BCom 3rd Year Financial Management Capital Structure Study Material Notes In Hindi

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 BCom 3rd Year Financial Management Capital Structure Study Material Notes In Hindi

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BCom 3rd Year Financial Management Capital Structure Study Material Notes In Hindi: Meaning and Distinction of Capital Structure Distinction Between Capital Structure and Financial Structure Optimum Capital Structure Probable Market Price Per Share Determination of Indifference Point Trading of Equity Capital Gearing  Types of Capital Gearing Numerical illustration Related Capital Gearing

Capital Structure Study Material
Capital Structure Study Material

BCom 1st Year Finnaical accounting notes in Hindi

पूँजी-संरचना

(CAPITAL STRUCTURE)

पूँजी-संरचना का अर्थ एवं परिभाषा

(Meaning and Definition of Capital Structure)

पूँजी-संरचना को पूँजी-ढांचा, पूँजी का स्वरूप या पूँजी-कलेवर, आदि शब्दावली द्वारा भी सम्बोधित किया जाता है। पूँजी-संरचना, वित्तीय योजना का एक महत्त्वपूर्ण अंग है । पूँजीकरण की राशि निर्धारित कर लेने के उपरान्त वित्तीय प्रबन्धक को पूँजीकरण की रचना के सम्बन्ध में आवश्यक निर्णय लेना पड़ता है। यह निर्णय लेना ही पूँजी-संरचना का निर्धारण कहलाता है।

पूँजीकरण के लिए निर्धारित राशि को संग्रह करने के लिए कौन-कौन सी विभिन्न प्रतिभूतियों (अंशों, ऋणपत्रों, दीर्घकालीन ऋणों, बॉण्डों, आदि) को निर्गमित करना होगा एवं इन विभिन्न प्रतिभूतियों के पारस्परिक अनपात को निर्धारित करना ही पँजी-संरचना के अन्तर्गत आता है। सरल शब्दों में पँजी-सरचना का आशय यह निश्चित करना है कि कुल आवश्यक पूँजी का कितना भाग अंशों के द्वारा संग्रहीत किया जाय और कितना भाग ऋणपत्रों से । अंश-पूँजी में भी कितना भाग पूर्वाधिकार अंशों का हो और कितना भाग समता अंशों का।

पूँजीकरण की राशि संग्रह करने के लिए जिन प्रतिभूतियों का निर्गमन किया जाता है, उनमें प्रत्येक प्रतिभूति के अपने-अपने गुण-दोष होते हैं । अतः पूँजी-संरचना का स्वरूप निर्धारित करते समय विभिन्न प्रतिभूतियों का विभिन्न दृष्टिकोणों से मूल्यांकन करना उचित रहता है।

पूँजी-संरचना के सम्बन्ध में मुख्य परिभाषाएं निम्नलिखित हैं

रॉबर्ट वैसेल के अनुसार, “पूँजी संरचना शब्द का प्रयोग किसी व्यावासायिक उपक्रम में प्रयुक्त कोषों के दीर्घकालीन स्रोतों से होता है।”1

आई. एम. पाण्डे के अनुसार, “पूँजी-संरचना का आशय दीर्घकालीन वित्तीय साधनों, जैसे, ऋणपत्रों, दीर्घकालीन ऋण, पूर्वाधिकार अंश-पूँजी, समता अंश-पूँजी, आरक्षित राशि, अधिशेषों (धारित आय) के सम्मिश्रण से है।”2

वेस्टन एवं ब्राइघम के अनुसार, पूँजी-संरचना किसी फर्म का स्थायी वित्त-प्रबन्धन होता है जो दीर्घकालीन ऋणों, पूर्वाधिकारी अंशों तथा शुद्ध मूल्य से प्रदर्शित होता है।”

उपर्युक्त परिभाषाओं के अध्ययन से स्पष्ट है कि पूँजी-संरचना का आशय किसी निगम की सम्पूर्ण पूँजी  में पूँजी प्राप्त करने के विभिन्न साधनों के अनुपात को निश्चित करना है।

पूँजीकरण एवं पूँजी-संरचना में अन्तर

(Distinction Between Capitalization and Capital Structure)

कुछ विद्वान पूँजीकरण एवं पूँजी-संरचना को पर्यायवाची मानते हैं, परन्तु दोनों में काफी अन्तर है। पूँजीकरण का अर्थ व्यवसाय के कार्य संचालन के लिए पूँजी की आवश्यकताओं का निर्धारण करना है, जबकि आवश्यक पूँजी को किन प्रतिभूतियों के आधार पर किस अनुपात में जुटाया जायेगा,के निर्धारण को पूँजी-संरचना कहते हैं।

गेस्टनबर्ग ने इन दोनों के भेद को स्पष्ट करते हुए लिखा है, “पूँजीकरण का तात्पर्य पूँजी की मात्रा को निर्धारित करने से है एवं पूँजी-संरचना का आशय पूँजी के स्वरूप या प्रकार को निर्धारित करने से है।

Capitalization comprises a corporation’s ownership capital and its borrowed capital, as represented by its long-term indebtedness. Capital structure refers to that kind of securities that make up the capitalization.                                                                                           Gestenberg.

वास्तविकता यह है कि पूँजी संरचना की आवश्यकता पूँजीकरण निर्धारण के बाद होती है 

पूँजी संरचना एवं वित्तीय संरचना में अन्तर

(Distinction between Capital Structure and Financial Structure)

पूँजी संरचना एवं वित्तीय संरचना भी एक दूसरे से भिन्न हैं। वैस्टन एवं ब्राइघम के अनुसार, “पूँजी संरचना फर्म का स्थायी अर्थप्रबन्धन है जिसका प्रतिनिधित्व दीर्घकालीन ऋणों, पूर्वाधिकारी अंशों तथा शद्ध मूल्य से होता है और वित्तीय संरचना यह व्यक्त करती है कि संस्था ने अपनी सम्पत्तियों की व्यवस्था किस प्रकार से की है। यह आर्थिक चिट्ठे के समस्त दाहिने भाग का योग होता है।”

“Capital structure is the permanent financing of the firm, represented by long-term debt, preferred stock and net worth and financial structure refers to the way the firm’s assets are financed. It is the entire right hand side of the balance sheet.          Weston and Brigham

वास्तव में पूँजी संरचना का अभिप्राय दीर्घकालीन वित्त प्रबन्ध से होता है जबकि वित्तीय संरचना व्यवसाय की सम्पत्तियों के वित्त प्रबन्धन के लिए उपलब्ध कुल वित्त को प्रदर्शित करता है।

पूँजी-संरचना को निर्धारित या प्रभावित करने वाले तत्व

(Factors Affecting or Determining Capital Structure)

चूंकि किसी कम्पनी की भावी सफलता काफी सीमा तक श्रेष्ठ पूँजी-संरचना पर ही निर्भर करती है। अतः पूँजी-संरचना को निर्धारित करते समय उन सभी तत्वों पर भली प्रकार विचार कर लेना चाहिए, जो कम्पनी की पूँजी-संरचना को प्रभावित कर सकते हैं।

सुविधा की दृष्टि से पूँजी-संरचना को प्रभावित करने वाले तत्वों को मुख्यतः दो वर्गों में विभक्त कर अध्ययन किया जा सकता है-(1) आन्तरिक तत्व ; (2) बाह्य तत्व

(1) आन्तरिक तत्व  (Internal Factors)

(1) व्यवसाय की प्रकृति (Nature of business) पूँजी-संरचना को प्रभावित करने वाले तत्वों में व्यवसाय की प्रकृति का महत्त्वपूर्ण स्थान है। ऐसी संस्थाओं, जो निर्माण या उत्पादन कार्य में संलग्न होती हैं. को स्थायी पूँजी की अधिक तथा कार्यशील पूँजी की कम आवश्यकता होती है, अतः ऐसी संस्थाएं ऋणपत्रों तथा दीर्घकालीन एवं मध्यकालीन ऋणों के माध्यम से पूँजी प्राप्त कर सकती हैं। दूसरी ओर ऐसी कम्पनियों, जो सामान्य क्रय-विक्रय का व्यापार कर रही हों,को स्थायी पूँजी कम तथा कार्यशील पूँजी की अधिक आवश्यकता होती है। अत: ऐसी संस्थाएं अपनी पूँजी अल्पकालीन साधनों द्वारा प्राप्त कर सकती हैं। मौसमी प्रकृति के व्यवसाय (जैसे–चीनी उद्योग,ऊनी वस्त्र उद्योग,बर्फ एवं शीतल पेय उद्योग) वाली कम्पनियों में व्यस्त मौसम में अधिक पूँजी की आवश्यकता होती है, जबकि शिथिल मौसम में कम पूँजी की आवश्यकता होती है। अतः मौसमी प्रकृति के उद्योगों में पूँजी-संरचना इस प्रकार की होनी चाहिए कि मौसम के अनुसार पूँजी में आवश्यक समायोजन किया जा सके।

(II) आय की निश्चितता एवं नियमितता (Regularity and Certainty of Income)-आय की निश्चितता एवं नियमितता भी पूँजी-संरचना को काफी सीमा तक प्रभावित करती है। डेविंग ने इस सम्बन्ध में निम्नांकित मार्गदर्शक सिद्धान्तों को सुझाया है

(a) जब संस्था की आय भविष्य में निश्चित एवं नियमित हो तो ऋणपत्र या बॉण्ड निर्गमित करने चाहिये।

(b) जब यह सम्भावना हो कि भविष्य में नियमित आय तो नहीं होगी परन्तु कई वर्षों की औसत आय

इतनी अवश्य हो जायेगी कि पूर्वाधिकार अंशों पर लाभांश देने के बाद भी समता अंशधारियों के

लिए पर्याप्त राशि शेष रह जायेगी तो पूर्वाधिकारी अंशों का निर्गमन किया जाना चाहिए।

(c) जब संस्था की आय के बारे में अनिश्चितता हो तो समता अंशों का निर्गमन किया जाना चाहिए।

(3) व्यापार पर नियन्त्रण की इच्छा (Desire to control the business)-यदि कम्पनी का नियन्त्रण केवल कुछ ही व्यक्तियों के हाथों में केन्द्रित रखना होता है तो कम्पनी के प्रवर्तक, संचालक और उनसे सम्बन्धित और व्यक्ति कम्पनी की समता अंश-पूँजी का अधिकांश भाग स्वयं क्रय कर लेते हैं और शेष भाग अनेक छोटे-छोटे अंशधारियों में बाँट दिया जाता है। बाद में अतिरिक्त वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति पूर्वाधिकार अंशों ऋणपत्रों एवं दीर्घकालीन ऋणों से की जाती है जिन्हें मतदान तथा प्रबन्ध में भाग लेने का अधिकार नहीं। होता ताकि नियन्त्रण समूह विशेष के हाथों में ही बना रहे।

(4) परिचालन अनुपात (Operating ratio)-परिचालन अनुपात बेचे गये माल की लागत एवं परिचालन व्ययों (क्रय या निर्माण से सम्बन्धित व्यय + प्रशासनिक व्यय + विक्रय एवं वितरण व्यय) के योग में शद्ध विक्रय का भाग देकर ज्ञात किया जाता है। जिन व्यवसायों में परिचालन अनुपात अधिक होता है वहाँ ब्याज एवं लाभांश के लिए आय कम बचती है एवं ऐसे व्यवसायों में स्थायी सम्पत्तियों का अनुपात भी कम होगा। अत: ऐसी संस्थाओं को समता अंशों का निर्गमन करना चाहिए जबकि विपरीत दशा में टीर्घकालीन साधनों से वित्त प्राप्त करने की व्यवस्था की जा सकती है।

(5) सम्पत्तियों का स्वरूप (Nature of assets)-सम्पत्तियों के स्वरूप एवं पँजी-संरचना में भी काफी घनिष्ठ सम्बन्ध है। कुछ कम्पनियों में स्थिर सम्पत्तियों का अनुपात अधिक होता है। जैसे-जनोपयोगी एवं भारी निर्माणक कम्पनियों में स्थिर सम्पत्तियों एवं चल सम्पत्तियों का अनुपात 70 : 30 से 80 : 20 तक होता है। अत: ऐसी संस्थाओं में स्थिर सम्पत्तियों का वित्त पोषण पूँजी के दीर्घकालीन साधनों के द्वारा ही होना चाहिए। यही कारण है कि इस प्रकार की संस्थाओं के पूंजी-ढांचे में समता अंशों के साथ-साथ पूर्वाधिकार अंशों एवं ऋणपत्रों को भी पर्याप्त मात्रा में महत्त्व दिया जाता है। इसके विपरीत. व्यापारिक कम्पनियों की परिसम्पत्तियों के ढांचे में चल सम्पत्तियों की प्रधानता होती है। इनका स्थिर सम्पत्ति एवं चल सम्पत्ति का अनुपात 30 : 70 या 20 : 80 ही होता है । इतना ही नहीं, बैकिंग एवं वित्तीय संस्थाओं में तो यह अनुपात 10 : 90 तक देखने को मिलता है। अत: ऐसी संस्थाओं में पूँजी-कलेवर में ऋणपत्रों का अनुपात कम होता है क्योंकि जमानत के रूप में प्रस्तुत करने के लिए ऐसी संस्थाओं के पास पर्याप्त स्थायी सम्पत्ति का अभाव होता है। यही कारण है कि विशिष्ट वित्तीय निगमों द्वारा जो बॉण्ड निर्गमित किये जाते हैं वे प्रायः सरकार द्वारा गारण्टी युक्त होते हैं। अत: व्यापारिक कम्पनियों की संरचना में समता अंशों का अनुपात अधिक होता है।

(6) भावी योजनाएँ (Future plans of the business)-पूँजी-संरचना व्यवसाय के भावी विकास एवं विस्तार की योजनाओं से भी प्रभावित होती है। यही कारण है कि पूँजी-संरचना केवल वर्तमान को ही ध्यान में रखकर नहीं बनायी जाती वरन् भावी विकास योजनाओं को ध्यान में रखते हुए ही पूँजी-संरचना का निर्माण किया जाता है।

(7) प्रबन्धकों की वित्तीय नीतियाँ (Financial policies of management)-पूँजी-संरचना की प्रकृति प्रबन्धकों की वित्तीय नीतियों पर भी निर्भर करती है। कभी-कभी संस्था के प्रवर्तक या संचालक यह कोशिश करते हैं कि न्यूनतम विनियोग के द्वारा व्यवसाय पर अधिकतम नियन्त्रण कर लिया जाये । इस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु जिस वित्तीय नीति का सहारा लिया जाता है उसे समता पर व्यापार कहते हैं। ‘समता पर व्यापार के अन्तर्गत पूँजी-संरचना में समता अंश-पूँजी सीमित मात्रा में होती है एवं शेष पूँजी की व्यवस्था दीर्घकालीन ऋणों द्वारा की जाती है।

(8) पूँजी की लागत (Cost of capital)-पूँजी-संरचना का निर्धारण करते समय पूँजी की लागत पर विचार करना भी नितान्त आवश्यक है। पूँजी के सभी साधनों की लागत समान नहीं होती,अतः पूँजी-संरचना इस प्रकार होनी चाहिए कि पूँजी के विभिन्न साधनों की औसत लागत न्यूनतम हो।

(II) बाह्य तत्व (External Factors)

(1) पूँजी-निर्गमन की लागत (Cost of capital issue)-पूँजी निर्गमन की लागत भी पूँजी-संरचना को काफी सीमा तक प्रभावित करती है। पूँजी-निर्गमन के लिए दलालों एवं मध्यस्थों तथा अभिगोपकों को कमीशन देना होता है। इसके अतिरिक्त प्रायः ऋणपत्रों एवं बॉण्डों का निर्गमन बट्टे पर किया जाता है। अतः पूजी-संरचना के निर्माण में ऐसी प्रतिभूतियों के निर्गमन को प्राथमिकता दी जाती है जिनके निर्गमन की लागत अपेक्षाकृत कम हो।

(2) विनियोक्ताओं की रुचि एवं प्रकार (Nature and kind of investors)-पूँजी-संरचना विनियोक्ताओं की रुचि से भी प्रभावित होती है। सभी विनियोक्ताओं की रुचि एक-समान नहीं होती। कुछ विनियोक्ताओं के पास विनियोग के लिए अधिक पूँजी होती है जबकि कुछ के पास धन की कमी होती है। इसी प्रकार कुछ विनियोक्ता साहसी होते हैं एवं जोखिम उठाने को तत्पर रहते हैं जबकि कुछ विनियोग के प्रति अधिक सतर्क होते हैं तथा धन की सुरक्षा एवं निश्चित गारण्टी है तथा धन की सुरक्षा एवं निश्चित गारण्टी चाहते हैं। यही कारण है कि प्रायः अधिकता। कम्पनिया विभिन्न प्रकार की प्रतिभतियों का निर्गमन करती हैं जिससे विभिन्न प्रकृति के विनियोक्ता एक या आधिक प्रकार की प्रतिभतियों में पँजी का विनियोग कर सकें। स्पष्ट है कि पूंजी-संरचना का निमाण करत समय पूंजी विनियोजकों की रुचि को भी ध्यान में रखना चाहिए।

(3) पूजा-बाजार की दशाएँ (Capital market conditions)-मन्दीकाल की दशा में लाभ की। सम्भावनाए अनिश्चित व अनियमित होने के कारण समता अंशों की तुलना में ऋणपत्र अधिक लोकप्रिय होते। है। तेजीकाल में लाभ-अर्जन की सम्भावनाएं बढ़ जाती हैं जिसकी वजह से ऋणपत्रों की तुलना में समता अंशों का माग अधिक बढ़ जाती है। स्पष्ट है कि पूँजी-संरचना का निर्धारण करते समय पूंजी बाजार की विद्यमान दशाओं को ध्यान में रखकर ही पूँजी अनुपात निश्चित किया जाना चाहिए।

(4) प्रचलित सन्नियम (Current laws & regulations)-आय-कर अधिनियम के अनुसार अंशों पर देय लाभांश व्यावसायिक व्यय नहीं माना जाता जबकि ऋणपत्रों पर देय ब्याज एक स्वीकृत व्यय है। इस कारण अतिरिक्त पूँजी का प्रश्न उपस्थित होने पर एक सफल कम्पनी अंशों की तुलना में ऋणपत्रों का निर्गमन अधिक उचित समझती है। इसके अतिरिक्त सम्भावित अधिनियमों का भी पूँजी-संरचना के भावी स्वरूप पर प्रभाव पड़ता है।

निष्कर्ष (Conclusion)-उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि सुनियोजित पूँजी-संरचना का निर्धारण अनेक आन्तरिक एवं बाह्य तत्वों पर निर्भर करता है। अतः पूँजी-संरचना का निर्धारण करते समय उपर्युक्त आन्तरिक तथा बाहरी तत्वों को पूरी तरह से ध्यान में रखना चाहिए।

अनुकूलतम पूँजी-संरचना

(Optimum Capital Structure)

अनुकूलतम पूँजी-ढांचे को आदर्श या सन्तुलित पूँजी-ढांचा भी कह सकते हैं। अनुकूलतम पूँजी-ढांचे

के पूँजीकरण में प्रतिभूतियों के ऐसे मिश्रण से है जिससे उस कम्पनी के समता अंशधारियों को अनुकूलतम आय (optimum income) प्राप्त हो सके और प्रबन्धकीय लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सके। सामान्यतः एक अनुकूलतम पूँजी-संरचना में निम्नलिखित गुणों का होना आवश्यक है

सरलता (Simplicity)-अनुकूलतम पूँजी-संरचना के लिए सरल होना नितान्त आवश्यक है। यदि प्रारम्भ से ही पूँजी-संरचना जटिल होगी तो भविष्य में अतिरिक्त पूँजी की व्यवस्था करना एक कठिन कार्य होगा। अतः प्रारम्भ में केवल समता अंशों एवं आवश्यक होने पर पूर्वाधिकारी अंशों का ही निर्गमन करना चाहिए।

लोचपूर्णता (Flexibility)-पूँजी-संरचना को अनुकूलतम तभी कहा जा सकता है जब उसमें लोचपूर्णता का गुण भी शमिल हो । लोचपूर्णता से आशय निगम की आवश्यकताओं के अनुरूप पूँजी-संरचना में समायोजन से है।

पर्याप्त तरलता (Liquidity)-पूजी-संरचना ऐसी होनी चाहिए कि कम्पनी में आवश्यक तरल

तयों की मात्रा सदैव बनी रहे । तरल सम्पत्तियों में रोकड़,कच्चा माल, तैयार और अर्द्ध-निर्मित माल,आदि को सम्मिलित किया जाता है।

न्यूनतम लागत (Minimum cost)-पूँजी प्राप्ति के सभी साधनों की लागत समान नहीं होती। कुछ साधन अपेक्षाकृत सस्ते होते है, तो कुछ साधन महंगे होते हैं। अतः पंजी-संरचना ऐसी होनी चाहिए जिससे पूँजी-संग्रह की लागत न्यूनतम हो।

न्यूनतम जोखिम (Minimum risk)-करों की दरों में परिवर्तन, लागतों में परिवर्तन, भूल्यों में परिवर्तन, ब्याज दरों में परिवर्तन, आदि जोखिमों के कारण कम्पनी की आय घटती-बढ़ती रहती है। अतः । पूँजी-संरचना ऐसी होनी चाहिए जिससे कम्पनी पर इन जोखिमों का प्रभाव कम-से-कम पड़े।

अधिकतम लाभदायकता (Maximum profitability) किसी कम्पनी की पूँजी-संरचना को तभी। अनुकूलतम कहा जा सकता है जब कम्पनी में अधिकतम लाभदायकता की स्थिति विद्यमान हो।

अधिकतम नियन्त्रण (Maximum control)-किसी कम्पनी के वास्तविक स्वामी समता अंशधारी ही होते हैं। समता अंशधारियों को मतदान का अधिकार होने के कारण नियन्त्रण इन्हीं के हाथों में होता है । अत. पंजी-संरचना में ऐसा कोई परिवर्तन नहीं किया जाना चाहिए जिससे कि कम्पनी के मूल स्वामियों के अधिकारों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़े।

पूँजी संरचना का नियोजन

(Planning of Capital Structure)

अथवा

पूँजी संरचना के प्रारूप

(Patterns of Capital Structure)

किसी भी व्यावसायिक संस्था की पूँजी संरचना का नियोजन करते समय वित्तीय प्रबन्धक का प्रमुखउद्देश्य संस्था के स्वामियों अर्थात समता अंशधारियों के हितों की रक्षा करना होता है। अतः वित्तीय प्रबन्धक इस बात का पूर्णत: ध्यान रखता है कि निर्गमित की जाने वाली प्रतिभूतियाँ समता अंशधारियों के लिए जोखिम, आय तथा नियन्त्रण की दृष्टि से उपयुक्त हों। सैद्धान्तिक दृष्टि से पूँजी संरचना के निम्नलिखित तीन प्रारूप हो सकते हैं

(i) रुढ़िवादी प्रारूप जिसमें केवल समता अंशों का ही निर्गमन किया जाता है;

(ii) मिश्रित प्रारूप जिसमें समता अंश एवं पूर्वाधिकार अंश अथवा समता अंश एवं ऋणपत्रों का निर्गमन किया जाता है;

(iii) आधुनिक प्रारूप जिसके अन्तर्गत समता अंशों, पूर्वाधिकार अंशों एवं ऋणपत्रों का निर्गमन किया जाता है। आवश्यकतानुसार दीर्घकालीन ऋण की व्यवस्था भी की जा सकती है।

इनमें से कौन-सा प्रारूप सर्वोत्तम होगा. वस्तुतः इसके निर्णय को अनेक घटक प्रभावित करते हैं जिनकी विस्तृत विवेचना इसी अध्याय में ‘पूँजी-संरचना को निर्धारित करने वाले तत्त्व’ नामक शीर्षक के अन्तर्गत कर चुके हैं।

यहाँ पर हम केवल इसी तथ्य का अध्ययन करेंगे कि प्रत्येक पूँजी-संरचना प्रारूप का समता अंशधारियों की जोखिम, आय एवं नियन्त्रण पर क्या प्रभाव पड़ता है तथा उसी विकल्प को सर्वोत्तम मानेंगे जिस विकल्प का समता अंशधारियों की जोखिम, आय एवं नियन्त्रण पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है। ऋण पूँजी एक ऐसा दायित्व है जिस पर ब्याज चुकाना होता है चाहे संस्था के लाभ की स्थिति कुछ भी हो जबकि समता अंशधारी कम्पनी के स्वामी होते हैं जिनको लाभांश का भुगतान कम्पनी की लाभदायकता पर निर्भर करता है । कम्पनी की पूँजी संरचना में ऋण का ऊँचा अनुपात समता अंशधारियों की जोखिम में वृद्धि करता है तथा प्रतिकूल परिस्थितियों में कम्पनी को वित्तीय दिवालियापन की स्थिति में ले जा सकता है । ऋण द्वारा वित्त प्राप्त करना तुलनात्मक रूप से सस्ता रहता है क्योंकि ऋण पर देय ब्याज कर की दृष्टि से व्यय माना जाता है। वस्तुतः ऋण पूँजी का प्रयोग स्वामियों (समता अंशधारियों) के लिए उस समय तक हितकर होता है, जब तक निरन्तर पर्याप्त आय होती रहे और ‘ब्याज व आय का अनुपात’ अनुकूल बना रहे । परन्तु आय में गिरावट आने पर या हानि होने पर ऋण पूँजी का भार कम्पनी के लिए हानिकारक सिद्ध होता है। पूर्वाधिकार अंश पूँजी प्राप्त किये जाने पर भी यही बात लागू होती है।

संक्षेप में, पूँजी संरचना के प्रारूप का चयन करते समय अथवा पूँजी-संरचना का नियोजन करते समय प्रत्येक विकल्प की दशा में समता अंशधारियों की आय पर पड़ने वाले प्रभावों का विश्लेषण करना चाहिए। इस प्रकार के विश्लेषण में निम्नलिखित तीन रीतियाँ प्रयोग की जाती हैं

  1. सम्भावित प्रति अंश आय रीति (Probable Earnings per Share Method)
  2. सम्भावित परिचालन लाभ रीति (Probable Operating Profit Method)
  3. सम्भावित प्रति अंश बाजार मूल्य रीति (Probable Market Price per Share Method)
  1. सम्भावित प्रति अंश आय रीति (Probable Earnings per Share Method)

इस रीति के अन्तर्गत अर्थप्रबन्धन के विभिन्न विकल्पों की दशा में समता अंशधारियों के लिए सम्भावित प्रति अंश आय की गणना की जाती है एवं उसी विकल्प को सर्वोत्तम विकल्प माना जाता है, जिस विकल्प के अन्तर्गत प्रति अंश आय अधिकतम होती है। प्रति अंश आय की गणना के लिए समता अंशधारियों के लिए उपलब्ध आय में समता अंशों की कुल संख्या से भाग कर देते हैं। सूत्र रूप में

EDG     Profits Available for Equity Shareholders

No. of Equity Shares

कम्पनी की वार्षिक आय (ब्याज एवं कर घटाने से पूर्व) विनियोजित पूँजी पर 10 प्रतिशत है । कम्पनी को एक नयी मशीन खरीदने के लिए 2,00,000 रुपये की आवश्यकता है। यह अनुमान है कि इस अतिरिक्त पूँजी पर भी ब्याज एवं कर घटाने से पूर्व 10 प्रतिशत आय उपार्जित की जा सकेगी।

कम्पनी को आपके परामर्श की अपेक्षा है कि क्या अतिरिक्त पूँजी व्यवस्था 5 प्रतिशत ऋणपत्रों के आधार पर अथवा दस वर्षों के विमोचनीय संचयी अधिमान्य अंशों (निर्धारित लाभांश 8 प्रतिशत) के आधार पर अथवा सौ-सौ रुपये मूल्य के सम-मूल्य पर निर्गमित किये जाने वाले इक्विटी अंशों के आधार पर की जाए।

समस्या के समस्त बिन्दुओं पर विचार करते हुए कम्पनी को उचित परामर्श दीजिए । कम्पनी के लिए । कर की दर 50 प्रतिशत मान लीजिए।

The present earnings of the company before interest and taxes are 10 per cent of the invested capital every year. The company is in need of Rs. 2,00,000 for purchasing a new plant and it is estimated that additional investment will also produce 10% earnings before interest & taxes every year.

The company has asked for your advice as to whether the requisite amount be obtained in the form of 5% Debentures, or 8% Cumulative Preference Shares (redeemable in ten years) or Equity Shares of Rs. 100 each to be issued at par.

Examine the problem in all its bearing and advise the company. Assume an income-tax rate of 50%.

संस्तुति-चूंकि अतिरिक्त पूँजी की व्यवस्था ऋणपत्रों के निर्गमन द्वारा किये जाने पर E.P.S. सर्वाधिक है, अतः सर्वोत्तम वित्तीय विकल्प ऋणपत्रों का निर्गमन ही है।

Illustration 2. अभिनव लि. का पूँजी-ढाँचा 31 मार्च, 2005 को इस प्रकार थाThe capital structure of Abhinav Ltd. on 31st March, 2005 was as follows :

Rs.

8% Debentures                                                               12,00,000

9% Bank Loans (Long-term)                                       2,00,000

10% Preference Shares of Rs. 10                               14,00,000

19,000 Equity Shares of Rs. 100                               19,00,000

Reserve & Surplus                                                        13,00,000

                                                                                   60,00,000 

ब्याज तथा कर से पूर्व आय 9,00,000 रु. है । यह आशा की जाती है कि कम्पनी अपने इसी प्रत्याय दर को बनाये रखेगी। कम्पनी को विस्तार कार्यक्रम के लिए 10,00,000 रुपये की आवश्यकता है। इसके लिए अर्थ-प्रबन्धन के निम्नलिखित विकल्प हैं

(i) 9% ऋणपत्रों का सम-मूल्य पर निर्गमन;

(ii) 10% पूर्वाधिकार अंशों का सम-मूल्य पर निर्गमन;

(iii) समता अंशों का 25 रु. प्रति अंश प्रीमियम पर निर्गमन ।

कम्पनी के लिए कौन-सा विकल्प सर्वोत्तम है ? कर की दर 50% मानिए।

The present earnings before interest and tax are Rs. 9,00,000. It is hoped that this company will maintain the same rate of return. The company needs Rs. 10,00,000 for an expansion programme. For this following financing alternatives are available :

(i) Issue of 9% debentures at par.

(ii) Issue of 10% Preference Shares at par

(iii) Issue of equity shares at a premium of Rs. 25.

Which alternatives is the best for the Company? Assume tax rate 50%,

संस्तुति-उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि विस्तार कार्यक्रम के लिए 10,00,000 रुपये की आवश्यकता को पूरा करने के लिए 9% ऋणपत्रों का ही निर्गमन किया जाना चाहिए क्योंकि ऐसा करने पर E.P.S. सर्वाधिक आ रही है।

Illustration 3. एक कम्पनी की अंश-पूँजी 10 रु. वाले समता अंशों में विभक्त 10,00,000 रु. है ।। कम्पनी के पास एक व्यापक विस्तार कार्यक्रम है जिसके लिए 5,00,000 रु. के अतिरिक्त विनियोग की जरूरत । है। वित्तीय प्रबन्धक इस राशि के लिए अग्रलिखित विकल्पों पर विचार कर रहा है

(i) 50,000 समता अंशों का सम-मूल्य पर निर्गमन;

(ii) 50,000, 12% पूर्वाधिकार अंशों (प्रति 10 रु) का निगमन; (m) 5,00,000 रु. के 10% ऋणपत्रों का निगर्मन। ।

कम्पनी की वर्तमान ब्याज व कर से पूर्व की आय 4,00,000 रु. है। आपसे अनुरोध है कि अर्थ-प्रबन्धन के उक्त विकल्पों की प्रति अंश आय पर प्रभाव दर्शायें और सर्वोत्तम विकल्प का सुझाव दें, यदि

(i) विस्तार के बाद भी ब्याज व कर से पूर्व आय समान ही रहती है। (ii) ब्याज व कर से पूर्व की आय 1,00,000 रु. से बढ़ जाती है । कर की दर 50% मान लें।।

A company has a share capital of Rs. 10,00,000 divided into equity shares of Rs. 10. It has a major expansion programme requiring an “dditional investment of Rs. 5,00,000. Financial Manager is considering the following alternatives for raising this amount :

(i) Issue of 50,000 equity shares at par, (ii) Issue of 50,000, 12% preference shares of Rs. 10 each; (iii) Issue of 10% debentures of Rs. 5,00,000.

The company present earnings before interest and tax Rs. 4,00,000 p.a. You are requested to calculate the effect of each of the above modes of financing on E.P.S. and suggest the best alternative, if :

(i) EBIT continues to be the same even after expansion. (ii) EBIT increase by Rs. 1,00,000. Assume tax rate 50%

टिप्पणी (Comments)-विस्तार के बाद भी यदि E.B.I.T. पूर्ववत् ही रहती है तो सामान्य रूप से अतिरिक्त विनियोग का निर्णय नहीं लेना चाहिए क्योंकि प्रत्येक विकल्प में E.P.S. पहले से कम हो जायेगी। यदि अतिरिक्त विनियोग करना अनिवार्य हो तो ऋणपत्रों के निर्गमन द्वारा ही अतिरिक्त वित्त प्राप्त करना चाहिए क्योंकि इसी विकल्प को अपनाने से E.P.S. अधिकतम रहेगी।

निर्वचन-उपर्युक्त गणनाओं से स्पष्ट है कि अतिरिक्त वित्त की पूर्ति ऋणपत्रों के निर्गमन द्वारा की जाने पर ही E.P.S. अधिकतम हो रही है एवं पहले की तुलना में भी 0.25 रु. की वृद्धि हो रही है। अतः ऋणपत्रों का निर्गमन ही अर्थ-प्रबन्धन हेतु सर्वोत्तम विकल्प है।

Illustration 4. एक कम्पनी को नया कारखाना लगाने के लिए 10,00,000 रुपये की आवश्यकता है। नये कारखाने से ब्याज एवं कर काटने से पूर्व 1,60,000 आय होने की आशा है। चालू बाजार मूल्य प्रति अंश 25 रुपये है और यदि 5,00,000 रुपये से अधिक कोष ऋण द्वारा प्राप्त किया जाता है तो यह घटकर 20 रुपये प्रति अंश हो जायेगा। कम्पनी समता अंशों के निर्गमन और 1,00,000 रुपये, 4,00,000 रुपये या 6,00,000 रुपये ऋण द्वारा प्राप्त करने की सम्भावना पर विचार कर रही है । कोष को नीचे दिये ब्याज दर पर प्राप्त किया जा सकता है

1,00,000 रुपये तक 8% ब्याज पर,

1,00,000 रुपये से अधिक परन्तु

5,00,000 रुपये तक 12% ब्याज पर, और 5,00,000 रुपये से ऊपर 18% ब्याज पर।

कर की दर 50% मानिये। प्रति अंश आय निर्धारित कीजिये और सर्वोत्तम विकल्प के सम्बन्ध में सुझाव दीजिये।

A company needs Rs. 10,00,000 for the installation of a new factory. The new factory is expected to yield an annual earning before interest and taxes (EBIT) of Rs. 1,60,000. The current market price per share is Rs. 25 and is expected to drop to Rs. 20 if the funds are borrowed in excess of Rs. 5,00,000. It is considering the possibility of issuing equity shares and raising debt of Rs. 1,00,000 or Rs. 4,00,000 or Rs. 6,00,000. Funds can be borrowed at the interest rates indicated below :

Upto Rs. 1,00,000 at 8% Over Rs.

1,00,000 to Rs.

5,00,000 at 12% and Over Rs. 5,00,000 at 18%..

Assume a tax rate of 50%. Determine the earning per share (EPS) and suggest the best alternative.

Conclusion : The second alternative maximises EPS. Therefore, it is the best financial alternative in the present case. Working Notes :

(1) Calculation of interest for IInd Alternative :

Rs.

Rs. 1,00,000@8%                                                                     8,000

Rs.3,00,000@12%                                                                  36,000

                                                  Total                   44,000

(2) Calculation of Interest for IIIrd Alternative :

Rs..

Rs. 1,00,000 @ 8%                                                                      8,000

Rs. 4,00,000 @ 12%                                                                  48,000

Rs. 1,00,000 @ 18%                                                                  18,000

                                           Total                            74,000

2. सम्भावित परिचालन लाभ रीति (Probable Operating Profit Method)

जब सम्भावित प्रति अंश आय की गणना नहीं की जा सकती हो परन्त वर्तमान प्रति अंश आय को बनाये रखने के लिए सम्भावित परिचालन लाभ की गणना की जा सकती हो तो हम वर्तमान प्रति अंश आय को यथावत रखने के लिए विभिन्न विकल्पों में सम्भावित परिचालन लाभ ज्ञात कर लेते हैं। जिस विकल्प में भी सम्भावित परिचालन लाभ सबसे कम (न्यूनतम) होता है, उसे ही सर्वोत्तम विकल्प माना जाता है। सम्भावित परिचालन लाभ की गणना निम्नलिखित सूत्र से की जा सकती है

EPS X N = (EBIT – INT) (1 – T) – PD where,

EPS = Earning per Share

N= No. of Equity Shares

EBIT = Earnings before interest and taxes

INT = Interest on debt capital

T = Tax Rate

PD = Preference Shares Dividend

उपर्युक्त सूत्र में EBIT को अज्ञात या X मानकर सम्भावित EBIT ज्ञात करते हैं।

चूँकि समता अंशों के निर्गमन द्वारा विस्तार कार्यक्रम की वित्त व्यवस्था करने पर प्रति अंश बाजार मूल्य अधिकतम है, अतः समता अंश निर्गमन योजना सर्वोत्तम मानी जा सकती है।

Here, Market Price per share is maximum in Ist alternative. Therefore, issue of equity shares should be preferred.

तटस्थता बिन्दु का निर्धारण

(Determination of Indifference Point)

तटस्थता बिन्दु ब्याज एवं कर काटने से पूर्व आय (EBIT) का वह स्तर है जहाँ पर प्रति अंश आय (EPS) सदैव एक समान रहती है चाहे ऋण-समता मिश्रण कुछ भी हो। इसे ब्याज तथा कर पूर्व आय (EBIT) का तटस्थ बिन्दु या उदासीनता बिन्दु (Point of indifference) कहते हैं। दूसरे शब्दों में, यह EBIT का वह स्तर है जिस पर वित्तीय प्रबन्धक के लिये यह महत्त्वहीन हो जाता है कि कौन-सी पूँजी संरचना को अपनाया जाये क्योंकि प्रत्येक दशा में प्रति अंश आय समान रहती है । वस्तुत: इस बिन्दु पर कुल पूँजीकरण में ऋण-पँजी के अनुपात में परिवर्तन का प्रति अंश आय पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। इस बिन्द को निम्नलिखित सूत्र की सहायता से ज्ञात कर सकते हैं

Ilustration 7. दी एवरग्रीन कम्पनी के समक्ष यह विकल्प है कि वह 50 लाख रुपये की अतिरिक्त । पूँजी 10% ऋणपत्रों के निर्गमन से या 50 रुपये वाले अतिरिक्त समता अंशों के निर्गमन से प्राप्त करें। कम्पनी। के चालू पूँजीकरण ढाँचे में 10 लाख समता अंश हैं तथा ऋण नहीं हैं। ब्याज एवं कर से पूर्व आय के किस स्तर पर प्रति अंश अर्जन नई पूंजी प्राप्त करने के पश्चात समान रहेगा चाहे कोष समता अंशों से प्राप्त किया। जाये और चाहे ऋणपत्रों से ? कर की दर 50% मानिये।

The Evergreen Company has the choice for raising an additional sum of Rs. 50 lakh either by the issue of 10% debentures or by issue of additional equity shares at Rs. 50 per share. The current capitalization of the company consists of 10 lakh equity shares and no debt. At what level of EBIT after the new capital is acquired, would Earning Per Share be the same whether new funds are raised either by issuing equity shares or by issuing debentures ? Assume a 50% tax rate.

Illustration 8. आपके कम्पनी के विचाराधीन एक नई परियोजना में 150 लाख रुपये के पूँजी विनियोग की आवश्यकता है। अवधि ऋणों पर ब्याज दर 12 प्रतिशत तथा कर की दर 50% है । यदि वित्तीय संस्थाओं द्वारा 2:1 के ऋण समता अनुपात पर बल दिया जाता है तो परियोजना के लिए तटस्थता बिन्दु ज्ञात कीजिए।

A new  project under consideration by your company requires capital investment V takhs. Interest on term loan is 12% and tax rate is 50%. If the debt equity insisted by the financing agencies is 2:1. calculate the point of indifference for the project.

पूँजा-संरचना निर्णय

(Decisions of Capital Structure)

अथवा

पूँजी-ढाँचा एवं प्रबन्धकीय नीतियाँ

(Capital Structure and Managerial Policies)

पूँजी-ढाँचे के निर्माण में प्रबन्धकों के सामने मुख्य समस्या स्वामी-पूँजी (owned capital) तथा ऋण-पूँजी (debt capital) के पारस्परिक अनुपात को तय करने की है । पूँजी-ढाँचे में ऋण अथवा इक्विटी-पूँजी का कम या अधिक मात्रा में समावेश कम्पनी की आय एवं उसके जोखिम की सीमा में कमी अथवा वृद्धि करता है। इस सम्बन्ध में निर्णय लेने के लिए मुख्य रूप से निम्नलिखित बातों पर भली प्रकार विचार किया जाता है

1.समता पर व्यापार (Trading on equity)

2. पूँजी मिलान अथवा पूँजी दन्तिकरण (Capital gearing)

3. वित्तीय उत्तोलन (Financial Leverage)

4 पूँजी की लागत (Cost of capital)

(1) समता पर व्यापार या ट्रेडिंग आन इक्विटी

(Trading on Equity)

प्राय: प्रत्येक व्यवसाय,स्वामियों के हितों में वृद्धि के लिए ही संचालित किया जाता है । अतः पूँजी-संरचना इस प्रकार की होनी चाहिए कि कम्पनी के समता अंशधारियें को अधिकतम आय प्राप्त हो सके एवं साथ-ही-साथ। कम्पनी पर उनका अधिकतम नियन्त्रण बना रहे । इस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु ही ‘समता पर व्यापार नीति को लागू किया जाता है।

यदि किसी निगम के प्रबन्धवों/संचालकों को इस बात का विश्वास हो कि उनकी संस्था ऋण-पूँजी पर। देय ब्याज की तुलना में अधिक आय अर्जित कर सकती है तो कम ब्याज दर पर ऋण-पँजी प्राप्त करके अधिक लाभ कमाया जा सकता है एवं समता अंश-पूँजी पर अधिक लाभांश वितरित किया जा सकता है । इस नीति के अनुसरण को ही वित्तीय प्रबन्ध की भाषा में ‘समता पर व्यापार’ कहा जाता है।

सरल शब्दों में, जब किसी कम्पनी का व्यवसाय स्वामी-पूँजी की अपेक्षा ऋण-पूँजी के आधार पर संचालित किया जाता है तो इसे समता पर व्यापारकी संज्ञा दी जाती है। ऐसा करने से समता अंशधारी न्यूनतम पूँजी के विनियोग द्वारा कम्पनी पर अधिकतम नियन्त्रण प्राप्त कर लेते हैं एवं साथ-साथ अधिक लाभांश प्राप्त करने में भी सफल हो जाते हैं।

परन्तु यह ध्यान रखने योग्य है इस नीति से न केवल लाभों में वृद्धि होती है वरन हानि में भी वद्धि हो सकती है। अतः इस नीति को तभी अपनाना चाहिए, जब कम्पनी आय की स्थिरता एवं निश्चितता के प्रति आश्वस्त हो। . ‘

समता पर व्यापारके सम्बन्ध में मुख्य परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं ।

गेस्टनबर्ग के अनुसार, “जब एक व्यक्ति अथवा निगम स्वामित्व पूँजी के साथ-साथ ऋण-पूँजी लेकर अपने नियमित व्यापार का संचालन करता है तो इसे समता पर व्यापार कहा जाता है

गुथमैन एवं डूगाल के अनुसार, “एक फर्म के वित्तीय प्रबन्ध हेतु स्थिर लागत पर ऋण-कोषों का प्रयोग समता पर व्यापार कहलाता है।”

उक्त परिभाषाओं के अध्ययन से स्पष्ट है स्वामी-पूँजी की तुलना में ऋण-पूँजी के आधार पर व्यापार करना समता पर व्यापार कहलाता है ।

इस नीति के द्वारा लाभांश की दर किस प्रकार अधिक हो जाती है, इसे निम्नलिखित उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है

मान लो एक्स लि. एवं वाई लि. दो कम्पनियाँ हैं । ब्याज और कर घटाने से पूर्व दोनों कम्पनियों में से प्रत्येक की आय 40,000 रु. है और दोनों के पूँजीकरण की मात्रा दो लाख रुपये है। एक्स लि. की सम्पूर्ण पूँजी 100 रु. वाले 2,000 पूर्णदत्त समता अंशों में विभक्त है। वाई लि. की पूँजी 100 रुपये वाले 800 पूर्णदत्त समता अंशों और शेष 1,20,000 रुपये के 5 प्रतिशत ऋणपत्रों द्वारा प्राप्त की गई है। निगम कर की दर 50 प्रतिशत है।

उपर्युक्त विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि दोनों कम्पनियों में यद्यपि पूँजीकरण की राशि एवं ब्याज तथा कर घटाने से पूर्व की आय एक समान है परन्तु वाई लि. के अंशधारी अधिक लाभ अर्जित कर रहे हैं। इसका प्रमुख कारण वाई लि. द्वारा समता पर व्यापार की नीति का अनुसरण किया जाना है।

समता पर व्यापार के उद्देश्य (Objects of Trading on Equity)

समता पर व्यापार की नीति के प्रमुख उद्देश्य अग्रलिखित हैं

(i) न्यूनतम स्वामी-पूँजी के आधार पर अधिकतम वित्तीय साधनों पर नियन्त्रण प्राप्त करना।।

(ii) व्यवसाय का नियन्त्रण स्वयं तथा अपने मित्रों के हाथों में केन्द्रित रखना।

(iii) समता अंश-पूजी पर लाभांश की दर में वृद्धि करना।

समता पर व्यापार की नीति का महत्त्व (Importance of the Policy of Trading on Equity) |

समता पर व्यापार की नीति का अनुसरण किये जाने से मुख्यतः निम्नलिखित लाभ प्राप्त होते हैं

1. अधिक लाभांश का वितरण (Distribution of more dividend)-इस नीति का अनसरण करने पर कम्पनी समता अंशधारियों को अधिक लाभांश वितरित करने में समर्थ हो जाती है।

2. ख्याति में वृद्धि (Increase in the goodwill)-समता अंशधारियों को अधिक लाभांश वितरित किये जाने के कारण कम्पनी के समता अंशों के मूल्यों में वृद्धि हो जाती है परिणामस्वरूप कम्पनी की ख्याति में वृद्धि हो जाती है।

3. ऋण-प्राप्ति में सरलता (Simplicity in obtaining loans)-कम्पनी की ख्याति में वृद्धि होने से कम्पनी को कम ब्याज दर पर सरलता से ऋण भी उपलब्ध हो जाते हैं। समता पर व्यापार नीति की सीमाएँ (Limitations of the Policy of Trading on Equity)

जैसा कि स्पष्ट किया गया है कि समता पर व्यापार नीति के अन्तर्गत व्यापार, स्वामी-पूँजी की अपेक्षा ऋण-पूँजी के आधार पर संचालित किया जाता है। परन्तु प्रश्न यह है कि किस सीमा तक ऋण-पूँजी के आधार पर संचालन किया जा सकता है क्योंकि एक सीमा के पश्चात् कम्पनी को लाभ के स्थान पर हानि होने लगती है। अतः समता पर व्यापार नीति का अनुसरण करते समय इसकी सीमाओं को भी ध्यान में रखना होगा। समता पर व्यापार नीति की प्रमुख सीमाएँ निम्नलिखित हैं

1 .आय की अनिश्चितता एवं अस्थिरता (Irregularity and Uncertainty of income) इस नीति का अनुसरण केवल ऐसी संस्थाओं द्वारा ही किया जा सकता है जो आय की स्थिरता एवं निश्चितता के प्रति आश्वस्त हों। अत: अनिश्चित एवं अनियमित आय वाली कम्पनियों के लिए यह नीति उपयुक्त नहीं होती।

2. क्रमश: ऊँची ब्याज दरों पर ऋण प्राप्ति (Obtaining debt of successively higher rates)-इस नीति की दूसरी सीमा यह है कि ऋणों पर देय ब्याज की दर से प्रत्येक अनुवर्ती (subsequent) ऋण के साथ वृद्धि होती जाती है क्योंकि प्रत्येक नये ऋण के साथ ऋणदाताओं की जोखिम बढ़ जाती है। अतः स्पष्ट है कि कम्पनी को बाद में लिए हुए ऋण महंगे पड़ते हैं जिसके कारण कम्पनी को अंशधारियों के लाभांश की दर घटानी पड़ती है।

3 .ऋणदाताओं का प्रभाव एवं हस्तक्षेप (Interference of lenders) ऋणगत पूँजी के द्वारा अधिक वित्त प्राप्त करने से कम्पनी में ऋणदाताओं का प्रभाव एवं हस्तक्षेप बढ़ जाता है और कम्पनी को भविष्य में अतिरिक्त पूँजी की आवश्यकता होने पर पूँजी प्राप्त करने में कठिनाई होती है।

4 .अन्य सीमाएँ (Other limitations)-समता पर व्यापार नीति की कुछ अन्य सीमाएँ भी हैं; जैसे, कम्पनी के सीमानियमों एवं अन्तर्नियमों द्वारा निर्धारित सीमाएँ ब्याज के स्थायी भार को वहन करने में असमर्थता, आदि ।

निष्कर्ष-उपर्युक्त सीमाओं के अध्ययन से स्पष्ट है कि कम्पनी को समता पर व्यापार नीति का एक सीमा तक ही उपयोग करना चाहिए क्योंकि कम लाभ होने पर लाभ का अधिकांश भाग ऋण-पूँजी पर देय ब्याज के लिए प्रयुक्त हो जाता है तथा लाभांश कम प्राप्त होता है। इसलिए प्राय: यह कहा जाता है कि “समता अंशों पर व्यापार की नीति न केवल लाभ में वृद्धि करती है, अपितु यह हानि में भी वृद्धि कर देती है।” वस्तुतः समता पर व्यापार की नीति उस समय तक ही लाभदायक होती है जब तक कि ऋण-पूँजी पर देय ब्याज की तुलना में अर्जित आय अधिक हो।

समता पर व्यापारनीति के प्रभाव का विश्लेषण

(Analysis of Effect of ‘Trading on Equity Policy)

‘समता पर व्यापार नीति को अपनाने से उत्पन्न लाभ का निर्धारण करने के लिए अग्रलिखित दो दरों की गणना की जाती है

1 .प्रति अंश आय की गणना (Calculation of earning per share or EPS) प्रत्येक विकल्प या प्रत्येक संस्था में ‘समता पर व्यापार’ नीति के प्रभाव का विश्लेषण करने के लिए प्रति समता अंश आय का गणना की जाती है। प्रति अंश आय की गणना करने के लिए ब्याज, (ऋण-पूँजी से सम्बन्धित) कर व पूर्वाधिकार अंशों पर लाभांश को घटाने के बाद उपलब्ध लाभ/आय में समता अंशों की संख्या का भाग कर देते हैं। यह ध्यान रहे कि देय ब्याज आय-कर के लिए स्वीकृत व्यय होता है, अत: लाभ में से ब्याज की रकम घटाकर तब कर की रकम घटाते हैं । EPS को परिकलित करने की विधि को पृष्ठ 4.6 पर समझाया गया है ।

2 .समता अंश-पूँजी पर आय दर की गणना या इक्विटी प्रत्याय दर की गणना (Calculation of earning rate on equity share capital or Rate of return on equity)- इसके लिए निम्नांकित सूत्र का प्रयोग किया जाता है

Earning Rate on Equity Share Capital  Profit to Equity=     x 100

Equity Share Capital

नोट-उपर्युक्त दोनों में से किसी एक ही गणना के आधार पर ही ‘समता पर व्यापार’ नीति के प्रभाव का विश्लेषण किया जा सकता है अर्थात् दोनों की गणना आवश्यक नहीं है।

निर्वचन (Interpretation)-‘समता पर व्यापार’ नीति का प्रभाव अनुकूल (Favourable) अथवा प्रतिकूल (unfavourable) हो सकता है। अनुकूल प्रभाव की दशा में पूँजी-ढाँचे में ऋण-पूँजी के प्रयोग से EPS तथा Rate of Return on Equity में वृद्धि हो जाती है जबकि प्रतिकूल प्रभाव के अन्तर्गत दोनों में कमी हो जाती है।

किसी एक कम्पनी का ही पूँजी-ढाँचा दिया हुआ होने पर समता पर व्यापारनीति का विश्लेषण

ऐसी दशा में समता पर व्यापार की नीति को अपनाने से उत्पन्न लाभ का निर्धारण करने के लिए निम्नलिखित दो दरों की गणना करते हैं

1 .सामान्य प्रत्याय की दर की गणना (Calculation of normal rate of return)-इस दर की गणना हम इस मान्यता पर करते हैं कि यदि किसी निगम या कम्पनी के पूँजीकरण की सम्पूर्ण राशि को समता अंश-पूँजी के द्वारा प्राप्त किया जाये तो समता अंशधारियों को उपलब्ध आय से अर्जन की दर क्या होगी? समता अंशधारियों के लिए उपलब्ध आय का आशय कर घटाने के बाद शेष आय से है। सामान्य प्रत्याय दर की गणना सूत्र रूप में निम्नांकित प्रकार से करते हैं

Normal Rate of Return =Total Earnings after Tax i.e., EBIT – Tax  =  2×100

Total Amount of Capitalization

2 .समता अंश-पँजी पर आय की दर की गणना (Calculation of earning rate on equity share capital)-किसी निगम या कम्पनी के वास्तविक पूँजीकरण की राशि में समता अंश-पूँजी पर आय की दर ज्ञात करने के लिए समता अंशधारियों के लिए उपलब्ध आय की गणना करते हैं। इसके लिए कुल आय में से ऋण-पूँजी पर ब्याज, उपलब्ध आय-कर तथा पूर्वाधिकारी अंश-पूँजी का लाभांश घटाते हैं। समता अंश-पूँजी पर समता अंशधारियों के लिए उपलब्ध आय की दर की गणना सूत्र रूप में निम्नांकित प्रकार से करते हैं

Earning Rate on Equity Share Capital

Total Earnings available to Equity Shareholders *100

Equity Share Capital

निर्वचन (Interpretation)-उपर्युक्त वर्णित दरों का निर्वचन करने पर निम्नलिखित तीन स्थितियों में से कोई सी एक स्थिति हो सकती है

1 .धनात्मक समता पर व्यापार (Positive trading on equity)-यदि Earning Rate on Equity Share Capital > Normal Rate of Return हो तो इसका अभिप्राय यह है कि ऋण-पूँजी एवं पूर्वाधिकारी अंश-पूँजी के प्रयोग से समता अंशधारियों को ‘समता पर व्यापार का धनात्मक लाभ प्राप्त हो रहा है।

2 .ऋणात्मक समता पर व्यापार (Negative trading on equity)-यदि Earning Rate on Equity Share Capital < Normal Rate of Return हो तो इसका अर्थ है कि समता अंशधारियों को ‘समता पर व्यापार नीति के अपनाने से हानि हो रही है अर्थात् उन पर ऋणात्मक प्रभाव पड़ रहा है। प्रायः इस ऋणात्मक स्थिति का समता अंशधारी विरोध करते हैं।

3 .शून्य समता पर व्यापार (Zero trading on equity) यदि किसी कम्पनी में Earning Rate| on Equity Share Capital = Normal Rate of Return हो तो उसे शून्य समता पर व्यापार कहा जाता है । इसका अभिप्राय यह है कि ऋण-पूँजी एवं पूर्वाधिकारी अंश-पूँजी से समता अंशधारियों को न तो समता पर व्यापार का लाभ मिल रहा है और न ही उनको समता पर व्यापार से हानि हो रही है। किसी कम्पनी में शून्य समता पर व्यापार की स्थिति उस समय भी दिखाई देती है जब पूँजीकरण की सम्पूर्ण धनराशि को केवल समता अंश-पूँजी से प्राप्त किया जाता है।

समता पर व्यापारनीति से सम्बन्धित क्रियात्मक उदाहरण

(Numerical Examples Related to Policy of ‘Trading on Equity’)

Illustration 9. दो फर्म एक्स तथा वाई हैं। दोनों का पूँजीकरण 6,00,000 रुपये ह और दोनों ब्याज व कर से पूर्व 96,000 रु. कमाती हैं। फर्म एक्स ने अपनी कुल पूँजी 100 रु.वाले समता अंशों में प्राप्त की है; फर्म वाई ने 2,40,000 रु. 100 रु. वाले समता अंशों में, 1,20,000 रुपये 10% ऋणपत्रों में तथा शेष 2,40,000 रु.8% पूर्वाधिकार अंशों में प्राप्त की है। फर्म वाई द्वारा अपनायी गयी समता पर व्यापार नीति की समीक्षा कीजिए।

There are two firms ‘X’ and ‘Y’. Both have capitalization of Rs. 6,00,000 and earn profit of Rs. 96,000 before interest and tax. While firm ‘X’ has obtained whole of is capital through Rs. 100 equity shares, firm ‘Y’ obtained Rs. 2,40,000 through equity shares of Rs. 100 each, Rs. 1,20,000 through 10% debentures and the balance Rs. 2,40,000 through 8% Preference Shares. Comment upon policy of trading on equity followed by firm ‘Y’.

निर्वचन-उपर्युक्त गणना से यह स्पष्ट है कि ‘X’ फर्म ने ‘समता पर व्यापार’ नीति का अनुसरण नहीं। किया है तो उसकी E.P.S = Rs. 8 तथा Rate of Return on Equity = 8% है जबकि फर्म ‘Y द्वारा ‘समता पर व्यापार’ नीति का अनुसरण किये जाने के कारण उसकी E.P.S. = Rs. 9.50 तथा Rate | of Return on Equity = 9.5% है । अतः ‘Y’ फर्म पर ‘समता पर व्यापार नीति के अनुसरण का अनुकूल प्रभाव है।

Illustration 10. रोहित लि. और कमल लि.दो कम्पनियाँ एक ही प्रकार के व्यवसाय में लगी है और। दोनों में 4,00,000 रुपये की पूंजी विनियोजित है। रोहित लि. ने अपनी पूँजी 2,00,000 रु. समता अंशों (10 रु.वाले) के रूप में तथा 2,00,000 रु.5% ऋणपत्रों (100 रु. वाले) के रूप में प्राप्त की है। कमल लि. ने अपनी समस्त पूँजी 10 रु. वाले समता अंशों के रूप में ही प्राप्त की है। रोहित लि. द्वारा अपनायी गयी समता पर व्यापार नीति की समीक्षा कीजिए, यदि ब्याज व कर काटने से पूर्व दोनों कम्पनियों का लाभ 1,00,000 रुपये है। कर की दर 50% मान लें।

There are two companies Rohit Ltd. and Kamal Ltd. engaged in the same line of business and both have invested capital of Rs. 4,00,000 each. Rohit Ltd. has raised its capital Rs. 2,00,000 from equity shares of Rs. 10 each and Rs. 2,00,000 from 5% debentures of Rs. 100 each. Kamal Ltd. has raised its whole capital from equity shares of Rs. 10 each. Comment upon the policy of trading on equity followed by Rohit Ltd., if earning before interest and tax is Rs. 1,00,000 each in both the companies. Tax rate may be assumed to be 50%.

निर्वचन-उपर्युक्त गणना से स्पष्ट है कि फर्म ‘Y’ द्वारा ‘समता पर व्यापार नीति के अपनाने का अनुकूल प्रभाव पड़ा है क्योंकि इसकी EPS. बढ़कर 20.00 रु.हो गयी है,जबकि फर्म ‘X’ की E.PS. 12.50 रु. है तथा Rate of Return on Equity Capital 20% आ रही है जबकि फर्म ‘X’ की 12.5% ही है। हालांकि दोनों कम्पनियों ने सम्पत्तियों पर समान प्रत्याय दर अर्जित की है।

Illustration 12. एक्स लि. एक परियोजना हेतु 1,00,000 रुपये की एक मशीन खरीदना चाहती है, जिसका अर्थ-प्रबन्धन 40,000 रुपये तक अंश निर्गमन द्वारा और 10% की लागत पर 60,000 रु. ऋण द्वारा किया जाना है। दूसरा विकल्प यह है कि सम्पूर्ण 1,00,000 रुपये अंश-पूँजी के रूप में उगाहा जाए । कम्पनी की कर दर 40% है। यदि कम्पनी की अर्जन क्षमता कुल विनियोग पर 40% (कर व ब्याज से पूर्व) हो, तो समता पर व्यापार के प्रभाव की जाँच कीजिए।

X Ltd. desires to purchase a machine costing Rs. 1,00,000 for a project, whose financing is to be done by raising Rs. 40,000 through issue of shares and Rs. 60,000 as debt at a cost of 10%. Another alternative is to raise Rs. 1,00,000 through issue of shares. Company’s tax rate is 40%. If the company’s earning capacity is 40% (before tax and interest) on total investment, examine the effect of trading on equity. Solution : Statement Showing the effect of Trading on Equity

निर्वचन प्रथम विकल्प द्वारा अर्थ-प्रबन्धन करने से समता अंशधारियों की इक्विटी पर प्रत्याय दर 24% की तुलना में 51% है। स्पष्ट है कि अर्थ-प्रबन्धन हेतु ‘समता पर व्यापार’ नीति को अपनाये जाने का प्रभाव अनुकूल है।

पूँजी मिलान या पूँजी दन्तिकरण

(Capital Gearing)

पूँजी दन्तिकरण का अभिप्राय कुल पूँजीकरण में विभिन्न साधनों से प्राप्त की जाने वाली पूँजी के पारस्परिक अनुपात को निश्चित करने से है। विभिन्न साधनों से प्राप्त करने वाली पूँजी को लागत के दृष्टिकोण से मुख्य रूप से तीन भागों में बाँटा जा सकता है

(i) स्थायी लागत वाली पूँजी (Fixed cost capital)-ऐसी पूँजी जिस पर एक पूर्व निश्चित दर से लाभांश/ब्याज अनिवार्य रूप से देना पड़ता है, उसे स्थायी लागत वाली पूँजी कहते हैं । इसमें मुख्यतः पूर्वाधिकार अंश तथा ऋणपत्र शामिल किये जाते हैं।

(ii) परिवर्तनशील लागत वाली पूँजी (Variable cost capital)-इसके अन्तर्गत समता अंश-पंजी आती है। इसकी लागत अनिश्चित अथवा परिवर्तनशील होती है अर्थात् इस पर दिये जाने वाले लाभांश की राशि संचालकों की नीति तथा स्थायी लागत पूँजी के प्रतिफल को घटा देने पर शेष रहने वाली आय पर निर्भर करती है।

(iii) लागत रहित पूँजी (No cost capital)-इसके अन्तर्गत ऐसी रकमें शामिल की जाती हैं जिन्हें व्यवसाय संचालन में प्रयोग किया जाता है लेकिन जिन पर कोई प्रतिफल नहीं देना पड़ता; जैसे,विविध ऋणदाता, अदत्त व्यय,संचित कोष, आदि।

सरल शब्दों में, पूँजी दन्तिकरण समता अंश-पूँजी, संचिति एवं अधिशेष और स्थायी लागत वाली पूँजी (पूर्वाधिकार अंश, ऋणपत्र, आदि) में वांछित तथा उचित अनुपात बनाये रखने की तकनीक है।

जे. बैट्टी के अनुसार, “समता अंशों के पूर्वाधिकार अंश-पूँजी एवं ऋण-पूँजी के सम्बन्ध को पूँजी दन्तिकरण कहते हैं।”

ब्रॉउन एवं हावर्ड के अनुसार, पूँजी दन्तिकरण शब्द का प्रयोग किसी कम्पनी की समता अंश-पूँजी एवं स्थिर ब्याज वाली प्रतिभूतियों के मध्य अनुपात को प्रदर्शित करने के लिए किया जाता है।”

पूँजी दन्तिकरण के प्रकार (Types of Capital Gearing)

पूंजी दन्तिकरण निम्नलिखित दो प्रकार का होता है

(i) उच्च दन्तिकरण (High gearing)-जब कुल पूँजीकरण में स्थिर ब्याज व स्थिर लाभांश वाली प्रतिभूतियों का हिस्सा अधिक होता है, तो उसे उच्च दन्तिकरण (high gearing) कहते हैं। इस दशा में स्वामी-पूँजी कम और पूर्वाधिकार एवं ऋण-पूँजी अधिक होती है। उदाहरणार्थ, यदि किसी कम्पनी का कुल पूँजीकरण 50 करोड़ रुपये है जिसमें समता अंश-पूँजी 10 करोड़ रुपये तथा 40 करोड़ रुपये की पूर्वाधिकारी अंश-पूँजी एवं ऋणपत्र हों तो इस कम्पनी में उच्च दन्तिकरण होगा तथा गियर अनुपात 10 : 40 अर्थात् 1 : 4 होगा। ऐसी दशा में दन्ति अनुपात कम होता है।

(ii) निम्न दन्तिकरण (Low geaing)-जब कुल पूँजीकरण में स्वामी अंश-पूँजी का हिस्सा अधिक __ होता है, तो उसे निम्न दन्तिकरण (low gearing) कहते हैं। इस दशा में स्वामी-पूँजी अधिक और पूर्वाधिकार एवं ऋण-पूँजी कम होती है । उदाहरणार्थ, यदि एक करोड़ के कुल पूँजीकरण में 60 लाख रुपये की स्वामी-पंजी। हो तो ऐसी स्थिति को निम्न दन्तिकरण कहा जायेगा। गियर अनुपात 60 : 40 अर्थात 3 : 2 होगा। निम्न दन्तिकरण की स्थिति में दन्ति अनुपात अधिक होता है।

पूँजी दन्तिकरण की स्थिति का पता लगाने के लिए (उच्च दन्तिकरण है या निम्न दन्तिकरण) पूँजी दन्तिकरण अनुपात ज्ञात करते हैं, जिसका सूत्र अग्रांकित प्रकार है

Capital Gearing Ratio = Equity Share Capital + Reserve & Surplus

Total Debt Capital including Pref. Share Capital

पूँजी दन्तिकरण के प्रयोग की विधि (Procedure of Using Capital Gearing)

पूँजी दन्तिकरण की तुलना एक मोटर के गियर-बॉक्स से की जा सकती है। जिस प्रकार मोटर को स्टाई करते समय प्रारम्भिक गति प्रदान के लिए निम्न गियर का प्रयोग करते हैं तथा जैसे-जैसे गति बढ़ानी हो वैसे-वैसे उच्च गियर में ले जाते हैं, ठीक उसी प्रकार व्यवसाय को स्थापित करने व कार्य संचालन की प्रारम्भिक अवस्था में निम्न पुँजी गियरिंग रखना चाहिए अर्थात उसकी वित्तीय आवश्यकताओं की पर्ति के लिए व पूर्वाधिकार अंशों की तुलना में समता अंशों का निर्गमन अधिक करना चाहिए। जैसे-जैसे व्यवसाय की आय मतता व वृद्धि होने लगे, वैसे-वैसे उच्च पूँजी गियरिंग करते जाना चाहिए अर्थात् कुल पूँजीकरण में स्थायी लागत वाली प्रतिभूतियों का अनुपात बढ़ा देना चाहिए। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि व्यवसाय की प्रारम्भिक अवस्था में नीचा दन्तिकरण तथा व्यवसाय की आय में वृद्धि व नियमितता होने पर उच्च दन्तिकरण का प्रयोग करना चाहिए।

पूँजी दन्तिकरण का महत्त्व (Importance of Capital Gearing)

किसी भी व्यावसायिक संस्था की पूँजी-संरचना को सुव्यवस्थित एवं वित्तीय स्थिति को सुदृढ़ बनाये रखने के लिए पूँजी दन्तिकरण का विशेष महत्त्व है। एक व्यावसायिक उपक्रम को सफलतापूर्वक चलाने में पूँजी दन्तिकरण का वही स्थान है जो एक कार को चलाने में गियर का होता है। जिस प्रकार बिना गियर के एक कार गतिहीन हो जाती है ठीक उसी प्रकार बिना श्रेष्ठ पूँजी दन्तिकरण के कम्पनी की उन्नति भी सम्भव नहीं है । वस्तुतः दन्तिकरण के द्वारा विभिन्न साधनों से प्राप्त की जाने वाली पूँजी में वांछित तथा उचित अनुपात निर्धारित करने में पर्याप्त सहायता मिलती है तथा प्राप्त धन का अधिकतम उपयोग किया जा सकता है । संक्षेप में, इसके महत्त्व को निम्नांकित शीर्षकों के रूप में अभिव्यक्त किया जा सकता है

1 .विभिन्न स्त्रोतों द्वारा प्राप्त की जाने वाली पूँजी में सन्तुलित मिश्रण निर्धारित करना ;

2 .प्राप्त धन का अधिकतम सम्भव उपयोग किया जाना ;

3 .स्वामियों को अधिकतम आय प्रदान करना;

4 व्यापार-चक्रों के कुप्रभावों से सुरक्षा।

व्यापार-चक्रों में दन्तिकरण का प्रभाव (Effect of Capital Gearing during Trade Cycles)

पूँजी दन्तिकरण प्रबन्धकों के हाथों में एक प्रभावशाली वित्तीय शस्त्र होता है जिसका प्रयोग करके प्रबन्धक उपक्रम की स्थिति को सुदृढ़ बनाये रख सकता है। इसका प्रभाव तेजी एवं मन्दी काल दोनों में ही देखा जा सकता है

(i) मुद्रा-स्फीति अथवा तेजी काल (Inflation or Boom period)-मुद्रा-स्फीति या तेजी काल में उत्पादन तथा मूल्यों में वृद्धि होती है जिसके कारण इस अवधि में लाभोपार्जन क्षमता अधिक होती है। इसलिए इस समय में स्थायी लागत वाली प्रतिभूतियों जैसे, पूर्वाधिकार अंश, ऋणपत्र, आदि का निर्गमन लाभदायक होता है क्योंकि उन पर पूर्व निश्चित दर से ब्याज व लाभांश देकर बढ़ी हुई आय का शेष भाग समता अंशधारियों में बाँटा जा सकता है। परिणामस्वरूप इनकी पूँजी पर प्रत्याय दर (rate of return) में वृद्धि हो जाती है। अतः तेजी काल में कम्पनी की पूँजी-संरचना में उच्च पूंजी दन्तिकरण ही अच्छा माना जाता है।

(ii) मद्रा-संकचन अथवा मन्दीकाल (Deflation or Depression period)-मुद्रा-संकुचन या। मन्दी काल में मूल्यों में कमी होती है जिसके कारण व्यवसाय की लाभार्जन क्षमता गिर जाती है। मन्दी के समय व्यवसाय उसी तरह धीरे-धीरे चलता है जैसे कि पहाड़ी चढ़ाई पर मोटर धीरे-धीरे आगे बढ़ती है। इसलिए मन्दी काल में वित्तीय प्रबन्धकों को ऐसी प्रतिभूतियों का प्रयोग करना चाहिए जिन पर अस्थायी लागत आती हो अर्थात समता अंश । दूसरे शब्दों में, मन्दी काल में कम्पनी की पूँजी-संरचना में निम्न पूँजी दन्तिकरण रखना। चाहिए. अन्यथा समता अंशधारियों के हितों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।

निष्कर्ष रूप में, यह कहा जा सकता है कि एक सफल वित्त प्रबन्धक को व्यवसाय चक्रों की गति के अनसार पूँजी गियरिंग बदलते रहना चाहिए ताकि व्यवसाय को तेजी या मन्दी के झटकों से बचाया जा सके।

पूँजी दन्तिकरण से सम्बन्धित क्रियात्मक उदाहरण

(Numerical Illustrations Related to Capital Gearing)

दन्तिकरण से सम्बन्धित क्रियात्मक प्रश्नों में किसी कम्पनी की दी हुई सूचनाओं के आधार पर यही पछा जाता है कि सम्बन्धित कम्पनी में उच्च दन्तिकरण है या निम्न दन्तिकरण । इसकी जाँच करने के लिए पंजी दन्तिकरण अनुपात का प्रयोग किया जाता है । यह अनुपात स्वामी-पूँजी तथा स्थिर लागत वाली पूँजी के मध्य पाये जाने वाले सम्बन्ध को दर्शाता है।

पूँजी दन्तिकरण अनुपात ज्ञात करने के लिए निम्नलिखित सत्र का प्रयोग किया जाता है

Capital Gearing Ratio

= Equity Share Capital + Reserve & Surplus

Total Debt Capital including Pref. Share Capital

निर्वचन-यदि किसी कम्पनी में स्वामी-पूँजी का अनुपात स्थिर लागत वाली पूँजी की तुलना में कम होता है तो इसे उच्च दन्तिकरण (high gearing) कहते हैं जबकि स्थिर लागत वाली पूँजी की तुलना में स्वामी-पूँजी का अनुपात अधिक होने पर निम्न दन्तिकरण (low gearing) माना जाता है । स्पष्ट है कि पूँजी दन्तिकरण अनुपात और पूँजी दन्तिकरण में विपरीत सम्बन्ध है । जब पूँजी दन्तिकरण अनुपात 1 से कम हो तो उच्च दन्तिकरण और 1 से अधिक हो तो निम्न दन्तिकरण मानते हैं।

Illustration 13. एक्स लिमिटेड तथा वाई लिमिटेड की पूँजी-संरचना निम्नलिखित प्रकार हैThe Capital Structures of X Ltd. and Y Ltd. are as under :

                                                                             X Ltd.                          Y Ltd.

Rs.                               Rs.

 

Equity Share Capital                           4,00,000                     1,50,000

6% Pref. Share Capital                      1,80,000                        2,50,000

8% Debenture                                      1,20,000                        1,50,000

Reserve                                                   80,000                           30,000

Profit and Loss Appropriation    1,20,000                        20,000

दोनों कम्पनियों के पूँजी दन्तिकरण पर अपनी टिप्पणी दीजिए।

Comment upon the capital gearing of the two companies.

Illustration 14. एक व्यवसाय में विनियोजित पूँजी इस प्रकार है

The capital invested in a business is as follows:

टिप्पणी-चूँकि समता अंश-पूँजी पर अर्जन दर, सामान्य प्रत्याय दर की तुलना में अधिक है, अत: हम यह कह सकते हैं कि समता अंशधारियों को समता पर व्यापार का धनात्मक लाभ प्राप्त हो रहा है।

Illustration. 15. एक कम्पनी का कुल पूँजीकरण 20,00,000 रु. है और इसके चार विकल्प निम्नांकित प्रकार हैं

टिप्पणी-(i) दन्तिकरण अनुपात की गणना से स्पष्ट है कि विकल्प I और II में उच्च दन्तिकरण है। । विकल्प III में निम्न दन्तिकरण है। विकल्प IV में दन्तिकरण शून्य है।

(ii) विभिन्न विकल्पों का अवलोकन करने से स्पष्ट है कि जैसे-जैसे उच्च दन्तिकरण (high gearing) से निम्न दन्तिकरण (low gearing) की ओर बढ़ रहे हैं, समता अंशधारियों की आय की दर में क्रमशः कमी आ रही है।

(iii) विकल्प I, II तथा III में समता अंश-पूँजी की अर्जन दर, सामान्य प्रत्याय दर से अधिक है, इसलिए कम्पनी को समता पर व्यापार की नीति का लाभ प्राप्त हो रहा है। चतुर्थ विकल्प में दोनों दरें समान हैं, अतः यह शून्य समता पर व्यापार की स्थिति है।

chetansati

Admin

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