BCom 1st year Business Economics Cost Concepts Study Material Notes in Hindi

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BCom 1st Year Business Economics Cost Concepts Study Material Notes in Hindi

Table of Contents

BCom 1st Year Business Economics Cost Concepts Study Material Notes in Hindi:  Money cost and Real Cost  Private and social costs Actual cost and Opportunity cost Explicit cost and implicit cost Past cost and future cost Short term cost and log Term cost  Escapable cost and Inescapable cost  out of pocket cost and book cost Shut down cost and abandonment cost variable fixed and semi-fixed costs Relationship between variable cost fixed cost total cost and marginal cost Theoretical Questions Long answer Questions ( Most important For BCom 1st Year Students )

 Cost Concepts Study Material
Cost Concepts Study Material

BCom 1st Year Business Economics Law Return Scale Study Material Notes

लागत धारणायें

(Cost Concepts)

लेखा-विधि द्वारा प्रदत्त लागत के ऐतिहासिक समंक वैधानिक एवं वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये भले ही पर्याप्त रहें किन्तु आर्थिक निर्णयन के लिये बहुधा निरर्थक और अपर्याप्त रहते हैं। एक व्यवसायी को अनेक प्रकार के निर्णय लेने होते हैं तथा प्रत्येक समस्या की परिस्थितियों में पर्याप्त भिन्नता पायी जाती है। किसी विशिष्ट समस्या पर निर्णय के लिये कैसे लागत समंकों की आवश्यकता होगी, यह समस्या विशेष की प्रकृति व परिस्थितियों पर निर्भर करता है। अतः एक व्यवसायी को निर्णयन में प्रयोग में लायी जाने वाली विभिन्न लागत धारणाओं का ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है। प्रमुख लागत धारणायें निम्नलिखित हैं :

Business Economics Cost Concepts

मौद्रिक लागत और वास्तविक लागत

(Money Cost and Real Cost)

मौद्रिक लागत (Money Cost): जब उत्पादन की लागत को मौद्रिक इकाइयों में व्यक्त किया जाता है तो उसे मुद्रा लागत कहते हैं। दूसरे शब्दों में, इसका आशय एक उत्पादक द्वारा

आदानों (inputs) के क्रय पर किये गये कुल मुद्रा व्यय से होता है। मुद्रा लागत का उत्पादन सिद्धान्त के अन्तर्गत विस्तृत रूप से प्रयोग किया जाता है। लागत विश्लेषण में इस धारणा का विशेष महत्व है। मुद्रा लागत दो प्रकार की होती है : स्पष्ट और अस्पष्ट।

() स्पष्ट लागतें (Explicit Costs) : उत्पादक द्वारा उत्पादन के बाह्य साधनों (जैसे कच्चा माल, मजदूरी, ब्याज, कर, बीमा आदि) को प्रसंविदा के शर्तों के अनुसार जो भुगतान किये जाते हैं, वे स्पष्ट अथवा व्यक्त लागतें कहलाती हैं।

() अस्पष्ट, अव्यक्त या अन्तर्निहित लागतें (Implicit Costs): उत्पादक द्वारा लगाये गये स्वयं के साधनों का पुरस्कार अस्पष्ट लागतें कहलाती हैं। इन लागतों का भुगतान किसी बाहरी पक्ष को नहीं किया जाता है। उदाहरण के लिये स्वामी की स्वयं दी गई सेवाओं की मजदूरी, स्वयं की पूँजी का ब्याज, स्वयं के भवन का किराया, हास आदि। इसमें स्वामी का सामान्य लाभ भी सम्मिलित होता है।

वास्तविक लागत (Real Cost) : वास्तविक लागत की अवधारणा प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों द्वारा प्रतिपादित की गयी थी। इस अवधारणा के अनुसार वास्तविक लागत का आशय उन सभी प्रयत्नों, कष्टों, जोखिमों, त्याग व प्रतीक्षा से है जो किसी वस्तु के उत्पादक को वस्तु के उत्पादन में उठाने पड़ते हैं। डा० मार्शल के शब्दों में, “किसी वस्तु के बनाने में सभी प्रकार के श्रमिकों का श्रम जो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इसे बनाने में करना पड़ता है, इसे बनाने में प्रयुक्त पूँजी की बचत के लिये जो संयम या प्रतीक्षा आवश्यक होती है, ये सभी प्रयास और त्याग सामूहिक रूप से उस वस्तु की वास्तविक उत्पादन लागत कहलाते हैं। वास्तविक लागत को सामाजिक लागत (Social Cost) भी कहा जाता है। त्याग, प्रतीक्षा, कष्ट आदि मानसिक अनुभतियाँ हैं।

इसका सही माप  सम्भव न होने के कारण वास्तविक लागत का विचार अवास्तविकता के दलदल सकर रह जाता है। इसके अतिरिक्त व्यवहार में मजदूरी का भुगतान कष्ट या त्याग क आधार पर नहीं होता है, अतः यह धारणा अव्यावहारिक है।

Business Economics Cost Concepts

निजी और सामाजिक लागतें

(Private and Social Costs)

निजी लागतें (Private Costs): निजी लागतों से आशय एक व्यक्ति या एक फर्म द्वारा बाजार से वस्तुओं और सेवाओं के क्रय पर वास्तव में किये गये अथवा प्रावधान किये गये व्यया से होता है। फर्म की विहित (explicit) और निहित (implicit) दोनों ही प्रकार का लागत निजी लागतों में सम्मिलित होती हैं। अतः इसे फर्म की उत्पादन लागत माना जा सकता है। इस लागत की गणना करके ही फर्म के शुद्ध लाभ ज्ञात किये जाते हैं। एक फर्म सदैव ही अपनी निजी लागतों को कम करने में रुचि रखती है। इन लागतों का समाज से कोई सम्बन्ध नहीं होता।

सामाजिक लागतें (Social Costs) : इसका आशय एक वस्तु के उत्पादन की पूरे समाज द्वारा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सहन की गई लागत से होता है। सामाजिक लागतें उत्पादक फर्म द्वारा नहीं वहन की जाती हैं वरन् ये उन व्यक्तियों को सहन करनी पड़ती हैं जिनका फर्म के उत्पादन से कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं होता। किसी कारखाने के स्थापित किये जाने से समाज को कुछ लाभ मिलते हैं तथा कुछ हानियाँ सहन करनी पड़ती हैं। जैसे उद्योगपति द्वारा राजमार्ग से जोड़ती हुई अपने कारखाने तक सड़क बनवाना, व्यक्तियों को रोजगार प्रदान, स्कूल-कॉलेज व अस्पताल खुलवाना। इन सुविधाओं का समाज लाभ लेता है। दूसरी ओर कारखाना स्थापित होने से समाज को जल, वायु व ध्वनि प्रदूषण सहन करने पड़ते हैं। इन प्रदूषण की लागत का सही अनुमान लगाना सम्भव नहीं। फिर भी इन प्रदूषणों के कुप्रभावों से समाज को बचाने के लिये किये गये निजी और सार्वजनिक व्ययों का योग इसकी लागत मानी जा सकती है। इसके

अतिरिक्त प्राकृतिक स्वच्छ वातावरण, नदी, झरने, नालियों, सड़कों, यातायात व संवादवाहन के साधनों आदि का उत्पादक द्वारा प्रयोग भी सामाजिक लागत का ही अंग है।

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वास्तविक लागत और अवसर लागत (Actual Cost and Opportunity Cost)

वास्तविक लागत (Actual Cost) : वास्तविक लागत का आशय किसी वस्त, सेवा या सम्पत्ति के निर्माण या प्राप्त करने के लिये किये गये वास्तविक व्ययों से होता है। सामग्री का क्रय मूल्य, श्रमिकों की मजदूरी, भवन का किराया व कारखाने के अन्य व्यय वास्तविक व्यय के अन्तर्गत आते हैं। यह आवश्यक नहीं कि वास्तविक व्ययों का नकद ही भुगतान किया जाय। हास जैसे गैर-रोकड व्यय भी वास्तविक लागत में सम्मिलित किये जाते हैं. यद्यपि इसके लिये किसी बाहरी व्यक्ति को कोई भुगतान नहीं करना होता है। इन लागतों को लेखा पस्तकों में लिखा जाता है।

अवसर लागत (Opportunity Cost) : अवसर लागत का विचार सर्वप्रथम डी० एल० गीन नामक अर्थशास्त्री ने प्रस्तुत किया और बाद में डेवनपोर्ट, हेबरलर रोबिन्स तथा वाइजर। आदि अर्थशास्त्रियों ने इसका प्रयोग विभिन्न दशाओं में किया। प्रबन्धन के क्षेत्र में यह विचार। काफी महत्वपूर्ण है। इसका आशय अतीत या खोये हुए अवसरों की लागत (Cost of foregone opportunities) से होता है। एक साधन के कई वैकल्पिक प्रयोग हो सकत हैं किन्त जब हम उसे किसी एक विशेष प्रयोग में लगा देते हैं तो इससे उसके अन्य प्रयोगा में उपयोग के अवसर समाप्त हो जाते हैं ।

दोनों वस्तुओं के उन विभिन्न सम्भावित संयोगों को प्रदर्शित करती है जो अर्थव्यवस्था अपने समस्त उपलब्ध साधनों की सहायता से उत्पन्न कर सकती है। LM-रेखा पर स्थित S बिन्दु पर पूँजीगत वस्तुओं की 2 इकाइयाँ तथा उपभोक्ता वस्तुओं की 30 इकाइयाँ प्राप्त की जा। सकती हैं तथा P बिन्दु पर पूँजीगत वस्तुओं की 3 इकाइयाँ तथा उपभोक्ता वस्तुओं की 20 इकाइयाँ प्राप्त की जा सकती हैं। अतः स्पष्ट है कि पूँजीगत वस्तुओं के उत्पादन में एक इकाई बढ़ाने के लिये उपभोक्ता वस्तुओं की 10 इकाइयों का त्याग करना पड़ता है। दूसरे शब्दों में, पूँजीगत वस्तुओं की एक इकाई की अवसर लागत उपभोक्ता वस्तुओं की 10 इकाइयाँ है। ।

अवसर लागत धारणा का महत्व (Significance of Opportunity Cost Concept) : ये लागतें त्यागे हुये विकल्पों का ही प्रतिनिधित्व करती हैं, अतः लेखा-पुस्तकों में इनका उल्लेख नहीं किया जाता है। किन्तु प्रबन्धकीय निर्णयन के दृष्टिकोण से (विशेषकर पूँजी बजटन में) इन लागतों का बहुत महत्व होता है। यह लागत अवधारणा प्रबन्ध को विभिन्न वैकल्पिक पूँजी परियोजनाओं के बीच से सर्वोत्तम परियोजना के चयन में पर्याप्त सहायक सिद्ध होती है। किसी साधन को वर्तमान प्रयोग में तभी तक लगाये रखना चाहिये जब तक कि उससे कम से कम अवसर लागत के बराबर आय प्राप्त होती रहे। पूँजी की लागत की गणना भी अवसर लागत की अवधारणा के आधार पर ही की जाती है। इस अवधारणा का प्रयोग उत्पत्ति के सीमित साधनों की वैकल्पिक लागत ज्ञात करने के लिये भी किया जा सकता है। यह अवधारणा ही उत्पत्ति के साधनों का अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में वितरण का आधार स्पष्ट करती है। प्रो० बाई के अनुसार, “अवसर लागत का सिद्धान्त मूल्य प्रणाली का केन्द्र बिन्दु है और अर्थशास्त्र के अत्यन्त महत्वपूर्ण सिद्धान्तों में से एक है। आधुनिक लगान सिद्धान्त भी अवसर लागत की धारणा पर निर्भर करता है क्योंकि इस सिद्धान्त के अनुसार वास्तविक आय का अवसर लागत पर आधिक्य ही लगान होता है। यह विचार विक्रय चाल, स्कन्ध प्रबन्धन, श्रमिकों की नियुक्ति व निकालने आदि में भी सहायक होता है।

Business Economics Cost Concepts

सीमायें : अवसर लागत का सिद्धान्त विशिष्ट साधनों पर लागू नहीं होता है क्योंकि विशिष्ट साधनों को एक उपयोग से दूसरे उपयोग में नहीं स्थानान्तरित किया जा सकता है।

विहित लागत और निहित लागत (Explict Cost and Implicit Cost) ऐसी लागतें जिनके लिए फर्म को किसी बाहरी पक्ष को भुगतान करना पड़ता है, विहित या स्पष्ट लागतें कहलाती हैं, जैसे कच्चे माल का मूल्य, मजदूरी, विक्रय व्यय, कर, बीमा आदि। चूँकि इन सभी लागतों को उत्पादन लागत की गणना में सम्मिलित किया जाता है, अतः इन्हें लेखांकन लागत (Accounting Cost) भी कहा जाता है। दूसरी ओर ऐसी लागतें जिनके लिये फर्म को किसी और को भुगतान नहीं करना पड़ता, निहित लागतें कहलाती हैं। ये मालिक के निजी स्वामित्व में साधनों की लागतें होती हैं। यदि ये साधन उसके स्वामित्व में नहीं होते तो उसे ये व्यय दूसरों को चकाने पड़ते, जैसे मालिक का वेतन, पूँजी पर ब्याज, अपने स्वामित्व के भवन का किराया आदि। ऐसी लागतों को आकलित लागतें (Imputed Costs) या आन्तरिक साधनों की लागत (Cost of internal resources) भी कहते हैं। लेफ्टविच के अनुसार, “स्वस्वामित्व, स्व-प्रयुक्त संसाधनों की लागत जिसकी फर्म के व्ययों की गणना में उपेक्षा कर दी जाती है आकलित लागत है। प्रबन्धकीय निर्णयों में इनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती और इन्हें कुल लागत का एक भाग ही समझा जाता है, यद्यपि लेखांकन के अन्तर्गत केवल विहित लागतों के योग को ही उत्पादन लागत माना जाता है। विहित लागत, निहित लागत और । सामान्य लाभ का योग आर्थिक लागत (Economic Cost) कहलाता है।

विगत लागत एवं भावी लागत (Past Cost and Future Cost)

जो लागते वास्तव में हो चुकी हैं तथा जिनकी वित्तीय लेखों में प्रविष्टि कर दी गई हो, विगत लागतें कहलाती हैं। प्रबन्धकीय निर्णयों में परिवर्तन से इन लागतों को बदला नहीं जा सकता। दूसरी ओर भावी लागते वे होती हैं जो भावी उत्पादन से सम्बन्ध रखती हैं। ये लागते न तो घटित हुई होती हैं और न ही इनका लेखा-पुस्तकों में कोई उल्लेख होता है। इन लागतों का तो पूर्वानुमान ही लगाया जाता है। यह पूर्वानुमान विगत लागतों, वर्तमान परिस्थितियों और भावी परिस्थितियों के आधार पर लगाया जाता है। प्रबन्ध इन लागतों को कम करने और नियन्त्रित करने के लिये कदम उठा सकता है। इसीलिये प्रबन्धकीय निर्णयों में इन लागतों का बहुत महत्व होता है। लागत नियंत्रण, भावी आय के अनुमान, नये उत्पादों से सम्बन्धित निर्णय, विस्तार करने की योजना तथा मूल्य निर्धारण जैसे महत्वपूर्ण मामलों में भावी लागतों का ही प्रयोग किया जाता है।

Business Economics Cost Concepts

अल्पकालीन लागत और दीर्घकालीन लागत (Short-term Cost and Long-term Cost)

अल्पकाल और दीर्घकाल में लागतों के व्यवहार में काफी अन्तर रहता है। अर्थशास्त्र में अल्पकाल उस अवधि को कहते हैं जिसके अन्तर्गत फर्म के स्थिर संयंत्रों व अन्य स्थिर कारकों में परिवर्तन न किया जा सके जबकि दीर्घकाल उस अवधि को कहते हैं जिसके अन्तर्गत फर्म के स्थिर संयंत्रों व अन्य स्थिर कारकों में परिवर्तन किया जा सके। अतः अल्पकाल में परिवर्तनीय साधनों की मात्रा में समायोजन करके स्थिर संयंत्रों की वर्तमान क्षमता की सीमा के अन्तर्गत ही उत्पादन मात्रा में समायोजन किया जा सकता है जबकि दीर्घकाल में सभी साधनों में वांछित समायोजन किया जा सकता है। अल्पकाल में परिवर्तनशील और स्थिर दोनों लागतों का अस्तित्व रहता है किन्तु दीर्घकाल में सभी लागतें परिवर्तनशील होती हैं। इसीलिए प्रबन्धकीय निर्णयन के लिये अल्पकालीन और दीर्घकालीन लागतों के बीच भेद किया जाता है।

अल्पकालीन लागतों का आशय उन लागतों से होता है जो संयंत्र और अन्य स्थिर कारकों के उपयोग की सीमा (अर्थात् उत्पादन की मात्रा) में परिवर्तन के अनुसार परिवर्तित होती हैं। दूसरी ओर दीर्घकालीन लागते वे होती हैं जो कि संयंत्र की क्षमता में परिवर्तन किये जाने पर परिवर्तित होती हैं।

अर्थशास्त्र में अल्पकालीन और दीर्घकालीन लागत-व्यवहार में अन्तर एक आधारभूत बात मानी जाती है। यह अन्तर समस्त आदान कारकों की उत्पादन की दर और प्रकार के मेल की मात्रा (Degree of adaptation of all input factors to rate and type of output) पर

आधारित है। जब संयंत्र के आकार, श्रम शक्ति, तकनीकी ज्ञान आदि में पूर्ण लोच है, दीर्घकालीन लागत-व्यवहार सन्निहित होता है तथा जब पूर्ण लोच का अभाव हो तो अल्पकालीन लागत-व्यवहार सन्निहित होता है।

इन लागतों का अध्ययन लागत, मात्रा, मूल्य और लाभ सम्बन्धी प्रबन्धकीय निर्णयों में पर्याप्त उपयोगी होता है। वर्तमान संयंत्र का अति प्रयोग, प्रचलित मूल्य से कम मूल्य पर कोई विशेष आदेश स्वीकार करना आदि समस्याओं पर निर्णय लेने में अल्पकालीन लागतें महत्वपूर्ण होती हैं जबकि दीर्घकालीन लागतों का महत्व उत्पादन क्षमता के विस्तार एवं नये संयंत्र की ना के सम्बन्ध में निर्णय लेने में होता है। ये लागतें संयंत्र के अनुकूलतम आकार के में भी सहायक होती हैं। इस प्रकार ये लागतें नये उपक्रमों के आरम्भ और विद्यमान उपक्रमों के विस्तार दोनों में सहायक हो सकती हैं।

Business Economics Cost Concepts

प्रत्यक्ष लागत और अप्रत्यक्ष लागत

(Director Traceable Cost and Indirect or Common Cost)

जिस लागत को निर्विवाद एवं स्पष्ट रूप से किसी वस्त, सेवा, उत्पादन विधि या विभाग विशेष से सम्बन्धित किया जा सके, वह प्रत्यक्ष लागत कहलाती है। जैसे विभागीय कर्मचारियों । का वेतन, सामग्री के क्रय की लागत आदि। इन लागतों के बँटवारे की कोई समस्या नहीं उठती। क्योंकि ये तो वस्तु, सेवा, विधि या विभाग से प्रत्यक्ष सम्बन्ध रखती हैं। अप्रत्यक्ष लागते वे होती। हैं जिन्हें किसी वस्तु, सेवा, विधि अथवा विभाग से प्रत्यक्ष रूप से सम्बन्धित नहीं किया जा सकता है। ये लागते कई वस्तुओं, विभागों या विधियों के लिये इकट्ठी चुकायी जाती हैं, जैसे प्रबन्धकीय कार्यालय का व्यय, सामूहिक विज्ञापन व्यय आदि। प्रत्येक वस्तु, विभाग या विधि की लाभप्रदता के मूल्यांकन के लिये इन लागतों का सही बँटवारा बहत आवश्यक होता है। सामान्यतया प्रत्यक्ष लागतें परिवर्तनीय होती हैं तथा अप्रत्यक्ष लागते अपरिवर्तनीय या स्थिर। किन्तु कुछ स्थितियों में अप्रत्यक्ष लागतें परिवर्तनीय भी हो सकती हैं, जैसे विद्युत शक्ति व्यय एक अप्रत्यक्ष लागत होते हुए भी एक परिवर्तनशील लागत है।

रोकड़ी लागत और किताबी लागत

(Out-of-Pocket Cost and Book Cost)

रोकड़ी लागत अथवा बाह्य लागत (Out-of-Pocket Cost) : ये वे व्यय होते हैं जिनके लिये तुरन्त या किसी भावी तिथि पर भुगतान की आवश्यकता होती है। इन व्ययों का भुगतान व्यवसाय के बाहरी व्यक्तियों को किया जाता है। उदाहरण के लिये कच्चे माल का मूल्य, श्रमिकों का वेतन, किराया आदि का भुगतान व्यवसाय के बाहर के पक्षों को किया जाता है। अतः ये रोकड़ी व्यय कहलाते हैं। प्रबन्धकीय निर्णयों में ये लागते सम्बद्ध तत्व होती हैं क्योंकि विभिन्न विकल्पों के साथ इनमें भी परिवर्तन आ सकता है।

किताबी लागत (Book Cost) : इसका आशय उन लागतों से होता है जिनके भुगतान के लिये कोई नकदी की आवश्यकता नहीं होती। ये तो व्यवसाय के शुद्ध लाभ की गणना के लिये केवल किताबी समायोजनों के लिये दिखलायी जाती हैं, जैसे स्थायी सम्पत्तियों पर हास की राशि।।

रोकड़ी लागत और किताबी लागतों का अध्ययन व्यवसाय में कोर्षों की तरलता पर प्रबन्धकीय निर्णय लेने में बहुत महत्वपूर्ण होता है। यह अध्ययन ही हमें बतलाता है कि व्यवसाय की कौन-कौन सी लागतें उसकी रोकड़ स्थिति को प्रभावित करती हैं। प्रबन्धकीय निर्णय से पुस्तकीय लागतों को रोकड़ी लागत में तथा रोकड़ी लागत को पुस्तकीय लागत में बदला जा सकता है। उदाहरण के लिये यदि भवन को बेचकर उसे पुनः पट्टे पर ले लिया जाये तो पट्टे का किराया हास का स्थान ले लेगा और पुस्तकीय लागत रोकड़ी लागत बन जायेगी।

Business Economics Cost Concepts

बचावयोग्य लागत और बचाव अयोग्य लागत

(Escapable Cost and Unescapable Cost)

फर्म के किसी विभाग, उत्पाद अथवा उत्पादन विधि के स्थायी रूप से बन्द कर देने पर कुल लागतों में जो शुद्ध कमी आती है, उन्हें बचाव-योग्य लागतें कहते हैं। उदाहरण के लिये विभागीय विक्रेताओं का वेतन, प्रत्यक्ष सामग्री, प्रत्यक्ष श्रम आदि बचाव-योग्य लागतें हैं। यहाँ पर लागतों में शुद्ध कमी का आशय यह है कि किसी विभाग या उत्पाद के बंद कर देने पर लागतों में जो प्रत्यक्ष कमी आ जाती है उसमें से वह लागत घटा दी जायेगी जो इस कार्यवाही के कारण अन्य विभागों में बढ़ी है। दूसरी ओर किसी विभाग के बन्द कर देने पर जो लागतें बनी रहती हैं, वे बचाव-अयोग्य लागते कहलाती हैं। वस्तुतः ये फर्म की ऐसी स्थिर लागतें होती हैं जो उत्पादन कार्य त्याग देने पर भी बनी रहती हैं। किसी एक विभाग के बन्द कर देने पर ऐसी लागतें दूसरे विभाग को विवर्तित (shift) हो जाती हैं, जैसे सपरवाइजरों का वेतन प्रबन्धकीय निर्णयन की दृष्टि से लागतों को बचाव-योग्य एवं बचाव-अयोग्य भागों में विभाजित करने के पश्चात ही प्रबन्ध किसी विभाग, उत्पाद अथवा उत्पादन प्रक्रिया को स्थायी रूप से बन्द करने के सम्बन्ध में सही निर्णय ले सकता है।

अत्यावश्यक लागत तथा स्थगनयोग्य लागत (Urgent Cost and Postponable Cost)

वे लागतें जो उत्पादन कार्य चालू रखने के लिये आवश्यक हैं, अत्यावश्यक लागतें कहलाती है, जसे कच्चा माल, श्रम आदि के व्यय। इसके विपरीत ऐसी लागतें जिन्हें कुछ समय के लिये स्थगित किया जा सकता है, स्थगन-योग्य लागते कहलाती हैं, जैसे पुताई का व्यय। रेलवे व अन्य यातायात कम्पनियों में इस धारणा का बहुत महत्व है। व्यावसायिक मंदी के काल में कुछ लागतों को स्थगित करके एक फर्म आर्थिक कठिनाइयों से बच सकती है।

नियन्त्रणीय एवं अनियन्त्रणीय लागतें (Controllable and Uncontrollable Costs)

किसी लागत की नियन्त्रणीयता सम्बन्धित उत्तरदायित्व के स्तर पर निर्भर करती है। नियन्त्रणीय लागत का आशय ऐसी लागत से होता है जिस पर सम्बन्धित उत्तरदायी अधिकारी का नियन्त्रण हो। इसके विपरीत कोई ऐसी लागत जिस पर सम्बन्धित उत्तरदायी अधिकारी का नियन्त्रण सम्भव नहीं है अथवा जो प्रबन्ध के नियन्त्रण के बाहर है, अनियन्त्रणीय लागत कहलाती है। ध्यान रहे कि एक ही लागत उत्तरदायित्व के एक स्तर पर अनियन्त्रणीय हो सकती है तथा दूसरे स्तर पर, सामान्यतया उच्च स्तर पर, नियन्त्रणीय। इसी प्रकार कुछ लागतों पर एक से अधिक अधिकारियों का भी नियन्त्रण हो सकता है। उदाहरण के लिये कच्चे माल की लागत में कच्चे माल के क्रय पर दिखाये गये मूल्य का उत्तरदायित्व क्रय अधिकारी का होगा तथा उसके प्रयोग में बरती गई कुशलता या अकुशलता का उत्तरदायित्व उत्पादन अधिकारी का होगा। व्ययों के नियन्त्रण तथा उत्तरदायित्व के निर्धारण में प्रबन्ध को इन लागतों के बीच भेद करना अति आवश्यक होता है।

लागत के नियन्त्रणीय और अनियन्त्रणीय तत्वों में भेद करने के लिये प्रमाप परिव्ययन की तकनीक की सहायता ली जा सकती है। जिन लागतों के प्रमाष और वास्तविक निष्पादन समान रहें, वे लागत तत्व अनियन्त्रणीय कहलायेंगे तथा जिन लागतों के प्रमाप और वास्तविक निष्पादनों में विचलन आयें, वे लागतें नियंत्रणीय मानी जायेंगी। प्रत्यक्ष कच्चा माल और प्रत्यक्ष श्रम सामान्यतया नियन्त्रणीय होते हैं, जबकि उपरिव्ययों में कुछ नियन्त्रणीय होते हैं और कुछ अनियन्त्रणीय। बाँटी गई लागतें (Allocated Costs) सदैव ही अनियन्त्रणीय होती हैं तथा अप्रत्यक्ष श्रम, प्रदाय और बिजली सामान्यतया नियन्त्रणीय होते हैं।

प्रतिस्थापन और ऐतिहासिक लागतें (Replacement and Historical Costs) |

फर्म में प्रयोग में आ रही किसी सम्पनि के स्थान पर उसी प्रकार की दूसरी सम्पत्ति के क्रय के लिये दिये जाने वाला मूल्य ही विद्यमान सम्पत्ति की प्रतिस्थापन लागत कहलायेगी। दूसरे शब्दों में, एक पुरानी सम्पत्ति को हटाकर यदि उसी प्रकार की एक नई सम्पत्ति क्रय की जाती है तो नई सम्पत्ति के क्रय के लिये आवश्यक अतिरिक्त धनराशि ही पुरानी सम्पत्ति की प्रतिस्थापन लागत होगी तथा इसे ही मूल्य हास का आधार माना जायेगा।

ऐतिहासिक लागत का आशय सम्पत्ति की मूल लागत अर्थात उसके क्रय मूल्य से होता है। परम्परागत लेखाविधि में हास की गणना इसी लागत पर ही की जाती है। किन्तु मूल्य स्तर में तेजी से परिवर्तन होने की स्थिति में ऐतिहासिक लागत के आधार पर हास की गणना प्रबन्धकीय निर्णयन के लिये उपयुक्त नहीं है। ऐसी स्थिति में प्रतिस्थापन लागत ही भावी लागत की गणना व निर्णय लेने का उपयुक्त आधार प्रस्तुत करती है।

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तालाबन्दी या कार्य निरस्ति लागत तथा कार्य परित्याग लागत। (Shut Down Cost and Abandonment Cost)

तालाबन्दी लागत (Shut Down Cost): यह वह लागत होती है जो किसी फर्म को उत्पादन कार्य कुछ समय के लिये बन्द कर देने पर करनी पड़ती है। संयंत्र के चालू रहने की स्थिति में इन लागतों का कोई महत्व नहीं होता है। संयंत्र को सरक्षित रखने के लिये किये गये व्यय, बाहर पड़े माल के लिये भंडार व्यवस्था पर व्यय, चौकीदार का वेतन, कार्य पुनः चालू करने पर संयंत्र के पुनः चाल करने के व्यय. श्रमिकों की पूनः नियुक्ति व उनके प्रशिक्षण के व्यय तालाबन्दी लागत के ही उदाहरण हैं। संयंत्र को कछ समय के लिये बन्द कर देने या चालू । रहने देने की समस्या पर निर्णयन में यह लागत अवधारणा पर्याप्त उपयोगी होती है। मौसमी उत्पादन में लगी इकाइयों में इस बिन्दु का निर्धारण बहुत आवश्यक होता है।

कार्य परित्याग लागत (Abandonment Cost): यह वह लागत होती है जो कि किसी प्लाण्ट को सदा के लिये हटा देने पर करनी पड़ती है। वस्तुतः यह कार्य के स्थायी तौर पर बन्द कर देने की स्थिति होती है। इस स्थिति में सम्पत्ति का निपटारा करने की समस्या आती है और इसमें फर्म को व्यय करना पड़ता है। इस लागत का महत्व तभी उत्पन्न होता है जबकि बन्द फर्म का स्वामी अपनी फर्म की सम्पत्तियों के निपटारे का निर्णय लेता है। उदाहरण के लिये ट्रामें बन्द हो जाने की दशा में इनको हटाने का खर्चा, किसी स्थान पर रेलवे सेवा समाप्त कर देने पर उसको हटाने का खर्चा, आदि कार्य परित्याग लागते कहलाते हैं। इस लागत का प्रयोग प्रतिस्थापन लागत की गणना में तथा फर्म को स्थायी रूप से बन्द करने सम्बन्धी समस्या पर निर्णय लेने में किया जाता है।

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परिवर्तनशील, स्थिर तथा अर्द्धस्थिर लागतें

(Variable, Fixed and Semi-Fixed Costs)

परिवर्तनशील लागत (Variable Cost) : उत्पादन के परिवर्तनशील साधनों के प्रयोग की लागत परिवर्तनशील लागत कहलाती है। मार्शल परिवर्तनशील लागत को मूल लागत (Prime Cost) कहते हैं। कुल परिवर्तनशील लागत उत्पादन की मात्रा से प्रत्यक्ष और आनुपातिक सम्बन्ध रखती है। उत्पादन-मात्रा में परिवर्तन आने पर प्रति इकाई परिवर्तनशील लागत समान रहती है परन्तु परिवर्तनशील लागत की कुल राशि उत्पादन-इकाई की मात्रा में परिवर्तनों के अनुपात में परिवर्तित होती है। प्रो० बेन के शब्दों में, “परिवर्तनशील लागत बह लागत है जिसकी कुल राशि उत्पादन की मात्रा में परिवर्तन होने पर परिवर्तित होती है।

यदि फर्म कोई उत्पादन न करे तो कुल परिवर्तनशील लागतें भी नहीं होंगी। प्रत्यक्ष सामग्री, प्रत्यक्ष श्रम, विक्रय कमीशन आदि परिवर्तनशील लागत के उदाहरण हैं। इन लागतों का व्यवहार चित्र 5.2 में दिखलाया गया है। चित्र से स्पष्ट | है कि कुल परिवर्तनशील लागते उत्पादन मात्रा के अनुपात में परिवर्तित होती हैं तथा उत्पादन-मात्रा के शून्य होने पर (अर्थात् अस्थायी रूप से उत्पादन रुक VOLUME जाने पर) ये लागतें भी शून्य हो जाती हैं।

परिवर्तनशील लागत रेखा का ढाल धनात्मक होता है।

सामान्यतया परिवर्तनशील लागत की कुल राशि उत्पादन-मात्रा के परिवर्तनों के अनुपात में परिवर्तित होती है किन्तु ऐसा उत्पत्ति स्थिरता नियम के क्रियाशील होने पर ही होता है। दि फर्म में उत्पत्ति वृद्धि नियम क्रियाशील है तो कुल परिवर्तनशील लागत घटती दर से 8 बढ़ेगी तथा उत्पत्ति हास नियम के क्रियाशील होने पर कुल परिवर्तनशील लागत बढ़ती दर से बढ़ेगी। इन स्थितियों में परिवर्तनशील लागत वक्र वक्रीय होगा। .

स्थिर या अपरिवर्तनीय लागत (Fixed Cost or Non-variable Cost) : ये वे व्यय होते हैं जो कि स्थिर साधनों के प्रयोग में लाने के लिये किये जाते हैं। इनकी कुल राशि उत्पादन की मात्रा में परिवर्तन से प्रभावित नहीं होती। प्रो० बेन के शब्दों में, “स्थिर लागत वह लागत है

जिसकी कुल राशि, अल्पकाल में, उत्पादन की मात्रा में परिवर्तन होने पर भी पूर्णतया अपरिवर्तित रहती है। वस्तुतः इन लागतों का सम्बन्ध उत्पत्ति की मात्रा से न ५ होकर संयंत्र के आकार से होता है। ये व्यय प्रत्येक उत्पादन-स्तर के लिये समान रहते हैं। अतः ये लागते उत्पादन की मात्रा के अल्पकालीन परिवर्तनों से प्रभावित नहीं होती हैं। इन लागतों की कुल राशि तो स्थिर रहती है परन्तु प्रति इकाई लागत उत्पादन-मात्रा के परिवर्तन की विपरीत दिशा में परिवर्तित होती है अर्थात् उत्पादन-मात्रा के बढ़ने पर कुल स्थिर लागत तो समान रहती है किन्तु प्रति इकाई स्थिर लागत क्रमशः घटती जाती है। किराया, भूमिकर, स्थायी कर्मचारियों का वेतन आदि अपरिवर्तनशील लागत के उदाहरण हैं। स्थिर लागत को ऊपरी लागत (Overhead Cost) अथवा सहायक लागत (Supplementary Cost) भी कहते हैं। ध्यान रहे कि दीर्घकाल में कोई भी लागत पूरी तरह से स्थिर नहीं रहती। चित्र 5.4 में स्थिर लागतों का व्यवहार दर्शाया गया है। जैसा कि चित्र से स्पष्ट है कि स्थिर लागत रेखा X-अक्ष के समानान्तर एक पड़ी रेखा होती है। उत्पादन-मात्रा में परिवर्तन पर इन लागतों में कोई परिवर्तन नहीं आता है। उत्पादन-मात्रा शून्य होने पर ये लागतें वही बनी रहती हैं।

प्रबन्धकीय निर्णयों में क्या स्थायी लागते असंगत होती हैं : चूँकि स्थायी लागतों पर उत्पादन-मात्रा के परिवर्तनों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता, अतः यह कहा जा सकता है कि ये लागते असंगत होती हैं किन्तु यह विचार पूर्णतया सही नहीं है क्योंकि प्रथम, स्थायी लागते उत्पादन-मात्रा में एक निश्चित सीमा तक परिवर्तन के लिये ही एक समान होती हैं। संयंत्र की अधिकतम क्षमता से अधिक उत्पादन करने पर इन लागतों में भी परिवर्तन आ जाता है। दूसरे, में विशेष कटौती करने अथवा अल्पकाल के लिये उत्पादन-क्रिया स्थगित किये जाने पर WN स्थायी लागतों में भी कमी करने में सफल हो जाता है। अतः इस समस्या पर सही लेने के लिये स्थायी लागतों का विश्लेषण आवश्यक होता है। तीसरे, स्थायी लागतों को पूर्णतया कटौती-योग्य न मानना गलत है। वस्ततः अनेक स्थायी व्यय प्रबन्ध का दृष्टिकोण पर निर्भर करते हैं। इस सीमा तक तो इन लागतों में कमी की जा सकती है। च वस्तु की कुल लागत के निर्धारण में भी यह लागत महत्वपूर्ण रहती है। वस्तु क मूल्य निषाद में भी अल्पकाल में भले ही इन लागतों की अवहेलना की जा सकती है किन्तु दीर्घकाल मता वस्तु का मूल्य परिवर्तनशील व स्थायी दोनों लागतों को वसल करने के लिये पर्याप्त होना। चाहिया पाचव, बहु-उत्पाद फों में व्यक्तिगत उत्पाद की लाभप्रदता के मल्यांकन में उत्पाद का प्रत्यक्ष स्थिर लागतो (Direct or Traceable Fixed Costs) को परिवर्तनशील लागता का भाँति समझा जाता है तथा उसके विक्रय मूल्य से उसकी परिवर्तनशील और प्रत्यक्ष स्थिर लागतों को घटाकर सामूहिक स्थिर लागतों (Common Fixed Costs) को पूरा करने के लिये दत्ताश (Contribution) की राशि ज्ञात की जाती है। छठे, स्थायी रूप से कारखाना बन्द करने, बनाओ या खरीदो सम्बन्धी निर्णय आदि अनेक समस्याओं पर प्रबन्धकीय निर्णयन में भी स्थिर। लागतों का समुचित विश्लेषण आवश्यक होता है। अतः स्पष्ट है कि प्रबन्धकीय निर्णयन में भी प्रत्येक मामले में स्थायी लागते असंगत नहीं होतीं।

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अर्द्धस्थिर या अर्द्धपरिवर्तनशील लागत (Semi-Fixed or Semi-Variable Cost) : ऐसी लागतें जो कि न तो पूर्णरूपेण स्थिर लागत हैं और न पूर्णरूपेण परिवर्तनशील, उन्हें अर्द्ध-स्थिर लागतें कहते हैं। इस प्रकार की लागतों में स्थिर और परिवर्तनशील दोनों लागतों का सम्मिश्रण  होता है। ये लागतें उत्पादन-मात्रा में परिवर्तन की दिशा में परिवर्तित होती हैं किन्तु यह परिवर्तन उत्पादन-मात्रा। के परिवर्तन के अनुपात से कम होता है। अतः स्पष्ट है | कि इन लागतों का उत्पादन की मात्रा से सम्बन्ध प्रत्यक्ष तो होता है किन्तु आनुपातिक नहीं। मरम्मत व रख-रखाव, शक्ति, हास, लिपिकों का वेतन आदि लागतें अर्द्ध-परिवर्तनशील लागतों के ही उदाहरण हैं। इन लागतों का व्यवहार चित्र 5.5 में दिखलाया गया है।

व्यवहार में पूर्णतया स्थिर या पूर्णतया परिवर्तनीय लागतें बहुत कम होती हैं किन्तु विश्लेषण की सुविधा के लिये इन्हें ऐसा मान लिया जाता है। ध्यान रहे कि परिवर्तनीय और अपरिवर्तनीय लागतों के बीच अन्तर केवल अल्पकाल में ही लागू होता है क्योंकि दीर्घकाल में सभी लागतें परिवर्तनीय होती हैं। दूसरे, इन दोनों के बीच अन्तर केवल मात्रा (degree) का होता है, वर्ग (Kind) का नहीं।

उत्पादन-मात्रा में अल्पकालीन लागतों और लाभ की मात्रा पर प्रभाव के पूर्वानुमान में यह अन्तर बहुत उपयोगी सिद्ध हुआ है। सम-विच्छेद विश्लेषण, सीमान्त विश्लेषण, लोचदार बजटन आदि तकनीकें इसी अन्तर पर आधारित हैं। प्रबन्धकीय निर्णयन की दृष्टि से यह अन्तर बहुत महत्वपूर्ण होता है।

अर्द्धपरिवर्तनशील लागतों के स्थिर और परिवर्तनशील भागों को पृथक करना

(Isolating the fixed and variable components of semi-variable costs)

व्यवहार में पूर्णतया स्थिर या पूर्णतया परिवर्तनशील लागतें बहत कम होती हैं किन्तु विश्लेषण के उद्देश्य से लागतों का स्थिर व परिवर्तनशील वर्गों में विभाजन आवश्यक होता है। अतः इस उद्देश्य के लिये अर्द्ध-परिवर्तनशील लागतों के इन दोनों भागों को ज्ञात करने के लिये निम्नलिखित पद्धतियों का प्रयोग किया जा सकता है :

(1) विश्लेषणात्मक पद्धति अथवा प्रत्यक्ष अनमान पद्धति (Analytical Method or Direct Estimate Method): इस पद्धति के अन्तर्गत विश्लेषक उत्पादन के भौतिक पहलुओं का सावधानीपूर्वक अवलोकन (observation) करता है और उत्पादन-मात्रा के परिवर्तन पर व्यय की प्रत्येक मद में हये परिवर्तन के अवलोकन के आधार पर उनके स्थिर और परिवर्तनशील भाग को निर्धारित करता है। यह एक सरल एवं मितव्ययी पद्धति है। यदि लागत-मात्रा के भूतकालीन आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं (जैसे एक नयी वस्तु की दशा में) तो प्रत्येक लागत मद से स्थिर और परिवर्तनशील तत्वों का पता लगाने के लिये इस पद्धति का ही प्रयोग किया जा सकता है। किन्तु इस पद्धति के परिणामों की शुद्धता विश्लेषक के अनुभव, तकनीकी ज्ञान व दूरदर्शिता पर निर्भर करती है।

(2) ऊँचनीच पद्धति या अभिसीमा पद्धति (High-Low Method or Range Method) : इस पद्धति का प्रतिपादन 1922 में जे० एच० विलियम्स ने किया था। इस पद्धति में सर्वप्रथम भूतकालीन लागत अभिलेखों से सामान्य मात्रा अभिसीमा (Normal volume range) की दोनों चरम सीमाओं पर लागत के समंक प्राप्त किये जाते हैं और फिर इन दोनों चरम सीमाओं के बीच रेखीय लागत व्यवहार स्थापित किया जाता है। तत्पश्चात् प्रत्येक लागत के स्थिर और परिवर्तनशील भाग को ज्ञात करने के लिये निम्नलिखित विधि अपनाई जाती है:

() अधिकतम मात्रा की कुल लागत में से न्यूनतम मात्रा की कुल लागत को घटाइये।

() कुल लागत के अन्तर को मात्रा के अन्तर से भाग दो। भागफल प्रति इकाई परिवर्तनशील लागत कहलायेगा।

() अधिकतम या न्यूनतम किसी भी मात्रा को उपर्युक्त (ब) से ज्ञात की गई प्रति इकाई परिवर्तनशील लागत से गुणा करो और गुणनफल को सम्बन्धित मात्रा की कुल लागत में से घटाइये, शेष स्थिर लागत कहलायेगा।

इस पद्धति का सबसे बड़ा दोष यह मान लेना है कि अर्द्ध-परिवर्तनशील लागत का परिवर्तनशील भाग रेखीय सम्बन्ध रखता है। दूसरे शब्दों में, इस पद्धति में यह मान लिया जाता है कि लागत मद का परिवर्तनशील तत्व प्रति इकाई स्थिर होता है, किन्तु ऐसा होना सदैव ही आवश्यक नहीं क्योंकि बहुत बार लागत वृद्धियाँ या कमियाँ क्रियाशीलता के स्तर के आनुपातिक नहीं होती।

यह बतलाइये कि लागत की कौन सी मदें स्थायी, परिवर्तनशील तथा अर्द्ध-परिवर्तनशील हैं। कुल व प्रति इकाई उत्पादन लागत ज्ञात कीजिये जबकि उत्पादन क्षमता स्तर 80% है।

Indicate which of the items of cost are fixed, variable and semivariable. Find out the total and per unit cost of production when the capacity level is 80%. Solution :

चूँकि हास और बीमा की राशियाँ दोनों उत्पादन स्तरों पर समान हैं, अतः ये दोनों लागत की स्थिर मदें हैं। प्रत्यक्ष सामग्री व प्रत्यक्ष श्रम की प्रति इकाई लागत दोनों उत्पादन-स्तरों पर क्रमशः 2 रु० व 1.50 रु० हैं तथा इनकी कुल राशियों में परिवर्तन उत्पादन-मात्रा के

आनुपातिक है, अतः ये दोनों मदें परिवर्तनशील लागतें हैं। मरम्मत व अनुरक्षण और शक्ति व ईंधन की राशियों में परिवर्तन उत्पादन-मात्रा में परिवर्तन के अनुपात से कम है तथा उत्पादन में वृद्धि पर इनकी औसत प्रति इकाई लागत में कमी आ रही है, अतः लागत की ये मदें अर्द्ध-परिवर्तनशील हैं। इन मदों के परिवर्तनशील व स्थिर भागों को ज्ञात करने के लिये निम्न सूत्रों का प्रयोग किया जा सकता है :

उदाहरण 4. किसी होटल के खर्चे अंशतः स्थिर और अंशतः ग्राहकों की संख्या के अनुसार परिवर्तनशील हैं। हर ग्राहक 520 रु० मासिक देता है। 80 ग्राहक होने पर 72 रु०। प्रति ग्राहक प्रति मास लाभ होता है और 100 ग्राहक हो जाने पर 80 रु० लाभ हो जाता है। यदि 150 ग्राहक हो जायें तो प्रति व्यक्ति प्रति मास क्या लाभ होगा?

The expenses of a hotel are partly fixed and partly vary with the number of customers. Each customer pays Rs. 520 a month. The profits are Rs. 72 per head per month when there are 80 customers and Rs. 80 when there are 100 customers. What will be the profit per head per month if there are 150 customers?

Solution :

उदाहरण 5. एक उत्पादक 2,00,000 इकाइयाँ उत्पादित कर रहा है जिसकी प्रति इकाई लागत 3.25 रु. है। इसके कुछ समय बाद वह 2,75,000 इकाइयाँ उत्पादित करता है जिसकी प्रति इकाई लागत 3.20 रु० है। ऐसा करने पर स्थायी उपरिव्यय 10% बढ़ जाते हैं। प्रति इकाई सीमान्त लागत व वास्तविक स्थायी उपरिव्यय ज्ञात कीजिये। यह मानते हुए कि लागत में और कोई परिवर्तन नहीं होगा, 3,50,000 इकाइयों की कुल लागत ज्ञात करो।

A manufacturer produces 2,00,000 units of a product at a cost of Rs. 3.25 per unit. Later on he produces 2,75,000 units of a product at a cost of Rs. 3.20 per unit when its fixed overheads have increased by 10%. Find out marginal cost per unit and original fixed overheads. Also estimate the cost of 3,50,000 units, assuming no further change in costs.

Solution : Total Cost of 2,00,000 units = 2,00,000 Rs.3.25 = Rs.6,50,000

Total Cost of 2,75,000 units = 2,75,000 x Rs.3.20 = Rs. 8,80,000

सीमायें: यद्यपि यह पद्धति बहत सरल है किन्तु इसे एक वैज्ञानिक एवं शुद्ध पद्धति नहीं कहा जा सकता। इस पद्धति में यह मान लिया जाता है कि दो चरम सीमाओं के अवलोकनों से साधी रेखा खींची जा सकती है और इन दोनों चरम सीमाओं के बीच की मात्राओं की लागत इस सीधी रेखा पर ही पडेंगी अर्थात यह मान लिया जाता है कि यह रेखा लागत-मात्रा के सभी स्तरों के समंकों का सही प्रतिनिधित्व करती है परन्तु यह मान्यता अव्यावहारिक है। अतः इस पद्धति से बहुत शुद्ध परिणामों की आशा नहीं करनी चाहिये। इसके अतिरिक्त इस पद्धति में स्थिर व्यय का अंक कभी-कभी ऋणात्मक भी आ सकता है। अतः इस पद्धति को एक “rough and ready” तकनीक ही माना जाना चाहिये और सन्देहजनक स्थिति में इसके। परिणामों का अन्य रीतियों से सत्यापन करना चाहिए।

(3) स्थगन लागत पद्धति (Stand-by Cost Method): इस पद्धति के अन्तर्गत कारखाने को कुछ समय के लिये बन्द कर देने की कल्पना करके उसका लागतों पर पड़ने वाले प्रभाव का माप किया जाता है अर्थात कारखाने को अल्पकाल के लिये बन्द कर दिये जाने पर संस्था को जिन व्ययों को करते रहना होगा, वे व्यय स्थिर लागतें कहलाते हैं। तत्पश्चात् कुल लागतों से स्थिर लागतों को घटाकर इनका परिवर्तनशील भाग ज्ञात किया जा सकता है। व्यवहार में इस पद्धति का बहुत कम प्रयोग किया जाता है।

(4) विक्षेप चित्र पद्धति या सहसम्बन्ध पद्धति (Scattergraph Method or Corelation Method) : लागतों के स्थिर और परिवर्तनशील तत्वों को निश्चित करने के लिये सांख्यिकी की विक्षेप चित्र पद्धति का व्यापक रूप से प्रयोग किया जाता है। इस पद्धति के अन्तर्गत विक्षेप चित्र की रचना की जाती है और फिर उस पर एक प्रवृत्ति रेखा खींचकर लागत के स्थिर व परिवर्तनशील भागों को निश्चित किया जाता है।

विक्षेप चित्र की रचना : इसमें X-अक्ष पर मात्रा और y-अक्ष पर लागत समंक प्रदर्शित किये जाते हैं। तत्पश्चात् रेखाचित्र पर प्रत्येक अवधि के मात्रा और लागत के समंकों को मिलाने वाले बिन्दु अंकित किये जाते हैं और फिर दृष्टिगत निरीक्षण (Visual inspection) द्वारा अंकित बिन्दुओं के बीच से एक सीधी रेखा खींची जाती है जिसे प्रवृत्ति रेखा (Trend Line or Line of Best Fit) कहते हैं। प्रवृत्ति रेखा इस प्रकार खींची जानी चाहिए कि रेखा के ऊपर व नीचे लगभग समान बिन्दु रहें तथा रेखा के ऊपर व नीचे बिन्दुओं का क्षेत्रफल भी लगभग समान ही हो। इस रेखा को खींचते समय असाधारण बिन्दुओं पर ध्यान नहीं रखा जाता है। प्रवृत्ति रेखा जिस बिन्दु y-अक्ष को काटती है, वह स्थिर लागत कहलाती है तथा कुल लागत और स्थिर लागत के बीच का अन्तर परिवर्तनशील लागत कहलाता है। इस परिवर्तनशील लागत की राशि में सम्बन्धित मात्रा का भाग देकर प्रति इकाई परिवर्तनशील लागत ज्ञात की जा सकती है।

उदाहरण 6. नीचे दिये आँकड़ों के आधार पर विक्षेप चित्र पद्धति से अर्द्ध-परिवर्तनशील लागतों के परिवर्तनशील और स्थिर भागों को ज्ञात करो :

Find out variable and fixed components of the semi-variable costs by Scattergraph Method on the basis of data given below:

सीमायें (Limitations) : लागत-मात्रा सम्बन्धों का अनुमान लगाने के लिये विक्षेप चित्र पद्धति का व्यापक रूप से प्रयोग किया जाता है क्योंकि यह एक सरल पद्धति है। लेकिन इसके द्वारा निकाले गये परिणाम पूर्ण रूप से शुद्ध नहीं होते। इसके निम्नलिखित कारण हैं :

(1) इस तकनीक में लागत-मात्रा के भूतकालीन समंकों का प्रयोग किया जाता है। अतः विक्षेप चित्र लागत-मात्रा का भूतकालीन सम्बन्ध प्रदर्शित करता है परन्तु हमारा ध्येय तो वर्तमान

और भविष्य के सम्बन्धों का अध्ययन करना होता है। भूत को वर्तमान व भविष्य का दर्पण नहीं माना जा सकता है।

(2) विक्षेप चित्र पर अंकित बिन्दुओं में यदि बहुत अनियमितता है तो अवलोकन द्वारा एक सीधी रेखा खींचना बहुत कठिन कार्य हो जाता है। वास्तव में इस पद्धति की सफलता विश्लेषक के अनुभव व ज्ञान पर निर्भर करती है।।

(3) अवलोकन द्वारा प्रवृत्ति रेखा खींचने में विश्लेषक के व्यक्तिगत पक्षपात की भी सम्भावना रहती है क्योंकि रेखा के कोण में मामूली सा परिवर्तन कर देने पर परिणामों को। प्रभावित किया जा सकता है। इस कमी को दूर करने के लिये सांख्यिकी की ‘न्यूनतम वर्ग पद्धति’ द्वारा प्रवृत्ति रेखा खींची जा सकती है। इस रेखा को “प्रतीपगमन रेखा” (Regression Line) कहते हैं।

(4) न्यूनतम वर्ग पद्धति (Method of Least Squares): यह पद्धति उपरोक्त वर्णित विक्षेप चित्र पद्धति का एक संशोधित रूप है। विक्षेप चित्र पद्धति में ‘प्रवृत्ति रेखा’ दृष्टिगत निरीक्षण से खींची जाती है जिससे इसमें पक्षपात व ऋटियों की सम्भावना रहती है। इस कमी। को दूर करने के लिये सांख्यिकी की ‘न्यूनतम वर्ग पद्धति’ का प्रयोग किया जाता है। इस पद्धति । के अन्तर्गत अर्द्ध-परिवर्तनशील लागतों के स्थिर व परिवर्तनशील भागों को गणितीय ढंग से ज्ञात किया जाता है। इसके लिये इसमें निम्नलिखित युगपद् समीकरणों (Simultaneous Equations) को हल करके a (स्थिर लागत) और b (प्रति इकाई परिवर्तनशील लागत) का मान ज्ञात किया जाता है :

न्यूनतम वर्ग पद्धति की समीक्षा : इस पद्धति में व्यक्तिगत पक्षपात की सम्भावनायें नहीं रहतीं। एक दिये हुये समंकों से केवल एक ही उत्तर आता है और वह भी गणितीय रूप से अत्यन्त सुनिश्चित होता है। इसके अतिरिक्त इस पद्धति द्वारा ज्ञात किये गये प्रतीपगमन समीकरण (Y= a+bx) का प्रयोग विक्षेप चित्र पर सीधी एक रेखा खींचने में भी किया जा सकता है। इससे विक्षेप चित्र की शुद्धता बढ़ जाती है। किन्तु इस पद्धति द्वारा परिणाम निकालने के लिये विश्लेषक में कुछ गणितीय योग्यता की आवश्यकता होती है। इसके अतिरिक्त इसमें समय व लागत भी अधिक लगते हैं

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व्यावसायिक अर्थशास्त्र भेदात्मक अथवा वृद्धिशील लागत तथा डूबत लागत

(Differential or Incremental Cost and Sunk Cost)

भेदात्मक लागत (Differential Cost) : लेखांकन में दो वैकल्पिक कार्यवाही अथवा उत्पादन स्तरों की कुल लागत के अन्तर को भेदात्मक लागत (Differential Cost) अथवा वृद्धिशील लागत (Incremental Cost) कहा जाता है। I.C. M. A. London के अनुसार, “Differential cost may be defined as the increases or decreases in total cost or the change in specific elements of cost that result from any variation in operations.” प्रबन्धकीय निर्णयों में यह लागत अवधारणा बहुत ही उपयोगी होती है। यह बढ़े हुए उत्पादन की लाभप्रदता की जाँच करने, मूल्य निर्धारण, सम्पत्ति के प्रतिस्थापन, उत्पादन पद्धति के चयन, किसी उत्पादन श्रृंखला के परित्याग, वितरण रीति में परिवर्तन आदि बहुत से मामलों में यह विचार कुल लागत के विचार से श्रेष्ठ हल देता है। इस प्रकार के निर्णयों में सामान्यतया वह विकल्प सर्वोत्तम माना जाता है जो कि आवधिक लाभ की राशि और पूँजी पर प्रत्याय दोनों ही रूप में संस्था के कुल लाभ को अधिकतम (या हानि को न्यूनतम) करे। इस लागत का प्रश्न वहाँ नहीं उठेगा जहाँ किसी एक नई फर्म की स्थापना की गई हो।

डूबत लागत (Sunk Cost) : यह वह लागत होती है जिसे बदला या वसूल नहीं किया जा सकता। व्यावसायिक क्रियाओं के स्तर या प्रकृति में अन्तर आ जाने से ये लागते प्रभावित नहीं होतीं। ये फर्म के भूतकालीन निर्णयों के परिणामस्वरूप होती हैं तथा उन विशेष मदों से सम्बन्धित होती हैं जिनमें धन फँस गया हो और उसे बिना भारी हानि सहे निकाला नहीं जा सकता है। उदाहरण के लिये पूर्ण मद्यनिषेद लागू हो जाने पर शराब की डिस्ट्रीलियरी के प्लाण्ट को किसी अन्य उपयोग में लाना बड़ा कठिन है। अतः इस प्लाण्ट की लागत एक डूबत लागत कहलायेगी। यद्यपि इन लागतों को लेखा-पुस्तकों में तो दिखलाया जाता है किन्तु प्रबन्धकीय निर्णयों में इन्हें असम्बद्ध तत्व व निरर्थक माना जाता है क्योंकि ये प्रत्येक विकल्प के लिये एक समान रहती हैं। वस्तुतः ये ऐतिहासिक लागतें होती हैं जो कि एक दी हुई परिस्थिति में अप्राप्य (unrecoverable) हो जाती हैं। सम्पत्ति के प्रतिस्थापन, व्यावसायिक क्रियाओं के चालू रखने या बन्द कर देने आदि समस्याओं पर प्रबन्धकीय निर्णयन में इन लागतों के प्रति विशेष सचेत रहना चाहिये तथा इन्हें कुल लागत में सम्मिलित नहीं किया जाना चाहिये।

उदाहरण 7. मि० राम कृष्ण पुरानी कार देकर नई कार लेने पर विचार कर रहे हैं। उन्होंने दो वर्ष पूर्व यह कार 1,80,000 रु० में खरीदी थी। इस कार को खरीदने के लिये 8 प्रतिशत ब्याज दर पर बैंक से लिये गये उधार के 80,000 रु० अभी भी उस पर बाकी हैं। मई कार की लागत 2,10,000 है। उसकी पुरानी कार 90,000 रु० की लगाई जायेगी। क्रय के वित्तीयन के लिये उसे फिर बैंक से उधार लेना पड़ेगा तथा इस समय यह 9% की दर पर मिलेगा। मि० राम कृष्ण के लिये कौनसी लागतें भेदात्मक हैं और कौनसी डूबत ? पुरानी कार को रखने के स्थान पर नई कार क्रय करने के निर्णय की वृद्धिशील लागत (या लागत में बचत) क्या होगी? .

Mr. Ram Krishna is considering whether to trade-in his car for a new. He bought the car two years ago for Rs. 1,80,000. He still owes Rs. 80,000 to the bank from which he borrowed money to purchase the car at an interest rate of 8 per cent. The new car he wants will cost Rs. 2,10,000. He will be allowed Rs. 90,000 on the trade-in of his old car. For financing the purchase, he will have to borrow again from the Bank, this time at the rate of 9 per cent. Which costs are differential for Mr. Ram Krishna and which are sunk ? What would be the incremental cost (or cost saving) OL decision to buy the new car rather than to keep the old one? Solution :

Sunk Cost : Interest on old bank borrowings (8% on Rs. 80.000) = Rs. 6,400 p.a.

Incremental Cost :

Cash Price of new car             Rs.2,10,000

Less Trade-in of old car           Rs. 90,000

Incremental Outlay                Rs. 1,20,000

Differential Cost :

Interest on new bank borrowings (9% on Rs. 1.20,000) = Rs. 10,800 p.a.

उदाहरण 8. प्रीमियर ऑटो कम्पनी स्कटर का एक अंग बनाती है। सामान्यतया यह 14 रु० की औसत लागत पर प्रतिदिन 1.000 अंग बनाती है और 21 रु० के थोक मूल्य पर बेचती है। कम्पनी के पास तीन भिन्न खुदरा व्यापारियों को निजी प्रतिमानों (Levels) के अन्तर्गत अतिरिक्त अंग बेचने का अप्रत्याशित अवसर है। राज स्टोर्स 19 रु० प्रति अंग की दर पर 100 अंग क्रय का प्रस्ताव करता है, धवन स्टोर्स 17 रु० प्रति पर 100 अंग क्रय का प्रस्ताव करता है और प्रीमियर स्टोर्स 16 रु० प्रति पर 100 अंग क्रय का प्रस्ताव करता है। कम्पनी की गणनानुसार इन अतिरिक्त अंगों की औसत लागत प्रथम 100 अंगों के लिये 15 रु०, दूसरे 100 अंगों के लिये 16 रु० और तीसरे 100 अंगों के लिये 17 रु० होगी।

(i) कम्पनी को इनमें से कौन से आदेश स्वीकार करने चाहिये ?

(ii) यहाँ कौनसा मौलिक सिद्धान्त लागू होता है ?

Premier Auto Company manufactures a scooter component. It normally produces and sells about 1,000 components a day at an average cost of Rs. 14 and a wholesale price of Rs. 21. The company has an unexpected opportunity to sell additional components under private levels to three different retailers. Thus, Raj Stores offers to buy 100 components at Rs. 19 each, Dhawan Stores offers to buy 100 components at Rs. 17 each, and Premier Stores offers to buy 100 components at Rs. 16 each. The company calculates that the average costs of these additional components would be Rs. 15 for the first 100 components, Rs. 16 for the second 100 components and Rs. 17 for the third 100 components.

(i) Which of these orders should the company accept?

(ii) What fundamental principle is involved here?

Solution : (i)

From the above, it is clear that the company should accept the first two orders from Raj Stores and Dhawan Stores, as their marginal revenues are more than the marginal costs.

(ii) Here the fundamental principle involved is that the additional products should be continued so long as MR > MC.

सीमान्त लागत, औसत कुल लागत और कुल लागत

(Marginal Cost, Average Total Cost, and Total Cost)

सामान्त लागत (Marginal Cost) : उत्पादन मात्रा में एक इकाई के बढ़ाने या घटाने पर कुल लागत में जो परिवर्तन होता है, उसे सीमान्त लागत माना जाता है। दूसरे शब्दों में, सीमान्त इकाई की उत्पादन लागत सीमान्त लागत कहलाती है। I. C. M. A., London के अनुसार, “Marginal cost is the amount at any given volume of output by which aggregate costs are changed if the volume of output is increased or decreased by one unit.” अर्थशास्त्रीय भाषा में, सीमान्त लागत वस्तु की n –  इकाइयाँ उत्पादित करने के स्थान पर n इकाइयाँ उत्पादित करने पर कुल उत्पादन लागत में वृद्धि को कहते हैं। सूत्र रूप में, MC, = TC, -TC, सीमान्त लागत की गणना निम्न तालिका में स्पष्ट की गयी है:

कई बार सीमान्त लागत ज्ञात करना बड़ा ही कठिन हो जाता है। उदाहरण के लिये एक कपड़ा मिल जो 10,000 मीटर लट्टा का उत्पादन कर रही है, उसके लिये 10,001वें मीटर लट्टे की सीमान्त लागत ज्ञात करने के लिये 10.001 मीटर लट्टे की कुल लागत ज्ञात करनी होगी जो कि अत्यन्त कठिन और अव्यावहारिक है। इस कठिनाई को दूर करने के लिये यह आवश्यक है कि अतिरिक्त इकाई समुचित आकार की ली जाय। अतः सीमान्त लागत की गणना के लिये एक अतिरिक्त इकाई एक अकेली वस्तु हो सकती है, अथवा वस्तुओं का एक समूह, एक आदेश, उत्पादन क्षमता की एक अवस्था (stage), एक प्रक्रिया अथवा एक विभाग। यदि उत्पादन में एक से अधिक इकाइयों की वृद्धि होती है तो लागत में आयी कुल वृद्धि को उत्पादन-मात्रा की कुल वृद्धि से भाग देकर प्रति इकाई औसत सीमान्त लागत ज्ञात की जा सकती है।

अल्पकाल में सीमान्त लागतें परिवर्तनशील लागतों की पर्याय ही होती हैं क्योंकि इस अवधि में स्थिर लागतों में कोई परिवर्तन नहीं होता है। अतः अल्पकाल में मूल लागत और परिवर्तनशील उपरिव्ययों का योग ही सीमान्त लागत होगा, किन्तु दीर्घकाल में स्थिर लागतों में भी परिवर्तन आ जाता है, अतः दीर्घकालीन उत्पादन क्रियाओं के नियोजन में व्यवसाय की उत्पादक क्षमता में वृद्धि लाने वाली स्थिर लागतों को भी इसी में ही सम्मिलित किया जायेगा। उत्पादन क्रिया की प्रारम्भिक अवस्था में उत्पत्ति वृद्धि नियम की क्रियाशीलता के कारण सीमान्त लागत गिरती है किन्तु एक निश्चित बिन्दु के बाद (पृष्ठ B103 पर दी गयी सारणी में चौथी। इकाई के बाद देखिये) उत्पत्ति हास नियम की क्रियाशीलता के कारण सीमान्त लागत बढ़ने। लगती है। इसीलिये सीमान्त लागत-वक्र ‘U’ आकार लिये होता है।

सीमान्त लागत और वृद्धिशील लागत में अन्तर

लेखांकन में किसी वैकल्पिक कार्यवाही अथवा उत्पादन स्तर में परिवर्तन के फलस्वरूप कुल । लागत में आये अन्तर को भेदात्मक या वृद्धिशील लागत कहा जाता है। इस प्रकार सीमान्त लागत और वृद्धिशील लागत सिद्धान्त रूप में एक ही हैं। यदि स्थिर लागतों में कोई परिवर्तन नहीं होता तो दोनों लागतें एक समान ही रहती हैं।

किन्तु इन दोनों में थोड़ा अन्तर है। सीमान्त लागत किसी एक अतिरिक्त इकाई की लागत हुआ करती है जबकि वृद्धिशील लागत दो उत्पादन स्तरों की कुल लागतों का अन्तर होती है। सीमान्त लागतों की गणना में समस्त स्थिर व्ययों को छोड़ दिया जाता है किन्तु संगत (relevant) स्थिर लागतों को वृद्धिशील लागतों में सम्मिलित किया जा सकता है।

औसत कुल लागत (Average Total Cost) : किसी उत्पादन मात्रा की कुल लागत में उत्पादित इकाइयों की संख्या से भाग देने पर ज्ञात परिणाम औसत लागत (AC) अथवा औसत कुल लागत (ATC) कहलाता है। एक दूसरे प्रकार से यह औसत परिवर्तनशील लागत (AVC) और औसत स्थिर लागत (AFC) का योग होती है। कुल परिवर्तनशील लागत में सम्बन्धित उत्पादन मात्रा का भागफल औसत परिवर्तनशील लागत कहलाता है तथा कुल स्थिर लागत में उत्पादन मात्रा का भागफल औसत स्थिर लागत कहलाता है।

कुल लागत (Total Cost) : किसी संस्था में उत्पादित वस्तुओं की कुल संख्या पर जो लागत आती है, उसे कुल लागत कहते हैं। एक अन्य प्रकार से यह कुल स्थिर लागत और कुल परिवर्तनशील लागत का योग है। शून्य उत्पादन की स्थिति में कुल लागत और कुल स्थिर लागत बराबर होती हैं।

परिवर्तनशील लागत, अपरिवर्तनीय लागत, पूर्ण लागत और सीमान्त लागत का सम्बन्ध

(Relationship between Variable Cost, Fixed Cost, Total Cost and Marginal Cost)

(1) किसी उत्पादन-मात्रा की परिवर्तनशील लागत और अपरिवर्तनीय लागत का योग पूर्ण लागत होता है।

(2) किसी उत्पादन-मात्रा की अपरिवर्तनीय लागत और समस्त सीमान्त लागतों (अर्थात् उस उत्पादन मात्रा तक सीमान्त लागतों का संचयी योग) का योग कुल लागत के बराबर होता है।

(3) कुल परिवर्तनशील लागत समस्त सीमान्त लागतों के संचयी योग के बराबर होती है।

(4) शून्य उत्पादन मात्रा पर कुल लागत और अपरिवर्तनीय लागत बराबर होती हैं क्योंकि इस स्तर पर सीमान्त लागत शून्य होती है।

(5) उत्पादन मात्रा में वृद्धि पर परिवर्तनशील लागत, सीमान्त लागत और कुल लागत तीनों बढ़ती हैं।

(6) सीमान्त लागत के घटने पर कुल लागत घटती हुई दर से बढ़ती है। इसके विपरीत सीमान्त लागत के बढ़ने पर कुल लागत बढ़ती हुई दर से बढ़ती है।

(7) कुल लागत के बढ़ने पर कुल परिवर्तनशील लागत भी बढ़ती है।

नोट : उपर्युक्त सम्बन्धों को इंकित करने के लिये पृष्ट B 103 पर दी गई काल्पनिक तालिका (1 से 5 कालम) की सहायता ली जा सकती है।

लागतव्यवहार को प्रभावित करने वाले तत्व अथवा लागतव्यवहार के निर्धारक

(Forces affecting cost behaviour or Determinants of cost behaviour)

लागत-व्यवहार का आशय लागतों में परिवर्तन की स्थिति से होता है। यह अनेक जटिल तत्वों से प्रभावित होता है। अतः इनकी जानकारी के लिये लागत का इसको प्रभावित करने वाले प्रत्येक महत्वपूर्ण तत्व से कार्यात्मक सम्बन्ध का निर्धारण आवश्यक होता है। यह विश्लेषण ही विभिन्न लागत पूर्वानुमान के लिये सूचनात्मक आधार प्रदान करता है तथा प्रतिद्वन्द्वी आयोजनों (rival programmes) की वैकल्पिक लागतों के अनुमान लगाने में सहायक होता है।

लागत-व्यवहार को अनेक तत्व प्रभावित करते हैं तथा इन तत्वों और उनकी सापेक्षिक महत्ता के सम्बन्ध में एक फर्म से दूसरी फर्म तथा एक समस्या से दूसरी समस्या के बीच इतनी भिन्नता रहती है कि सभी के लिये कोई एक सामान्य नियम लागू नहीं होता। फिर भी कुछ तत्व एस है जिनका आधुनिक निर्माणी संस्थाओं में पर्याप्त महत्व है। ये तत्व निम्नलिखित है।

(1) उत्पत्ति दर (Rate of Output) : इसका आशय स्थिर संयंत्र के उपयोग की दर से। हाता है तथा इसका लागत-व्यवहार पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। लागत-उत्पादन प्रकार्य के निधारण से उत्पादन के विभिन्न स्तरों प उत्पादन की लागत ज्ञात की जा सकती है। अल्पकाल में सामान्य नियम यह है कि फैक्ट्री के अधिक घण्टे कार्य करने और संयंत्र क्षमता के अधिक उपयोग से श्रम और प्रयुक्त पूँजी की उत्पादन कुशलता बढ़ती है और प्रति इकाई कुल उत्पादन लागत घटती है।

लागत-उत्पादन सम्बन्धों का ज्ञान व्यय नियंत्रण, लाभ पूर्वानुमान, मूल्य निर्धारण, प्रवर्तन आदि अनेक प्रबन्धकीय समस्याओं के लिये उपयोगी होता है।

(2) संयंत्र का आकार (Size of Plant) : लागत-व्यवहार के दीर्घकालीन विश्लेषण में संयंत्र के आकार का बहुत महत्व होता है। लागत आकार सम्बन्ध का ज्ञान संयंत्र आकार (Plant Size) और संयंत्र स्थान (Plant Location) की विवेकपूर्ण नीति बनाने के लिये आवश्यक होता है। साथ ही यह ज्ञान आकार के कारण लागत में अनियन्त्रणीय स्तरों से। समायोजित संचालन के स्तरों के निश्चित करने में भी सहायक होता है। दीर्घकाल में एक प्रबन्धक के समक्ष अनेक प्रकार के संयंत्र होते हैं तथा प्रत्येक की औसत उत्पादन लागत भी भिन्न-भिन्न होती है। अतः उनमें से वह अपनी नियोजित उत्पादन-मात्रा के लिये न्यूनतम औसत लागत वाले संयंत्र का चयन करता है।

(3) साधनों (अर्थात सामग्री और श्रम) की कीमत (Prices of Input Factors) : मजदूरी की दरों और सामग्री के मूल्यों में परिवर्तनों से लागत-व्यवहार प्रभावित होता है। ये परिवर्तन न केवल साधनों की प्रति इकाई लागत को प्रभावित करते हैं वरन् इनसे श्रम, सामग्री

और पूँजी का न्यूनतम लागत मिश्रण भी प्रभावित होता है। अल्पकाल में इन परिवर्तनों के प्रभाव (impact) की उपेक्षा नहीं की जा सकती है। उदाहरण के लिये मजदूरी दरों में वृद्धि से श्रमिकों के स्थान पर मशीनों के स्थापन को बढ़ावा मिलता है तथा लागत-रचना में परिवर्तन के फलस्वरूप उत्पादन की पद्धति में परिवर्तन किया जाता है।

(4) प्रौद्योगिकी (Technology) : प्रौद्योगिकी में परिवर्तन साधनों के मिश्रण, संयंत्र के आकार और प्रतिस्थापन लागत में परिवर्तन लाकर लागत व्यवहार को प्रभावित करता है। प्रौद्योगिक विकास और लागत के बीच सम्बन्ध का ज्ञान लागत पूर्वानुमान और तकनीकी प्रगति के फलस्वरूप पूँजीगत व्ययों के नियोजन की प्रबन्धकीय समस्याओं के लिये आवश्यक होता है।

(5) समग्र का आकार (Lot Size) : समग्र आकार-लागत सम्बन्ध तब विशेष रूप से महत्वपूर्ण होता है जबकि बड़े समग्र की बचतें पर्याप्त हों। यद्यपि इस सम्बन्ध को समझना सरल है किन्तु बचतों के अनुमान और अनुकूलतम समग्र आकार के निर्धारण की विधियों में पर्याप्त अन्तर होने के कारण इसके निर्णयों में काफी भिन्नता रहती है। इस आकार का निर्धारण व्यक्तिगत उत्पादनों की विक्रय की मात्रा, स्थायित्व और पूर्वानमान क्षमता पर निर्भर करता है। इस सम्बन्ध का ज्ञान उत्पादन नियोजन, मात्रा छूट और विभिन्न उत्पादों के बीच मूल्य-विभेद में। पर्याप्त उपयोगी होता है।

(6) उत्पादन में स्थायित्व (Stability of Output) : उत्पादन दर में स्थायित्व की सीमा से भी लागत-व्यवहार प्रभावित होता है। उत्पादन में स्थायित्व और उसकी आयोजनशीलता (planability) से उत्पादन अवरोध और सीखने की विभिन्न प्रकार की गप्त लागतों में कमी आती है।

(7) प्रबन्ध और श्रम की कुशलता (Efficiency of Management and Labour) : श्रम की कुशलता निःसन्देह अल्पकाल और दीर्घकाल दोनों में लागत-व्यवहार को प्रभावित करती है किन्तु स्वयं श्रम की कुशलता सही प्रकार की मशीनों और कच्चे माल के संयोजन Combination) जैसे मूर्त कारकों तथा पारिश्रमिक प्रेरणायें जैसे अमूर्त कारकों पर निर्भर करती है। प्रबन्ध की अभिप्रेरणा भी फर्म के सुचारु रूप से संचालन और संसाधनों के अनकुलतम उपयोग में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है।

सैद्धान्तिक प्रश्न

(Theoretical Questions)

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

(Long Answer Questions)

1 डूबत लागत, तालाबन्दी लागत और परित्याग लागत के आधारभूत अन्तर को संक्षिप्त में बताइये।

Discuss briefly the basic differences between Sunk, Shutdown and Abandonment costs.

2. अवसर लागत और वास्तविक लागत में अन्तर कीजिये।

Differentiate between Opportunity Cost and Actual Cost.

3. उत्पादन की लागतों का विश्लेषण करते हुए अवसर लागत के अर्थ तथा महत्व को स्पष्ट कीजिये।

Analyse the cost of production so as to bring out clearly the meaning and significance of opportunity cost.

4. परिवर्तनशील लागत किसे कहते हैं ? स्थिर लागत से यह किस प्रकार भिन्न होती है ?

What is variable cost ? How does it differ from fixed cost ?

5. स्थायी और परिवर्तनशील लागतों में अन्तर कीजिये। क्या आप सहमत हैं कि प्रबन्धकीय निर्णयन में स्थायी लागते असंगत होती हैं क्योंकि स्थायी लागतें उत्पादन के आकार में परिवर्तन से अप्रभावित रहती हैं ?

Differentiate between fixed and variable costs. Do you agree that fixed costs are irrelevant to any managerial decisions as such costs are unaffected by a change in the volume of production?

6. सीमान्त लागत से आप क्या समझते हैं ? सोदाहरण दर्शाइये। यह वृद्धिशील लागत से किस प्रकार भिन्न है ?

What do you understand by Marginal Cost ? Explain with illustrations. How does it differ from incremental costs?

7. निम्न उत्तरों में केवल एक उत्तर ऐसा है जो कि प्रारम्भ में दिये हुए कथन को सर्वोत्तम रूप से पूर्ण करता है। उस उत्तर को बताइये और यह लिखिये कि ऐसा क्यों है। सीमान्त लागत सबसे अधिक सम्बन्धित होती है :

(i) अपरिवर्तनीय लागत, (ii) परिवर्तनीय लागत, (iii) पूर्ण लागत।

From the following answers only one answer is such which satisfies best to the statement given in the beginning. Point out that answer and write why it is so. Marginal cost is highest related to:

(i) Fixed costs, (i) Variable costs, (i) Total costs

8. स्थिर लागत’ और ‘परिवर्तनशील लागत’ को समझाइये। क्या स्थिर लागत कभी परिवर्तित होती हैं ? क्या परिवर्तनशील लागतें कभी स्थिर होती हैं ?

Define the terms ‘fixed cost’ and ‘variable cost’. Do fixed costs every vary? Are variable costs ever fixed ?

9. स्थायी लागतों एवं परिवर्तनशील लागतों की अवधारणाओं को समझाइये। व्यावसायिक निर्णयों के लिये स्थायी एवं परिवर्तनशील लागतों का भेद किस प्रकार महत्वपूर्ण है.?

Explain the concepts of Fixed Costs and Variable Costs. How the difference between fixed costs and variable costs is important for business decisions ?

10. अपरिवर्तनीय व्यय, परिवर्तनीय व्यय, पूर्ण लागत तथा सीमान्त लागत में सम्बन्ध की व्याख्या कीजिये।

Discuss the relationship between fixed cost, variable cost, total cost and marginal cost.

11 औसत लागत तथा सीमान्त लागत में सम्बन्ध की व्याख्या कीजिये। उस बिन्दु पर जहाँ सीमान्त लागत वक्र औसत लागत वक को काटता है, क्या औसत लागत न्यूनतम होती है ? उदाहरण सहित व्याख्या कीजिये।

Explain the relationship between Average Cost and Marginal Cost. Is Average Cost minimum at the point where Marginal Cost Curve cuts the Average Cost Curve ? Illustrate your answer.

12. लागत व्यवहार को प्रभावित करने वाले घटकों (कारकों) का विवेचन कीजिये एवं उचित उदाहरण देकर अवसर लागत के विचार की व्याख्या कीजिये।

Discuss the forces which affect the cost behaviour and briefly explain

the concept of opportunity cost with suitable examples.

13. निम्नलिखित को समझाइये :

(i) स्थिर लागत, (ii) अर्द्ध-परिवर्तनशील लागत, (ii) औसत कुल लागत, (iv) सीमान्त लागत।

Explain the following :

(i) Fixed Cost, (ii) Semi-Variable Cost, (iii) Average Total Cost, (iv) Marginal Cost.

लघु उत्तरीय प्रश्न

(Short Answer Questions)

उत्तर 100 से 120 शब्दों के बीच होना चाहिये।

The answer should be between 100 to 120 words.

1 अवसर लागत विचारधारा को समझाइये।

Explain the opportunity cost concept.

2. लेखांकन लागत एवं आर्थिक लागत में अन्तर स्पष्ट कीजिये।

Distinguish between accounting costs and economic costs.

3. अर्द्ध-परिवर्तनशील लागतों के स्थिर और परिवर्तनशील भागों को पृथक करने की ऊँच-नीच पद्धति को समझाइये।

Explain he high low method of segregating the fidex and veriable  components of semi-variable costs..

4. मौद्रिक लागत एवं वास्तविक लागत का अन्तर स्पष्ट बताइये।

Distinguish between money cost and real cost.

5. स्पष्ट लागतों एवं अस्पष्ट लागतों में अन्तर कीजिये।

Distinguish between explicit costs and implicit costs.

6. निजी लागतों और सामाजिक लागों में अन्तर कीजिये।

Distinguish between private costs and social costs.

 

chetansati

Admin

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