BCom 2nd Year Entrepreneurship Behavior Motivation Study Material notes in Hindi

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BCom 2nd Year Entrepreneurship Behavior Motivation Study Material notes in Hindi

Table of Contents

BCom 2nd Year Entrepreneurship Behavior Motivation Study Material notes in Hindi: Meaning  and Motivation meaning and Definition Motivation Features Objectives  Need and Importance  Case for Social Responsibility Concept of Social obligation Responsibilities of Business Ent towards Different Interest Groups Concept of social  ( Most Important For BCom 2nd Year Students )

Behavior Motivation Study Material
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BCom 3rd Year Corporate Accounting Underwriting Study Material Notes in hindi

उद्यमिता व्यवहार एवं प्रेरणा

(Entrepreneurial Behaviour and Motivation)

“उद्यमी प्रबन्धक से अधिक है, वह नव प्रवर्तक तथा प्रवर्तक दोनों ही है।”

शीर्षक

  • उद्यमिता व्यवहार—अर्थ एवं प्रेरणा (Entrepreneurial Behaviour Meaning and Motivation)
  • प्रेरणा—अर्थ एवं परिभाषा (Motivation-Meaning and Definition)
  • अभिप्रेरणा–लक्षण, उद्देश्य, आवश्यकता एवं महत्व (Motivation Features, Objectives, Need and Importance)
  • प्रेरणा के सिद्धान्त-मास्लो की आवश्यकता प्राथमिकता विचारधारा, डेविड सी-मैक्लीलैण्ड की विचारधारा,क्लेटन एल्डरफर की ERG विचारधारा (Theories of Motivation-Maslow’s Need Hierarchy Theory, Mc Clelland’s Theory; and Clayton Alderfer’s ERG Theory) अन्य मनोवैज्ञानिक विचारधाराएं-जोसेफ ए. शुम्पीटर की विचारधारा एवरेट ई. हेगन की विचारधारा एवं जॉन कुनकेल की विचारधारा। (Other Psycho-Theories-Joseph A. Schumpeter’s Theory; Everett E. Hegen’s Theory; and John Kunkel Theory)
  • सामाजिक उत्तरदायित्व की विचारधारा (Concept of Social Obligation/Responsibilities)
  • सामाजिक उत्तरदायित्व के लिए पक्ष (Case for Social Responsibility)
  • सामाजिक उत्तरदायित्व के लिए विपक्ष (Case Against Social Obligation/Responsibility)
  • विभिन्न वर्गों के प्रति व्यवसाय/उपक्रम का उत्तरदायित्व (Responsibility of Business/Ent towards different Interest Groups)

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उद्यमिता व्यवहार अर्थ एवं प्रेरणा

(Entrepreneurial Behaviour-Meaning and Motivation)

उद्यमिता एक मनोवैज्ञानिक क्रिया है, इसी कारण यह लम्बे समय से सुजनात्मक तथा नवाचार (Innovations) का स्रोत मानी जाती रही है। उद्यमीय व्यक्तित्व में अनेक प्रवृत्तियाँ सम्मिलित होती हैं क्योंकि उद्यमी एक सृजनात्मक व्यक्ति होता है। उद्यमी अनेक मनोवैज्ञानिक अभिवृत्तियों, मानसिक झुकावों, पूर्ववृत्तियों एवं भावनाओं से संचालित होता है, अतएव उद्यमीय क्रियाएं प्रारम्भिक मानसिक पृष्ठभूमि का ही परिणाम हैं। किसी नई उपलब्धि को पाने के लिए आत्मस्वार्थ की भावना, उस पर एक नई वस्तु, काम करने का नया तरीका, प्राकृतिक पदार्थ के नये स्रोत एवं एक नये बाजार आदि की रचना करने के लिए दबाव डालती है। उसका व्यवहार किसी लक्ष्य या आवश्यकताओं की सन्तुष्टि की ओर नियन्त्रित होता है। जब भी कोई किसी जरूरत में होता है तो वह उसे पूरा करने के लिये व्याकुल होता है एवं उसे पूरा करने के लिए दिमाग में चिन्ता शुरू हो जाती है। यह चिन्ता उसे कोई ऐसा कार्य करने के लिये उत्साहित करती है, जिससे उसकी जरूरत पूरी हो सके। यदि उस जरूरत की पर्ति नहीं होती है तो उसे उस जरूरत को पूरा करने के लिए दूसरे विकल्पों पर निर्भर रहना पड़ता है। अत: यह कहा जा सकता है कि उद्यमीय क्रियाओं के विकास में उद्यमी के व्यक्तित्व की अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका होती है। व्यक्तित्व का मनोवैज्ञानिक भागउसकी दृष्टि, अवबोधन (Perception), चिन्तन शैली, इच्छायें, स्वभाव, स्ववृत्तियाँ, स्वधारणा (Self Concept) आदि साहसी के व्यवहार को सर्वाधिक नियन्त्रित, अभिप्रेरित एवं संचालित करती हैं।

अनेक विद्वानों ने उद्यमिता को प्रभावित करने वाले घटकों को अपने शब्दों में प्रकट किया है। इन विद्वानों में अखौरी (Akhouri), डेविड सी. मैक्लीलैण्ड (David C.McClelland), पोटर्स, विन्टर (Winter),जेविलिओनर (Javillionar) आदि प्रमुख हैं। इन विद्वानों ने उद्यमी के विभिन्न मनोवैज्ञानिक गुणों का वर्णन किया है, जो उसकी प्रभावोत्पादकता को बढ़ा देते हैं।

निष्कर्षरूप में, कहा जा सकता है कि किसी उपक्रम एवं संगठन की सफलता बहुत कुछ सीमा तक उद्यमिता के व्यवहार पर निर्भर करती है। वह समय लद गया, जबकि उद्यमी डन्डे के बल (Rule of Rod) पर उपक्रम का संचालन करते थे। अब तो उसे वांछित सफलता प्राप्त करने के लिए नवाचार तथा मनोवैज्ञानिक विचारधाराओं का उपयोग करना होगा।

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प्रेरणाअर्थ एवं परिभाषा

(Motivation–Meaning and Definition)

प्रेरणा मानवीय जरूरतों (Human needs) की अभिव्यक्ति है। इसका अर्थ है कि एक मनुष्य जब कोई कार्य करता है तो इसके पीछे उसकी कोई-न-कोई ऐसी जरूरत होती है जो उसे उस कार्य को करने के लिए प्रेरित करती है। काम करने के लिए प्रेरित करने वाली इन जरूरतों को प्रेरणा कहते हैं और मनुष्य के दलों को काम करने के लिए प्रेरित करने के उद्देश्य से इन जरूरतों को महसूस कराने की प्रक्रिया को अभिप्रेरणा कहा जाता है। वास्तव में अभिप्रेरणा शुद्ध प्रेरणा (Motive) से निकला है। अतः अभिप्रेरणा का अर्थ मनुष्य के भीतर उस तत्व से है, जो उसे कार्य करने के लिए उत्साहित करता है। जहाँ व्यक्ति कार्य करते हैं वहाँ उनसे उनकी श्रेष्ठतम क्षमता तक कार्य करने के लिए अभिप्रेरणा की आवश्यकता होती है।

अभिप्रेरणा को हैनरी फेयोल ने आदेश (direction) तथा “कूण्टज ओ’डोनेल ने निर्देश (Command) कहा है। प्रबन्ध के विभिन्न विद्वानों द्वारा दी गयी परिभाषाओं में से अभिप्रेरणा की कुछ महत्त्वपूर्ण परिभाषाएं निम्नलिखित हैं

एम.जे. जुसियस के शब्दों में, “साधारण अर्थ में, अभिप्रेरणा किसी अन्य अथवा स्वयं को वांछित गतिविधियों का अनुसरण के लिए उत्तेजित करने का कार्य है अथवा वांछित प्रतिक्रिया प्राप्त करने के लिये सही बटन दबाना है।”1

डेल.एस. बीच के शब्दों में, “अभिप्रेरणा को एक लक्ष्य अथवा पुरस्कार प्राप्त करने के लिए शक्ति का विस्तार करने की तत्परता के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।”2

केरोल शार्टल के शब्दों में, “अभिप्रेरणा एक निश्चित दिशा में अग्रसर होने अथवा निश्चित लक्ष्य को प्राप्त करने की उत्कृष्ट इच्छा या अभिवृत्ति को कहते हैं।”

स्टेनले वेन्स के शब्दों में, “कोई भी भावना अथवा इच्छा जो किसी व्यक्ति के संकल्प को इस प्रकार अनुकूलित करती हैं कि वह व्यक्ति कार्य को प्रेरित हो जाये, उसे अभिप्रेरणा कहते हैं।”4 ।

डी.. मैक्फरलैण्ड के शब्दों में, “अभिप्रेरणा उस रीति को निर्दिष्ट करती है, जिसमें संवेगों, उद्वेगों, इच्छाओं, आकांक्षाओं, प्रयासों या आवश्यकताओं को मानवीय आचरण को निर्देशन, नियन्त्रण एवं स्पष्टीकरण के लिए प्रयोग में लाया जाता है।

कण्टज एवं डोनेल के अनुसार, “अभिप्रेरित करना लोगों को इच्छित ढंग से कार्य के लिये प्रेरित करना है।”2

संक्षेप में अभिप्रेरणा से आशय उस मनोवैज्ञानिक उत्तेजना से है, जो व्यक्तियों को कार्य के प्रति प्रोत्साहित करती है, कार्य पर बनाए रखती है तथा अधिकतम कार्य सन्तुष्टि प्रदान करती है। मनोवैज्ञानिकों ने अभिप्रेरणा को निम्नवत् वर्णित किया है ।

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(1) क्रियाकलाप की दिशा, तीव्रता तथा लगनशीलता पर तुरन्त होने वाले प्रभाव।

(2) क्रियाशीलता को प्रारम्भ करने, कार्य की प्रगति को बनाए रखने तथा कार्य की रूपरेखा को नियन्त्रित करने की प्रक्रिया।

(3) ऐसी अन्त:प्रेरणा जो क्रियाकलापों को आरम्भ करती है तथा व्यवहार को लक्ष्योन्मुख करती है।

(4) समस्त क्रियाशीलता के दौरान व्यवहार किस प्रकार प्रारम्भ होता है, अर्जित होता है, पोषित होता है, दिग्दर्शित होता है, रुकता है तथा जीव में किस प्रकार की व्यक्तिनिष्ठ प्रतिक्रियाएँ पाई जाती हैं।

(5) अपनी क्रियाओं को निश्चित लक्ष्य की ओर ले जाना तथा अपनी शक्तियों के कुछ अंश को इनकी प्रतिक्रियाओं हेतु उपयोग करना।

निष्कर्ष “अभिप्रेरणा निश्चित लक्ष्यों अथवा परिणामों की प्राप्ति हेतु मानवीय व्यवहार को प्रभावित करने, निर्देशित करने अथवा उत्प्रेरित करने की प्रक्रिया है।”

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अभिप्रेरणालक्षण, उद्देश्य, आवश्यकता एवं महत्त्व

(Motivation-Features, Objectives, Need and Importance)

अभिप्रेरणा के विशेष लक्षण (Special Features of Motivation)

अभिप्रेरणा के निम्नलिखित विशेष लक्षण हैं

(1) अभिप्रेरणा एक मनोवैज्ञानिक तत्त्व है (Motivation is a Psychological Element) यह मनुष्य की मानसिकता तत्परता व रुचि को प्रभावित करता है। मैकफरलैण्ड के शब्दों में “अभिप्रेरणा का विचार मुख्यतया मनोवैज्ञानिक है। यह एक विशिष्ट कर्मचारी अथवा अधीनस्थ के अन्तर्गत कार्यरत ऐसी शक्तियों से सम्बन्ध रखता है जो उसे किसी प्रकार कार्य करने या न करने के लिए प्रेरित करती हैं।” अर्थात् यह कहा जा सकता है कि अभिप्रेरणा मनुष्य के अन्दर पैदा होती है, बाहर नहीं।

(2) मनष्य की अभिप्रेरणा प्रक्रिया भिन्नभिन्न होती है (Motivational Processes differ from man to man) जो आवश्यकता एक व्यक्ति को अभिप्रेरित करती है, दूसरे व्यक्ति को नहीं और जो आवश्यकता एक व्यक्ति को एक समय अभिप्रेरित करती है, उसी व्यक्ति को दूसरे समय अभिप्रेरित नहीं करती है।

(3) मनुष्य की आवश्यकताएँ कभी पूर्ण नहीं होतीं (Human needs never end)-मनुष्य एक आवश्यकतापूर्ण प्राणी होने के कारण उसकी आवश्यकताएं कभी पूर्ण नहीं होती। एक आवश्यकता पूरी हो जाने पर दूसरी आवश्यकता उत्पन्न हो जाती है और इस प्रकार वह प्रत्येक आवश्यकता की पूर्ति करने के लिए कार्य करता रहता है।

(4) अभिप्रेरणा मनष्य के व्यवहार को प्रभावित करती है (Motivation effects human behaviour) – मनुष्य के प्रत्येक कार्य के पीछे कोई-न-कोई प्रेरणा अवश्य होती है और यह प्रेरणा मनुष्य के व्यक्तित्व, उसकी आवश्यकताओं. उसके वातावरण तथा उसकी मनोदशा पर निर्भर करती है।

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अभिप्रेरणा के उद्देश्य (Objects of Motivation)

अभिप्रेरणा का उद्देश्य सामान्यत: निम्नांकित उद्देश्यों की प्राप्ति करना होता है।

(1) संस्था के लक्ष्यों की प्राप्ति करना,

(2) संस्था में कार्यरत कर्मचारियों का स्वैच्छिक सहयोग प्राप्त करना,

(3) कर्मचारियों के मनोबल को ऊँचा उठाना,

(4) मधुर श्रम सम्बन्धों की स्थापना करना,

(5) कर्मचारियों की कार्यकुशलता में वृद्धि करना,

(6) कर्मचारियों के मध्य पारस्परिक सहयोग की भावना में वृद्धि करना,

(7) बाहर से थोपे गये नियन्त्रण के स्थान पर कर्मचारियों में आत्म-नियन्त्रण (Self Control) की प्रवृत्ति को प्रभावित करना,

(8) कर्मचारियों की आर्थिक, सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं की पूर्ति करना,

(9) कार्य से मिलने वाली सन्तुष्टि में वृद्धि करना, एवं

(10) उत्पादन में वृद्धि करना

अभिप्रेरणा की आवश्यकता एवं महत्व (Need and Importance of Motivation)

परम्परागत प्रबन्ध के अन्तर्गत कर्मचारियों की इच्छाओं, भावनाओं, अभिलाषाओं आदि को कोई महत्व नहीं दिया जाता था। कर्मचारी को एक दास बनाकर सेवानियोजक के यहाँ कम वेतन पर अधिक समय तक कार्य करना होता था। कर्मचारी को उत्पादन के अन्य साधनों के समान केवल एक साधन माना जाता था जिसके श्रम को वस्तु की भांति क्रय-विक्रय किया जा सकता था। इस प्रकार कर्मचारियों के प्रति मानवीय दृष्टिकोण नहीं अपनाया जा सकता था। सेवानियोजकों की यह धारणा थी कि कर्मचारियों के लिए कल्याणकारी कार्य करना उसके अधिकार के क्षेत्र से बाहर है और ईश्वर ही इस कार्य को कर सकता है। फलतः उस समय अभिप्रेरणा का कोई महत्व नहीं था। लेकिन वैज्ञानिक प्रबन्ध के प्रादुर्भाव और परिस्थितियों के तीव्र गति से परिवर्तन ने सेवानियोजकों को मानवीय सम्पदा पर सर्वाधिक ध्यान देने के लिए बाध्य कर दिया और कर्मचारियों के श्रम के महत्त्व को स्वीकार किया गया ।वैज्ञानकि प्रबन्ध के जन्मदाता एफ. डब्ल्यू. टेलर (F.W. Taylor) ने भी अभिप्रेरणा के महत्व को स्वीकार किया और प्रेरणात्मक मजदरी पद्धति को बल दिया।

अभिप्रेरणा के महत्त्व का विस्तृत अध्ययन करने के पूर्व हमें यह समझ लेना चाहिए कि ‘कार्य की क्षमता’ (capacity to work) और ‘कार्य करने की इच्छा’ (will to work) दो अलग-अलग तथ्य हैं। एक व्यक्ति शारीरिक, मानसिक, तकनीकी सभी दृष्टियों से कार्य करने योग्य हो सकता है, लेकिन वह कार्य करना नहीं चाहता अर्थात उसकी कार्य करने की इच्छा नहीं है तो ऐसी स्थिति में आवश्यकता इस बात की है कि उसकी कार्य के प्रति इच्छा जाग्रत की जाय और इस हेतु उसे अभिप्रेरित किया जाये। अत: जनरल फूड कार्पोरेशन (General Food Corporation) के भूतपूर्व अध्यक्ष क्लेरेन्स फ्रान्सिस (Clarence Francies) ने ठीक ही कहा है, “आप व्यक्ति का समय खरीद सकते हैं, आप एक विशिष्ट स्थान पर किसी व्यक्ति की शारीरिक उपस्थिति खरीद सकते हैं, लेकिन आप किसी व्यक्ति का उत्साह, पहलपन या वफदारी नहीं खरीद सकते हैं।”अभिप्रेरणा की आवश्यकता एवं महत्त्व को हम शीर्षकों द्वारा और अच्छी तरह स्पष्ट कर सकते हैं

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(1) निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु (To achieve the required objectives)—प्रत्येक संस्था के कर्मचारियों को आवश्यक अभिप्रेरणा प्रदान करने से निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति सरल हो जाती है। अभिप्रेरणाओं से कर्मचारियों को कार्य करने की इच्छा जाग्रत हो जाती है और उनके प्रयास निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति की ओर ही होते हैं। एक संस्था के पास भले ही प्रचुर मात्रा में वित्तीय साधन हो, उच्च किस्म का कच्चा माल हो, आधुनिक मशीनें हों और प्रशिक्षित कर्मचारी हों, लेकिन उत्पादन में वृद्धि उस समय तक नहीं हो सकती जब तक कि कर्मचारियों में कार्य करने की इच्छा जाग्रत न हो। अत: कर्मचारियों को कार्य करने की इच्छा जाग्रत कर निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु उन्हें मौद्रिक एवं अमौद्रिक प्रेरणाएं दी जानी आवश्यक हैं।

(2) कर्मचारियों का सहयोग प्राप्त करने हेतु (To Self-co-operation of the workers) कर्मचारियों का स्वच्छिक सहयोग प्राप्त करने के लिए भी उन्हें आवश्यक प्रेरणाएं दी जानी आवश्यक हैं। अभिप्रेरित कर्मचारी अपने अधिकारियों और साथियों दोनों के साथ ही सहयोगपूर्ण व्यवहार करते हैं। उपक्रम के निर्धारित लक्ष्यों की पूर्ति हेतु जी-जान लगाकर कार्य करते हैं और निश्चित समय में ही आवंटित कार्य के निष्पादन का प्रयास करते हैं।

(3) कर्मचारियों के मनोबल में वृद्धि करने हेत (To boost the morale of the employees) कर्मचारी-मनोबल  उनके उत्साह, जोश, अभिवृत्तियों आदि से सम्बन्ध रखता है जो उन्हें कार्य करने के लिए अभिप्रेरित करता है। अत: कर्मचारियों को दी जाने वाली विभिन्न अभिप्रेरणाएं निश्चित ही उनके मनोबल में वृद्धि करती हैं। अभिप्रेरणाओं से जब एक कर्मचारी की विभिन्न प्रकार की आवश्यकताएं सन्तुष्ट हो जाती हैं तो वह निश्चय ही मन लगाकर कार्य करता है। अभिप्रेरणाएं उसके मनोबल का निर्माण करने और उसमें वृद्धि करने में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती हैं।

(4) मानवीय सम्बन्धों की स्थापना हेतु (To establish human relations) वैज्ञानिक प्रबन्ध के प्रादुर्भाव के साथ-साथ ही सौहार्दपूर्ण मानवीय सम्बन्धों की स्थापना पर बल दिया जाने लगा। वर्तमान में हुए और हो रहे परिवर्तनों ने भी इस ओर सभी का ध्यान, आकृष्ट किया है। मानवीय सम्बन्धों की विचारधारा इस तथ्य पर बल देती है कि कर्मचारी पहले मानव है और बाद में कर्मचारी। अत: उसके साथ मानवतावादी दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए। अब यह विचारधारा लद गयी है जो कर्मचारी को उत्पादन के अन्य साधनों के समान क्रय-विक्रय की वस्तु मान कर चलती थी। कर्मचारियों के साथ मानवीय सम्बन्ध रखने पर उत्पादकता में भी वृद्धि की जा सकती है। वित्तीय और अवित्तीय प्रेरणाएँ इस दिशा में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।

(5) मानवीय साधनों का सदुपयोग करने हेतु (To make prper use of human resources)-उत्पादन के विभिन्न साधनों में मानव एक महत्त्वपूर्ण साधन है। इस साधन के सदपयोग पर ही संस्था की प्रगति निर्भर करती है, अतः उन्हें विभिन्न प्रकार की अभिप्रेरणाएं प्रदान की जानी चाहिए। अभिप्रेरित कर्मचारी अपनी पूर्ण योग्यता एवं क्षमता से कार्य करता है और संस्था के विकास को ही अपना ध्याय समझता है।

(6) कार्य के प्रति रुचि जाग्रत करने हेतु (To create interest in the work) हम आरम्भ में ही स्पष्ट कर। चुके हैं कि कार्य करने की क्षमता और कार्य करने की इच्छा दो अलग अलग तथ्य हैं। कर्मचारियों की कार्य के प्रति इच्छा जाग्रत करने हेतु उन्हें विभिन्न प्रकार की प्रेरणाएं दी जाती हैं। एक विद्वान के अनुसार, “अभिप्रेरणाएं एक इंजेक्शन के समान हैं।” अभिप्रेरणाओं के अभाव में कर्मचारी कार्य के प्रति कोई विशेष रुचि नहीं लेते, परिणामस्वरूप उत्पादन में कमी आती है, और संस्था को विभिन्न प्रकार की हानियाँ उठानी पड़ती हैं।

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(7) अच्छे श्रमसम्बन्धों के निर्माण हेतु (To form better labolur relation)-कर्मचारियों को आवश्यक प्रेरणाएं प्रदान करने से सौहार्दपूर्ण श्रम-सम्बन्धों का निर्माण किया जा सकता है और औद्योगिक अशांति को दर किया जा सकता है। श्रम-सम्बन्धों में कटुता आने का एक प्रमुख कारण कर्मचारियों को ठीक ढंग से अभिप्रेरित न करना माना गया है। अभिप्रेरणाओं से जहाँ एक ओर उनकी कार्यकुशलता एवं मनोबल में वृद्धि की जाती है वहाँ दूसरी ओर उनकी शिकायतों एवं परिवेदनाओं का उचित निवारण भी किया जाता है। फलतः प्रबन्ध और श्रम के मध्य अशान्ति या मनमुटाव का वातावरण उत्पन्न ही नहीं हो पाता। इस प्रकार अभिप्रेरणाओं का प्रबन्ध एवं श्रम के मध्य मधुर सम्बन्धों की स्थापना के लिए विशेष महत्त्व है।

(8) कर्मचारियों को सामाजिक, मानसिक, शारीरिक, आर्थिक सभी प्रकार की आवश्यकताओं की सन्तुष्टि प्रदान करने हेतु वित्तीय एवं अवित्तीय प्रेरणाएं दी जानी आवश्यक हैं।

(9) कर्मचारियों को कार्य सन्तुष्टि (Job-satisfaction) की उपलब्धि कराने हेतु भी अभिप्रेरणाओं का विशेष महत्त्व है।

(10) संस्था की सम्पूर्ण कार्यक्षमता में वृद्धि करने के लिए भी अभिप्रेरणा का महत्त्व दिन-दुगुनी रात चौगुनी दर से बढ़ता जा रहा है।

(11) नवीन एवं आधुनिक साधनों के प्रयोग हेतु भी कर्मचारियों को अभिप्रेरित करना आवश्यक है। (12) कर्मचारियों के आवागमन को रोकने के लिए तो अभिप्रेरणा एक रामबाण औषधि के समान है।

जिलरमैन के अनुसार, अभिप्रेरणा तीन कारणों से आवश्यक है—(i) इसके फलस्वरूप कार्यकुशलता बढ़ती है और उत्पादकता में वृद्धि होती है। (ii) अभिप्रेरणा कर्मचारियों को नये परिवर्तनों का विरोध करने से या उत्पादन को कम करने से रोकती है, एवं (iii) उपयुक्त अभिप्रेरणा से कर्मचारियों को अपना कार्य करने में सन्तोष मिलता है और वह उसे अधिक आनन्दपूर्वक करते हैं।

निष्कर्ष अन्त में अभिप्रेरणा का महत्त्व दशति हुए बीच ने लिखा है,”अभिप्रेरणा की समस्या व्यावहारिक प्रबन्ध की एक कजी है तथा निष्पादित रूप में यह प्रमुख प्रबन्ध आधकारा का मुख्य कार्य है। अत: निश्चित रूप में यह कहा जा सकता है कि संगठन की भावना उच्च स्तर से अभिप्रेरणा का प्रतिबिम्ब है।”

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प्रेरणा के सिद्धान्त

(Theories of Motivation)

आवश्यकता प्रेरणा का आरम्भ है। पूरी हो चुकी जरूरत एक व्यक्ति को प्रेरित नहीं करती। हाँ, अपूर्ण जरूरत चिन्ता। अवश्य पैदा करती है तथा व्यक्ति को आवश्यकता की पूर्ति और चिन्ता कम करने के लिए उत्साहित करती है। व्यक्ति द्वारा की गई कोशिशों का परिणाम आवश्यकता की पूर्ति या चिन्ता का निवारण होगा। प्रेरणा के सिद्धान्त जो उद्यमी के लिए आवश्यक – हैं, इस प्रकार से हैं

मास्लो की आवश्यकताप्राथमिकता विचारधारा (Maslows Need Hierarchy Theory)

इस विचारधारा के प्रतिपादक अब्राहम मास्लो हैं। मास्लो ने अभिप्रेरणा की विचारधारा को आवश्यकताओं की क्रमबद्धता । के आधार पर विकसित किया। उनके अनुसार मनुष्य की आवश्यकताएँ अनन्त हैं तथा वह इनको पूरा करने के लिए एक क्रम। को अपनाता है। एक व्यक्ति के काम के प्रति रुचि जाग्रत करने के लिए उसकी एक के बाद दूसरी आवश्यकताओं को सन्तुष्ट । करना आवश्यक है। मास्लो ने मनुष्य की आवश्यकताओं को पाँच भागों में बाँटा है

(1) शारीरिक आवश्यकताएँ (Physiological Needs)—ये मनुष्य की आधारभूत आवश्यकताएँ हैं तथा ये जीवन । को कायम रखने के लिए आवश्यक होती हैं। इनमें भोजन, वस्त्र, आवास, पानी, निद्रा, विश्राम, यौन-सुख आदि को शामिल किया जाता है।

(2) सुरक्षा सम्बन्धी आवश्यकताएँ (Safety Needs) इन आवश्यकताओं को आगे तीन उप-भागों में बाँटा जा सकता है

() भौतिक सुरक्षा (Physical Needs) के अन्तर्गत बीमारी, दुर्घटना, शारीरिक हानि, आक्रमण आदि से बचाव करना आता है; (ब) आर्थिक सुरक्षा (Economic Safety) के अन्तर्गत सम्पत्ति की सुरक्षा, आय की सुरक्षा तथा वृद्धावस्था के लिए उचित व्यवस्था करना आदि आते हैं; एवं (स) मनोवैज्ञानिक अथवा मानसिक सुरक्षा (Psychological Safety) के अन्तर्गत विभिन्न प्रकार की अनिश्चितताओं से छुटकारा जैसे न्याय तथा सहानुभूति की आशा आदि।

(3) सामाजिक आवश्यकताएँ (Social Needs)-मनुष्य चाहता है कि उसके मित्र व सम्बन्धी हों जिनके साथ वह अपना दुख-दर्द बाँट सके, मिलकर खुशी मना सके तथा अपना समय व्यतीत कर सके। सामाजिक प्राणी होने के नाते वह चाहता है कि समाज के अन्य व्यक्ति उसे समाज का एक अभिन्न अंग समझें। मास्लो इन्हें सामाजिक आवश्यकताएँ कहते हैं।

(4) सम्मान पद की आवश्यकताएँ (Esteem and Status Needs)-ये मनुष्य की अहम् आवश्यकताएँ (Ego Needs) कहलाती हैं। प्रत्येक मनुष्य चाहता है कि समाज में उसका मान-सम्मान हो तथा उसे अधिकार व शक्ति प्राप्त हों, उसे अच्छे कार्य के लिए मान्यता मिले तथा पदोन्नति के पर्याप्त अवसर मिलें। इनमें से कुछ आवश्यकताएँ तो जीवन-भर संतुष्ट नहीं हो पातीं, परन्तु कुछ अवश्य ही सन्तुष्ट हो जाती हैं।

(5) आत्मप्राप्ति या स्वयं विकास की आवश्यकताएँ (Self-Actualisation Needs) इस प्रकार की आवश्यकताओं में मनुष्य जितना बनने की योग्यता व क्षमता रखता है, उतना वह बन जाए। जैसे, एक कलाकार कलाकृतियाँ बना सके, संगीतकार संगीत बना सके तथा कवि कविताएँ लिख सके। मनुष्य की इस प्रकार की इच्छा को हम आत्म-प्राप्ति अथवा स्वयं विकास की आवश्यकता कहते हैं। मास्लो के अनुसार, “मनुष्य क्या बन सकता है, वह बनना चाहिए” (What a man can be, he must be)। आमतौर पर मनुष्य अपनी निम्न स्तर की आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करने में लगे रहते हैं और इस स्तर पर नहीं पहुँच पाते।

मास्लो के अनुसार मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति एक क्रम में करता है। मनुष्य सबसे पहले अपनी शारीरिक आवश्यकताओं को पूरा करता है। इनके पूरा होने के पश्चात् वह सुरक्षा सम्बन्धी आवश्यकताओं के बारे में सोचता है तथा इन्हें पूरा करने की चेष्टा करता है। इनके पूरा होने पर मनुष्य में सामाजिक, मान-सम्मान, मान्यता, अधिकार व शक्ति की आवश्यकता उत्पन्न होती है तथा अन्त में उच्च स्तर प्राप्त करने के लिए कोई सृजनात्मक कार्य करने की आवश्यकता उत्पन्न होती है। इस प्रकार अगले स्तर तक जाने से पूर्व स्तर की आवश्यकताएँ पूरी की जाती हैं। इस क्रम के साथ-साथ बढ़ने की सीमा प्रत्येक व्यक्ति में अलग-अलग होती है तथा जैसे-जैसे एक व्यक्ति अन्तिम लक्ष्य आत्म-प्राप्ति की ओर बढ़ता है, वह प्रगति कठिनतम होती चली जाती है।

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मास्लो की अभिप्रेरणा की यह विचारधारा निम्नलिखित चार मान्यताओं पर आधारित है।

(i) मनुष्य का प्रत्येक कार्य किसी-न-किसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए किया जाता है तथा इन आवश्यकताओं को इनके मौलिक रूप में पाँच आधारभूत वर्गों में बाँट सकते हैं।

(ii) मनुष्य की इन पाँच आवश्यकताओं का एक निश्चित प्राथमिकता क्रम होता है। यद्यपि मनुष्य की इन आवश्यकताओं का यह प्राथमिकता क्रम अटल नहीं होता, फिर भी भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में तथा भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में यह प्राथमिकता क्रम कुछ बदल भी सकता है।

(iii) सन्तुष्ट आवश्यकताएँ मनुष्य को अभिप्रेरित नहीं करती हैं तब मनुष्य दूसरी आवश्यकताओं की पूर्ति में व्यस्त हो जाता है। इस प्रकार आवश्यकताओं का चक्र चलता रहता है। ये आवश्यकताएँ पुनः भी उपस्थित हो सकती हैं।

(iv) उच्च स्तर की आवश्यकता तब तक मनुष्य के व्यवहार पर प्रभाव नहीं डाल सकती जब तक उससे निम्न स्तर की आवश्यकताओं की संतुष्टि नहीं हो जाती। अर्थात् उच्च स्तर की आवश्यकताओं के महत्त्वपूर्ण बनने से पूर्व निम्न-स्तर की आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करना आवश्यक होता है।

प्राथमिक विचारधारा (Hierarchy of Needs)

Points to Remember

  • शारीरिक आवश्यकताएँ-भोजन, वस्त्र, आवास इत्यादि।
  • सुरक्षा सम्बन्धी आवश्यकताएँ-सेवा सुरक्षा, डर एवं भय से सुरक्षा, सम्पत्ति एवं जीवन की सुरक्षा इत्यादि।
  • सामाजिक आवश्यकताएँ-प्यार, दुलार, मिलकर खुशी मनाना एवं समय व्यतीत करना इत्यादि।
  • सम्मान की आवश्यकताएँ-पद की आवश्यकता, मान्यता, मान-सम्मान, इण्जत इत्यादि
  • स्वयं विकास की आवश्यकताएँ-विकास, अवसर, चुनौती, मन की सन्तुष्टि इत्यादि।

डेविड सी. मैक्लीलैण्ड की विचारधारा (David C. Me Clelland’ s Theory)

डेविड सी. मैक्लीलैण्ड की विचारधारा के अनुसार, “उपलब्धि पाने की तीव्र इच्छा व्यक्ति को उद्यमिता की क्रियाओं की ओर आकर्षित करती है।” व्यवसाय अथवा उद्योग के क्षेत्र में उत्कृष्टता की ऊँचाइयों को छने एवं विशिष्ट उपलब्धियाँ प्राप्त करने की भावना से ही किसी व्यक्ति में उद्यमी होने की क्षमता विकसित होती है। उपलब्धि की लालसा ही बच्चों के श्रेष्ठ ढंग से पालन-पोषण करने, श्रेष्ठता के प्रमापों, आत्म-निर्भरता, स्वतन्त्रता, प्रशिक्षण, पर निर्भरता, पिता के प्रभुत्व में शिथिलता आदि बातों पर बल देने के लिए अभिप्रेरित करती है। इस प्रकार उपलब्धि की प्रबल इच्छा को एक प्रमुख घटक मानते हए मैवलीलैण्ड ने उद्यमिता के विकास के लिए ‘अभिप्रेरण प्रशिक्षण कार्यक्रम के आयोजन पर बल दिया है।

डेविड के अनसार उद्यमी को अपनी शक्तियों एवं दुर्बलताओं का समुचित ज्ञान होता है। लक्ष्य की प्राप्ति ही उसकी तीव इच्छा होती है। उसे कठिन कार्यों का सम्पादन करने में आनन्द प्राप्त होता है। ऐसे व्यक्तियों को डेविड ने ‘उच्च उपलब्धि’ मा Achievement) वाले उद्यमी कहकर सम्बोधित किया है। उद्यमियों में उपलब्धि प्रेरणा जाग्रत करने के सम्बन्ध में ही विभिन्न अनुसन्धान किये गये हैं।

डेविड के अनुसार एक व्यक्ति अपने जीवन के अनुभवों से तीन तरह की जरूरतों को पूरा करता है। जिस माहौल में वह रहता है, उस माहौल के साथ जुड़कर वह प्रेरणा स्त्रोत स्थापित करता है। इनके अनुसार उसकी जरूरतें इस प्रकार हैं

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(1) कार्य सिद्ध की जरूरतें (Needs for Achievement) यह आगे बढ़ने के लिए जरूरी होती हैं। इसका अर्थ एक व्यक्ति की अपनी कोशिशों से कुछ पाने की इच्छा से है। जिन लोगों की कार्य सिद्धि की जरूरतें उच्च हैं उन्हें सन्तुष्टि उद्देश्यों के प्राप्त होने पर होती है। ये व्यक्ति धनवान होते हैं एवं इन्हें धन की प्राप्ति, उद्देश्यों को प्राप्त करने की क्षमता से होती है। उच्च कार्य सिद्धि वाले व्यक्ति अपने कार्य के निष्पादन की प्रतिपुष्टि अथवा वापस जानकारी (Feedback) जल्दी पाना चाहते हैं तथा वे उन कार्यों को करते हैं जो न बहुत मुश्किल होते हैं और न बहुत आसान। ये व्यक्ति स्वंय अपने बलबूते पर कार्य करना चाहते हैं ताकि उनके सफल काम को उनकी कोशिशों से जोड़ा जा सके न कि किसी अन्य की कोशिशों से।

(2) प्रभाव की जरूरतें (Needs for Power)-दूसरे व्यक्तियों एवं परिस्थितियों को प्रभावित करने का स्रोत है। इस जरूरत का सम्बन्ध एक व्यक्ति की अपने अधिकारों को उपयोग में लाकर दूसरों पर प्रभुत्व जमाने की इच्छा से है। उद्देश्यों को पूरा करना उन साधनों से कम महत्त्वपूर्ण है जिन साधनों के द्वारा उद्देश्यों को पूरा किया जाता है। इस प्रकार के व्यक्ति नेतृत्व चाहते हैं एवं दबाव डालने वाले मेहनती एवं स्पष्टवादी होते हैं।

(3) सम्बन्ध की जरूरतें (Needs for Affiliation)-इस प्रकार की जरूरत का उद्देश्य दूसरों के साथ मैत्रीपूर्ण रिश्ते स्थापित करने की इच्छा से है। इस जरूरत को पूरा करने के लिए व्यक्ति सामाजिक एवं आपसी गतिविधियों से सन्तुष्टि प्राप्त करते हैं। व्यक्ति के व्यवहार में सम्बद्धता महत्त्वपूर्ण होती है। इसके अनुसार जो व्यक्ति सम्बद्धता की जरूरत को पूरा करना चाहते हैं वे आपसी लगाव पर खुशी महसूस करते हैं एवं नकारे जाने पर दुख प्रकट करते हैं। ये व्यक्ति अच्छे सामाजिक सम्बन्ध स्थापित करना चाहते हैं एवं घनिष्ठता में विश्वास रखते हैं तथा दूसरों की कठिनाई के समय उनकी सहायता करना पसन्द करते हैं।

III क्लेटन एल्डरफर की ERG विचारधारा (Clayton Alderfer’s ERG Theory)

एल्डरफर ने मास्लो की विचारधारा में सुधार किया है। एल्डरफर के अनुसार मास्लो की पाँच क्रम की जरूरतों के स्थान पर तीन जरूरतों पर ध्यान देने की आवश्यकता है—

ERG Theory, where

E Represents → Existence → Needs

R Represents → Relatedness → Needs

G Represents → Growth → Needs

(1) जीवन पद्धति की जरूरतें (Existence Needs)—ये जीवन पद्धति की जरूरतें व्यक्ति की शारीरिक व सुरक्षा जरूरतों का सम्मिश्रण हैं। इनको भौतिक अथवा वित्तीय (Financial) उत्प्रेरकों से सन्तुष्ट किया जा सकता है। इसमें भौतिक, मनोवैज्ञानिक सुरक्षा व जीवन की आवश्यकतायें शामिल हैं।

(2) सम्बन्ध जरूरतें (Relatedness Needs)-इसमें मास्लो की सामाजिक व सम्मान सम्बन्धी जरूरतों को शामिल किया जाता है जो दूसरे व्यक्तियों से उत्पन्न होती हैं। इन जरूरतों को व्यक्तिगत सम्बन्धों एवं सामाजिक आदान-प्रदान के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।

(3) विकास सम्बन्धी जरूरतें (Growth Needs)-इन जरूरतों को तभी पूरा किया जा सकता है जब कोई। व्यक्ति अपने आपको संगठन की गतिविधियों में शामिल करे एवं नई चुनौतियों व अवसरों के लिए सदैव तत्पर रहे। उपलब्ध अवसरों का उचित उपयोग करके अपने सृजनात्मक प्रयत्नों के द्वारा एक व्यक्ति अपनी सम्भावित शक्ति का स्पष्ट अनुभव कर सकता है।

एल्डरफर की विचारधारा के अनुसार विभिन्न प्रकार की जरूरतें एक साथ प्रभाव डाल सकती हैं, जबकि मास्लो की विचारधारा के अनुसार पदसोपान क्रम में ही जरूरतों को पूरा किया जाता है।

1 अन्य मनोवैज्ञानिक विचारधारायें (Other Psycho Theories)

अन्य मनोवैज्ञानिक विचारधाराओं में निम्न विचारधाराओं को शामिल किया जाता है—

(1) जोसेफ . शुम्पीटर की विचारधारा (Joseph A. Schumpeter’s Theory)-शुम्पीटर की उद्यमी मनोवैज्ञानिक विचारधारा के अनुसार, “साहसी मुख्य रूप में शक्ति पाने की इच्छा, निजी राज्य की स्थापना करने की इच्छा और किसी राज्य पर विजय प्राप्त करने की इच्छा से अभिप्रेरित होते हैं।” उनके अनुसार उद्यमी के व्यवहार में निम्न बातें स्पष्ट होती हैं

(i) भावी घटनाओं को इस प्रकार देखने की अन्त:प्रेरणा जो बाद में सत्य सिद्ध होती है,

(ii) स्थायी आदतों पर विजय पाने की शक्ति, इच्छा एवं संकल्प, तथा

(iii) सामाजिक प्रतिरोध का सामना करने की क्षमता।

शुम्पीटर के अनुसार, “उद्यमी एक नवप्रवर्तक व्यक्ति है जो नवाचार के द्वारा लाभ अर्जित करने की इच्छा रखता है। इसमें मनोवैज्ञानिक शक्तियां निहित होती हैं और उन्हीं से वह अभिप्रेरित होता है।”

(2) एवरेस्ट . हेगेन की विचारधारा (Everentt. E. Hegen’s Theory) हेगेन ने प्रतिष्ठा के प्रत्याहार की विचारधारा का विकास किया है। उनके अनुसार, “किसी सामाजिक समूह की प्रतिष्ठा का प्रतिहार (Withdrawalof Status) ही उद्यमी के व्यक्तित्व के विकास का कारण है।” हेगेन ने निम्न चार प्रकार की घटनाओं का पता लगाया है जो कि प्रतिष्ठा का प्रतिहार कर सकती हैं

(i) प्रतिष्ठा का शक्ति अथवा जबरदस्ती द्वारा प्रतिहार करना,

(ii) प्रतिष्ठा चिह से वंचित करना,

(iii) आर्थिक सत्ता के वितरण में परिवर्तन हो जाने अर्थात् शक्ति कमजोर हो जाने से प्रतिष्ठा चिह्न में गिरावट आना, तथा

(iv) नये समाज में प्रवेश करने में आशातीत प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं होना।

पद सम्मान घट जाने की दशा में वह व्यक्ति अथवा समूह उस प्रतिष्ठा को पुनः प्राप्त करने के लिए सृजनात्मक व्यवहार करेगा, फलस्वरूप उद्यमिता का विकास सम्भव होगा अर्थात् समाज में ‘प्रतिष्ठा विसंगति’ (Status Dissonance) उद्यमियों को जन्म देती है।

(3) जॉन कुनकेल की विचारधारा (The John Kunkel Theory) जॉन कुनकेल ने साहस पूर्ति के सम्बन्ध में एक व्यवहारी विचारधारा प्रस्तुत की है। उनके अनुसार उद्यमिता का विकास किसी भी समाज के विगत एवं विद्यमान सामाजिक संरचना पर निर्भर करता है तथा यह विकास आर्थिक एवं सामाजिक प्रेरणाओं से प्रभावित होता है। उनके अनुसार उद्यमिता परिस्थितियों के विशेष संयोजन पर निर्भर करती है जिसका सृजन करना कठिन किन्तु विनाश करना सरल होता है। उद्यमिता मूल रूप में किसी देश की सामाजिक-आर्थिक संरचना का परिणाम है।

सामाजिक उत्तरदायित्व की विचारधारा

(Concept of Social Responsibilities/Obligation),

व्यवसाय और समाज दोनों एक-दूसरे के अभिन्न अंग हैं। समाज की सहायता एवं सहयोग के बिना व्यवसाय सम्भव नहीं है। व्यवसाय एक वह सामाजिक-आर्थिक क्रिया है जिसका क्षेत्र बहत अधिक व्यापक है तथा इसके अन्तर्गत देश में पीपकार के उपक्रम, जो वस्तुओं के निर्माण, वित्तीय व्यवस्था, बैंकिंग कार्य से जडे हए हैं. सम्मिलित किये जाते हैं। व्यवसाय की सफलता समाज की सहायता एवं सहयोग पर निर्भर करती है। क्योंकि प्राचीन समय में व्यापार छोटे पैमाने पर होता था किन्तु आज बड़े पैमाने पर किया जाता है। व्यापारिक क्रियाओं में वृद्धि एवं जटिलताओं के कारण आधुनिक युग में व्यवसाय अनेक पक्षों के प्रयत्नों का समूहीकरण होता है। व्यवसाय समाज में किया जाता है, अत: समाज के सहयोग के बिना व्यवसाय सम्भव नहीं हो सकता। अब यह स्वीकार किया जाने लगा है कि उद्यमियों का उद्देश्य समाज को, जिसमें हम सब रहते हैं, पर्ण सन्तुष्टि प्रदान करना है। आज व्यवसाय एक सामाजिक संस्था के रूप में स्वीकार किया जाने लगा है। एक व्यवसाय के सामाजिक उत्तरदायित्व का अर्थ ग्राहकों, श्रमिकों, कर्मचारियों, विनियोगकर्ताओं आदि के प्रति व्यवसायियों के कर्तव्यों से होता है। अर्थात् समाज के उन समस्त पक्षों के प्रति जो व्यवसाय में प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप में अपना सहयोग देते हैं. व्यवसाय का भी एक महत्त्वपूर्ण उत्तरदायित्व होता है, इसे ही ‘व्यवसाय के सामाजिक उत्तरदायित्व’ (Social Responsibility of Business) की संज्ञा दी जाती है। व्यवसाय के द्वारा न केवल व्यवसाय का स्वामी, बल्कि समाज के प्रत्येक अंग को लाभान्वित होना चाहिए। इस विचारधारा को ही व्यवसाय के सामाजिक उत्तरदायित्व की अवधारणा कहते हैं।

संक्षेप में “उचित सीमा तक व्यवसाय का मानवीकरण ही सामाजिक दायित्व है।”1 इस प्रकार सामाजिक उत्तरदायित्व (Business Responsibility) से तात्पर्य व्यावसायिक साधनों को न्यायोचित प्रतिफल प्रदान करने और व्यावसायिक प्रयासों को सामाजिक और राष्ट्रीय हित की दिशा में निर्देशित करना है।

कूण्ट्ज एवं डोनेल (Koontz and O’ Donnell) के अनुसार, “सामाजिक उत्तरदायित्व स्वयं के हित में कार्य करने वाले प्रत्येक व्यक्ति का निजी कर्त्तव्य है, यह विश्वास दिलाने हेतु कि दूसरों के अधिकारों तथा न्यायोचित हितों से न टकरायें।”2

प्रो. बोवेन (H.R. Bowen) के अनुसार, “सामाजिक उत्तरदायित्व से तात्पर्य नीतियों को अपनाना उन निर्णयों को लेना अथवा इस प्रकार के कार्य करना जो समाज के उद्देश्यों एवं मूल्यों के लिए वांछनीय हैं।”3 ।

अन्तर्राष्ट्रीय सेमिनार नई दिल्ली 1965 के घोषणा-पत्र के अनुसार, “व्यवसाय के सामाजिक दायित्व का अर्थ ग्राहकों, कर्मचारियों, अंशधारियों और समाज के प्रति उत्तरदायित्वों से है।”

स्वर्गीय सर्वोदय नेता जय प्रकाश नारायन मतानुसार, “व्यवसाय को अपना कर्त्तव्य उचित रूप से करने के लिए तथा सम्पूर्ण मानव प्रगति को योगदान देने के लिए, नई चेतना व नवीन दृष्टिकोण से सुपरिचित रहना चाहिए। उसको अपने सामाजिक दायित्वों के प्रति सजग रहना चाहिए।”5

उपर्युक्त सभी परिभाषाओं पर विचार करने के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि प्रत्येक व्यवसाय का यह उत्तरदायित्व है कि –

(1) व्यावसायिक पूँजी पर उचित लाभ प्रदान करें;

(2) व्यावसायिक कर्मचारियों को कार्यानुसार उचित मजदूरी प्रदान करें;

(3) व्यावसायिक पूँजी पर प्रतियोगी दर से ब्याज दें;

(4) ग्राहकों को उचित मूल्य पर माल उपलब्ध करायें;

(5) सामाजिक साधनों का सामाजिक और व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए अधिकतम उपयोग करें;

(6) कर्मचारियों को न्यायोचित मजदूरी प्रदान करें; एवं

(7) सामाजिक और राष्ट्रीय मूल्यों के प्रति अपनी श्रद्धा रखें।

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सामाजिक उत्तरदायित्व के लिए पक्ष

(Case for Social Responsibility)

वर्तमान समय में व्यावसाय और सामाजिक उत्तरदायित्व का साथ-साथ अध्ययन किया जा रहा है क्योंकि व्यावसाय का समाज के प्रति अपना भी कुछ उत्तरदायित्व है। सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना जाग्रत होने से निम्नलिखित उपलब्धियाँ प्राप्त होती हैं

(1) अर्थव्यवस्था के विकास में सहायता मिलती है (Helpful in the growth of economy);

(2) ग्राहकों के हितों की रक्षा होती है (To take care of customers interest);

(3) श्रमिक-कर्मचारी वर्ग की सन्तुष्टि का ध्यान (To satisfy labour employee force); एवं

(4) नैतिक मूल्यों में वृद्धि (To promote ethics value)।

व्यावसाय की आधुनिक धारणा व्यवसाय के सामाजिक उत्तरदायित्व की मान्यता को समर्थन देती है। सामाजिक दायित्व की मान्यता के पक्ष में निम्न तर्क दिये जाते हैं

(1) दीर्घकालीन व्यावसायिक हित (Longterm business interest) यह ठीक है कि व्यवसाय अधिकसे-अधिक लाभ कमाने का प्रयास करता है तथापि इसे सामाजिक एवं मानवीय समस्याओं को भी नहीं भूलना चाहिए। व्यवसाय समाज का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह समाज के लिए व इसकी राय से ही स्थापित किया जाता है। अत: इसे समाज को आने वाली कठिनाई का हल भी खोजना चाहएि। यदि यह अपने उत्तरदायित्व को भूलकर ऐसी वस्तुओं का उत्पादन करना आरम्भ कर दे जो समाज के लिए अवांछनीय हैं, ऊँचे मूल्य लेने लग जाये, कालाबाजारी करने लगे एवं नियमों का उल्लंघन करने लग जाय तो यह अधिक समय तक नही रह पायेगा।

(2) सरकारी हस्तक्षेप (Government intervention)—यह व्यवसाय स्वेच्छा से सामाजिक आवश्यकताओं को पूरा नहीं करता तो सरकार कानून बनाकर व्यवसाय को अपने सामाजिक उत्तरदायित्व को पूरा करने के लिए बाध्य कर सकती है। इससे व्यवसाय की स्वतन्त्रता एवं लोच कम हो जायेगी। अत: यह व्यवसायी समुदाय के हित में है कि वह स्वेच्छा से समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी को पूरा करे।

(3) समाज के साधनों का प्रयोग (Use of Society’s Resources)—व्यवसाय का निर्माण समाज द्वारा किया जाता है, अत: इसे समाज की माँगों का जवाब देना चाहिए। क्योंकि व्यवसाय उन साधनों का प्रयोग करता है जो समाज से सम्बन्धित हैं, अत: यह आवश्यक है कि प्रत्येक व्यावसायिक उपक्रम अपने सामाजिक दायित्वों का पालन करे ?

(4) सार्वजनिक छवि (Public Image)-यदि व्यवसाय अपने सामाजिक उत्तरदायित्व को पूरा करता है तो उसकी छवि सुधरेगी। सामाजिक दायित्व को पूरा करके व्यवसाय जनता में अपनी छवि को सुधार सकता है। यह समाज के साथ संघर्ष से भी अपना बचाव कर पायेगा जो कि इसके अपने हित में है।

(5) नैतिक औचित्य (Moral Justification)—प्रत्येक व्यवसाय व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए पूँजी एवं समाज के भौतिक एवं मानवीय साधनों का प्रयोग करता है। यह वस्तुओं एवं सेवाओं के क्रय-विक्रय के लिए भी समाज पर निर्भर रहता है। इसके अतिरिक्त व्यवसाय समाज द्वारा प्रदान की गई आम सुविधाओं जैसे—सड़कें, बिजली एवं जल आपूर्ति का प्रयोग करता है, अत: व्यवसाय की यह नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि वह अपने सामाजिक दायित्वों का अनुसरण करे एवं समाज की भलाई में अपना योगदान दे।

(6) सामाजिक एवं सांस्कृतिक नियम (Socio-cultural norms)-सरकार एवं समाज व्यवसाय को प्रोत्साहित करता है यदि व्यवसाय सामाजिक एवं सांस्कृतिक नियमों के अनुसार कार्य करता है; जैसे-पारस्परिक सहयोग, कर्मचारी व मालिक के अच्छे सम्बन्ध एवं ग्राहकों के हितों की रक्षा।

(7) स्वामी के हित की रक्षा (Watch Owner’s interest) सामाजिक जागरूकता वाले व्यवसाय में धन लगाना पूँजीपतियों के लिए सुरक्षित साधन है। जब निवेशकर्ताओं को उनकी पूँजी पर उचित प्रतिफल मिलता है तो व्यावसाय की प्रतिष्ठा एवं साख बढ़ती है।

(8) उपभोक्ताओं की जागरूकता (Consumer’s Awareness)—वर्तमान समय में उपभोक्ता पूर्ण रूप से जागरूक है। वे उचित मूल्य पर उच्च किस्म की वस्तुओं की अपेक्षा रखते हैं। यदि व्यवसायी द्वारा उनसे उचित व्यवहार नहीं किया जाता है तो वे स्वयं को संगठित कर लेंगे व व्यवसायी को अपनी सामाजिक जिम्मेदारी पूरी करने के लिए बाध्य कर देंगे।

निष्कर्ष….निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि सामाजिक उतरदायित्व को अनदेखा करके कोई भी व्यवसाय जीवित नहीं रह सकता। अत: यदि कोई व्यवसाय अधिक लाभ का सपना देखता है तो व्यवसाय इसे साकार कर सकता है बशर्ते उन्हें समाज के लोगों की आवश्यकताओं के महत्व को ध्यान में रखना होगा।

1 व्यवसाय/उपक्रम का स्वयं के प्रति उत्तरदायित्व (Responsibility of Business/Enterprise towards itself)-व्यवसाय/उपक्रम का स्वयं के प्रति उत्तरदायित्व सर्वप्रथम होता है। जिस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु व्यवसाय/उपक्रम आरम्भ किया गया है उसकी प्राप्ति के लिए व्यवसाय/उपक्रम का संचालन सुचारु एवं कुशलतापूर्वक करना ही व्यापारी/उपक्रम का सबसे पहला प्रमुख दायित्व है। अपने स्वयं के प्रति उत्तरदायित्वों में निम्न कार्य होते हैं।

(i) जिस उद्देश्य को लेकर व्यवसाय/उपक्रम की स्थापना की गयी है, उसे पूरा करने का अथक प्रयास करना चाहिए:

(ii) व्यवसाय/उपक्रम को योग्यतापूर्वक एवं कुशलतापूर्वक चलाना;

(iii) व्यवसाय/उपक्रम को चालू रखने के लिए पर्याप्त लाभ कमाना;

(iv) वस्तुओं एवं सेवाओं का उत्पादन ग्राहकों की आवश्यकतानुसार एवं अपने हितों को ध्यान में रखकर करना;

(v) एकाधिकार एवं शोषण की प्रकृति को समाप्त करना चाहिए।

(vi) वस्तुओं के उचित मूल्य और उत्तम किस्म बनाये रखने के लिए स्वस्थ प्रतिस्पर्धा करना; एवं

(vii) व्यवसाय/उपक्रम के आधारभूत सिद्धान्तों का पालन करना चाहिए।

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2 अंशधारियों के प्रति उत्तरदायित्व (Responsibilities towards Shareholders)-पूँजी प्राप्त करने के लिए अंशधारियों का सहयोग प्राप्त करना होता है। यह अंशधारी देश के भिन्न-भिन्न भागों में बिखरे होते हैं। ये कम्पनी के प्रबन्ध में सक्रिय भाग नहीं ले सकते। कम्पनी के संचालन एवं प्रबन्ध के लिए संचालकों का निर्वाचन किया जाता है। अत: अंशधारी कम्पनी के वास्तविक स्वामी होते हैं, फिर भी संचालन में भाग नहीं ले पाते हैं। कम्पनी का संचालन संचालक मण्डल द्वारा किया जाता है। अत: कम्पनी व्यवसाय का अपने स्वामियों अर्थात् अंशधारियों के प्रति उत्तरदायित्व होना स्वाभाविक है। संक्षिप्त रूप में उत्तरदायित्व निम्नलिखित हो सकते हैं

(i) अंशधारियों की विनियोजित पूँजी की सुरक्षा रहनी चाहिए।

(ii) विनियोजित राशि पर उचित प्रतिफल लाभांश दिलाना;

(iii) कम्पनी की सम्पत्ति की सुरक्षा एवं विकास करना;

(iv) अंशधारियों को बोनस अंश निर्गमित करके लाभ में और अधिक भागीदार बनाना;

(v) अंशधारियों को सभी महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ देना;

(vi) अंशधारियों के साथ पक्षपातपूर्ण व्यवहार न करना;

(vii) अल्पसंख्यक अंशधारियों को प्रतिनिधित्व देना;

(viii) अंशधारियों को अतिरिक्त लाभ में हिस्सा देना; एवं

(ix) अंशधारियों का ट्रस्टी के रूप में कार्य करना।

3. उपभोक्ताओं के प्रति उत्तरदायित्व (Responsibilities towards Consumers)—उपभोक्ता या ग्राहक व्यवसाय/उपक्रम की नींव या बुनियाद होता है और यही इसे कायम रखता है। अतः ग्राहक को सदैव सन्तुष्ट रखना व्यवसाय का परम कर्त्तव्य होना चाहिए। प्रत्येक व्यवसायी को इस बात का प्रयास करना चाहिए कि समाज व राष्ट्र के मूल्यों, आदर्शों और नीतियों का पालन करते हुए उपभोक्ताओं को अधिकतम सन्तुष्टि (Maximum satisfaction) प्रदान करें। पीटर एफ कर ग्राहक को व्यवसाय का प्रभु मानते हैं। क्योंकि ग्राहक ही व्यवसाय की आधारशिला है, अत: उनका अस्तित्व बनाए रखें। व्यावसायिक संस्थाओं का यह धर्म बन जाता है कि ये ग्राहक को उचित वस्तुएँ उचित मूल्य पर उपलब्ध कराएं। ग्राहक या उपभोक्ताओं के प्रति एक उपक्रम के निम्नलिखित उत्तरदायित्व होते हैं

(i) सभी वर्ग के उपभोक्तओं की आवश्यकताओं एवं क्रयशक्ति के अनुसार वस्तुओं एवं सेवाओं का निर्माण करना;

(ii) ग्राहकों को माल की उत्तम एवं प्रमाणित किस्म उपलब्ध कराना तथा उन्हें शुद्ध, उपयोगी तथा मिलावट रहित ताजी व टिकाऊ वस्तुएँ ही देना;

(iii) वस्तुओं एवं सेवाओं को उचित मूल्यों पर उपलब्ध करना अथवा कराना;

(iv) वितरण की अच्छी प्रणाली का होना ताकि वस्तुओं का कृत्रिम अभाव उत्पन्न न हो सके;

(v) वस्तुओं की अनुचित जमाखोरी न करना;

(vi) ग्राहकों से सदैव उचित लाभ लेना तथा मुनाफाखोरी ही एकमात्र लक्ष्य न बनाना;

(vii) व्यवसाय और वस्तुओं के प्रति विश्वास उत्पन्न करना; एवं

(viii) विज्ञापन पर उचित व्यय करना।

इस प्रकार हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि प्रत्येक व्यवसाय की इस बात की जिम्मेदारी है कि वह ग्राहकों को शद्ध, पर्याप्त मात्रा में, उचित मूल्य एवं उपयुक्त स्थान पर उपयोगी वस्तुएं उपलब्ध कराये।

4.श्रमिकों के प्रति उत्तरदायित्व (Responsibilities towards Workers) उपक्रम की सफलता व असफलता बहुत कुछ श्रमिकों पर निर्भर करती है। अत: मालिकों व श्रमिकों के मधुर सम्बन्ध व्यापार/उपक्रम की उन्नति के प्रतीक हैं। श्रमिक के प्रति एक व्यवसाय के उत्तरदायित्व निम्नलिखित हो सकते हैं

(i) सभी श्रमिकों को उचित मजदूरी का भुगतान किया जाये जिससे वे अपना जीवन-निर्वाह कर सकें और अपनी कार्यक्षमता को बनाए रख सकें;

(ii) कर्मचारियों को कार्य की अच्छी दशायें उपलब्ध करना तथा मनोरंजन आदि की सुविधाओं की व्यवस्था करना;

(iii) मजदूरी भुगतान की प्रेरणात्मक प्रणाली को लागू करना;

(iv) कर्मचारियों के रोजगार में स्थायित्व उत्पन्न करना;

(v) कर्मचारियों के हितों की पूर्ण रक्षा करना;

(vi) दुर्घटना, वृद्धावस्था तथा बेकारी के भयंकर शत्रुओं के विरुद्ध कर्मचारियों को सुरक्षा प्रदान करना;

(vii) कार्य का अनुकूल वातावरण तैयार करना;

(viii) कर्मचारियों के प्रशिक्षण की समुचित व्यवस्था करना; एवं

(ix) अवित्तीय सुविधाओं की व्यवस्था करना।

अन्त में कर्मचारियों के प्रति व्यवसाय/उपक्रम के सामाजिक दायित्व के सम्बन्ध में हमारे पूर्व प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू के विचार इस प्रकार थे—“आज की अर्थव्यवस्था में औद्योगिक क्षेत्र में मालिक-मजदूर का सम्बन्ध न होकर हिस्सेदार व सहयोगी का सम्बन्ध होना चाहिए तभी हर आर्थिक समस्या को शांतिपूर्वक तरीके से सुलझाया जा सकता है।”

5. अन्य व्यवसायों/उपक्रमों के प्रति सामाजिक उत्तरदायित्व (Social Responsibilities towards other Business/Enterprises)—व्यवसाय का अन्य व्यवसायियों के प्रति भी सामाजिक उत्तरदायित्व है जैसे

(i) सार्वजनिक तथा निजी क्षेत्र एक-दूसरे के सहयोगी तथा पूरक बनें;

(ii) बड़ी इकाइयाँ छोटी इकाइयों को अपनी प्रतिस्पर्धा न मानकर अपनी पूरक एवं सहयोगी मानें;

(iii) विभिन्न व्यावसायिक इकाइयों के मध्य अस्वस्थ प्रतिस्पर्धा समाप्त हो एवं मधुर व्यावसायिक सम्बन्ध कायम हों;

(iv) आपस में निर्भर रहने वाली व्यावसायिक इकाइयाँ एक-दूसरे को आवश्यक तकनीकी एवं वित्तीय सहयोग प्रदान करें;

(v) पारस्परिक द्वेष भावना का न होना; एवं

(vi) परस्पर सहयोग व सह-अस्तित्व की भावना को जाग्रत करना।

6.पूर्तिकर्ताओं के प्रति सामाजिक उत्तरदायित्व (Social Responsibilites towards supplier) विभिन्न पूर्तिकर्ता व्यवसाय के लिए कच्चा माल, मशीन व औजार कार्यालय के विभिन्न उपकरण अथवा अन्य आवश्यक सामग्री जुटाते हैं तथा व्यावसायिक सफलता में सहायक होते हैं। जैसे

(i) पूर्तिकर्ताओं से क्रय की गई वस्तुओं का उचित मूल्य तथा यथासमय भुगतान करना; (ii) पूर्तिकर्ताओं की कठिनाइयों को सुनना तथा उन्हें दूर करने में सहयोग करना; (iii) पूर्तिकर्ताओं के मूल्यों का भुगतान व्यापार की शर्तों के अनुसार शीघ्र करना; (iv) पूर्तिकर्ताओं को ग्राहकों की पसन्द, आदतों तथा फैशन में निरन्तर होने वाले परिवर्तनों से परिचित कराते रहना; (v) अन्य पूर्तिकर्ताओं को भी वस्तुएँ प्रस्तुत करने का सुअवसर देना; (vi) पूर्तिकर्ताओं का शोषण नहीं होने देना; एवं (vii) पूर्तिकर्ताओं को उचित परामर्श देना।

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7.राज्यके प्रति सामाजिक उत्तरदायित्व (Social Responsibilities towards State) कोई भी व्यवसाय/उपक्रम सरकारी सहयोग के अभाव में सफलतापूर्वक नहीं चल सकता। सरकार के प्रति भी व्यवसाय के अनेक सामाजिक उत्तरदायित्व। हैं। जैसे

(i) विभिन्न सरकारी करों का ईमानदारी से एवं यथासमय भुगतान करना;

(ii) सरकारी कर्मचारी को अपने स्वार्थ के लिए रिश्वत न देना;

(iii) चोर-बाजारी एवं मिलावट आदि को रोकने में सरकार का सहयोग करना;

(iv) सरकार द्वारा निर्धारित की गई व्यापारिक नीति का अनुसरण करना;

(v) एक अच्छे नागरिक तथा देश-भक्त की भांति सरकारी नियमों एवं नीतियों का पालन करना;

(vi) सरकारी तथा व्यावसायिक कार्यों में राजनीतिक मदद व सहयोग न लेना;

(vii) राजनीतिक समर्थनों को क्रय न करना; एवं

(viii) देश के सार्वजनिक जीवन में भाग लेना।

8.व्यवसाय/उपक्रम का विश्व के प्रति उत्तरदायित्व (Responsibilities of Business/Enterprise towards World) आधुनिक युग में व्यवयाय/उपक्रम के विश्व के प्रति निम्नलिखित प्रमुख दायित्व हैं

(i) प्रगतिशील देश अपने उद्योग अविकसित देशों में स्थापित करके सहयोग प्रदान कर सकते हैं;

(ii) सभी देशों में व्यावसायिक सुविधाएँ समान नहीं होती हैं, इसलिए एक-दूसरे की कमी की पूर्ति आपसी सहयोग से ही पूरी हो जाती है;

(iii) अन्य देशों में व्यवहार करते समय दूसरे देशों के नियमों एवं परम्पराओं का पालन करते हुए अन्तर्राष्ट्रीय शिष्टाचार एवं शालीनता का परिचय देना चाहिए;

(iv) विकासशील देशों में औद्योगिक सम्बन्धों को बढ़ावा देना;

(v) दूसरे देशों के विकास कार्य में सहयोग देना;

(vi) अन्तर्राष्ट्रीय शिष्टाचार का पालन करना;

(vii) अपने देश की विदेशों में ख्याति बढ़ाना;

(viii) पिछड़े देशों को व्यावसायिक सहायता देना,

(ix) अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति बनाये रखने में सहयोग प्रदान करना एवं

(x) अन्य देशों को आर्थिक संकट के समय यथासम्भव सहायता देना।

9.व्यवसाय/उपक्रम का समुदाय अथवा समाज के प्रति उत्तरदायित्व (Responsibilities of Business/ Enterprise towards Community and Society)-एक व्यापारी को अच्छे नागरिक की भाँति बर्ताव करना चाहिए उन्हें अपने साथियों के अधिकारों पर कुठाराघात नहीं करना चाहिए। उन्हें अपने साधनों का उपयोग समाज अथवा समुदाय के लाभार्थ करना चाहिए। मुख्य रूप से समाज अथवा समुदाय के प्रति व्यवसाय का उत्तरदायित्व निम्नलिखित से है

(i) प्राकृतिक सम्पदा का अधिकतम उपयोग करने के लिए;

(ii) समाज को अच्छी किस्म की वस्तुएँ उपलब्ध कराने के लिए:

(iii) समाज को रोजगार के अवसर प्रदान कराने के लिए;

(iv) कर्मचारियों एवं श्रमिकों के जीवन-स्तर में सुधार लाने के लिए;

(v) श्रमिकों को कार्य की अच्छी दशायें उपलब्ध कराने के लिए;

(vi) श्रमिकों को कार्य के लिए उपयुक्त वातावरण उपलब्ध कराने के लिए:

(vii) औद्योगिक घटनाओं से सुरक्षा प्रदान करने के लिए;

(viii) सामाजिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों को बनाये रखने के लिए; एवं

(ix) राष्ट्रीय एकता को प्रोत्साहित करने के लिए।

मालिक एवं विनियोजकपूँजी एवं विनियोग की सुरक्षा, पूँजी पर उचित प्रतिफल, पूँजी का अधिकतम उपयोग, एवं अंशधारियों से कोई। भेदभाव नहीं।

कर्मचारी उचित मजदूरी, अच्छी कार्य की दशायें, नौकरी की सुरक्षा, नौकरी के प्रति सन्तुष्टि, एवं प्रबन्ध में भागीदारी।।

उपभोक्ता अच्छी किस्म का माल एवं सेवायें, माल को भण्डारों में छिपाकर नहीं रखना, उचित मूल्य, व्यापार की अच्छी मिसालें एवं अच्छी || सेवायें इत्यादि।

सरकारराष्ट्रीय सम्पदा का सदुपयोग, सरकार को ईमानदारी से कर देना, भ्रष्ट कर्मचारियों पर अंकुश, एवं विदेशी व्यापार में उचित लेन-देन इत्यादि।

समुदायअच्छी किस्म के माल को उपलब्ध करना, प्राकृतिक सम्पदा का अधिकतम उपयोग, पर्यावरणीय प्रदूषण को रोकना, एवं सामाजिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों को बनाये रखना।

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उपयोगी प्रश्न (Useful Questions)

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न (Long Answer Type Questions)

1. उद्यमिता व्यवहार से क्या आशय है ? प्रमुख मनोवैज्ञानिक विचारधाराओं का संक्षेप में वर्णन कीजिए।

What is meant by Entrepreneurial Behaviour ? Describe in brief the main psychological theroies.

2. मास्लो की आवश्यकता का प्राथमिकता क्रम के बारे में आप क्या जानते हैं ? वर्णन करें।

What do you know about Maslow’s Hierarchy of Needs ? Discuss.

3. मास्लो के आवश्यकता की श्रृंखला की व्याख्या कीजिए और इसका अभिप्रेरण प्रक्रिया में महत्त्व बताइए।

Expalin Maslow’s Hierarchy of Needs and its importance in the motivation process.

4. जोसेफ ए. शुम्पीटर की मनोवैज्ञानिक विचारधारा को समझाइए।

Explain Joseph A. Schumpeter’s Psychological theory.

5. डेविड सी. मैक्लीलैण्ड की मनोवैज्ञानिक विचारधारा को स्पष्ट कीजिए।

Explain David C. Mc Clellands Theory of Psychology,

6. हेगेन की मनोवैज्ञानिक विचारधारा को स्पष्ट कीजिए।

Explain Hegen’s Theory of Psychology.

7. सामाजिक उत्तरदायित्व की विचारधारा पर एक विस्तृत लेख लिखें।

Write a detailed note on concept of social obligation.

8. निम्न को समझाओ

Explain the following

() मास्लो का आवश्यकता अधिक्रम सिद्धान्त

Maslow’s Need Hierarchy Theory

() डेविड सी. मैक्लीलैण्ड की विचारधारा

David C. Mc Clelland’s Theory

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लघु उत्तरीय प्रश्न (Short Answer Type Questions)

1. उद्यमिता व्यवहार से क्ष्या आशय है ?

What is meant by entrepreneurial behavior?

2. अभिप्रेरणा के विशेष लक्षण क्या हैं ?

What are the special features of motivation?

3. अभिप्रेरणा की क्या आवश्यकता है?

What is the need of motivation?

4. सामाजिक उत्तरदायित्व की क्या विचारधारा है ?

What is the concept of social responsibility?

Behavior Motivation Study notes

III. अति लघु उत्तरीय प्रश्न (Very Short Answer Type Questions)

1 अभिप्रेरणा एक मनोवैज्ञानिक तत्व है।

Motivation is a psychological element.

2. अभिप्रेरणा मनुष्य के व्यवहार को प्रभावित करती है।

Motivation effects human behaviours.

3. मनुष्य की अभिप्रेरणा प्रक्रिया भिन्न-भिन्न होती है।

Motivation process differ from man to man.

Behavior Motivation Study notes

वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

सही उत्तर चुनिये (Select the Correct Answer)

(i) “साहसी शक्ति पाने की इच्छा से उद्यमिता की ओर आकर्षित होता है।” यह कथन है

(अ) शुम्पीटर का

(ब) मैक्सीलैण्ड का

(स) हेगेन का

(द) जान कनकेल का।

“Entrepreneur is attracted towards entrepreneurship with the derive to get power.” This statement is of

(a) Schumpeter

(b) McClelland

(c) Hegen

(d) John Kunkel.

(ii) उद्यमी तथा नवाचार में सम्बन्ध है

(अ) अनौपचारिक

(ब) निकटतम

(स) औपचारिक

(द) इनमें से कोई नहीं।

The relationship between entrepreneur and innovation is

(a) Informal

(b) Close

(c) Formal

(d) None of these.

(iii) “उद्यमिता किसी देश की सामाजिक-आर्थिक संरचना का परिणाम है।” यह कथन है

(अ) शुम्पीटर का (ब) मैक्सीलैण्ड का (स) हेगेन का (द) जान कुनकेल का।

“Entrepreneurship is the result of social-economicotructrure of a country.” This statement is of –

(a) Schumpeter

(b) McClelland

(c) Hegen

(d) John Kunkel.

[उत्तर-(i) (अ), (ii) (ब), (iii) (द)]

Behavior Motivation Study notes

2. इंगित करें कि निम्नलिखित वक्तव्य ‘सही’ हैं या ‘गलत’

(Indicate Whethers the Following Statements are “True’ and ‘False’)

(i) शुम्पीटर के अनुसार उद्यमी में सामाजिक प्रतिरोध का सामना करने की क्षमता होती है।

According to Schumpeter entrepreneur has the capacity to face social resistence.

(ii) मैक्सीलैण्ड के अनुसार उच्च उपलब्धता पाने की इच्छा व्यक्ति को उद्यमिता क्रियाओं की ओर आकर्षित करती है।

Accorded to McClelland need for high achievement drives an individual towards entrepreneurial activities.

[उत्तर-(i) गलत (False), (ii) सही (True)]

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chetansati

Admin

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