंविदे में अपने निहित स्वार्थ की घोषणा संचालक-मण्डल की बैठक में करनी होगी।

(ग) ये प्रतिबन्ध प्राइवेट कम्पनी के लिए लागू नहीं होते हैं।

अंकेक्षक के कर्तव्य (1) अंकेक्षक को यह देखना चाहिए कि संचालकों ने ऐसे प्रसंविदे तो नहीं किये हैं। जिनके लिए उन्हें अन्तर्नियम, संचालक मण्डल या विधान के द्वारा अधिकार प्राप्त नहीं हैं।

(2) संचालकों की बैठक की मिनट-बुक देखकर इस बात की जानकारी करनी चाहिए कि उस संचालक ने, जिसने कोई प्रसंविदा किया है, अपने स्वार्थ की घोषणा बैठक में कर दी है अथवा नहीं।

(3) अंकेक्षक को प्रसंविदे के रजिस्टर की जांच करनी चाहिए।

(4) उसे यह देखना चाहिए कि विधान के द्वारा संचालकों के अधिकारों पर लगाये हुए प्रतिबन्धों का उल्लंघन तो नहीं किया गया है।

(5) कम्पनी के अन्तर्नियम देखकर यह जानकारी करनी चाहिए कि संचालकों ने अपने योग्यता अंश (qualification shares) प्राप्त कर लिये हैं, अथवा नहीं।

Alteration Share Capital Study

संचालकों का पारिश्रमिक

(DIRECTORS’ REMUNERATION)

कम्पनी के संचालक तब तक पारिश्रमिक प्राप्त करने के अधिकारी नहीं होते हैं, जब तक उनका कम्पनी से समझौता न हुआ हो, या कम्पनी के अन्तर्नियमों में पारिश्रमिक भुगतान की व्यवस्था न की गयी हो, अथवा। अंशधारियों ने साधारण सभा में पारिश्रमिक के भुगतान के लिए निर्णय न किया हो। साधारण रूप से कम्पनी के अन्तर्नियमों में संचालकों को पारिश्रमिक देने की व्यवस्था की जाती है।

धारा 197 की कुछ शर्ते (1) कम्पनी के संचालकों को देय पारिश्रमिक कम्पनी के अन्तर्नियमों या साधारण सभा में पास किये प्रस्ताव से विधान की धारा 197 के अनुसार निर्धारित किया जायेगा।

एक निश्चित प्रतिशत अथवा दोनों के रूप में पारिश्रमिक दिया

(2) एक संचालक उसके द्वारा बोर्ड या कमेटी की बैठकों में उपस्थिति के आधार पर अपना पारिश्रमिक प्राप्त कर सकता है, मासिक वेतन के रूप में नहीं।

(3) एक प्रबन्ध-संचालक या पूर्णकालीन संचालक (managing director or wholeir को मासिक वेतन या कम्पनी में शुद्ध लाभ पर एक निश्चित प्रतिशत अथवा दोनों के रूप मपार जा सकता है। ऐसा पारिश्रमिक एक संचालक के लिए कम्पनी के शद्ध लाभ के 5 प्रतिशत स आवक और यदि एक से अधिक संचालक हों तो उन सभी के लिए 10 प्रतिशत से अधिक न हागा। इसस आवक भूगतान के लिए केन्द्रीय सरकार की स्वीकृति आवश्यक है।

(4) एक संचालक को जो न तो प्रबन्ध संचालक है और न ही पूर्णकालीन संचालक (wholetime director) कम्पनी विशेष प्रस्ताव के द्वारा नीचे लिखी दरों के आधार पर पारिश्रमिक दे सकती है।

(क) कम्पनी के शुद्ध लाभ के 1 प्रतिशत से अधिक कमीशन न देना. जब कम्पनी में प्रबन्धक या पूर्णकालीन संचालक, या प्रबन्धक हों, और

(ख) अन्य परिस्थितियों में कम्पनी के शुद्ध लाभ का 3 प्रतिशत से अधिक कमीशन न देना।। कम्पना साधारण सभा में केन्द्रीय सरकार की अनुमति से इन दरों में वृद्धि कर सकती है।

(5) एक संचालक जो कम्पनी से कमीशन प्राप्त करने का अधिकारी है या जो प्रबन्धक या पूर्णकालीन संचालक है, कम्पनी की सहायक कम्पनी से पारिश्रमिक प्राप्त करने का अधिकारी नहीं होता है।

(5A) यदि कोई संचालक प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से केन्द्रीय सरकार की वांछित स्वीकृति के बिना। निर्धारित सीमा से अधिक पारिश्रमिक ले लेता है, तो वह ऐसी राशि को कम्पनी को वापस करेगा।।

(5B) कम्पनी ऐसी किसी राशि को केन्द्रीय सरकार की अनुमति के बिना परिवर्तित नहीं करेगी।।

(6) संचालकों का देय पारिश्रमिक केन्द्रीय सरकार की स्वीकृति के बिना बढ़ाया नहीं जा सकता है।

(7) इस कार्य के लिए कम्पनी के शुद्ध लाभ की गणना धारा 198 में से निर्धारित शर्तों के अनुसार की जायेगी।

यदि कोई संचालक निर्दिष्ट राशि से अधिक पारिश्रमिक ले लेता है, तो उसे अधिक राशि कम्पनी को वापस करनी होगी।

अंकेक्षक के कर्तव्य (1) संचालकों के पारिश्रमिक के लिए अंकेक्षक को उनके साथ किये गये समझौते या अन्तर्नियम या अंशधारियों की मिनट-बुक का निरीक्षण करना चाहिए।

(2) यदि पारिश्रमिक संचालक मण्डल की बैठक में उपस्थिति के आधार पर दिया जाता है. संचालकों की मिनट-बुक देखकर संचालकों की उपस्थिति का पता लगाना चाहिए। अन्तर्नियम देखकर प्रत्येक उपस्थिति के लिए दी जाने वाली फीस की दर का पता लगाना चाहिए।

(3) पारिश्रमिक के भुगतान की रकम का प्रमाणन आवश्यक प्रमाणकों की सहायता से करना चाहिए। कि

(4) यदि शद्ध लाभ के आधार पर निर्धारित कमीशन के रूप में पारिश्रमिक दिया जाता है, तो यह देखना चाहिए कि शुद्ध लाभ धारा 198 के नियमों के अनुसार निकाला गया है, या नहीं।

यह कमीशन निर्धारित राशि से अधिक दिया गया है तो इसके लिए विशेष प्रस्ताव पास किया गया है अथवा नहीं। उसे केन्द्रीय सरकार की स्वीकृति की जांच करनी चाहिए।

(5) यदि किसी संचालक को कोई विशेष पारिश्रमिक दिया गया है, तो अंकेक्षक को संचालकों की मिनट-बक देखनी चाहिए और ऐसे संचालकों से प्राप्त रसीद से भुगतान का प्रमाणन करना चाहिए।

(6) यदि संचालकों ने पारिश्रमिक न लेने का निश्चय किया हो, तो अंकेक्षक को संचालकों की बैठक पास किये गये प्रस्ताव को देखना चाहिए। यह भी देखना चाहिए कि उस बैठक में सब संचालक उपस्थित थे,अथवा नहीं।

(7) संचालक बैठक में भाग लेने के लिए यात्रा-व्यय प्राप्त करने के अधिकारी नहीं होते है जब कम्पनी के अन्तर्नियम अनुमति न दें। यदि अन्तर्नियमों में कुछ नियम न हो, तो अंशधारी ऐसे भुगतान प्रस्ताव पास कर सकते हैं। हां, यदि कम्पनी के काय क लिए यात्रा का गया हो, तो संचालकगण ऐसे भुगतान की स्वीकृति दे सकते हैं।

(8) अंकेक्षक को संचालकों की मिनट-बुक की जांच करनी चाहिए और संचालक से प्राप्त रसीद से इस रकम का प्रमाणन करना चाहिए।

(9) अंकेक्षक को पस्तकों के लेखों की जांच करनी चाहिए। यह भी देखना चाहिए कि यदि चिट दिन तक पारिश्रमिक का भगतान नहीं किया गया है, तो यह चिट्ठ में दायित्व की ओर दिखाया गया अथवा नहीं।

Alteration Share Capital Study

अंकेक्षण समिति

(AUDIT COMMITTEE)

कम्पनी अधिनियम, 2013 की धारा 177 के अनुसार

(1) प्रत्येक सूचीकृत कम्पनी एवं सार्वजनिक कम्पनी (public company) को जिसकी प्रदत्त पूंजी 2 करोड़ ₹ से कम न हो अथवा अदत्त ऋण अथवा उधार अथवा ऋण पत्रों की राशि 100 करोड़ से कम नहीं हो। बोर्ड की एक समिति अंकेक्षण समिति के नाम से बनानी होगी जिसमें 3 संचालकों से कम नहीं होंगे। अथवा ऐसी संख्या हो जिसे संचालक मण्डल तय करे, जिसके दो-तिहाई सदस्य संचालक हो लेकिन प्रबन्ध या पूर्णकालीन संचालक नहीं होने चाहिए।

(2) बोर्ड के द्वारा निर्धारित लिखित शर्तों के अनुसार प्रत्येक अंकेक्षण समिति का निर्माण होगा।

(3) अंकेक्षण समिति के सदस्य स्वयं में से किसी को चेयरमैन के रूप में चयन करेंगे।

(4) कम्पनी की वार्षिक रिपोर्ट में अंकेक्षण समिति के निर्माण का विवरण दिया जाएगा।

(5) अंकेक्षक, आन्तरिक अंकेक्षक, यदि कोई हो तथा वित्त का इंचार्ज संचालक अंकेक्षण समिति की बैठकों में भाग लेंगे लेकिन उन्हें वोट देने का अधिकार नहीं होगा।

(6) अंकेक्षण समिति आन्तरिक नियन्त्रण पद्धति, अंकेक्षण का क्षेत्र, अंकेक्षकों की आख्याएं तथा छमाही व वार्षिक विवरण-पत्रों के सम्बन्ध में समय-समय पर अंकेक्षकों से विचार-विमर्श करने के पश्चात् बोर्ड को रिपोर्ट प्रस्तुत करेगी तथा यह भी देखेगी कि आन्तरिक नियन्त्रण पद्धति के सम्बन्ध में परिपालन हुआ है अथवा नहीं।

(7) अंकेक्षण समिति इस धारा में वर्णित किसी भी विषय की जांच का अधिकार रखती है तथा कम्पनी के लेखों व लेखों के अनुरूप सूचना की उपलब्धता रखने का अधिकार रखती है।।

(8) वित्तीय प्रबन्ध व अंकेक्षण रिपोर्ट में वर्णित मामलों का क्रियान्वयन बोर्ड को करना होगा।

(9) यदि बोर्ड अंकेक्षण समिति की सिफारिशों को स्वीकार नहीं करता है तो वह उन कारणों को नोट करके अंशधारियों को सूचित करेगा।

(10) अंकेक्षण समिति का चेयरमैन कम्पनी की वार्षिक साधारण सभा में उपस्थित होगा और अंकेक्षण। सम्बन्धी मामलों में अपना स्पष्टीकरण देगा।

Alteration Share Capital Study

प्रबन्ध संचालक

(MANAGING DIRECTOR)

यदि कम्पनी के अन्तर्नियम अनुमति दें तो केन्द्रीय सरकार की अनुमति से एक कम्पनी अपनी साधारण। सभा में या संचालक मण्डल की बैठक में प्रस्ताव पास करके दैनिक कार्य की देखभाल करने के लिए संचालका में से किसी एक को प्रबन्ध संचालक नियुक्त कर सकती है। धारा 196 के अनुसार, कोई कम्पनी एक बार मा पांच वर्ष से अधिक की अवधि के लिए ऐसे प्रबन्ध संचालक की नियक्ति नहीं कर सकती है। ऐसे प्रबन्ध संचालक को देय पारिश्रमिक की राशि मासिक भुगतान के आधार पर या लाभ के प्रतिशत के रूप में या आंशिक रूप में दोनों देय होगी जो कम्पनी के शुद्ध लाभ के 5 प्रतिशत से अधिक नहीं होगी। लेकिन यदि एक से आधक। प्रबन्ध संचालक हैं, तो यह राशि शुद्ध लाभ के 10 प्रतिशत से अधिक नहीं होनी चाहिए। इससे अधिक का राशि के भुगतान के लिए केन्द्रीय सरकार की स्वीकृति लेनी होगी।

अंकेक्षक के कर्तव्य-(1) अंकेक्षक को अन्तर्नियम की जांच करनी चाहिए और संचालकों की बैठक का मिनट-बुक देखनी चाहिए जिससे प्रबन्ध संचालक की नियुक्ति तथा पारिश्रमिक के औचित्य का पता लगा सका।

(2) यह देखना चाहिए कि केन्द्रीय सरकार की स्वीकृति प्राप्त कर ली गयी है या नहीं।

(3) पारिश्रमिक की रकम के भुगतान के लिए रसीदों की जांच करनी चाहिए तथा उनकी सहायता से लेखों का प्रमाणन करना चाहिए।

(4) उसे यह देखना चाहिए कि शद्ध लाभ की राशि की गणना धारा 198 के अनुसार ठीक प्रकार का गयी है।

(5) यह देख लेना चाहिए कि प्रबन्ध-संचालक को किसी सहायक कम्पनी से तो कोई पारिश्रमिक नहीं मिलता है।

एक प्रबन्ध संचालक सहायक कम्पनी से कोई पारिश्रमिक प्राप्त करने का अधिकारी नहीं होता है।।

संचालकों के लिए ऋण या गारण्टी

धारा 185 की व्यवस्था के अनुसार कोई भी कम्पनी केन्द्रीय सरकार की पूर्व-अनुमति के बिना प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से न तो संचालकों को ऋण देगी और न किसी अन्य व्यक्ति के द्वारा दिये गये ऋण के लिए उनकी ओर से गारण्टी या ऋण के सम्बन्ध में जमानत देगी। वैसे ही न किसी अन्य व्यक्ति को निम्नलिखित की ओर से गारण्टी या जमानत देगी:

(क) उधार देने वाली कम्पनी या उसकी सूत्रधारी कम्पनी के संचालक या ऐसे संचालक का रिश्तेदार या कोई साझेदार,

(ख) कोई फर्म जिसमें ऐसा संचालक या रिश्तेदार साझेदार है।

(ग) कोई निजी कम्पनी (Private company) जिसका यह संचालक या सदस्य है।

(घ) कोई समामेलित संस्था, जिसकी साधारण सभा में मतदान की 25% की शक्ति ऐसे संचालक या संचालकों से नियन्त्रित की जाती है।

(ङ) समामेलित संस्था जिसका बोर्ड, प्रबन्ध संचालक या मैनेजर ऋणदाता कम्पनी के बोर्ड, संचालक या संचालकों के निर्देशों के अनुसार कार्य करते हों।

यह व्यवस्था नीचे लिखी संस्थाओं के द्वारा दिये गये ऋण, गारण्टी या जमानत के लिए लागू नहीं होती है  

(क) प्राइवेट कम्पनी (किसी सार्वजनिक की सहायक कम्पनी न हो) अथवा बैंकिंग कम्पनी।

(ख) कोई ऋण जो सूत्रधारी कम्पनी के द्वारा सहायक कम्पनी को दिया गया हो, अथवा एक कम्पनी के द्वारा ऐसी कम्पनी को जो किसी अन्य कम्पनी की प्रबन्ध अभिकर्ता या सचिव या खजान्ची है।

(ग) सूत्रधारी कम्पनी से इसकी सहायक कम्पनी को किसी ऋण (loan) के लिए गारण्टी या जमानत दी गई हो अथवा एक कम्पनी के द्वारा ऐसी कम्पनी को जो किसी अन्य कम्पनी की प्रबन्ध-अभिकर्ता या सचिव या खजान्ची हो, ऋण के लिए अन्य कम्पनी को गारण्टी या जमानत दी गई हो।

अंकेक्षक के कर्तव्य (1) अंकेक्षक को यह देखना चाहिए कि संचालकों को ऋण अधिनियम की परिधि के अन्तर्गत दिये गये हैं।

(2) उसको ब्याज की दर का सत्यापन करना चाहिए।

(3) यह देखना चाहिए कि ऐसे ऋण चिढ़े के सम्पत्ति पक्ष में स्पष्ट रूप से लिखे गये हैं। यदि संचालकों ने ऐसे ऋणों का भुगतान कम्पनी को कर दिया है, तो यह तथ्य चिट्ठे के नीचे foot-note के रूप में स्पष्ट लिख देना चाहिए।

(4) यदि संचालक ने कोई ऋण कम्पनी को दिया है तो यह अलग से चिढ़े के दायित्व पक्ष में लिखा जाना चाहिए। अंकेक्षक को इसका सत्यापन करना चाहिए तथा यह विश्वास कर लेना चाहिए कि कम्पनी को एसा ऋण लेने का अधिकार है तथा ब्याज की दर सामान्य है।

Alteration Share Capital Study

प्रबन्धक

(MANAGER)

प्रबन्धक एक व्यक्ति हो सकता है जो संचालक मण्डल के नियंत्रण एवं निर्देशन में कार्य करता है जिसके पास कम्पनी की सम्पूर्ण अथवा लगभग सम्पूर्ण गतिविधियों का प्रबन्धन करता है, इसमें शामिल है कोई संचालक अथवा अन्य कोई व्यक्ति जिसके पास प्रबन्धक की स्थिति हो चाहे किसी भी नाम से जाना जाए,चाहे अनुबन्धाधीन हो अथवा नहीं हो।

कोई कम्पनी किसी प्रबन्धक प्रबन्ध संचालक अथवा पूर्णकालीन संचालक की नियुक्ति अथवा नियोजन। अथवा नियुक्ति की निरन्तरता किसी ऐसे व्यक्ति की नहीं करेगी ।

(1) 21 वर्ष से कम अथवा 70 वर्ष से अधिक है (बिना विशेष प्रस्ताव के):

(2) अमुक्त दिवालिया है अथवा पिछले पांच वर्षों में कभी दिवालिया घोषित किया गया था: अथवा

(3) जिसने वर्तमान में अथवा पिछले पांच वर्षों में अपने लेनदारों के भुगतान को लम्बित किया हो अथवा लेनदारों के साथ पिछले पांच वर्षों में कोई समझौता किया हो, अथवा

(4) पिछले पांच वर्षों में किसी न्यायालय द्वारा भारत में नैतिक अपराध का दोषी पाया गया हो। कोई कम्पनी एक ही समय पर प्रबन्ध संचालक एवं प्रबन्धक नियुक्त नहीं करेगी।

अंकेक्षक का कर्तव्य(1) सुनिश्चित करना चाहिए कि प्रासंगिक प्रावधानों की अनुपालना की गयी है।

(2) अनुबन्धों का परीक्षण करना चाहिए।

(3) भुगतानों का सत्यापन रसीदों के साथ करना चाहिए।

(4) कुल प्रबन्धकीय पारिश्रमिक शुद्ध लाभ के 11% से अधिक होता है केन्द्रीय सरकार से प्राप्त अनुमोदन का परीक्षण करना चाहिए।

नामांकन एवं पारिश्रमिक समितिसंचालक मण्डल नामांकन एवं पारिश्रमिक समिति का गठन करेंगे जिसमें न्यूनतम तीन गैर कार्यकारी संचालक होंगे जिसके न्यूनतम आधे स्वतंत्र संचालक होंगे।

[धारा 178]

Alteration Share Capital Study

समिति ऐसे व्यक्तियों को चिह्नित करेगी जो संचालक बनने के योग्य हैं और जिन्हें उच्च प्रबन्धनीय स्थिति के लिए निर्धारित मानदण्डों के अनुसार नियुक्त किया जा सकता है। समिति संचालक मण्डल को ऐसी नियुक्तियों एवं पदत्याग के लिए संसुस्ति करेगी और प्रत्येक संचालक के कार्यों का मूल्यांकन करेगी।

यह समिति ऐसे मानदण्ड निर्धारित करेगी जो संचालकों की योग्यताएं, सकारात्मक रुझान एवं संचालकों की स्वतंत्रता से सम्बन्धित हैं और संचालक मण्डल को ऐसी नीति की संसुस्ति करेगी जो संचालकों एवं प्रमुख प्रबन्धकीय अधिकारियों के पारिश्रमिक से सम्बन्धित है।

हितधारियों से सम्बन्ध समिति (Skkeholders Relationship Committee)-ऐसी कम्पनी का संचालक मण्डल, जिसके एक हजार से अधिक अंशधारी, ऋणपत्रधारी, निक्षेपकर्ता और अन्य प्रतिभूतियों के धारक वर्ष में किसी भी समय रहे हैं, एक हितधारी सम्बन्ध समिति का गठन करेगा जिसका अध्यक्ष गैर-कार्यकारी संचालक होगा और अन्य सदस्य जैसाकि बोर्ड निश्चित करे। यह समिति कम्पनी की प्रतिभूतिधारकों की शिकायतों का समाधान कराएगी।

निगमीय सामाजिक उत्तरदायित्व (Corporate Social Responsibility) ऐसी प्रत्येक कम्पनी के लिए। जिसकी नेटवर्थ पांच ₹ से करोड़ या अधिक अथवा जिसका आवर्त एक हजार करोड़ र अथवा शुद्ध लाभ पांच करोड र अथवा अधिक हो अपने निगमीय सामाजिक उत्तरदायित्व समिति का गठन करेगी जिसमें न्यूनतम। तीन संचालक होंगे उसमें से एक स्वतंत्र संचालक अवश्य होगा।

यह समिति ऐसी नीति का निरूपण करके बोर्ड को संसुस्ति के लिए प्रस्तुत करेगी जिसमें अनुसूची VII में वर्णित सामाजिक गतिविधियों का कम्पनी द्वारा क्रियान्वयन प्रस्तावित किया गया होगा और इस उद्देश्य के लिए व्यय की जाने वाली राशि की भी संसुस्ति करेगी।

यदि कम्पनी ऐसी राशि व्यय करने में असफल रहती है संचालक मण्डल अपनी वार्षिक रिपोर्ट में उन कारणों का उल्लेख करेगा जिनसे ऐसी राशि व्यय नहीं हो सकी। ।

लाभ का 2% सामाजिक उत्तरदायित्व का व्यय कम्पनी के विगत तीन वित्त वर्षों के औसत शुद्ध लाभ का न्यूनतम 2% प्रत्येक वित्त वर्ष में सामाजिक उत्तरदायित्व के वहन में व्यय किया जाना चाहिए। यान कम्पनी ऐसी राशि व्यय करने में असफल रहती है संचालक मण्डल अपने वार्षिक प्रतिवेदन में उन कारणा का उल्लेख करेगा जो राशि व्यय नहीं होने के लिए उत्तरदायी रहे हैं।

अंकेक्षक का कर्तव्य अंकेक्षक को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि कम्पनी द्वारा औसत शद्ध लाभ का निधारित 2% राशि सामाजिक कल्याण पर व्यय की गयी है। कम्पनी अधिनियम 2013 की अनसची VII म ऐसी गतिविधियों का उल्लेख है जिनके क्रियान्वयन में ही ऐसी राशि व्यय की जानी चाहिए।

Alteration Share Capital Study

सूत्रधारी और सहायक कम्पनियां

(HOLDING AND SUBSIDIARY COMPANIES)

कम्पनी अधिनियम, 2013 की धारा 2(87) के अनुसार परिभाषायदि एक कम्पना दूसरा के बोर्ड पर नियन्त्रण रखती है, या एक ऐसी कम्पनी के आध से अधिक मत देने का अधिकार रखती है जो एक विद्यमान कम्पनी है और जिसमें इस अधिनियम के शुद्ध होने से पहले पूर्वाधिकार अंशधारियों के समान अधिकार थे, या एक कम्पनी दूसरी कम्पनी के साधारण अंशों के अंकित मल्य (nominal value) के आध साधक की मालिक है,

तो ऐसी कम्पनी को सूत्रधारी कम्पनी (Holding Company) कहते हैं और जिस कम्पनी पर इस प्रकार नियन्त्रण रखा जाता है, वह सहायक कम्पनी होती है।

यदि किसी सूत्रधारी कम्पनी की कोई सहायक कम्पनी है और इस सहायक कम्पनी की भी अन्य सहायक कम्पनियां है, तो पहली कम्पनी इस सहायक कम्पनी की भी सूत्रधारी कम्पनी होगी।।

उदाहरण-(i) यदि ‘अ’ कम्पनी ‘ब’ कम्पनी की साधारण अंश पूंजी के अंकित मूल्य के आधे से अधिक की मालिक है, तो ‘अ’ कम्पनी सूत्रधारी होगी और ‘ब’ कम्पनी सहायक होगी, अथवा

(ii) यदि ‘ब’ कम्पनी ‘अ’ कम्पनी की सहायक है. और ‘स’ कम्पनी ‘ब’ कम्पनी की सहायक है, तो ‘स’ कम्पनी ‘अ’ कम्पनी की सहायक होगी।

संचालक मण्डल के गठन पर नियन्त्रण (Control on the formation of Board or Directors) किसी कम्पनी के संचालकों को नियुक्त करने या हटाने की शक्ति का ज्ञान तब ही होता है, जबकि दूसरी कम्पनी बिना किसी अन्य की सहायता के सभी संचालकों या अधिकांश संचालकों की नियक्ति करने की स्थिति में हो। ऐसी शक्ति रखने की निम्न दशाएं हैं:

(i) कोई व्यक्ति उस समय तक संचालक नहीं बन सकता जब तक कि अन्य कम्पनी अनुमति न दे

 (ii) कोई व्यक्ति उस कम्पनी का संचालक या प्रबन्धक होने के कारण प्रथम कम्पनी का संचालक बन जाता हो।

(iii) जबकि उस अन्य कम्पनी या उसकी किसी सहायक कम्पनी द्वारा नामांकित कोई व्यक्ति संचालक पद पर कार्य कर रहा हो।

दसरी कम्पनी की सहायक बनने के लिए निम्न बातें ध्यान देने योग्य हैं।

(1) वे अंश जो अन्य कम्पनी के पास एक विश्वासाश्रित स्थिति (Fiduciary Capacity) में हों, एक कम्पनी के अधिकार में नहीं जाते।

(2) अंश जो किसी अन्य कम्पनी के लिए किसी नामांकित व्यक्ति के पास हो कम्पनी के अधिकार में ही माने जाएंगे।

(3) अंश जो अन्य कम्पनी की किसी सहायक कम्पनी के लिए नामांकित व्यक्ति के पास हो कम्पनी के अधिकार में माने जाएंगे।

(4) सहायक कम्पनी के ऋणपत्रों की शर्तों के अधीन यदि किसी  के ऋणपत्रों की शर्तों के अधीन यदि किसी व्यक्ति के पास सहायक कम्पनी के अंश होंगे, तो उन पर ध्यान नहीं दिया जाएगा।

(5) यदि किसी कम्पनी ने दूसरी कम्पनी को ऋण दिया है और उसकी पनि तो इन अंशों को कम्पनी के अधिकार में इस उद्देश्य के लिए नहीं माना जाएगा।

भारत के बाहर समामेलित कम्पनी (सूत्रधारी या सहायक)-यदि किसी समाजिक भारत के बाहर हुआ है तो उस संस्था की उस देश के नियमों के अन्तर्गत होगी, वह उस अधिनियम के लिए सूत्रधारी या सहायक कम्पनी मानी जाएगी नारे आवश्यकता की पूर्ति न करती हों।

सूत्रधारी कम्पनी की सदस्यता (Membership of Holding Company) एक सका सूत्रधारा कम्पनी की सदस्य नहीं बन सकती है और एक कम्पनी द्वारा अपनी सहायक कम्पनी क लिए किया गया अंशों का हस्तान्तरण या आबंटन व्यर्थ माना जाता है।।

यह नियम निम्न दशाओं में लागू नहीं होता है :

(1) सहायक कम्पनी के चिट्ठे की प्रतिलिपि,

(2) उसके लाभ-हानि खाते की नकल,

(3) उसके संचालकों के बोर्ड की रिपोर्ट की प्रतिलिपि,

(4) उसके अंकेक्षकों की रिपोर्ट की प्रतिलिपि,

(5) सूत्रधारी कम्पनी का सहायक कम्पनी में निहित स्वार्थ,

(6) सहायक कम्पनी की स्थायी सम्पत्तियों, विनियोग, ऋण, आदि में आये हुए परिवर्तनों को दिखाते हुए परिवर्तनों का विवरण-पत्र, और

(7) एक रिपोर्ट जिसमें यह स्पष्ट किया जाय कि सूत्रधारी कम्पनी का संचालक-मण्डल सहायक कम्पनी के लाभ-हानि के सम्बन्ध में सूचना प्राप्त क्यों नहीं कर सका।

कम्पनी अधिनियम, 2013 की अनुसूची III के अनुसार सूत्रधारी कम्पनी के चिट्टे में प्रत्येक सहायक कम्पनी से सम्बन्धित सूचना पृथक्-पृथक् दी जानी चाहिए।

यदि सहायक कम्पनी का समामेलन भारत के बाहर हुआ है, तो ऐसी सहायक कम्पनी का लाभ-हानि खाता तथा चिट्ठा कम्पनी अधिनियम के अनुसार तैयार किया जाना चाहिए।

सूत्रधारी कम्पनी एक प्रस्ताव के द्वारा अपने प्रतिनिधि को सहायक कम्पनी की पुस्तकों के निरीक्षण का अधिकार दे सकती है।

अंकेक्षक के कर्तव्य (1) अंकेक्षक को यह देखना चाहिए कि धारा 129 की शर्तों का पूर्णतया पालन किया गया है या नहीं।

(2) सूत्रधारी तथा सहायक कम्पनियों के लेखों की जांच सावधानी से करनी चाहिए।

(3) सूत्रधारी कम्पनी के अंकेक्षक को सहायक कम्पनी के चिढ़े तथा लाभ-हानि खाते को देखना चाहिए जिससे वह यह देख सके कि सहायक कम्पनी के लाभ-हानि का विवरण किस हद तक सूत्रधारी कम्पनी के खातों में किया गया है।

(4) यदि सहायक कम्पनी अपनी सूत्रधारी कम्पनी की ऋणी है, तो सूत्रधारी कम्पनी के अंकेक्षक को सहायक कम्पनी के खातों की विशेषतया जांच करनी चाहिए और यह पता लगाना चाहिए कि सहायक कम्पनी । की आर्थिक स्थिति दृढ़ है, अथवा नहीं।

(5) सहायक कम्पनी के अंशों के क्रय के सम्बन्ध में किये गये प्रसंविदों की जांच करनी चाहिए।

(6) यह भी देखना चाहिए कि सहायक कम्पनी के अंशों का क्रय कम्पनी के नाम में किया गया है।।

(7) अन्तर्नियमों की जांच करके सहायक कम्पनी के अंशों के मूल्यांकन का सत्यापन करना चाहिए।

(8) यदि सूत्रधारी व सहायक कम्पनी का एकीकृत चिट्ठा (Consolidated Balance Sheet) बनाया। गया है, तो यह देखना चाहिए कि सम्पत्तियों व दायित्वों का उचित वर्गीकरण, समूहीकरण तथा मूल्यांकन कर लिया गया है।

(9) यह भी देखना चाहिए कि सूत्रधारी कम्पनी ने सहायक कम्पनी की हानियों के लिए व्यवस्था कर ली है अथवा नहीं।

(10) चिट्टे का गहन निरीक्षण करना चाहिए।

वार्षिक खाते

(ANNUAL ACCOUNTS)

धारा 128 के अनुसार कम्पनी के संचालक कम्पनी की वार्षिक साधारण सभा में वर्ष के अन्त में बनाये  गये चिट्ठे और लाभ-हानि खातों को प्रस्तत करते हैं। यदि कम्पनी लाभ के लिए व्यापार का प्रस्तुत करते हैं। यदि कम्पनी लाभ के लिए व्यापार नहीं करती है, तो लाभ-हानि के स्थान पर आय-व्यय खाता (Income and Expenditure Account) प्रस्तुत

वह अवधि जिसके लिए ये खाते तैयार किये जायेंगे. एक वित्तीय वर्ष होगा। एक कल या अधिक न होगा, लेकिन कभी भी 15 महीनों से अधिक नहीं हो सकता है। फिर भी राजस्ट्र अनुमति से इस अवधि को 18 महीने तक बढ़ा सकता है।

धारा 128(3) के अनुसार प्रथम वार्षिक साधारण सभा में रखा जाने वाला लाभ-हानि खाता उस समय तक स सम्बान्धत हागा जो कम्पनी के समामेलन के साथ से प्रारम्भ होगा और उस दिन तक बनेगा जा किसा भी प्रकार सभा के दिन से 9 महीने के पर्व न होगा। सरल शब्दों में, लाभ-हानि खाता बनाने तथा साधारण सभा की तारीखों में 9 महीने से अधिक अन्तर नहीं होना चाहिए।

इसके पश्चात् होने वाली साधारण सभा में रखे जाने वाले लाभ-हानि खातों के बनाये जाने कादन तथा साधारण सभा के दिन में छ: महीने से अधिक अन्तर नहीं होना चाहिए। यदि सभा के लिए कुछ समय का विस्तार (extension) ले लिया गया है, तो छः महीने में इस विस्तार (extension) का समय और जोड़ा जा सकता है।

यदि कम्पनी का कोई संचालक और अन्य कोई अपराधी व्यक्ति इस धारा में दिये हुए नियमों का उल्लंघन करता है तो वह प्रत्येक अपराध के लिए छः महीने तक की सजा या 10,000 रुपये तक जुर्माना या दोनो से दण्डित किया जा सकता है।

नये अधिनियम में चिट्टे से सम्बन्धित निर्देश

(1) जब मदें अधिक हों तथा चिट्ठे के फॉर्म के अनुसार पूरा विवरण देना सम्भव न हो, तो अलग अनुसूची अन्त में नत्थी की जा सकती है।

(2) चिट्ठे में केवल रुपये लिखे जायेंगे।

(3) सूत्रधारी कम्पनी तथा सहायक कम्पनी द्वारा लिए गये अंश अलग-अलग दिखाने चाहिए।

(4) धारा 52 के अनुसार अंश अधिमूल्य खाते में पूरा विवरण सम्मिलित किया जाना चाहिए।

(5) प्रत्येक स्थायी सम्पत्ति के लिए हास अलग-अलग घटाया जायगा। इस प्रकार उनका हासित मूल्य ही दिखाया जायेगा।

(6) चिट्ठे की तिथि के पश्चात् सहायक कम्पनी द्वारा घोषित लाभांश जब तक कि वे उस अवधि के लिए हों जो चिट्ठे की तिथि या इससे पहले समाप्त हुई हो, शामिल नहीं किये जायेंगे।

(7) प्रसंविदा के उन भागों से प्राप्त होने वाला लाभ जो अभी अधूरे हैं, चिट्ठे में नहीं दिखाया जायेगा।

(8) लाभ-हानि खाते की डेबिट बाकी साधारण संचय में से अपलिखित की जायेगी।

(9) भुगतान किये जाने वाले ऐसे ऋणपत्रों का विवरण दिया जाना चाहिए जिनके निर्गमन करने का कम्पनी को अधिकार है।

(10) कम्पनी के प्रन्यासी या नामाकित व्यक्ति के पास जो ऋणपत्र है उनका अंकित मूल्य या वह मल्य जो पूस्तकों में दिखाया गया है, चिट्ठे में दिखाया जाना चाहिए।

(11) चिट्टे के साथ विनियोगों की सूची नत्थी की जानी चाहिए जिसमें व्यापारिक विनियोग व अन्य विनियोग अलग-अलग दिखाये जाने चाहिए।

(12) यदि किसी चालू सम्पत्ति या आग्रम या ऋण का चिट्ठ में दिखाया हुआ मुल्य संचालकों के विचार से उस मूल्य के बराबर नहीं है जो चिट्ठ के दिन प्राप्त किया जा सकता है, तो संचालकों को अपना यह विचार दिखाना चाहिए।

(13) कम्पनी को पहले चिट्ठ के अतिरिक्त अन्य सभी चिट्ठों में पिछले चिढ़े की रकम दिखानी चाहिए। (14) देनदारों में अग्रिम रुपया सम्मिलित नहीं किया जायगा।

(15) यह आवश्यक है कि ग्रेच्युइटी दायित्व सामान्य रीति से निकाला जाय। उसे चिढ़े में अवश्य दिखाया जाना चाहिए।

सच्चा तथा उचितका दृष्टिकोण

(CONCEPT OF TRUE AND FAIR’)

भारतीय कम्पनी अधिनियम, 1913 के अनसार प्रत्येक कम्पनी के वार्षिक खातों में उसकी ‘सच्ची एवं ठीक  (true and correct) स्थिति प्रकट होनी चाहिए थी, जबकि अब कम्पनी अधिनियम, 1956 के वाषक खातों से कम्पनी के कार्यों की सच्ची एवं उचित(true and fair) स्थिति प्रकट होनी चाहिए। की दृष्टि से यह परिवर्तन अत्यन्त ही महत्वपूर्ण है।

‘ठीक’ (correct) शब्द यह बताता है कि वार्षिक खाते हिसाब-किताब की पुस्तकों के अनुसार हैं और ये खाते पुस्तकों के लेखों का सारांश-मात्र (reproduction) है। इस शब्द के प्रयोग से खातों की अंकीय शुद्धता पर विशेष बल दिया गया है।

जबकि ‘उचित’ (fair) शब्द कम्पनी के आर्थिक कार्यों के उचित प्रतिनिधित्व या नमूने (representation की ओर संकेत करता है। उचित शब्द के प्रयोग से आशय खातो को इस प्रकार प्रस्तुत करना है कि जिससे कम्पनी का चिट्टा उसकी सही आर्थिक स्थिति का तथा लाभ-हानि खाता उसके लाभ का सही तथा उचित चित्र प्रस्तत का सके। यही दोनों में अन्तर है।

अंकेक्षक को यह देखना चाहिए कि हिसाब-किताब एक ऐसा आर्थिक स्वरूप प्रस्तुत करते हैं या नहीं। जो अंशधारियों के लिए उचित है। इसकी जांच के लिए अंकेक्षक को केवल लेखा-पुस्तकों पर ही विश्वास नहीं करना चाहिए वरन् प्रत्येक लेन-देन की पूर्ण जांच करनी चाहिए। _

अब इस प्रकार कम्पनी अपने खाते केवल दिखावट-मात्र (window dressing) के लिए ही नहीं। बनायेगी वरन् उसका सच्चा स्वरूप प्रस्तुत करेगी। इसके पूर्व ये खाते वास्तविक रूप से प्रस्तुत नहीं किये जाते थे वरन् इनमें कम्पनी की स्थिति खराब होते हुए भी उसे अच्छी बनाकर दिखाने का प्रयत्न किया जाता था।

नकारात्मक दृष्टिकोण से ‘सच्चा तथा उचित’ (true and fair) शब्द के दो अर्थ हो सकते हैं:

(1) बाहरी बनावट का न होना (Absence of Window Dressing) यदि कम्पनी के चिढ़े से उसका वास्तविक रूप प्रकट नहीं होता है और सम्पत्तियों का अधिक मूल्य दिखाकर एवं दायित्व को घटाकर बनावटी रूप प्रस्तुत किया जाता है तो यह स्वरूप बनावटी होता है। ‘सच्चा तथा उचित’ (true and fair) शब्द के प्रयोग से कम्पनी की वास्तविक स्थिति प्रस्तुत की जाती है और बाहरी बनावट के लिए स्थान नहीं रहता है।।

(2) गुप्त संचय का होना (Absence of Secret Reserve)—सम्पत्तियों को कम मूल्य पर लिखकर। दायित्वों की रकम अधिक दिखाकर कभी-कभी गुप्त संचय बनाये जा सकते हैं। एक कम्पनी के वार्षिक खाते। उसके कार्यों का ‘सच्चा तथा उचित’ स्वरूप तभी प्रस्तुत कर सकते हैं जबकि गुप्त संचय न बनाये गये हो।

साथ ही साथ ‘सच्चा तथा उचित’ का यह भी तात्पर्य है कि कम्पनी का लाभ-हानि खाता तथा चिट्टा वर्ष प्रतिवर्ष अपनाये गये लेखाकर्म के स्थायी सिद्धान्तों के आधार पर ही बनाये जाने चाहिए। इसके लिए चार बातों की ओर ध्यान देना आवश्यक है:

(1) स्थायी तथा अस्थायी सम्पत्तियों में उचित अन्तर करना;

(2) पूंजी-व्यय तथा आय व्यय में अन्तर करना;

(3) पूंजी-लाभ तथा आय-लाभ में अन्तर करना और का

(4) अस्थायी सम्पत्तियों के मूल्यों तथा स्थायी सम्पत्तियों के लिए हास की व्यवस्था के लिए लेखाकम के सिद्धान्तों का अनुकरण करना।

अंकेक्षक को यह देखना चाहिए कि सम्पत्ति, दायित्व, आय तथा व्यय सभी इस प्रकार दिखाये गये ह कि कम्पनी के खातों में उसकी वास्तविक स्थिति प्रकट करते हैं, वार्षिक खाते केवल सी रूप में सच्चे तथा उचित नहीं हैं जो वे कुछ प्रकट करते हैं वरन् इस रूप में भी उचित हैं जो वे छिपाते हैं. या जोड़ते हैं। सक्षेंप। में, ये खाते सभी प्रकार से सच्चे या उचित हैं।

नये कम्पनी अधिनियम में कुछ प्रमुख प्रावधान दे दिये हैं जिनका अनसरण करने के वास्तविक खात । कम्पनी की आर्थिक स्थिति का ‘सच्चा एवं उचित’ रूप प्रस्तुत कर सकें।

धारा 128 के अनुसार (1) कम्पनी के हिसाब-किताब की पुस्तकें इस प्रकार रखी जायेंगी कि वे कम्पनी क स्थिति का सच्चा तथा उचित स्वरूप प्रस्तुत कर सकें और उनके लेन-देनों को समझा सकें। यह कि यदि पुस्तकों के द्वारा सच्ची तथा उचित स्थिति प्रकट होगी तो वार्षिक खातों में अवश्य ही वास्तविक मिति प्रकट हो सकेगी क्योकि ये खाते पुस्तकों के आधार पर तैयार किये जाते हैं।

(2) अनुसूची तीन (Schedule III) में वार्षिक खातों के रूप के सम्बन्ध में सूचनाएं दी गयी हैं तथा नतीय भाग में दायित्व’ (liability), आयोजन’ (provision), ‘संचय’ (reserve) और ‘पूंजी संचय Mital reserve) शब्द को परिभाषाएं दी गयी हैं। इन शब्दों की परिभाषा देने से वार्षिक खाते कम्पनी का स्पष्ट तथा सही रूप प्रस्तुत कर सकते हैं। अनुसूची तीन (Schedule III) के अनुरूप दी जाने वाली चिनाएं इतनी पर्याप्त हैं कि उनमें अंशधारियों एवं अन्य व्यक्तियों के सम्मुख कम्पनी की आर्थिक स्थिति का सही रूप प्रस्तुत हो सकता है।

(3) यह अब केन्द्रीय सरकार (विधि, न्याय व कम्पनी कार्य मन्त्रालय) ने स्पष्ट कर दिया है कि चिट्टे में ग्रेच्युइटी दायित्व (gratuity liabilities) अवश्य दिखाया जाना चाहिए अन्यथा कम्पनी का चिट्ठा कम्पनी अधिनियम, 2013 के अनुरूप नहीं माना जायेगा। यदि यह नहीं होगा तो चिट्ठा उचित तथा सच्चा दृष्टिकोण प्रकट नहीं कर सकता है।

कम्पनी के अंकेक्षकों को इस प्रकार के निर्देश दिये गये है कि यदि कम्पनी ग्रेच्युइटी दायित्वों (gratuity liabilities) को अपने चिट्ठे में नहीं दिखाती है, तो उनको इस सम्बन्ध में अपनी रिपोर्ट मर्यादित कर देनी चाहिए।

वार्षिक खातों का रूप तथा विवरण 

(FORM AND CONTENTS OF ANNUAL ACCOUNTS)

कम्पनी के वार्षिक खातों का रूप एवं विवरण कम्पनी अधिनियम की अनुसूची III में दिया गया है. जिसको वित्तीय वर्ष 2014-15 से पूर्णतः संशोधित किया गया है।

संशोधित अनुसूची VI की मुख्य बातें हैं :

(1) संशोधित अनूसूची वित्तीय वर्ष 2011-12 से सभी कम्पनियों पर लागू है, अर्थात् 31 मार्च, 2012 को समाप्त होने वाले वर्ष को कम्पनियों द्वारा वित्तीय विवरण (Financial Statement) इसी संशोधित अनुसूची VI के अनुसार बनाने हैं।

(2) चिट्टे का क्षैतिज प्रारूप विलोपित कर दिया गया है केवल लम्बवत् प्रारूप का ही प्रयोग आगे करना है। (3) भाग II में लाभ-हानि विवरण का प्रारूप निर्धारित किया गया है।

(4) पुरानी अनुसुची का भाग III (निर्वचन) तथा भाग IV (चिट्टे का सारांश आदि) का विलोपन कर

दिया गया है।

(5) अनुसूची III की विषय-सामग्री निम्नवत् है:

(अ) चिट्ठे का प्रारूप (केवल लम्बवत् प्रारूप) और चिट्ठा बनाने हेतु सामान्य अनुदेश (भाग-1),

(ब) लाभ-हानि विवरण का प्रारूप व इसके बनाने के सामान्य अनुदेश (भाग-II),

(स) रोकड़ प्रवाह विवरण।

Alteration Share Capital Study

वार्षिक खातों का प्रमापीकरण

(AUTHENTICATION OF BALANCE SHEET AND PROFIT AND LOSS ACCOUNT)

धारा 134 के अनुसार प्रत्येक कम्पनी के आर्थिक चिट्ठ और लाभ-हानि खाते पर कम-से-कम दो संचालकों. एक प्रबन्ध संचालक होगा, तथा कम्पनी के प्रबन्धक के द्वारा हस्ताक्षर किये जायेंगे। यदि हस्ताक्षर करते समय भारत में केवल एक ही संचालक मौजूद होगा, तो यह संचालक खातों पर हस्ताक्षर करेगा तथा लाभ-हानि तथा चिट्ठ के साथ यह कारण भी लिखना होगा कि उपर्युक्त नियम का पालन क्यों नहीं किया गया है।

संचालकों की रिपोर्ट

(REPORT OF DIRECTORS)

धारा 134 के अनुसार कम्पनी के संचालक कम्पनी के कार्यों के सम्बन्ध में अपनी एक रिपोर्ट तैयार आर उसकी एक प्रति आर्थिक चिट्टे के साथ नत्थी करेंगे। इस रिपोर्ट में प्रमुखतः नीचे दी गयी बातें होंगी।

(1) कम्पनी के कार्यों का विवरण,

(2) रकमें जो चिट्टे में संचयों के लिए प्रस्तावित की गयी हैं, और

(3) लाभांश के रूप में देने के लिए सिफारिश की गयी रकम।

(4) भौतिक परिवर्तन तथा वचनबद्धता, यदि कोई हो, जिससे कम्पनी की वित्तीय स्थिति प्रभावित कर हा जा कम्पनी के वित्तीय वर्ष के अन्तिम दिन जिससे चिट्ठा सम्बन्धित है, तथा रिपोर्ट की तारीख के महा किया गया हो।

(5) शक्ति का संरक्षण (conservation of energy), तकनीक संविलयन (technology absorption). विदेशी विनिमय से आय (foreign exchange earnings) तथा व्यय (outgo) इस रूप में जैसा कि निर्धारित किया जाय।

इस रिपोर्ट पर संचालकों के हस्ताक्षर होंगे या यदि उन्होंने अध्यक्ष (chairman) को हस्ताक्षर करने। का अधिकार दे रखा है, तो उसके हस्ताक्षर होंगे।

कम्पनी अधिनियम, 2013 की धारा 134 के अन्तर्गत संचालकों की रिपोर्ट में संचालकों का दायित्व विवरण (Directors’ responsibility statement) सम्मिलित होगा जिसमें स्पष्ट होगा कि:

(1) वार्षिक खातों के बनाने में लेखाकर्म मानकों (Accounting Standards) का प्रयोग किया गया है।

(ii) संचालकों ने उचित व सही लेखाविधि नीतियों का पालन किया है।

(iii) पर्याप्त लेखाविधि के लेखों के रखने में कम्पनी अधिनियम का उचित व पर्याप्त सावधानी से प्रयोग किया गया है।

(iv) संचालकों ने चालू व्यवसाय के आधार (going concern value) पर वार्षिक खाते तैयार किए  हैं ।

Alteration Share Capital Study

वार्षिक विवरण तथा चिट्टे को फाइल करना

(FILING OF ANNUAL RETURN AND BALANCE SHEET)

धारा 137 के अनुसार प्रत्येक अंश-पूंजी वाली कम्पनी को वार्षिक साधारण सभा होने के 60 दिन के अन्दर आगे लिखी बातों का उल्लेख करते हुए एक विवरण (return) फाइल करना होता है :

(1) रजिस्टर्ड कार्यालय,

(2) सदस्यों का रजिस्टर.

(3) ऋणपत्रधारियों का रजिस्टर,

(4) अंश तथा ऋणपत्र,

(5) ऋणग्रस्तता (indebtedness),

(6) पिछले और वर्तमान सदस्य तथा ऋणपत्रधारी, और

(7) पिछले और वर्तमान संचालक, प्रबन्ध संचालक तथा प्रबन्धक।

धारा 137 के अनुसार प्रत्येक कम्पनी की साधारण सभा में प्रस्तुत करने के 30 दिन के अन्दर वार्षिक विवरण के साथ-साथ कम्पनी के प्रबन्ध संचालक या प्रबन्धक द्वारा प्रमाणित लाभ-हानि खाते. चिट्टे तथा अन्य प्रलेखों (documents) की तीन प्रतियां कम्पनी के रजिस्ट्रार के पास जमा करनी होती हैं।

कम्पनी अधिनियम, 2013 कीधारा 137 में यह प्रावधान किया गया है कि यदि किसी कम्पनी में वाषिक । साधारण सभा नहीं हुई है तो वार्षिक साधारण सभा जिस तारीख तक की जानी चाहिए उसके 30 दिन का अन्दर कम्पनी के रजिस्ट्रार के पास चिट्टे तथा लाभ-हानि खाते की प्रतिलिपियां अवश्य भेजी जानी चाहिए। इस व्यवस्था से अब कम्पनी के अंशधारी तथा लेनदार रजिस्ट्रार के यहां इन्हें देख सकते हैं।

यदि वार्षिक साधारण सभा में वार्षिक खाते स्वीकार न किये गये हों, तो रजिस्टार के पास इन खाता, के साथ वक्तव्य (statement) भा जमा करना होगा जिसमें इन खातों के स्वीकार न किये जाने के कारणा पर प्रकाश डालना होगा।

Alteration Share Capital Study

प्रश्न

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

1 एक नयी स्थापित कम्पनी के अंश पूंजी के खातों का अंकेक्षण आप किस प्रकार करेंगे।

How will you audit the share capital of a newly formed company?

2. अश-हस्तान्तरण के अकक्षण के क्या उद्देश्य हैं? एक कम्पनी के अंश-हस्तान्तरण का अकक्षण किस प्रकार किया जायगा?

What is the object of Audit of Share Transfer? How is audit of share transfer of a company conducted?

3. एक कम्पनी के लाभ-हानि खाते पर अलग दिखायी जाने वाली आठ व्ययों की मदों को बताइए तथा उनमें से। किन्हीं दो का आप किस प्रकार सत्यापन करेंगे? उसका विवरण दीजिए।

Mention any eight items to be shown in the profit & loss account of a company and how will you verify any two them? Explain.

4. पब्लिक कम्पनी की पुस्तकों का अंकेक्षण करते समय निम्न मदों की परिशुद्धता की जांच आप किस प्रकार करेंगे:

While examining the books of accounts of a public company how will you examine the accuracy of following:

(अ) संचालकों का पारितोषक (Remuneration to directors),

(ब) प्रारम्भिक व्यय (Preliminary expenses),

(स) अंशों के निर्गमन पर अपहार (Issue of share at discount)

5. एक कम्पनी के अंकेक्षक के निम्नलिखित बातों के सम्बन्ध में क्या कर्तव्य हैं :

What are the duties of an auditor of a company in respect to following

(अ) आहरित अंश (Forfeited shares),

(ब) पूजी में से व्याज का भुगतान (Payment of interest out of capital),

(स) अंशों का अपहार पर निर्गमन (Issue of share at discount),

(द) अंशों का अधिमूल्य पर निर्गमन (Issue of shares at premium)|

6. निम्नांकित के सम्बन्ध में एक अंकेक्षक के कर्तव्य बताइए ।

Explain the duties of an auditor in respect to :

(क) बोनस अंश का निर्गमन (Issue of bonus share),

(ख) समामेलन से पूर्व लाभ (Profit before incorporation),

(ग) अभिगोपन कमीशन (Underwriting commission),

(घ) अंश-पूंजी का प्रहासन (Calls in advance),

(ङ) याचना पर पेशगी प्राप्ति (Payment of dividend out of capital),

(च) प्रारम्भिक व्यय (Preliminary expenses)|

7. एक कम्पनी के द्वारा निर्गमित, शोध्य पूर्वाधिकार अंशों के निर्गमन और शोधन के सम्बन्ध में अंकेक्षक के कर्तव्य क्या हैं?

What are the duties of an auditor in respect of issue of reedemable preference shares and its

redemption?

8. कुछ व्यवहारों के औचित्य को निश्चित करने के लिए कार्यवाही पुस्तकों का ध्यानपूर्वक अध्ययन नितान्त आवश्यक है। इस प्रकार के व्यवहारों का उल्लेख कीजिए।

It is utmost necessary to examine minute book for reasonableness of few transactions. Explain such type of transactions.

9. एक संयुक्त स्कन्ध कम्पनी का अंकेक्षण प्रारम्भ करने से पहले आप किन प्रमुख प्रलेख या प्रलेखों का निरीक्षण करगे और क्यों?

Before commencement of audit of a joint stock company which documents will you examine and why.

10. एक कम्पनी द्वारा निर्गमित ऋणपत्रों का अंकेक्षण किस प्रकार किया जायेगा?

How will you audit the issue of debentures of a company?

11. एक नव-स्थापित सीमित कम्पनी के नियमित अंकेक्षण को प्रारम्भ करते समय एक नये अंकेक्षक की स्थिति में आप क्या प्रारम्भिक कार्य करेंगे?

While commencing an audit of a newly established company what preliminary work will you conduct being a new auditor?

12. पार्षद सीमानियम क्या है? इसका अंकेक्षण आप किस प्रकार करेंगे?

What is Memorandum of Association? How would you audit the same?

13. पार्षद अन्तर्नियम क्या है? इसका अंकेक्षण आप किस प्रकार करेंगे?

What is Article of Association? How would you audit the same?

14. प्रविवरण क्या है? इसका अंकेक्षण आप किस प्रकार करेंगे? ।

What is Prospectus? How would you audit the same?

15. अंश हस्तान्तरण से क्या आशय है? इस सम्बन्ध में वैधानिक नियमों को बताइए। इसका अंकेक्षण आप किस प्रकार करेंगे?

What is Transfer of Share? Explain the legal provisions in this connection. How will you audit the same?

16. अंशों के हरण से क्या आशय है? अंशों के हरण के सम्बन्ध में अंकेक्षक के कर्तव्य बताइए।

What is Forfeiture of Shares? Discuss the duties of an auditor regarding forfeiture of shares?

Alteration Share Capital Study

लघु  उत्तरीय प्रश्न

1 पार्षद सीमानियम क्या है?

2. संचय के पूंजीकरण’ से आप क्या समझते हैं ?

3. विमोचनशील पूर्वाधिकारी अंशों से आप क्या समझते हैं ?

4. बोनस अंश क्या है? क्या ये लाभांश के स्थान पर निर्गमित हो सकते हैं?

5. ऋणपत्र क्या है ? ऋणपत्रों के निर्गमन के लिए कौन अधिकृत है? ऋणपत्रों के निर्गमन के लिए किसकी अनुमति आवश्यक है ?

6. अंश प्रमाणपत्रों के निर्गमन की प्रक्रिया का वर्णन कीजिए।

7. क्या एक कम्पनी अपहार पर अंशों का निर्गमन कर सकती है ? यदि हां, तो कैसे ?

Alteration Share Capital Study

अति लघ उत्तरीय प्रश्न

1 बोनस अंश क्या है ?

2. समामेलन से पूर्व लाभ से क्या समझते है ?

3. वैधानिक रिपोर्ट क्या है ?

4. अंशहरण से क्या समझते हैं ?

5. अंशों का अपहार पर निर्गमन क्या होता है ?

6. संचालकों की नियुक्ति कैसे होती है ?

7. संचालक किस प्रकार हटाये जाते हैं?

Alteration Share Capital Study

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

1 निम्न में से कम्पनी का चार्टर किसे कहते हैं :

(अ) पार्षद अन्तर्नियम

(ब) पार्षद सीमानियम

(स) प्रविबरण

(द) मिनट बूक

2. पार्षद सीमानियम में परिवर्तन के लिए निम्नलिखित की स्वीकृति आवश्यक है :

(अ) केन्द्रीय सरकार

(ब) राज्य सरकार

(स) कम्पनी लॉ बोर्ड

(द) किसी की भी नहीं

3. अंश-प्रमाणपत्रों का निर्गमन कम्पनी अधिनियम, 2013 की निम्न धारा से प्रभावित होता है :

(अ) धारा 46

(ब) धारा 47

(स) धारा 54

(द) इनमें से किसी से नहीं

4. निम्न में से कौन-सी धारा अधिमूल्य पर अंशों के निर्गमन की व्यवस्था करती है :

(अ) धारा 52

(ब) धारा 53

(स) धारा 62

5. कम्पनी संशोधित अधिनियम, 2013 की धारा 55 निम्नलिखित में से किन अंशों के विमोचन के प्रावधान रखती  हैं ।

(द) इनमें से कोई नहीं

(अ) विमोचनशील पूर्वाधिकार अंश

(ब) अविमोचनशील पूर्वाधिकार अंश

(स) समता अंश

(द) इनमें से कोई नहीं

Alteration Share Capital Study

chetansati

Admin

https://gurujionlinestudy.com

Leave a Reply

Your email address will not be published.

Previous Story

BCom 3rd Year Audit Company Study material notes in hindi

Next Story

BCom 3rd Year Auditors Report Study Material notes in Hindi

Latest from Auditing notes in hindi