BCom 2nd year Entrepreneur Balanced Role Economic Development Study Material Notes in Hindi

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BCom 2nd year Entrepreneur Balanced Role Economic Development Study Material Notes in Hindi

Table of Contents

BCom 2nd year Entrepreneur Balanced Role Economic Development Study Material Notes in Hindi: Meaning of Economic Development  Characteristics of Economic Development Distinction between Economic Growth Economic Development  Process or Stages or Economic Development  Factor influencing Economic  Strategy of Economic  balanced or Unbalanced Growth How can Balanced Growth be Realized Measures Adopted For Balanced Development  Development and Entrepreneur:

Balanced Role Economic Development
Balanced Role Economic Development

BCom 3rd Year Corporate Accounting Underwriting Study Material Notes in hindi

उद्यमी की भूमिका सन्तुलित आर्थिक विकास में

(Role of Entrepreneur-In Balanced Economic Development)

“आर्थिक विकास एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें दीर्घकाल में अर्थव्यवस्था की वास्तविक राष्ट्रीय आय में वृद्धि होती है।”

Balanced Role Economic Development

शीर्षक

  • आर्थिक विकास से अर्थ (Meaning of Economic Development)
  • आर्थिक विकास की विशेषतायें (Characteristics of Economic Development)
  • आर्थिक वृद्धि एवं आर्थिक विकास में अन्तर (Distinction between Economic Growth and Economic Development)
  • आर्थिक विकास की प्रक्रिया अथवा अवस्थाएँ (Process or Stages of Economic Development)
  • आर्थिक विकास की अवस्थाओं के सन्दर्भ में भारत की स्थिति (India’s Position in Relation to the Stages of Economic Development)
  • आर्थिक विकास को प्रभावित करने वाले घटक (Factors Influencing Economic Development)
  • आर्थिक विकास की रणनीति अथवा सन्तुलित या असन्तुलित विकास (Strategy of Economic Development or Balanced or Unbalanced Growth)
  • सन्तुलित विकास की विचारधारा-एक दृष्टि में (Theory of Balanced Growth-AtAGlance) >
  • सन्तुलित क्षेत्रीय विकास (Balanced Regional Development)
  • सन्तलित विकास किस प्रकार सम्भव ? (How can Balanced Growth be Realised 2)
  • सन्तुलित क्षेत्रीय विकास में राज्य की भूमिका एवं उपाय (Measures for Balanced Regional Development and Role of State)
  • सन्तुलित विकास के लिए किए गए उपाय (Measures Adopted For Balanced Development)
  • सन्तुलित विकास और उद्यमी (Balanced Development and Entrepreneur)
  • Balanced Role Economic Development

आर्थिक विकास से अर्थ

(Meaning of Economic Development),

आर्थिक विकास का अर्थ भिन्न-भिन्न प्रकार से लगाया है। अतः इन सभी विद्वानों को तीन वर्गों में रख सकते है।

(I) प्रथम वर्ग में उन विद्वानों को रखते हैं जो राष्ट्रीय आय में दीर्घकालीन एवं लगातार वृद्धि को आर्थिक विकास का प्रतीक मानते हैं। इस वर्ग के विद्वानों में मेयर एवं बाल्डविन, पॉल एल्वर्ट, कुजनेट्स आदि आते हैं।

(II) द्वितीय वर्ग में उन विद्वानों को रखते हैं जो प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि को आर्थिक विकास की प्रक्रिया मानते हैं। इस वर्ग के विद्वानों में विलियमसन एवं बट्रिक, हार्वे लिबिन्सटीन, लीविस, क्राउज, रोस्टोव, बेन्जामिन, हिगिस आदि आते हैं।

(III) ततीय वर्ग में उन विद्वानों को रखते हैं, जो आर्थिक विकास की धारणा को और अधिक व्यापक अर्थ में प्रयोग। करते हैं और वे जन-साधारण के सामान्य कल्याण में वृद्धि को ही आर्थिक विकास का प्रतीक मानते हैं। इस वर्ग के विद्वानों में ब्राइट सिंह, संयुक्त राष्ट्र संघ के ओकेन एवं रिचर्डसन आदि आते हैं।

इन सभी वर्गों एवं विचारधाराओं के आधार पर आर्थिक विकास की प्रमुख परिभाषाएं इस प्रकार हैं

1 राष्ट्रीय आय में वृद्धि सम्बन्धी परिभाषाएँ

(1) मेयर एवं बाल्डविन के मत में, “आर्थिक विकास एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा एक अर्थव्यवस्था की वास्तविक राष्ट्रीय । आय में दीर्घकाल में वृद्धि होती है।

(2) पॉल एल्बर्ट की दृष्टि में, “किसी देश के द्वारा अपनी वास्तविक आय को बढ़ाने के लिए सभी उत्पादक साधनों का कुशलतम प्रयोग करना आर्थिक विकास कहलाता है।”

उपर्युक्त परिभाषाओं में तीन बातों पर जोर दिया गया है—(i) आर्थिक विकास एक प्रक्रिया (Process) है। इसका अर्थ यह है कि आर्थिक विकास किसी उद्देश्य को प्राप्त करने का एक साधन है। (ii) आर्थिक विकास के अन्तर्गत दीर्घकाल में राष्ट्रीय आय में वृद्धि होती है। (iii) राष्ट्रीय आय को बढ़ाने के लिए देश के सभी उत्पादन साधनों का कुशलतम उपयोग किया जाता है।

आलोचनाइन परिभाषाओं से यह ज्ञात नहीं होता है कि प्रति व्यक्ति आय घट रही है या बढ़ रही है। यह सम्भव है कि शुद्ध राष्ट्रीय आय बढ़ने पर भी जनसंख्या बढ़ने से प्रति व्यक्ति आय कम हो जाये। ऐसी स्थिति को आर्थिक विकास नहीं कहा जा सकता है।

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2. प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि सम्बन्धी परिभाषाएँ

(1) रोस्टोव के अनुसार, “आर्थिक विकास एक ओर पूँजी व कार्यशील शक्ति में वृद्धि की दरों के बीच तथा दूसरी ओर जनसंख्या वृद्धि की दर के बीच ऐसा सम्बन्ध है जिससे प्रति व्यक्ति उत्पादन में वृद्धि होती है

(2) हार्वे लिबिन्सटीन के अनुसार, “विकास में किसी अर्थव्यवस्था के प्रति व्यक्ति वस्तुओं एवं सेवाओं का उत्पादन करने की शक्ति में वृद्धि करना निहित है।’

(3) विलियमसन एवं बट्रिक की दृष्टि में, “आर्थिक विकास या वृद्धि से अर्थ उसे प्रक्रिया से है जिसमें किसी देश या क्षेत्र के निवासी उपलब्ध साधनों का प्रयोग करके प्रति व्यक्ति वस्तुओं एवं सेवाओं के उत्पादन में निरन्तर वृद्धि करते हैं।’

(4) क्राउज के शब्दों में, “आर्थिक विकास किसी अर्थव्यवस्था में आर्थिक वृद्धि की प्रक्रिया को बताता है। इस प्रक्रिया का केन्द्रीय उद्देश्य अर्थव्यवस्था के लिए प्रति व्यक्ति वास्तविक आय का ऊँचा और बढ़ता हुआ स्तर प्राप्त करना होता है।’

(5) लीविस की राय में, “आर्थिक विकास प्रति व्यक्ति उत्पादन की मात्रा में वृद्धि को बताता है। प्रति व्यक्ति उत्पादन वृद्धि एक ओर उपलब्ध प्राकृतिक साधनों पर एवं दूसरी ओर मानवीय व्यवहार पर निर्भर है।”

उपर्युक्त परिभाषाओं से तीन निष्कर्ष निकलते हैं—(i) आर्थिक विकास में प्रति व्यक्ति उत्पादन में वृद्धि होती है। (ii) यह उत्पादन वृद्धि निरन्तर होती रहती है। यदि यह वृद्धि रुक जाती है, तो इसको आर्थिक विकास नहीं कहा जा सकता है। (iii) आर्थिक विकास के अन्तर्गत उपलब्ध प्राकृतिक साधनों का विदोहन होता है।

आलोचनायह परिभाषाएं उचित नहीं मानी जाती हैं, क्योंकि इनमें एक ही पक्ष, प्रति व्यक्ति आय में होने वाले परिवर्तन को ही आर्थिक विकास माना गया है। आर्थिक विकास में इसके अतिरिक्त अन्य तत्त्व भी होते हैं।

Balanced Role Economic Development

III. सामाजिक कल्याण में वृद्धि सम्बन्धी परिभाषाएं

(1) बी. सिंह के अनुसार, “यह एक बहुमुखी धारणा है। इसके अन्तर्गत केवल मौद्रिक आय में ही वृद्धि शामिल नहीं है, परन्तु वास्तविक आदतें, शिक्षा, सार्वजनिक स्वास्थ्य, अधिक आराम के साथ-साथ उन समस्त सामाजिक एवं आर्थिक परिस्थितियों में सुधार भी शामिल हैं जो एक पूर्ण और सुखी जीवन का निर्माण करती हैं।”2

(2) संयुक्त राष्ट्र संघ के एक प्रतिवेदन के अनुसार, “विकास मानव की केवल भौतिक आवश्यकताओं से ही नहीं, बल्कि उसके जीवन की सामाजिक दशाओं की उन्नति से भी सम्बन्धित होना चाहिए। अत: विकास में सामाजिक, सांस्कृतिक, संस्थागत तथा आर्थिक परिवर्तन भी शामिल है।”

(3) ओकेन एवं रिचर्डसन के मत में, “आर्थिक विकास से अर्थ वस्तुओं और सेवाओं को अधिक-से-अधिक मात्रा में उपलब्ध करने से है जिससे कि जनसाधारण के भौतिक कल्याण में निरन्तर व दीर्घकालीन उन्नति हो सके।

इस वर्ग के विद्वानों का कहना है कि आर्थिक विकास में आय वृद्धि के साथ-साथ सामाजिक कल्याण में भी उन्नति होनी चाहिए।

आलोचनायह परिभाषाएं भी संकुचित मानी जाती हैं। इनमें केवल सामाजिक उन्नति की बात कही गयी है, जबकि आर्थिक विकास में अनेक पहलुओं का अध्ययन किया जाता है।

लेकिन अमरीका की संस्था Overseas Development Council आर्थिक विकास का अर्थ Physical Quality of Life Index (PQLI) में वृद्धि से लगाती है। इस संस्था द्वारा इस सूचकांक के तीन तत्वों को शामिल किया गया है (6) प्रत्याशित आयु, (ii) बच्चों की मृत्यु-दर, एवं (iii) साक्षरता। जिस देश की प्रत्याशित आयु सबसे अधिक होती है उसे 100 अंक दिये गये हैं। इसी प्रकार मृत्यु-दर व साक्षरता के सम्बन्ध में भी अंक दिये गये हैं। जिस देश में सबसे कम होती है। उसे 1 अंक देते हैं। इस प्रकार प्रत्येक देश के ताना सूचकाक रखकर औसत निकाल लेते हैं। यदि किसी देश के इस औसत सचकांक में वृद्धि होती रहती है तो इसे आथिक विकास मानते हैं और यह मानते हो रही है।

निष्कर्ष आर्थिक विकास की उपर्युक्त परिभाषाओं के अध्ययन के पश्चात हम आशिक से उस प्रक्रिया से है जिसके परिणामस्वरूप देश के समस्त उत्पादन साधनों। परिभाषित कर सकते हैं-“आर्थिक विकास से अर्थ उस प्रक्रिया से है जिसके परिणामस्व और प्रति व्यक्ति आय में निरन्तर एवं दीर्घकालीन वृद्धि होती है तथा जनता। का कशलतापूर्वक विदोहन होता है, राष्ट्रीय आय और प्रति व्यक्ति आय में निरन्तर के जीवन-स्तर एवं सामान्य कल्याण का सूचकांक बढ़ता है।”

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आर्थिक विकास की विशेषताएँ

(Characteristics of Economic Development)

आर्थिक विकास की विभिन्न परिभाषाओं का विश्लेषण करने पर इसकी पाँच प्रमुख विशेषताएँ निकलकर आती हैं जो निम्न प्रकार हैं

(1) निरन्तर प्रक्रियायह एक लगातार या निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है जिसके कारण साधनों की पूर्ति एवं वस्तु सम्बन्धी माँग समय-समय पर बदलती रहती है। साधनों की पूर्ति में परिवर्तन से अर्थ जनसंख्या, उत्पादन साधन, पूँजी, उत्पादन-तकनीकी व अन्य संस्थागत परिवर्तनों से है। इसी प्रकार वस्तु सम्बन्धी माँग के परिवर्तन से अर्थ जनता की आय में परिवर्तन, वस्तु-वितरण के तरीकों में परिवर्तन, जनसंख्या की रचना में परिवर्तन व उपभोक्ताओं की रुचियों में परिवर्तनों से है। जैसे-जैसे किसी देश के आर्थिक विकास की प्रक्रिया आगे बढ़ती जाती है वैसे-वैसे इन सभी पूर्ति साधनों एवं माँगों में परिवर्तन होता जाता है।

(2) वास्तविक राष्ट्रीय आय प्रति व्यक्ति आय में वृद्धिआर्थिक विकास से वास्तविक राष्ट्रीय व प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि होती है। राष्ट्रीय आय से अर्थ एक वर्ष में जितनी वस्तुओं व सेवाओं का उत्पादन एक देश में होता है उसके मूल्य में से ह्रास, आदि घटकर जो बचता है उससे है। इसी को शुद्ध राष्ट्रीय उत्पादन या वास्तविक राष्ट्रीय आय कहते हैं। आर्थिक विकास की स्थिति में इसमें वृद्धि होती है। जब राष्ट्रीय आय में कुल जनसंख्या का भाग दे देते हैं तो भागफल प्रति व्यक्ति औसत आय कहलाता है। आर्थिक विकास में इस प्रति व्यक्ति औसत आय में भी वृद्धि होती है।

(3) दीर्घकालीन या निरन्तर वृद्धिआर्थिक विकास के अन्तर्गत वास्तविक राष्ट्रीय आय में निरन्तर वृद्धि होनी चाहिए। इसका अर्थ यह है कि यदि किसी विशेष कारण से कुछ समय के लिए राष्ट्रीय आय में वृद्धि हो जाती है तो उसे आर्थिक विकास नहीं कहा जा सकता है। उदाहरण के लिए, यदि किसी वर्ष समयानुसार वर्षा होने पर कृषि उत्पादन बढ़ जाता है और जिससे राष्ट्रीय आय बढ़ जाती है तो इसको दीर्घकालीन वृद्धि या निरन्तर वृद्धि नहीं कह सकते हैं। आर्थिक विकास में वृद्धि आकस्मिक न होकर दीर्घकालीन होनी चाहिए।

(4) उत्पादन साधनों का उचित विदोहनइसमें देश के उत्पादन साधनों को अच्छी प्रकार से काम में लाया जाता है। दूसरे शब्दों में, बेकार पड़े उत्पादन साधनों को कुशलतापूर्वक काम में लाने का प्रयास किया जाता है।

(5) जीवनस्तर एवं सामान्य कल्याण में सुधार आर्थिक विकास में सामान्य जनता के जीवन-स्तर में सुधार होता है तथा सरकार द्वारा कल्याणकारी कार्यों में वृद्धि की जाती है। यदि आर्थिक विकास में धनी वर्ग को ही लाभ होता है और उन्हीं के जीवन-स्तर में सुधार होता है, तो इसको आर्थिक विकास नहीं कह सकते हैं। आर्थिक विकास में तो सभी के जीवन स्तर में सुधार होना चाहिए तथा कल्याणकारी कार्यों में वृद्धि होनी चाहिए।

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आर्थिक वृद्धि एवं आर्थिक विकास में अन्तर

(Distinction between Economic Growth and Economic Development)

सामान्यत: आर्थिक वृद्धि (Economic Growth) व आर्थिक विकास(Economic Development) में कोई अन्तर नहीं माना जाता है और दोनों शब्दों को एक-दूसरे के पर्यायवाची शब्द के रूप में प्रयोग करते हैं, लेकिन शुम्पीटर, एल्फ्रेड बोन, श्रीमती हिक्स, डॉ. ब्राइट सिंह, आदि विद्वान इसमें अन्तर करते हैं।

प्रो. शुम्पीटर ने अपनी पुस्तक ‘The Theory of Economic Development’ में बताया गया है कि आर्थिक वद्धि (Economic Growth) से अर्थ परम्परागत, स्वचालित एवं नियमित विकास से है, जबकि आर्थिक विकास (Economic Development) से अर्थ नियोजित एवं नवीन तकनीकी के आधार पर होने वाले विकास से है। इसी प्रकार श्रीमती उर्सला हिक्स ने बताया कि वृद्धि (Growth) शब्द का प्रयोग आर्थिक दृष्टि से विकसित राष्ट्रों के सम्बन्ध में किया जाता है जहाँ पर साधन ज्ञात एवं विकसित हैं, जबकि विकास (Development) शब्द का प्रयोग उन अविकसित देशों के सम्बन्ध में होना चाहिए। जहाँ पर अब तक प्रयोग न किये गये साधनों का उपयोग एवं विकास करने की सम्भावना हो। डॉ. ब्राइट सिंह ने भी अपनी । पुस्तक ‘Economic Development’ में लिखा है कि वृद्धि (Growth) शब्द का उपयोग विकसित देशों के लिए किया जा सकता है।

प्रो. किण्डलबर्जर के अनुसार, वृद्धि (Growth) एवं विकास (Development) दोनों को ही पर्यायवाची शब्दों के। रूप में प्रयोग किया जाता है और यह प्रयोग प्रायः सर्वमान्य है, लेकिन चूँकि यह दो शब्द हैं, अत: इनमें अन्तर खोजना चाहिए।

इस आधार पर “आर्थिक वृद्धि (Economic Growth) से अर्थ केवल उत्पादन से है, जबकि आर्थिक विकास (Economic Development) से अर्थ अधिक उत्पादन, नवीन तकनीक एवं संस्थागत सुधारों के समन्वय से है।”

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आर्थिक विकास की प्रक्रिया अथवा अवस्थाएं

(Process or Stages of Economic Growth/Development)

अर्थशास्त्रियों का विचार है कि “आर्थिक विकास की कछ अवस्थाएं होती हैं, जो एक-दूसरे के बाद क्रम से आती हैं। इसी को वे आर्थिक विकास की प्रक्रिया कहते हैं। लेकिन अर्थशास्त्रियों में इस सम्बन्ध में एक राय नहीं है कि विकास की अवस्थाएं कौन-कौन सी हैं या विकास प्रक्रिया का ढंग क्या है? कुछ अर्थशास्त्रियों का विचार है कि विकास की तीन अवस्थाएं होती हैं(1) वस्तु-विनिमय अवस्था, (2) मौद्रिक अवस्था, एवं (3) साख अवस्था। कछ अर्थशास्त्री आर्थिक विकास की अवस्थाओं का वर्णन जनसंख्या के पेशेवर विभाजन के आधार पर करते हैं और उनका कहना है कि आर्थिक विकास के साथ-साथ कृषि पर निर्भर रहने वाली जनसंख्या का प्रतिशत घटता जाता है और औद्योगिक जनसंख्या का प्रतिशत क्रमशः बढ़ता जाता है। अतः उनकी दृष्टि में कृषि आर्थिक पिछड़ेपन का द्योतक है, जबकि उद्योग आर्थिक विकास का सूचक है।

प्रो. कॉलिन क्लार्क (Colin Clark) ने अपनी पुस्तक ‘Condition of Economic Progress’ में आर्थिक विकास की तीन अवस्थाएं बतायी हैं-(i) प्रारम्भिक अवस्था. (ii) मध्यवर्ती अवस्था, एवं (iii) उन्नत अवस्था। लेकिन प्रसिद्ध अमेरिकी अर्थशास्त्री प्रो. रोस्टोव (W. W. Rostov) ने अपनी पुस्तक ‘The Problems of Economic Growth’ में . आर्थिक विकास की निम्नलिखित पाँच अवस्थाएं बतायी हैं

(1) परम्परावादी अवस्था (Traditional Stage)—इस अवस्था में देश के अधिकांश साधन कृषि व्यवसाय में लगे होते हैं तथा उद्योग-धन्धे बहुत ही पिछड़ी हुई अवस्था में होते हैं। कृषि उत्पादन साधन भी पुराने होते हैं। नवीन वैज्ञानिक साधनों को काम में नहीं लाया जाता है। इससे कृषि उत्पादन एक सीमा में ही स्थिर रहता है। किसी भी क्षेत्र में विज्ञान एवं तकनीकी का उपयोग दिखाई नहीं देता है। समाज में राजनीतिक सत्ता बड़े-बड़े भूमिपतियों के हाथ में केन्द्रित होती है। इन सबके परिणामस्वरूप इस अवस्था में—(i) उत्पादन का स्तर निम्न एवं प्रति व्यक्ति आय न्यूनतम होती है; (ii) समाज का संगठन जातिवाद एवं पारिवारिक सम्बन्धों पर आधारित होती है; एवं (iii) देश की सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था दुर्बल एवं अविकसित स्थिति में होती है।

(2) आत्मस्फूर्ति से पूर्व की अवस्था (Stage ofPre-condition to Take-off)—यह वह अवस्था है जिसमें समाज वैज्ञानिक विधियों एवं तकनीकों का प्रयोग करने लगता है और परम्परावादी विधियों को छोड़ने लगता है। इससे कुछ परिवर्तन स्पष्ट रूप से दिखायी देने लगते हैं। इस अवस्था में समाज द्वारा बचत करने, उसको विनियोग करने एवं लाभ वृद्धि करने का प्रयल किया जाता है। इससे वाणिज्य व व्यापार का विस्तार होने लगता है। नये-नये निर्माणी कार्य होने लगते हैं तथा नये-नये प्रकार की संस्थाएं स्थापित होने लगती हैं। भूमिपतियों का प्रभुत्व कम होने लगता है। राजनीतिक चेतना आने लगती है। सामाजिक रुचियों में भी परिवर्तन होने लगते हैं। प्रो. रोस्टोव के अनुसार इस अवस्था में (i) पूँजी-निवेश की मात्रा 10 प्रतिशत तक पहुँच जाती है तथा प्रति व्यक्ति उत्पादन भी बढ़ जाता है। (ii) ग्रामीण जनसंख्या सड़कों व अन्य साधनों में वद्धि होने के कारण शहरों में आकर बसने लगती है। (iii) इस अवस्था में खाद्यान्नों का उत्पादन आवश्यकतानुसार होने लगता है। (iv) औद्योगिक कच्चे माल का उत्पादन भी बढ़ने लगता है। (v) कृषि क्षेत्र की बचत उद्योगों में विनियोजित होने लगती है। (vi) सरकार द्वारा भी जन-कल्याण के कार्यों में अधिक योगदान दिया जाने लगता है।

(3) आत्मस्फर्ति अवस्था (Take-off Stage)-यह आर्थिक विकास की तीसरी अवस्था है। प्रो.रोस्टोव के अनुसार, हर्ति अवस्था को उस मध्यान्तर काल के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसमें विनियोग की दर इस प्रकार बढ़ती है कि जिससे प्रति व्यक्ति वास्तविक उत्पादन में वृद्धि होता है। इस प्रारम्भिक वृद्धि के साथ उत्पादन विधियों में आमल परिवर्तन तथा आय का विनियोग इस प्रकार प्रभावित होता है कि जिससे विनियोग की नवीन धाराएं प्रभावित होती हैं तथा सस्वरूप प्रति व्यक्ति उत्पादन में वृद्धि हो जाती है। इससे यह बात साफ हो जाती है कि-(

(i) इस अवस्था में परिवर्तन होते हैं तथा विकास अपन आप हान लगता ह।

(ii) कृषि व उद्योग में विकास का प्रभाव स्पष्ट दिखाई दन।

(iii) निर्माणी उद्योगों में विकास तेजी से होने लगता है।

(iv) देश के उत्पादन में वृद्धि तेजी से होती है।

(v) राष्ट्रीय। उत्पादन बढ़ता है।

(vi) प्रति व्यक्ति राष्ट्रीय आय बढ़ती है।

प्रो. रोस्टोव ने विभिन्न राष्ट्रों द्वारा आत्मस्फूर्ति अवस्था को प्राप्त करने की तिथियाँ इस प्रकार बताई हैं—ब्रिटेन 17831802.फ्रांस 1820-1860, अमेरिका 1843-1860, जापान 1878-1900, रूस 1890-1914,कनाडा 1896-1914. भारत 19521

(4) परिपक्वता की अवस्था (Drive to Maturity Stage)—इस अवस्था को स्वप्रेरित विकास की अवस्था (Stage of Self-sustained Growth) भी कहते हैं। इस अवस्था में साधनों का उपयोग इस सीमा तक होने लगता। है कि देश में सभी आवश्यक वस्तुएं पर्याप्त मात्रा में बनने लगती हैं। अतः अन्य देशों पर निर्भरता समाप्त हो जाती है। देश का व्यवसाय आर्थिक आधार पर किया जाने लगता है। इसका अर्थ है कि आर्थिक दृष्टि से जिन वस्तुओं का उत्पादन लाभकारी होता है केवल उन्हीं वस्तुओं का उत्पादन किया जाता है, शेष को आयात करके ही काम चलाया जाता है। इस अवस्था में विकास की औसत दर एक-सी रहती है। उद्योगों का पर्याप्त विकास होने व कृषि में आधुनिक तकनीकी को काम में लाते रहने के कारण कृषि पर जनसंख्या का भार कम हो जाता है तथा विदेशी व्यापार के स्वरूप में भारी परिवर्तन हो जाते हैं। अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में देश एक महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर लेता है। इस अवस्था में 15 से 20 प्रतिशत तक राष्ट्रीय आय का विनियोजन किया जाता है। ग्रामीण जनसंख्या शहरी क्षेत्रों में रहना अधिक पसन्द करती है। अत: शहरी जनसंख्या में वृद्धि होती है।

Balanced Role Economic Development

प्रो. रोस्टोव ने विभिन्न राष्ट्रों की परिपक्वता की ओर पहुँचने की तिथियाँ इस प्रकार बताई हैं—ब्रिटेन 1950, फ्रांस 1910, अमेरिका 1900, जापान 1940, रूस 19501

(5) अधिकाधिक उपभोग की अवस्था (Stage of High Mass Consumption) यह आर्थिक विकास की अन्तिम अवस्था है। इसमें जनता की सामान्य आवश्यकताएं आसानी से पूरी हो जाती हैं और सामान्य उपभोग स्तर ऊपर उठ जाता है तथा समाज का प्रत्येक व्यक्ति उपभोग की उच्चतम सीमा पर पहुँचना एवं विशिष्ट वस्तुओं को काम में लाना चाहता है। इसी का परिणाम होता है कि इस अवस्था में प्रत्येक व्यक्ति आरामदायक व विलासिता की वस्तुओं के नये-नये मॉडल प्राप्त करने के लिए उत्सुक होता है। इसका कारण यह होता है कि इस अवस्था में प्रति व्यक्ति आय काफी ऊँची होती है। इस अवस्था में वस्तुओं में अधिक तकनीकी सुधार करने की गुंजाइश नहीं होती है। सिर्फ सुविधाओं में वृद्धि की जाती है।

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आर्थिक विकास की अवस्थाओं के सन्दर्भ में भारत की स्थिति

(India’s Position in Relation to the Stages of Economic Development)

विद्वानों का कहना है कि भारत तृतीय अवस्था आत्मस्फूर्ति अवस्था (Take-off Stage) में है। इसके लिए वे निम्नलिखित कारण देते हैं

(1) भारत में शुद्ध पूँजी-निवेश की दर सम्पूर्ण राष्ट्रीय आय के चालू मूल्यों के आधार पर 15.4 प्रतिशत है। जो निश्चय ही इस बात की प्रमाण है कि भारत में आत्मस्फूर्ति अवस्था है। (2) कृषि व उद्योगों में विज्ञान का प्रभाव दिखाई देने लगा है जिसके परिणामस्वरूप कृषि उत्पादन एवं उद्योगों में उत्पादन बढ़ा है। (3) निर्माणी उद्योगों में भी विकास हो रहा है। (4) कुल राष्ट्रीय उत्पादन बढ़ रहा है। (5) प्रति व्यक्ति राष्ट्रीय आय भी बढ़ रही है। (6) निर्यातों में भी वृद्धि हो रही है। (7) समाज के सामाजिक, राजनीतिक एवं मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण में भी परिवर्तन हो रहा है। (8) उत्साही एवं साहसी वर्ग भी उठ रहा है जो जोखिम सहने को तैयार है।

लेकिन इसके विपरीत, कुछ विद्वान् यह नहीं मानते कि भारतीय अवस्था आत्मस्फूर्ति अवस्था में है और वे इस सन्दर्भ में निम्न तथ्य या कारण देते हैं

(1) भारतीय अर्थव्यवस्था में अभी भी कृषि की प्रधानता है तथा कृषि उद्योग में अभी भी आधुनिकतम वैज्ञानिक उपकरणों का उचित मात्रा में उपयोग नहीं हो रहा है, जिसके परिणामस्वरूप बहुत-से कृषि पदार्थ आयात करने पड़ते हैं। (2) भारतीय उद्योग अभी भी अपनी मशीनों व उपकरणों के लिए विदेशों पर निर्भर है यद्यपि भारत में अधिकांश मशीनों का निर्माण होने लगा है। (3) भारत में अभी भी गरीबी व्याप्त है। (4) शिक्षित जनसंख्या कम है। (5) औद्योगिक पिछड़ापन है। (6) विदेशी सहायता पर । निर्भरता है। अत: भारत तृतीय अवस्था में नहीं है।

निष्कर्ष यहानाववाद सत्य है कि भारत तृतीय अवस्था में नहीं पहँच पाया है तो निश्चय ही दुसरी अवस्था पार करके ततीय अवस्था में प्रवेश करने की स्थिति में है। इसका कारण यह है कि अब भारत में ततीय अवस्था की कुछ विशेषताएं। पायी जाने लगी हैं।

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आर्थिक विकास को प्रभावित करने वाले घटक

(Factors Influencing Economic Development)

प्रत्येक देश का आर्थिक विकास अनेक घटकों से प्रभावित होता है। इन्हीं घटकों को आर्थिक विकास के निर्धारक या तत्त्व का आधार (Determinants or Elements or Basis) कहते हैं। यह निर्धारक या तत्त्व या आधार कितने हैं इस सम्बन्ध में अर्थशास्त्रियों में एक राय नहीं है।

(1) प्रो. रेगनर नर्कसे के अनुसार, आर्थिक विकास का (i) मानवीय शक्तियों, (ii) सामाजिक मान्यताओं, (iii) राजनीतिक दशाओं, (iv) ऐतिहासिक घटनाओं के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है, एवं (v) पूँजी आवश्यक तत्त्व है, लेकिन विकास। के लिए एकमात्र निर्धारक नहीं है।

(2) मेयर एवं बाल्डविन (Meier and Baldwin) की दृष्टि में आर्थिक विकास के निर्धारक तत्त्वों को दो भागों में विभाजित कर सकते हैं—(i) आधारभूत साधनों की पूर्ति, जैसे जनसंख्या में वृद्धि, पूँजी संग्रह, अतिरिक्त साधनों की खोज, नवीन उत्पादन विधियों का प्रयोग तथा संस्थागत परिवर्तन, व (ii) उत्पादित वस्तुओं की माँग की संरचना में परिवर्तन, जैसे आय के स्तर में परिवर्तन, आय के वितरण में परिवर्तन उपभोक्ताओं की वरीयताओं में परिवर्तन, आदि।

(3) प्रो. शुम्पीटर (Schumpeter) के मत में आर्थिक विकास के पाँच निर्धारक तत्व होते हैं—(i) उत्पादन की नवीन प्रणाली का शुभारम्भ, (ii) अर्ध निर्मित व कच्चे माल के लिए नवीन साधनों की खोज, (iii) उद्योगों में नवीन संगठन, (iv) नवीन वस्तुओं को शामिल करना, एवं (v) नवीन बाजारों की खोज करना।

(4) प्रो. रोस्टोव (Rostow) ने आर्थिक विकास को प्रभावित करने वाले घटकों को दो भागों में बांटा है-(अ) पूँजी संग्रह की मात्रा एवं स्वरूप, (ब) श्रम शक्ति की मात्रा एवं स्वरूप और उनका कहना है कि इन पर छ: प्रवृत्तियों का प्रभाव पड़ता है—(i) विज्ञान में विकास करने की प्रवृत्ति, (ii) विज्ञान को आर्थिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए प्रयोग करने की प्रवृत्ति, (iii) भौतिक प्रगति की खोज की प्रवृत्ति, (iv) सन्तानोत्पत्ति की प्रवृत्ति, (v) नवीन प्रवर्तन स्वीकार करने की प्रवृत्ति, एवं (vi) उपभोग वृद्धि की प्रवृत्ति।

उपर्युक्त वर्णित विद्वानों के विचारों के अध्ययन के पश्चात् हम इस निष्कर्ष पर आते हैं कि आर्थिक विकास को निर्धारित करने वाले या प्रभावित करने वाले बहुत-से घटक हैं। अतः हम इन घटकों को दो मुख्य भागों में वर्गीकृत कर सकते हैं-(D आर्थिक घटक (Economic Factors), व (II) अनार्थिक घटक (Non-economic Factors)।

(I) आर्थिक घटक (Economic Factors)

आर्थिक विकास के आधार या निर्धारक या प्रभावित करने वाले आर्थिक घटक मुख्य रूप से आठ हैं जोकि निम्नलिखित हैं

(1) प्राकृतिक संसाधनकिसी भी देश का आर्थिक विकास उस देश के प्राकृतिक संसाधनों, जैसे भौगोलिक स्थिति, खनिज सम्पदा, जल साधन, वन सम्पदा, जलवायु, धरातल,बनावट व मिट्टी, आदि पर निर्भर करता है। जिस देश में यह संसाधन जिन अधिक होते हैं वह देश इन संसाधनों का उतना ही अधिक उपयोग कर अपनी उन्नति व विकास कर सकता है। इसके विपरीत यदि किसी देश में इन ससाधनों का उचित रूप से उपयोग नहीं किया जाता है या उस देश में प्राकतिक संसाधनों का अभाव है तो इस देश में आर्थिकविकास उचित प्रकार से नहीं किया जा सकता है। कुछ विद्वानों का मत है कि आज के प्रगतिशील युग में प्राकृतिक संसाधन अधिक महत्त्व के नहीं है और उनका कहना। है कि इजरायल व जापान ने अपना विकास प्राकृतिक संसाधनों के बल पर न करके अपनी योग्यता एवं क्षमता के आधार पर। किया है। अत: यह अर्थ निकालना है कि कोई राष्ट्र बिना प्राकृतिक संसाधनों के आर्थिक विकास नहीं कर सकता, उचित नहीं है। वास्तव में, इन विद्वानों के विचार एक सीमा तक ही उचित प्रतीत होते हैं। हर परिस्थिति में प्राकृतिक साधनों का होना तो एक अनिवार्य आवश्यकता है। किसी भी देश के आर्थिक विकास के लिए प्राकृतिक संसाधनों का एक न्यूनतम स्तर होना। अनिवार्य है।

(2) श्रम शक्ति व जनसंख्या किसी भी देश का आर्थिक विकास उस देश की श्रम शक्ति व जनसंख्या पर भी निर्भर रहता है। यदि किसी देश में श्रम शक्ति निर्बल व आलसी है तो उस देश का आर्थिक विकास धीमी गति से होता है, लेकिन इसके विपरीत यदि श्रम शक्ति साहसी, तेजस्वी एवं सबल है तो परिश्रम व उत्साह के बल पर वह देश गति से उन्नति कर सकता है। इसके लिए जर्मनी का उदाहरण बहुत ही उपयुक्त है। द्वितीय विश्वयुद्ध में यह देश बिल्कुल जर्जर हो गया था, लेकिन इसके बाद। 15-20 वर्षों में इस देश ने काफी उन्नति की। यह उसकी श्रम शक्ति के साहस का ही परिणाम है।

जनसंख्या वृद्धि भी एक देश के आर्थिक विकास को प्रभावित करती है। विकसित देशों में जनसंख्या वृद्धि उनके आर्थिक विकास में सहयोग देती है, लेकिन अल्प-विकसित देशों में जनसंख्या वृद्धि एक अभिशाप है, क्योंकि इससे प्रति व्यक्ति उत्पादन कम हो जाता है। इसका कारण यह है कि अल्प-विकसित देशों में जिस दर से जनसंख्या बढ़ती है उस दर से पूँजीगत साधनों व तकनीकी ज्ञान में वृद्धि नहीं होती है। इससे जनता के लिए समस्याएं पैदा हो जाती हैं। प्रति व्यक्ति आय कम हो जाती है। जीवन-स्तर गिर जाता है। मूल्य बढ़ जाते हैं। बचत व पूँजी निर्माण दरों में कमी हो जाती है। अत: इस बात की आवश्यकता है कि जनसंख्या का उचित नियोजन एवं अनुकूलतम उपयोग करके आर्थिक विकास की गति को तेज किया जा सकता है।

(3) पूँजीनिर्माण आधुनिक आर्थिक विकास का मूल आधार पूँजी है। भारतीय योजना आयोग के अनुसार, “किसी भी देश का आर्थिक विकास पूँजी की उपलब्धता पर ही निर्भर करता है। आय एवं रोजगार अवसरों की वृद्धि तथा उत्पादन की कुंजी पूँजी के अधिकाधिक निर्माण में निहित है।” श्री गिल (R. T. Gill) के मत में, “पूँजी-निर्माण उन मुख्य घटकों में से एक है, जो आधुनिक युग में समृद्ध राष्ट्रों को निर्धन राष्ट्रों से एवं औद्योगिक युग को विश्व के पिछले इतिहास से अलग करता है।” इस प्रकार यदि किसी देश में पूँजी-निर्माण नहीं होता है तो वह देश अपना आर्थिक विकास नहीं कर सकता है। इसी प्रकार यदि पूँजी-निर्माण धीमी गति से होता है तो आर्थिक विकास भी धीमी गति से होता है। पूँजी-निर्माण से अर्थ बचत करने एवं उस बचत को उद्योग में विनियोजित करने से है।

(4) तकनीक तथा नवाचारकिसी भी देश के आर्थिक विकास पर तकनीक तथा नवाचार का भी प्रभाव पड़ता है। तकनीक से अर्थ होता है नवीन वस्तुओं के उत्पादन से तथा नवाचार का अर्थ होता है पुरानी वस्तुओं की उत्पादन प्रक्रिया में सुधार से। जिस देश में वैज्ञानिक एवं प्राविधिक प्रगति तेज होती है उस देश के बाजार में नयी-नयी वस्तुएं आ जाती हैं व पुरानी वस्तुओं में सुधार हो जाता है। श्रम की उत्पादकता में वृद्धि हो जाती है। उत्पादन लागत घट जाती है। इन सबसे देश का आर्थिक विकास भी होता है। जिन देशों में तकनीकी, नवाचार, वैज्ञानिक एवं प्राविधिक प्रगति धीमी गति से होती है वहाँ आर्थिक विकास भी धीमी गति से होता है।

(5) पूँजीउत्पादन अनुपातपूँजी-उत्पादन अनुपात से अर्थ है कि उत्पादन की एक इकाई के लिए पूँजी की कितनी इकाइयों की आवश्यकता है। इसी को दूसरे शब्दों में इस प्रकार भी कह सकते हैं कि उपलब्ध पूँजी का निवेश करने पर उत्पादन में किस दर में वृद्धि होती है। उदाहरण के लिए, यदि पाँच हजार रुपये की पूँजी विनियोजित करने पर उत्पादन एक हजार रुपये के बराबर होता है तो पूँजी-उत्पादन अनुपात 5 : 1 कहलायेगा। जिस देश में यह अनुपात जितना कम होगा वह देश उतना ही अधिक आर्थिक विकास कर सकेगा।

पूँजी उत्पादकता तकनीकी विकास, विनियोग की प्रवृत्ति, प्रबन्धकीय कुशलता तथा अन्य कई बातों पर निर्भर करती है। अतः पूँजी-उत्पादन अनुपात निकालना कठिन होता है। अर्थशास्त्रियों की यह विचारधारा है कि पिछड़े एवं अल्प-विकसित देशों में पूँजी-उत्पादन अनुपात ऊँचा होता है। अतः इन देशों की पूँजी कम उत्पादक मानी जाती है।

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(6) संगठनएक देश के आर्थिक विकास पर उस देश के संगठनात्मक पहलू का भी प्रभाव पड़ता है। यदि किसी देश में साहसी, अच्छा नेतृत्व प्रदान करने वाले, दूरदर्शी, परम्परागत बाधाओं को तोड़ने वाले, महत्वाकांक्षी, आदि गुण रखने वाले। व्यक्ति अधिक होते हैं तो वह देश अपना अच्छा आर्थिक विकास कर सकता है, लेकिन जिन देशों में इन गुणों वाले व्यक्तियों का अभाव हो वे देश आज भी अनेक नवीनतम और आधुनिक तकनीकी आविष्कार होने के बावजूद भी पिछड़े हुए हैं और अल्प-विकसित देशों की श्रेणी में आते हैं। इस प्रकार देश का संगठन भी आर्थिक विकास पर प्रभाव डालता है और यह एक महत्त्वपूर्ण घटक है।

(7) वित्तीय स्थिरताएक देश का आर्थिक विकास उस देश की वित्तीय स्थिति पर निर्भर करता है। यदि देश में। मद्रा-प्रसार सीमा में रहता है तथा ब्याज दर कम रहती है तो देश का आर्थिक विकास होता है, जबकि इसके विपरीत स्थिति। में देश के आर्थिक विकास में बाधा उत्पन्न हो जाती है। इस प्रकार आर्थिक विकास पर देश की वित्तीय स्थिति का प्रभाव पड़ता है।

(8) विकासात्मक नियोजन-यदि एक देश में विकासात्मक नियोजन सफल रहता है तो उस देश का आर्थिक विकास भी सफल रहता है। इस प्रकार विकासात्मक नियोजन भी आर्थिक विकास का एक निर्धारक घटक है।

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(II) अनार्थिक घटक (Non-economic Factors)

आर्थिक विकास के निर्धारक या आधार या प्रभावित करने वाले अनार्थिक घटक निम्नलिखित पाँच माने जाते हैं

(1) सामाजिक घटकएक देश का सामाजिक वातावरण एवं उसकी संस्थाएं भी उस देश के आर्थिक विकास को प्रभावित करती हैं। इसका कारण यह है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। अत:समाज की कुछ परम्पराएं,प्रथाएं, मनोवृत्तियाँ,रीति-रिवाज, आदि ऐसे होते हैं, जो मनुष्य को उन्हें पालन करने या मानने के लिए बाध्य करते हैं। यदि मनुष्य इन सीमाओं से ऊपर उठकर समाज की उन्नति की इच्छा रखता है, विकास के लिए तत्पर रहता है तथा नवीन विधियों का प्रयोग करने के लिए उत्सुक है तो आर्थिक प्रगति होती है अन्यथा ऐसा सामाजिक वातावरण प्रगति में बाधक सिद्ध होता है। इसलिए प्रो. गिल ने अपनी पुस्तक ‘Economic Development में लिखा है कि “आर्थिक विकास कोई यान्त्रिक प्रक्रिया नहीं हैं। यह एक मानवीय उपक्रम है और अन्य मानवीय उपक्रमों के समान इसका फल अन्तिम रूप से मनुष्यों की योग्यता, गुणों एवं मनोवृत्तियों पर निर्भर करेगा।

(2) धार्मिक घटकआर्थिक विकास पर धार्मिक भावनाओं एवं विश्वासों का भी प्रभाव पड़ता है। धार्मिक भावनाएं रूढ़िवादिता एवं अन्धविश्वास को जन्म देती हैं, जिसके परिणामस्वरूप नवीनता का विरोध होता है। यही कारण है कि प्रो. लुईस ने लिखा है कि “कोई देश असंगत धार्मिक सिद्धान्तों को अपनाकर अपनी आर्थिक उन्नति का गला घोंट सकता है या नये उन्नतिशील विचार को अपनाकर आर्थिक विकास की गति तेज सकता है।”

(3) राजनीतिक घटकराजनीतिक घटक भी आर्थिक विकास को प्रभावित करते हैं। यदि देश में राजनीतिक स्थायित्व है, शान्ति व सुरक्षा है, सरकार के प्रति जनता में विश्वास है तो उस देश में आर्थिक विकास कार्य तेजी से चलाया जा सकता है। इसके विपरीत स्थिति में आर्थिक विकास हतोत्साहित होगा। इसीलिए प्रो. लुईस ने कहा है कि “फिसी देश की राजनीतिक प्रभुसत्ता, सरकारी स्वरूप, सरकारी दृष्टिकोण में विकास की सजगता, प्रशासन की श्रेष्ठता, विकास से सम्बन्धित प्रश्नों पर राजनीतिक विचारधारा, आदि का आर्थिक विकास पर निर्णायक प्रभाव पड़ता है।”

(4) अन्तर्राष्ट्रीय घटकएक देश के आर्थिक विकास पर अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों का भी प्रभाव पड़ता है। यदि अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति सामान्य है और पड़ोसी देशों से सम्बन्ध अच्छे हैं तो आयात-निर्यात को बढ़ावा दिया जा सकता है और देश का आर्थिक विकास किया जा सकता है। इसके विपरीत स्थिति में अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा नहीं मिलता है और विकास तीव्र गति से नहीं हो सकता है।

(5) विकास की आकांक्षाएक देश के आर्थिक विकास पर वहां के निवासियों के विकास की आकांक्षा अर्थात् इच्छा का बड़ा प्रभाव पड़ता है। यदि निवासी आकांक्षा रखते हैं तो विकास तेज गति से होता है, लेकिन इसके विपरीत यदि वहाँ के निवासी आलसी व भाग्यवादी हैं तो आर्थिक विकास मन्द गति से होता है।

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सन्तुलित या असन्तुलित विकास

(Balanced or Unbalanced Growth)

अथवा

आर्थिक विकास की रणनीति

(Strategy of Economic Development)

एक अन्य विकसित अर्थव्यवस्था को स्वप्रेरित अर्थव्यवस्था (Self-generating Economy) में बदलने के लिए आर्थिक विकास की उचित रणनीति या संयोजना अपनायी जानी चाहिए। इस रणनीति या संयोजना को अपनाने में दो उद्देश्यों को ध्यान में रखना चाहिए—(1) न्यूनतम प्रयास से अधिकतम सम्भावित विकास दर प्राप्त करना, एवं (ii) विकास की एक अवस्था से दूसरी अवस्था में जाने में अधिक समय न लगना।

_आर्थिक विकास की संयोजना के सम्बन्ध में अर्थशास्त्रियों में दो विचारधाराएं है—(1) सन्तुलित विकास (Balancodi Growth), एवं (2) असन्तुलित विकास (Unbalanced Growth)।

(1) सन्तुलित विकास (Balanced Growth)-सन्तुलित विकास से अर्थ देश के विभिन्न प्रकार के क्षेत्रों का एक साथ विकास करने से है। इसमें सभी उद्योगों को एक साथ सन्तुलित रूप से आगे बढ़ाया जाता है। इस प्रकार सन्तलित विकास से अर्थ सामंजस्यपर्ण एवं चहुंमुखी विकास से है जिसमें अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों में विकास होता है। सन्तुलित विकास में किसी प्रकार की बाधाएं नहीं होती हैं। जनशक्ति व पदार्थों का अपव्यय नहीं होता है। वस्तुएं उपभोक्ता अभिरुचियों के अनरूप बनायी जाती हैं। सभी उद्योगों का उत्पादन सरलता से बिक जाता है।

पूँजीगत वस्तएं भी आवश्यकतानुसार उत्पादित होती हैं। इस प्रकार की विचारधारा रखने वाले अर्थशास्त्रियों में रेगनर नर्कसे। लीविस, ऐलिन यंग, रोजेनस्टीन रोडां, आदि प्रमुख हैं।

प्रो. किण्डले बर्जर के अनुसार, इसका अर्थ है—निर्माणकारी उद्योगों और कृषि उद्योग का सन्तुलित ढंग से विकास करना। कछ लोगों ने उद्योग और कृषि, घरेल और निर्यात क्षेत्र, सामाजिक और सेवा उद्योग आदि के रूप में सन्तुलित विकास शब्द का प्रयोग किया है। अधिक स्पष्ट करने की दृष्टि से नीचे कुछ परिभाषाएँ प्रस्तुत हैं

प्रो.अलक घोष के शब्दों में, “नियोजन के साथ सन्तुलित विकास का अर्थ है अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों का एक ही अनुपात में विकास हो, ताकि उपभोग, विनियोग और आय, समान दर से बढ़ सकें।”

प्रो. रैडावे के अनुसार, “सन्तुलित विकास का अर्थ अर्थव्यवस्था के विभिन्न अंगों में सन्तुलन स्थापित करना हैजैसे(i) उत्पादन और उपभोग के ढाँचे के बीच, (ii) उपभोग-वस्तु क्षेत्र के मध्य, तथा (iii) उत्पादन की विभिन्न प्रणालियों के बीच, जिससे कि एक ओर कच्चे माल व अन्तरवर्ती वस्तुओं और अनिवार्य वस्तुओं, तो दूसरी ओर औद्योगिक आवश्यकताओं के बीच सन्तुलन स्थापित हो सके।”

सरल शब्दों में, “सन्तुलित विकास से आशय अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों का एक साथ तथा एक-सा विकास करना है ताकि सभी क्षेत्र समान रूप से विकसित हो सकें।”

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सन्तुलित विकास की विचारधाराएक दृष्टि में

(Theory of Balanced Growth-At A glance)

(1) सन्तुलित विकास का अर्थ एक साथ सभी उद्योगों में विनियोग करना है। जिस प्रकार शरीर के लिए सन्तुलित भोजन की आवश्यकता होती है ठीक उसी प्रकार तीव्र आर्थिक विकास के लिए सन्तुलित विकास का होना आवश्यक है।

(2) सन्तुलित विकास की प्रक्रिया ‘बड़े धक्के से आरम्भ की जानी चाहिए। दूसरे शब्दों में, सन्तुलित विकास के लिए आवश्यक न्यूनतम विनियोग किया जाना आवश्यक है।

(3) सन्तुलित विकास पूरक उद्योगों का विकास करके बाजार को विस्तृत करता है जिससे बाह्य मितव्ययिताएं उपलब्ध होने लगती हैं।

(4) सन्तुलित विकास का सिद्धान्त ‘बहुमुखी विकास के सिद्धान्त’ की धारणा पर आधारित है।

(5) यह सिद्धान्त माँग की दृष्टि से प्रभावपूर्ण एवं पूरक माँग को उत्पन्न करने और पूर्ति की दृष्टि से विभिन्न प्रकार के उद्योगों के बीच सन्तुलन बनाये रखने की आवश्यकता पर बल देता है।

(6) अल्पविकसित देशों में व्याप्त ‘विषैले वृत्तों’, विशेषकर निर्धनता के दुष्चक्र’ को तोड़ने के लिए सन्तुलित विकास पद्धति को अपनाया जाना अत्यावश्यक है, ताकि उपलब्ध पूँजी का सर्वोत्तम उपयोग हो सके।

(7) सन्तुलित विकास से अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार को प्रोत्साहन प्राप्त होता है।

(8) सन्तुलित विकास की पद्धति मूल रूप से निजी उपक्रम प्रणाली से सम्बद्ध है (जैसा कि नर्कसे का विचार है) नियोजित अर्थव्यवस्था में सन्तुलित विकास की सम्भावना बहुत कम होती है।

(9) विभिन्न अर्थशास्त्रियों के मतानुसार सन्तुलित विकास से अनेक प्रकार के लाभ प्राप्त होते हैं, जो कि इस प्रकार

हैं—(1) अतिरिक्त बाह्य मितव्ययिताएँ, (ii) सामाजिक लाभ में वृद्धि, (iii) जोखिम में कमी, (iv) रोजगार में वृद्धि, (v) मूल्य स्थिरता, (vi) देश का सर्वांगीण विकास, (vii) सन्तुलित विदेशी व्यापार, तथा (viii) आर्थिक नियोजन के लिए स्वस्थ वातावरण होना।

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सन्तुलित क्षेत्रीय विकास

(Balanced Regional Development)

उद्योगों का देश के किसी एक अथवा कुछ क्षेत्रों में केन्द्रीयकरण राष्ट्रीय हितों के अनुरूप उचित नहीं माना जा सकता है। यदि यह प्रवृत्ति अपनी उचित सीमाओं को लांघकर कुछ राज्यों अथवा क्षेत्रों में ही उद्योगों के केन्द्रीयकरण को प्रोत्साहित करती है तो इससे एक ही देश के विभिन्न क्षेत्रों में अनेक प्रकार की आर्थिक एवं सामाजिक विषमताएँ उत्पन्न हो सकती हैं। यह स्थिति विभिन्न राज्यों में रोजगार के अवसरों में घोर असमानताओं तथा प्रति व्यक्ति आय और जीवन स्तर में पर्याप्त भिन्नताओं के लिए उत्तरदायी होती है। यह स्थिति इस बात की प्रतीक है कि उद्योगों के स्थानीयकरण एवं प्रादेशिक वितरण के विषय में राज्य द्वारा अपनाई गई नीति दोषपूर्ण रही है। क्षेत्रीय विषमताएँ कालान्तर में अनेक प्रकार की आर्थिक, राजनीतिक तथा जनांकिकीय समस्याओं को जन्म देती हैं।

सन्तुलित क्षेत्रीय विकास का आशय विभिन्न प्रदेशों के औद्योगिक विकास में व्याप्त असमानताओं में यथासम्भव कमी लाना है जिससे कि पिछड़े हुए क्षेत्रों को भी औद्योगिक विकास का लाभ प्राप्त हो सके। प्रत्येक क्षेत्र के लिए विकास की सम्भावनाओं को ज्ञात करने के लिए अध्ययन एवं सर्वेक्षण किए जाने चाहिए तथा उनके आधार पर प्रत्येक क्षेत्र में उस क्षेत्र के लिए उपयुक्त उद्योगों का विकास किया जाना चाहिए। बहुत ही पिछड़े हुए क्षेत्र में भी औद्योगिक विकास की कुछ-न-कुछ सम्भावनाएँ अवश्य होती हैं। आवश्यकता इस बात की है कि इन सम्भावनाओं को ज्ञात किया जाए तथा राज्य इन क्षेत्रों में अवस्थापन ढाँचे का निर्माण करे, ताकि इन प्रदेशों में जल, शक्ति, परिवहन एवं सुविधाओं की उपलब्धि हो सके। संविधान में राज्य नीति के निदेशक तत्त्वों के अन्तर्गत यह व्यवस्था है कि राज्य अपनी नीतियों का प्रतिपादन इस प्रकार करेगा कि जिससे राष्ट्र में सम्पत्ति एवं आय की असमानताओं में कमी हो सके। यह तभी सम्भव है, जबकि क्षेत्रीय विकास की असमानताओं में कमी करके उद्योगों का सन्तुलित क्षेत्रीय विकास किया जाए। इसके लिए प्राथमिकता के आधार पर पिछड़े हुए क्षेत्रों का विकास करना आवश्यक है।

(2) असन्तुलित विकास (Unbalanced Growth) आर्थिक विकास संयोजना की दूसरी विचारधारा असन्तुलित विकास की है। इसमें पहले कुछ चुने हुए क्षेत्रों में ही विकास किया जाता है और केवल उन्हीं क्षेत्रों को पहले विकास हेतु लिया जाता है, जिनके विकास की सम्भावनाएं हैं तथा जिनके लिए पर्याप्त सुविधाएं उपलब्ध हैं। अत: आरम्भ में विकास उन्हीं क्षेत्रों में किया जाना चाहिए जो विकास को अधिक गति प्रदान कर सकते हैं। इसके लिए पूँजीगत वस्तुओं के उद्योगों को प्राथमिकता दी जा सकती है। ऐसा करने से उपभोक्ता उद्योगों के विकास के लिए आधार तैयार हो जाता है। बाद में उपभोक्ता उद्योगों को विकसित किया जा सकता है। यह संयोजना उन देशों के लिए बहुत ही उचित है जिनके साधन सीमित हैं। वे अपने विकास को धीरे-धीरे क्रमानुसार कर सकते हैं। असन्तुलित विकास की विचारधारा को प्रतिपादित करने वाले अर्थशास्त्रियों में प्रो. रोस्टोव, पॉल स्ट्रीटन एवं प्रो. हर्शमैन प्रमुख हैं।

आर्थिक विकास की रणनीति या संयोजनाओं के अपने-अपने गुण व दोष हैं। अत: निश्चित रूप से यह नहीं कहा जा सकता है कि अमुक संयोजना उचित या श्रेष्ठ है। विकास अर्थशास्त्र का विश्लेषण भी किसी एक संयोजना का समर्थन नहीं करता है। विकास अर्थशास्त्र का इतिहास यह बताता है कि अमेरिका व ब्रिटेन ने सन्तुलित विकास की नीति अपनाई थी, जबकि रूस ने असन्तुलित विकास की, लेकिन बाद में उसने सन्तुलित विकास की नीति अपनाई। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि दोनों (1) एक-दूसरे के पूरक हैं, विरोधी नहीं, एवं (2) दोनों एक-दूसरे पर आधारित हैं, स्वतन्त्र नहीं।

इस प्रकार अल्प-विकसित देश पहले असन्तुलित विकास की नीति को अपनाकर बाद में सन्तुलित विकास नीति को अपना सकते हैं। इस प्रकार पहले कुछ क्षेत्रों में सन्तुलित नीति व कुछ क्षेत्रों में असन्तुलित नीति अपनायी जा सकती है।

भारत में सन्तुलित विकास की नीति अपनाई गई है जिसकी पुष्टि पंचवर्षीय योजनाओं के द्वारा की गयी है। प्रथम योजना में कहा गया है कि “कृषि को सर्वाधिक प्राथमिकता दी जानी चाहिए। उद्योगों के लिए कच्चे माल की मात्रा को बढ़ाये बिना औद्योगिक विकास तीव्र गति से करना असम्भव है। किसी एक का विकास बिना दूसरे के नहीं हो सकता है। दोनों एक-दूसरे के परक हैं। भारत में विभिन्न साधन उपलब्ध हैं, जो सन्तुलित विकास के लिए अनुकूल भी हैं।” दूसरी पंचवर्षीय योजना में। भी कहा गया है कि “विकास के लिए आवश्यक है कि समस्त अर्थव्यवस्था का एक साथ विकास हो।”

सन्तुलित विकास किस प्रकार सम्भव है ?

(How can Balanced Growth be Realised)

नर्कसे के अनुसार सन्तुलित विकास दो प्रकार से प्राप्त हो सकता है। मिश्रित अर्थव्यवस्था में विकास प्रक्रिया में विविध क्षेत्रों के बीच सन्तुलन रखने के लिए जहाँ मूल्य प्रेरणाओं (Price incentives) का प्रयोग किया जाता है, वहाँ आयोजित अर्थव्यवस्था में यह उद्देश्य राज्य के प्रयत्नों से प्राप्त होता है, जबकि शुम्पीटर के अनुसार, पश्चिमी यूरोप में पूँजीवाद के प्रादुर्भाव के काल में व्यक्तिगत उद्यमकर्ताओं के द्वारा किए जाने वाले नव-प्रवर्तनों (Innovations) के फलस्वरूप विकास की दर तेज थी। उनका मत है कि इन देशों में औद्योगिक प्रगति की लहरें नियमित रूप से इसलिए आती रहीं, क्योंकि नव-प्रवर्तनों में प्रवीण उद्यमकर्ता बहुत बड़ी संख्या में थे जो नवीन वस्तुओं की खोज करने, उत्पादन के साधनों के नए संयोगों का आविष्कार करने, आदि में कुशल थे।

इस प्रकार पश्चिमी यूरोप के देशों में व्यक्तिगत उद्यमकर्ताओं ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। संक्षेप में सन्तुलित विकास की युक्ति का आशय है कि निवेश विभिन्न उद्योगों एवं क्षेत्रों में इस प्रकार होना चाहिए कि सभी उद्योगों द्वारा प्रतिपादित वस्तुओं के बाजारों में वांछनीय विस्तार हो सके।

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सन्तुलित क्षेत्रीय विकास में राज्य की भूमिका एवं उपाय

(Measures for Balanced Regional Development and Role of State)

सन्तुलित क्षेत्रीय विकास में राज्य की भूमिका एवं उपायों को निम्न चार्ट द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है—

1 निषेधात्मक उपाय (Negative Measures)

इन उपायों का उद्देश्य ऐसे क्षेत्रों में, जहाँ पहले से ही अत्यधिक औद्योगिक केन्द्रीयकरण है, उद्योगों के और अधिक स्थानीयकरण को रोकना होता है। सरकार ऐसे अधिनियमों एवं नियमों को लागू कर रही है, जिनके द्वारा इन क्षेत्रों में नई औद्योगिक इकाइयों की स्थापना को हतोत्साहित किया जाए। इसके अन्तर्गत निम्न उपाय अपनाये जाते हैं

() उद्योगों के लिए अनुज्ञापत्र लेने की व्यवस्थाएक निश्चित आकार से बड़ी इकाइयों के लिए पंजीकरण (registration) तथा अनुज्ञा-पत्र (licence) लेने की अनिवार्य व्यवस्था लागू करके सरकार अपने हाथ में ऐसा अस्त्र ले लेती है जिसके प्रयोग से पहले से ही केन्द्रीकृत क्षेत्रों में और आगे उद्योगों के स्थानीयकरण को हतोत्साहित तथा औद्योगिक दृष्टि से पिछड़े हुए क्षेत्रों में नवीन उद्योगों के स्थानीयकरण को प्रोत्साहित किया जा सकता है। इससे क्षेत्रीय असन्तुलन में क्रमश: कमी लाई जा सकती है।

() नवीन औद्योगिक इकाइयों की स्थापना पर रोकअत्यधिक केन्द्रीकृत कुछ विशाल नगरों में औद्योगिक इकाइयों की स्थापना पर सरकार की ओर से प्रतिबन्ध लगाया जा सकता है। इससे ऐसे विशाल नगरों में केन्द्रीयकरण की मात्रा को बढ़ने से रोका जा सकता है।

() स्थानीय करों में वृद्धिराज्य स्थानीय करों में वृद्धि करके ऐसे क्षेत्रों में नवीन उद्योगों की स्थापना को हतोत्साहित कर सकता है, किन्तु व्यवहार में यह देखा गया है कि यह उपाय अधिक प्रभावशाली सिद्ध नहीं हुआ है, क्योंकि उद्योगपति केन्द्रीयकरण की प्रवृत्तियों (agglomerative tendencies) के आकर्षण के कारण ऊँचे कर देकर भी ऐसे क्षेत्रों में उद्योग स्थापित करना चाहते हैं।

() औद्योगिक विकास करऐसे क्षेत्रों में स्थापित उद्योगों से विकास कर (development tax) वसूल करके नई औद्योगिक इकाइयों के स्थानीयकरण को रोका जा सकता है, किन्तु यहाँ यह देखना होगा कि यदि ऐसा कर लगाया जाता है तो उसकी दर पर्याप्त होनी चाहिए, नहीं तो स्थानीय करों में वृद्धि की भांति यह भी अधिक प्रभावी सिद्ध नहीं होगा

2.  प्रेरणात्मक उपाय (Incentive Measures)

ये उपाय अनेक प्रकार की सहायता तथा रियायतों एवं छूट देकर अपनाए जाते हैं। इसका लाभ उठाने के लिए उद्योगपति पिछड़े क्षेत्रों में उद्योगों के स्थानीयकरण के प्रति प्रोत्साहित होते हैं। इन उपायों की निम्न शीर्षकों के अन्तर्गत विवेचना की जा सकती है

(1) विकासात्मक उपाय (Development Measures)—पिछड़े क्षेत्रों के औद्योगिक विकास के लिए निम्नलिखित विकास सम्बन्धी उपाय सरकार द्वारा अपनाए जा सकते हैं

() सस्ती दर पर भूमि की व्यवस्थालम्बी अवधि के पट्टे पर नाममात्र का शुल्क लेकर औद्योगिक इकाइयों की स्थापना को ऐसे क्षेत्रों में आकर्षित किया जा सकता है।

() जनोपयोगी सेवाओं का विकासबिजली एवं जल आपूर्ति की योजनाएँ, सड़कों एवं संचार साधनों का विकास, चिकित्सा एवं शिक्षा तथा प्रशिक्षण की व्यवस्था, आदि के द्वारा प्रोत्साहन। अवस्थापन ढाँचे (Infrastructure) का निर्माण वस्तुतः राज्य का ही दायित्व है, जिसे पिछड़े हुए क्षेत्रों में प्राथमिकता के आधार पर पूरा किया जाना चाहिए।

() सार्वजनिक क्षेत्र के कारखानों की स्थापनाराजकीय क्षेत्र की विशाल औद्योगिक इकाइयों की स्थापना निश्चय ही ऐसे क्षेत्रों में रोजगार के अवसरों में वृद्धि और विभिन्न प्रकार की वस्तुओं की मांग में वृद्धि करने में सहयोगी होती है, जिससे अन्य उद्योग, विशेषतः सहायक उद्योग ऐसे क्षेत्रों में विकसित होने लगते हैं।

() यातायात एवं संचार व्यवस्थापिछड़े हुए क्षेत्रों में औद्योगिक बस्तियों (Industrial Estates) की स्थापना करके भी नए उद्योगों की स्थापना के लिए उपयुक्त दशाएँ उत्पन्न की जा सकती हैं। एक स्थान पर समस्त औद्योगिक सुविधाओं की उपलब्धि का लाभ उठाने के लिए छोटे उद्योगपति वहाँ उद्यमी क्रियाएँ प्रारम्भ करने के लिए प्रेरित होते हैं। यह सुविधाएँ अनेक प्रकार की हो सकती हैं; जैसे भूमि, वर्कशाप, गोदाम, कच्चा माल, जल आपूर्ति, विद्युत आपूर्ति की सुविधा आदि।

(2) वित्तीय उपाय (Financial Measures) औद्योगिक रूप से पिछड़े हए क्षेत्रों के विकास के लिए निम्न उपाय कारगर सिद्ध हो सकते हैं

() आर्थिक सहायता या अनुदान देकर यदि यह प्रतीत होता हो कि बिना आर्थिक उपदान (Subsidy) के किसी पिछड़े हुए क्षेत्रों में उद्योगों की स्थापना सम्भव नहीं है तो राज्य ऐसे वित्तीय उपदान की व्यवस्था कर सकता है।

() करों में रियायतें राज्य द्वारा पिछड़े हुए क्षेत्रों में स्थापित किए गए उद्योगों से कुछ वर्षों तक रियायती दरों से कर वसूल किए जा सकते हैं। कुछ करों के सम्बन्ध में पूरी छूट भी दी जा सकती है। ऐसी छूट या रियायत प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष दोनों प्रकार के करों में दी जा सकती है जिससे पिछड़े क्षेत्रों में खोली जाने वाली प्रस्तावित परियोजनाओं के लिए व्यापारिक बैंकों तथा विकास बैंकों से कम ब्याज पर पूँजी की सुविधा प्राप्त की जा सके है। ऐसी ब्याज दर प्रचलित बैंक-दर से भी कम हो। सकती है।

() राजकीय क्रय-नीति-केन्द्रीय सरकार द्वारा राज्यों की सरकारों के लिए आवश्यक वस्तुओं की खरीद के विषय में पिछड़े हुए क्षेत्रों में निर्मित वस्तुओं को प्राथमिकता दी जा सकती है।

(3) सामाजिक उपाय (Social Measures)—पिछड़े हुए क्षेत्रों में औद्योगिक स्थानीयकरण को आकर्षित करने के लिए ऐसे क्षेत्रों में सामाजिक दशाओं के सुधार की नीति सरकार द्वारा अपनाई जानी चाहिए; जैसे—शिक्षा, चिकित्सा, स्वास्थ्य। तकनीकी शिक्षा, विभिन्न उद्योगों के लिए प्रशिक्षण की व्यवस्था आदि। यह दायित्व यदि सरकार सम्भाल लेती है तो उद्योगपतियों को उद्योगों की स्थापना करते समय इस प्रकार के व्यय नहीं करने पड़ते हैं।

(4) अन्य उपाय (Other Measures)-इन उपायों में प्रशासनिक एवं मनोवैज्ञानिक उपाय सम्मिलित किए जाते हैं। ऐसे क्षेत्रों में सरकार उद्योग विभागों के कार्यालय खोलकर उन्हें औद्योगिक परामर्श एवं मार्गदर्शन का भार सौंप सकती है। मनोवैज्ञानिक उपायों में सरकार उद्योगपतियों से विचार-विमर्श करके उन्हें ऐसे क्षेत्रों में कारखाने खोलने के लिए प्रेरित कर सकती है। अन्य उपायों में स्थानीय उद्यमियों के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रमों (Entrepreneurial Training Programme) को भी शामिल किया जा सकता है।

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सन्तुलित विकास के लिए किए गए उपाय

(Measures Adopted for Balanced Development)

सन्तुलित क्षेत्रीय विकास के लिए मुख्यतः भारत सरकार, राज्य सरकार तथा वित्तीय निगमों एवं संस्थाओं द्वारा विभिन्न उपाय किए गए हैं, जो निम्न हैं

1 भारत सरकार द्वारा (By Government of India)

(1) अनुज्ञा-पत्र प्रणाली (Licensing System);

(2) औद्योगिक बस्तियाँ (Industrial Estates);

(3) सार्वजनिक उपक्रमों का स्थान निर्धारण (Location of Public Enterprises);

(4) आयकर में रियायत (Rebate in Income Tax);

(5) आयात सुविधाएँ (Import Facilities);

(6) परिवहन उपदान योजना (Transport Subsidy Scheme)।

2. राज्य सरकारों के द्वारा (By State Governments)

(1) तकनीकी परामर्श एवं परियोजना प्रतिवेदन (Technical Consultancy and Project Report);

(2) राष्ट्रीयकृत बैंकों द्वारा शाखा विस्तार (Branch Expansion by Nationalised Banks);

(3) भूमि एवं भवनों की रियायती सुविधाएँ (Concessional Facilities for Land and Building);

(4) भाड़ा क्रय पद्धति पर मशीनों की पूर्ति (Supply of Machinery on Hire-Purchase System);

(5) विक्रय कर में छूट (Rebate in Sales Tax);

(6) विद्युत उपदान (Electricity Subsidy);

(7) अन्य सुविधाएँ (Other Facilities)।

III. वित्तीय निगमों एवं संस्थाओं द्वारा (By Financial Corporation and Institutions)

1 सस्ती दर पर ऋण सुविधाएं (Loan Facilities at Cheap Rates)

2. भारत सरकार द्वारा (By Government of India)

(1) अनुज्ञापत्र प्रणाली (Licensing System)—यह प्रणाली उद्योग (विकास एवं नियमन) अधिनियम, 1951 के अन्तर्गत प्रारम्भ की गई, जिसके अनुसार अधिनियम की प्रथम अनुसूची में वर्णित उद्योगों की स्थापना के लिए लाइसेन्स अथवा अनजा लेना अनिवार्य कर दिया गया। अन्य उद्देश्य पिछड़े क्षेत्रों में उद्योगों की स्थापना करने के लिए उदारतापूर्वक लाइसेन्स देकर क्षेत्रीय सन्तलित विकास को बढ़ावा देना है। आद्योगिक लाइसीन्सग प्रणाला के व्यावहारिक पक्ष में अनेक कमियों को देखते हए। जलाई. 1991 में घोषित उद्योगों की स्थापना के लिए लाइसेन्स लेने की अनिवार्यता को समाप्त कर दिया गया।

 (2) औद्योगिक बस्तियाँ (Industrial Estates) भारत सरकार द्वारा देश के सभी राज्यों, विशेषत: पिछड़े हए राज्या में औद्योगिक बस्तियों की स्थापना की गई है, जिनमें भूमि, भवन एवं उद्योगों की स्थापना के लिए आवश्यक अन्य सुविधाएँ रियायती शों एवं दरों पर उद्यमियों को प्रदान की जाती हैं। इसके अतिरिक्त सहायक उद्योगों (Ancilary Industries) को प्रोत्साहन । देना भी इनके उद्देश्यों में सम्मिलित है।

(3) सार्वजनिक उपक्रमों का स्थान निर्धारण (Location of Public Enterprise) केन्द्रीय सरकार द्वारा सार्वजनिक क्षेत्र की अनेक विशाल औद्योगिक परियोजनाओं की स्थापना पिछड़े हए क्षेत्रों में की गई है। ऐसे कारखानों की स्थापना उड़ीसा, मध्य प्रदेश, आन्ध्र प्रदेश एवं उत्तर प्रदेश के पिछड़े जिलों में होने से उनके विकास को प्रोत्साहन मिला है तथा इस कारण उन क्षेत्रों में अनेक प्रकार के सहायक उद्योगों का विकास इन परियोजनाओं के समीप हो गया है।

(4) आयकर में रियायत (Rebate in Income-tax) यह सुविधा मार्च 1973 के बाद पिछड़े हुए क्षेत्रों में स्थापित की गई औद्योगिक इकाइयों को प्रदान की गई है। ऐसी इकाइयों को जो लाभ होगा उसका 20 प्रतिशत भाग आयकर से मुक्त होगा। यह सुविधा प्रारम्भ में दस वर्षों के लिए दी गई थी, जिसे बाद में बढ़ा दिया गया। यही नहीं पिछड़े हुए क्षेत्रों में स्थापित की जाने वाली औद्योगिक कम्पनियों के अंशों (Shares) में पूँजी विनियोग करने वाले व्यक्तियों को भी प्रारम्भिक कुछ वर्षों तक आयकर में छूट प्राप्त है।

5) आयात सुविधाएँ (Import Facilities) देश के विशेष रूप से पिछड़े हुए जिलों में स्थापित की जाने वाली औद्योगिक इकाइयों के लिए आवश्यक कच्चा माल, संयन्त्रों एवं कलपुर्जी के आयात के लिए प्राथमिकता के आधार पर आयात लाइसेन्स तथा विदेशी विनिमय की सुविधा दिए जाने की व्यवस्था है।

(6) परिवहन उपदान योजना (Transport Subsidy Scheme) उत्तर एवं उत्तर-पूर्वी अंचलों के दूरस्थ तथा पहाड़ी क्षेत्रों में यातायात की कठिनाइयों को ध्यान में रखते हुए उन क्षेत्रों में स्थापित की जाने वाली औद्योगिक इकाइयों के लिए सन् 1971 से यह योजना प्रारम्भ की गई। इसका उद्देश्य उच्च परिवहन लागतों की आंशिक प्रतिपूर्ति करना है।

Balanced Role Economic Development

1 राज्य सरकारों द्वारा (By State Governments)

केन्द्रीय सरकार द्वारा दी जाने वाली उपर्युक्त सुविधाओं के अतिरिक्त राज्य सरकारों द्वारा भी अपने पिछड़े हुए क्षेत्रों के लिए कई प्रकार के उपाय किए गए हैं, जो निम्नलिखित हैं

(1) तकनीकी परामर्श एवं परियोजना प्रतिवेदन (Technical Consultancy & Project Report)-नए उद्यमियों एवं साहसियों को तकनीकी परामर्श प्रदान करने के लिए औद्योगिक विकास बैंक (IDBI) द्वारा तकनीकी परामर्श संगठनों की स्थापना की गई है। ये संगठन कानपुर, हैदराबाद, पटना, जम्मू, गुवाहाटी तथा कोच्चिन में हैं, जो पिछड़े हुए क्षेत्रों में प्रस्तावित औद्योगिक परियोजनाओं के विषय में आवश्यक तकनीकी परामर्श प्रदान करते हैं तथा उनमें परियोजना एवं सम्भावना प्रतिवेदनों (Project & Feasibility Report) को तैयार करने में सक्रिय सहयोग देते हैं।

(2) राष्ट्रीयकृत बैंकों द्वारा शाखा विस्तार (Branch Expansion by Nationalised Banks) पिछले एक दशक में राष्ट्रीयकृत बैंकों द्वारा अपने शाखा विस्तार कार्यक्रम के अन्तर्गत नए कार्यालयों की स्थापना से पिछड़े जिलों/क्षेत्रों को प्राथमिकता प्रदान की गई है। अत: अब पिछड़े क्षेत्रों में बैंक सेवाएँ उपलब्ध हैं तथा कार्यशील पूँजी के लिए अल्पकालीन ऋण सुगमतापूर्वक प्राप्त हो जाते हैं।

(3) भूमि एवं भवनों की रियायती सुविधाएँ (Concessional Facilities for Land & Building) अनेक राज्यों द्वारा पिछड़े क्षेत्रों में औद्योगिक कारखानों की स्थापना के लिए अत्यन्त रियायती शर्तों पर लम्बी अवधि के पट्टों पर भूखण्ड दिए गए हैं। कई राज्यों में भूखण्ड के मूल्य का 25 से 50 प्रतिशत तक अनुदान के रूप में दिया जाता है तथा शेष राशि को किस्तों में लिए जाने की व्यवस्था है। इस प्रकार औद्योगिक बस्तियों अथवा क्षेत्रों में निर्मित भवन निर्माण के लिए आंशिक अनदान दिए जाने की व्यवस्था है।

(4) भाडां कय पद्धति पर मशीनों की पूर्ति (Supply of Machinery on Hire-Purchase System यह सुविधा राष्ट्रीय लघु उद्योग निगम (NSIC) प्रदान करता है तथा पिछड़े जिलों/क्षेत्रों की लघु औद्योगिक इकाइयों के लिए विशेष शर्तों पर मशीनों की व्यवस्था करता है, इसकी स्थापना 1955 में की गई।

(5) विक्रयकर में छुट (Rebate in Sales-tax)-प्राय: सभी राज्य सरकारों द्वारा पिळदे हा गों जाने वाले औद्योगिक कारखानों को विक्रय-कर से छूट अथवा रियायतें दी गई हैं। उदाहरण के लिए कर-कर से छूट अथवा रियायतें दी गई हैं। उदाहरण के लिए, राजस्थान में पाँच वर्षों तक ऐसी इकाइयों को विक्रय-कर में छूट प्राप्त है।

(6) विद्युत उपदान (Power Subsidy) अनेक राज्य सरकारों द्वारा उद्यमियों को विद्युत मूल्य में रियायत दिए जाने की व्यवस्था की गई है।

(7) अन्य सुविधाएँ (Other Facilities)-इसके अतिरिक्त राज्य सरकारें अपने उद्योग विभागों तथा जिला उद्योग केन्द्रों (DICs) के माध्यम से पिछड़े हए क्षेत्रों के लिए अनेक अन्य सुविधाएँ भी प्रदान करती हैं जैसे परियोजना प्रतिवेदनों (Project Report) को तैयार करने में सहायता एवं मार्गदर्शन, राज्य वित्तीय निगमों से सस्ती दरों पर ऋण सुविधाएँ, राज्य विनियोग एवं विकास निगमों (SIDC) के माध्यम से ऐसी परियोजनाओं की अंश पूँजी में भागीदारी करके संयुक्त क्षेत्र में उपक्रमों की स्थापना को प्रोत्साहन, राज्य के सार्वजनिक उपक्रमों की पिछड़े जिले/क्षेत्रों में स्थापना आदि इसके अतिरिक्त तकनीकी, प्रबन्धकीय एवं विपणन सम्बन्धी परामर्श की राज्य सरकार पिछड़े क्षेत्रों के उद्योगों को प्रदान कर रही है।

III वित्तीय नियमों एवं संस्थाओं द्धारा (By Financial Corporations & Institutions)

केन्द्रीय एवं राज्य सरकारों द्वारा किए गए उपायों के अतिरिक्त वित्तीय निगमों एवं संस्थाओं द्वारा भी सन्तुलित क्षेत्रीय विकास की दिशा में अनेक कदम उठाए गए हैं, जो निम्नलिखित हैं

(1) सस्ती दर पर ऋण सुविधाएँ (Loan Facilities at Cheap Rate)-अखिल भारतीय स्तर के सभी वित्तीय निगम (IDBI, IFCI, ICICI, IRBI) पिछड़े हुए क्षेत्रों/जिलों में स्थापित औद्योगिक इकाइयों को रियायती शर्तों एवं सस्ती ब्याज दरों पर ऋण सुविधाएँ प्रदान कर रहे हैं। ऐसे आवेदनों पर प्राथमिकता के आधार पर कम समय में स्वीकृति प्रदान की जाती है। पिछड़े हुए क्षेत्रों में सामान्यत: ब्याज की दरें 1.5 से 2 प्रतिशत कम रखी जाती हैं तथा लघु उद्योगों एवं अनुसूचित जाति या जनजातियों द्वारा प्रारम्भ किए गए उद्योगों की दशा में ये दरें और भी कम होती हैं। ऋणों की अदायगी की अवधि भी अपेक्षाकृत लम्बी रखी जाती है। एक बड़े राष्ट्र में उद्योगों के क्षेत्रीय सन्तुलन का महत्त्व और अधिक होता है, क्योंकि ऐसे देशों में आर्थिक विकास प्रारम्भ होने के बाद लम्बे काल तक विभिन्न क्षेत्रों में विकास’ एवं ‘अल्पविकास’ का सहअस्तित्व बना रहता है। इसलिए यह आवश्यक होता है कि राष्ट्रीय योजना के साथ-साथ प्रत्येक क्षेत्र के लिए योजना का निर्माण भी किया जाए और दोनों योजनाओं का क्रियान्वयन साथ-साथ किया जाए। भारत में नियोजन के प्रारम्भ से राष्ट्रीय योजनाओं के साथ एक अंग के रूप में राज्यों की योजनाएँ भी बनाई जाती हैं। यही नहीं, एक राज्य के विभिन्न जिलों की पृथक् योजनाओं को मिलाकर राज्य की योजना का निर्माण होता है। यहाँ प्रश्न उत्पन्न होना स्वाभाविक है कि उद्योगों के क्षेत्रीय या प्रादेशिक वितरण के उद्देश्य क्या होने चाहिए? इस सम्बन्ध में प्रोफेसर आर.बालकृष्ण के विचार उल्लेखनीय हैं जिनके अनुसार, “प्रादेशिक विकास का उद्देश्य क्षेत्रों द्वारा अपने-अपने लक्ष्यों तक महत्वाकांक्षा की पूर्ति के उद्देश्य परस्पर विरोधी दावों के समायोजन के स्थान पर उपलब्ध साधनों के उपयोग में अधिकतम कुशलता प्राप्त करना होना चाहिए।”

Balanced Role Economic Development

सन्तुलित विकास और उद्यमी

(Balanced Development and Entrepreneur)

उद्योगों के सन्तुलित विकास में उद्यमी की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। औद्योगिक दृष्टि से विकसित क्षेत्रों में कटु प्रतियोगिता, श्रम समस्याओं, सामाजिक समस्याओं, बाजार की सीमितता आदि विभिन्न समस्याओं के कारण उद्यमी पिछड़े क्षेत्रों में भारी जोखिम उठाकर लघु उद्योगों की स्थापना करते हैं। इन क्षेत्रों में जहाँ एक ओर सरलता से पर्याप्त मात्रा में सस्ता श्रम उपलब्ध होता है, प्रतियोगिता का अभाव होता है, सरकार का भरपूर सहयोग मिलता है, व्यापक उपभोक्ता बाजार होता है, भूमि तथा अन्य प्राकृतिक संसाधनों की कमी नहीं होती है, वहीं दूसरी ओर, उद्यमी को अपनी कुशलता, चातुर्य, क्षमता, नवाचार, दूरदर्शिता, आत्मविश्वास, महत्त्वाकांक्षा, नेतृत्व क्षमता, उत्तरदायित्व ग्रहण करने की क्षमता, प्रबन्धन की योग्यता जैसे गुणों का उपयोग एवं उन्हें विकसित । करने का एक उपयुक्त स्थान मिलता है। इससे औद्योगिक क्षेत्रीय सन्तुलन की स्थापना करने में सहायता मिलती है। बड़े उद्योगों। की तुलना में लघु उद्योग औद्योगिक क्षेत्रीय सन्तुलन की स्थापना में अधिक लाभदायक सिद्ध होते हैं।

Balanced Role Economic Development

उपयोगी प्रश्न  (Useful Questions)

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न (Long Answer Type Questions)

1. आर्थिक विकास से आपका का तात्पर्य है ? इसकी कौन-कौन सी विशेषताएँ हैं?

What do you mean by Economic Development? What are its characteristics?

2. आर्थिक विकास क्या है ? आर्थिक वृद्धि एवं आर्थिक विकास में अन्तर कीजिए।

What is Economic Development ? Distinguish between economic growth and economic development.

3. आर्थिक विकास की प्रक्रिया अथवा अवस्थाएँ क्या हैं ? वर्णन करें।

What are the process or stages of economic development ? Discuss.

4. उद्यमी क्या है ? उद्योगों के सन्तुलित क्षेत्रीय विकास में उद्यमी की भूमिका की चर्चा कीजिए।

What is Entrepreneur ? State the role of entrepreneur in the balanced regional development of industries.

5. निम्न पर टिप्पणी लिखें

Write notes on

() आर्थिक विकास की अवस्थाओं के संदर्भ में भारत की स्थिति

India’s position in relation to the stages of economic development,

() सन्तुलित विकास की विचारधारा

Concept of balanced growth.

6. आर्थिक विकास को प्रभावित करने वाले घटक कौन-कौन से हैं ? वर्णन करें।

What are the factors influencing economic development ? Discuss.

7. आर्थिक विकास की रणनीति अथवा सन्तुलित अथवा असन्तुलित विकास पर एक लेख लिखें।

Write a note on strategy of economic development or balanced or unbalanced growth.

8. सन्तुलित क्षेत्रीय विकास से आप क्या समझते हैं ? सन्तुलित विकास किस तरह सम्भव है ?

What do you mean by Regional Balanced Development? How can balanced growth be realized

9. सन्तुलित क्षेत्रीय विकास में राज्य की भूमिका एवं उपाय पर लेख लिखें।

Write a note on measures for balanced regional development and the role of the state.

10. संयुक्त विकास के लिए किए गये उपायों का वर्णन कीजिए।

Discuss measures adopted for balanced development.

11. निम्न पर टिप्पणी लिखें

Write notes on

() सन्तुलित विकास और उद्यमी

Balanced development and Entrepreneur

() सन्तुलित विकास की सम्भावनाएँ

Possibilities of balanced growth.

Balanced Role Economic Development

लघु उत्तरीय प्रश्न (Short Answer Type Questions)

1. आर्थिक विकास की क्या विशेषताएँ हैं?

What are the characteristics of economic development?

2. आर्थिक वृद्धि एवं आर्थिक विकास में क्या अन्तर है ?

What is the difference between economic growth and economic, development?

3. आर्थिक विकास की रणनीति पद एक संक्षिप्त लेख लिखें।

Write a brief note on strategy of economic development ?

4. सन्तुलित विकास और उद्यमी विषय पर एक संक्षिप्त लेख लिखें।

Write a brief note on balanced development and entrepreneur

Balanced Role Economic Development

III अति लघु उत्तरीय प्रश्न (Very Short Answer Type Questions)

1 सन्तुलित विकास किस प्रकार सम्भव है ?

How can balanced growth be realized?

2. आर्थिक विकास से आपका क्या अर्थ है ?

What do you mean by economic development?

3. भारत सरकार द्वारा सन्तुलित विकास के लिए किए गये कोई दो उपायों को बताइए।

State any two measures adopted by Govt. of India for balanced development.

4. राज्य सरकारों द्वारा सन्तुलित विकास के लिये किये गये कोई दो उपायों को बताइए?

State any two measures adopted by State Governments for balanced development.

Balanced Role Economic Development

वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

 सही उत्तर चुनिये (Select the Correct Answer)

(i) उद्यमी लाने में सहायक है

(अ) सन्तुलित औद्योगिक विकास

(ब) असन्तुलित औद्योगिक विकास

(स) बिखरा हुआ औद्योगिक विकास

(द) इनमें से कोई नहीं।

Entrepreneurs are helpful in bringing about

(b) Unbalanced industrial development

(a) Balanced industrial development

(c) Scattered industrial development

(d) None of these.

(ii) उद्यमी महत्त्वपूर्ण योगदान देता है

(अ) आर्थिक विकास में

(ब) राजनैतिक विकास में

(स) सामाजिक विकास में

(द) इनमें से कोई नहीं। Entrepreneur plays an important role

(a) In economic development

(b) In political development

(c) In social development

(d) None of these.

(iii) भारत में विदेशी उद्यमियों की भूमिका है

(अ) नकारात्मक

(ब) सकारात्मक

(स) विनाशकारी .

(द) इनमें से कोई नहीं।

Role of foreign entrepreneurs in India is

(a) Negative

(b) Positive

(c) Destructive

(d) None of these.

(iv) भारत के आर्थिक विकास में सहायक हैं

(अ) भारत के उद्यमी

(ब) विदेशी उद्यमी

(स) भारतीय तथा विदेशी उद्यमी दोनों

(द) इनमें से कोई नहीं।

In India’s economic development are helpful

(a) Indian entrepreneur

(b) Foreign entrepreneur

(c) Indian and foreign entrepreneur both

(d) None of these.

[उत्तर-(i) (अ), (ii) (अ), (iii) (ब), (iv). (ब)]

Balanced Role Economic Development

2. इंगित करें कि निम्नलिखित कथन ‘सही’ हैं या ‘गलत’

(Indicate Whether the Following Statement are the  “True’ or ‘False’)

(i) उद्यमी रोजगार अवसरो का सृजन करता है।

Entrepreneur creates employment opportunities.

(ii) उद्यमी आविष्कारक है तथा नवाचारक नहीं है।

Entrepreneur is an inventor and not innovator.

(iii) उद्यमी आर्थिक विकास की कुंजी है।

An entrepreneur is a key to economic growth.

(iv) उद्यमी का उद्योगों के सन्तुलित क्षेत्रीय विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान है।

There is a key role of entrepreneurs in the balanced regional development of industries.

(v) उद्यमी आयात प्रतिस्थापन में सहायता करता है।

Entreprenur helps in import substitution.

(vi) उद्यमी आयातों में वृद्धि करता है।

Enterpreneur increases imports.

[उत्तर-(i) सही, (ii) गलत, (iii) सही, (iv) सही, (v) सही, (vi) गलत]

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chetansati

Admin

https://gurujionlinestudy.com

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