BCom 3rd Year Audit Company Study material notes in Hindi

Table of Contents

BCom 3rd Year Audit Company Study material notes in Hindi: Companies Act Preparation by an Auditors Before Audit Documents Memorandum of Association Articles and Auditors Duty Prospectus Prospects and Auditors Duty Books of Accounts and Statutory Registers Other Registers Share capital Audit of Share Capital  to Buyback Disclosure in Balance Sheet Issue of Sweat Equity Shares Calls in Arrear Calles in Advance Forfeiture of Share Bonus Shares Borrowing Powers Debentures:

Company Study material notes
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BCom 3rd Year Auditing Depreciation and Reserves Study Material notes in hindi

कम्पनी अंकेक्षण

[COMPANY AUDIT]

पिछले अध्यायों में अंकेक्षण के आधारभूत सिद्धान्तों को समझाने का प्रयत्न किया गया है। अंकेक्षण के ये सिद्धान्त इतने व्यापक हैं कि प्रत्येक प्रकार की संस्था में इनका प्रयोग किया जा सकता है। इतना अवश्य है कि एकाकी व्यापारी तथा साझेदारी संस्था से पृथक सीमित दायित्व वाली कम्पनियों का अपना अलग विधान होता है और उनके विशेष नियम होते हैं। बैंक, बीमा आदि जैसी कम्पनियों का अंकेक्षण करने के लिए विशेष वैधानिक नियम होते हैं जिनका ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है।

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कम्पनी विधान

(COMPANIES ACT)

सीमित दायित्व वाली कम्पनी के कार्य संचालन के लिए कम्पनी अधिनियम, 2013 से पूर्व के कम्पनी अधिनियमों, 1956 में बहुत-से परिवर्तन किये गये हैं और कुछ महत्वपूर्ण संशोधन सन् 1965, 1974, 1977, 1978, 1979, 1980, 1988, 1996, 1999 व 2000 में किये गये हैं जिनका अध्ययन अंकेक्षक के लिए परमावश्यक है।

सर्वप्रथम इसलिए इनका ज्ञान आवश्यक है कि इस विधान ने अंकेक्षक के विशेष कर्तव्यों तथा दायित्व का स्पष्टीकरण किया है। एक अंकेक्षक इनसे किसी भी प्रकार मुक्त नहीं हो सकता है। यहां यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि आज के व्यापारिक संसार में अन्य सभी संस्थाओं की अपेक्षा सीमित दायित्व वाली कम्पनियों का कितना महत्व है।

दूसरी बात यह भी है कि कम्पनी अपना पृथक् वैधानिक अस्तित्व रखती है। कम्पनी के मालिक यानी उसके अंशधारी तथा उसके प्रबन्धक एक-दूसरे से अलग ही नहीं होते हैं वरन् इनके बीच में बहुत बडा फासला होता है। इसी कारण अंशधारी तब तक अपने विनियोजित धन के उपयोग के सम्बन्ध में नहीं जान पाते है जब तक कि प्रबन्धक उनको सूचित नहीं करते। अंशधारियों के हितों का ध्यान रखने के लिए ही कम्पनियों का अंकेक्षण अनिवार्य किया गया है।

साथ ही अंकेक्षक को अपने अधिकार तथा दायित्व सम्बन्धी नियमो की भली-भांति जानकारी करने के लिए भी कम्पनी विधान के नियमों के अध्ययन की आवश्यकता होती है। इस विधान में पूंजी, सीमानियम. अनयम संचालक प्रबन्ध संचालक, प्रविवरण, ऋण तथा अन्य महत्वपूर्ण बातों के सम्बन्ध में ऐसे प्रावधान हैं जिनके अध्ययन के बिना कोई भी अकेक्षक कम्पनी के खातों का अंकेक्षण नहीं कर सकता है।

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अंकेक्षण के पूर्व अंकेक्षक की तैयारी

(PREPARATION BY AN AUDITOR BEFORE AUDIT)

अंकेक्षण के पूर्व किसी कम्पनी के अंकेक्षक को नीचे लिखी बातो की ओर ध्यान देना चाहिए .

(i) यह देखना कि उसकी नियुक्ति नियमानुसार हुई है तथा उसका पारिश्रमिक उचित रूप से निर्धारित किया गया है।

(ii) प्रलेख, पुस्तकों एवं रजिस्टरों का निरीक्षण:

(iii) प्रसंविदों का निरीक्षण;

(IV) पिछले वर्ष के चिद्रे तथा अंकेक्षण-रिपोर्ट का निरीक्षण

(v) अधिकारियों एवं पुस्तकों की सूची प्राप्त करना;

(vi) आन्तरिक निरीक्षण के सम्बन्ध में विवरण प्राप्त करना और

(vii) व्यापार के प्रारम्भ तथा समामेलन के प्रमाण-पत्र का निरीक्षण।

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(1) यह देखना कि उसकी नियुक्ति नियमानुसार है।

(क) यदि वह वार्षिक साधारण सभा से पहले संचालकों द्वारा नियुक्त किया गया है तो उसे अपनी नियुक्ति के सम्बन्ध में संचालकों की बैठक के प्रस्ताव की प्रतिलिपि प्राप्त करनी चाहिए।

(ख) यदि उसकी नियुक्ति पुराने अंकेक्षक (retiring auditor) के स्थान पर की गयी है, तो यह पछताष्ठ करनी चाहिए कि पुराने अंकेक्षक को उचित नोटिस दिया गया था या नहीं, तथा इस प्रक्रिया में कम्पनी अधिनियम की धारा 139 का पूर्णतया पालन किया गया है अथवा नहीं। साथ ही उन परिस्थितियों का भी पता लगाना चाहिए जिनमें पुराने अंकेक्षक को अपने कार्य से मुक्त किया गया है।

(ग) यदि अंशधारियों के द्वारा वार्षिक साधारण सभा में उसकी नियुक्ति की गयी है, तो उसे अंशधारियों के प्रस्ताव की प्रतिलिपि (copy) प्राप्त करनी चाहिए। अंकेक्षक को अपनी नियुक्ति के स्वीकार करने या मना करने के सम्बन्ध में लिखित सूचना नियुक्ति-पत्र की प्राप्ति के तीस दिन के अन्दर रजिस्ट्रार के पास भेजनी चाहिए। यह भी देखना चाहिए कि इस सम्बन्ध में नामांकन (nomination) का उचित नोटिस दिया गया है। अथवा नहीं, अन्यथा उसकी नियुक्ति नियम विरुद्ध मानी जायेगी।

अंकेक्षक को पिछले अंकेक्षक से पत्र व्यवहार करना चाहिए और अपनी नियुक्ति के सम्बन्ध में उसको सूचना देनी चाहिए।

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बी. एन. मोहन बनाम के. सी. सत्यवादी

(घ) पूराने अंकेक्षक की मृत्यु के कारण हुए आकस्मिक रिक्त स्थान (casual vacancy) की पूर्ति के लिए उसकी नियुक्ति की गयी है, तो उसे संचालकों के बोर्ड के प्रस्ताव की प्रतिलिपि प्राप्त करनी चाहिए ताकि वह यह देख सके कि उसकी नियुक्ति नियमानुसार है।

(ङ) यदि त्यागपत्र के कारण हुए रिक्त स्थान की पूर्ति करने के लिए धारा 140(6) के अन्तर्गत उसकी नियुक्ति की गयी है तो उसे अपनी नियुक्ति की वैधता की जानकारी करनी चाहिए। इस प्रकार त्यागपत्र के द्वारा रिक्त हुए स्थान की पूर्ति कम्पनी अपनी साधारण सभा में कर सकती है और संचालक मण्डल इस पूर्ति को नहीं कर सकता है। अंकेक्षक को यह देखना चाहिए कि उसकी नियुक्ति इन परिस्थितियों में वैध है। त्यागपत्र देने वाले अंकेक्षक से पूछताछ कर लेनी चाहिए कि किन परिस्थितियों में उसने त्यागपत्र दिया है और स्वयं यह तय करना चाहिए कि वह इस नियुक्ति को स्वीकार करे या नहीं।

अंकेक्षक को कम्पनी के रजिस्ट्रार को इस नियुक्ति तथा अपनी स्वीकृति की सूचना देनी चाहिए। उसे स्वयं को आश्वस्त करना चाहिए कि उसकी नियुक्ति कम्पनी अधिनियम की धारा 139 की भावना के अनुरूप की गयी है।

अपने पारिश्रमिक के सम्बन्ध में यह जानकारी करनी चाहिए कि उसका पारिश्रमिक उचित अधिकारी के द्वारा निर्धारित किया गया है तथा इस सम्बन्ध में कम्पनी अधिनियम की धाराओं का पूर्णरूपेण परिपालन किया गया है।

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(II) प्रलेख पुस्तकों एवं रजिस्टरों का निरीक्षण

प्रलेख (Documents)

(क) पार्षद सीमानियम

(MEMORANDUM OF ASSOCIATION)

पार्षद सीमानियम कम्पनी का एक महत्वपूर्ण प्रलेख है। इसको कम्पनी का चार्टर कहा जाता है क्योंकि इसमें वर्णित सीमाओं तथा व्यवस्थाओं का उल्लंघन कम्पनी नहीं कर सकती है।

(1) कम्पनी अधिनियम, 2013 की धारा 4 के अनुसार एक कम्पनी के पार्षद सीमानियम (Memorandum of Association) में आगे लिखी बातों का उल्लेख होता है :

(अ) लिमिटेड’ (सीमित) शब्द के साथ कम्पनी का नाम यदि कम्पनी पब्लिक लिमिटेड है, तो नाम अन्त में लिमिटेड’ शब्द का प्रयोग होना चाहिए। यदि ‘पारवेट लिमिटेड’ कम्पनी है तो उसके अन्त में पाइवेट लिमिटेड’ शब्द अवश्य होना चाहिए।

(ब) राज्य का नाम जिसमें कम्पनी का रजिस्टर्ड कार्यालय स्थापित है।

(स) कम्पनी का उद्देश्य–(i) कम्पनी अधिनियम 2013 के लाग होने के पहले बनी हुई कम्पनी के सम्बन्ध में उसका उद्देश्य,

(ii) कम्पनी (संशोधित) अधिनियम, 2013 के लागू होने के पश्चात् बनी हुई कम्पनी के सम्बन्ध में, (ii) कम्पनी के समामेलन के पश्चात उसके प्रमख उद्देश्य और इनकी प्राप्ति में सहायक उद्देश्य, (iv) अन्य उद्देश्य जो उपर्युक्त (अ) में सम्मिलित नहीं हैं।

(द) जो कम्पनियां व्यापारिक कम्पनियां (trading companies) नहीं हैं तथा जिनका उद्देश्य एक राज्य तक सीमित नहीं है, उन राज्यों के नाम भी देने चाहिए जिन तक ये उद्देश्य लागू होते है।

(2) इस बात का उल्लेख कि सदस्यों का दायित्व सीमित है. यह बात अंशों या गारण्टी के द्वारा सीमित दायित्व वाली कम्पनी के सीमानियम के सम्बन्ध में दिखायी जानी चाहिए।

(3) गारण्टी द्वारा सीमित दायित्व वाली कम्पनी के सीमानियम में यह भी स्पष्ट होगा कि प्रत्येक सदस्य (Member) कम्पनी के समापन होने पर सम्पत्तियों के लिए अंशदान करेगा, जबकि वह सदस्य है अथवा सदस्य न रहने पर एक वर्ष के अन्दर कम्पनी के ऋणों व दायित्वों के प्रति तथा समापन के व्यय व लागत के लिए निर्धारित सीमा तक योगदान करेगा।

(4) कम्पनी (असीमित दायित्व वाली कम्पनी को छोड़कर) की पूंजी तथा उसका अंशों में विभाजन ।

पार्षद सीमानियम में वर्णित अंश-पूंजी की सीमा से अधिक कोई भी कम्पनी अपने जीवन काल में पूंजी निर्गमित नहीं कर सकती है। यदि कम्पनी किन्हीं परिस्थितियों में इस सीमा से अधिक अंश-पूंजी का निर्गमन करना चाहती है, तो कम्पनी को पार्षद सीमानियम के पूंजी वाक्य को बदलना पड़ेगा।

पार्षद सीमानियम में नाम देने वाला कोई भी व्यक्ति (subscriber) एक से कम अंश नहीं लेगा तथा वह अपने लिये हुए अंशों की संख्या अपने नाम के आगे लिखेगा।

पार्षद सीमानियम में प्रत्येक नाम देने वाले व्यक्ति के हस्ताक्षर होंगे तथा उसे अपना नाम पता और व्यवसाय भी लिखना होगा। लाभ देने वाले विवरण की पुष्टि के लिए कम से कम एक व्यक्ति अवश्य होना चाहिए, जो अपना नाम व पता देगा तथा हस्ताक्षर भी करेगा।

धारा 13 के अनसार पार्षद सीमानियम में परिवर्तन के लिए विशेष प्रस्ताव पास करना चाहिए और केन्द्र सरकार से स्वीकति लेनी चाहिए। पार्षद सीमानियम में प्रत्येक परिवर्तन को धारा 13660 में वर्णित विधि के अनसार आदेश के एक माह के अन्दर रजिस्ट्री कराना आवश्यक है।

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श्री अम्बा मोटर एजेन्सीज प्रा. लि. बनाम कम्पनी के रजिस्ट्रार (1978)]

सीमानियम और अंकेक्षक के कर्तव्य

अंकेक्षक को नीचे लिखी शर्तों के लिए सीमानियम की जांच करनी चाहिए

(1) अंकेशक को सीमानियम का ध्यानपूर्वक अध्ययन करना चाहिए और विशेषतया उद्देश्य वाक्य की (Object Clause)  ओर ध्यान देना चाहिए। देखना यह है कि कम्पनी जो कार्य कर रही है वह सीमानियम द्वारा अधिकृत है अथवा नहीं।

(2) पूँजी सम्बन्धी नियमों का ठीक-ठीक पालन किया गया है अथवा नहीं। यह देखना अति आवश्यक टी प्राप्त पंजी की रकम अधिकृत पूंजी की रकम से अधिक तो नहीं है।

(3) यदि विधान के अनुसार अधिकृत पूंजी में वृद्धि की गयी है, तो तत्सम्बन्धित प्रस्ताव की नकल प्राप्त की ओर ध्यान देना चाहिये

(4) यदि सीमानियम में कोई परिवर्तन किये गये हैं । तो इसके लिए धारा 17 के नियमों का पर्णरूप जाना चाहिए। यह देखना चाहिए कि ये परिवर्तन लिखित सीमाओं के अन्दर किये गये है

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 (ख) पार्षद अन्तर्नियम

(ARTICLES OF ASSOCIATION)

पार्षद अन्तर्नियम (Articles of Association) कम्पनी का दूसरा महत्वपूर्ण प्रलेख है जिसका प्रत्येक कम्पनी के पास होना धारा 5 के अनुसार आवश्यक है। हां, यदि कम्पनी अपने कार्य के लिए अन्तर्नियम  बनाना चाहे, तो उसे कम्पनी अधिनियम, 2013 की अनुसूची । की तालिका FGHIJ जैसी भी स्थिति हो. में। दिये गये नियमों का पालन करना होगा। इस प्रकार विभिन्न तालिकाओं में दिये गये नियम अन्तर्नियम के रूप में अपनाये जा सकते हैं।

अन्तर्नियम कम्पनी के वे नियम हैं जो कम्पनी की आन्तरिक व्यवस्था को नियन्त्रित करने के लिए बनाये जाते हैं। उनमें कम्पनी की दैनिक कार्य-व्यवस्था के नियम, कम्पनी का उसके सदस्यों के साथ सम्बन्ध, उसके प्रति दायित्व और सदस्यों के आपसी सम्बन्ध, अधिकार और दायित्व सम्बन्धी नियम बनाये जाते हैं। ये नियम स्वयं सदस्यों के अपने नियम है, अतएव आवश्यकतानुसार ये विशेष प्रस्ताव से परिवर्तित किये जा सकते है।

पार्षद अन्तर्नियम छपे हुए तथा पैराग्राफ में बंटे होने चाहिए। ऐसा प्रत्येक चन्दा देने वाला व्यत्ति (subscriber) जिसने पार्षद सीमानियम में हस्ताक्षर किये थे, अन्तर्नियम पर कम से कम एक गवाह (witness) की उपस्थिति में हस्ताक्षर करेगा (जो अपना पता, विवरण तथा व्यवसाय, यदि कोई हो, देगा)। यह व्यक्ति हस्ताक्षरों की पुष्टि करेगा और उसी प्रकार अपना पता. विवरण तथा व्यवसाय, यदि कोई हो, साथ में लिखेगा तथा हस्ताक्षर करेगा।

पार्षद अन्तर्नियम में परिवर्तन धारा 14 व सीमानियम में वर्णित शर्तों के अनुरूप विशेष प्रस्ताव पास करके किया जा सकता है। यदि यह परिवर्तन पब्लिक कम्पनी को प्राइवेट कम्पनी बनाने से सम्बन्धित है तो केन्द्रीय सरकार की अनुमति के बिना यह कार्यान्वित न हो सकेगा।

सरकार की अनुमति प्राप्त करने के पश्चात् । माह के अन्दर परिवर्तित अन्तर्नियमों की छपी हुई प्रतिलिपि रजिस्ट्रार के पास भेजनी चाहिए।

इस प्रकार पार्षद सीमानियम, पार्षद अन्तर्नियम, यदि कोई हों, तथा प्रसंविदा, यदि कोई किसी व्यक्ति के साथ किया जाना प्रस्तावित है, जिसे कम्पनी प्रबन्धकर्ता या पूर्णकालीन संचालक या प्रबन्धक (managing or whole-time director or manager) के रूप में नियुक्त करना चाहती है, की रजिस्ट्रार के यहां रजिस्ट्री करायी जाती है। यह व्यवस्था धारा 7 में की गयी है। धारा 10 के अनुसार पार्षद सीमानियम व पार्षद अन्तर्नियम रजिस्टर हो जाने के उपरान्त कम्पनी तथा उसके सदस्यों को उसी प्रकार बांधते हैं जिस प्रकार कि वे कम्पनी तथा प्रत्येक सदस्य के द्वारा हस्ताक्षर किये गये हों। सीमानियम व अन्तर्नियम के अन्तर्गत किसी सदस्य के द्वारा कम्पनी को दी गयी राशि उससे कम्पनी के लिए ऋण (debt) होगी।

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अन्तर्नियम और अंकेक्षक के कर्तव्य

(ARTICLES AND AUDITOR’S DUTY)

अंकेक्षक को नीचे लिखी बातों के लिए कम्पनी के अन्तर्नियमों का निरीक्षण करना चाहिए:

(1) अंश-पूंजी का निर्गमन (Issue of share capital);

(2) अंशों के धन की याचना (Calls on Shares);

(3) अंशों पर प्राप्त पेशगी (Calls in Advance);

(4) अंशों पर शेष धनराशि (Calls in Arrear);

(5) अंशों पर अपहरण और पुनर्निर्गमन (Forfeiture and re-issue of shares);

(6) अंशा का हस्तान्तरण आर गमनागमन (Transfer and transmission of shares):

(7) अंशों पर कमीशन का भुगतान

(8) अंशधारियों के अधिकार;

(9) संचालकों की नियुक्ति, योग्यता-अंश (Qualification shares), पारिश्रमिक, अधिकार एवं कर्तव्य

(10) प्रबन्धक या प्रबन्ध संचालक की नियुक्ति, पारिश्रमिक, अधिकार व कर्तव्य:

(11) अंश पूंजी का परिवर्तन

(12) रिजर्व बनाना और लाभांश देना:

(13) ऋण लेने का अधिकार:

(14) अंकेक्षक की नियुक्ति, अधिकार एवं कर्तव्य;

(15) लेखा पुस्तकें और उनका अंकेक्षण;

(16) अंशों का अभिगोपन;

(17) सभाओं की कार्यवाही:

(18) सदस्यों को सूचना

(19) सदस्यों की सभाओं में मतदान का अधिकार;

(20) पूंजी में से व्याज देना; और

(21) यदि सारणी ‘अ’ के नियम (ये नियम 99 है) अपनाये गये हैं, तो किस सीमा तक?

उपर्युक्त विशेष बातों के देखने के साथ-साथ अंकेक्षक को अन्तर्नियमों का भली प्रकार अध्ययन करना चाहिए। इन नियमों की वैधता पर विशेष रूप से ध्यान देना चाहिए। साथ ही यह भी देखना चाहिए कि अन्तर्नियम में जो परिवर्तन किये गये हैं, वे धारा 14 में वर्णित नियमों के आधार पर किये गये हैं।

यहां यह ध्यान देने योग्य है कि यदि कोई कम्पनी अन्तर्नियम नहीं बनाती है तो ऐसी स्थिति में कम्पनी अधिनियम, 2013 की विभिन्न तालिकाओं में से उपयुक्त को अपनाना होता है।

Leeds Estate Building and Investment Society Ltd. vs. Shepherd (1887) के मामले में यह निर्णय दिया गया था कि कोई अंकेक्षक यह कहकर अपना बचाव नहीं कर सकता कि यह जानते हुए कि कम्पनी के पास जो अन्तर्नियम हैं, उनको नहीं देख सका।

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(ग) प्रविवरण (Prospectus)

प्रविवरण में लिखी जाने वाली बातें धारा 26 में दी हुई हैं। प्रविवरण के निर्गमन का उद्देश्य जनता को अंश खरीदने के लिए आमन्त्रित करना होता है। अन्तर्नियम में वर्णित प्रायः सभी बातों का उल्लेख प्रविवरण में दिया जाता है।

धारा 26(1) के अन्तर्गत प्रत्येक प्रविवरण जो (अ) किसी कम्पनी के द्वारा या उसकी ओर से. अथवा (ब) किसी व्यक्ति के द्वारा या उसकी ओर से जो कम्पनी के निर्माण में व्यस्त है या रुचि रखता है. (Schedule I) की तालिका A, B, C, D एवं E में अंकित मामलों को स्पष्ट करेगा।

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प्रविवरण और अंकेक्षक के कर्तव्य

(PROSPECTS AND AUDITOR’S DUTY)

जब कोई कम्पनी प्रविवरण पर निर्गमन करती है तो अंकेक्षक को नीचे लिखी बातें विशेष रूप से ध्यान में रखनी चाहिए:

(1) निर्गमित होने के लिए पूंजी की रकम, अंशों का वर्गीकरण तथा उनसे सम्बन्धित सदस्यों के अधिकार:

(2) भिन्न-भिन्न प्रकार के अंशों के आबंटन एवं याचना पर दी जाने वाली रकमः

(3) न्यनतम अभिदान (minimum subscription) की रकमः

(4) विक्रेताओं के साथ किये गये प्रसंविदों का विवरण:

(5) अंशों पर कमीशन के लिए देय धन:

(6) प्रारम्भिक व्ययों की रकम या अनुमानित रकमः

(7) संचालकों की नियुक्ति एवं पारिश्रमिक

(8) प्रबन्धकों की नियुक्ति एवं पारिश्रमिक आदि: और

 (9) प्रविवरण के निर्गमित करने की तारीख के दो वर्षों के अन्दर किये गये प्रसंविदों का विवरण।

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लेखा-पुस्तकें और वैधानिक रजिस्टर

(BOOKS OF ACCOUNTS AND STATUTORY REGISTERS)

(1) लेखा पुस्तकें (Books of Accounts)

धारा 128 के अनुसार प्रत्येक कम्पनी नीचे लिखे विषयों के लिए लेखा-पुस्तकें रखेगी: व्यवहारों से सम्बन्धित पुस्तकें :

(क) उस धन के लिए जो कम्पनी ने प्राप्त किये हैं तथा व्यय किये हैं और उन सब मामलों के सम्बन्ध में जिनके लिए धन प्राप्त किया गया है या व्यय किया गया है:

(ख) कम्पनी के द्वारा की गयी सम्पूर्ण खरीद तथा बिक्री के लिए:

(ग) कम्पनी की सम्पत्ति तथा दायित्व के सम्बन्ध में और

(घ) एक कम्पनी के लिए, जो उत्पादन (production), कार्य-प्रक्रिया (processing), निर्माण (manufacturing) या खान खोदने का कार्य (mining activities) में संलग्न कम्पनियों के वर्ग में हो। सामग्री या श्रम लागत के अन्य मदों के प्रयोग के सम्बन्ध में विवरण जो निर्धारित किये जायें, यदि ऐसी कम्पनियों के इस वर्ग के लिए केन्द्रीय सरकार द्वारा हिसाब-किताब की पुस्तकों में ऐसा विवरण रखना आवश्यक कर दिया गया हो।

स्थान—ये सभी पुस्तकें कम्पनी के रजिस्टर्ड कार्यालय में रखी जायेंगी, अथवा संचालकों के निर्णय के। अनुसार भारत में ऐसे स्थान पर रखी जा सकेंगी, जिसके सम्बन्ध में कम्पनी ने अपने निर्णय के सात दिन के अन्दर रजिस्ट्रार को उस स्थान के पते की लिखित सूचना दे दी हो।

इस धारा के परिपालन के लिए हिसाब-किताब की उचित पुस्तकें वे नहीं मानी जायेंगी

(अ) यदि ऐसी पुस्तकें न रखी गयी हों जो कम्पनी या इसकी शाखा के कार्यों का उचित व सही चित्र प्रस्तुत न करती हों, और इसके लेन-देनों को प्रकट न करती हों, तथा

(ब) यदि ऐसी पुस्तकें हिसाब-किताब की दोहरे लेखे प्रणाली के आधार पर संस्था के हित में न रखी गयी हों।

निरीक्षण-लेखा-पुस्तकें व अन्य पुस्तकें तथा कागज-पत्र व्यावसायिक घण्टों के मध्य किसी भी संचालक के निरीक्षण के लिए उपलब्ध होंगी।

शाखा की पुस्तकें यदि कम्पनी की एक शाखा भारत में या बाहर हो तो उसे भी वहां पर किये गये। व्यवहारों के लिए उचित पुस्तकें रखनी चाहिए और अधिक-से-अधिक तीन माह की अवधि के खातों का विवरण कम्पनी के रजिस्टर्ड कार्यालय को भेजते रहना चाहिए।

पुस्तकों की सुरक्षाइस धारा के अनुसार प्रत्येक कम्पनी को चालू वर्ष से कम-से-कम आठ वर्ष पहले तक की पुस्तकें अपने पास सुरक्षित रखनी चाहिए। यदि कम्पनी को बने हुए आठ वर्ष से कम समय हुआ हो, तो उसे उतने समय की लेखा पुस्तकें सुरक्षित रखनी चाहिए।

लेखा-पुस्तकों के रखने का उत्तरदायित्व कम्पनी के प्रबन्ध संचालक या प्रबन्धक पर होता है। यदि प्रबन्ध संचालक या संचालक न हो, तो कम्पनी के संचालक मण्डल पर यह दायित्व होता है। यदि इस प्रबन्ध में कोई व्यक्ति जानबूझकर लापरवाही करता है, तो वह इस दोष के लिए 10,000 ₹ तक का जुर्माना या 6 माह । की सजा या दोनों से दण्डित किया जा सकता है।

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(2) सदस्यों का रजिस्टर (Register of Members)

धारा 88 के अनुसार इस पुस्तक में आगे लिखी बातें लिखी जाती हैं :

(क) सदस्यों के नाम, उनके पते तथा व्यवसाय;

(ख) सदस्यों द्वारा लिए हुए अंशों की संख्या;

(ग) इन अंशों पर दी हुई राशि

(घ) तारीख जिस पर व्यक्ति कम्पनी का सदस्य बना; और

(ङ) तारीख जिस पर वह सदस्यता से अलग हुआ।

यदि प्रकार लेखे न किये गये तो कम्पनी और कम्पनी के प्रत्येक अधिकारी पर, जो इसके लिए र 1000 ₹ प्रतिदिन के हिसाब से जुर्माना हो सकता है।

बन्धक रजिस्टर (Register of Charges and Mortgages)

कम्पनी अधिनियम की धारा 85 के अनुसार प्रत्येक कम्पनी को बन्धक रजिस्टर रखना आवश्यक है। जिनमें निम्नांकित बातें होती हैं :

(क) सब बन्धकों का विवरण, (ख) बन्धक रखी हुई सम्पत्ति का विवरण.

(ग) बन्धक की राशि, और (घ) बन्धक पर रखने वालों (Mortgagees) के नाम

यदि कम्पनी का कोई अधिकारी जानबूझकर उपर्युक्त लेखा नहीं करता है, तो उस पर 25,000 ₹ से 1 लाख र तक जुर्माना और 6 माह तक का कारावास अथवा दोनों हो सकते हैं।

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(4) कार्यवाही-विवरण-पुस्तक या मिनट-बुक (Minute Book)

कार्यवाही-विवरण-पुस्तकें भी वैधानिक पुस्तकें हैं। अंशधारियों और संचालकों की सभा में जो प्रस्ताव पास किये जाते हैं, उनका विवरण इन पुस्तकों में अलग-अलग रखा जाता है। विधान की धारा 118 के अनुसार इन पुस्तकों का रखना आवश्यक है। इन सभाओं की कार्यवाही सभा की समाप्ति के 30 दिन के अन्दर सम्बन्धित पुस्तकों में लिख देनी चाहिए।

उद्देश्य

(1) अंशधारियों की सभा की कार्यवाही का विवरण लिखने के लिए,

(2) संचालकों की सभाओं की कार्यवाही का विवरण लिखने के लिए, और

(3) संचालक-मण्डल द्वारा नियुक्त की गयी समितियों की सभाओं की कार्यवाही का विवरण लिखने के लिए।

मिनट बुक बंधी हुई पुस्तकों के रूप में रखनी चाहिए और कभी भी अलग-अलग कागजों के रूप में नहीं रखनी चाहिए।

[Hearts of Oar Insurance Co. Ltd. vs. Flower (1935)]

प्रत्येक ऐसी पुस्तक के प्रत्येक पृष्ठ पर बोर्ड की सभा की कार्यवाही की मिनट-बुक के सम्बन्ध में इस सभा के चेयरमैन के या अगली सभा के चेयरमैन के हस्ताक्षर होंगे तथा अन्तिम पृष्ठ पर तारीख सहित हस्ताक्षर होंगे।

वैसे ही साधारण सभा के सम्बन्ध में उनकी कार्यवाही के लेखे की मिनट बुक के प्रत्येक पृष्ठ पर सभा जान दिन क अन्दर चेयरमैन अथवा उनकी मृत्यु या अन्य अयोग्यता के कारण उनकी अनुपस्थिति में बोर्ड क द्वारा अधिकृत संचालक के हस्ताक्षर होंगे तथा अन्तिम पष्ठ पर तारीख सहित हस्ताक्षर होंगे।  इन पुस्तकों में किसी मामले को लेखे के लिए रखने या न रखने का पूर्ण अधिकार चेयरमैन (Chairman) को होगा।

याद इस व्यवस्था की अनुपालना करने के सम्बन्ध में त्रटि करने पर कम्पनी पर 25,000 ₹ और कम्पनी का कोई अधिकारी दोषी पाया जायेगा तो उस पर 5000 ₹ तक जुर्माना हो सकता ह।

निम्न व्यवहारों की जांच करने के लिए अंकेक्षक को अंशधारियों की सभाओं की कार्यवाही-विवरण-पुस्तक (Shareholders’ Minute Book) का निरीक्षण करना चाहिए :

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(1) अपहार (Discount) पर अंशों का निर्गमन;

(2) शोध्य पूर्वाधिकार अंशों (Redeemable Preference Shares) का

(3) वर्तमान (existing) साधारण अंशधारियों के अतिरिक्त अन्य व्यक्तियों को अंशों का निर्गमन;

(4) अंश-पूंजी का परिवर्तन;

(5) वार्षिक खातों की स्वीकृति;

(6) लाभांश की घोषणा:

(7) अंकेक्षक की नियुक्ति तथा पारिश्रमिक;

(8) संचालकों की नियुक्ति तथा पारिश्रमिक

(9) संचालक-मण्डल के अधिकारों में वृद्धि

(10) केन्द्रीय सरकार की आज्ञा से संचालकों के पारिश्रमिक में वृद्धि

(11) अन्य कम्पनियों के अंशों तथा ऋणपत्र में विनियोग:

(12) अंश-पूंजी का प्रहासन;

(13) पूंजी में से ब्याज का भुगतान;

(14) शब्द लाभ (Net Profit) के प्रतिशत के आधार पर किन्हीं सामान्य संचालकों को पारित

अधिकतकरना:

(15) कम्पनी के किसी लाभ के पद (Office of Profit) पर किसी संचालक, उसके रिश्तेदार या सहयोगी (Associate) की नियुक्ति करना;

(16) भारत के बाहर किन्हीं स्थानों के लिए क्रय या विक्रय एजेण्ट को नियुक्त करना; और

(17) एक ही प्रबन्ध के अन्तर्गत किसी अन्य कम्पनी को ऋण की स्वीकृति देना।

नीचे लिखे व्यवहारों की जांच करने के लिए अंकेक्षक को संचालकों की सभाओं की कार्यवाही-विवरणपुस्तक (Directors’ Minute Book) का निरीक्षण करना चाहिए:

(1) पूंजी का निर्गमन (Issue of capital);

(2) अंशों का आबंटन (Allotment of shares);

(3) कम्पनी के द्वारा की गयी याचनाएं (Calls made by the company);

(4) अंशों का अपहरण (Forfeiture of shares);

(5) ऋणपत्रों का निर्गमन (Issue of debentures);

(6) ऋणपत्रों का शोधन (Redemption of debentures);

(7) प्रबन्धकों, संचालकों आदि की नियुक्ति, पारिश्रमिक, अधिकार एवं कर्तव्य :

(8) अधिकारियों की नियुक्ति; (9) लाभांश की घोषणा;

(10) वार्षिक खातों की स्वीकृति

(11) स्थायी सम्पत्तियों की खरीद;

(12) अंकेक्षकों की नियुक्ति और उनका पारिश्रमिक;

(13) बैंकों से ऋण की व्यवस्था;

(14) संचालकों तथा अन्य अधिकारियों को यात्रा-व्यय देने की व्यवस्थाः

(15) साधारण संचय (General Reserve) में हस्तान्तरण:

(16) अन्तर्नियमों का परिवर्तन

(17) विभिन्न प्रकार के संचयों में हस्तान्तरण और (18) लाभांश के सम्बन्ध में सिफारिश।

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(5) अन्य रजिस्टर

(OTHER REGISTERS)

(i) संचालकों तथा प्रबन्धकों इत्यादि का रजिस्टर (Register of Directors etc.) कम्पनी आधार की धारा 170 के अनुसार प्रत्येक कम्पनी को अपने रजिस्टर्ड कार्यालय में संचालकों. प्रबन्ध संचालक, प्रबन्ध व सचिव का रजिस्टर रखना आवश्यक है। इस रजिस्टर में संचालकों, प्रबन्धकों आदि के नाम, पते तथा पर लिखे जाने चाहिए।

(ii) संचालकों के अंश-ग्रहण आदि का रजिस्टर (Register of Directors’ Shareholders, etc.) पास 170(1) के अनुसार संचालकों के अंशों के लेने से सम्बन्धित लेखों के लिए एक अलग रजिस्टर रखना होता है। इस रजिस्टर में संचालकों के द्वारा लिये गये अंशों के सम्बन्ध में भी विवरण रखा जाता है।

(iii) ऐसे प्रसंविदों का रजिस्टर जिसमें संचालकों का हित हो (Register of Contracts in which •ctors are Interested) धारा 189 के अनुसार कम्पनी को एक ऐसा रजिस्टर रखना होता है जिसमें पसंविदों का वर्णन होता है जिनमें संचालकों का विशेष स्वार्थ होता है।

अंकेक्षक को यह देखना है कि यह रजिस्टर नियमानुसार रखा गया है अथवा नहीं।

(iv) सदस्यों की अनुक्रमणिका (Index of Members)-धारा 88 के अनसार 50 से अधिक सदस्यों पत्येक कम्पनी को अनुक्रमणिका रखना आवश्यक है, जब तक कि सदस्यों का रजिस्टर ऐसा न हो

अनक्रमणिका स्वतः ही बना दी गयी हो। यदि सदस्यों के रजिस्टर में कोई परिवर्तन कर दिया गया सोनत्सम्बन्धित परिवर्तन अनुक्रमणिका में भी 14 दिन के अन्दर कर देना चाहिए।

ऐसी अनक्रमणिका में प्रत्येक सदस्य के सम्बन्ध में पर्याप्त लेखा मिलना चाहिए। ऐसा न करने के लिए दोषी कम्पनी तथा उसका प्रत्येक अधिकारी 50,000 ₹ से 3 लाख र तक के जुर्माने के भागी होंगे।

(v) ऋणपत्रधारियों का रजिस्टर तथा अनुक्रमणिका (Register and Index of Debentureholders)1788 के अन्तर्गत प्रत्येक कम्पनी को ऋणपत्रधारियों का रजिस्टर तथा अनुक्रमणिका रखनी होगी। इस रजिस्टर में ऋणपत्रधारियों से सम्बन्धित सभी आवश्यक विवरण दिया जाना चाहिए।

ऐसा न करने पर दोषी कम्पनी तथा उनके प्रत्येक अधिकारी को 50 ₹ तक जुर्माना देने का भागी होना पड़ेगा।

उपर्युक्त पुस्तकों एवं रजिस्टरों की जांच के सम्बन्ध में इतना कहना पर्याप्त होगा कि ये सभी पुस्तकें खाता व्यवस्था की दृष्टि से इतनी महत्वपूर्ण नहीं हैं जितनी वैधानिक दृष्टि से। प्रत्येक कम्पनी को इन पुस्तकों को रखना अनिवार्य है। अंकेक्षक को यह देखना होता है कि ये पुस्तकें ठीक ढंग से रखी गयी हैं या नहीं।

(vi) सदस्यों अथवा ऋणपत्रधारियों का विदेशी रजिस्टर (Foreign Register of Members or Debentureholders) धारा 88(4) के अनुसार प्रत्येक कम्पनी यदि उसके अन्तर्नियम अनुमति दें, भारत से बाहर रहने वाले सदस्यों अथवा ऋणपत्रधारियों का रजिस्टर रखेगी। धारा 88(1) के अन्तर्गत कम्पनी के द्वारा रखे जाने वाले सदस्य-रजिस्टर के भाग के रूप में विदेशी रजिस्टर होगा।

(vii) विनियोगों का रजिस्टर (Register of Investments) धारा 187 के अन्तर्गत प्रत्येक कम्पनी अपने नाम में विनियोग रखेगी। यदि कोई कम्पनी अपने नाम में विनियोग नहीं रखती है तो उसको अलग से एक रजिस्टर रखना होगा जिसमें इनका सभी विवरण लिखा जाना चाहिए।

(viii) कम्पनी द्वारा अंशों में दिए सभी विनियोगों तथा ऋणों का रजिस्टर (Register of all investments or loans made by the company in shares) कम्पनी अधिनियम, 2013 की धारा-186 के अन्तर्गत प्रत्येक कम्पनी एक रजिस्टर रखेगी जिसमें प्रत्येक विनियोग या ऋण (Investment or loan) के सम्बन्ध में निम्न विवरण दिया जाएगा :

(a) समामेलित संस्था का नाम,

(b) विनियोग या ऋण या जमानत (security) या गारण्टी की राशि, शर्ते तथा उद्देश्य,

(c) तिथि जिस पर विनियोग या ऋण दिए गए, तथा

(d) तिथि जिस पर गारण्टी दी गई अथवा ऋण के सम्बन्ध में जमानत दी गई।

(ix) ऋणों का रजिस्टर (Register of Loans) धारा 186(9) के अन्तर्गत ऋण देने वाली प्रत्येक ना ऋणों के सम्बन्ध में उनकी गारण्टी व किन तिथियों पर दिये गये आदि के विवरण के लिए रजिस्टर रखेगी।

(III) प्रसंविदों का निरीक्षण

प्रलेख एव पुस्तकों के निरीक्षण के साथ-साथ अंकेक्षक को उन सभी प्रसंविदों का स्वयं निरीक्षण करना ५ जा कम्पनी एवं व्यक्तियों अथवा संस्थाओं के बीच किये गये हैं।

उदाहरण—(1) कम्पनी तथा सम्पत्ति के विक्रेताओं के बीच किया गया प्रसंविदा।

(2) कम्पनी तथा दलाल (broker) या अभिगोपक (underwriter) के बीच कमीशन के लिए किया गया समझौता।

(3) कम्पनी तथा प्रवर्तकों (Promoters) के बीच प्रारम्भिक खर्चों (preliminary expenses) आदि के लिए किये गये समझौते।

यदि प्रविवरण में इन प्रसंविदों के विषय में कुछ विवरण दिया गया है, तो अंकेक्षक को यह देखना चाहिए कि यह ठीक है और साथ ही प्रसंविदों से सम्बन्धित लेखा पुस्तक में की गयी प्रविष्टियां शदी सही हैं।

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(IV) पिछले वर्ष के चिट्टे तथा अंकेक्षक-रिपोर्ट का निरीक्षण

पिछले वर्ष के चिट्टे का निरीक्षण करना चाहिए और यह देखना चाहिए कि सभी बाकियां ठीक एक से चालू वर्ष की पस्तकों में लायी गयी हैं। कभी-कभी कम्पनियां छल-कपट तथा खातों में गडबडी करले लिए गलत बाकियों से खातों को खोलती हैं। पिछले वर्ष के अंकेक्षक को रिपोर्ट का निरीक्षण करके यह देख चाहिए कि रिपोर्ट में दी हुई सिफारिश को कार्यान्वित किया गया है अथवा नहीं। इस रिपोर्ट के अध्ययन में कम्पनी के कार्य के सम्बन्ध में धारणा बनायी जा सकती है।

साथ ही संचालकों की पिछली वर्ष की रिपोर्ट देखकर लाभ में से किये गये आयोजनों की जांच करनी चाहिए।

(V) अधिकारियों एवं पुस्तकों की सूची प्राप्त करना

अंकेक्षक को कम्पनी के अधिकारियों एवं उनके द्वारा लिखी गयी पुस्तकों की सूची प्राप्त करनी चाहिए। (VI) आन्तरिक निरीक्षण (Internal Check) के सम्बन्ध में विवरण प्राप्त करना

कम्पनी के संचालकों से आन्तरिक निरीक्षण के सम्बन्ध में एक लिखित विवरण प्राप्त करना चाहिए। साथ ही यदि ठीक समझा जाय, तो कम्पनियों के अधिकारियों के हस्ताक्षरों के नमूने (specimen signature) भी प्राप्त करने चाहिए। इससे अंकेक्षक को अपने कार्य में आयी हुई बाधाओं को दूर करने तथा स्पष्टीकरण लेने में पर्याप्त सुविधा होगी।

(VII) व्यापार के प्रारम्भ तथा समामेलन के प्रमाण-पत्र का निरीक्षण (Inspection of Certificate of Incorporation and Commencement of Business)

व्यापार प्रारम्भ करने का प्रमाण-पत्र लिखे बिना कोई भी सार्वजनिक (Public) कम्पनी व्यापार प्रारम्भ नहीं कर सकती है। एक निजी (private) कम्पनी समामेलन के पश्चात् ही अपना व्यापार प्रारम्भ कर सकती है तथा ऋण लेने के अधिकार का प्रयोग कर सकती है। अंकेक्षक को इन बातों को ध्यान में रखते हुए प्रमाण-पत्रों की जांच करनी चाहिए।

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अंश-पूंजी

(SHARE CAPITAL)

अंश-पूंजी के निर्गमन के सम्बन्ध में सामान्य बातें

(1) एक सार्वजनिक कम्पनी को अंशों का आबंटन करने से पूर्व रजिस्ट्रार के पास विवरण या प्रविवरण के स्थान पर विवरण (statement in lieu of prospectus) फाइल करना चाहिए। यह नियम प्रथम आबंटन की स्थिति में लागू होता है।

(क) प्रविवरण में सम्पूर्ण वैधानिक सूचनाएं होनी चाहिए।

(ख) प्रविवरण पर सभी संचालकों के तारीख सहित हस्ताक्षर होने चाहिए और उसकी एक प्रतिलिपि रजिस्ट्रार के पास भेजनी चाहिए।

(ग) रजिस्ट्रार के पास फाइल करने के 90 दिन के अन्दर प्रविवरण विज्ञापन के लिए भेजना चाहिए। अंशों के लिए प्रार्थना-पत्रों के फॉर्म के साथ-साथ प्रविवरण की एक प्रतिलिपि भी भेजनी चाहिए।

(2) कम्पनी के संचालक अंशों का आबंटन तब तक नहीं कर सकते, जब तक कि धारा 39 में दिन गये नियमों का पालन न किया जाय।

आबंटन पर प्रतिबन्ध (Restrictions on Allotment of Shares) (i) कोई भी कम्पनी अपना निर्गमित अंश-पंजी का आबंटन तब तक नहीं कर सकती जब तक प्रार्थित पंजी की रकम कम-से-कम प्रविवरण में लिखित न्यूनतम अभिदान की रकम के बराबर न हो।

सनतम अभिदान (Minimum Subscription)_ न्यनतम अभिटान की रकम निर्धारण करने के निम्नलिखित बातें आधारभूत होती हैं :

(क) खरीदी हुई सम्पत्तियों की रकम चुकाना:

(ख) प्रारम्भिक व्यय तथा कमीशन इत्यादि की रकम चुकाना:

(ग) उपर्युक्त व्ययों के लिए प्राप्त ऋणों का चुकाना;

(घ) पर्याप्त कार्यशील पूंजी (Working capital) प्राप्त करना और

(ड) किसी अन्य व्यय का चुकाना जिसका उल्लेख प्रविवरण में स्पष्ट रूप से कर दिया गया हो।

(ii) कम्पनी ने प्रार्थना-पत्र के साथ दी जाने वाली रकम प्राप्त कर ली है।

(iii) यह रकम किसी भी प्रकार अंश के अकित मूल्य (nominal value) के 5% से कम नहीं हो।

(iv) प्रार्थियों से प्राप्त सम्पूर्ण रकम अनुसूचित बैंक (Scheduled Bank) में जमा कर दी है जब तक की धारा 11 के अनुसार व्यापार प्रारम्भ करने का प्रमाण-पत्र प्राप्त न हो जाय अथवा धारा 39(3) के अनुसार इसे वापस न कर दिया जाय।

इस धारा के नियमों का उल्लंघन करने के लिए जो प्रवर्तक (Promoter), संचालक या अन्य व्यक्ति जानबझकर दोषी होगा उस पर 1,000 ₹ प्रतिदिन अधिकतम 1 लाख र तक जुर्माना हो सकता है।

यदि इन सभी शर्तों का पालन प्रविवरण के निर्गमन की तारीख के 120 दिन के अन्दर न किया जाय तो प्रार्थियों से प्राप्त सम्पूर्ण रकम बिना ब्याज के तुरन्त उनको वापस करनी होगी और यदि 30 दिन के अन्दर यह रकम वापस न की गयी तो कम्पनी का प्रत्येक संचालक अलग-अलग और सामूहिक रूप से उस रकम को 130 दिन के बाद 6% ब्याज के साथ वापस करने के लिए जिम्मेदार होगा।

(3) धारा 39(4) के अनुसार आबंटन के 30 दिन के अन्दर आबंटन सम्बन्धी विवरण रजिस्ट्रार के पास फाइल करना चाहिए। इस विवरण में कम्पनी उन अंशों को नहीं दिखायेगी, जो रोकड़ के लिए आबंटित किये गये हैं, परन्तु उन पर इस आबंटन के लिए वास्तव में रोकड़ प्राप्त नहीं हुई है। यह विवरण नीचे लिखी बातों के सम्बन्ध में तैयार करना चाहिए :

(क) रोकड़ के लिए आबंटित किये गये अंशः

(ख) रोकड़ के अतिरिक्त अन्य प्रतिफल के लिए आबंटित किये गये अंश: व

(ग) आबंटित किये गये बोनस अंश।

(4) आबंटन के बाद 3 माह के अन्दर निर्गमित अंशों के लिए अंश-पत्र (Share certificates) बनाये जाने चाहिए और अंशधारियों को देने के लिए तैयार करने चाहिए।

(5) आबंटन के पश्चात् सदस्यों के रजिस्टर में प्रत्येक अंशधारी से सम्बन्धित लेखे कर देने चाहिए।

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अंश-पूंजी का अंकेक्षण

(AUDIT OF SHARE CAPITAL)

एक नव-निर्मित (newly formed) कम्पनी की अंश-पूंजी का अंकेक्षण करने के लिए आगे दिए हुए प्रलेख, खाते तथा पुस्तकों की जांच करनी चाहिए :

(1) पार्षद सीमानियम (Memorandum of Association);

(2) पार्षद अन्तर्नियम (Articles of Association);

(3) प्रविवरण (Prospectus);

(4) संचालकों की सभा की कार्यवाही-विवरण-पुस्तक (Directors’ Minute Book);

(5) अंशों के लिए प्रार्थना-पत्र (Application for Shares);

(6) प्रार्थना-पत्र तथा आबंटन-बही (Application and Allotment Book);

(7) आबंटन के पत्रों की प्रतियां (Copies of Letters of Allotment);

(8) खेद प्रकट करने के पत्रों की प्रतियां (Copies of Letters of Regret);

(9) याचना-पत्रों की प्रतियां (Copies of Letters of Calls);

(10) याचना-बही (Calls Book);

(11) अंश-रजिस्टर (Share Register);

(12) रोकड़-बही (Cash Book); और

(13) पास-बुक (Pass Book)

अंकेक्षण की दृष्टि से अंश-पंजी को दो भागों में बांटकर अध्ययन किया जा सकता है:

(1) नकद रोकड़ के लिए निर्गमित अंश (Shares issued for Cash)| (II) रोकड़ के स्थान पर अन्य प्रतिफल के लिए निर्गमित अंश (Shares issued for Consideration other than Cash)

(1) नकद रोकड़ के लिए निर्गमित अंश

अंकेक्षण की सम्पूर्ण कार्य विधि तीन भागों में विभाजित की जा सकती है : (क) प्रार्थना-पत्र की प्राप्ति तथा उसके साथ प्राप्त रोकड़ की जांच (Application Stage)। (ख) अंशों के आबंटन-सम्बन्धी कार्य आदि की जांच (Allotment Stage)|

(ग) याचना-सम्बन्धी जांच (Call Stage)।

(क) प्रार्थना-पत्रों की जांच

(1) अंकेक्षक को प्रार्थना-पत्रों की जांच करनी चाहिए और उनकी सहायता से प्रार्थना-पत्र तथा आबंटन-बही। की प्रविष्टियों की जांच करनी चाहिए।

(2) फिर प्रार्थना-पत्र तथा आबंटन-बही की प्रविष्टियों का मिलान रोकड़-बही से करना चाहिए।

(3) उसे यह देखना चाहिए कि प्रार्थना-पत्र के साथ प्राप्त रकम अनुसूचित बैंक (Scheduled Bank)| में जमा कर दी गयी है या उसी प्रकार धारा 39(3) की व्यवस्था के अनुसार वापस कर दी गयी है।

(4) खेद प्रकट करने के पत्रों (letters of regret) की प्रतियों की सहायता से रोकड़-बही तथा प्रार्थना-पत्र

और आबंटन-बही की जांच करनी चाहिए और प्रविष्टियों की जांच करनी चाहिए जो रकम की वापसी से। सम्बन्धित हैं।

(5) प्रार्थना पत्र तथा आबंटन-बही के योग की जांच करनी चाहिए तथा यह देखना चाहिए कि आवश्यक प्रविष्टि के द्वारा अंश प्रार्थना-पत्र खाता (Share Application Account) डेबिट तथा अंश-पूंजी खाता (Share Capital Account) क्रेडिट कर दिया गया है

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(ख) आबंटन की जांच

(1) अंकेक्षक को आबंटन की स्वीकृति का सत्यापन करने के लिए संचालकों की कार्यवाही-विवरण-पुस्तक की जांच करनी चाहिए।

(2) इसको प्रार्थना-पत्र तथा आबंटन-बही की प्रविष्टियों को खेद प्रकट करने के पत्रों (Letters of Regret) की प्रतियों से मिलान करना चाहिए।

(3) आबंटन पर प्राप्त रकम के लिए रोकड़-बही की जांच करनी चाहिए तथा उसका मिलान प्रार्थना-पत्र । तथा आबंटन-बही से करना चाहिए।

(4) प्रार्थना-पत्र तथा आबंटन के समय प्राप्त रकम की अंश रजिस्टर में की गयी खतौनी से जांच करना । चाहिए।

 (5) यह देखना चाहिए कि सभी जोड़ ठीक हैं और आबंटन की प्रविष्टियां जर्नल में दी गयी है।

(ग) याचना की जांच

(1) अंकेक्षक को याचना के सम्बन्ध में संचालकों की सभा की कार्यवाही-विवरण-पुस्तक का निरीक्षण करना चाहिए।

(2) याचना से सम्बन्धित पत्रों की प्रतियों की सहायता से याचना-बही की प्रविष्टियों की जांच करना चाहिए।

(3) याचना-बही तथा रोकड़-बही से अंश-रजिस्टर में की गयी खतौनी की जांच करनी चाहिए।

(4) प्रार्थना-पत्र तथा आबंटन-बही तथा अप्राप्य याचनाओं की सूची (Schedule of Calls in Arrear) का मिलान करना चाहिए और यह देखना चाहिए कि यह रकम सही है।

(5) याचना पर पेशगी-प्राप्ति (Calls in Advance) की नियमानकलता की जांच करनी चाहिए। यह कम पंजी में शामिल नहीं की जाती है। यह देखना चाहिए कि रकम अलग से खातों में दिखायी गयी है।

(6) याचना-बही के जोड़ों की जांच करनी चाहिए और इस सम्बन्ध में की गयी प्रविष्टियों की जाच करनी चाहिए ।

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अन्य विविध कर्तव्य

(1) अंकेक्षक को यह देखना चाहिए कि आबंटित अंशों की राशि अधिकृत तथा निर्गमित पूंजी की राशि से अलग नहीं है एवं प्रविवरण (Prospectus) में वर्णित सभी शर्तों का पालन कर दिया गया है।

(2) अंशधारियों के खातों के शेषों के योगों का अंश-पूंजी खाते के शेषों से मिलान करना चाहिए।

(3) अंशों का अभिगोपन (Underwriting) किया गया है, तो अभिगोपकों (Underwriters) के साथ किये गये प्रसंविदे की जांच करनी चाहिए। यह देखना चाहिए कि प्रसंविदे की शर्तों का पालन पूर्णतया किया गया है।

(4) उचित प्रमाणकों की सहायता से कमीशन, दलाली, आदि के भुगतान की रकम का प्रमाणन करना चाहिए।

उपर्युक्त पद्धति केवल किसी कम्पनी के प्रथम वर्ष के खातों पर अंकेक्षण करने के लिए ही अपनायी जाती है। यदि आगामी वर्षों में फिर से कुछ अंशों का निर्गमन किया जाय, तो उससे सम्बन्धित लेखों की विस्तृत जांच करने की आवश्यकता नहीं है। उसके लिए परीक्षण जांच से काम चल सकता है।

(II) रोकड़ के स्थान पर अन्य प्रतिफल के लिए निर्गमित अंश

रोकड़ के स्थान पर अन्य प्रतिफल के लिए कम्पनी अंशों का निर्गमन उन व्यक्तियों या संस्थाओं को करती है जिनसे कम्पनी ने या तो कोई सम्पत्ति प्राप्त की हो या जिन्होंने कम्पनी को अपनी सेवाएं दी हैं।

(1) विक्रेता के लिए अंशों का निर्गमन (Issue of Shares to a Vendor) विक्रेता से प्राप्त सम्पत्ति या व्यापार के बदले में अंश निर्गमित किये जाते हैं जिनके लिए निम्नलिखित लेखों को देखना चाहिए :

(क) प्रसंविदा (Contract) कम्पनी तथा विक्रेता के बीच किये गये प्रसंविदों की जांच करनी चाहिए जिससे क्रय-प्रतिफल (purchase consideration) की राशि का पता लगाया जा सके।

(ख) प्रविवरण (Prospectus) कम्पनी के प्रविवरण के अध्ययन से क्रय-प्रतिफल (purchase consideration) के चुकाने की विधि की जानकारी करनी चाहिए।

(ग) संचालकों की मिनट-बुक-अंशों के आबंटन के लिए संचालकों की बैठक की कार्यवाही-विवरणपुस्तिका की जांच करनी चाहिए।

(घ) विक्रेता के मनोनीत व्यक्ति (nominee) के नाम अधिकार-पत्र तथा शर्तनामा–यदि विक्रेता के स्थान पर उनके द्वारा मनोनीत व्यक्तियों के नाम अंशों का आबंटन किया गया हो तो विक्रेता के इस अधिकार-पत्र (authority) या शर्तनामे की जांच करनी चाहिए।

(2) अभिगोपकों के नाम में अंशों का निर्गमन (Issue of Shares to Underwriters of Shares) (क) प्रसंविदा (Contract) कम्पनी तथा अभिगोपकों के बीच किये गये प्रसंविदे की जांच करनी। चाहिए और कमीशन की शर्तों की जानकारी करनी चाहिए।

(ख) संचालकों की मिनट-बुक संचालकों की मिनट-बुक का निरीक्षण करके अंशों के आबंटन की वैधता की जानकारी करनी चाहिए।

() अन्तर्नियम  (Articles of Association)-अन्तर्नियम का अध्ययन करके अभिगोपन कमीशन की राशि तथा भुगतान करने की विधि की जानकारी करनी चाहिए।

(घ) प्रविवरण (Prospectus) प्रविवरण देखकर यह पता लगाना चाहिए कि उसमें इस कमीशन के। भुगतान करने के अधिकार का उल्लेख कर दिया गया है या नहीं।

(3) प्रवर्तकों के नाम में अंशों का निर्गमन (Issue of Shares to Promoters)

एउनक द्वारा प्रारम्भिक व्यय के लिए रकम खर्च करने के फलस्वरूप कभी-कभी अंशों का निर्गमन कर। दिया जाता है। इसके लिए भी :

(क) प्रसंविदा, और

(ख) संचालकों की मिनट-बुक का निरीक्षण करना चाहिए।

कुछ विशेष बातें (1) अंकेक्षक को यह विशेष रूप से देखना चाहिए कि इन सभी प्रसंविदों (contracter को अंशों के आबंटन-पत्र सहित, आबंटन के एक महीने के अन्दर, रजिस्ट्रार के पास भेज दिया गया है अथवा नहीं।

यदि प्रसंविदा मौलिक है, तो उसे स्टाम्प कागज पर लिखकर रजिस्ट्रार के पास भेजना चाहिए।

(2) रोजनामचे में की गयी प्रविष्टियों की जांच करनी चाहिए और यह देखना चाहिए कि यह रकम उचन्ती खाते (Suspense Account) में डेबिट तथा पूंजी खाते में क्रेडिट कर दी गयी है।

(3) यह भी देखना चाहिए कि रोकड़ के स्थान पर अन्य प्रतिफल के लिए निर्गमित अंशों को चिट्ठे में अलग से दिखाया गया है।

कम्पनी द्वारा अपने निजी अंशों का क्रय (Purchase of its own Shares by a Company)

कम्पनी अधिनियम, 2013 की धारा 67 में प्रावधान है कि एक कम्पनी जो सीमित (limited) अंशों। वाली हो या गारण्टी से सीमित हो तथा जिसकी अंश पूंजी हो, अपने अंशों का क्रय नहीं कर सकती है। यह। पाबन्दी अंश पूंजी वाली सभी कम्पनियों पर लागू होती है चाहे वे निजी (Private) कम्पनी हों अथवा सार्वजनिक (Public)।

कम्पनी अधिनियम, 2013 में धारा 68 एवं SEBI (Securities and Exchange Board of India Act) के दिशा-निर्देशों के अन्तर्गत कुछ शर्तों के अन्तर्गत कम्पनियों को अपने अंश या अन्य प्रतिभूतियों को क्रय करने की अनुमति दे दी है। ये प्रावधान निम्नलिखित हैं :

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स्वयं-क्रय के स्रोत

(SOURCES TO BUY-BACK)

कम्पनी अधिनियम, 2013 की धारा 68(1) के कोई भी कम्पनी अपने अंश तथा अन्य विशिष्ट प्रतिभूतियां निम्न में से क्रय कर सकती है :

(i) अपने स्वतन्त्र संचय (free reserve) में से अथवा

(ii) प्रतिभूतियां-अधिमूल्य खाते (Securities-Premium Account) में से। इस प्रकार अंश अधिमूल्य राशि ही नहीं, परन्त ऋणपत्र अथवा अन्य प्रतिभूतियां अधिमूल्य राशि (other securities premium amount) भी प्रयोग की जा सकती है।

(iii) किन्हीं अंशों अथवा प्रतिभूतियों से प्राप्त राशि में से; उसी प्रकार के अंशों अथवा अन्य उसी प्रकार की विशिष्ट प्रतिभूतियों से प्राप्त राशि में से कैसे भी वापसी-क्रय (buy-back) नहीं किया जाएगा। यदि मुक्त। संचयों से वापसी-क्रय किया जाएगा तो धारा 69 के अनुसार वापसी-क्रय किए गए अंशों के मूल्य के बराबर की राशि पूंजी शोधन संचय खाते’ (Capital Redemption Reserve Account) में हस्तान्तरित की जाएगी।

और ऐसे हस्तान्तरण के विवरण चिट्ठे में लिखे जाएंगे। SEBI के निर्देशों के अन्तर्गत इस खाते का उपयोग पूर्णदत्त बोनस अंशों के निर्गमन के लिए किया जा सकेगा।

1 वापसी-क्रय (Buy-back) की शर्ते—धारा 70 में प्रावधान यह है कि कोई भी कम्पनी अपने अंशो । अथवा अन्य विशिष्ट प्रतिभूतियों का क्रय नहीं कर सकेगी, जब तक कि :

(अ) वापसी-क्रय (buy-back) अन्तर्नियमों से अधिकृत न हो;

(ब) वापसी-क्रय (buy-back) को अधिकृत करने के लिए कम्पनी ने साधारण सभा में विशेष प्रस्ताव पास न कर लिया हो;

(स) वापसी-क्रय (buy-back) कम्पनी की कुल प्रदत्त पूंजी तथा स्वतन्त्र संचय (free reserves) का 25% से अधिक न हो। समता अंशों के वापसी-क्रय में यह ध्यान देने योग्य है कि यह वित्तीय वर्ष में कुल । प्रदत्त समता पूंजी के 25% से अधिक नहीं होना चाहिए।

(द) ऐसे वापसी क्रय के पश्चात् पूंजी तथा स्वतन्त्र संचय के दोगुने से अधिक कम्पनी के ऋण (debt) | का अनपात नहीं होना चाहिए। केन्द्रीय सरकार कम्पनी या कम्पनियों के वर्गों के लिए अधिक अनपात निधारित। कर सकती है। ऋण (debt) से तात्पर्य सुरक्षित अथवा असुरक्षित (secured or unsecured) ऋणों की सभा। राशियों से है।

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कम्पनी अंकेक्षण

(य) सभी अंश अथवा अन्य प्रतिभूतियां पूर्ण दत्त न हों।

(र) अंकित प्रतिभूतियों के सम्बन्ध में वापसी-क्रय SEBI के निर्देशों के अनुरूप न हो।

(ल) अनौकत (unlisted) विशिष्ट प्रतिभतियों के लिए अलग से SERI से निर्देश निगमित न किए गए हों।

1 विशेष प्रस्ताव के लिए दी जाने वाली सभा की सूचना में निम्न विवरण दिया जाएगा।

(अ) सभी तथ्यों का पूर्ण वर्णन,

(ब) वापसी-क्रय की आवश्यकता,

(स) वापसी-क्रय के लिए प्रस्तावित प्रतिभूतियों का वर्ग,

(द) वापसी-क्रय में विनियोग की जाने वाली राशि.

(य) वापसी-क्रय के पूरा होने की समय-सीमा,

(र) मूल्य जिस पर वापसी-क्रय किया जाएगा.

(ल) यदि प्रवर्तक (promoters) अपने अंश देने का विचार करते हैं (i) प्रस्तावित अंश तथा (ii) विशेष प्रस्ताव पास होने के गत 6 महीने के उनके लेन-देन व उनके पास रखे गए अंश तथा प्राप्त अंशों की संख्या, प्राप्ति की तिथि व मूल्य।

1 धारा 68(2) के अन्तर्गत विशेष प्रस्ताव पास होने के 12 महीनों के भीतर वापसी-क्रय पूरा हो जाना चाहिए।

2. D. वापसी-क्रय के लिए विशेष प्रस्ताव पास होने के पश्चात् कम्पनी रजिस्ट्रार तथा SEBI के पास निर्धारित प्रपत्र में अपनी शोधगम्यता (solvency) की घोषणा करेगी जिस पर कम-से-कम 2 संचालकों के, जिनमें एक प्रबन्ध-संचालक होगा, हस्ताक्षर होंगे।

3. कम्पनी वापसी-क्रय की गई प्रतिभूतियों को इसके एक सप्ताह के अन्दर नष्ट कर देगी।

4. F. वापसी-क्रय के 24 माह के अन्दर कम्पनी वापसी-क्रय किए गए अंशों व प्रतिभूतियों के वर्ग का निर्गमन नहीं करेगी। बोनस अंशों का निर्गमन किया जा सकता है।

5. कम्पनी वापसी-क्रय के सम्बन्ध में एवं उनके क्रय आदि के सम्बन्ध में पूर्ण विवरण के साथ अलग-से रजिस्टर तैयार करेगी।

6. वापसी-क्रय पूर्ण होने के 30 दिन के अन्दर कम्पनी रजिस्ट्रार तथा SEBI के यहां निर्धारित प्रपत्र में विवरण-पत्र फाइल करेगी।

यदि कम्पनी अंकित कम्पनी नहीं है, तो SEBI के पास विवरण-पत्र फाइल करने की आवश्यकता नहीं है।

चिट्टे में प्रकटीकरण

(DISCLOSURE IN BALANCE SHEET)

कम्पनी अधिनियम, 2013 की धारा 68 के अनुसार यदि कोई कम्पनी स्वतन्त्र संचय (free reserves) में से अपने स्वयं के अंश क्रय करती है, तो उसे इस प्रकार क्रय किए गए अंशों के अंकित मूल्य (nominal value) के बराबर राशि पूंजी शोधन संचय खाते (Capital Redemption Reserve Account) में हस्तान्तरित करनी होगी और इसका विवरण चिट्ठे में दिया जाएगा।

प्रतिबन्ध (विशेष परिस्थितियों में) [Prohibitions (in certain circumstances)]

(1) कोई भी कम्पनी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अपने अंश या अन्य निर्दिष्ट प्रतिभूतियां :

(अ) किसी सहायक कम्पनी व स्वयं अपनी सहायक कम्पनी के माध्यम से, अथवा

(ब) किसी विनियोगी कम्पनी या विनियोगी (Investments) कम्पनी के समूह द्वारा, अथवा

(स) कम्पनी द्वारा किसी खाता या देय ब्याज के शोधन, ऋणपत्रों या पूर्वाधिकारी अंशों के शोधन या किसी अंशधारी को लाभांश का भुगतान या किसी वित्तीय संस्था या बैंक के ऋण के भुगतान में दोष है, नहीं खरीदेगी।

(2) यदि कम्पनी ने धारा 92, 127 व 129 के प्रावधानों का अनुपालन नहीं किया है. तो ऐसी कसी

प्रत्यक्ष रूप से अपने अंश अथवा अन्य विशिष्ट प्रतिभूतियां (specified securities) नहीं खरीदेगी।

अधिमूल्य पर अंशों का निर्गमन

(ISSUE OF SHARES AT A PREMIUM)

धारा 52 के अनुसार अधिमूल्य पर अंशों के निर्गमन के सम्बन्ध में नीचे लिखे नियम है :

(1) यदि कोई कम्पनी अधिमूल्य पर अंशों का निर्गमन करती है, तो अधिमूल्य की प्राप्त रकम एक अलग अश-अधिमूल्य खाते (Share Premium Account) में हस्तान्तरित करनी होगी।

(2) अंश-अधिमूल्य खाते की रकम नीचे लिखे कार्यों के लिए प्रयोग की जा सकती है :

(क) बोनस अंशों के निर्गमन के लिए;

(ख) प्रारम्भिक व्ययों (preliminary expenses) को अपलिखित करने के लिए:

(ग) कम्पनी के अंशों या ऋणपत्रों के निर्गमन पर किये गये खर्चे, कमीशन और अपहार (discount) को अपलिखित करने के लिए; और

(घ) ऋणपत्र या पूर्वाधिकार अंश के शोधन पर देय अधिमूल्य के पूर्वोपाय के लिए;

(ङ) यह धारा उन अंशों के सम्बन्ध में भी लागू होगी जिनका अधिमूल्य पर निर्गमन नये विधान के लागू होने से पूर्व किया गया है।

सैद्धान्तिक दृष्टि से मूल्य की रकम पूंजी आय है, अतः इसे लाभ की तरह अंशधारियों में नहीं बांटा जा सकता है। इस रकम का उपयोग पूंजी हानियों के अपलिखित करने के लिए किया जा सकता है और इसकी शेष रकम पूंजी संचय खाते (Capital Reserve Account) में लिख दी जाती है।

अंकेक्षक के कर्तव्य  (1) सीमानियम, अन्तर्नियम तथा संचालकों की मिनट-बुक का निरीक्षण करना चाहिए और यह देखना चाहिए कि अंशों के अधिमूल्य पर निर्गमन पूर्ण अधिकृत है या नहीं। अधिमूल्य की दर का पता लगाना चाहिए।

(2) धारा 52 की शर्तों का पूर्णरूपेण पालन किया गया है या नहीं, यह भी देखना चाहिए।

(3) अंकेक्षक को अधिमूल्य की रकम के उपयोग के सम्बन्ध में कोई आपत्ति नहीं हो सकती। उसे केवल यह देखना चाहिए कि रकम का उपयोग विधान तथा अन्तर्नियमों के नियम के अनुसार किया गया है या नहीं।

(4) यह देखना चाहिए कि अंश-अधिमूल्य-खाता चिट्ठे के दायित्व पक्ष में संचय व आधिक्य’ (Reserves and Surplus) के शीर्षक में लिखा गया है अथवा नहीं।

स्वैट समता अंशों का निर्गमन

(ISSUE OF SWEAT EQUITY SHARES)

कम्पनी अधिनियम, 2013 की धारा 54 के अन्तर्गत कम्पनी पहले निर्गमित अंशों के किसी वर्ग के स्वैट समता अंश निर्गमित कर सकती है, यदि निम्नलिखित शर्तों को पूरा कर दिया गया है :

(अ) स्वैट समता अंशों का निर्गमन विशेष प्रस्ताव द्वारा स्वीकृत होना चाहिए जिसे कम्पनी ने साधारण सभा में पास कर दिया हो।

(ब) इस प्रस्ताव में इन अंशों की संख्या, चालू बाजार मूल्य, प्रतिफल यदि कोई हो तथा संचालकों अथवा कर्मचारियों के वर्ग या वर्गों का उल्लेख होना चाहिए जिनको ये समता अंश निर्गमित किए जाने हैं।

(स) निर्गमन की तिथि पर कम्पनी के व्यवसाय प्रारम्भ करने की तिथि से एक वर्ष से कम का समय नहीं होना चाहिए।

(द) कम्पनी के स्वैट समता अंश जिसके समता अंश मान्यता प्राप्त स्टॉक एक्सचेन्ज में अंकित (listed) हो गए हों, इस सम्बन्ध में SEBI (Securities and Exchange Board of India) के द्वारा बनाए गए निर्देशों के अनुसार निर्गमित किए जाते हैं।

इसके बावजूद किसी कम्पनी के सम्बन्ध में जिसके समता अंश अंकित (listed) नहीं हुए हैं उन निर्देशों के अन्तर्गत निर्गमित किए जा सकते हैं जो इस सम्बन्ध में निर्धारित किए गए हों।

स्पष्टीकरण 1 : इस उपधारा के लिए कम्पनी का आशय उस कम्पनी से है जो अधिनियम के अन्तर्गत समामेलित, निर्मित या रजिस्टर्ड हो तथा भारत के बाहर किसी देश में समामेलित इसकी सहायक कम्पनी हो।

स्पष्टीकरण 2 : इस अधिनियम के लिए “स्वैट समता अंशों” का आशय उन अशा के द्वारा इसके कर्मचारियों अथवा संचालकों को अपहार (Discount) पर निगामत किए हों या रोकडं के अतिरिक्त विशिष्ट जानकारी (know-how) देने के लिए या बौद्धिक सम्पत्ति अधिकारों (intellectual Property Rights ) चालको को अपहार (Discount) पर निर्गमित किए गए हों या रोकड़ property rights) के रूप में अधिकार उपलब्ध कराने के लिए या मूल्य बढ़ाने की दृष्टि स (क से) निर्गमित किए हों।

सभी सीमाएं, पाबन्दियां तथा प्रावधान जो समता अंशों के सम्बन्ध में लागू होती हैं, धारा 54 के अन्तग निर्गमित स्वैट समता अंशों के लिए भी लागू होती हैं।

याचना पर पेशगी-प्राप्ति

(CALLS IN ADVANCE)

धारा 50 के अन्तर्गत कम्पनी अंशों पर अयाचित राशि का पेशगी में प्राप्ति का अधिकार रखती है, पर पेशगी-प्राप्ति के लिए धारा 50 के अन्तर्गत किसी सदस्य को मत देने का अधिकार प्राप्त नहीं होगा।

कम्पनी के अन्तर्नियम कम्पनी को याचना पर पेशगी-प्राप्ति (Calls in Advance) पर व्याज देने का अधिकार दे सकते हैं। यदि यह अधिकार मिला हआ है तो यह व्याज 12% से अधिक नहीं होना चाहिए। याद इससे अधिक दर पर ब्याज दिया जाय तो वह कम्पनी की वार्षिक साधारण सभा में स्वीकृत किया जाना चाहिए।

यह स्मरण रहे कि :

(1) याचना पर पेशगी-प्राप्ति पूंजी का भाग नहीं होता। इसे खातों तथा चिट्ठे में अलग से लिखना चाहिए।

(2) इस प्राप्ति पर ब्याज अवश्य देनी होगी, चाहे वह पूंजी में से ही क्यों न दी जाय। ब्याज के लिए पूर्वोपाय अत्यावश्यक है।

कम्पनी अधिनियम की धारा 51 के अनुसार कोई कम्पनी यदि उसके अन्तर्नियम अनुमति दें, अंशों के अतिरिक्त प्रदत्त राशि पर औसत के अनुसार लाभांश दे सकती है, जबकि कुछ अंशों पर अन्य की अपेक्षा अधिक राशि प्राप्त कर ली गयी हो। फिर भी (Table ‘F’) के नियम 83(2) के अनुसार याचना पर पेशगी-प्राप्ति पर लाभांश के रूप में किसी भी रकम का भुगतान नहीं किया जायेगा।

अंकेक्षक के कर्तव्य

(1) अंकेक्षक को अन्तर्नियमों का अध्ययन करना चाहिए और इस प्राप्ति के सम्बन्ध में अधिकार तथा देय ब्याज की दर की जानकारी करनी चाहिए।

(2) याचना पर पेशगी-प्राप्ति की रकम का मिलान सदस्य-वही, याचना पर पेशगी-प्राप्ति खाता तथा रोकड़ बही के लेखों से करना चाहिए।

(3) यह देखना चाहिए कि पेशगी पर प्राप्त रकम पूंजी का भाग नहीं मानी गयी है बल्कि अलग से चिट्टे में दिखायी गयी है।

अप्राप्त-याचना रकम

(CALLS IN ARREAR)

जब कम्पनी के कुछ अंशधारी याचना पर मांगे हुए धन का भुगतान नहीं करते हैं, तो इसे अप्राप्त-याचना रकम कहते हैं।

कम्पनी के संचालक और प्रबन्धक-संचालक से भी कुछ अप्राप्त राशि हो सकती है जिसको अलग से चिटे में दिखाना चाहिए। प्रायः अन्तर्नियमों में से अप्राप्य याचना रकम पर ब्याज लेने का अधिकार दिया हुआ रहता है।

अंकेक्षक के कर्तव्य (1) अंकेक्षक का एसी सभी अप्राप्त याचनाओं की सूची प्राप्त करनी चाहिए और उसका मिलान सदस्य-बही से करना चाहिए।

(2) अप्राप्त-याचना रकम चिट्ठ में विधिपूर्वक दिखायी गयी है यह भी देखना चाहिए। इस सम्बन्ध में संचालकों व प्रबन्ध-संचालका तथा अशधारिया से अप्राप्त राशि स्पष्ट रूप से अलग-अलग लिखी जानी चाहिए। यह सम्पूर्ण रकम पूंजी में से घटाकर दिखायी जाती है।

(3) इस राशि पर भुगतान की जाने वाली ब्याज की दर के लिए संचालकों के प्रस्ताव को देखना चाहिए।

पूर्वाधिकार अंशों का निर्गमन व विमोचन

यदि कम्पनी के अन्तर्नियम अनुमति देते हैं तो वह पूर्वाधिकार अंशों का निर्गमन कर सकती है। ऐसे अश कम्पनी की इच्छा से निर्धारित तारीख को या उससे पहले विमोचन किये जा सकते हैं।

कम्पनी अधिनियम की धारा 80 की शर्ते निम्नांकित प्रकार है:

(1) इन अंशों का विमोचन केवल कम्पनी के ऐसे लाभ में से ही हो सकता है जो लाभांश बांटने के लिए उपलब्ध हों अथवा अंशों के नये निर्गमन से प्राप्त राशि में से हो सकता है।

(2) ऐसे अंशों का विमोचन नहीं किया जायेगा जब तक कि वे पूर्ण चुकता न हों।

(3) यदि इनका विमोचन अधिमूल्य (Premium) पर होता है, तो उसका प्रबन्ध अंश के विमोचन से पहले कम्पनी के लाभों से या कम्पनी के अंश प्रीमियम खातों से किया जायेगा।

(4) यदि इन अंशों का विमोचन लाभों में से किया जाता है तो लाभों में से भुगतान किये जाने वाले अंशों के नामांकित मूल्य के बराबर एक राशि संचित कोष में हस्तान्तरित करनी चाहिए जिसे ‘पूंजी शोधन संचय खाता’ (Capital Redemption Reserve Account) कहते हैं।

(5) पूर्वाधिकार अंशों का उक्त विधियों से भुगतान करने का अर्थ कम्पनी की अधिकृत पूंजी कम करने से नहीं है।

(6) कम्पनी जिन अंशों का विमोचन कर देती है उनके अंकित मूल्य के बराबर के नये अंश वह निर्गमित कर सकती है। कम्पनी की अंश-पूंजी धारा 404 के अन्तर्गत फीस की गणना करने के लिए इन अंशों के निर्गमन से बढ़ी हुई नहीं मानी जायेगी। परन्तु यदि कोई अंश पुराने अंशों के भुगतान के पहले निर्गमित किये जाते हैं तो नये अंश जहां तक स्टाम्प ड्यूटी का सम्बन्ध है इस धारा के अन्तर्गत निर्गमित हुए नहीं माने जायेंगे जब तक कि नये अंशों के निर्गमन के पश्चात् एक महीने के अन्दर पुराने अंशों का भुगतान नहीं किया जाता है।

(7) ‘पूंजी शोधन संचय खाता’ अंश-पूंजी का भाग उसी प्रकार है जिस प्रकार ‘अंश प्रीमियम खाता’। अतः इसे न तो आहरित किया जा सकता है और न कम्पनी के अनिर्गमित अंश-पूंजी के भुगतान करने के अतिरिक्त अन्य कार्य के लिए काम में लिया जा सकता है, जो कि इसके सदस्यों को पूर्ण अदत्त बोनस अंशों के रूप में निर्गमित की जा सकती है।

इस अधिनियम में दी गयी व्यवस्था के बावजूद अंशों से सीमित दायित्व वाली कोई भी कम्पनी कम्पनी अधिनियम, 2013 के प्रारम्भ होने के पश्चात् कैसे भी पूर्वाधिकार अंश निर्गमित नहीं करेगी जो अविमोचनशील

अंकेक्षक के कर्तव्य (1) निर्गमन के लिए (1) अंकेक्षक को सर्वप्रथम कम्पनियों के अन्तर्नियमों का अध्ययन करके इस सम्बन्ध में प्राप्त अधिकार की जांच करनी चाहिए।

(2) इस निर्गमन का प्रमाणन करना चाहिए और उसको इस सम्बन्ध में किये गये लेखों की भी जांच करनी चाहिए।

(3) जब तक अंशों का विमोचन नहीं हो जाता है, विमोचन की शर्तों आदि का उल्लेख चिट्ठे में किया जाना चाहिए।

(ii) विमोचन के लिए

(1) अंकेक्षक को यह जांच करनी चाहिए कि धारा 80 का पूर्णरूपेण पालन किया गया है या नहीं।

(2) उसको यह सत्यापित करना चाहिए कि अंशों में विमोचन के लिए आवश्यक बराबर की राशि वास्तव में किसी अन्य स्थान पर विनियोजित की गई है।

(3) यदि अंशों का विमोचन नये निर्गमन द्वारा किया गया है. तो उसको अन्तर्नियमों की जांच करनी चाहिए और संचालकों की मिनट-बुक का निरीक्षण करना चाहिए।

(4) यह देखना चाहिए कि अंशों के विमोचन के लिए किए गए कोष के विनियोग की ब्याज सही रूप से हिसाब में लिखी गई है।

कम्पनी अंकेक्षण

(5) उसको विमोचन के लिए की गयी प्रविष्टियों का प्रमाणन करना  चाहिए और यह देखना चाहिए कि यह सही हैं ।

(6) इस बात का पुष्टि भी उसे कर लेनी चाहिए कि यशों के विमोचन के एक महान के रजिस्ट्रार को सूचना दे दी गई है।

अंश अपहरण

(FORFEITURE OF SHARES)

यदि कम्पनी के कुछ अंशधारी याचना की राशि का भुगतान नहीं करते है, नियमों के अनुसार इन अंशधारियों से प्राप्त रकम को जल किया जा सकता है। याद याचना का राशि का भुगतान नहीं करते हैं. तो अन्तर्नियमों में दिये गये अपहरण सम्बन्धी कोई नियम नहीं है तो इन अंशों को जब्त करने का पूर्ण अधिकार संचालक प्राप्त रकम को जब्त किया जा सकता है। यदि कम्पनी अधिनियम में जाता है जो इस अधिकार का प्रयोग कम्पनी के हितों में करते हैं।

अशं अपहरण की विधि अंशों का अपहरण करने के लिए अंशधारियों को इस बात का नाट जाता है कि वे एक निश्चित तारीख तक शेष रकम का भगतान कर दें। यदि वे ऐसा नहा करता प्राप्त रकम को जब्त कर लिया जायेगा। यदि फिर भी अंशधारी भुगतान नहीं करते हैं, तो उनसे प्राप्त रकम जब्त कर ली जाती है और पूंजी खाते की कल याचित (called) रकम से डेबिट कर दिया जाता है, आर अब तक प्राप्त रकम से आहरित-अंश खाता (Forfeited Shares Account) एवं प्राथना, आबटन और। याचना खाता को अप्राप्त रकमों के हिसाब से क्रेडिट कर दिया जाता है। यहां यह ध्यान देने योग्य है कि अपहरण किये जाने वाले अंशों को यदि अधिमूल्य (Premium) पर निर्गमित किया गया हो तो इन अशा से सम्बन्धित अधिमूल्य की राशि अपहरित अंश खाते में हस्तान्तरित नहीं की जायेगी।

अपहरित अंशों के पुनर्निर्गमन करने के लिए अपहार भी किया जा सकता है। अपहरित अंश खाते में से अपहार घटाने के पश्चात् शेष रकम अपहरण का लाभ मानी जाती है। यह विशेष लाभ है, अतः इसका प्रयोग पूंजीगत हानियों अथवा प्रारम्भिक व्यय अपहार आदि को अपलिखित करने में करना चाहिए। बाकी रकम पूंजी खाते में लिख देनी चाहिए।

अंकेक्षक के कर्तव्य आहरण सम्बन्धी  (1) अंश अपहरण की नियमानुकूलता का पता लगाने के लिए अन्तर्नियम का अध्ययन करना चाहिए। यह देखना चाहिए कि अपहरण विधिपूर्वक किया गया है या नहीं। _

(2) संचालकों की मिनट बुक देखकर यह पता लगाना चाहिए कि अंशधारियों को उचित नोटिस (due notice) दिया गया था या नहीं।

(3) अपहरण सम्बन्धी लेखों की जांच करनी चाहिए।

(4) अंश अपहरण के पश्चात् अंशधारी की सदस्यता समाप्त हो जाती है। अतः अंकेक्षक को यह देखना चाहिए कि सदस्यों के रजिस्टर में आवश्यक लेखे कर दिये गये हैं अथवा नहीं।

पुनर्निर्गमन  (5) आहरित अंशों के पुनर्निर्गमन के लिए संचालकों के प्रस्ताव को देखकर इसके औचित्य का पता लगाना चाहिए।

(6) पुनर्निर्गमन पर प्राप्त राशि का प्रमाणन करना चाहिए और यह भी देखना चाहिए कि अपहार (discount) की रकम अंशधारियों से पहले प्राप्त तथा अपहरित राशि से अधिक तो नहीं है।

(7) अपहरित अंश खाते की शेष रकम के उपयोग के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करनी चाहिए।

बोनस अंश

(BONUS SHARES)

बोनस अंश के निर्गमन करने के कारण निम्न दिये गये हैं।

(1) जब कम्पनी के पास  संचय की राशि इतनी अधिक हो जाती है कि कम्पनी को निकट भविष्य में की आवश्यकता प्रतीत नहा हाता ता बानस अश निर्गमित कर दिये जाते हैं।

(2) अधिक समय अधिक संचय होने से कम्पनी की प्रदत्त पूंजी (paid-up capital) तथा संस्था में प्रयुक्त पंजी में होता है. इस कारण संचय को कम करने के लिए बोनस अंश निर्गमित कर दिये जाते हैं।

(3) विभाज्य-लाभ अधिक होने से लाभांश की दर ऊंची हो जाती है जिससे व्यापार के प्रतिद्वन्द्वी इस व्यवस्था की ओर आकर्षित हो जाते हैं। लाभांश की दर कम करने के लिए भी बोनस अंशों का निर्गमन हितकर माना जाता है।

(4) अधिक लाभांश की दर की घोषणा से कर्मचारी तथा ग्राहक भी असन्तुष्ट हो जाते हैं, अतः लाभांश की दर कम रखते हुए बोनस अंश निर्गमित कर दिये जाते हैं।

यह स्मरण रखना चाहिए कि:

(1) भविष्य में अंशधारियों को लाभांश बांटने के लिए पर्याप्त मात्रा में लाभ होने चाहिए। अंश-पंजी के। बढ़ जाने से लाभांश की दर कम नहीं होनी चाहिए।

(2) कम्पनी के पास अनिर्गमित पूंजी (unissued capital) पर्याप्त मात्रा में होनी चाहिए ताकि बोनस अंश निर्गमित किये जा सकें।

(3) यदि अनिर्गमित पूंजी (unissued capital) न हो, तो अधिकृत अंश-पूंजी की वृद्धि के लिए। सीमानियम तथा अन्तर्नियम में परिवर्तन करने से सम्बन्धित प्रस्ताव पास करना चाहिए। साथ ही कम्पनी को रजिस्ट्रार के पास नोटिस भेजने चाहिए।

(4) यदि लाभांश बोनस अंशों के रूप में दिया जायगा, तो अन्तर्नियमों में आवश्यक परिवर्तन करना होगा।

अंकेक्षक के कर्तव्य यदि आंशिक दत्त (partly paid) अंशों को पूर्ण दत्त (fully paid) अंश बनाने के लिए बोनस का प्रयोग किया जाय तो अंकेक्षक को :

(1) संचालकों की सिफारिश के आधार पर साधारण बैठक में पास किये गये सदस्यों के प्रस्ताव को मिनट-बुक से देखना चाहिए।

(2) बोनस घोषित करने के साथ-साथ अंशों पर की गयी याचना (call) के लिए तत्सम्बन्धित प्रस्ताव को भी देखना चाहिए।

(3) याचना-खाता. सदस्य बही तथा संचय खातों में ये उचित लेखे रख दिये गये हैं, इनका प्रमाणन । करना चाहिए।

यदि नये अंश निर्गमित किये गये हों तो :

(4) अन्तर्नियम देखकर यह देखना चाहिए कि बोनस अंश निर्गमित हो सकते हैं या नहीं।

(5) साथ ही संचालकों की सिफारिश तथा सदस्यों के प्रस्ताव का निरीक्षण करना चाहिए।

(6) यदि बोनस अंशों के निर्गमन के लिए अंश-पूंजी में वृद्धि की गयी हो, तो यह देखना चाहिए कि सीमानियम तथा अन्तर्नियम में परिवर्तन के लिए प्रस्ताव पास किया गया है और रजिस्ट्रार के पास नोटिस भेज दिया गया है।

7 संचय खाते. रोजनामचे के लेखे, सदस्य-बही तथा पंजी खातों में लिखी गयी रकमों का प्रमाणन करना चाहिए।

(8) यह देख लेना चाहिए कि संचयों के पूंजीकरण से कम्पनी की अधिकृत पूंजी (authorised capital)  में वृद्धि तो नहीं हो गई है।

अंशों के हस्तान्तरण का अंकेक्षण

(SHARE TRANSFER AUDIT)

कम्पनी अधिनियम, 2013 की धारा 56 के अनुसार अंशों के हस्तान्तरण सम्बन्धी व्यवस्था का उल्लेख किया गया है। जब कोई अंशधारी कम्पनी के अंशों को अपने पास नहीं रखता और दूसरों को बेच देता है, तो यह ‘अंशों का हस्तान्तरण’ कहलाता है। प्रत्येक कम्पनी के अन्तर्नियम में अंशों के हस्तान्तरण से सम्बन्धित व्यवस्था दी जाती है।

इसके दो प्रमुख उद्देश्य होते हैं :

(1) मुनीमी अशुद्धियों (clerical errors) को रोकना, और

(2) दोहरे अंश-प्रमाण-पत्र या प्रमाणित हस्तान्तरण (duplicate share certificates or certified transfer) के जालसाजी से किये गये समुचित निर्गमन को रोकना।

सार्वजनिक कम्पनी (Public company) के अंश स्वतन्त्र रूप से हस्तान्तरित किये जा सकते है, पर एक निजी कम्पना (private company) अंशों के हस्तान्तरण के अधिकार पर प्रतिबन्ध लगाती है। कम्पना आधानयम, 2015 क प्रावधानों के अनसार कम्पनी के खातों का अंकेक्षण अनिवार्य है. परन्त अशा क हस्तान्तरण का अंकेक्षण अनिवार्य नहीं हैं। अंशों के हस्तान्तरण का अंकेक्षण अतिरिक्त कार्य (extra work) के रूप में अंकेक्षक को सौंपा जा सकता है जिसके लिए अंकेक्षक अपनी फीस के अतिरिक्त पारिश्रमिक लेता है। अंशों के हस्तान्तरण का अंकेक्षण क्योंकि अतिरिक्त कार्य है, अतः इसको वैधानिक अंकेक्षण (statutory audit) के साथ नहीं जोड़ा जा सकता है। उसी प्रकार इस कार्य के लिए प्राप्त पारिश्रमिक सामान्य अंकेक्षण-फीस के साथ नहीं जोड़ा जा सकता है। इस पारिश्रमिक को लाभ-हानि खाते में पृथक् से दिखाया जाना चाहिए।

अंकेक्षक के कर्तव्य (1) अंकेक्षक को अंश-हस्तान्तरण के लिए अन्तर्नियम देखकर हस्तान्तरण की विधि की जांच करनी चाहिए। यह देखना चाहिए कि इस विधि को पूर्ण रूप से अपनाया गया है या नहीं।

(2) उसे यह देखना चाहिए कि सभी हस्तान्तरणकर्ताओं को उचित नोटिस दिये गये हैं और यदि आंशिक-दत्त (partly paid) अंशों के रजिस्ट्रेशन के लिए प्रार्थना-पत्र दिये गये हैं, तो धारा 110 का पालन किया गया है अथवा नहीं।

(3) उसको हस्तान्तरण के पत्रों (Forms) की जांच करनी चाहिए और यह देखना चाहिए कि धारा 56 एवं अन्य धाराओं का पूर्णरूपेण पालन किया गया है या नहीं।

(4) उसको हस्तान्तरणकर्ताओं के हस्ताक्षरों की जांच करनी चाहिए कि कहीं ये झूठे हस्ताक्षर तो नहीं है।

(5) यह देखना चाहिए कि कोई भी हस्तान्तरिती (Transferee) अंशों को प्राप्त करने में अयोग्य तो नहीं है।

(6) हस्तान्तरण-पत्रों की सहायता से अंश हस्तान्तरण की जर्नल प्रविष्टियों की जांच करनी चाहिए।

(7) उसको संचालकों की सभाओं की मिनट-बुक की जांच करनी चाहिए कि सभी हस्तान्तरण संचालक-मण्डल से स्वीकृत हैं।

(8) उसको अंश-हस्तान्तरण के जर्नल (Share Transfer Journal) के अंश रजिस्टर तथा सदस्यों के रजिस्टर में की गयी खतौनी की जांच करनी चाहिए।

(9) उसे पुराने अंश प्रमाण-पत्रों को रद्द कर देना चाहिए और नये प्रमाण-पत्रों के प्रतिपर्णों के विवरणों का सत्यापन करना चाहिए।

(10) यदि कोई प्रमाण-पत्र किसी अन्य खोये हुए या नष्ट किये गये प्रमाण-पत्र के स्थान पर निर्गमित किया गया है।

(11) यह भी देखना चाहिए कि अंश-प्रमाण-पत्र उचित छपे हुए फॉर्मों पर निर्गमित किये गये हैं तथा प्रयोग में आने वाले सभी फॉर्मों को उचित नियन्त्रण में रखा गया है।

(12) यदि अंश-प्रमाण-पत्रों की अनुपस्थिति में अंशों का निर्गमन किया गया है तो उचित संलेखों की जांच करनी चाहिए।

(13) यदि प्रबन्धक पर रखे गये अंशों का हस्तान्तरण किया गया है तो यह देखना चाहिए कि सम्बन्धित संस्थाओं को उचित नोटिस दिये जा चुके हैं।

(14) यदि किन्हीं अंशधारिया की मृत्यु पर दिवालियेपन के कारण अंशो का प्रेषण (transmission of had किया गया है तो अकेक्षक का अन्तनियमो एवं अन्य आवश्यक प्रपत्रों एवं संलेखों की जांच करनी चाहिए।

(15) यह देखना चाहिए कि हस्तान्तरण शुल्क का लेखा लाभ-हानि खाते में उचित तथा पथक किया गया है।

(16) यदि हस्तान्तरण के रजिस्ट्रेशन के लिए एक के रजिस्ट्रेशन के लिए मना कर दिया गया है, तो धारा 56 के अनुसार 2 महीने का एवं हस्तान्तरिती को आवश्यक सूचना दे दी गयी है।

(17) अन्त में, यह देखना चाहिए कि संचालकों: ने अंशों के सम्बन्ध में आवश्यक प्रविष्टियां कर दी हैं।

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कोरा हस्तान्तरण

(BLANK TRANSFER)

कोरा हस्तान्तरण ऐसा हस्तान्तरण है जिसमें हस्तान्तरणकर्ता (Transferor) हस्तान्तरिती (Transferee) को कोरे हस्तान्तरण फॉर्म के साथ अंश-प्रमाण-पत्र फॉर्म हस्ताक्षर करने के लिए देता है। इस हस्तान्तरण फॉर्म पर अंशों की बिक्री की तारीख तथा हस्तान्तरिती का नाम नहीं लिखा जाता है।

कोरे हस्तान्तरण का एक लाभ यह है कि क्रेता इसे अपना नाम प्रकट किये बिना या स्टाम्प ड्यूटी दिये बिना अथवा नया हस्तान्तरण फॉर्म तैयार करने के बिना आगे बेच सकता है। इस प्रकार अंशों का क्रय व विक्रय एक ही कोरे फॉर्म की सहायता से कई बार किया जा सकता है जब तक कि ऐसे क्रेता के पास ये अंश नहीं पहुंच जाते जो इनको बेचना ही नहीं चाहता है। जब कोरा हस्तान्तरण रजिस्टर्ड हो जाता है तो यह उस समय से सम्बन्धित होता है जबकि प्रारम्भ में हस्तान्तरण किया गया था।

कोरे हस्तान्तरण की प्रमुख बुराइयां जैसी कि विविन बोस आयोग (Vivin Bose Commission) ने बताई थीं, निम्न हैं :

(i) वास्तविक लाभान्वित (beneficial) स्वामी की पहचान को छिपाना;

(ii) कोरे हस्तान्तरण में निहित अंशों के विनियोग के माध्यम से उपलब्ध लाभ को छिपाकर कर से मुक्ति प्राप्त करना; तथा

(iii) वित्तीय विवरण-पत्रों का पटु-प्रबन्ध (window-dressing)|

कम्पनी अधिनियम, 2013 की धारा 56 की उपधारा 1 ने, जो कोरे हस्तान्तरण के दोषों के निवारण के लिए दो माह की अवधि की पाबन्दी लगायी है।

वासुदेव रामचन्द्र शैलेट बनाम प्रानलाल जयानन्द ठाकुर (1974) के मामले में एक महिला ने किसी व्यक्ति को कोरे हस्तान्तरण फॉर्मों पर हस्ताक्षर करके कुछ अंशों को दान में दे दिया जो उसकी मृत्यु से पूर्व कम्पनी के द्वारा रजिस्टर्ड नहीं थे। न्यायालय ने निर्णय दिया था कि हस्तान्तरिती का अंशों पर अधिकार सही व शुद्ध है और कम्पनी के साथ रजिस्ट्रेशन एक औपचारिकता है जिसका व्यक्तियों के मध्य दिये नये दान की पूर्णता से कोई खास सम्बन्ध नहीं है।

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अंश-प्रमाण-पत्रों का निर्गमन

(ISSUE OF SHARE CERTIFICATES)

धारा 56 के अनुसार जब तक अधिनियम के किसी प्रावधान या किसी न्यायालय, ट्रिब्यूनल अथवा अन्य अधिकारी के द्वारा निषिद्ध न किया हो, (1) प्रत्येक कम्पनी को अंशों या ऋणपत्रों या ऋणपत्र स्टॉक के आबंटन के तीन महीने के अन्दर इसके अंशों, ऋणपत्रों अथवा ऋणपत्र स्टॉक (debenture stock) के लिए अथवा यदि अंशों या ऋणपत्रों अथवा ऋणपत्र स्टॉक के हस्तान्तरण के रजिस्ट्रेशन के लिए प्रार्थना-पत्र दिया है तो इस प्रार्थना-पत्र के दो महीने के अन्दर धारा 20 के प्रावधानों के अनुसार सभी अंशों, ऋणपत्रों या ऋणपत्र-स्टॉक जो आबंटित किये गये हों या हस्तान्तरित किये गये हों. अंश प्रमाण-पत्र तैयार करके सौपने चाहिए। अंश-प्रमाण-पत्रों का निर्गमन Companies (Issue of Share Certificates) Rules, 2014 के अनुसार नियन्त्रित होता है।

(2) कम्पनी पर 25,000 ₹ से 5 लाख र तक एवं कम्पनी के किसी अधिकारी पर जो इस नियम के उल्लंघन करने के लिए उत्तरदायी होगा, 10,000 ₹ से 1 लाख र तक जुर्माना किया जा सकता है।

यदि कोई डिपॉजिटरी अथवा डिपॉजिटरी पार्टीसिपेन्ट. किसी व्यक्ति को कपट के उद्देश्य से हस्तान्तरण करते हैं, उन पर कम्पनी अधिनियम, 2013 की धारा 477 के अधीन कार्यवाही की जाएगी।

(3) यदि उपधारा (1) के परिपालन के लिए दोषी होने पर कम्पनी को कोई नोटिस दिया जाता है और कम्पनी 10 दिन के अन्दर उस दोष को दूर करने में असमर्थ रहती है, तो कम्पनी लॉ बोर्ड किसी व्यक्ति के आवेदन पर कम्पनी या कम्पनी के अधिकारी को इस दोष को दूर करने के लिए आदेश दे सकता है और इसके परिपालन के लिए आदेश में निर्धारित अवधि में उस कमी को पूरा करने का निर्देश दे सकता है। ऐसे आदेश में कम्पनी अथवा कम्पनी के अधिकारी को जो दय टोलि उत्तरदायी है सम्पूर्ण करने के लिए भी निर्देश दे सकता है।

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अंकेक्षक के कर्तव्य (1) यह देखना चाहिए कि धारा 56 के नियमों का पालन किया गया है या

(2) अंश-प्रमाण-पत्रों का सदस्य-बही के लेखों से मिलान करना चाहिए और विशेषकर अशा का सख्या, कमांक, मूल्य तथा प्रदत्त रकम का निरीक्षण करना चाहिए।

अंश तथा स्कन्ध में अन्तर

अंश तथा स्कन्ध में निम्नलिखित अन्तर हैं : (1) स्कन्ध सदा पूर्णदत्त होते हैं जबकि अंशों पर अदत्त रकम हो सकती है।

(2) स्कन्ध किसी भी रकम के हो सकते हैं और उन्हें किसी भी रकम में निर्गमित या हस्तान्तरित किया जा सकता है। लेकिन अंश एक निश्चित तथा पूर्ण इकाई के रूप में निर्गमित तथा हस्तान्तरित नहीं हो सकते। ये अविभाज्य होते हैं।

उदाहरण—यदि 10 ₹ वाले 1,000 अंशों को जिनका नम्बर 5,001 से 6,000 तक है, स्कन्धों में परिवर्तित किया जाय (जिसके लिए वार्षिक साधारण सभा में साधारण प्रस्ताव पास करना होगा) तो 5 नम्बर वाले स्कन्ध का अधिकारी अपने स्कन्ध की किसी भी इकाई का हस्तान्तरण कर सकता है। ध्यान रहे कि ये स्कन्ध किसी भी रकम के हो सकते हैं।

(3) प्रत्येक अंश पर उसका अलग नम्बर हो सकता है, पर स्कन्ध पर नहीं।

अंकेक्षक के कर्तव्य (1) यह देखना चाहिए कि अंशों का स्कन्ध में परिवर्तन नियमानुसार है तथा विधान की धाराओं का अक्षरशः पालन किया गया है।

(2) कम्पनी के सीमानियम तथा अन्तर्नियम का भी अध्ययन करना चाहिए।

(3) यदि इस हस्तान्तरण या परिवर्तन से सम्बन्धित नियमों में कोई परिवर्तन किये गये हैं, तो वे सभी वैध तथा नियमानुकूल हैं।

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ऋण लेने का अधिकार

(BORROWING POWERS)

जब कोई कम्पनी ऋण लेने का वैधानिक अधिकार रखती है, तो वह ऋण के लिए ऋणपत्र निर्गमित कर सकती है। एक व्यापारिक कम्पनी अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए ऋण लेने का निहित अधिकार रखती है, यदि उसके पार्षद सीमानियम तथा अन्तर्नियम मना न करते हों। इसके विपरीत, एक गैर-व्यापारिक कम्पनी ऐसी शक्ति नहीं रखती है। अतः उसके पार्षद सीमानियम तथा अन्तर्नियम में ऐसी व्यवस्था विशेष रूप से की जानी चाहिए।

कम्पनी के उधार लेने के अधिकार का प्रयोग संचालकों के द्वारा पार्षद सीमानियम व पार्षद अन्तर्नियम तथा अधिनियम की सीमाओं के अन्तर्गत किया जाता है। कम्पनी अधिनियम ने इस सम्बन्ध में निम्न सीमाएं दी हैं :

एक कम्पनी जिसकी अंश पूंजी है और जिसने अंशों के लिए जनता को प्रविवरण निर्गमित किया है, तब तक अपने उधार लेने के अधिकार का प्रयोग नहीं कर सकती है, जब तक कि उसने धारा 11 के प्रावधानों का परिपालन न किया हो जो निम्न हैं :

(अ) रोकड़ में देय अंशों का आबंटन न्यूनतम अभिदान के बराबर न कर दिया हो;

(ब) कम्पनी के प्रत्येक संचालक ने जो अंश उसने लिए हैं अथवा लेने के लिए अपनी सहमति दी है, आवेदन व आबंटन पर देय राशि का भुगतान न कर दिया हो; .

(स) मान्यता प्राप्त स्कन्ध विनिमय (Recognized Stock Exchange) या व्यवहृत (dealt in) अंशो अथवा ऋणपत्रों के लिए अनुमति प्राप्त न होने अथवा आवेदन न करने के कारण अंशों या ऋणपत्रों जो जनता के अभिदान के लिए निर्गमित किये हों, के आवेदकों के लिए भुगतान करने को राशि न देय हुई है या न देय हो सकती है।

(द) उपर्युक्त (अ), (ब) तथा (स) खण्डों में वर्णित व्यवस्था के अनुपालन के लिए निर्धारित फॉर्म पर किसी संचालक या सचिव या जहां सचिव की नियुक्ति न हुई हो, पूर्णकालीन कार्यरत सचिव (Secretarv in whole time practice) के द्वारा रजिस्टार के पास उचित रूप से सत्यापित घोषणा-पत्र फाइल न कर दिया हो।

धारा 180—यह धारा संचालकों पर कम्पनी की प्रदत्त पूंजी तथा उसके मुक्त संचय (free reserves) के योग से अधिक राशि के उधार लेने पर प्रतिबन्ध लगाती है, जब तक कि कम्पनी ने साधारण सभा में पूर्व । अनुमति प्राप्त न कर ली हो। यह प्रतिबन्ध एक सार्वजनिक कम्पनी तथा निजी कम्पनी के लिए जो सार्वजनिक कम्पनी की सहायक हो, लागू होता है। इसके बावजूद अस्थायी ऋण जो कम्पनी के बैंकरों (bankers) से व्यवसाय की सामान्य प्रक्रिया के अन्तर्गत प्राप्त किये हों, संचालकों के उधार लेने की सीमा की राशि में सम्मिलित नहीं होते हैं।

धारा 180(5)—कोई भी ऋण उपधारा (1) के खण्ड (c) द्वारा प्रदत्त सीमा के आधिक्य (excess) में। कम्पनी के द्वारा लिया गया है, प्रभावशाली अथवा मान्य (valid) नहीं होगा जब तक ऋणदाता यह सिद्ध न। कर दे कि उसने यह ऋण सच्ची निष्ठा में (in good faith) तथा इस जानकारी के बिना कि उपर्युक्त सीमा का उल्लंघन हुआ है, दिया है।

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ऋणपत्र

(DEBENTURES)

कम्पनी अधिनियम, 2013 की धारा 2(30) के अन्तर्गत ऋणपत्रों में ऋणपत्र, स्टॉक बॉण्ड तथा अन्य। प्रतिभूतियां सम्मिलित की जाती हैं, चाहे कम्पनी की सम्पत्तियों पर उनका प्रभार हो या न हो। .

कम्पनी ऋणपत्र का निर्गमन करके अपनी ऋण प्राप्त करने की शक्ति का प्रयोग कर सकती है। ऋणपत्र कम्पनी के द्वारा लिये गये ऋण का प्रमाण है। यह पत्र कम्पनी अपने ऋण की स्वीकृति के रूप में ऋणपत्रधारियों को देती है जिस पर कम्पनी की मुहर (seal) लगी होती है। ऋणपत्र जमानत के साथ या बिना जमानत निर्गमित किये जाते हैं। अधिकतर कम्पनियां अपनी सम्पत्ति को गिरवी रखकर ऋणपत्रों को निर्गमित करती हैं। कम्पनी अधिनियम की धारा 2(30) के अन्तर्गत ऋणपत्र में ऋणपत्र स्कन्ध (Debenture Stock), बॉण्ड (Bonds) तथा कम्पनी की अन्य प्रतिभूतियां (Securities) सम्मिलित होती हैं, चाहे उनका कम्पनी की सम्पत्तियों पर प्रभार (charge) हो या नहीं। ऋणपत्र विभिन्न प्रकार के होते हैं और किसी निश्चित ब्याज की दर पर निश्चित अवधि के लिए निर्गमित किये जाते हैं। इस प्रकार ऋण पत्र उधार ली गई राशि की प्राप्ति (acknowledgement) होता है। इसमें निम्नलिखित बातें होती हैं :

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(i) ऋण की शर्ते,

(ii) उस पर ब्याज का भुगतान,

(iii) मूलधन (Principal) की वापसी, तथा

(iv) जमानत (Security) का विवरण, यदि कोई हो।

जैसा कि स्पष्ट है ऋणपत्रधारी कम्पनी के सदस्य नहीं होते हैं वरन लेनदार (creditors) होते हैं और उन्हें कम्पनी निश्चित दर से ब्याज देती है, चाहे कम्पनी को लाभ हो या न हो। कम्पनी कितना उधार ले सकती है इसकी सीमा कम्पनी के सीमानियमों के द्वारा निर्धारित की जाती है। इस सम्बन्ध में कम्पनी अधिनियम। की निम्न धाराएं प्रमुख रूप से उल्लेखनीय हैं :

सार्वजनिक कम्पनी और उसकी सहायक प्राइवेट कम्पनी के संचालकगण साधारण सभा में कम्पनी की। स्वीकृति के बिना कम्पनी की प्रदत्त पूंजी (paid-up capital) और उसके मुक्त संचयों (free reserves) स अधिक धन उधार नहीं ले सकते हैं।

कोई सार्वजनिक कम्पनी अपने उधार लेने के अधिकारों को तब तक प्रयोग नहीं कर सकती जब तक। वह व्यापार प्रारम्भ न कर दे, लेकिन उससे पहले भी वह अंश और ऋण-पत्र जनता द्वारा अभिदान करने का लिए साथ-साथ जारी कर सकती है।

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ऋणपत्र न्यास संलेख

(DEBENTURE TRUST DEED)

(1) ऋणपत्रों के निर्गमन के सम्बन्ध न्यास संलेख निर्धारित स्वरूप में होगा तथा निर्धारित अवधि में तैयार किया जाएगा।

(2) न्यास संलेख की एक प्रतिलिपि कम्पनी के सदस्य या ऋणपत्रधारी के निरीक्षण के लिए उपलब्ध होगी और वह निर्धारित राशि का भुगतान कर इसकी प्रतिलिपियां प्राप्त कर सकेगा।

(3) यदि न्यास संलेख की प्रतिलिपि न तो निरीक्षण के लिए उपलब्ध होती है और न किसी सदस्य या ऋणपत्रधारी को उपलब्ध करवायी जाती है, तो कम्पनी तथा उसके प्रत्येक अधिकारी पर जो दोषी होगा, 5000 रुपये प्रतिदिन तक जुर्माना किया जा सकता है जब तक यह दोष चलता रहता है।

ऋणपत्र न्यासियों की नियक्ति तथा उनके कर्तव्य

(APPOINTMENT OF DEBENTURE TRUSTEES AND THEIR DUTIES)

(1) कोई भी कम्पनी प्रविवरण या मांगपत्र, ऋणपत्रों के आवेदन के लिए निर्गमित नहीं कर सकती है जब तक कि एक या अधिक ऋणपत्र न्यासी नियुक्त नहीं किए जाएंगे और उनकी स्वीकृति इस सम्बन्ध में प्राप्त नहीं होती है।

(2) इस अधिनियम के अन्तर्गत ऋणपत्र न्यासी के कार्य ऋणपत्रधारियों के हित के संरक्षण के लिए ही सामान्यतः होंगे।

(3) ऋणपत्र न्यासी ठीक समझे तो निम्न कार्य कर सकता है : (अ) यह देखना कि ऋणपत्रों के निर्गमन के लिए कम्पनी की सम्पत्तियां तथा प्रत्येक गारण्टी पर्याप्त हैं।

(ब).स्वयं सन्तुष्ट होना कि प्रविवरण या मांग पत्र में कोई मामला ऋणपत्रों व न्यास-संलेख के विरुद्ध तो नहीं है।

(स) यह देखना कि कम्पनी प्रसंविदा या न्यास संलेख के प्रावधानों को भंग तो नहीं करती है। ___(द) निर्गमन की शर्तों या न्यास-संलेख के प्रसंविदा के भंग होने पर उपचार के लिए युक्तियुक्त कार्यवाही करना।

(य) ऋणपत्रधारियों की आवश्यकता के अनुरूप बैठकों के आयोजन के लिए कार्यवाही करना।

(4) यदि कभी ऋणपत्र न्यासियों को यह महसूस होता है कि कम्पनी की सम्पत्तियां अपर्याप्त हो रही हैं या होने को हैं, ऋणपत्र न्यासी कम्पनी लॉ बोर्ड के सम्मुख पिटीशन दाखिल कर सकते हैं और कम्पनी लॉ बोर्ड कम्पनी और इस मामले में हित रखने वाले व्यक्ति की सुनवाई करने के पश्चात् ऋणपत्रधारियों के हितों की सुरक्षा की दृष्टि से कम्पनी द्वारा आगे दायित्व उठाने पर प्रतिबन्ध लगा सकता है।

प्रतिभूति व ऋणपत्र शोधन संचय के लिए कम्पनी का दायित्व

(LIABILITY OF COMPANY TO CREATE SECURITY AND DEBENTURE REDEMPTION RESERVE)

(1) कम्पनी अधिनियम, 2013 के लागू होने के पश्चात् किसी कम्पनी को जब तक ऋणपत्रों का शोधन नहीं होता, अपने लाभ में से पर्याप्त राशि वाला ऋणपत्र शोधन संचय (Debenture Redemption Reserve) बनाना होगा।

(2) ऋणपत्र शोधन संचय में हस्तान्तरित राशि का उपयोग कम्पनी किसी अन्य कार्य के लिए नहीं करेगी।

(3) कम्पनी को ऋणपत्रों की शर्तों के अनुरूप ब्याज देना होगा तथा उनका शोधन करना होगा।

(4) यदि कम्पनी परिपक्वता की तारीख पर ऋणपत्रों का शोधन नहीं कर पाती, ट्रिब्यूनल किसी अथवा सभी ऋणपत्रधारियों के आवेदन पर सनवायी करने के पश्चात् कम्पनी को ऋणपत्रों के शोधन पर मूल राशि व ब्याज के भुगतान के लिए आदेश दे सकता है।

(5) यदि ट्रिब्यूनल आदेश का पालन नहीं होता है तो कम्पनी का प्रत्येक अधिकारी जो दोषी होगा, 3 वर्ष की सजा का भागी होगा तथा 2 लाख र से 5 लाख ₹ का अर्थदण्ड अथवा दोनों।

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chetansati

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