BCom 3rd Year Auditing Meaning Definition Scope Limitations Study Material notes in hindi

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BCom 3rd Year Auditing Meaning Definition Scope Limitations Study Material Notes in Hindi

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अंकेक्षण का अर्थ, परिभाषा, क्षेत्र एवं सीमाएं

[MEANING, DEFINITION, SCOPE AND

LIMITATIONS OF AUDITING]

“अंकेक्षण एक महत्वपूर्ण व्यावसायिक कार्य है जिसमें भारी उत्तरदायित्व होता है तथा जिसके लिए पर्याप्त कुशलता एवं निर्णय की आवश्यकता होती है।”

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अंकेक्षण की परिभाषाएं

(DEFINITIONS OF AUDITING)

प्रारम्भ में अंकेक्षण का उद्देश्य केवल यह देखना था कि हिसाब-किताब रखने वाले ने रोकड़ के लेन-देन का सही लेखा किया है, अथवा नहीं ? इस प्रकार अंकेक्षण का क्षेत्र केवल रोकड़ के लेन-देन की जाँच तक ही सीमित था। परन्तु अब इस शब्द का प्रयोग विस्तृत रूप में किया जाता है और अंकेक्षण का प्रमुख उद्देश्य केवल रोकड़ के व्यवहारों की जाँच नहीं है वरन् इसके अतिरिक्त एक संस्था की आर्थिक स्थिति का सत्यापन करना है जो उसके लाभ-हानि खाता (Profit and Loss Account) तथा चिट्टे (Balance Sheet) से प्रकट होती है। कुछ विद्वानों ने अंकेक्षण की परिभाषा निम्न प्रकार की है : ___

1 स्पाइसर एवं पैगलर—“किसी व्यापारिक संस्था की पुस्तकों, खातों तथा प्रमाणकों की ऐसी जाँच को अंकेक्षण कहते हैं जिसके आधार पर अंकेक्षक यह सन्तोषपूर्वक कह सके कि उसको प्राप्त स्पष्टीकरण तथा सूचनाओं के आधार पर एवं जो पुस्तकों में प्रकट है उसके अनुसार संस्था का चिट्ठा उचित रूप से बनाया गया है, जो व्यापार की सही एव उचित आथिक स्थिति को प्रकट करता है तथा लाभ-हानि खाता वित्तीय वर्ष के लाभ या हानि का सही व उचित चित्र प्रस्तुत करता है। यदि नहीं, तो किन-किन बातों से वह सन्तुष्ट नहीं है और क्यों।”

2. एफ. आर. एम. डी पोला-अकेक्षण का अर्थ चिद्रा तथा लाभ-हानि खाता और उनसे सम्बन्धित पुस्तको, खातो तथा प्रमाणका का जाच करने से है ताकि अंकेक्षक अपने आपको सन्त ष्ट कर सके और ईमानदारी से यह रिपोर्ट दे सके कि चिट्ठा नियमानुसार बनाया गया है और व्यापार की सही तथा ठीक स्थिति को प्रकट करता है जैसा कि सूचनाओं, स्पष्टीकरण एवं पुस्तकों के आधार पर देखा गया है जो उसे मिली हैं।”

3. जे. आर. बाटलीबॉय—“अंकेक्षण किसी व्यापार के हिसाब-किताब की पुस्तकों की ऐसी विशिष्ट एवं आलोचनात्मक जाँच है जो उन प्रपत्रों एवं प्रमाणकों की सहायता से की जाती है जिससे वे तैयार किये गये हैं। इस जाँच का उद्देश्य यह जानकारी करना होता है कि संस्था का एक निश्चित समय के लिए बनाया गया। चिट्ठा तथा लाभ-हानि खाता उसकी ठीक व सही स्थिति को प्रकट करता है अथवा नहीं।”

4. एम. एल. शाण्डिल्यअंकेक्षण का आशय किसी व्यापारिक संस्था के हिसाब सम्बन्धी पस्तकों के निरीक्षण, तुलना, परीक्षण, पुनर्निरीक्षण, प्रमाणन, गहन छानबीन, जाँच तथा सत्यापन करने से है ताकि उस संस्था की आर्थिक स्थिति का ठीक-ठीक और सही अध्ययन किया जा सके।”

इस परिभाषा से यह स्पष्ट हो जाता है कि अंकेक्षक अपना कार्य करने के लिए अनेक वज्ञानिक एव व्यापारिक विषयों का प्रयोग करता है। यह निश्चित है कि वह संस्था के लिए निश्चित समय के लिए बनाये हुए लाभ-हानि खाता तथा चिते के सम्बन्ध में रिपोर्ट देता है और जिसके लिए उसे हिसाब-किताब की गहन। जाँच करनी होती है। स्वयं को सन्तुष्ट करने के लिए वह पुस्तकों तथा खातों का मिलान, परीक्षण, प्रमाणन (vouching), सत्यापन (verification) अथवा अन्य किसी और साधन का भी प्रयोग कर सकता है। अतः स्पष्ट है कि वह जो कुछ भी अपनी रिपोर्ट में कहेगा वह उसकी बुद्धिमत्तापूर्ण खोज तथा गहन जाँच के आधार पर ही होगा।

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5. जॉजेफ लंकास्टरजाँच, प्रमाणन व सत्यापन की ऐसी प्रक्रिया अंकेक्षण कहलाती है जिसके द्वारा अकक्षक चिट्ठ की शुद्धता या अशुद्धता का पता चलाता है। इस प्रकार यह सुविधापूर्वक कहा जा सकता है। कि अंकेक्षण प्रपत्रों, प्रमाणकों और हिसाब-किताब की पस्तकों का एक अनुसन्धान है जिनसे पुस्तक लिखा। जाती है, जिससे अंकेक्षण चिट्ठे तथा अन्य विवरण-पत्रों के सम्बन्ध में, जो इन पुस्तकों से बनाये गये हैं, अपनी रिपोर्ट उन व्यक्तियों को दे सके जिन्होंने उसको रिपोर्ट के लिए नियुक्त किया है।”

6. इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउन्टेन्ट्स ऑफ इण्डिया (ICIA) के अनुसार, “अंकेक्षण उपक्रम के एक नियत अवधि से सम्बन्धित समंकों, विवरणों, अभिलेखों. क्रियाओं तथा निष्पादन (वित्तीय व अन्य) का एक व्यवस्थित व स्वतन्त्र परीक्षण है। अंकेक्षक, उसके सम्मुख प्रस्तुत प्रस्ताव व कार्य का परीक्षण करने के लिए, आवश्यक साक्ष्य, आदि का अनुमान लगाता है, उसका मल्यांकन करता है एवं उसके आधार पर अपने निर्णय लिपिबद्ध करता है जिसे वह अंकेक्षण रिपोर्ट के रूप में सम्प्रेषित करता है।

संक्षेप में :

(1) अंकेक्षण किसी व्यापारिक संस्था की लेखा-पुस्तकों की विशिष्ट एवं विवेचनात्मक जांच है, जो

(2) एक योग्य तथा निष्पक्ष व्यक्ति द्वारा,

(3) संस्था से प्राप्त प्रमाणकों (vouchers), प्रपत्रों (documents), सूचना (information) तथा स्पष्टीकरणों (explanations) की सहायता से की जाती है, जिससे कि :

(4) अंकेक्षक एक निश्चित समय के लिए बनाये हुए हिसाब-किताब के सम्बन्ध में यह रिपोर्ट दे सके कि.

(क) चिट्ठा उस संस्था की आर्थिक स्थिति का ठीक-ठीक और सही रूप प्रस्तुत करता है या नहीं,

(ख) लाभ-हानि खाता संस्था के लाभ-हानि की वास्तविक स्थिति को बताता है या नहीं. तथा

(ग) सभी बहीखाते नियमानुसार बनाये गये हैं और पूर्ण हैं या नहीं।

इस प्रकार एक अंकेक्षक का कार्य चिट्ठा और अन्य खातों की पुस्तकों से तुलना करने के अतिरिक्त कुछ अधिक है। उसे स्वयं को यह सन्तुष्ट करना चाहिए कि उसको उपलब्ध सूचना तथा स्पष्टीकरणों के अनुसार पुस्तकों में लेन-देन का उपयुक्त लेखा किया गया है। वह सब किस प्रकार करेगा तथा इस कार्य को करने में कितनी कुशलता एवं दक्षता पर्याप्त होगी, यह एक ऐसा प्रश्न है जिसका उत्तर वह स्वयं ही दे सकता है। बहुत कुछ कानून की व्यवस्थाओं तथा नियोक्ता के आदेशों पर भी निर्भर होगा।

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अंकेक्षण की विशेषताएं

(CHARACTERISTICS OF AUDITING)

अंकेक्षण की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं :

(1) एक कम्पनी या संस्था का होना (There must be a Company or Institution) कोई भी अंकेक्षण का कार्य किसी कम्पनी या संस्था का ही किया जा सकता है। चाहे वह कम्पनी कोई भी हो सरकारी, अर्द्ध-सरकारी या प्राइवेट।

(2) अंकेक्षक (Auditor)—जिस प्रकार किसी भी अच्छी सेना के लिए एक कुशल सेनापति की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार अंकेक्षण का कार्य भी बिना किसी कुशल व स्वतंत्र अंकेक्षक के बिना पूरा नहीं किया जा सकता है।

(3) प्रमाणक (Voucher) किसी भी खाते की सत्यता व शद्धता की जांच व मिलान के लिए प्रमाणको का आवश्यकता होती है। अत: यह आवश्यक है कि किसी भी प्रकार के लेन-देनों के प्रमाणक पूर्ण रूप से सुरक्षित हों।

(4) पुस्तकों की शुद्धता की जांच (To Examine the Truthness of Books) किसी भी अंकेक्षण । का प्रमुख उद्देश्य यही होता है कि संस्था की पुस्तकें पूर्ण रूप से सत्य व शुद्ध हो। ।

(5) नियमो का पालन (To Follow the Rules) अंकेक्षण के कार्य करते समय अंकेक्षक के लिए यह आवश्यक है कि वह जांच के समय नियमों का पूर्ण पालन करे।।

(6) समय अवधि (Time Period) अंकेक्षण की कार्य अवधि एक सीमित समय की होती है। अंकेक्षक को यह काम उसी समय में पूरा करना होता है।

(7) सत्यापन (Verification) अंकेक्षण का सबसे महत्वपूर्ण कार्य संस्था के खातों का सत्यापन करना होता है, ताकि वास्तविक स्थिति का पूर्ण ज्ञान हो।

(8) प्रतिवेदन (Reporting) जब अंकेक्षण का कार्य समाप्त हो जाता है, तब अंकेक्षक एक प्रतिवेदन देता है, जिसे अंकेक्षक प्रतिवेदन कहा जाता है। इसमें अंकेक्षक की टिप्पणियां लिखी होती हैं।

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अंकेक्षण का क्षेत्र

(SCOPE OF AUDIT)

अंकेक्षण हिसाब-किताब की पुस्तकों की गहन जाँच है। पुस्तकों की जाँच करने वाले एक निष्पक्ष अंकेक्षक को हिसाब-किताब के तैयार करने में की गयी अशुद्धियों का पता लगाना होता है और आर्थिक एवं वित्तीय लेखों की सत्यता को प्रमाणित करना होता है। यह निश्चित है कि यदि यह सत्यापन ठीक प्रकार से। न किया जाए तो लेखों के परिणामों पर विश्वास नहीं किया जा सकता है। इसी कारण नियमित अंकेक्षण की विधि उत्तम मानी जाती है। हिसाब-किताब की अनियमितताएँ एवं अशुद्धियाँ विभिन्न प्रकार की हो सकती हैं तथा उनमें उत्पन्न होने के कारण भी बहुत हो सकते हैं। कुछ भी हो, अंकेक्षक का यह दायित्व हो जाता है कि वह इन अनियमितताओं को प्रकाश में लाये।

London and General Bank Case (1895) में विद्वान न्यायाधीश के निर्णय ने यह स्पष्ट कर दिया है कि पुस्तकों की अंकीय शुद्धता का सत्यापन कर देने मात्र से ही एक अंकेक्षक का कर्तव्य पूर्ण नहीं हो जाता है, वरन् उसे यथोचित सावधानी के साथ यह देखना चाहिए कि जो कुछ वह प्रमाणित करता है, वह सही है।

इस प्रकार अंकेक्षक के निम्न कार्य हो जाते हैं :

(1) लेखों की अंकीय शुद्धता की जाँच करना

(2) लेखा-पुस्तकों की जाँच सभी उपलब्ध प्रमाणकों, बीजकों, पत्र-प्रपत्रों, कार्यवाही-पुस्तिका, इत्याद की सहायता से करना

(3) चिट्ठे में दिखायी गयी सम्पत्ति एवं दायित्वों का सत्यापन एवं जाँच करना तथा

(4) नियोक्ता को अपनी जाँच के परिणामों के सम्बन्ध में यथार्थ रूप में रिपोर्ट देना।

अंकेक्षक के क्षेत्र के सम्बन्ध में निम्न बातें ध्यान देने योग्य हैं :

(1) एक सीमित कम्पनी के अंकेक्षक को प्रत्येक लाभ-हानि खाते तथा चिट्टे के सम्बन्ध में रिपोर्ट देनी चाहिए जो उसके कार्यालय में साधारण सभा में रखे जाने हैं। अन्य संस्थाओं के अंकेक्षक सामान्यतया खातों के सम्बन्ध में रिपोर्ट या प्रमाण-पत्र प्रस्तुत करते हैं। अंकेक्षण कार्य के द्वारा इस रिपोर्ट या प्रमाण-पत्र को न्यायीकृत (Justify) किया जाना चाहिए।

(2) अंकेक्षण में जो भी कार्य किया जाता है वह प्रमुखतः प्रत्येक व्यक्तिगत मामले की परिस्थिति पर। निर्भर होता है। कोई कठिन व जटिल (hard and fast) नियम नहीं बनाये जा सकते. वरन अंकेक्षक को अपना विवेक (discretion) प्रयोग करना चाहिए।

(3) बड़े व्यवसायों में अंकेक्षक के लिए प्रत्येक मद की जाँच करना असम्भव है, अतः उसको आन्तरिक नियन्त्रण की प्रणाली पर विश्वास करना होगा।

 (4) यद्यपि एक अंकेक्षक वार्षिक खातों के सम्बन्ध में अपनी रिपोर्ट देता है, उसे अपना ध्यान इन्ही सलखी पर ही केन्द्रित नहीं करना चाहिए पर उसको यह देखना चाहिए कि प्रविष्टियाँ सही है आर कम्पानया, के सम्बन्ध में ये पुस्तकें व्यवसाय के लेन-देनों को स्पष्ट करती हैं। ।

(5) एक अंकेक्षक से प्रत्येक व्यापार की तान्त्रिक तथा बारीकी बातों की जानकारी रखने की आशा। नहीं की जाती है और साधारण ज्ञान से अधिक प्रत्येक व्यापार के सम्बन्ध में वह ज्ञान रख सकता है। वह उत्तरदायी अधिकारियों की राय तथा स्पष्टीकरणों पर विश्वास कर सकता है जिसके लिए उसे यथोचित सावधानी। तथा चतुराई का प्रयोग करना चाहिए।

(6) यदि किन्हीं परिस्थितियों से उसे शंका उत्पन्न होती है, तो उसे पूर्ण जाँच करनी चाहिए।

धीरे-धीरे अंकेक्षण का क्षेत्र व्यापक बनता जा रहा है। परम्परागत दृष्टि से अंकेक्षण के अन्तर्गत वित्तीय लेखों की जॉच ही प्रमुख कार्य समझा जाता था। पर अब इसका उपयोग संस्था की कार्यकशलता तथा प्रभावशीलता (efficiency and effectiveness) के आँकने की दृष्टि से किया जाने लगा है। व्यापारिक संस्थाओं के विनियोजकों को यह आश्वस्त करना कि इनका कार्यकलाप ठीक चल रहा है, अंकेक्षक का प्रमुख कार्य बन गया है।

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पुस्तपालन, लेखाकर्म एवं अंकेक्षण

(BOOK-KEEPING, ACCOUNTANCY AND AUDITING)

कुछ विद्वानों के अनुसार ‘लेखाकर्म’ एक विस्तृत अर्थ में प्रयोग किया जाता था। इसके तीन अंग हो सकते हैं :

(1) लेन-देनों के लिखने की प्रक्रिया अर्थात् व्यावहारिक भाग (practical part) जिसे पुस्तपालन कहा जा सकता है।

(2) रचनात्मक (constructive) कार्य की प्रक्रिया अर्थात् सैद्धान्तिक भाग (theoretical part) जिसे लेखाकर्म कहा जा सकता है।

(3) आलोचनात्मक (critical) कार्य की प्रक्रिया अर्थात् विवेचनात्मक भाग (analytical part)  जिसे अंकेक्षण कहा जा सकता है।

पहले पुस्तपालन तथा लेखाकर्म के कार्यों में विशेष अन्तर नहीं माना जाता था। लेखाकर्म के अन्तर्गत ही पुस्तपालन का कार्य आ जाता था और एक ही मनुष्य दोनों कार्य कर लेता था। परन्तु आज के औद्योगिक युग में पुस्तपालन तथा लेखाकर्म दोनों पृथक् कार्य हो गये हैं।

पुस्तपालनइसके अन्तर्गत निम्न क्रियाओं का समावेश है :

(i) जर्नल प्रविष्टियां करना, (ii) इन प्रविष्टियों को खाताबही में ले जाना, (iii) खाताबही के भिन्न-भिन्न खातों में योग करना (Totalling) तथा (iv) खातों का शेष निकालना।

लेखाकर्मलेखापाल का कार्य पुस्तपालन के कार्य के बाद से आरम्भ होते हैं इसी कारण यह कहा जाता है कि ‘जहां से पूस्तपालन समाप्त होता है, वहीं से लेखाकर्म प्रारम्भ होता है। इसके अन्तर्गत निम्न क्रियाएं आती हैं :

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(i) पुस्तपालन के कार्य की जांच, (ii) तलपट (Trial Balance) बनाना, (iii) व्यापारिक तथा लाभ-हानि खाता (Trading and Profit & Loss A/c) बनाना, (iv) चिट्ठा तैयार करना, तथा (v) भूल-सुधार (Rectification of Errors) तथा समायोजन के लेखे (Adjusting Entries) करना।

संक्षेप में, यह सभी कार्य सारांश (summary) तथा विश्लेषण (analysis) करने की प्रक्रिया है। सारांश अर्थात् तलपट और फिर इसका विश्लेषण अन्तिम खाते तैयार करके किया जाता है। लेखापाल एक सुशिक्षित व्यक्ति होता है जो पुस्तपालन के कार्य को भली प्रकार समझता है। लेखापाल अन्तिम खाते तैयार करता है तथा अंकेक्षक इन अन्तिम खातों का तर्कपूर्ण अध्ययन करता है। ।

अंकेक्षण-जहाँ लेखा-कार्य समाप्त होता है, वहाँ अंकेक्षण प्रारम्भ होता है। एक अंकेक्षक लेखापाल के कार्य की जाँच करता है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है, अंकेक्षण व्यापार के हिसाब-किताब की जाँच है. जो कि प्राप्त प्रमाणकों, प्रपत्रों, सूचनाओं तथा स्पष्टीकरणों के आधार पर की जाती है। ध्यान रहे कि अंकेक्षक का अपनी रिपोर्ट देनी होती है और यह स्पष्ट करना होता है कि संस्था का लाभ-हानि खाता तथा चिद्रा उसकी स्थिति का ठीक-ठीक एवं सही रूप प्रस्तुत करता है अथवा नहीं।

अतः एक अंकेक्षक को लेखाकर्म के सिद्धान्तों का पूर्ण ज्ञान होना चाहिए। इसी कारण उसका चार्टर्ड एकाउण्टैण्ट होना आवश्यक है। उसे अपनी निष्पक्ष राय देनी होती है और जब तक वह पूर्ण छानबीन से अपने आपको सन्तुष्ट नहीं कर लेता है, न्यायसंगत रिपोर्ट नहीं दे सकता है। इसलिए यह कहा जाता है कि लेखाकर्म का अस्तित्व अंकेक्षण से स्वतन्त्र है, परन्तु लेखाकर्म के बिना अंकेक्षण का कोई महत्व नहीं है। अंकेक्षण लेखाकर्म पर आधारित है, परन्तु लेखाकर्म अंकेक्षण पर आधारित नहीं है। अतएव एक अंकेक्षक को लेखाकर्म के सिद्धान्तों तथा व्यावहारिक प्रक्रियाओं से पूर्ण परिचित होना चाहिए. परन्तु एक लेखापाल को अंकेक्षण के कार्य में विशेषज्ञ होना आवश्यक नहीं है।

हाँ, कभी-कभी अंकेक्षक से बहीखाता, तलपट, लाभ-हानि खाता तथा चिट्ठा तैयार करने के लिए कहा जाता है। यदि अंकेक्षक यह सभी कार्य करता है तो वह एक लेखापाल के रूप में ऐसा करता है, अंकेक्षक के रूप में नहीं। वास्तव में, एक अंकेक्षक को लाभ-हानि खाता एवं चिट्ठे की जाँच करनी होती है और यह प्रमाणित करना होता है कि ‘लाभ-हानि खाता’ तथा ‘चिट्टा’ व्यापार की आर्थिक स्थिति को सही रूप में प्रकट करते हैं अथवा नहीं।

निष्कर्ष यह है कि यदि लेखाकर्म आवश्यक है. तो अंकेक्षण (जिसका आधार लेखाकर्म ही है) इससे भी अधिक महत्वपूर्ण है। हो सकता है छोटे-छोटे व्यवसायों में जहाँ कम पंजी लगी होती है तथा हिसाब-किताब का स्वरूप भी साधारण होता है, अंकेक्षण अनिवार्य रूप से न कराया जाए। परन्तु आज के युग में अकेक्षण छोटे-बड़े सभी व्यवसायों के लिए हितकर है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी रकम का सदुपयोग करना चाहता है और अधिकाधिक लाभ कमाना चाहता है, जिसके लिए हिसाब-किताब रखना तथा अंकेक्षण दोनों ही आवश्यक हैं। अतः यह कहना कि लेखाकर्म आवश्यकता है और अंकेक्षण विलासिता’ उचित प्रतीत नहीं होता।

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क्या अंकेक्षण विलासिता है ? (Is Audit a Luxury?)

आज के औद्योगिक युग में लेखाकर्म के कार्य को सभी लोग आवश्यक मानते हैं। एक समय था जबकि व्यापार छोटे पैमाने पर चलाये जाते थे, थोड़े कर्मचारी काम करते थे, लेन-देन के लिए साख का चलन नहीं था तथा लेखाकर्म की आवश्यकता नहीं समझी जाती थी, लेखाकर्म का कार्य विलासिता समझा जाता था और इसी कारण इसका प्रयोग बड़े-बड़े व्यापारिक संस्थानों तक सीमित था।

औद्योगिक क्रान्ति के फलस्वरूप व्यावसायिक जगत में बहुत प्रगति हुई। साख के प्रचलन से बैंक तथा बीमा कम्पनियों की संख्या बढ़ी। नये उद्योग, परिवहन के नये साधन, नयी विचारधारा, नये संगठन तथा एक नवीन क्रान्ति हुई। बाजार अब केवल स्थानीय स्तर तक सीमित नहीं हैं अब वह राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर तक फैल गया है। व्यापार के संचालकों एवं पूंजी प्रदान करने वालों में बहुत दूरियां हैं। अब यदि कम्पनियां अपने व्यवहारों का सही लेखा जोखा नहीं रखेंगी और खातों का अंकेक्षण नहीं कराएंगी तो उन्हें बड़ी मात्रा में पूंजी प्राप्त करना सम्भव नहीं होगा। फलस्वरूप, लेखाकर्म की विकसित प्रणाली का प्रयोग किया जाने लगा। लेखाकर्म की आवश्यकता के सम्बन्ध में निम्न तर्क दिये जा सकते हैं :

(1) संस्था का आकार एवं स्वभावप्रत्येक संस्था में, चाहे वह छोटी हो या बड़ी किसी-न-किसी रूप में हिसाब-किताब रखना आवश्यक है। कुछ संस्थाओं को अंकेक्षण कराना अनिवार्य कर दिया गया है। अंकेक्षण तभी सम्भव है जब संस्था अपना हिसाब-किताब एक उचित लेखा पद्धति के अनुसार रखती है। उपयोगिता के दष्टिकोण से यह कहा जा सकता है कि लेखाकर्म प्रत्येक संस्था के लिए आवश्यक है।

(2) लाभ व हानि का ज्ञान करनालेखाकर्म की आवश्यक पद्धति के प्रयोग के बिना वर्ष के अन्त में नाव हानि की सही स्थिति नहीं निकाली जा सकती है। प्रत्येक व्यापारिक संस्था के लिए वार्षिक लाभ व। हानि का ज्ञान उसके स्थायी जीवन के लिए आवश्यक है।

(3) ख्याति व कार्यक्षमता में वृद्धि करनाप्रत्येक संस्था की ख्याति लेखाकर्म की सही पद्धति के प्रयोग। के बिना नहीं निकल सकती है। सही एवं समुचित हिसाब-किताब के बिना ख्याति का ज्ञान असम्भव है। कार्यक्षमता का मूल्यांकन करने तथा उसकी वृद्धि के उपायों को खोजने के लिए लेखाकर्म की सर्वोत्तम प्रणाली । का प्रयोग अत्यावश्यक है।

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(4) प्रगतिशील व सजीवता हिसाब-किताब की उपयक्त पद्धति के बिना संस्था की वर्तमान स्थिति का। सही ज्ञान नहीं हो सकता है। भविष्य में प्रगति किस प्रकार सम्भव है तथा संस्था किस प्रकार सक्रियता से। कार्य कर सकती है, यह सब उपयुक्त लेखा-प्रणाली के प्रयोग से ही सम्भव है। तात्पर्य यह है कि भावी योजनाएँ तथा कार्यक्रम लेखा पद्धति की प्रक्रिया से ही सुलभ हो सकते हैं।

(5) व्यवसाय की ख्याति में वृद्धि-लेखाकर्म की अच्छी पद्धति प्रयोग में लाने से व्यावसायिक संस्था की साख में वृद्धि होती है। सरकारी कर के लिए दायित्व के निर्धारण, वित्तीय संस्थाओं से ऋण प्राप्त करने, न्यायालय में प्रमाण प्रस्तुत करने, विदेशी व्यापार के लिए अनमति प्राप्त करने तथा दिवाला की स्थिति में ऋण-मुक्ति के सम्बन्ध में आज्ञा पाने के लिए हिसाब-किताब रखने की उपयुक्त पद्धति अत्यन्त ही सहायक होती है।

(6) अन्य बातेंव्यापार की योजनाएँ, गत वर्षों के लाभ-हानि से तुलना, सही आर्थिक स्थिति का ज्ञान, आदि कुछ बातें लेखाकर्म की उपयुक्त पद्धति के प्रयोग से ही सम्भव हैं।

यह रही लेखाकर्म के आवश्यक होने की बात। जब हम अंकेक्षण कार्य को विलासिता कहते है, तो इसका आशय है कि अंकेक्षण की आवश्यकता नहीं है, अर्थात् यदि अंकेक्षण न कराया जाए तो कोई हानि नहीं तथा यदि हिसाब-किताब की जाँच हो जाए, तो इसका कोई विशेष लाभ नहीं। विलासिता होने के निम्न कारण हो सकते हैं:

(1) किसी संस्था के हिसाब-किताब का अंकेक्षण किये जाने से उस संस्था के व्यय में वृद्धि हो जाती है। छोटे व्यापारी इन व्ययों को विनियोग न मानकर अनावश्यक खर्च मानते हैं। अंकेक्षक को दिया जाने वाला भारी पारिश्रमिक छोटे व्यापारियों की आर्थिक शक्ति से बाहर है।

(2) यह भी कहा जाता है कि अंकेक्षण के कार्य में संस्थाओं का काफी समय नष्ट होता है। अंकेक्षक के आदेशानुसार संस्था के कर्मचारी उसको सूचना तथा स्पष्टीकरण देने, सूचियाँ तैयार करने तथा अन्य कार्यों में व्यस्त हो जाते हैं। परिणामस्वरूप ऐसी संस्था को अपने बहुत-से कार्य अधूरे छोड़ देने होते हैं अथवा स्थगित कर देने पड़ते हैं। ऐसा समय का अपव्यय किसी छोटे या बड़े व्यवसायी को सहन नहीं हो सकता है।

(3) एक बात यह भी है कि व्यापारिक संस्था का समय तो नष्ट होता ही है पर उसे अंकेक्षण के लिए काफी तैयारी करनी होती है। अंकेक्षक के आने से पूर्व प्रमाणकों को क्रमानुसार लगाना, लेनदारों व देनदारों की सूचियाँ तैयार करना, अप्राप्य एवं संदिग्ध ऋणों की सूचियाँ बनाना, आदि कुछ ऐसे कार्य हैं जो काफी कठिन हैं तथा जिनके बिना अंकेक्षण का कार्य सुविधापूर्वक नहीं हो सकता।

(4) एक कठिनाई यह भी है कि प्रत्येक संस्था को योग्य तथा कुशल अंकेक्षक भी नहीं मिल पाते। संस्थाओं का विस्तार अधिक हो जाने से उसके लिए योग्य अंकेक्षक की तलाश करना कठिन हो जाता है।

(5) कुछ व्यवसायी अंकेक्षण को गोपनीयता भंग करने का माध्यम मानते हैं।

काठ भी हो. अंकेक्षण संस्थाओं के लिए विलासिता नहीं है बल्कि आवश्यक है। हाँ. यदि संस्था का आकार छोटा है, तो उसका स्वामी अंकेक्षण को विलासिता कह सकता है। फिर भी ऐसी संस्थाओं के लिए अंकेक्षण वांछनीय कहा जा सकता है। एकाकी व्यापार भी आजकल बड़े पैमाने पर चलाये जाते हैं, जिनमें हिसाब-किताब रखने के लिए एक या दो मुनीमों से काम नहीं चल सकता वरन् उनमें सम्बन्ध का क्षेत्र विस्तत होता चला जाता है, फिर एक-दूसरे पर विश्वास की सीमा भी होती है। अतः इस विश्वास में वद्धि के लिए अंकेक्षण आवश्यक हो जाता है।

जहाँ तक साझेदारी संस्था में अंकेक्षण की आवश्यकता का प्रश्न है, इसे विलासिता नहीं कहा जा सकता। साझेदारी संस्थाओं में ऊँचे पैमाने पर कार्य होता है तथा पर्याप्त मात्रा में पूंजी का विनियोग होता है। साझेदारों के पारस्परिक सम्बन्ध बनाने के लिए, संस्था के कार्य को सुचारु रूप से चलाने के लिए तथा उसकी साख में वृद्धि करने के लिए अंकेक्षण आवश्यक होता है।

कम्पनी के लिए कम्पनी अधिनियम के अनुसार अंकेक्षण अनिवार्य है ही। कम्पनी तथा उसके स्वामी अंशधारी दोनों में दूर का सम्बन्ध है। कम्पनी का अस्तित्व उसके अंशधारियों से पृथक् होता है। दूर-दूर रहने वाले अंशधारी अंकेक्षण के बिना कम्पनी के कार्य का उचित रूप से मूल्यांकन नहीं कर सकते हैं, अतः अंकेक्षण विलासिता नहीं है। ‘अंकेक्षण के लाभ’ इतने सविदित हैं कि कोई भी संस्था. छोटी हो या अंकेक्षण के बिना कोई भी कामकाज सचारू रूप से नहीं चला सकती है और न व्यापारिक क्षेत्र में अपनी साख अर्जित कर सकती है।

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कम्पनी की भाँति कुछ अन्य संस्थाएँ हैं जिनके हिसाब-किताब का अंकेक्षण अति आवश्यक है। प्रन्यासों (Trusts) में अंकेक्षण द्वारा प्रन्यासियों (Trustees) की स्थिति स्पष्ट हो सकती है। इसी प्रकार सरकारी संगठनों, सार्वजनिक निगमों एवं सहकारी संस्थाओं में उनके वार्षिक खातों के अंकेक्षण से उनकी सही स्थिति का ज्ञान हो सकता है, ख्याति में वृद्धि सम्भव हो सकती है तथा संस्थाएँ प्रगतिशील बन सकती हैं। – यह युग भौतिक विकास की ओर अग्रसर हो रहा है। इस शक्ति परीक्षण के युग में छोटे पैमाने के स्थान पर बड़े व्यापार तथा उद्योग स्थापित किये जा रहे हैं। जहाँ भी बड़े पैमाने पर विनियोग होंगे, वहाँ वैज्ञानिक ढंग से हिसाब-किताब रखना परमावश्यक है। इस हिसाब-किताब का अंकेक्षण स्वामी, संस्था तथा सभी सम्बन्धित व्यक्तियों एवं पक्षों के हित में आवश्यक है। अंकेक्षण से त्रुटियाँ एवं गबन प्रकाश में आते हैं तथा अन्ततोगत्वा संस्था की कार्यकुशलता में वृद्धि होती है एवं प्रशासन में सुधार होता है। प्रतिस्पर्धा के इस युग में दोनों बातों का होना व्यापार की सफलता के लिए आवश्यक है।

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अंकेक्षक

(AUDITOR)

अंकेक्षक एक स्वतन्त्र व्यक्ति होता है। जो किसी भी संस्था या कम्पनी के खातों की जांच करके उनकी सत्यता को प्रमाणित करता है। भारत के अन्दर केवल वही व्यक्ति अंकेक्षण कर सकता है, जो चार्टर्ड एकाउण्टैण्ट हो या जिसे ICAI के द्वारा मान्यता प्राप्त हो।

विभिन्न प्रकार के अंकेक्षक (Different Types of Auditor)

(1) सरकारी अंकेक्षक-सरकारी अंकेक्षक वह होता है, जो सरकारी कम्पनियों व विभागों में अंकेक्षण करता है। इसकी नियुक्ति ऑडिटर जनरल ऑफ इण्डिया द्वारा की जाती है।

(2) पेशेवर अंकेक्षक पेशेवर अंकेक्षक किसी भी कम्पनी या संस्था में अंकेक्षण कर सकता है। इसके लिए अंकेक्षक को चार्टर्ड एकाउण्टेण्ट अधिनियम 1949, के अनुसार एक निर्धारित डिग्री लेना आवश्यक है।

लेखाकर्म एवं अंकेक्षण में अन्तर

(DIFFERENCE BETWEEN ACCOUNTANCY AND AUDIT)

साधारणतया लेखाकर्म और अंकेक्षण में निम्नलिखित अन्तर हैं :

अंकेक्षण के उद्देश्य

(OBJECTIVES OF AUDITING)

अंकेक्षण का प्रमुख उद्देश्य किसी भी संस्था की लेखा-पुस्तकों एवं विवरण-पत्रों को जांचना एवं सत्यापित करना है। स्पाइसर एवं पेगलर ने अंकेक्षण के उद्देश्य बताते हुए कहा है कि “अंकेक्षण का मुख्य उद्देश्य नियोक्ता या कर्मचारियों द्वारा रखे गए हिसाब-किताब एवं विवरण पत्रों को जांचना एवं सत्यापित करना है। यद्यपि त्रुटियों एवं कपटों को खोजना अत्यन्त महत्वपूर्ण है, परन्तु ये मुख्य उद्देश्य के सहायक होने चाहिए।”

अंकेक्षण के उद्देश्यों को निम्न तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है : –

1 मुख्य उद्देश्य 11 सहायक उद्देश्य 111 अन्य उद्देश्य
1 वित्तीय विवरणों की पूर्णता सत्यता नियमानुसार व उचितता का परीक्षण करना । 1. त्रुटियों का पता लगाना । 1. कर्मचारोयं पर नैतिक प्रभाव डालना ।
2 उन पर अपनी राय प्रकट करना । 2. घल कपट का पता लागना । 2. वैधानिक आवश्यकताओं की पूर्ति करना ।
  3. त्रिटुयो और छल कपट को रोकना 3. सरकारी अधिकारियों एवं बाह् पक्षों को सन्तुष्ट करना

 

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1 अंकेक्षण का मुख्य उद्देश्य

अंकेक्षण का मुख्य उद्देश्य संस्था के वित्तीय विवरणों अर्थात् लाभ-हानि खाता (Profit & Loss Account) एवं स्थिति-विवरण (Balance Sheet) की सत्यता व उचितता का इस दृष्टि से परीक्षण करना है जिससे कि अंकेक्षक उन पर अपनी राय देने में समर्थ हो सके। वित्तीय विवरण (Financial Statements) मान्य लेखांकन नीतियों के कलेवर के अन्तर्गत तैयार किए जाते हैं। अंकेक्षक की सहमति वित्तीय विवरणों। की साख स्थापित करने में सहायक होती है। भारतीय कम्पनी अधिनियम, 1956 की धारा 227 के अनुसार अंकेक्षक को यह रिपोर्ट करना पड़ता है कि-(i) वित्तीय वर्ष के अन्त में तैयार किया गया स्थिति विवरण कम्पनी के मामलों का सही व उचित चित्र प्रदर्शित करता है: तथा (ii) लाभ-हानि खाता सही व उचित लाभ या हानि दर्शाता है।

अपने विचार व्यक्त करने के लिए अंकेक्षक को सर्वप्रथम उपलब्ध साक्ष्य के आधार पर वित्तीय विवरणों का परीक्षण करना पड़ता है। ये सभी विवरण वैधानिक आवश्यकताओं, एकाउण्टिंग स्टैण्डर्ड (AS) तथा स्टैण्डर्ड ऑडिटिंग प्रैकटिसिज (SAPS) के अनुसार तैयार किए जाते हैं। परीक्षण का कार्य एक स्वतन्त्र व पेशेवर समालोचक के रूप में किया जाना चाहिए।

सहायक उद्देश्य इसके अन्तर्गत मुख्य उद्देश्य की पूर्ति के लिए निम्न कार्यों को शामिल किया गया है : (i) त्रुटियों का पता लगाना, (ii) छल-कपट का पता लगाना, तथा (ii) त्रुटियों तथा छल-कपट को रोकना।

यह ध्यान रहे कि किसी संस्था की लेखा पस्तकों में यदि अनेक त्रुटियों एवं छल-कपट की सम्भावनाएं हैं और अंकेक्षक उन्हें पता लगाने में असमर्थ है तो वह उनके प्रमाणन में यह नहीं लिख सकता कि ‘लेखे सही’ हैं और यदि वह यह करता है तो यह उसकी बड़ी भूल है।

त्रुटियों का वर्गीकरण

त्रुटियों का वर्गीकरण लेखकों ने भिन्न-भिन्न प्रकार से किया है परन्तु इनमें से कोई भी स्पष्ट नहीं है। साधारणतया ये त्रुटियाँ निम्न वर्गों में विभक्त की जा सकती हैं :

(1) भूल की त्रुटियाँ. (Errors of Omission)

(2) सैद्धान्तिक त्रुटियाँ (Errors of Principle

(3) पूरक त्रुटियाँ (Compensating Errors)

(4) लेखे की त्रुटियाँ (Errors of Commission)

(1) भूल की त्रुटियाँजब कोई लेखा प्रारम्भिक लेखे की पुस्तकों में पूर्ण (Complete) या आंशिक (Partial) रूप में नहीं लिखा जाता, तो ऐसी त्रुटि को भूल की त्रुटि कहते हैं। उदाहरण के लिए, श्याम को 10,000 ₹ का माल बेचा गया किन्तु इसका लेखा नहीं किया गया। इसे पूर्ण भूल की त्रुटि कहेंगे। तलपट पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता और अंकेक्षक के लिए ऐसी त्रुटियों का पता लगाना कठिन हो जाता है। परन्तु, यदि इसका लेखा विक्रय पुस्तक में कर दिया जाए किन्तु श्याम के खाते में न किया जाए तो यह आंशिक भूल की त्रुटि कही जाएगी। इसका प्रभाव तलपट पर पड़ेगा। अंकेक्षक इस त्रुटि का तलपट की जांच से पता कर सकता है।

(2) सैद्धान्तिक त्रुटियां ये त्रुटियाँ लेखाकर्म के सिद्धान्तों के विपरीत प्रविष्टियाँ करने से हो जाती हैं। ऐसी त्रुटियों के निम्नांकित उदाहरण हैं :

(क) पूंजीगत व्यय और आयगत व्यय में ठीक अन्तर न करनायदि किसी मशीन या भवन के मरम्मत के व्यय की राशि को इन्हीं सम्पत्तियों के खातों में जोड़ दिया जाए तो यह सैद्धान्तिक त्रुटि होगी। इसका प्रभाव लाभ-हानि खाते पर पड़ेगा और तलपट अशुद्ध हो जाएगा।

(ख) एक आयगत-व्यय को गलती से किसी अन्य आयगत-व्यय में डाल देनायदि खाते की रकम व्यापारिक व्यय में डाल दी जाए अथवा वेतन खाते की रकम विज्ञापन खाते में डाल दी जाए, तो ऐसी त्रुटि का प्रभाव संस्था के लाभ की रकम पर नहीं पड़ेगा, परन्तु यह सिद्धान्त के विपरीत प्रविष्टि होगी।

(ग) आय तथा व्यय की रकम व्यक्तिगत खातों में लिखना किराया दिया गया परन्तु इसकी रकम किसी के व्यक्तिगत खाते में लिख दी गयी, तो यह भी सिद्धान्त की त्रुटि होगी। इसका प्रभाव यह होगा कि एक जा साकि एक ओर चिट्ठा गलत हो जाएगा और दूसरी ओर लाभ-हानि खाता में लाभ की रकम बढ़। जाएगी।

(घ) सम्पत्तियों का मूल्यांकन लेखाकर्म सिद्धान्तों के अ का मल्यांकन लेखाकर्म सिद्धान्तों के अनुसार न करना—हास की उचित व्यवस्था न करना। भी सैद्धान्तिक त्रुटि मानी जाती है। सैद्धान्तिक त्रुटियों का तलपट पर प्रभाव नहीं पड़ता। अतः इनका पता लगाने के लिए अंकेक्षक को बड़ी सावधानी से कार्य करना चाहिए। अंकेक्षक इन त्रुटियों को चतुराई तथा सतर्कता से जाँच करने पर ही पता कर सकता है।

सैद्धान्तिक त्रुटियों का कारण किसी लेन-देन का सिद्धान्तों के विरुद्ध लेखा करना। इनका तलपट पर प्रभाव नहीं पड़ता है।

(3) पूरक त्रुटियाँ यदि किसी खाते के डेबिट पक्ष में त्रुटि से कुछ रकम लिख दी जाए और दूसरे खाते के क्रेडिट पक्ष में भी उतनी ही रकम गलती से लिख दी जाए, तो ऐसी त्रुटियाँ पूरक त्रुटियाँ मानी जाती हैं। उदाहरणार्थ, ‘अ’ के डेबिट में 200 ₹ लिखने थे, लेकिन ‘अ’ के क्रेडिट में 200 ₹ लिख दिये और वैसे ही त्रुटि से ‘ब’ के डेबिट में क्रेडिट के स्थान पर 200 ₹ लिख दिये जाएं तो वह पूरक गलती मानी जायेगी। यदि मजदूरी खाते के डेबिट में 100 ₹ के स्थान पर 120 ₹ लिख दिये और वैसी ही गलती से किराये खाते के क्रेडिट में 100 ₹ के स्थान पर 120 ₹ लिख दिये तो यह भी पूरक त्रुटि होगी। ध्यान रहे कि तलपट पर इन त्रुटियों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। हाँ, सम्बन्धित खाते अवश्य प्रभावित होते हैं। अतएव इनकी जाँच करने में सावधानी की आवश्यकता है।

पूरक त्रुटियों का कारण है एक गलती का प्रभाव वैसी ही दूसरी गलती से सन्तुलित हो जाना। इनका तलपट पर प्रभाव नहीं पड़ता है।

(4) लेख की त्रुटियाँजब कोई सौदा आंशिक रूप से अथवा पूर्ण रूप से गलत लिख दिया जाए, तो ऐसी त्रुटि लेख की त्रुटि मानी जायेगी। ये त्रुटियाँ कई प्रकार से हो सकती हैं, परन्तु इनका सम्बन्ध किसी सौदे के लेख से होता है। निम्नांकित त्रुटियां लेख की त्रुटियाँ कही जा सकती हैं :

(क) प्रारम्भिक लेखे की पुस्तकों में लेन-देन के लिखने में त्रुटि हो जाना (Incorrect recording wholly or partially)—प्रारम्भिक लेखे की पुस्तक में लेन-देन की सही रकम न लिखने से ये त्रुटियाँ हो जाती हैं, जैसे, बिक्री 100 ₹ की हुई और विक्रय-बही में केवल 10 ₹ ही लिखा गया। ऐसी त्रुटि का तलपट पर प्रभाव नहीं पड़ता।

(ख) खाताबही में खतियाने की गलती (Incorrect posting or posting an item to wrong account)—यह सम्भव है कि लेन-देन सम्बन्धी लेखा प्रारम्भिक लेखे की पुस्तक में ठीक किया जाए लेकिन खाताबही में खतौनी करते समय गलत रकम लिख दी जाए जैसे 100 ₹ के विक्रय को ग्राहक के खाते में केवल 10 ₹ ही लिखा जाए, तो इससे डेबिट में 90 ₹ की रकम कम लिखी जायेगी। इसका प्रभाव तलपट पर यह होगा कि डेबिट पक्ष 90 ₹ से कम होगा और दोनों पक्षों के योग में अन्तर होगा। उसी प्रकार किसी गलत खाते में किसी रकम के खतियाने से भी यह त्रुटि हो जाती है जैसे यदि 10 ₹ राम के डेबिट में खतियाने हैं और इसके स्थान पर मोहन के डेबिट में गलती से खतिया दिये जाएं, तो इसका भी तलपट पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।

(ग) पुस्तकों के जोड़ करने अथवा खातों के शेष निकालने में भी त्रुटियां हो जाती हैं। ये सभी लेख की त्रुटियाँ मानी जाती हैं। इनका प्रभाव तलपट पर पड़ता है। जिस पक्ष में त्रुटि होती है, तलपट का वही पक्ष गलत होगा (Errors in totalling and balancing)। ।

(घ) भिन्न-भिन्न खातों की बाकियों को तलपट में से ले जाने में भी त्रुटियां हो जाती हैं। बाकियों से कम या अधिक लिखने या दुवारा लिख देने से या दूसरे पक्ष में लिख देने से भी ये त्रुटियाँ हो जाती हैं। इन टियों का प्रभाव तलपट पर पड़ता है, अर्थात् तलपट का योग नहीं मिलता है (Errors in carrying | forward totals to trial balance)

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कुछ अन्य उदाहरण—(1) डेबिट की रकम क्रेडिट पक्ष में लिखना तथा क्रेडिट की दूसरी रकम डेबिट पक्ष में लिख देना (इसका प्रभाव तलपट पर पड़ता है)।

(2) किसी खाते की रकम गलत लिखना (इसका प्रभाव तलपट पर पड़ता है)।

(3) लेखे की पुस्तकों में किसी योग को आगे ले जाते समय (Carry fowards) त्रुटि करना (यदि दोनों पक्षों में त्रुटि से एक-सी रकम लिखी जायेगी तो तलपट पर प्रभाव नहीं पडेगा)।

(4) प्रारम्भिक लेखे की पुस्तकों में किसी लेन-देन की खतौनी करना अथवा एक ही खाते में खतियाना । (पहली अवस्था में तलपट पर प्रभाव नहीं होगा परन्त दसरी अवस्था में तलपट के दोनों पक्षों का योग नहीं मिलेगा)।

(5) यदि कोई लेन-देन प्रारम्भिक लेखे की पुस्तकों में दो बार लिख दिया जाए और खाताबही में भी इसकी दो बार खतौनी कर दी जाए तो इसे लेखक द्वारा दुबारा लिख जाने वाली त्रुटि (error of duplication) कहते हैं। वास्तव में, यह भी एक प्रकार से लेख की ही त्रुटि मानी जाती है।

कभी-कभी कुछ लेखक खाताबही में खतियाने की त्रुटियों को लिपिक त्रुटियाँ (clerical errors) कहते हैं। ये त्रुटियाँ खतियाने की अनियमितता के कारण उत्पन्न होती हैं। वास्तव में, ये लेख की ही त्रुटियाँ हैं। अतएव इनका अलग से नामकरण करना न्यायसंगत प्रतीत नहीं होता है।

त्रुटियों के कारण होने वाले अन्तर के मिलाने की प्रक्रिया त्रुटि कैसी भी हो, एक संस्था के हिसाब-किताब पर इसका प्रभाव अवश्य पड़ता है। अंकेक्षक विशेष सावधानी से कार्य करने के पश्चात् ही त्रुटि को प्रकाश में ला सकता है। अंकीय, त्रटियों के कारण उत्पन्न होने वाले अन्तर का पता चलाने के लिए अंकेक्षक को निम्न प्रयास करना चाहिए :

उसे संस्था के कर्मचारियों को यह आदेश दे देना चाहिए कि वे सम्पूर्ण पुस्तकों का मिलान करके उसके सामने प्रस्तुत करें। यह क्लर्को का दायित्व है कि वे सभी त्रुटियों को दूर करें, त्रुटियों का पता चलाना उन्हीं का कार्य है। अंकेक्षक को इसके लिए उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता है। यदि संस्था के कर्मचारी इस अन्तर का पता चलाने में असमर्थ रहते हैं तो अंकेक्षक से इस कार्य के लिए कहा जाता है, और जब अंकेक्षक अन्तर का पता चलाने के लिए तैयार हो जाता है, तो वह लेखापाल की तरह कार्य करता है, न कि अंकेक्षक के रूप में।

अतः अन्तर का पता चलाना अत्यावश्यक है। हाँ, यदि अन्तर थोड़ा है और अंकेक्षक यह समझता है कि वह बहुत-सी त्रुटियों के कारण नहीं हुआ है, तो वह उसे पास कर सकता है। बहुत कुछ अंकेक्षक के सन्तुष्ट होने पर निर्भर होता है। परन्तु यदि यह अन्तर अधिक है, या बहुत-सी त्रुटियों के परिणामस्वरूप है तथा अव्यक्तिगत खाताबही (Impersonal Ledger) से सम्बन्धित है, तो अंकेक्षक को अपनी रिपोर्ट में इस बात का उल्लेख अवश्य कर देना चाहिए।

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त्रुटियों का पता चलाने के लिए कुछ उपाय निम्नांकित हैं :

(1) यदि संस्था में स्वकीय सन्तुलन की प्रणाली (Self-balancing system) का प्रयोग किया जा रहा है, तो खाताबहियों की गहन जाँच से त्रुटियों का पता चल सकता है।

(2) यदि स्वकीय-सन्तुलन प्रणाली का प्रयोग नहीं हो रहा है, तो तलपट की जाँच करनी चाहिए और खाताबही के जोड़ों का मिलान तलपट में दी गयी बाकियों की रकम से करना चाहिए। तलपट से लेनदारों की सूचियों का मिलान करना चाहिए।

(3) प्रारम्भिक लेखे की पुस्तकों की जाँच करनी चाहिए तथा खाताबहियों में किये गये लेखों (postings) का इससे मिलान करना चाहिए।

(4) खाताबहियों के खातों की शेष राशियों की फिर से जाँच करनी चाहिए। आगे लायी गयी राशियों (carry forwards) का भी मिलान करना चाहिए।

(5) यदि आवश्यक हो तो प्रारम्भिक लेखे की पुस्तकों में सम्पूर्ण जोड़ों तथा आगे लायी गयी राशियों (carry forwards) की जाँच गहन रूप से करनी चाहिए।

(6) संदिग्ध अंकों (doubtful figures) के परिवर्तन तथा काटी हुई रकमों की जाँच सावधानीपर्वक करनी चाहिए।

(7) गोल अंको (round figures) जैसे 10, 100, 1,000 के अन्तर का पता चलाने के लिए जोहों तथा सायी गयी राशियों (carry forwards) की जाँच आवश्यक होती है। जोड़ में त्रटियों के कारण गोल अंकों (round figures) में अन्तर हो जाता है।

(8) यदि अन्तर में 2 का भाग चला जाता है, तो यह समझना चाहिए कि खाताबही में किसी खाते के गलत पक्ष (wrong side) में लेखा (posting) हो जाने के कारण ऐसा हुआ है। तलपट में 50 ₹ की त्रुटि 25 ₹ की रकम की खतौनी डेबिट के स्थान पर क्रेडिट पक्ष में कर देने के कारण हो सकती है। ।

(9) अंकों में उलट-फेर से भी त्रुटियाँ हो जाती हैं। 45 के स्थान पर 54, 18 के स्थान पर 81. 27 के। स्थान पर 72 इत्यादि इस प्रकार के उदाहरण हैं। इस प्रकार की त्रुटि से होने वाले अन्तर में 9 का भाग देने से (यदि भाग पूरा चला जाए) यह पता चल सकता है कि टि अंकों के उलट-फेर से हुई है। ।

(10) (अ) यदि तलपट में क्रेडिट पर डेबिट का आधिक्य है, तो इसके सम्भाव्य कारण निम्न हो। सकते हैं:

(i) रोकड़ पुस्तक के डेबिट पक्ष, विक्रय-वापसी पस्तक, प्राप्य बिल बही व क्रय पुस्तक में किसी मद। का न खतियाना।

(ii) क्रय खाताबही का शेष भूल जाना।

(iii) अव्यक्तिगत (Impersonal) खाताबही से शेष भूल जाना।

(iv) उपर्युक्त (ii) व (iii) में पुराना शेष वर्ष के प्रारम्भ में आगे (forward) न लाया जाना ।

(v) (i) में वर्णित पुस्तकों में से किसी के अन्तर के आधे की राशि त्रटि से क्रेडिट के स्थान पर डेबिट में खतौनी कर देना या अन्तर के आधे के क्रेडिट शेष को डेबिट शेष मान लेना।

(ब) यदि तलपट में डेबिट पर क्रेडिट का आधिक्य हो तो इसके सम्भाव्य कारण निम्न हो सकते हैं :

(i) विक्रय पुस्तक, रोकड़ पुस्तक के क्रेडिट तथा क्रय वापसी पस्तक व देय बिल बही में किसी मद की खतौनी न होना।

(ii) विक्रय खाताबही का शेष भूल जाना।

(iii) अव्यक्तिगत खाताबही से डेबिट शेष भूल जाना।

(iv) उपर्युक्त (ii) व (iii) में पुराने शेष का वर्ष के प्रारम्भ में न लाया जाना।

(v) उपर्युक्त (i) में वर्णित पुस्तकों में से किसी के अन्तर के आधे की राशि त्रुटि से डेबिट के स्थान पर क्रेडिट में खतौनी कर देना या अन्तर के आधे के डेबिट शेष को क्रेडिट शेष मान लेना।

(11) वास्तव में गहन जाँच से ही त्रुटियों की जाँच सम्भव हो सकती है।

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कपट व मिथ्याकरण

(FRAUD AND FALSIFICATION)

प्रायः कपट जान-बूझकर, योजनाबद्ध तरीके से, दूसरों को धोखा देने के उद्देश्य से किए गए प्रयास ‘छल-कपट’ की श्रेणी में आते हैं। कोई भी ऐसा कार्य जिससे संस्था के माल या धन का जान-बूझकर गबन किया जाए, छल-कपट कहलाता हैं।

त्रुटि और कपट में अन्तर

(1) त्रुटियाँ हो जाती हैं, जबकि कपट जान-बूझकर किया जाता है। इसके विपरीत, कपट या धोखाधडी उसकी जानकारी से किया गया अशोभनीय कार्य है।

(2) कपट किसी निश्चित भावना या इरादे से एवं किसी विशिष्ट उद्देश्य की पूर्ति के लिए किया जाता है। त्रुटि के लिए यह बात लागू नहीं होती है।

(3) टि में कुछ सोचने की बात नहीं होती है अतः इसके पहले या बाद के परिणाम जानने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता है, जबकि कपट सब कुछ सोचने के पश्चात् तथा परिणामों को ध्यान में रखकर ही किया जाता है।

(4) गबन करने के पीछे एक निश्चित योजना का सहारा लिया जाता है और ऐसा करने वाला व्यक्ति अपने बचाव तथा संरक्षण का पूरा प्रबन्ध कर लेता है, लेकिन त्रुटियाँ कार्य की प्रक्रिया के साथ-साथ हो जाती हैं।

(5) सतर्कता से कार्य करने से त्रुटि की गुंजाइश कम हो सकती है। यह व्यवस्था कपट के लिए लागू नहीं होती है. क्योंकि कपट करने वाला अपने लाभ के लिए कार्य करता है। वह कपट के करने तथा उसे छिपाने में सतर्कता से कार्य करता है। कपट में व्यक्तिगत स्वार्थ निहित होता है।

(6) त्रुटि का पता चलाने में अंकेक्षक को सावधानीपूर्वक कार्य करना होता है। कपट को रोकने तथा पता चलाने में उसका अनुभवी होना अति आवश्यक है। उचित नियन्त्रण से ही कपट को रोका जा सकता है।।

छल-कपटों का वर्गीकरण

यह निम्न प्रकार का हो सकता है :

(i) धन का गबन (Misappropriation of Cash)

(ii) माल का गबन (Misappropriation of Goods)

(iii) हिसाब-किताब में गड़बड़ी (Manipulation of Accounts)

(1) धन का गबन रोकड़ का गबन बड़ा आसान है। एक संस्था के धन का दुरुपयोग निम्न प्रकार से हो सकता है :

(i) रोकड़ प्राप्ति तथा फुटकर रोकड़ की राशि को गबन कर लेना।।

(ii) चैक तथा अन्य विनिमय-साध्य प्रपत्रों की चोरी कर लेना।

(iii) झूठे (fictitious) लेनदारों या मजदूरों का भुगतान।

(iv) बिक्री या वापसी की शर्त पर या वी.पी.पी. द्वारा बेचे गए माल की रकम हड़प लेना।

(v) विभिन्न साध्य पत्रों (bills receivable) तथा चेक आदि के भुनाने से प्राप्त रकम को गायब कर लेना।

किन्तु ध्यान रहे कि धन गबन के बावजूद तलपट पर इसका प्रभाव नहीं पड़ता, अतः अंकेक्षक को प्रत्येक प्राप्ति एवं भुगतान की जांच करनी चाहिए। क्रय-विक्रय के बिलों को देखना चाहिए तथा क्रेताओं एवं विक्रेताओं से पत्र व्यवहार करना चाहिए।

(2) माल का गबन-माल का गबन अथवा अनुचित प्रयोग उन संस्थाओं में अधिक होता है जहाँ माल अधिक मूल्यवान तथा आकार में छोटा होता है। इस प्रकार माल का गबन अग्र प्रकार से सम्भव है :

(i) माल को स्टोर से चुरा लेना;

(ii) ग्राहक से तालमेल करके उनके नाम झूठे क्रेडिट नोट जारी करना

(iii) क्रय सम्बन्धी प्रविष्टि करने के बाद क्रय किए हुए माल को गोदाम में पहुंचने से पहले ही गायब कर देना;

(iv) विक्रय वापसी के माल को गायब कर देना तथा पुस्तकों में उसकी प्रविष्टि कर देना। माल का गबन कठिनाई से पकड़ा जा सकता है। माल के गबन का पता लगाने के लिए उस माल के आवागमन पर उचित नियन्त्रण-प्रणाली का सहारा लेना होगा। माल का गबन व्यवस्थित लेखा-प्रणाली, क्रय तथा विक्रय पर उचित नियन्त्रण तथा समय-समय पर निरीक्षण की व्यवस्था द्वारा रोका जा सकता है।

ध्यान रहे कि धन तथा माल के सम्बन्ध में गड़बड़ी उन्हीं संस्थाओं में पायी जाती है जो आकार में बड़ी होती हैं और जिनमें व्यापारिक लेन-देन अधिक होते हैं। पर्याप्त नियन्त्रण की कमी होने से ऐसा गबन सम्भव है।

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(3) हिसाब-किताब में गड़बड़ी इस प्रकार हिसाब-किताब की गड़बड़ी अधिक कठिनाई से पकड़ी जाती है। इसका प्रमुख कारण यह है कि ऐसी गड़बड़ी प्रायः संस्था के संचालकों, प्रबन्धकों तथा अन्य व्यक्तियों के द्वारा की जाती है।

ऐसी गडबडी के प्रमुखतः निम्नांकित दो उद्देश्य होते हैं .DISTER

(i) लाभ वास्तविक रकम से अधिक दिखाना जिससे कि

(क) यदि लाभ के आधार पर कमीशन मिलता है, तो अधिकारी अधिक कमीशन प्राप्त कर सकते हैं।

(ख) अधिक लाभ के प्रदर्शन से कर्मचारी मालिकों को अपनी कार्य कुशलता से अवगत करा सकते हैं।

(ग) अधिक लाभ और अधिक लाभांश की घोषणा से कम्पनी के अंशों का बाजार मूल्य बढ़ सकता है।

(घ) अधिक लाभ के प्रदर्शन से कम्पनी वित्तीय संस्थाओं से ऋण ले सकती है तथा अंश जारी करके अतिरिक्त पूंजी भी इकट्ठा कर सकती है।

(डं) अपने व्यवसाय के प्रतिद्वन्द्वियों को अपनी अच्छी स्थिति दिखाकर भयभीत किया जा सकता है।

(ii) लाभ वास्तविक रकम से कम दिखाना जिससे कि

(क) आय-कर (Income-tax) से बचाव किया जा सके।

(ख) प्रतिद्वन्द्वियों को व्यापार की सही स्थिति का ज्ञान न हो सके।

(ग) कम्पनी के अंशों के मूल्य में अत्यधिक वृद्धि न हो। हिसाब-किताब में गड़बड़ी निम्नलिखित तरीकों से की जाती है :

(1) हास (depreciation) कम या अधिक या बिल्कुल नहीं दिखाना:

(2) सम्पत्तियों (assets) तथा दायित्वों (liabilities) का कम या अधिक राशि पर मूल्यांकन करना;

(3) बनावटी बिक्री दिखाकर अधिक लाभ दिखाने तथा बनावटी क्रय दिखाकर कम लाभ दिखाने के उद्देश्यों को पूरा करना;

(4) पूंजी-व्यय को आगम व्यय तथा आगम व्यय को पूंजी-व्यय मानकर लेखा करना;

(5) बनावटी खर्चे दिखाकर, लाभ की कमी तथा कछ खर्चे बिल्कुल ही न दिखाकर, लाभ में वृद्धि दिखाई जा सकती है।

(6) व्यापार के गुप्त कोषों (secret reserves) का उपयोग आवश्यकता के समय अंशधारियों से बिना पूछे कर लेना

(7) अन्तिम स्टॉक के मूल्य को कम या अधिक दिखलाना; तथा

(8) अदत्त (outstanding) दायित्वों तथा पूर्वदत्त (prepaid) व्ययों का समायोजन न करना।

संक्षेप में हिसाब-किताब में गड़बड़ी निम्न प्रकार हो सकती है :

(i) सम्पत्तियों के मूल्य में वृद्धि करके दिखलाना; (ii) दायित्वों को छोड़ देना या कम पर अंकित करना; (ii) लाभों को बढ़ाकर दिखलाना ताकि अधिकारियों को कमीशन अधिक मिल सके और अंशों का

मूल्य बाजार में बढ़ सके; तथा (iv) पुस्तकों की सजावट (window-dressing)

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त्रुटियाँ तथा कपट और अंकेक्षक का कर्तव्य

(1) त्रुटियों का पता लगाना–सच तो यह है कि उसे त्रुटियों तथा कपट का पता लगाने के लिए बड़ी सावधानी और सतर्कता की आवश्यकता होती है।

अतः अंकेक्षक को अपना कार्य अत्यन्त सावधानी, बुद्धिमत्ता, कुशलता एवं कर्तव्यपरायणता से पूर्ण करना चाहिए। यह सब करते हुए भी यदि त्रुटियां तथा कपट का पता लगाने में असमर्थ होता है तो वह किसी प्रकार उत्तरदायी नहीं है। किन परिस्थितियों में कितनी जाँच गहन होगी इसका अनुमान अंकेक्षक के विवेक पर निर्भर होगा। अपनी बुद्धिमत्ता से गहरी जाँच करने के पश्चात् जो खाते सही प्रमाणित कर दिये हैं. यदि वे गलत हैं, तो वह उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता है।

(2). त्रुटियों का रोकना त्रुटियों व छल-कपटों का रोकना व्यापार के प्रबन्धकों की कार्यक्षमता एवं ईमानदारी पर निर्भर करता है। हां, यदि नियोक्ता ‘त्रुटियों एवं छल-कपटों की पुनरावृत्ति’ के सम्बन्ध में अंकेक्षक से सलाह मांगता है तो वह सुझाव दे सकता है। अंकेक्षक के सुझाव अप्रत्यक्ष रूप से त्रुटियों एवं छल-कपट पर कुछ रोक लगा सकते हैं।

अंकेक्षक का जांच के लिए आना तथा लेखा-पुस्तकों की जांच का भय कर्मचारियों को सावधानी से कार्य करने के लिए बाध्य कर देती है। इसका कर्मचारियों पर नैतिक प्रभाव पड़ता है और इससे त्रुटियों तथा छल-कपट काफी हद तक समाप्त हो जाते हैं।

यहां प्रसंगवश यह बात कहना उचित होगा कि “एक अंकेक्षक चौकसी करने वाले कत्ते के समान है. खनी कुत्ते की तरह नहीं।” विद्वान जज ने यह निर्णय किंग्स्टन कॉटन मिल्स कम्पनी (1896) के मुकदमे में दिया था। यह निर्णय पूर्णतया अंकेक्षक के उस कर्तव्य की ओर संकेत करता है जो उसकी संस्था की त्रटियों तथा कपट के सम्बन्ध में हो जाता है।

इसमें अकक्षक के विषय में दो बातें कही गयी। पहली यह है कि वह चौकसी करने वाले कुत्ते के समान है। एक पालतू कुत्ता सदैव अपने मालिक के प्रति वफादार होता है। वह जिस मालिक का खाना खाता है उसकी रखवाली बड़ी होशियारी तथा ईमानदारी से करता है। कत्ते की वफादारी और सजग सेवा से सभी परिचित है। ठीक ऐसा ही अंकेक्षक का कर्तव्य अपने नियोक्ता के प्रति होता है। किसी संस्था के हिसाब-किताव का त्रुटियों तथा कपट को ढूंढ निकालने के लिए उसे सावधानी तथा ईमानदारी से कार्य करना चाहिए। उसे अपने नियोक्ता (मालिक) के हितों की रक्षा बडी चौकसी और सफाई के साथ करनी चाहिए। अपना कार्य करते समय यदि उसे कोई शंका उत्पन्न होती है तो वह निम्नांकित कार्य कर सकता है।

(1) वह संस्था के अधिकारियों से शंका के सन्दर्भ में सूचना या स्पष्टीकरण प्राप्त कर सकता है। इस प्रमाणित स्पष्टीकरण के आधार पर विश्वास करके शंका का समाधान कर सकता है।

(2) यदि इस स्पष्टीकरण से वह सन्तुष्ट न हो, तो इस आपत्ति का उल्लेख उसे अपनी रिपोर्ट में निःसंकोच कर देना चाहिए।

परन्तु वह एक खूनी कुत्ते के समान नहीं है। एक खूनी कुत्ता अपने शिकार को पकड़कर दबोच लेता है। अंकक्षक को इस प्रकार का कार्य नहीं करना चाहिए। वह बेटियों तथा कपट का पता तो अवश्य लगाये, मगर जो कर्मचारी इसके लिए जिम्मेदार हैं, उनसे किसी प्रकार का द्वेष या घृणा उसके हृदय में नहीं होनी चाहिए। ‘जिसकी गलती उसको दबाना’ उसका सिद्धान्त नहीं होना चाहिए। उसको अपनी ईमानदारी तथा सावधानी में कमी नहीं करनी चाहिए और कपट के लिए उत्तरदायी व्यक्ति का पता लगाना चाहिए, उसको किसी कर्मचारी के प्रति सन्देहास्पद वृत्ति उत्पन्न कर हानि पहुंचाने की भावना से कार्य नहीं करना चाहिए। उसे खातों की गहन जाँच करने और अपनी स्पष्ट रिपोर्ट देने में संकोच नहीं करना चाहिए।

इस निर्णय के साथ-साथ बहुत कुछ ऐसी ही बात लन्दन एण्ड जनरल बैंक (1895) के मुकदमे में निर्णय देते हुए विद्वान जज ने कही थी। इसके अनुसार अंकेक्षक एक बीमक (insurer) नहीं है। वह इस प्रकार की कोई भी गारण्टी नहीं दे सकता है कि पुस्तकें कम्पनी की सही स्थिति को बताती हैं और न वह यह कह सकता है कि चिट्ठा कम्पनी की पुस्तकों के अनुसार सही है। उसका केवल यह कार्य है कि उसे ईमानदारी, सावधानी व चतुराई से कार्य करना चाहिए और तब ही खातों को प्रमाणित करना चाहिए। जिसको वह सही नहीं समझता, उसे सही प्रमाणित करने के लिए वह बाध्य नहीं है। अतः केवल ईमानदारी तथा कुशलता से कार्य करना ही उसका कर्तव्य है। इससे अधिक कोई अन्य उसका दायित्व नहीं है।

सरल शब्दों में उसका कार्य केवल गहन जाँच करना है जिससे त्रुटियों तथा कपट का पता लग सके और इस प्रकार वह संस्था के स्वामियों के हितों की रक्षा कर सके।

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अंकेक्षण के लाभ

(ADVANTAGES OF AUDITING)

अंकेक्षण के लाभों का उल्लेख निम्न तीन शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है—(अ) उपक्रम या संगठन के लिए लाभ, (ब) उपक्रम के स्वामियों के लिए लाभ और (स) अन्य पक्षों के लिए लाभ।

(अ) उपक्रम या संगठन के लिए लाभ (Advantages for Undertaking or Organisation)

1 उपक्रम के कर्मचारी अधिक नियमित, जागरूक व सावधान-सामयिक अंकेक्षण के परिणामस्वरूप, लेखा-पुस्तकों से सम्बन्धित उपक्रम के समस्त कर्मचारी, अपना कार्य नियमित रूप से, कुशलतापूर्वक व सावधानी से करते हैं। अंकेक्षण के भय से वे सदेव अपने कार्य के प्रति जागरूक रहते हैं।

2. अशद्धियों एवं छल-कपट का पता चलनापुस्तपालन व लेखाकर्म में की गई त्रुटियों एवं छल-कपट का सरलता से पता चल जाता है। अंकेक्षण कर्मचारियों पर नैतिक नियन्त्रण बनाए रखता है अन्यथा रोकड या माल का गबन करने की इच्छा पनप सकती है।

3. अंकेक्षित खातों के आधार पर संस्था को ऋण सुविधापूर्वक उपलब्ध हो जाते हैं। अंकेक्षित खाते अधिक विश्वसनीय होते हैं। इससे कम्पनी की साख एवं प्रतिष्ठा बढ़ती है।

4. कर दायित्व का निर्धारण-अंकेक्षित खाता के आधार पर, जिन्हें कर अधिकारी भी मान्यता प्रदान करते हैं। देय कर की राशि का निर्धारण भी सरलता से किया जा सकता है।

5. श्रमिक संघर्षों का समाधान यदि अधिक मजदूरी, भत्ता आदि के भगतान के सम्बन्ध में झगड़े उठते हैं तो अंकेक्षित खातों के आधार पर उन्हें सरलतापूर्वक समझाया जा सकता है।

6. दावे का निपटारा अंकेक्षित खाते बीमा कम्पनियों को भी दावों (Claims) के निपटारे में मान्य होते हैं।

7. आन्तरिक नियन्त्रण पद्धति की कमियों का पता चलना-अंकेक्षण के माध्यम से संस्था की आन्तरिक नियन्त्रण पद्धति के दोष उभरकर सामने आते हैं तथा उन्हें भी दूर किया जा सकता है।

(ब) उपक्रम के स्वामियों के लिए लाभ (Advantages for Owners of the Enterprise)

1 एकाकी व्यापारी को लाभ एकाकी व्यापारी को उपर्युक्त लाभों के साथ-साथ निम्नलिखित कुछ अन्य लाभ भी अंकेक्षण व्यवस्था से प्राप्त होते हैं, जो इस प्रकार हैं: ।

(i) हिसाब-किताब तथा उसके परिणामों की पिछले वर्षों से तुलनात्मक जांच की जा सकती है।

(ii) व्यापारी अंकेक्षित खातों को न्यायालय में प्रमाण के रूप में प्रस्तुत कर सकता है।

(iii) एकाकी व्यापारी यदि किसी साझेदार को लेना चाहे तो अंकेक्षित खाते उपयोगी रहते हैं।

2. साझेदारी में उपयोगी यदि किसी साझेदारी संस्था का अंकेक्षण कराया जाता है तो साझेदारों को निम्नलिखित लाभ प्राप्त हो जाते हैं :

(i) साझेदारों के मध्य आपसी मनमुटाव की सम्भावनाएं अत्यन्त कम हो जाती है।

(ii) लेखापुस्तकें तैयार करने वाले साझेदार के लिए उसकी ईमानदारी का पक्का प्रमाण हो जाता

(iii) नए साझेदार को संस्था की आर्थिक स्थिति के सम्बन्ध में कोई शंका नहीं रहती है।

(iv) अवकाश ग्रहण करने वाले साझेदार को अंकेक्षित खातों के प्रति विश्वास होने के कारण प्राप्त होने वाली राशि का निर्धारण करना सरल हो जाता है।

(v) किसी साझेदार की मृत्यु पर अंकेक्षित खातों के आधार पर, दी जाने वाली राशि का निर्धारण

सरलतापूर्वक हो जाता है।

3. अंशधारियों को सन्तोषएक संयुक्त पूंजी वाली कम्पनी में अंकेक्षित खाते ही अंशधारियों को यह विश्वास दिलाते हैं कि उनकी विनियोजित पूंजी सुरक्षित है तथा कम्पनी नियमानुसार कार्य कर रही है।

4. प्रन्यास, सहकारी संस्थाओं आदि से सम्बन्धित पक्षकारों को सन्तोष-अंकेक्षित खाते ही इन पक्षकारों को विश्वास दिला सकते हैं कि उनके हित सुरक्षित हैं तथा सभी कार्य नियमानुसार संचालित किए जा रहे हैं।

(स) अन्य पक्षों के लिए लाभ (Advantages to other Parties)

1 बीमा कम्पनी को किसी व्यापार की क्षति पर उस व्यापार के अंकेक्षित हिसाब-किताब के आधार पर क्षति का अनुमान लगाना सरल हो जाता है।

2. सरकारी अधिकारियों के लिए आय-कर, मूल्य-वर्धित कर (VAT), धन-कर आदि लगाते समय अंकेक्षित खाते बहुत सहायक सिद्ध होते हैं।

3. किसी मुकदमे के दौरान अंकेक्षित हिसाब-किताब को न्यायालय द्वारा मान्यता प्राप्त होती है।

4. बैंक अथवा ऋण प्रदान करने वाली अन्य संस्थाएं (जैसे—IFCI, IDBI आदि) अंकेक्षित हिसाब-किताब की सहायता से ऋण प्रदान करने के विषय में निर्णय ले सकती हैं।

Auditing Meaning Definition Scope

प्रश्न

1 अंकेक्षण से आप क्या समझते हैं ? उसके उद्देश्यों को स्पष्ट कीजिए।

What do you mean by Auditing ? Explain clearly its objectives.

2. “लेखाकर्म एक आवश्यकता है जबकि अंकेक्षण व्यापार के लिए विलासिता है।” क्या आप इस कथन से सहमत हैं? कारण सहित बताइए और एक व्यापारिक संस्था को कुशलता एवं ईमानदारी से चलाने के लिए अंकेक्षण का महत्व बताइए।

Accounting is necessity but auditing is luxary for business” do you agree with this statement ? Explain with reason and explain the Importance of auditing for running a business efficiently and honestly.

3. “लेखाकर्म वहाँ प्रारम्भ होता है जहाँ पस्तपालन समाप्त होता है और अंकेक्षण वहाँ प्रारम्भ होता है, जहाँ लेखाकर्म समाप्त होता है।” इस कथन को स्पष्ट समझाइए।

Accountancy starts where book keeping ends and auditing begain where accountancy ends. Explain this statement.

4. मुख्य प्रकार की त्रुटियों और कपटों का संक्षेप में विवरण दीजिए। क्या अंकेक्षक से सब त्रुटियों और कपटों के ढूँढ़ निकालने की आशा की जा सकती है?

Explain the main error and fraud in brief. Is it possible to face these errors and fraud by the auditor?

5. एक व्यापार के लिए चाहे वह एकाकी हो, साझेदारी फर्म हो, सीमित दायित्व वाली कम्पनी हो अथवा सरकारी निगम हो, अंकेक्षण की आवश्यकता पर प्रकाश डालिए।

In light of the need for auditing for a business firm, or Partnership firm, a Limited company with limited liability, or a government Organisation.

6. “एक अंकेक्षक रखवाली करने वाले कुत्ते के समान कार्य करता है, शिकारी कुत्ते के सदृश्य नहीं।’ इस कथन को समझाइए।

“Auditor workers like a watch dog not like a blood hound.’ Explain this statement.

7. विभिन्न प्रकार के कपटों की व्याख्या कीजिए। क्या अंकेक्षक इन कपटों को रोक सकता है?

Explain the different kinds of frauds. Can the Auditor prevent these frauds?

Auditing Meaning Definition Scope

 

 

chetansati

Admin

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