BCom 1st Year Statistics Editing Collected Data Study Material Notes in Hindi

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BCom 1st Year Statistics Editing Collected Data Study Material Notes in Hindi

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BCom 1st Year Statistics Editing Collected Data Study Material Notes in Hindi: Process of Editing Standard of Accuracy Approximated methods of Approximations Statistical Error Sources of Error Editing of Secondary Data Short Answer Questions Very Short Answer Questions Choose Correct Alternative Questions This Chapter Wise Notes in very Important For BCom 1st Year Students :

Editing Collected Data
Editing Collected Data

BCom 3rd Year Financial Management Theories of Capital Structure Study Material Notes In Hindi

संकलित समंकों का सम्पादन

(Editing of Collected Data)

प्राथमिक एवं द्वितीयक समंकों का संकलन व सोपयोग में प्रायः अनेक त्रटिया, अपूर्णताए एव अनियमितताएँ उत्पन्न हो जाती हैं जो अधिकतर प्रगणकों तथा सूचकों की लापरवाहा एव पवार कारण ही उत्पन्न होती हैं। ऐसी दशा में अनसंधानकर्ता को चाहिये कि सांख्यिकीय सामग्री का पूर्ण विश्लेषण व विवेचन करने से पहले त्रुटियों की जाँच और उनमें सधार अवश्य कर ले ताकि समंक दोषपूर्ण न रहें और निष्कर्ष शुद्ध व विश्वसनीय प्राप्त हो सकें। इस प्रकार संकलित सांख्यिकीय सामग्री में पाई गई अशुद्धियों को विधिवत् जाँच और उनमें संशोधन करने की प्रक्रिया को समंकों का सम्पादन कहते हैं।

समक सम्पादन का अर्थ (Meaning of Editing of Data- समंक सम्पादन से आशय एसा क्रियामा से है जिसमें समंक सामग्री की विधिवत् जाँच की जाती है तथा उनमें आवश्यक सुधार करके त्रुटियो, अनियमितताओं और अपूर्णताओं को दूर किया जाता है। इस प्रकार समंक सम्पादन सांख्यिकीय सामग्री का शद्धिकरण की प्रक्रिया है। इस सम्बन्ध में या-लन-चाऊ का कहना है-“अनुसूचियों’ का सम्पादन करने में, अनुसन्धानकर्ता सूचकों द्वारा दी गई जानकारी में भूलों तथा गणना की त्रुटियों का पता लगाने का प्रयास करता है। तथा उत्तरों की अनियमितताओं तथा एकरूपता के अभाव को खोजता है।”

अनुसन्धान की शुद्धता के लिये संकलित सामग्री का सम्पादन करना बहुत आवश्यक है जिसके लिये उच्च-स्तर की योग्यता,सम्पादन तकनीकि का ज्ञान एवं अनुभव की आवश्यकता होती है । क्रम, पैटर्न व टैक्ट के अनुसार, “सम्पादन की क्रिया किसी भी रूप में, एक महत्वहीन और नैत्यक क्रिया नहीं है । वस्तुतः इस क्रिया के लिए विशिष्ट योग्यता,सतर्कता,सावधानी और वैज्ञानिक निष्पक्षता के दृढ़ पालन की आवश्यकता होती है।”

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प्राथमिक समंकों का सम्पादन (Editing of Primary Data)-प्राथमिक या मौलिक सांख्यिकीय समंकों का संकलन अधिकतर अनुसूचियों,प्रश्नावलियों के आधार पर किया जाता है। अनुसूचियाँ या प्रश्नावलियाँ चाहे सूचकों द्वारा भरी जायें अथवा प्रगणकों द्वारा, दोनों में अशुद्धियों, भूलों और अनियमितताओं के हो जाने की सम्भावना बनी रहती है । सूचकों की लापरवाही,भ्रम या उदासीनता के कारण अनेक प्रश्नों के उत्तर अस्पष्ट अपूर्ण और भ्रमात्मक होते हैं। कभी-कभी कुछ प्रश्नों का अर्थ भी गलत लगाया जाता है । प्रगणकों की असावधानी और पक्षपात के कारण भी उत्तर पक्षपातपूर्ण हो सकते हैं । इसलिए अनुसन्धानकर्ता को बड़ी सावधानी से अनसचियों या प्रश्नावलियों की जाँच करनी चाहिये। यदि प्रश्नोत्तरों में छोटी-मोटी गलतियाँ हैं तो उनका सधार अनुसन्धानकर्ता को कर लेना चाहिये या उनमें सुधार के लिये सूचकों के पास दुबारा भेज देना चाहिये। कभी-कभी संकलित प्राथमिक समंकों में इतने अधिक दोष आ जाते हैं कि उनका विस्तृत विश्लेषण करना असम्भव हो जाता है तो ऐसी स्थिति में त्रुटिपूर्ण अनुसूचियों को अस्वीकृत करके नये सिरे से प्राथमिक अनुसन्धान करना चाहिये।

सम्पादन की प्रक्रिया

(Process of Editing)

संकलित समंकों के सम्पादन में निम्न प्रक्रियायें सम्पन्न की जाती हैं

क्रमबद्धता (Systematisation)- अनुसंधानकर्ता के पास जो सूचनाएँ प्राप्त होती हैं वे भिन्न-भिन्न स्थानों से प्राप्त होती हैं तथा अव्यवस्थित होती है, अतः उसका सबसे पहला कार्य इस सामग्री को व्यवस्थित एवं क्रमबद्ध रूप में लाना होता है।

संगति (Consistency)- एक अच्छी प्रश्नावली या अनुसूची की यह विशेषता होती है कि उसमें कुछ प्रश्न ऐसे होते हैं जिनसे उत्तरों की सत्यता की जाँच हो जाती है। यदि प्रश्नावलियों में असंगत उत्तर हों तो अनुसंधानकर्ता उन्हें ठीक कराता है क्योंकि असंगत समंकों से भ्रामक एवं गलत निष्कर्ष निकाले जाने की। सम्भावना बनी रहती है इस प्रकार सम्पादन में संगति के गुण की जाँच की जाती है।

एकरूपता (Homogeneity)- सांख्यिकीय समंकों में सजातीयता या एकरूपता लाने के लिए। अनुसंधानकर्ता इस बात की जाँच करता है कि संकलित सामग्री की इकाइयाँ भिन्न-भिन्न न हों। यदि सामग्री में एकरूपता का अभाव है तो परिणाम गलत एवं भ्रामक होंगे। अतः सही परिणाम ज्ञात करने के लिए संकलित सामग्री में एकरूपता स्थापित करना सम्पादन का प्रमुख उद्देश्य है।

पूर्णता (Completeness)- सम्पादन करते समय यह भी देख लेना चाहिए कि प्रश्नावली या अनुसूची के सभी प्रश्नों के उत्तर प्राप्त कर लिए गये हैं। यदि कुछ महत्वपूर्ण प्रश्नों के उत्तर नहीं प्राप्त हुए हैं तो उन्हें प्राप्त करना आवश्यक होता है । प्रगणक या सूचक कुछ प्रश्नों के उत्तर लापरवाही या न समझ पाने के कारण नहीं दे पाते हैं। अपूर्ण प्रश्नावली को कभी भी स्वीकार नहीं करना चाहिए। इसके बाद संख्याओं का जोड़ लगाना चाहिए।

परिशुद्धता (Accuracy)- एकत्रित सामग्री की परिशुद्धता की जाँच सम्पादन का सबसे कठिन कार्य है। पूर्ण परिशुद्धता (Perfect Accuracy) व्यावहारिक विज्ञान की किसी भी शाखा में नहीं पायी जाती है, अत: समंकों के सम्पादन में परिशुद्धता का स्तर,उपसादन या सन्निकटीकरण तथा सांख्यिकीय विभ्रमों के विश्लेषणों का समावेश होता है।

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परिशुद्धता का स्तर

(Standard of Accuracy)

सांख्यिकी में पूर्ण शुद्धता प्राप्त करना सम्भव नहीं है, क्योंकि सांख्यिकी अनुमानों तथा सम्भावनाओं पर आधारित विज्ञान है । वास्तव में पूर्ण शुद्धता व्यावहारिक विज्ञानों में ही नहीं बल्कि उन विज्ञानों में भी संभव नहीं है जहाँ प्रयोग किये जाते हैं; जैसे भौतिक विज्ञान (Physics) तथा · वज्ञान (Chemistry) । यह बात ठीक है कि इन प्रयोगात्मक विज्ञानों में बहुत अधिक शुद्धता सम्भव है जबकि सांख्यिकी जैसे सामाजिक विज्ञान में शुद्धता का अंश इनकी अपेक्षा कम होता है क्योंकि सांख्यिकी में अशुद्धियों के कई कारण एवं स्रोत होते हैं जो अनुसंधानकर्ता के नियंत्रण से बाहर होते हैं।

बॉडिंगटन के अनुसार-“सामान्य सत्य यह है कि गणित या लेखाकर्म के अर्थ में शत-प्रतिशत शुद्धता सांख्यिकीय अनुसंधान में सम्भव नहीं होती है।”

किंग के शब्दों में-“अधिकतम सम्भव शुद्धता प्राप्त करने के प्रयास प्रायःसमय का अपव्यय मात्र होते हैं।” इस प्रकार हम यह कह सकते हैं कि सांख्यिकी में गणितीय परिशुद्धता की कल्पना करना न तो सम्भव है तथा न आवश्यक ही है। सांख्यिकीय विज्ञान में कभी भी पूर्ण शुद्धता से तथ्यों का माप नहीं किया जाता है, केवल यथोचित शुद्धता (Reasonable Accuracy) या सापेक्षिक शुद्धता (Relative Accuracy) ही अपेक्षित है।

परिशुद्धता का स्तर अनुसंधान की प्रकृति एवं उद्देश्य पर निर्भर करता है । जैसे-व्यक्तियों की ऊंचाई मापने में सेन्टीमीटर के अंशों को भी छोड़ा नहीं जाता, जबकि दो नगरों के बीच की दूरी ज्ञात करने में किलोमीटर के भागों तक को छोड़ा जा सकता है । इसी प्रकार किसी कॉलेज के विद्यार्थियों की संख्या में एक भी विद्यार्थी को नहीं छोडा जाता जबकि किसी देश या प्रान्त के विभिन्न कॉलेज के विद्यार्थियों की गणना करते समय 10 या 20 विद्यार्थियों को आसानी से छोड़ा जा सकता है। सोना (Gold) का भार ग्राम के छोटे अंश तक किया जाता है। जबकि लोहा या कोयले का भार करते समय इतनी परिशुद्धता नहीं अपनायी जाती है। इसी सन्दर्भ में डा० बाउले का कहना है कि “जिस प्रकार पूर्णतया सीधी रेखा का अस्तित्व नहीं है उसी प्रकार पूर्ण परिशुद्धता का भी अस्तित्व नहीं है। अत: अनुसंधानकर्ता को केवल यथोचित या सापेक्षिक शुद्धता का निर्दिष्ट स्तर पहले से ही तय कर लेना चाहिए।”

उपसादन या सन्निकटीकरण

(Approximation)

साख्यिंकि का यह तथ्य स्वीकार करना पड़ता है कि पर्ण शद्धता तो सम्भव नहीं है परन्त यथाचित शुद्धता का उपेक्षा न की जाये । इस दृष्टि से तथ्यों को उपसादित या सन्निकट संख्या में प्रदर्शित किया जाता है । साख्यिका सामग्री के संकलन में प्रायः बहुत बड़ी-बड़ी संख्यायें प्राप्त होती हैं जिन्हें समझना व याद रखना कठिन है, इसलिए इन्हें संक्षिप्त कर लिया जाता है। बडी-बडी जटिल संख्याओं के स्थान पर निकटवर्ती पूर्णांक संख्यायें लिखकर उन्हें संक्षिप्त एवं सरल बना लिया जाता है। जब भी किसी संख्या का उपसादन करना हो तो सबसे पहले इकाई का उपसादन करना चाहिए,फिर दहाई का उसके बाद सैंकडे का और इसी क्रम में आगे बढ़ना चाहिए। दशमलव का संख्याओं में अन्तिम भाग को सन्निकट बनाने के बाद उसी क्रम में धीरे-धीरे बढ़ना चाहिए।

उपसादन के लाभउपसादन से निम्न लाभ हैं

(1) उपसादन से जटिल तथा बड़ी संख्यायें सरल तथा बुद्धिगम्य बन जाती हैं; जैसे 3,98,990 को याद टल है, परन्तु इसे यदि 4 लाख मान लिया जाये तो इसे व्यवहार में लाना तथा याद रखना सरल है ।

(2) उपसादन से अंकगणितीय क्रियायें; जैसे-जोड़,घटा, गुणा, भाग तथा वर्गमूल आदि सरल हो जाती हैं।

(3) उपसादन संख्याओं को तुलनात्मक रूप प्रदान करता है; जैसे 1971 की जनगणना से भारत की। जनसंख्या 54,81,59,652 थी जिसे उपसादन द्वारा 54.8 करोड़ या 55 कह सकते हैं और इसकी तुलना पूर्ववती । जनगणना से की जा सकती है।

उपसादन की विधियां

(Methods of Approximation)

उपसादन करने से पहले उसकी सीमा निर्धारित कर लेनी चाहिए। उपसादन की सीमा अनुसंधान के उद्देश्य एवं प्रकृति पर निर्भर करती है । उपसादन करने से परिशुद्धता पर कोई बुरा प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए तथा संख्या के मूलरूप में भी परिवर्तन नहीं होना चाहिए उपसादन की निम्न विधियाँ हैं।

(1) कुछ अंकों को छोड़कर (By Discarding Some Figures)

(2) कुछ अंकों को जोड़कर (By Adding Some Figures)

(3) निकटतम पूर्णांक तक (To the Nearest Round Figures)

1 कुछ अंकों को छोड़कर (By Discarding Some Figures) इस विधि के अनुसार संख्या के निर्धारित मान तक अंकों को रखकर शेष सभी अंक छोड़ दिये जाते हैं; जैसे माना संख्या 54,81,59,652.37 को उपसादित करना है तो उपसादन निम्न प्रकार होगा:

एक दशमलव तक उपसादित मूल्य           =54,81,59,652.3

इकाई तक उपसादित मूल्य                 =54,81,59,652

दहाई तक उपसादित मूल्य                 =54,81,59,650

सैकड़ा तक उपसादित मूल्य                 =54,81,59,600

हजार तक उपसादित मूल्य                 =54,81,59,000

दस हजार तक उपसादित मूल्य               =54,81,50,000

लाख तक उपसादित मूल्य                  =54,81,00,000

दस लाख तक उपसादित मूल्य               =54,80,00,000

करोड तक उपसादित मूल्य                 =54,00,00,000

इस विधि में जितनी छोटी संख्या का उपसादन किया जाएगा, अशुद्धि उतनी कम होगी। जितनी बड़ी संख्या का उपसादन किया जाएगा,अशुद्धि उतनी ही अधिक होगी।

2. कुछ अंकों को जोड़कर (By Adding Some Figures)-इस विधि के अनुसार उपसादन का जान। वाली संख्या से अगली पूर्णांक संख्या को लिया जाता है अर्थात उपसादन की जाने वाली संख्या के बाद में आने । वाली पूर्ण संख्या में एक जोड़ दिया जाता है; जैसे-माना संख्या 54.81.59.652.37 को उपसादित करना है

एक दशमलव तक उपसादित मूल्य                  = 54,81,59,652.

इकाई तक उपसादित मूल्य                        = 54,81,59,653

दहाई तक उपसादित मूल्य                        =54,81,59,660

सैकड़ा तक उपसादित मूल्य                        = 54,81,59,700

हजार तक उपसादित मूल्य                         = 54,81,60,000

दस हजार तक उपसादित मूल्य                     = 54,81,60,000

लाख तक उपसादित मूल्य                         = 54,82,00,000

दस लाख तक उपसादित मूल्य                     = 54,90,00,000

करोड़ तक उपसादित मल्य                        = 55,00,00,000

इस प्रकार उपसादन की संख्या वास्तविक संख्या से सदैव बड़ी होती है । इस विधि में जितनी छोटी संख्या होगी,उतनी ही अधिक अशुद्धि होगी।

3. निकटतम पूर्णांक तक (To the Nearest Round Figures)-इस विधि के अनुसार बाद की संख्या यदि 5 से कम है तो उसे छोड़ दिया जाता है तथा यदि 5 एवं 5 से अधिक है तो अन्तिम अंक में एक बढ़ा दिया जाता है । जैसे माना संख्या 54,81,59,652.37 का उपसादन करना है

एक दशमलव तक उपसादित मूल्य                 = 54,81,59,652.

इकाई तक उपसादित मूल्य                       = 54,81,59,652

दहाई तक उपसादित मूल्य                       = 54,81,59,650

सैकड़ा तक उपसादित मूल्य                      = 54,81,59,700

हजार तक उपसादित मूल्य                       = 54,81,60,000

दस हजार तक उपसादित मूल्य                    = 54,81,60,000

लाख तक उपसादित मूल्य                        = 54,82,00,000

दस लाख तक उपसादित मूल्य                     = 54,82,00,000

करोड़ तक उपसादित मूल्य                        = 55,00,00,000

यह विधि सर्वोतम मानी जाती है क्योंकि अशुद्धियाँ दोनों दिशाओं में होने के कारण उनकी क्षतिपूर्ति हो जाती है।

उपरोक्त तीनों विधियों का तुलनात्मक अध्ययन

सांख्यिकीय विभ्रम

(Statistical Error)

सांख्यिकी में विभ्रम का अर्थ त्रुटियों या अशद्धियों से नहीं होता। किसी पद में वास्तविक मूल्य और अनुमानित मूल्य का अन्तर ही सांख्यिकी विभ्रम कहलाता है। यदि किसी अनुसंधान में सांख्यिकीय रीतियों का गलत प्रयोग किया जाये या गणना क्रिया गलत हो जाये तो जो परिणाम होंगे वे अशुद्ध कहलायेंगे। प्रो० बॉडिंगटन के शब्दों में-“वास्तविक मूल्य तथा अनुमानित मूल्य,जो उपसादन या अन्य किसी विधि द्वारा प्राप्त किया गया हो,का अन्तर ही सांख्यिकीय विभ्रम कहलाता है।” ।

पूर्णतया शुद्ध माप का कोई अस्तित्व नहीं है क्योंकि जनगणना करते समय यह आशा की जाती है कि कोई भी व्यक्ति जनगणना में नहीं छूटेगा परन्तु अधिक व्यक्ति जनगणना से छूटे रह जाते हैं। सांख्यिकी अनुसंधानों में तो हमें न्यादर्श (Sample) की सहायता से पूरे समग्र (Universe) के बारे में विभिन्न अनुमान लगाना होता है, अत: वास्तविक एवं अनुमानित मूल्यों में अन्तर होना स्वाभाविक है।

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सांख्यिकीय विभ्रम तथा अशुद्धि में अन्तर

(Difference between Statistical Error and Mistake)

सांख्यिकीय विभ्रम तथा अशद्धि में निम्न अन्तर हैं

(i) उत्पत्ति-सांख्यिकीय विभ्रम, अनुमानित मूल्य तथा वास्तविक मूल्य में अन्तर के कारण उत्पन्न होता है जबकि अशुद्धि,सांख्यिकीय रीतियों को ठीक प्रकार से प्रयोग न करने के कारण उत्पन्न होती है।

(ii) प्रकृतिसांख्यिकीय विभ्रम जानबूझकर नहीं किया जाता.जबकि अशुद्धि अधिकतर जानबूझकर की जाती है।

(iii) रोकथाम–सांख्यिकीय विभ्रम को पूर्ण रूप से रोक पाना सम्भव नहीं है जबकि अशुद्धि को सावधानी बरतने पर रोका जा सकता है।

(iv) अनुमान-सांख्यिकीय विभ्रम का अनुमान लगाया जा सकता है जबकि अशुद्धि का अनुमान लगाना कठिन होता है।

विभ्रम के स्रोत

(Sources of Errors)

सांख्यिकी विभ्रम निम्न कारणों से उत्पन्न होते हैं

1 मूल विभ्रम (Errors of Origin)-मूल विभ्रम प्रायः समंक एकत्र करते समय विभिन्न कारणों से हो जाते हैं, इनसे बचने के लिये समंक एकत्र करते समय पूरी सावधानी एवं उन कारणों को दूर करने की आवश्यकता होती है जिनसे ये उत्पन्न होते हैं । ये विभ्रम निम्न कारणों से होते हैं

(i) माप की इकाई का ठीक से परिभाषित एवं निश्चित न होना।

(ii) प्रगणकों में पक्षपातपूर्ण भावना होना

(iii) उपसादन का अत्याधिक उपयोग करना

(iv) प्रश्नावली का दोषपूर्ण होना

(v) सही सूचनाएँ न मिलना

(vi) गणना करने वालों में उचित ज्ञान का अभाव होना

(vii) अनुसंधान का विषय जटिल होना

इन विभ्रमों को समंक संकलन से सम्बन्धित दोषों को दूर करके समाप्त किया जा सकता है । अनुसंधानकर्ता की योग्यता एवं निष्पक्षता तथा प्रगणकों की ईमानदारी इन विभ्रमों को दूर करने में सहायक होती है।

2. अपर्याप्तता विभ्रम (Errors of Inadequacy)-निदर्शन प्रणाली के कारण जो विभ्रम पैदा होते हैं। उन्हें प्राय: अपर्याप्तता विभ्रम कहा जाता है । जब न्यादर्श का आकार बहत छोटा होता है तो वह सम्पूर्ण समग्र का सही प्रतिनिधित्व नहीं कर पाता है। छोटे न्यादर्श अपूर्ण एवं अपर्याप्त सचना देते हैं तथा इसी कारण विभ्रम उत्पन्न हो जाते हैं। उदाहरण के लिए, एक डाक्टर 50,000 की आबादी वाले क्षेत्र में केवल दो व्यक्तियों को हेजे का। टीका लगाये तथा संयोगवश उन दोनों को हैजा हो जाये तो यह निष्कर्ष निकालना कि हैजे का टीका शत-प्रतिशत है जा नहीं रोकता है,गलत होगा क्योंकि यह परिणाम क्षेत्र के 20,000 लोगों को टीका लगा होता तथा 100 कीताह,गलत होगा क्योंकि यह परिणाम समंकों की अपर्याप्तता के कारण ऐसा निकला है ।

3. निर्वचन सम्बन्धी विभ्रम (Errors of Interpretation)-सांख्यिकीय अनुसंधानों में प्राप्त परिणामों का चयन करना बहुत सरल नहीं है। जो व्यक्ति समंकों का विश्लेषण करने के बाद निष्कर्ष निकालने में। सावधानी या पक्षपात करते हैं तथा सांख्यिकी की सीमाओं को ध्यान में नहीं रखते हैं. उनसे प्राप्त किये गये। निष्कर्ष दोषपूर्ण होते हैं।

4. प्रहस्तन विभ्रम (Errors of Manipulation)-समंकों का अत्याधिक उपसादन करने के कारण भी विभ्रम उत्पन्न हो जाते हैं। इसके अलावा गणना.मापन.वर्गीकरण आदि विधियों में त्रुटियों के कारण तथा माध्यों प्रतिशतों आदि के गलत उपयोग करने पर भी प्रहस्तन विभ्रम उत्पन्न होते हैं।

इस प्रकार स्पष्ट है कि सांख्यिकी अनुसंधानों में विभ्रम तीन स्थानों पर मुख्य रूप से होता है(i) समंकों का संकलन करते समय; (ii) समंकों का विश्लेषण करते समय; तथा (iii) समंकों का निर्वचन करते समय।

विभ्रम के प्रकार

(Kinds of Error)

सांख्यिकीय विभ्रम प्रकृति के अनुसार दो प्रकार के होते हैं

1 अभिनत या पक्षपात पूर्ण विभ्रम (Biased Error)

2. अनभिनत या पक्षपातहीन विभ्रम (Unbiased Error)

4. अभिनत या पक्षपातपूर्ण विभ्रम (Biased Error) जो विभ्रम प्रगणकों या सूचकों की पक्षपातपूर्ण भावना या दोष के कारण उत्पन्न होते हैं उन्हें अभिनत या पक्षपातपूर्ण विभ्रम कहते हैं । सभी अशुद्धियाँ एक ही दिशा में होती हैं, अत: इन्हें संचयी विभ्रम भी कहा जाता है। जैसे-जैसे माप या तौल की मात्रा बढ़ती है, विभ्रम बढ़ता जाता है । इसलिए समंकों को ऐसे विभ्रम के प्रभाव से बचाना चाहिए क्योंकि मात्रा के साथ-साथ ये विभ्रम बढ़ते जायेंगे तथा परिणाम अशुद्ध होंगे। उदाहरण के लिए, यदि कोई कपड़ा विक्रेता कपड़ा बेचते समय ऐसे मीटर का जानबूझकर प्रयोग करता है जो लम्बाई में एक सेन्टीमीटर कम है तो वह जितनी बार कपड़ा नापेगा कुल लम्बाई में उतने ही सेन्टीमीटर की कमी हो जायेगी। ये विभ्रम निम्न कारणों से होते हैं

(i) प्रगणकों का पक्षपात (Bias of Enumerators)-प्रगणक स्वयं समंकों के संकलन के समय पक्षपात करते हैं। जैसे कन्ट्रोल के समय में प्रगणक अपने मित्रों या रिश्तेदारों को दुलर्भ वस्तुओं का लाभ पहुँचाने के लिए उनके परिवार के सदस्यों की संख्या बढ़ा कर दिखा देते हैं । इस प्रकार का पक्षपात होने से समंक अशुद्ध हो जाते हैं।

(ii) सूचकों के पक्षपात (Bias of Informants)-प्रगणकों के बहुत चाहने पर भी लोग बहुत-सी सूचनायें गलत देने की आदत रखते हैं; जैसे औरतें प्रायः अपनी उम्र वास्तविकता से कम बताती हैं तथा लोग अपनी आय, आयकर की चोरी के कारण कम बताते हैं।

(iii) माप का दोष (Defects of Measurement)-यदि माप प्रमाणित इकाई से कम या अधिक है तो भी विभ्रम पैदा होंगे; जैसे-कुछ दुकानदार भाव कम बताकर तौल में कमी करें तो विभ्रम पैदा होंगे।

(iv) निदर्शन का दोष (Defects of Sampling)- अनुसंधानकर्ता कभी-कभी जानबूझ कर अपनी इच्छा से ऐसा न्यादर्श चनता है जिससे परिणाम सही न निकले परन्तु अनुसंधानकर्ता की इच्छाओं के अनुकूल हो।

2. अनभिनत विभ्रम (Unbiased Error)-इस प्रकार के विभ्रम बिना किसी पक्षपात के जैसे प्रगणकों की लापरवाही एवं संकलन में त्रुटि के कारण उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार के विभ्रमों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि ये एक-दूसरे के प्रभाव को समाप्त करने की प्रवृत्ति रखते हैं, इसी कारण इन्हें क्षतिपूरक विभ्रम (Compensatory) भी कहते हैं

इस प्रकार के विभ्रमों को रोकने की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि परिणाम पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।

किंग के अनुसारजब पदों की संख्या अधिक होती है तो क्षतिपूरक विभ्रम नगण्य होते हैं परन्तु इसके विपरीत संचयी विभ्रम सदैव योग या माध्य की शुद्धता को गम्भीर रूप से प्रभावित करता है।”

यदि बड़े पैमाने की जाँच करनी है तो ऐसे विभ्रम से सावधान रहने की आवश्यकता नहीं होती है । उपसादन (Approximation) करते समय इन विभ्रमों का जानबूझ कर प्रयोग किया जाता है। जैसे यदि कोई व्यापारी 50 किलोग्राम के सही बाट से तौलने में लापरवाही करता है तो कभी वह कम तौलेगा तो कभी उतना अधिक तोलेगा। इस प्रकार जितना ही वह अधिक बार तौलेगा. कुल मिलाकर विभ्रम कम होगा क्योंकि धनात्मक एवं ऋणात्मक विभ्रम एक दूसरे के प्रभाव को नष्ट कर देंगे।

अभिनत और अनभिनत विभ्रम में अन्तर

(Difference between Biased and Unbiased Errors)

विभिन्न आधारों के आधार पर अभिनत और अनभिनत विभ्रम के अन्तर को निम्न प्रकार समझाया जा सकता है

विभ्रम की माप

(Measurement of Error)

सांख्यिकीय विभ्रम वास्तविक मूल्य (Actual Value) तथा अनुमानित मूल्य (Estimated Value) के अन्तर को प्रदर्शित करता है । सांख्यिकीय विभ्रम की माप दो प्रकार से की जा सकती है

1 निरपेक्ष विभ्रम (Absolute Error)-निरपेक्ष विभ्रम वास्तविक मूल्य तथा अनुमानित मूल्य का अन्तर होता है। यह धनात्मक या ऋणात्मक दोनों प्रकार का हो सकता है जैसे-यदि फर्म की वास्तविक कुल वाषिक लाभ 50,000 रु० तथा अनुमानित लाभ 49,900 रु. है तो निरपेक्ष विभ्रम 100 रु. होगा।

द्वितीयक समंकों का सम्पादन

(Editing of Secondary Data)

द्वितीयक समंकों का प्रयोग करने से पूर्व उनका अच्छी तरह से सम्पादन कर लेना चाहिए। संग्रहकर्ता के बारे में पूर्ण जानकारी प्राप्त करना आवश्यक होता है जिससे यह ज्ञात हो सके कि उसमें शुद्ध आँकड़े एकत्र करने की क्षमता थी या नहीं। सभी प्रकार से जाँच करके यह निश्चित कर लेना चाहिए कि एकत्रित समंक विश्वसनीय, पर्याप्त एवं अनकल हैं तथा प्रयोग करने योग्य हैं। द्वितीयक समंकों का सही रूप से सम्पादन करने के लिए निम्न बातों पर उचित ध्यान देना चाहिए

(1) समंकों के स्रोत (Sources of Data)

(2) अनुसंधान का उद्देश्य (Aims of Original Inquiry)

(3) अनुसंधान का क्षेत्र एवं प्रकृति (Nature and Scope of Inquiry)

(4) मापन की इकाइयाँ (Units of Measurement)

(5) परिशुद्धता की मात्रा (Degree of Accuracy)

(6) प्रगणकों तथा सूचकों की योग्यता एवं ईमानदारी (Ability and Integrity of Enumerators and Informants)

(7) प्रारम्भिक अनुसंधान का उद्देश्य एवं समय (Aims and Time or original Inquiry)

इसी प्रकार उपरोक्त सभी बातों के आधार पर द्वितीयक समंकों की विश्वसनीयता तथा पर्याप्तता का ज्ञान प्राप्त होता है।

प्रश्न

1. सांख्यिकी अनुसंधानों में शुद्धता के किस स्तर की आवश्यकता होती है?

What standard of accuracy is needed in statistical inquiries? State the various methods of approximation and their utility in statistics.

2. प्राथमिक एवं द्वितीयक सामग्री के विश्लेषण तथा निर्वचन करने के सम्बन्ध में सम्पादन पर एक निबन्ध लिखिए।

Write a note on the ‘editing of primary and secondary data for purposes of analysis and interpretation’.

3. सांख्यिकीय विभ्रम क्या है ? वे कितने प्रकार के होते हैं ? उनका माप कैसे किया जाता है? संकलित समंकों का सम्पादन

What are statistical errors ? What are their various types ? HO measured? are their various types ? How are they

4. सांख्यिकीय विभ्रम से आप क्या समझते हैं? संचयी तथा अतिपरक विधमों में अन्तर बताइए तथा इनका उत्तरदायी कारणों को स्पष्ट कीजिए।

What do you mean by statistical errors ? Differentiate between cumulative and compensatory errors and explain the factors responsible for them.

5. परिशुद्धता एवं उपसादन से क्या आशय है? इस सम्बन्ध में नियमों को बताइए।

What do you mean by accuracy and approximation ? Explain the rules in regard.

6. निम्न पर संक्षिप्त टिप्पणियाँ लिखिये

Write short notes on:

(i) उपसादन (Approximation)

(ii) निरपेक्ष विभ्रम (Absolute Error)

(iii) सापेक्ष विभ्रम (Relative Error)

(iv) अभिनत एवं अनभिनत विभ्रम (Biased and Unbiased Error)

(v) द्वितीयक सामग्री का सम्पादन (Editing of Secondary Data)

(vi) निदर्शन एवं गैर निदर्शन विभ्रम (Sampling and Non-Sampling Errors)

लघु उत्तरीय प्रश्न

(Short Answered Questions)

7. प्रत्येक प्रश्न का उत्तर 100 से 120 शब्दों में दीजिये

The answer should be between 100 to 120 words:

(i) समंक सम्पादन क्या है ? सम्पादन की प्रक्रिया समझाइये

What is editing of data ? Explain process of editing

(ii) उपसादन को समझाइये तथा इसकी विभिन्न विधियाँ बताइये।

Explain the meaning and methods of aproximation.

(iii) सांख्यिकीय विभ्रम क्या है ? इसके विभिन्न स्रोत बताइये।

What is statistical error ? Explain its different sources.

(iv) सांख्यिकीय विभ्रम के प्रकार बताइये तथा विभ्रम के मापन की विधियाँ समझाइये।

Explain the kinds of errors and explain the methods of measuring the errors.

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

(Very Short Answered Questions)

(अ) निम्न कथनों में से कौन-सा कथन सत्य या असत्य है

State whether the following statement are TRUE or FALSE:

(i) असंगत समंकों से भ्रामक एवं गलत निष्कर्ष निकाले जाने की सम्भावना रहती है।

The results obtained from inconsistent data are misleading,

(ii) सांख्यिकी में विभ्रम का अर्थ त्रुटियों या अशुद्धियों से होता है।

In statistics error means faults or mistakes.

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chetansati

Admin

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