BCom 2nd Year Principles Business Management Process Role Area managerial Study Material Notes In Hindi

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BCom 2nd Year Principles Business Management Process Role Area managerial Study Material Notes In Hindi

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BCom 2nd Year Principles Business Management Process Role Area managerial Study Material Notes In Hindi: Meaning and Definition of Management Process Function of management of Elements of management Process Nature or Characteristics of management Functions Comparative Important of management Functions Managerial Roles Propounded By Henry Mintzerbh Functional Areas of management  Scope or Functional Areas or Business Management Examination Questions Long Answer Questions Short Answer Questions :

Process Role Area managerial
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BCom 2nd Year Principles Business management Concept Nature Significance Study Material Notes in Hindi

प्रबन्ध प्रक्रिया, प्रबन्धकीय भूमिकाएँ एवं प्रबन्ध के क्रियात्मक क्षेत्र

[Management Process, Managerial Roles and Functional Areas of Management]

प्रबन्धप्रक्रिया का अर्थ एवं परिभाषा

(MEANING AND DEFINITION OF MANAGEMENT-PROCESS)

प्रक्रिया, कार्यों को करने का एक व्यवस्थित ढंग है (A process is a systematic way of doing things)। प्रबन्ध कुछ निश्चित कार्यों के द्वारा लक्ष्यों को प्राप्त करने की प्रक्रिया है। फेयोल के अनुसार “प्रबन्ध कार्यों की प्रक्रिया है।” स्पष्ट है कि प्रबन्ध कुछ कार्यों की एक श्रृंखला है तथा इन कार्यों को करने से ही प्रबन्ध प्रक्रिया का जन्म होता है। अनेक विद्वानों के अनुसार प्रबन्ध एक प्रक्रिया है जिसमें नियोजन, संगठन, निर्देशन एवं नियंत्रण के कार्य सम्मिलित हैं। दूसरे शब्दों में, संस्था के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए प्रबन्धक को जो कार्य करने पड़ते हैं. उन्हें प्रबन्ध-प्रक्रिया में शामिल किया जाता है। जिस प्रकार हाकी, क्रिकेट फटबाल के खेल में टीम के सदस्य चाहे कितने ही अनुभवी, प्रशिक्षित व कुशल खिलाड़ी क्यों न हों, वे अपनी प्रतिद्वन्द्वी टीम को तब तक नहीं पराजित कर सकते जब तक कि वे एक श्रेष्ठ कप्तान के नेतृत्व में मिलकर नियोजित, संगठित, निर्देशित, नियंत्रित व समन्वित प्रयास न करें, ठीक उसी प्रकार किसी भी व्यावसायिक उपक्रम को पूर्व-निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए प्रबन्ध प्रक्रिया के तत्त्वों—नियोजन, संगठन, निर्देशन, नियंत्रण व समन्वय आवश्यक

जी० आर० टेरी के अनुसार, “प्रबन्ध एक पृथक् प्रक्रिया है जिसमें नियोजन, संगठन, गति देना एवं नियंत्रण को सम्मिलित किया जाता है तथा इसका निष्पादन कर्मियों एवं साधनों के उपयोग द्वारा उद्देश्यों को निर्धारित करने एवं प्राप्त करने के लिए किया जाता है।”

डी० एस० बीच के अनुसार, “प्रबन्ध निर्धारित उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए सामग्री एवं मानवीय साधनों के उपयोग की प्रक्रिया है। इसमें संगठन, निर्देशन, समन्वय तथा कर्मचारियों के मूल्यांकन को सम्मिलित किया जाता है जिससे लक्ष्यों को प्राप्त किया जाता है।”2

स्टेनले वेन्स के अनुसार, “प्रबन्ध मात्र निर्णयन एवं मानवीय क्रियाओं पर नियंत्रण रखने की प्रक्रिया है जिससे पूर्व-निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सके।”3

निष्कर्ष : उपरोक्त परिभाषाओं का अध्ययन करने से स्पष्ट है कि प्रबन्ध प्रक्रिया के द्वारा संस्था के भौतिक एवं मानवीय संसाधनों का न्यूनतम लागत पर अधिकतम कुशलता के साथ प्रयोग किया जाता है, ताकि संस्था के लक्ष्यों की पूर्ति की जा सके। अनेक विद्वानों ने अपनी परिभाषाओं में प्रबन्ध को नियोजन, संगठन, निर्देशन एवं नियंत्रण आदि मूलभूत तत्त्वों से मिलकर बनी एक प्रक्रिया बताया है।

व्यवहार में, प्रबन्ध प्रक्रिया पृथक्-पृथक् क्रियाओं से मिलकर नहीं बनती है। वास्तव में यह “अन्तर्सम्बन्धित कार्यों का एक समूह” (A group of interrelated functions) है जिसे एक विशिष्ट क्रम में तथा अनेक कार्यों के साथ-साथ निष्पादित किया जाता है।

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प्रबन्ध प्रक्रिया, प्रबन्धकीय भूमिकाएँ एवं प्रबन्ध के क्रियात्मक क्षेत्र प्रबन्ध के कार्य अथवा प्रबन्धप्रक्रिया के तत्त्व

(FUNCTIONS OF MANAGEMENT OR ELEMENTS OF MANAGEMENT PROCESS)

प्रबन्ध एक ऐसी प्रक्रियाहै  जिसमें कुछ मूलभूत कार्य सम्मिलित किये जाते हैं। प्रबन्ध-प्रक्रिया के अन्तर्गत सम्मिलित किये जाने वाले कार्यों के सम्बन्ध में भारी मतभेद हैं।

विभिन्न विद्वानों के मत-प्रबन्ध की परिभाषा की भाँति इसके कार्यों के सम्बन्ध म। विभिन्न विद्वानों के अलग-अलग विचार हैं। कुछ प्रमख चिन्तकों के विचार निम्न प्रकार है

हेनरी फेयोल ने प्रबन्ध-प्रकार्यों के अन्तर्गत निम्न पाँच तत्त्वों को शामिल किया है(1) पूर्वानुमान एवं नियोजन, (2) संगठन, (3) निर्देश या आदेश देना. (4) समन्वय, एवं (5) नियन्त्रण। फेयोल के शब्दों में, प्रबन्ध करने से आशय पूर्वानुमान एवं नियोजन करना, संगठन बनाना, आदेश देना. समन्वय करना तथा नियन्त्रण करना है।

ई० एफ० एल० ब्रीक ने प्रबन्ध के निम्न चार कार्यों का वर्णन किया है-(1) नियोजन, (2) नियन्त्रण, (3) समन्वय, और (4) अभिप्रेरण। _आर० सी० डेविस के अनुसार प्रबन्ध के तीन मुख्य कार्य हैं-(1) नियोजन, (2) संगठन, (3) नियन्त्रण।

जार्ज आर० टैरी ने प्रबन्ध के चार कार्य बतलाये हैं-(1) नियोजन, (2) संगठन, (3) प्रेरित करना, और (4) नियन्त्रण।

अर्नेस्ट डेल के अनुसार प्रबन्ध के प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं—(1) नियोजन, (2) संगठन, (3) स्टाफिंग, (4) निर्देशन, (5) नियन्त्रण, (6) नवाचार, तथा (7) प्रतिनिधित्व।

कुण्ट्ज एवं डोनेल के अनुसार प्रबन्ध के पाँच कार्य हैं—(1) नियोजन, (2) संगठन, | (3) नियुक्ति, (4) निर्देशन, (5) नियन्त्रण।

प्रबन्ध विद्वानों के सम्मिलित दृष्टिकोण के आधार पर प्रबन्ध के कार्यों को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है

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() प्रमुख कार्य (Main Functions),

(ब),सहायक कार्य (Subsidiary Functions)। प्रमुख कार्य /प्रबन्ध के प्रमुख कार्यों में साधारणतया निम्नांकित परम्परागत कार्यों को सम्मिलित किया जाता

(1) नियोजन, (2) संगठन, (3) म्हाफिंग, (4) निर्देशन, (5) नियन्त्रण, (6) अभिप्रेरण, एवं (7) समन्वय।

इन सभी कार्यों का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित है

1 नियोजन (Planning)-नियोजन एक बौद्धिक क्रिया है जो किसी कार्य को करने से पर्व उसके बारे में सोचने से सम्बन्ध रखती है, ताकि इच्छित परिणामों को अधिक निश्चितता एवं मितव्ययिता से प्राप्त किया जा सके। जार्ज आर० टैरी के शब्दों में, “नियोजन भविष्य के गर्भ में झाँकने की एक विधि या तकनीक है।’ दूसरे शब्दों में नियोजन इच्छित परिणामों की प्राप्ति के लिए भावी कार्यक्रम की रूप-रेखा का निर्धारण है। इसलिए नियोजन को पूर्वानुमान या भविष्यवाणी की संज्ञा दी जाती है। जेम्स एल० लुण्डी के अनुसार, “इससे आशय यह निर्धारित करना है कि क्या करना है, कैसे एवं कहाँ करना है, इसको कौन करेगा तथा परिणामों का मूल्यांकन कैसे करना है।”

स्पष्ट है कि नियोजन एक बौद्धिक क्रिया है जिसके लिए सृजनात्मक चिन्तन एवं कल्पना की आवश्यकता होती है। वस्तुत: नियोजन निर्णय लेने की विधि है जिसके द्वारा किसी समस्या के समाधान का चयन किया जाता है, ताकि अनिश्चित भविष्य को निश्चित किया जा सके।

आवश्यकतानियोजन प्रबन्ध का अनिवार्य अंग है। प्रत्येक उपक्रम के लिए चाहे वह छोटा हो या बड़ा नियोजन की आवश्यकता होती है। जब तक नियोजन के द्वारा लक्ष्यों, उद्देश्यों/आधारभत। नीतियों का निर्धारण नहीं होता, तब तक कार्यक्रम एवं कार्यविधि का निर्धारण नहीं किया जा सकता और न किसी अन्य कार्य को ही सम्पन्न किया जा सकता है। प्रबन्ध-प्रक्रिया के क्रम में सर्वप्रथम नियोजन की दीवानी है। इसके अभाव में न तो स्टाफिंग किया जा सकता है और न ही संगठन का निर्माण सम्भव है। नियोजन केवल उ प्रबन्ध के प्रत्येक स्तर पर किया जाता है। नियोजन की अनिवार्यता को ही ध्यान में रखकर वैज्ञानिक प्रबन्ध के जनक श्री एफ० डब्ल्य० टेलर (E.W.Taylor) ने प्रत्येक कारखाने में एक पृथक् योजना विभाग (Planning Department) की स्थापना पर बल दिया है।

2. संगठन (Organisation)-नियोजन जिन उद्देश्यों व कार्यक्रमों को निर्धारित करता है, उनक क्रियान्वयन के लिए संगठन एक साधन या उपकरण है। प्रबन्धक इस कार्य के अन्तर्गत मानव, माल, मशीन एवं अन्य साधनों में परस्पर सम्बन्ध स्थापित करता है जिससे कि न्यूनतम लागत पर निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति की जा सके।

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उर्विक के अनुसार, “किसी उद्देश्य (या योजना) के सन्दर्भ में यह निर्धारित करना कि क्या-क्या क्रियाएँ करना आवश्यक होगा और फिर इन्हें विभिन्न व्यक्तियों को सौंपने की दृष्टि से उचित समूहों में क्रमबद्ध करने को ही संगठन कहा जाता है।”

संक्षेप में संगठन में निम्नलिखित कार्यों का समावेश किया जाता है

(i) संस्था के उद्देश्यों के अनुरूप कार्यों का निर्धारण व समूहीकरण,

(ii) प्रत्येक क्रिया को संस्था में कार्यरत कर्मचारियों की योग्यतानुसार उन्हें आबंटित करना,

(iii) सभी व्यक्तियों एवं विभागों के दायित्व परिभाषित करना, अधिकारों का भारार्पण करना, और

(iv) समन्वय की दृष्टि से संगठनात्मक सम्बन्धों की स्थापना करना।

आवश्यकतानियोजन की भाँति संगठन भी नितान्त आवश्यक है, क्योंकि यही वह उपकरण है जिसकी सहायता से प्रशासन द्वारा निर्धारित लक्ष्य, प्रबन्ध द्वारा प्राप्त किये जाते हैं।

3. नियुक्ति (Staffing)-प्रत्येक व्यावसायिक संस्था की प्रगति उसमें कार्य करने वाले कर्मचारियों की योग्यता, अनुभव एवं उनके कौशल पर निर्भर करती है। योग्य, कुशल एवं अनुभवी कर्मचारी संस्था के उपलब्ध साधनों का अधिकतम एवं मितव्ययी उपयोग करके संस्था के पूर्व-निर्धारित उद्देश्यों की प्राप्ति को सुविधाजनक बनाते हैं। इस दृष्टिकोण से प्रबन्ध द्वारा कर्मचारियों की नियुक्ति करने का कार्य अत्यन्त महत्वपूर्ण है। प्रबन्ध इस कार्य को सम्पन्न करने के लिए सर्वप्रथम संस्था के लिए आवश्यक कर्मचारियों की संख्या का पूर्वानुमान लगाता है, तत्पश्चात् कार्य विश्लेषण के आधार पर कर्मचारियों की आवश्यक योग्यता को निर्धारित करता है और फिर इसके अनुसार योग्य कुशल एवं अनुभवी कर्मचारियों का चयन करता है। कर्मचारियों की नियुक्ति सद्भावना और ईमानदारी से की जानी चाहिए, ताकि सही कार्य के लिए सही व्यक्ति को नियुक्त किया जा सके।

संक्षेप में, स्टाफिंग मानव शक्ति के नियोजन, उसकी प्राप्ति, प्रशिक्षण एवं विकास से सम्बन्धित है।

आवश्यकता–प्रत्येक संगठन की उत्पादकता कुशल स्टाफिंग पर ही निर्भर करती है। जिस । उपक्रम के कर्मचारी जितने अधिक कार्यक्षम, योग्य, प्रशिक्षित व अनुभवी होंगे, उनका प्रबन्ध उतना ही अधिक प्रभावशाली होगा।

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4. निर्देशन (Direction)-निर्देशन का आशय संस्था के कर्मचारियों को यह बताने से है कि उनको क्या, कैसे और कब करना है? इसके साथ ही साथ यह भी देखना है कि कर्मचारी अपना कार्य ठीक प्रकार से कर रहे हैं या नहीं। वास्तव में निर्देशन, प्रबन्ध का वह कार्य है जो संस्था के संगठित प्रयासों को आरम्भ करता है, प्रबन्धकीय निर्णयों को वास्तविकता प्रदान करता है और संस्था को अपने उद्देश्य प्राप्त करने की दिशा में आगे बढ़ाता है। प्रत्येक प्रबन्ध को अपने अधीनस्थों के कार्यों को सही दिशा प्रदान करने के लिए उनका निर्देशन एवं निरीक्षण करना पड़ता है। संक्षेप में, निर्देशन के अन्तर्गत अधीनस्थों का मार्गदर्शन करना एवं उनका पर्यवेक्षण करना आता है। जार्जी आर० टैरी ने निर्देशन के स्थान पर गति देना (Actuating) शब्द का प्रयोग किया है।।

आवश्यकता-व्यावसायिक प्रशासन में संचालन व निर्देशन का महत्वपूर्ण स्थान है। बिना उपयुक्त निदशन के वांछित परिणामों की प्राप्ति नहीं की जा सकती। जिस प्रकार गाड द्वारा झण्डा दिखाये बिना ट्रेन स्टेशन नहीं छोड़ सकती अथवा रेफरी द्वारा सीटी बजाये बिना खल प्रारम सकता उसी प्रकार प्रबन्धकों द्वारा अपने अधीनस्थों को बिना निर्देश दिये वांछित परिणामों को प्राप्त नहीं किया जा सकता।

5. नियन्त्रण (Control)-प्रबन्धकीय नियन्त्रण यह देखने की क्रिया है कि संस्था की क्रियाए। उसी प्रकार हो रही हैं या नहीं जिस प्रकार से होनी चाहिएँ थीं और यदि जिस प्रकार क्रियाएँ होना चाहिएँ थीं उस प्रकार नहीं हो रही हैं तो सुधारात्मक कार्यवाही की जाती है।

हेनरी फेयोल के अनुसार, “नियन्त्रण का अर्थ इस बात को सत्यापित करना है कि प्रत्यक क्रिया निर्धारित योजनाओं, निर्गमित आदेशों एवं पूर्व-निश्चत सिद्धान्तों के अनुसार हो रही है अथवा नहीं। इसका उद्देश्य दुर्बलताओं एवं गलतियों को मालूम करना है जिससे उन्हें ठीक किया जा सके एवं उनकी पुनरावृत्ति को रोका जा सके।”

स्वस्थ एवं प्रभावी नियन्त्रण के लिए निम्न बातों का होना आवश्यक है-(1) कार्य नियोजन के अनुसार किया जाय, (2) समय-समय पर कार्य की रिपोर्टिंग होनी चाहिए, (3) विचलन की दशा में सुधारात्मक कार्यवाही की जानी चाहिए, और अन्त में कल निष्पादित कार्य की समीक्षा होनी चाहिए।

आवश्यकता-प्रबन्ध में नियन्त्रण का भी महत्वपूर्ण स्थान है। नियन्त्रण के माध्यम से कार्य की दुर्बलताओं एवं गलतियों का पता चल जाता है जिसके आधार पर सुधारात्मक कार्यवाही कर त्रुटियों की पुनरावृत्ति को रोका जा सकता है।

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6. अभिप्रेरणा (Motivation)-अभिप्रेरणा अंग्रेजी के ‘Motivation’ शब्द का हिन्दी अनुवाद है। ‘Motivation’ शब्द की उत्पत्ति Motive शब्द से हुई है जिसका शाब्दिक अर्थ है, व्यक्ति में ऐसी इच्छा जागृत करना, जो उसे काम करने के लिए प्रेरित करती रहे। संक्षेप में, अभिप्रेरणा से तात्पर्य उस मनोवैज्ञानिक उत्तेजना से है जो व्यक्तियों को काम करने के लिए प्रोत्साहित करती है, उन्हें कार्य पर बनाये रखती है तथा अधिकतम सन्तुष्टि प्रदान करती है। इसी उद्देश्य से प्रबन्ध कर्मचारियों को वित्तीय व अवित्तीय प्रेरणाएँ प्रदान करते हैं।

आवश्यकता—’अभिप्रेरण प्रबन्ध का हृदय है जिस प्रकार हृदय की गति बन्द हो जाने से ‘मानव’ शव-तुल्य हो जाता है एवं फिर वह कोई भी काम नहीं कर सकता, उसी प्रकार अभिप्रेरण उत्पादन के विभिन्न साधनों में एक सक्रिय व सजीव साधन है, जो अन्य साधनों को गति प्रदान करता है। मनष्यों से मशीनों की भाँति स्विच दबाकर कार्य नहीं कराया जा सकता, क्योंकि मनष्यों में भावनाएँ होती हैं, वह किसी कार्य को करने के लिए अपना सहयोग दे सकता है या सहयोग देने से पीछे भी हट सकता है। अत: कर्मचारियों से अधिक कार्य करने के लिए प्रबन्ध को उन्हें प्रेरणाएँ प्रदान करनी चाहिएँ।

7. समन्वय (Co-ordination)-सामूहिक प्रयत्नों की क्रमबद्ध व्यवस्था जिससे सामान्य उद्देश्य पूर्ति हेतु क्रियाओं में एकरूपता लायी जा सके, समन्वय कहलाता है। आधुनिक उद्योगों में कार्यों का विशिष्टीकरण पाया जाता है। विभिन्न विभागों का कार्य प्रत्येक विभाग के अध्यक्ष की देखरेख में विभिन्न व्यक्तियों द्वारा किया जाता है। सभी विभागों एवं व्यक्तियों का कार्य संस्था के सामान्य उद्देश्यों को प्राप्त करना होता है। अतः सभी विभागों एवं व्यक्तियों के कार्यों में समन्वय आवश्यक होता है। समन्वय के लिए यह जरूरी होता है कि विभागों के मुख्य कर्मचारी संस्था के प्रमुख उद्देश्य को भली-भाँति समझें तथा उनकी प्राप्ति के लिए आपस में सहयोग से कार्य करें।

ई० एफ० एल० बीच के अनुसार, “किसी संस्था या समूह के विभिन्न सदस्यों के बीच इस ढंग से कार्य का आबंटन करना कि उसमें परस्पर सन्तुलन एवं सहयोग बना रहे तथा यह देखना कि कार्य सद्भावना के साथ सम्पन्न हो जाय, समन्वयन कहलाता है।”

आवश्यकता—जिस प्रकार हॉकी टीम के खिलाड़ी अपनी प्रतिद्वन्द्वी टीम के खिलाडियों की अपेक्षा चाहे कितने कुशल खिलाड़ी क्यों न हों, लेकिन उनका खेल में विजय-श्री तब ही प्राप्त होगी।

जबकि वह एक-दसरे के साथ समन्वय रखते हुए खेलें ठीक उसी प्रकार संस्था के कर्मचारियों को संस्था के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए आपस में एक-दूसरे के साथ समन्वय रखना चाहिए। समन्वय के अभाव में, व्यक्तिगत प्रयत्न चाहे कितने भी श्रेष्ठ हों. संस्था के उद्देश्य खतरे में पड़ सकते हैं।

वास्तव में, समन्वय प्रबन्ध का सार है (Co-ordination is the essence of management)

प्रबन्ध का प्रमुख कार्य कर्मचारियों के कार्यों में समन्वय स्थापित करते हुए संस्था के उद्देश्यों की पूर्ति। करना होता है। प्रभावकारी समन्वय के लिए सहयोग की भावना, अच्छे मानवीय सम्बन्ध, एक-दूसर। को भली प्रकार समझना एवं कुशल सम्प्रेषण व्यवस्था आदि प्रमुख तत्त्व है।

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प्रबन्ध के सहायक कार्य

(Subsidiary Functions of Management)

 प्रबन्ध के प्रमुख कार्यों के अतिरिक्त कुछ सहायक कार्य भी हैं जिनका संक्षिप्त विवेचना निम्न प्रकार है

1 संवहन (Communication)-संवहन से आशय एक ऐसी क्रिया से है जिसके द्वारा प्रबन्ध, संस्था से सम्बन्धित सभी महत्वपूर्ण सूचनाएँ अपने अधीनस्थ कर्मचारियों तक पहुँचाता है। इसके अतिरिक्त प्रबन्ध के द्वारा अंशधारियों, ग्राहकों, जनता और सरकार को अनेक महत्वूपर्ण सूचनाएँ प्रेषित की जाती हैं। प्रबन्ध का संवहन कार्य अत्यन्त महत्वपूर्ण है, क्योंकि प्रभावी संवहन ही संस्था के लक्ष्यों, उद्देश्यों, कार्यक्रमों, नीतियों, आदेशों व उपलब्धियों के विषय में संलग्न व्यक्तियों को पूर्णतः सूचित रखता है। सम्प्रेषण एवं सन्देशवाहन भी संवहन के पर्यायवाची शब्द हैं। प्रबन्धकीय कार्यों की कुशलता कुशल सन्देशवाहन पर ही निर्भर करती है। अतः सम्प्रेषण सही, पूर्ण, समयानुकूल व प्रभावी होना चाहिए।

2. निर्णयन (Decision-making)-प्रबन्ध के कार्यों में निर्णयन भी एक महत्वपूर्ण कार्य है। प्रबन्ध व्यवसाय में जो भी कार्य करता है, वह निर्णयन के द्वारा ही सम्पन्न करता है। प्रत्येक उपक्रम, चाहे उसका आकार बड़ा हो या छोटा, प्रवर्तन से समापन तक सभी अवस्थाओं में निर्णय लेने पड़ते हैं। ‘निर्णयन’ एक बौद्धिक प्रक्रिया है जो सर्वोत्तम विकल्प के चयन से सम्बन्धित है। अनुभव, विवेक एवं अन्तर्ज्ञान निर्णयन की परम्परागत विधियाँ हैं, जबकि क्रियात्मक अनुसन्धान, सांख्यिकीय विधियाँ एवं मॉडल निर्माण इसकी आधुनिक विधियाँ हैं।

उपक्रम की सफलता काफी मात्रा में प्रबन्ध के निर्णयों पर निर्भर करती है। अतः प्रबन्ध को बड़ी सावधानी से सोच-विचार कर ही निर्णय लेने चाहिएँ।

3. नवाचार या नवप्रवर्तन (Innovation)-नवाचार या नव-प्रवर्तन प्रबन्ध का वह महत्वपूर्ण सहायक कार्य है जो केवल नवीन एवं सुधरे हुए उत्पादों या नयी तकनीकी खोज तक ही सीमित नहीं है, वरन् इसके अन्तर्गत नवीन कार्यपद्धतियाँ भी सम्मिलित हैं। बोलचाल के शब्दों में नवाचार का अर्थ उत्पादन के एक नये डिजाईन, एक नयी उत्पादन पद्धति या एक नयी विपणन तकनीक से लिया जा सकता है। व्यवसाय के विकास के लिए यह जरूरी है कि उत्पादन, विपणन, नियन्त्रण, संचालन, अभिप्रेरण एवं मानवीय व्यवहार के अन्य सभी क्षेत्रों में नवीन पद्धतियों का प्रयोग किया जाय। इसी उद्देश्य से बड़े व्यावसायिक-गृह शोध व विकास विभागों (Research and Development Departments) की स्थापना करते हैं।

4. प्रतिनिधित्व (Representation)-आजकल प्रबन्धक के इस कार्य को सबसे अधिक महत्व दिया जाता है। इससे हमारा आशय व्यावसायिक संस्था का प्रतिनिधित्व करने से है। ‘प्रबन्ध उपक्रम का प्रतिनिधि होता है और इस कारण उसका यह सामाजिक दायित्व हो जाता है कि वह हित । रखने वाले विभिन्न पक्षकारों (जैसे—कर्मचारी, अंशधारी, ऋणदाता, उपभोक्ता, सरकार, आदि) के सम्मख संगठन का प्रतिनिधित्व करे। प्रतिनिधित्व के इस कार्य से ही ‘प्रबन्ध’ अपनी तथा संगठन की | छवि को निखारता है।

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नोटप्रबन्ध के कार्यों की उपरोक्त सूची को अन्तिम (final) नहीं कहा जा सकता। प्रबन्ध एक गतिशील धारणा (dynamic concept) है; अत: प्रबन्ध के नित नये कार्यों का उदय होना। स्वाभाविक है। दूसरे, उपरोक्त सभी कार्य अन्तर्सम्बन्ध (inter-connected) हैं। किसी भी कार्य का । निष्पादन अन्य कार्यों को सम्पन्न किये बिना नहीं हो सकता। सच बात तो यह है कि  प्रबन्ध प्रक्रिया, प्रबन्धकीय भूमिकाएँ एवं प्रबन्ध के क्रियात्मक क्षेत्र संयोजन की प्रक्रिया है अन्त में यह लिखना भी अनावश्यक न होगा कि अधिकांश प्रबन्ध-चिन्तकों ने प्रबन्ध के पाँच कार्य बतलाये हैं—नियोजन. संगठन, समन्वय, निर्देशन तथा नियन्त्रण।

प्रबन्धकीय कार्यों/प्रक्रिया की प्रकृति अथवा लक्षण

(NATURE OR CHARACTERISTICS OF MANAGERIAL FUNCTIONS)

1  सावभामिकता (Universality)-प्रबन्धकीय कार्य (नियोजन, संगठन, निर्देशन, नियत्रण व समन्वय) समस्त संगठनों की सामान्य आवश्यकता है। आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक, सार्वजनिक, निजी सभी क्षेत्रों में प्रबन्धकीय कार्य आवश्यक ही नहीं. अनिवार्य हैं। इसी सार्वभौमिकता के कारण प्रबन्धकीय कार्य को किसी विभाग, उपक्रम. उद्योग अथवा भौगोलिक सीमाओं में बाधकर। नहीं रखा जा सकता है। प्रबन्धकीय कार्य और ज्ञान हस्तान्तरणीय होते हैं।

2. परस्परनिर्भरता (Inter-dependence) यद्यपि प्रबन्धकीय कार्यों को कछ वर्गों में विभक्त किया जाता है, परन्तु वे एक दूसरे से घनिष्ठ रूप से जुड़े होते हैं। उन्हें एक-दूसरे से पृथक् नहीं किया जा सकता है और न ही एक दूसरे के बिना उनका कोई अर्थ होता है। उदाहरण के लिए, नियोजन बिना नियंत्रण के एक थोथा अभ्यास है और नियंत्रण भावी नियोजन का आधार होता है। फिर सभी कार्यों में समन्वय की आवश्यकता होती है।

3. सतत् एवं गतिशील (Continuous and Dynamic)-प्रबन्धकीय कार्य एक अन्तहीन व निरन्तर चलने वाली क्रिया है। प्रबन्धक को गतिशील घटकों के मध्य काम करना होता है, अत: स्थिर दृष्टिकोण के स्थान पर प्रावैगिक दृष्टिकोण अपना करके अनुकूल समायोजन करना पड़ता है।

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प्रबन्ध के कार्यों का सापेक्षिक महत्त्व

(COMPARATIVE IMPORTANCE OF MANAGEMENT FUNCTIONS)

प्रबन्धक के सभी कार्य अपनी-अपनी जगह महत्वपूर्ण हैं और प्रबन्ध की प्रक्रिया में सबका उपयोग किया जाता है। सर्वोच्च प्रशासक (जैसे अध्यक्ष या जनरल मैनेजर) से लेकर फोरमैन या पर्यवेक्षक तक के सभी प्रबन्ध अधिकारी इन कार्यों का प्रयोग करते हैं, किन्तु उच्च स्तर (Higher level) पर नियोजन एक प्रमुख व सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण कार्य होता है, जबकि संगठन उससे कम व निर्देशन एवं नियन्त्रण का कार्य सबसे कम महत्त्वपूर्ण होते हैं। इसके विपरीत निर्देशन व नियन्त्रण निम्न स्तर पर (Lower level) पर सबसे महत्वपूर्ण कार्य होते हैं, जबकि नियोजन व संगठन के कार्य अपेक्षाकृत कम महत्त्वपूर्ण होते हैं।

हेनरी मिंजबर्ग द्वारा प्रतिपादित प्रबन्धकीय भूमिकाएँ

(MANAGERIAL ROLES PROPOUNDED BY HENRY MINTZBERG)

मैकगिल विश्वविद्यालय के प्रोफेसर हेनरी मिंजबर्ग ने प्रबन्धकीय कार्यो/प्रबन्ध प्रक्रिया के सम्बन्ध में ‘प्रबन्धकीय भूमिकाएँ’ (Managerial Roles) सम्बन्धी अवधारणा का एक नया दष्टिकोण प्रस्तुत किया। इस दृष्टिकोण के अन्तर्गत प्रबन्धक वास्तव में क्या करते हैं, इस बात का अवलोकन किया जाता है एवं उक्त अवलोकनों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जाता है कि प्रबन्धकों की क्रिया या प्रबन्धकीय भूमिकाएँ क्या-क्या हैं? प्रोफेसर मिंजबर्ग ने भिन्न-भिन्न संगठनों के पाँच मख्य कार्यकारी अधिकारियों (Chief executives) को अध्ययन के लिए चुनकर उनके द्वारा वास्तव में दिन-प्रतिदिन किए जाने वाले कार्यों का गहनता से अवलोकन किया और उक्त अवलोकनों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला कि “वास्तव में प्रबन्धक परम्परागत प्रबन्धकीय कार्यों-नियोजन, संगठन, निर्देशन, समन्वय, नियन्त्रण आदि को करने के स्थान पर विभिन्न प्रकार की क्रियाओं में व्यस्त रहते हैं।” (Managers do not act out the classical classification of managerial functions. Instead they engage in a variety of other activities मिंजबर्ग ने प्रबन्धकों के परम्परागत कार्यों को ‘लोक-रीति’ (Folklore) पर आधारित वर्गीकृत कार्य बताया है।

मिंजबर्ग ने प्रबन्धकों के कार्यों के बारे में निम्न निष्कर्ष बताये हैं

1 प्रबन्धक कार्य के दौरान विभिन्न प्रकार की क्रियाएँ (Activities) सम्पन्न करते हैं। इन्हें मिंजबर्ग ने ‘भूमिकायें’ (Roles) कहा है। उनके अनुसार ‘भूमिका’ से आशय ‘व्यवहारों के संगठित समूहों’ (Organised set of behaviours) से है।

2. प्रबन्धक की भूमिकायें ऐसे साधन (Means) हैं जिनके द्वारा नियोजन, संगठन, नियन्त्रण आदि कार्यों को सम्पन्न किया जाता है। ये भूमिकायें-कर्त्तव्यों, कामों (Tasks), दायित्वों, कायभार। (Assignments) आदि के संप में होती हैं जो प्रबन्धकों के कार्यों (नियोजन, संगठन, नियन्त्रण आदि) के निष्पादन में सहायक होती हैं। ।

3. मिजबर्ग के अनुसार कार्यात्मक दृष्टिकोण (Functional Approach) एवं क्रिया या भूमिका दृष्टिकोण (Activities or Role Approach) में कोई टकराव नहीं है, वरन् ये दोनों दृष्टिकोण परस्पर सहायक एवं एक दूसरे के पूरक हैं।

4. मिजबर्ग का विचार है कि समस्त प्रबन्धकों को अपनी संगठनात्मक इकाई में प्राप्त आपचारिक सत्ता एवं पद के कारण ही उनके अपने अधीनस्थों, समान पद वाले प्रबन्धकों आदि के साथ अन्तवैयक्तिक सम्बन्ध बनते हैं तथा इन्हीं सम्बन्धों के फलस्वरूप उन्हें विभिन्न भूमिकाओं (Roles) का निर्वाह करना पड़ता है।

मिजबर्ग के अनुसार प्रबन्धक दस भूमिकाओं का निर्वाह करते हैं जिन्हें निम्नलिखित तीन श्रेणियों में बाँटा जा सकता है

(अ) अन्तर्वैयक्तिक भूमिकाएँ,

(ब) सूचनात्मक भूमिकाएँ, एवं

(स) निर्णयात्मक भूमिकाएँ।

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() अन्तर्वैयक्तिक भूमिकाएँ (Interpersonal Roles)

अपनी औपचारिक सत्ता, पद एवं स्थिति के कारण प्रबन्धक अन्तर्वैयक्तिक भूमिकाओं का निर्वाह करते हैं। इन भूमिकाओं में मुख्य रूप से निम्नलिखित को शामिल किया गया है

1 सर्वोच्च अधिकारी की भूमिका (Role of Figurehead)-इस भूमिका में अपनी संस्था का मुखिया या अध्यक्ष होने के नाते प्रबन्धक वैधानिक प्रपत्रों पर हस्ताक्षर करते हैं, सामाजिक गतिविधियों में भाग लेते हैं तथा समारोह आदि की अध्यक्षता करते हैं।

2. नेतृत्व भूमिका (Role of Leader)–नेता की भूमिका में प्रबन्धक अपने अधीनस्थों को संस्था/उपक्रम के लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए अभिप्रेरित करते हैं। वे अपनी सत्ता, समन्वय तकनीकों एवं अभिप्रेरण उपायों के द्वारा व्यक्तियों की आवश्यकताओं तथा संगठन के लक्ष्यों में एकीकरण स्थापित करते हैं।

3. सम्पर्क अधिकारी की भूमिका (Role of Liaison Officer)-प्रबन्धक अपने संगठन एवं बाह्य पक्षों तथा विभिन्न विभागों व संगठनात्मक इकाइयों के मध्य सम्पर्क सूत्र की भूमिका का भी निर्वाह करते हैं। यह भूमिका सूचनाओं के आदान-प्रदान एवं समन्वय के दृष्टिकोण से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।

() सूचनात्मक भूमिकाएँ (Informative Roles)

सूचनात्मक भूमिकाओं के अन्तर्गत प्रबन्धक विभिन्न सूचनाओं, तथ्यों एवं ज्ञान का संकलन तथा प्रसारण करते हैं। इस प्रकार प्रबन्धक संगठन के ‘स्नायु केन्द्र’ (Nerve Centre) माने जाते हैं। सूचनात्मक भूमिकाओं में निम्नलिखित भूमिकाओं को शामिल किया गया है

1. प्रबोधक की भूमिका (Role of Monitor)-प्रबन्धक को नियोजन, निर्णयन व अन्य प्रबन्धकीय कार्यों के लिए विभिन्न सूचनाओं की आवश्यकता होती है। अतः वह अपने संगठन एवं इसके वातावरण के बारे में विभिन्न ज्ञात स्रोतों से सूचना सामग्री एकत्रित करता है। वह अपने अधिकारियों, अधीनस्थों, सह-प्रबन्धकों तथा अन्य सम्पर्क सूत्रों के माध्यम से जानकारी प्राप्त करता।

2. प्रसारक की भूमिका (Role of Disseminator)-प्रबन्धक इस भूमिका में एकत्रित सूचनाओं को अपने अधीनस्थों व सम्बन्धित इकाइयों को वितरित एवं प्रसारित करता है।

3. प्रवक्ता की भूमिका (Role of Spokesperson)-प्रवक्ता की भूमिका में प्रबन्धक अपने संगठन की योजनाओं, नीतियों, कार्यक्रमों के बारे में बाह्य समूहों-ग्राहकों, सरकार, समदाय । संस्थाओं आदि को विभिन्न प्रकार की सूचनायें प्रेषित करता है।

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() निर्णयात्मक भूमिकाएँ (Decisional Roles)

निर्णयात्मक भूमिकाओं के अन्तर्गत प्रबन्धक मख्यतया व्यूहरचना निर्माण (Strategy making) करने का कार्य करते हैं। इन भूमिकाओं को निम्नलिखित चार श्रेणियों में बाँटा जा सकता है

1 उधमी की भूमिका (Role of Entrepreneur)-इस भूमिका में प्रबन्धक अपने संगठन के लिए विभिन्न सम्भावनाओं, अवसरों व खतरों का पता लगाता है एवं उनके अनुरूप वांछित परिवतना व सुधारों को लागू करता है। वह व्यावसायिक वातावरण में होने वाले परिवर्तनों से लाभ उठाने के लिए संगठन में नवप्रवर्तनों को भी लागू करता है।

2. उपद्रव निवारक की भूमिका (Role of Disturbance Handler)-प्रबन्धक अपने सगठन में उत्पन्न होने वाले दिन प्रतिदिन के झगड़ों, उपद्रवों, उत्पात, मनमुटावों, संघर्षों, अशान्तियों को दूर करता है। वह हड़तालों, अनुबन्ध खण्डन, कच्चे माल की कमी, कर्मचारियों की शिकायतों व कठिनाइयों पर विचार कर उन्हें दूर करता है।

3. संसाधन आबण्टक की भूमिका (Role f Resource Allocator)-संसाधन आबण्टक की भूमिका के रूप में प्रबन्धक अधीनस्थों के समय, तकनीकों, संसाधनों, कार्यों आदि के बारे में कार्यक्रम बनाता है। वित्त, कच्चे माल, यन्त्र, अन्य आपूर्ति आदि के बारे में निर्णय लेता है। विभिन्न विभागों की संसाधन-प्राथमिकतायें निश्चित करता है। बजट आदि तैयार करता है। संक्षेप में, इस भूमिका में प्रबन्धक संगठन के संसाधनों को क्यों, कब, कैसे, किसके लिए खर्च करने सम्बन्धी निर्णय लेता है।

4. वार्ताकार (Negotiator) की भूमिका-प्रबन्धक विभिन्न दशाओं में विभिन्न समूहों जैसे श्रम संघ, पूर्तिकर्ता, ग्राहक, सरकार व अन्य एजेन्सियों के साथ समझौतों सम्बन्धी वार्ताएँ करके संस्था/उपक्रम को लाभान्वित करता है। इसके अलावा विवादों की दशा में उन्हें हल करने के लिए मध्यस्थ की भूमिका का निर्वाह भी करता है। ___

आलोचना (Criticism)-प्रोफेसर मिंजबर्ग द्वारा प्रतिपादित ‘प्रबन्धकीय भूमिकाएँ’ दृष्टिकोण की निम्नलिखित आधारों पर आलोचना की जाती है

1 अध्ययन के लिए मात्र पाँच मुख्य कार्यकारी अधिकारियों का प्रतिचयन सही निष्कर्ष प्राप्त करने के लिए उपयुक्त नहीं माना जा सकता।

2. प्रबन्धकों द्वारा किये जाने वाले सभी कार्य मात्र प्रबन्धकीय कार्य नहीं हो सकते।

3. मिंजबर्ग ने कुछ कार्यों का नया नामकरण कर उन्हें परम्परागत प्रबन्धकीय कार्यों में शामिल नहीं किया है जो गलत है; जैसे संसाधन आबण्टक का कार्य नियोजन का ही एक भाग है, अन्तर्वैयक्तिक भूमिकाएँ नेतृत्व का ही एक भाग हैं।

4. मिंजबर्ग द्वारा प्रतिपादित प्रबन्धकीय भूमिकाएँ समस्त प्रबन्धकीय कार्यों को सम्मिलित नहीं __ करतीं, अत: इन्हें पूर्ण नहीं माना जा सकता।

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प्रबन्धकीय कार्यात्मक दृष्टिकोण (FUNCTIONAL APPROACH)

एवं प्रबन्धकीय भूमिकाएँ दोनों दृष्टिकोणों का तुलनात्मक अध्ययन

अनेक प्रबन्ध विचारक प्रबन्ध के ‘क्रिया अथवा भूमिका-अभिमुखी दृष्टिकोण’ (Work Activity or Role Concept) से पूर्णत: सहमत नहीं हैं। प्रबन्ध विचारक पीटर ड्रकर प्रबन्ध क्रियाओं में नियोजन, संगठन, निर्देशन तथा नियन्त्रण को ही शामिल करते हैं। वे मिंजबर्ग द्वारा वर्णित प्रबन्धकीय भूमिकाओं को प्रबन्धकों की सम्पूर्ण क्रियाओं के समूह का गैर-प्रबन्धकीय (Non-managerial) भाग मानते हैं। उनका विचार है कि “प्रत्येक प्रबन्धक अनेक ऐसे कार्य करता है जो प्रबन्धन नहीं होता, यद्यपि वह उन पर अपना अधिकांश समय व्यतीत कर सकता

1 (Every manager does many things that are not managing. He may spend most of his time on them)। इसके विपरीत प्रो० मिंजबर्ग का विचार है कि कार्यात्मक दृष्टिकोण यह नहीं बताता है कि वास्तव में प्रबन्धक करते क्या हैं (What managers actualy do?) तथा जब तक हम यह नहीं जानते कि प्रबन्धक करते क्या हैं (क्रिया दष्टिकोण), हम प्रबन्ध के ज्ञान एवं व्यवहार में कोई सुधार नहीं कर पायेंगे।

वास्तव में, मिंजबर्ग इन दोनों दृष्टिकोण में कोई टकराव नहीं मानते हैं, वरन् दोनों को एक दूसरे का पूरक बताते हैं। यह टकराव तो प्रबन्ध के कार्यों (Functions or Processes), रूप म देखने के कारण उत्पन्न होता है। खण्ड-दृष्टि के कारण यह मतभेद दिखाई देता हैं ।

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प्रबन्ध के क्रियात्मक क्षेत्र

(FUNCTIONAL AREAS OF MANAGEMENT)

प्राचीनकाल में उत्पादन छोटे पैमाने पर किया जाता था तथा उत्पादन प्रणाली भी अत्यन्त सरल था। उद्योग का स्वामी ही स्वयं प्रबन्धक भी होता था. अत: विशिष्ट प्रबन्ध की अलग से आवश्यकता न था, किन्तु धीरे-धीरे उत्पादन का कार्य बडे पैमाने पर किया जाने लगा, इकाइयों के आकार में वृद्धि हान लगी तथा श्रम संघों का प्रभाव बढ़ने लगा. व्यवसाय में कम्पनी संगठन प्रारूप का उदय हान के कारण स्वामी एवं प्रबन्ध अलग-अलग हो गये। इन जटिलताओं को सुलझाने के लिए ऐसे प्रबन्ध विशेषज्ञों की आवश्यकता अनभव की जाने लगी जो विशाल श्रम-शक्ति एवं उत्पत्ति के अन्य साधनों में समन्वय स्थापित करके उनका अनकलतम उपयोग कर सकें तथा उपक्रम में प्रशासन द्वारा निर्धारित नीतियों को क्रियान्वित कर सकें।

आज हम देखते हैं कि प्रबन्धकों की कार्यक्षमता एवं कुशलता में वृद्धि करने के लिए प्रबन्ध में। विशिष्टीकरण को अपना लिया गया है। यही कारण है कि आजकल वित्तीय प्रबन्धक, विक्रय प्रबन्धक, सेविवर्गीय प्रबन्धक, उत्पादन प्रबन्धक, कार्यालय प्रबन्धक, विज्ञापन विशेषज्ञ, आदि अलग-अलग अधिकारियों की नियुक्ति की जाती है। यही प्रबन्ध के क्रियात्मक क्षेत्र हैं।

व्यवसाय के आकार एवं प्रकृति के अनुसार कुशल प्रबन्ध हेत उपक्रम की क्रियाओं को ए जितने भागों में बाँटा जा सकता है उसे ही प्रबन्ध का क्रियात्मक क्षेत्र कहते हैं।

प्रबन्ध का उपयोग न केवल व्यावसायिक एवं औद्योगिक उपक्रमों में ही किया जाता है, वरन् स् गैर व्यावसायिक संगठनों में भी समान रूप से किया जाता है। इसलिए प्रबन्ध के क्रियात्मक क्षेत्र का अध्ययन व्यावसायिक संगठनों एवं गैर व्यावसायिक संगठनों के सन्दर्भ में अलग-अलग करना अधिक उपयुक्त होगा।

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(I) व्यावसायिक प्रबन्ध के क्षेत्र

(SCOPE OR FUNCTIONAL AREAS OF BUSINESS MANAGEMENT)

व्यावसायिक क्रियाओं में बढ़ते हुए विशिष्टीकरण के फलस्वरूप व्यावसायिक प्रबन्ध के अनेक कार्य क्षेत्रों का विकस हुआ है। जिनका विवेचन निम्नानुसार है

1 उत्पादन प्रबन्ध (Production Management)-उत्पादन प्रबन्ध का अभिप्राय उपक्रम में वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन की सही व्यवस्था से है। उत्पादन प्रबन्ध का उद्देश्य उपक्रम के उत्पादन कार्यक्रम को इस प्रकार नियोजित, संगठित. समन्वित तथा नियन्त्रित करना है कि वह सही वस्तु का सही समय एवं न्यूनतम लागत पर वांछित मात्रा में उत्पादन कर सके। इसके अन्तर्गत उत्पादन नियोजन व नियन्त्रण, कार्य-विश्लेषण, किस्म नियन्त्रण एवं निरीक्षण आदि को शामिल किया जाता है।

2. वित्तीय प्रबन्ध (Financial Management)-वित्त व्यवसाय का आधार होता है। वित्तीय प्रबन्ध व्यावसायिक प्रबन्ध का एक प्रमुख अंग है। यदि यह कहा जाये कि यह प्रबन्ध का सबसे महत्वपूर्ण अंग है तो उचित ही होगा, क्योंकि आदि से अन्त तक व्यवसाय के संगठन और संचालन में वित्त का महत्व सर्वोपरि होता है। वित्तीय प्रबन्ध व्यावसायिक प्रबन्ध का एक ऐसा क्षेत्र है, जिसमें पँजी का विवेकपर्ण प्रयोग करना और सावधानीपूर्वक पूंजी के साधनों का इस प्रकार चुनाव करना। सम्मिलित है जिससे कि व्यावसायिक संस्था अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने में समर्थ हो सके। इसमें । वित्तीय नियोजन, वित्तीय नियन्त्रण, पूँजी लागत, आय का प्रबन्ध आदि शामिल किया जाता है।

3. मानव संसाधन प्रबन्ध (Human Resource Management)-यह प्रबन्ध का सबसे । महत्वपूर्ण अंग है। इसे आजकल अनेक नामों से पुकारा जाता है; जैसे-सेविवर्गीय प्रबन्ध प्रबन्ध प्रक्रिया, प्रबन्धकीय भूमिकाएँ एवं प्रबन्ध के क्रियात्मक क्षेत्र (Manpower Management). मानव संसाधन विकास (Personnel Management), जनशक्ति प्रबन्ध (Manpower Management), म (Human Resource Development), औद्योगिक सम्बन्ध (Industrial Relations) आर विजान का बाध कराता ह जिसमें मानवीय सम्पत्ति अर्थात कर्मचारी के प्रयोग का समाचत अध्ययन किया जाता है। मानव संसाधन प्रबन्ध से आशय प्रबन्ध के उस क्षेत्र से है जो सेविवगीय नातिया, कार्यक्रमों, पद्धतियों, कर्मचारियों के चयन, प्रशिक्षण व विकास, वेतन एवं मजदूरी प्रशासन, काय परिचय, पदोन्नति, पद-अवनति, स्थानान्तरण, निष्पादन मूल्यांकन, अभिप्रेरण, मनोबल, श्रम कल्याण, सामाजिक सुरक्षा, श्रम परिवेदना, अनुशासन, सामहिक सौदेबाजी आदि क्रियाओं से जुड़ा है। आधुनिक प्रतिष्ठानों में मानव संसाधन प्रबन्ध संगठन की सबसे संवेदनशील समस्या है। ।

4. कार्यालय प्रबन्ध (Office Management)-कार्यालय प्रबन्ध से तात्पर्य कार्यालय के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए कार्यालय के कार्यों के नियोजन, संगठन, निर्देशन, संदेशवाहन एवं नियंत्रण सम्बन्धी प्रयासों से है। हैरी एल० वाइली के अनुसार, “कार्यालय प्रबन्ध से आशय कर्मचारियों, सामग्री, पद्धतियों तथा मशीनों का कुशल नियोजन एवं नियंत्रण इस प्रकार करने से है जिससे सर्वोत्तम परिणाम प्राप्त किये जा सकें।” कार्यालय प्रबन्ध के अन्तर्गत कार्यालय का स्थान, विन्यास व वातावरण, पत्र-व्यवहार, टंकण, बहुप्रतिलिपीकरण, फार्म एवं स्टेशनरी, फाइलिंग व रिकार्ड, अनुक्रमणिका, मापन एवं नियंत्रण, मशीनें व फर्नीचर, कार्यालय रिपोर्ट व आंकड़ों आदि को सम्मिलित किया जाता है। कम्प्यूटर की खोज एवं जनप्रियता ने कागज-विहीन कार्यालय की नई अवधारणा प्रस्तुत की है जिससे कार्यालय प्रबन्ध में परिष्कार सम्भव हुआ है। प्रबन्ध की सफलता काफी हद तक दफ्तरों के कुशल संचालन पर निर्भर कर रही है।

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5. विपणन प्रबन्ध (Marketing Management)-विपणन प्रबन्ध सामान्य प्रबन्ध की वह शाखा है जिसमें विपणन विचार को क्रियात्मक रूप दिया जाता है। इसमें ग्राहकों की आवश्यकताओं का पता लगाया जाता है और फिर उत्पादन सम्बन्धी क्रियाएँ भी उन्हीं आवश्यकताओं के अनुरूप समायोजित की जाती हैं। विपणन कार्यक्रम में वस्तु, मूल्य, विज्ञापन, विक्रय-सम्वर्द्धन, वितरण आदि

के निर्णय लिए जाते हैं। विपणन प्रबन्ध के अन्तर्गत वस्तु नियोजन व विकास, विक्रय, क्रय, परिवहन, | संग्रह, वित्त, जोखिम वहन, बाजार सूचना, प्रमाणीकरण व श्रेणीकरण आदि को शामिल किया जाता

6. परिवहन प्रबन्ध (Transport/Logistics Management)-प्रबन्ध की इस शाखा के अन्तर्गत कच्चे माल व निर्मित माल के आवागमन हेतु वाहनों की, माल लदान एवं माल निर्धारण आदि की क्रियाओं के व्यवस्थापन को सम्मिलित किया जाता है।।

7. विदेश व्यापार प्रबन्ध (Foreign Trade Management)-प्रबन्ध की इस शाखा के | अन्तर्गत आयात एवं निर्यात एवं इनसे सम्बन्धित क्रियाओं का प्रबन्ध सम्मिलित किया जाता है; जैसे—विदेशी बाजारों का अध्ययन, आयात एवं निर्यात के लिये राष्ट्रों एवं उपक्रमों का चयन, आयात व निर्यात शर्तों का निर्धारण आदि।

8. संवेष्ठन प्रबन्ध (Packaging Management)-संवेष्ठन आकार, संवेष्ठन, सामग्री, | संवेष्ठन की विधियों के निर्धारण आदि का प्रबन्ध संवेष्ठन प्रबन्ध कहलाता है। संवेष्ठन लागत एवं | संवेष्ठन के विक्रय पर बढ़ते हुए प्रभाव को देखते हुए संवेष्ठन प्रबन्ध का अत्यन्त तीव्रता से विकास हो रहा है।

9. अनुरक्षण प्रबन्ध (Maintenance Management)-व्यावसायिक उपक्रम के संयन्त्रों, उपकरणों एवं अन्य सामग्रियों की मरम्मत एवं रख-रखाव आदि का प्रबन्ध भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है। अनेक उपक्रमों में इस कार्य के लिए अनुरक्षण विभाग की पृथक् स्थापना की जाती है।

10. सामग्री प्रबन्ध (Material Management)-व्यावसायिक उपक्रम में प्रयुक्त होने वाली विविध सामग्रियों (कच्चा माल, अर्द्धनिर्मित माल, उपकरण एवं निर्मित माल आदि) की वांछित आपूर्ति, संग्रहण, भण्डारण एवं नियन्त्रण अत्यन्त महत्वपूर्ण है। निर्बाध उत्पादन एवं मितव्ययिता की दृष्टि से कुशल सामग्री प्रबन्ध भी अति महत्वपूर्ण होता है।

व्यवसाय के आकार एवं प्रकृति के अनुसार किसी व्यवसाय में प्रबन्धकीय क्रियाओं का क्षेत्र उपरोक्त वर्णित वर्गों से कम या अधिक हो सकता है।

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(II) गैर व्यावसायिक प्रबन्ध के क्षेत्र

(SCOPE OR FUNCTIONAL AREAS OF NON-BUSINESS OR NON-COMMERCIAL MANAGEMENT)

1 शिक्षा प्रबन्ध (Educational Management)-शिक्षण संस्थाओं तथा विद्यालयों, महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में अध्यापन, अध्यापन में प्रयुक्त साधनों, वित्तीय क्रियाओं एवं लेखाकर्म क्रियाओं का उचित प्रबन्ध इन संस्थानों के कुशल संचालन के लिए उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि किसी भी व्यावसायिक उपक्रम के लिए।

2. चिकित्सा प्रबन्ध (Medical Management)-चिकित्सालयों में निदान सेवाओं, निदान संयन्त्रों, औषधियों एवं प्रयुक्त भवनों के उचित प्रबन्ध के बिना जनचिकित्सा कार्यों का संचालन संभव ही नहीं है। इसलिए चिकित्सा प्रबन्ध भी प्रबन्ध की एक महत्वपूर्ण शाखा है।

3. पर्यटन प्रबन्ध (Tourism Management)-पर्यटकों की आवक का पुर्वानुमान, तदनुरूप उनके लिए यातायात एवं आवास की व्यवस्था करना, उनके लिये भ्रमण एवं मनोरंजन केन्द्रों का विकास करना आदि कार्यों में भी आधुनिक प्रबन्ध के सिद्धान्तों एवं तकनीकों का उपयोग करना अनिवार्य है, जिससे देश में पर्यटन उद्योग को प्रोत्साहन मिल सके। इस प्रकार पर्यटन गतिविधियों के सुचारु संचालन एवं पर्यटन को प्रोत्साहन देने के लिये प्रबन्धकीय ज्ञान अत्यन्त महत्वपूर्ण है।

4. प्रतिरक्षा प्रबन्ध (Defence Management)-आयुध उत्पादन एवं सशस्त्र सेनाओं के सुचारु संचालन कार्यों में भी प्रबन्ध अत्यन्त महत्वपूर्ण है एवं प्रतिरक्षा प्रबन्ध भी प्रबन्ध की एक शाखा के रूप में विकसित हो रहा है।

5. पर्यावरण प्रबन्ध (Environment Management)-प्रदूषण की रोकथाम, प्रकृति संतुलन के लिये उचित कदम उठाने एवं पर्यावरण विकास की विविध योजनाओं का व्यवस्थापन करने के लिए भी प्रबन्धकीय ज्ञान का उपयोग किया जाता है। इसलिए पर्यावरण प्रबन्ध भी आधुनिक प्रबन्ध की एक शाखा मानी जाती है।

6. आर्थिक प्रबन्ध (Economic Management)-राष्ट्र के भौतिक एवं मानवीय संसाधनों का आंकलन, इनके अनुकूलतम उपयोग के लिए उचित आर्थिक योजनाओं का निर्माण एवं उनका क्रियान्वयन एक अत्यन्त जटिल प्रक्रिया है एवं आधुनिक प्रबन्धकीय ज्ञान का उपयोग इसमें अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इसलिये आर्थिक प्रबन्ध अर्थात् अर्थव्यवस्था का प्रबन्ध भी आधुनिक प्रबन्ध की एक शाखा मानी जा सकती है।

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7. जनउपयोगिताओं का प्रबन्ध (Management of Public Utilities)-जन-सामान्य के काम आने वाली अति आवश्यक सुविधाएँ; जैसे—पेयजल आपूर्ति, विद्यत आपति स आपूर्ति, सार्वजनिक यातायात, संदेशवाहन के साधनों आदि का प्रबन्ध भी अत्यन्त जटिल है एवं इन सुविधाओं का प्रबन्ध भी आधुनिक प्रबन्ध की एक विशिष्ट शाखा है।

8. प्रौद्योगिकी प्रबन्ध (Technology Management)-राष्ट्र में उचित प्रौद्योगिकी का विकास करना एवं उसका श्रेष्ठतम उपयोग करना भी एक चुनौती पूर्ण कार्य है, जिसमें आधुनिक प्रबन्ध का यथेष्ट उपयोग होता है। इसलिये प्रौद्योगिकी प्रबन्ध भी आधुनिक प्रबन्ध की एक शाखा है।

9. नागरिक प्रशासन का प्रबन्ध (Management of Civil Administration)-कानून एवं व्यवस्था बनाये रखने तथा सरकार के अन्य प्रशासनिक कार्यों के सम्पादन में भी प्रबन्धकीय कार्यों एवं विधियों का उपयोग होता है। अतएव यह भी प्रबन्ध की एक शाखा मानी जाती है। इन कार्यों में प्रशिक्षण के लिए सरकार ने केन्द्रीय व प्रान्तीय स्तर पर कई संस्थाएँ भी गठित कर रखी हैं जो प्रशासनिक अधिकारियों एवं अधीनस्थ कर्मचारियों को प्रशिक्षित करती हैं।

10 न्याय प्रबन्ध (Justice Management)-विभिन्न स्तरों पर गठित न्यायालयों की उचित व्यवस्था भी एक जटिल एवं दायित्वपूर्ण कार्य है। इन न्यायालयों के प्रबन्ध को भी प्रबन्ध की का पृथक् शाखा के रूप में मान्यता दी जा सकती है।।

प्रबन्ध प्रक्रिया, प्रबन्धकीय भूमिकाएँ एवं प्रबन्ध के क्रियात्मक क्षेत्र

(III) प्रबन्ध के नवीन एवं विकासशील क्षेत्र

(NEW AND DEVELOPING AREAS OF MANAGEMENT)

आधुनिक जीवन में बढ़ती हई जटिलताओं के साथ कछ अन्य प्रबन्धकीय क्षेत्रों का भा विकास हो रहा है। वर्तमान प्रतिस्पर्धा के युग में सफलता अर्जित करने की दृष्टि से प्रबन्ध के इन नवीन एव विकासशील क्षेत्रों का महत्त्व निरन्तर बढ़ रहा है। इन क्षेत्रों का संक्षिप्त विवेचन निम्नानुसार ह

1 समय प्रबन्ध (Time Managementm-आधनिक समय में प्रबन्धकों एवं कर्मचारिया समय का अनुकूलतम उपयोग करने की दृष्टि से समय प्रबन्ध, प्रबन्ध की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण शाखा बनती जा रही है।

2 परिवर्तनों का प्रबन्ध (Management of Chanee)-आर्थिक, राजनैतिक, तकनीकी एव सामाजिक परिवर्तन इतने तीव्र एवं व्यापक हैं कि प्रत्येक उपक्रम को अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए इन परिवर्तनों से निरन्तर सामंजस्य बनाये रखना अनिवार्य होता है। बाह्य परिवर्तनों से उपक्रम के अनुकूलन की यह प्रक्रिया ही “परिवर्तन के प्रबन्ध” के नाम से जानी जाती है एवं प्रबन्ध की आधुनिकतम शाखाओं में से एक है।

इसके अतिरिक्त प्रबन्ध के और भी कई क्षेत्र हैं जो निम्नलिखित हैं

3. संघर्षों या द्वन्द्वों का प्रबन्ध,

4. जन सम्पर्क प्रबन्ध,

5. कम्प्यूटर प्रबन्ध।

परीक्षा हेतु सम्भावित महत्त्वपूर्ण प्रश्न

(Expected Important Questions for Examination)

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

(Long Answer Questions)

प्रश्न 1. प्रबन्ध प्रक्रिया के विभिन्न चरणों को स्पष्ट कीजिये तथा इस प्रक्रिया से सम्बन्धित अन्य कार्यों को भी समझाइये।

Explain the various steps in the process of management and also explain the other related functions of the management process.

प्रश्न 2. प्रबन्ध के प्रमुख कार्यों का वर्णन कीजिये तथा इनके सापेक्षिक महत्त्व को स्पष्ट कीजिये।

Describe the main functions of management and explain their comparative importance.

प्रश्न 3. प्रबन्धकों द्वारा संस्था में निर्वाह की जाने वाली भूमिकाओं की विवेचना कीजिये।

Discuss the roles that managers play in an organization.

प्रश्न 4. मिण्टिजबर्ग के अनुसार प्रबन्धकीय भूमिकाओं से क्या आशय है ? प्रबन्धकीय भूमिकाओं की श्रेणियों का वर्णन कीजिये।

What is meant by managerial roles according to mintzberg ? Describe the categories of managerial roles.

प्रश्न 5. प्रबन्ध के क्रियात्मक क्षेत्रों का वर्णन कीजिये।

Describe the functional areas of management.

प्रश्न 6. “प्रबन्ध की सम्पूर्ण क्रिया व्यवस्थापन, आयोजन, निर्देशन तथा नियन्त्रण से सम्बन्धित है।” इस कथन की विवेचना कीजिये।

The total task of management is a term of organizing. planning, leading and controlling.” Discuss.

लघु उत्तरीय प्रश्न

(Short Answer Questions)

प्रश्न 1. प्रबन्ध प्रक्रिया क्या है?

What is management process ?

प्रश्न 2. प्रबन्धकीय भूमिकाओं से क्या आशय है ?

What is meant by managerial roles ?

प्रश्न 3. प्रबन्धक की अन्तर्व्यक्तिगत भूमिकाओं से क्या आशय है ?

What is meant by interpersonal roles of managers ?

प्रश्न 4. प्रबन्धकों की निर्णयात्मक भमिकाओं को स्पष्ट कीजिये।

Explain the decisional roles of managers.

प्रश्न 5. प्रबन्धकों की सूचनात्मक भूमिकाओं को स्पष्ट कीजिये।

Explain the informational roles of managers.

प्रश्न 6. प्रबन्ध प्रक्रिया के आधारभूत चरण बताइये।

State the basic steps in the managerial process.

वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

1 बताइये कि निम्नलिखित कथन ‘सही हैं’ या ‘गलत’

Indicate whether the following statements are ‘True’ or ‘False’

(i) नियन्त्रण प्रबन्ध का एक सहायक कार्य है।

Control is a subsidiary function of management.

(ii) प्रबन्ध के कार्य तथा क्रियात्मक क्षेत्र दोनों समान हैं।

Functions of management and functional approach both are synonymous.

(iii) प्रबन्धकीय भूमिकाएँ केवल सैद्धान्तिक हैं, व्यावहारिक नहीं।

Managerial roles are purely theoretical and not practical.

(iv) मिंजबर्ग ने प्रबन्धक की भूमिकाओं को तीन श्रेणियों में बॉटा है।

Mintzberg has divided the roles of managers in three categories.

उत्तर-(i) गलत (i) गलत (iii) गलत (iv) सही

2. सही उत्तर चुनिये (Select the Correct Answer)

(i) प्रशासनिक प्रबन्ध का कार्य है

The function of Administrative Management is :

(अ) नीतियों का निर्धारण (Setting the policies)

(ब) नियोजन (Planning)

(स) कार्य के प्रमापों का निर्धारण (Setting the standard of work)

(द) उपरोक्त सभी (All of the above)

(ii) प्रमाप लागत का सम्बन्ध है

Standard costing is related to:

(अ) नियोजन (Planning)

(ब) संगठन (Organizing)

(स) नियन्त्रण (Controlling)

(द) इनमें से कोई नहीं (None of the above)

(iii) मिंजबर्ग के अनुसार प्रबन्धकीय भूमिकाएँ हैं

According to Mintzberg managerial roles are :

(अ) 3 (ब) 4 (स) 6 (द) 8

(iv) नव-प्रवर्तन प्रबन्ध का एक ……………….. कार्य है।

Innovation is ………………… function of management.

(अ) आवश्यक (Compulsory)

(ब) सहायक (Subsidiary)

(ब) ऐच्छिक (Voluntary)

(द) इनमें से कोई नहीं (None of the above)

उत्तर-(i) (अ) (ii) (स) (iii) (अ) (iv) (ब)

Process Role Area managerial

chetansati

Admin

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