BCom 1st Year Business Economics Interest Study Material Notes in Hindi

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BCom 1st Year Business Economics Interest Study Material Notes in Hindi

Table of Contents

BCom 1st Year Business Economics Interest Study Material Notes in Hindi: Meaning of Interest Net interest and Gross interest Theories of Interest Old Theories of Interest Criticisms The Abstinence or Waiting Theory Criticisms Agio or Austrian Theory of Interest Criticisms Fisher Time Preference Theory of Interest Criticisms New Theories of Interest Classical Theory of Interest Loanable Fund Theory or Neo-Classical Theory of Interest Theoretical Questions Long Answer Questions Short Answer Questions :

Interest Study Material Notes
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BCom 1st Year Business Economics Wages Study Material Notes in Hindi

ब्याज (Interest)

ब्याज का अर्थ

(Meaning of Interest)

राष्ट्रीय आय का वह भाग जो मौद्रिक पूँजी या ऋणयोग्य कोषों के प्रयोग के बदले में पूँजीपति को दिया जाता है, ब्याज कहलाता है। इसकी कुछ प्रमुख परिभाषायें इस प्रकार हैं :

(1) “ब्याज वह कीमत है जो ऋण-योग्य कोषों के प्रयोग के लिये चुकाया जाता है।”

(2) “ब्याज किसी बाजार में पूँजी के प्रयोग की कीमत है।”

(3) “ब्याज एक निश्चित अवधि के लिये द्रव्यता के परित्याग का पुरस्कार है।

डॉ० कीन्स उपरोक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि ब्याज मौद्रिक पूँजी के उपयोग का भुगतान है।

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शुद्ध ब्याज और कुल ब्याज

(Net Interest and Gross Interest)

शुद्ध या वास्तविक ब्याज (Net Interest) : शुद्ध ब्याज वह राशि है जो पूँजीपति को केवल पूँजी के प्रयोग के लिये दिया जाता है। प्रो० चैपमैन के शब्दों में, “वास्तविक ब्याज वह कीमत है जो कि ऋण लेने वाला ऋणदाता को पूँजी सेवाओं के लिये देता है, जबकि पूँजी उधार देने में न तो उसके मारे जाने की जोखिम हो और न उनकी वसूली पर किसी प्रकार का झंझट हुआ हो।” इस प्रकार विशुद्ध पूँजी के प्रयोग के लिये दिया गया पुरस्कार ही शुद्ध ब्याज कहलायेगा।

कुल ब्याज (Gross Interest) : एक ऋणी द्वारा पूँजी या ऋण के प्रयोग के लिये ऋणदाता को जो भुगतान दिया जाता है, उसे ‘कुल ब्याज’ कहते हैं। प्रो० चैपमैन के शब्दों में, “कुल ब्याज में पूँजी को उधार देने के लिये किया गया भुगतान, व्यक्तिगत अथवा व्यावसायिक जोखिमों को उठाने से हानि की जोखिम के लिये भुगतान, विनियोग की असविधा के लिये भुगतान और विनियोग की देखरेख के कार्य और उसके विषय में चिन्ता के लिये किया गया भुगतान सम्मिलित रहते हैं। अतः कुल ब्याज के अन्तर्गत शुद्ध ब्याज के अतिरिक्त जोखिम, असुविधा और व्यवस्था का प्रतिफल भी सम्मिलित रहता है। इस प्रकार इसमें निम्नलि प्रकार के प्रतिफल सम्मिलित होते हैं :

(1) शुद्ध ब्याज (Net Interest): यह वह भुगतान है जो केवल पूँजी के प्रयोग दिया जाता है।

(2) जोखिम का पुरस्कार (Reward for Risk): ऋणदाता द्वारा ऋण दिये। उसके डूब जाने की जोखिम रहती है। अतः कुल ब्याज की राशि में इस जोखिममा भी सम्मिलित रहता है। डॉ० मार्शल के अनुसार पूँजी उधार देने में व्यक्तिगत और ना दो प्रकार की जोखिम रहती है। व्यक्तिगत जोखिम ऋणी के बेईमान हो जाने पर चुकाये जाने के कारण होती है तथा व्यावसायिक जोखिम ऋणी के व्यवसाय में हानि उसके ऋण चका सकने की मजबूरी के कारण होती है।

(3) असविधा का पुरस्कार (Reward for Inconvenience): जब एक ऋणदाता है। उधार देता है तो वह एक निश्चित समय के लिये उसके प्रयोग से वंचित हो जाता

है। यदि भविष्य में उसे स्वयं अपने व्यक्तिगत प्रयोग के लिये इस धन की आवश्यकता होती है । ऋण की अवधि के पूर्व अपना ऋण वापस नहीं माँग सकता। इस असुविधा के लिये वह अणी से कुछ प्रतिफल लेता है।

(4) प्रबन्ध का पुरस्कार (Reward for Management) : प्रत्येक ऋणदाता को ऋणों का हिसाब-किताब रखने व ऋण वसूल करने के सम्बन्ध में पर्याप्त व्यय करने पड़ते हैं। इस । कारण वह ब्याज में इसका प्रतिफल भी चार्ज करता है।

इस प्रकार स्पष्ट है कि शुद्ध ब्याज कुल ब्याज का ही एक भाग है। प्रो० मोरलैंड के शब्दों में, “कुल ब्याज से आशय उस समस्त धनराशि से है जो ऋणी ऋणदाता को देता है, जबकि वास्तविक ब्याज कुल ब्याज का वह अंग है जो केवल पूँजी के उपयोग के लिये दिया जाता है।”

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ब्याज के सिद्धांत

(Theories of Interest)

प्रारम्भ से ही अर्थशास्त्रियों में ब्याज निर्धारण के सम्बन्ध काफी विभिन्नता रही है। इन सभी सिद्धान्तों को मोटे तौर पर दो वर्गों में बाँटा जा सकता है :

(1) ब्याज के प्राचीन सिद्धान्त  (Old Theories of Interest):

(1) ब्याज का सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त

(2) ब्याज का प्रतीक्षा या त्याग का सिद्धान्त

(3) ब्याज का एजियो अथवा आस्ट्रियन सिद्धान्त

(4) फिशर का समय पसंदगी ब्याज-सिद्धान्त

उपर्युक्त सभी सिद्धान्त दोषपूर्ण व अपूर्ण हैं। वर्तमान में इनका कोई महत्व नहीं रहा है। अतः इस पुस्तक में इन सिद्धान्तों का विवेचन अति सूक्ष्म में ही किया गया है।।

(II) ब्याज के नये सिद्धान्त (New Theories of Interest)

(1) ब्याज का प्रतिष्ठित सिद्धान्त

(2) ब्याज का उधार देय कोष सिद्धान्त

(3) ब्याज का तरलता पसंदगी सिद्धान्त

(4) ब्याज का आधुनिक सिद्धान्त

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ब्याज के प्राचीन सिद्धांत

(Old Theories of Interest)

(1) ब्याज का सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त  (Marginal Productivity Theory of Interest) यह ब्याज का सबसे पुराना सिद्धान्त है। पूँजी की माँग उसकी उत्पादकता के कारण ही होती है। अतः इस सिद्धान्त के अनुसार ब्याज पूँजी की सीमान्त उत्पादकता द्वारा निर्धारित होता है। उत्पत्ति के अन्य साधनों की भाँति पूँजी पर भी उत्पत्ति हास नियम लागू होता है। अतः उत्पादन में जैसे-जैसे पूजी की इकाइयों का उपयोग बढ़ाया जाता है, वैसे-वैसे उसकी सीमान्त उत्पादकता घटती जाती है। दीर्घकाल में ब्याज की दर की प्रवृत्ति पूँजी की सीमान्त उत्पादकता के बराबर होने की होती है। यदि ब्याज-दर पूँजी की सीमान्त उत्पादकता से अधिक है तो पूँजी की माँग घट जायेगी और फलस्वरूप पूँजी की सीमान्त उत्पादकता बढ़कर ब्याज दर के बराबर हो जायेगी। इसके विपरीत यदि ब्याज दर पूँजी की सीमान्त उत्पादकता से कम है तो उसकी माँग बढ़ेगी तथा इसके अधिक प्रयोग से इसकी सीमान्त उत्पादकता घटकर ब्याज-दर के बराबर आ जायेगी। अतः स्पष्ट है कि दीर्घकाल में ब्याज दर सीमान्त उत्पादकता के समान होने की प्रवृत्ति रखती है।

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आलोचनायें

(Criticisms)

1 यह सिद्धान्त एकपक्षीय है। यह केवल पूँजी की माँग पर ही विचार करता है तथा पूर्ति पक्ष की उपेक्षा करता है।

2. इस सिद्धान्त के अनुसार पूँजी की माँग केवल उत्पादक कार्यों के लिये की जाती है परन्तु व्यवहार में पूँजी की माँग अनुत्पादक कार्यों के लिये भी की जाती है। ऐसे ऋणों की उत्पादकता शून्य होती है तो फिर इन पर ब्याज क्यों देना पड़ता है।

3. पूँजी की सीमान्त उत्पादकता का सही-सही माप सम्भव नहीं है।

4. सीमान्त उत्पादकता स्वयं भी ब्याज दर द्वारा निर्धारित होती है।

(2) त्याग या प्रतीक्षा सिद्धान्त (The Abstinence or Waiting Theory)

सीनियर द्वारा प्रतिपादित इस सिद्धान्त के अनुसार पूँजी बचत का परिणाम है तथा बचत करने में व्यक्ति को अपने वर्तमान उपभोग में कमी करनी पड़ती है। ऐसा करने में उसे कष्ट होता है। इसी कष्ट सहन करने या त्याग करने के बदले में ही बचतकर्ता को पुरस्कार स्वरूप ब्याज दिया जाता है। चूंकि धनवान व्यक्तियों को बचत करने में कोई त्याग नहीं करना पड़ता है, अतः मार्शल ने इस कठिनाई को दूर करने के लिये त्याग के स्थान पर ‘प्रतीक्षा’ शब्द का प्रयोग किया। मार्शल के अनसार बचत करने में वर्तमान उपभोग को भविष्य के लिये स्थगित करना पड़ता है। दूसरे शब्दों में, एक बचतकर्ता को अपनी बचत के भविष्य में उपयोग के लिये वर्तमान में प्रतीक्षा करनी पड़ती है, अतः उसे इस प्रतीक्षा के बदले में ब्याज दिया जाता है।

आलोचनायें (Criticisms)

1 यह सिद्धान्त एकपक्षीय है। इसमें केवल पूर्ति पक्ष पर ही ध्यान दिया गया है तथा माँग पक्ष की उपेक्षा की गई है।

2. पूँजी की पूर्ति त्याग या प्रतीक्षा के अतिरिक्त अन्य अनेक तत्वों से प्रभावित होती है जिनका इस सिद्धान्त में कोई ध्यान नहीं रखा गया है।

3. त्याग या प्रतीक्षा का कोई सही-सही माप करना सम्भव नहीं।

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(3) ब्याज का एजिओ या आस्ट्रियन सिद्धान्त

(Agio or Austrian Theory of Interest)

आस्ट्रियन अर्थशास्त्री बॉम बावर्क द्वारा विकसित इस सिद्धान्त के अनुसार ब्याज पूँजी के वर्तमान उपयोग को त्यागकर भविष्य के लिये उपभोग को स्वीकार करने की क्षतिपूर्ति है। प्रत्येक व्यक्ति को वर्तमान में वस्तुओं के उपभोग से सन्तुष्टि भविष्य के उपभोग की तुलना में अधिक होती है क्योंकि (1) भविष्य अनिश्चित होता है, (2) वर्तमान की आवश्यकतायें भविष्य की आवश्यकताओं से अधिक तीव्र होती हैं तथा (3) वर्तमान वस्तुओं को, भविष्य की वस्तुओं की अपेक्षा एक प्रकार की तकनीकी श्रेष्ठता प्राप्त होती है। जब कोई व्यक्ति अपनी पूँजी किसी दूसरे को प्रयोग के लिये देता है तो उसे उसके वर्तमान उपभोग को भविष्य के लिये त्यागना पड़ता है, अतः भविष्य की तुलना वर्तमान में उपभोग करने से प्राप्त होने वाले पारितोषण या इनाम (agio) के इस त्याग की क्षतिपूर्ति व्याज है।

आलोचनायें (Criticisms)

1 यह सिद्धान्त एकपक्षीय है क्योंकि इसमें पूँजी के पूर्ति पक्ष पर ही ध्यान दिया गया है।

2. वर्तमान उपभोग से पारितोषण का माप सम्भव नहीं है।

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(4) फिशर का समय-पसंदगी ब्याज-सिद्धान्त

(Fisher’s Time Preference Theory of Interest)

प्रो० फिशर का ब्याज का सिद्धान्त अपने गुरु बॉम बावर्क के ऐजिओ सिद्धान्त का ही एक सुधार है। फिशर के अनुसार भविष्य निश्चित होने पर भी व्यक्ति में वर्तमान में व्यय के प्रति स्वाभाविक आतुरता पायी जाती है जिसे उन्होंने समय अधिमान (time preferenece) कहा है। अतः ब्याज वर्तमान में व्यय करने की आतुरता या समय पसंदगी के त्यागने का पुरस्कार है। फिशर के अनुसार लोगों में समय पसंदगी जितनी अधिक होती है, ब्याज की दर उतनी ही ऊँची होगी। फिशर के अनुसार लोगों की समय पसंदगी निम्नलिखित चार बातों से प्रभावित होती है।

(i) आय का आकार (Size of Income) : अधिक आय वाले व्यक्तियों की समय पसंदगी कम होती है तथा कम आय वाले व्यक्तियों की समय पसंदगी अधिक होती है।

(ii) आय का समयानुसार वितरण (Distribution of Income Over Time): व्यक्ति की समय पसंदगी वर्तमान और भविष्य के बीच उसके आय वितरण से भी प्रभावित होती है। इस दृष्टि से तीन स्थितियाँ हो सकती हैं : (1) यदि व्यक्ति की आय जीवन भर समान रहती है तो उसमें समय-पसंदगी उसके स्वभाव और आय के आकार पर निर्भर करेगी। (2) यदि आयु के बढ़ने के साथ-साथ उसकी आय घटती है तो उसकी समय-पसंदगी कम होगी क्योंकि वह भविष्य के लिये बचत करना चाहेगा। (3) यदि आयु के बढ़ने के साथ-साथ व्यक्ति की आय बढ़ती है तो उसकी समय-पसंदगी अर्थात् वर्तमान में व्यय करने की आतुरता अधिक होगी।

(iii) भविष्य में आय की निश्चितता (Future Certainty of Income) :

व्यक्ति में में आय प्राप्त होने की निश्चितता जितनी अधिक होगी, उसकी समय पसंदगी उतनी ही अधिक होगी।

(iv) व्यक्ति का स्वभाव (Nature of Individual) : एक दूरदर्शी व्यक्ति भविष्य को अधिक महत्व देता है, इसालय उसका समय पसदगा कम हागा। इसके विपरीत अपव्ययीन

बराबर हो जाती है। चित्र 4.1 में DD पूँजी का माँग वक्र तथा SS पूँजी का पूर्ति । वक्र है तथा दोनों के बीच सन्तुलन P बिन्दु y4 पर होता है। अतः ब्याज की दर PQ या OR निर्धारित होगी तथा बचत और विनियोग की मात्रा OQ होगी। यदि किसी समय पर ‘विनियोग’ तथा ‘बचतों’ में असन्तुलन आ 4 जाता है (अर्थात् वे बराबर नहीं हैं) तो ब्याज दर में परिवर्तन होगा तथा अन्त में वह उस बिन्दु पर स्थापित होगी जहाँ पर विनियोग और बचत बराबर होते हैं। चूँकि पूँजी की माँग रेखा पूँजी की सीमान्त उत्पादकता को भी दर्शाती है, अतः सन्तुलन ब्याज की दर मुद्रा की माँग और पूर्ति (PQ) पूँजी की सीमान्त उत्पादकता के बराबर होती है।

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आलोचनायें (Criticisms)

प्रमुख आलोचनायें निम्नलिखित हैं :

1 ब्याज व्यय न करने का प्रतिफल नहीं वरन असंचय का प्रतिफल है। ब्याज बचत को विनियोग करने पर ही प्राप्त हो सकती है। अतः कीन्स ने कहा है कि ब्याज ‘असंचय’ (dishoarding) का प्रतिफल है, न कि व्यय न करने का प्रतिफल।

2. यह सिद्धान्त पूर्ण रोजगार की अवास्तविक मान्यता पर आधारित है। किन्तु जैसा कि कीन्स ने बतलाया है कि वास्तव में समाज के साधनों का सदा पूर्ण प्रयोग सम्भव नहीं है।

3. इस सिद्धांत में आय के स्तर को स्थिर मान लिया है जो कि सही नहीं है क्योंकि आय-स्तर में परिवर्तन होते रहते हैं।

4. इस सिद्धान्त के अनुसार बचत ब्याज की दर पर निर्भर करती है किन्तु आलोचकों का मत है कि बचत की मात्रा ब्याज की दर पर नहीं वरन् आय के स्तर पर निर्भर करती है।

5. यह सिद्धान्त आय पर विनियोग के प्रभाव की उपेक्षा करता है। वास्तव में विनियोग की मात्रा बढ़ने से आय बढ़ती है तथा विनियोग की मात्रा घटने से आय घटती है। अतः ब्याज में वृद्धि से बचतों में वृद्धि नहीं होगी जैसा कि सिद्धान्त में माना गया है क्योंकि ब्याज में वृद्धि से विनियोग हतोत्साहित होते हैं तथा विनियोग की कमी से आय में कमी होगी तथा आय की कमी से बचतें कम होंगी।

6. इस सिद्धान्त के अनुसार ब्याज की दर अनिर्धारणीय है क्योंकि इसके अनुसार ब्याज की दर बचतों पर निर्भर करती है तथा बचतों की मात्रा ज्ञात करने के लिये ब्याज की दर मालूम होनी चाहिये क्योंकि ब्याज की दर विनियोग तथा आय के स्तर को प्रभावित करके बचतों को प्रभावित करती है। अतः स्थिति अनिश्चित तथा अनिर्धारणीय हो जाती है।।

7. इस सिद्धान्त में पूँजी की पूर्ति की गणना केवल वर्तमान आयों से प्राप्त बचतों के आधार पर की जाती है। किन्तु वास्तव में इस पर पिछली बचतों तथा बैंक साख का भी प्रभाव पड़ता है।

सिद्धान्त के अन्तर्गत ब्याज का निर्धारण उधार देय कोषों की माँग और पूति कसा होता है। नव-प्रतिष्ठित सिद्धान्त के अन्तर्गत उधार देय कोषों की माँग और पूर्ति शब्दा का प्रयोग प्रतिष्ठित सिद्धान्त से अधिक व्यापक है। प्रतिष्ठित सिद्धान्त के अन्तर्गत कोषों का पूत म केवल वर्तमान आय में से की गई बचतों को सम्मिलित किया गया था जबकि नव-प्राताष्ठत सिद्धान्त के अन्तर्गत कोषों की पूर्ति में वर्तमान बचतों के अलावा बैंक साख, अप-संचय तथा विनिवेश को भी सम्मिलित किया गया है। इसी तरह कोषों की माँग के अन्तर्गत प्रतिष्ठित सिद्धान्त में केवल विनियोग माँग को ही सम्मिलित किया गया है जबकि नव-प्रतिष्ठित सिद्धान्त में विनियोगिक मांग के साथ-साथ धन संग्रह की माँग, सरकार की माँग और उपभोक्ताओं की माँग को भी सम्मिलित किया गया है।

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नव-प्रतिष्ठित सिद्धान्त की आलोचना

(Criticism of Neo-Classical Theory)

प्रमुख आलोचनायें निम्नलिखित हैं :

1 प्रतिष्ठित सिद्धान्त की भाँति यह सिद्धान्त भी आय के स्तर को स्थिर मान लेता है। जबकि व्यवहार में आय का स्तर सदैव बदलता रहता है। कीन्स का कहना है कि बचतें ब्याज की दर पर निर्भर नहीं करतीं बल्कि आय के स्तर में होने वाले परिवर्तनों पर निर्भर करती हैं।

2. इस सिद्धान्त के अन्तर्गत आय पर विनियोग प्रभाव की उपेक्षा की गई है। सिद्धान्त के अनुसार ब्याज की दर और बचतों में सीधा सम्बन्ध होता है अर्थात् ब्याज दर बढ़ने पर बचतें बढ़ेंगी तथा घटने पर घटेंगी किन्तु व्यवहार में इससे उल्टा होता है क्योंकि ब्याज-दर बढ़ने पर विनियोग घट जाते हैं जिससे रोजगार के अवसर कम हो जाते हैं और इससे लोगों की आय घट जाती है जिसके फलस्वरूप बचतें कम हो जाती हैं।

3. प्रतिष्ठित सिद्धान्त की तरह इस सिद्धान्त के अन्तर्गत भी ब्याज दर अनिर्धारणीय है। इसका कारण यह है कि ब्याज-दर निर्धारण के लिये बचतों की मात्रा का ज्ञान होना चाहिये किन्तु बचतों की मात्रा स्वयं ब्याज-दर पर निर्भर करती है। इस प्रकार यह सिद्धान्त एक ‘वृत्ताकार तर्क’ देकर ब्याज-दर को अनिर्धारणीय बना देता है। इस प्रकार यह सिद्धान्त अपूर्ण और अव्यावहारिक है।

ब्याज का तरलता पसंदगी सिद्धान्त

(Liquidity Preference Theory of Interest)

जे० एम० कीन्स द्वारा प्रतिपादित इस सिद्धान्त के अनुसार ब्याज एक विशुद्ध मौद्रिक बात है तथा यह द्रव्य की माँग और पूर्ति के द्वारा निर्धारित होती है। कीन्स के शब्दों में व्याज वह कीमत है जोकि धन को नकद रूप में रखने की इच्छा तथा उपलब्ध नकदी की मात्रा में बराबरी स्थापित करती है। यह उस बिन्दु पर निर्धारित होती है जहाँ पर द्रव्य की कल माँग और द्रव्य की कुल पूर्ति बराबर होती हैं।

द्रव्य की माँग (Demand for Money): कीन्स के अनुसार द्रव्य की माँग का आशय द्रव्य को नकद रूप में अर्थात् तरल रूप में रखने की माँग से होता है। वे इसे तरलता पसंदगी कहते हैं। सामान्यतया व्यक्ति अपनी बचतों व सम्पत्तियों को नकद रूप में रखना चाहते हैं अर्थात उनमें तरलता पसंदगी पायी जाती है। जब कोई व्यक्ति अपनी बचत किसी अन्य  व्यक्ति को उधार देता है तो उसे तरलता का परित्याग करना पड़ता है। सामान्यतः वह ऐसा तब तक करने को तैयार नहीं होगा जब तक कि उसे अपने द्रव्य की तरलता के परित्याग के लिये कछ प्रतिफल नहीं दिया जाता। यह प्रतिफल ब्याज होता है। अतः ब्याज एक निश्चित समय के तरलता के परित्याग के लिये पुरस्कार है।

कीन्स के अनुसार लोग अपने धन को नकद या तरल रूप में निम्न उद्देश्यों के लिये रखते हैं:

(1) लेन-देन के उद्देश्य (Transaction Motive) : प्रायः लोगों को अपनी इच्छानुसार समय पर आय प्राप्त नहीं होती जबकि व्यय समय-समय पर करने पड़ते हैं। उदाहरण के लिये वेतन भोगियों को माह में या सप्ताह में एक बार वेतन मिलता है जबकि उन्हें व्यय प्रतिदिन करने पड़ते हैं। अतः वे अपनी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये कुछ नकद राशि अपने पास रखते हैं। एक उपभोक्ता दैनिक कार्य सम्पादन के लिये कितनी नकदी अपने पास रखेगा, यह उसकी आय की मात्रा तथा आय प्राप्त करने की समयावधि पर निर्भर करता है। इसी तरह व्यवसायियों को अपने व्यापार संचालन के लिये नकद राशि की आवश्यकता होती है। उनकी आवश्यकता उनके क्रय-विक्रय के आकार पर निर्भर करती है। लेन-देन के उद्देश्य से नकदी की आवश्यकता ब्याज दर से अप्रभावित होती है।

(2) दूरदर्शिता के उद्देश्य (Precautionary Motive) : प्रत्येक व्यक्ति व व्यावसायिक फर्म को आकस्मिक खर्चों को पूरा करने के लिये, जैसे बीमारी, दुर्घटना, बेरोजगारी आदि के लिये भी नकद राशि की आवश्यकता होती है। इस उद्देश्य के लिये नकद द्रव्य की आवश्यकता व्यक्तियों के स्वभाव, रहन-सहन के स्तर व आय स्तर पर निर्भर करती है। इस उद्देश्य के लिये नकदी की मात्रा ब्याज की दर से प्रभावित नहीं होती है।

(3) सट्टा उद्देश्य (Speculative Motive): लोग सट्टा द्वारा अर्थात ब्याज की दर में अनिश्चितता के कारण लाभ उठाने के उद्देश्य से भी नकद द्रव्य रखते हैं। यदि व्यक्ति वर्तमान ब्याज-दर को नीचा समझते हैं तो ऐसे लोग अच्छी-खासी नकद राशि इसलिये ही रखते हैं ताकि भविष्य में ब्याज-दर के बढ़ जाने पर ऊँची ब्याज दर पर उधार देकर अधिक ब्याज कमा सकें। इस प्रकार सट्टा उद्देश्य के लिये द्रव्य की मात्रा मुख्यतया ब्याज की दर से प्रभावित होती है। इस उद्देश्य के लिये द्रव्य की माँग और ब्याज दर में विपरीत सम्बन्ध पाया जाता है।

इस प्रकार उल्लिखित तीनों उद्देश्यों के लिये रखी गयी नकदी की मात्रा द्रव्य की कुल माँग कहलाती है।

तरलता पसंदगी वक्र (Liquidity Preference Curve) : तरलता पसंदगी वक्र (या मुद्रा की माँग) ब्याज की विभिन्न दरों पर नकद मुद्रा की माँगी जाने वाली विभिन्न मात्राओं को बताता है। लेन-देन के उद्देश्य तथा दूरदर्शिता उद्देश्य से तरलता yA पसंदगी लगभग स्थिर तथा ब्याज से अप्रभावित होती है किन्तु

सट्टे के उद्देश्य से तरलता पसंदगी में ब्याज की दर बढ़ने पर कमी और ब्याज की दर में कमी से वृद्धि होती है। कीन्स ने ब्याज निर्धारण में सट्टे उद्देश्य के लिये मुद्रा की माँग पर विशेष जोर दिया है तथा चूंकि ब्याज की दर और सट्टे के उद्देश्य के लिये नकद मुद्रा की माँग में विपरीत सम्बन्ध होता है, इसलिये मुद्रा की मात्रा तरलता पसंदगी वक्र (दिये चित्र 4.3 में LP-वक्र) नीचे को गिरता हुआ होता है किन्तु इसका अन्तिम भाग (अर्थात उसकी छोर-अक्ष के समान्तर होने की प्रवृत्ति रखता है। यह प्रवृत्ति यह बताती है एक न्यूनतम दर पर लोग अपने समस्त द्रव्य को तरल रूप में रखग अथात्  नहीं देंगे। ऐसी स्थिति को कीन्स ने ‘तरलता ट्रेप’ (Liquidity Trap) 4.3 में देखिये।

द्रव्य की पूर्ति (Supply of Money): इसका आशय किसी समय विशेष पर सब उद्देश्यों के लिये देश की मुद्रा की कुल मात्रा से होता है। इस प्रकार धातु के सिक्के, पत्र मुद्रा तथा बैंक साख मिलकर द्रव्य की कल पूर्ति का निर्माण करते हैं। चूंकि मुद्रा की पूर्ति पर सरकार का पूर्ण नियन्त्रण होता है । अतः किसी समय विशेष में द्रव्य की कूल पूर्ति लगभग स्थिर होती है और इसीलिये द्रव्य का पूर्ति वक्र एक खड़ी रेखा होता है। जैसा कि चित्र 4.4 में दिखाया गया है।

ब्याज का निर्धारण (Determination of Interest) : चित्र 4.4 इस सिद्धान्त के अनुसार ब्याज की दर उस बिन्दु पर निर्धारित होती है जहाँ पर द्रव्य की माँग रेखा तथा द्रव्य की पूर्ति रेखा एक-दूसरे को काटती हैं। चित्र में ब्याज निर्धारण स्पष्ट किया गया है। चित्र 4.5 में LP मूल माँग रेखा है तथा SM पूर्ति रेखा है। LP-रेखा SM-रेखा को P बिन्दु पर काटती है। अतः ब्याज की दर PM या होगी। इस ब्याज की दर पर द्रव्य की माँग और द्रव्य की पूर्ति दोनों OM हैं।

यदि लोगों की तरलता पसंदगी पूर्ववत् रहे तथा द्रव्य की पूर्ति बढ़कर OM, हो जाती है तो AFRI ब्याज दर घटकर PM, या OR, हो जायेगी। इसके विपरीत यदि द्रव्य की पूर्ति स्थिर रहती है। किन्तु द्रव्य की माँग बढ़ जाती है जिसके फलस्वरूप LP-माँग वक्र दायें को खिसककर LP, की स्थिति में आ जाता है तो ब्याज की दर मुद्रा की मात्रा बढ़कर PM या OR, हो जायेगी। किन्तु ध्यान रहे कि OR, ब्याज दर की गिरावट की निम्नतम सीमा है। इसके नीचे किसी भी ब्याज दर पर उधारबन्दी (credit deadlock) हो जायेगी तथा ऐसी स्थिति में व्यक्ति अपना सारा धन तरल रखना चाहेंगे। _

आलोचनायें : इस सिद्धान्त का प्रमुख आलोचनायें इस प्रकार हैं:

(1) यह सिद्धान्त पूँजी की उत्पादकता पर ध्यान नहीं देता, जो कि उचित नहीं है। आलोचकों का मत है कि ब्याज केवल तरलता परित्याग के कारण ही नहीं दिया जाता वरन यह पूँजी की उत्पादकता के कारण भी दिया जाता है।

(2) यह सिद्धान्त मौद्रिक तत्वों पर अत्यधिक जोर देता है तथा वास्तविक तत्वों (विनियोग और बचत) की उपेक्षा करता है। इसीलिए आलोचकों ने इसे ‘एक कालिज के खजांची की उत्पादकता के कारणा भी दिया जाता है

(3) यह सिद्धान्त एक पक्षीय तथा अपर्याप्त है। इस सिद्धान्त में नकद द्रव्य की पूर्ति को स्थिर मान लिया जाता है तथा ब्याज का निधोरण केवल द्रव्य की माँग के आधार पर ही किया जाता है।

(4) यह सिद्धान्त अत्यन्त संकुचित और संकीर्ण है क्योंकि यह सिद्धान्त यह नहीं स्पष्ट करता कि एक ऐसी अर्थव्यवस्था में ब्याज का निर्धारण किस प्रकार होगा जिसमें नकद लेन-देन नहीं होते।

(5) यह सिद्धान्त केवल अल्पकाल में ब्याज निर्धारण को बताता है तथा ब्याज निर्धारण को प्रभावित करने वाली दीर्घकालीन शक्तियों पर प्रकाश नहीं डालता।

(6) हेन्सन के अनुसार यह सिद्धान्त अनिश्चित है तथा इसमें ब्याज की दर अनिर्धारणीय है क्योंकि कीन्स के अनुसार ब्याज की दर के निर्धारण के लिये सट्टा उद्देश्य के लिये द्रव्य की पूर्ति का पता होना चाहिये किन्तु सट्टा उद्देश्य के लिये द्रव्य की पूर्ति स्वयं ब्याज की दर पर निर्भर करती है। इस प्रकार इसमें स्थिति अनिर्धारणीय हो जाती है।

(7) इस सिद्धान्त में असंगति तथा अनियमितता भी पायी जाती है। कीन्स के अनुसार मंदीकाल में लोगों की द्रव्यता पसंदगी अधिक होगी और धन धारकों को नकदी छोड़ने की प्रेरणा देने के लिये अपेक्षाकृत ऊँचा पुरस्कार देना होगा किन्तु तथ्य इसके बिल्कुल विपरीत होते हैं। मंदीकाल में अल्पकालीन ब्याज की दरें निम्नतम होती हैं।

(8) यह सिद्धांत आय के एक दिये हुए स्तर पर निर्भर करता है किन्तु यह स्पष्ट नहीं करता कि आय का स्तर कैसे निर्धारित हो।

ब्याज का आधुनिक सिद्धान्त

(Modern Theory of Interest)

व्याज निर्धारण के विभिन्न सिद्धांतों के अपूर्ण तथा अनिर्धारणीय होने के कारण प्रो० हिक्स, प्रो० हेन्सन, प्रो० लर्नर आदि आधुनिक अर्थशास्त्रियों ने प्रमुखतया प्रतिष्ठित सिद्धान्त और कीन्स के सिद्धान्त के कुछ महत्वपूर्ण तत्वों के समन्वय से ब्याज के एक नवीन सिद्धान्त का विकास किया। इसे ‘व्याज का आधुनिक सिद्धान्त’, ‘हिक्स-हेन्सन का सिद्धान्त’, ‘व्याज का निर्धारित सिद्धान्त’ अथवा ‘नव-कीन्सियन सिद्धान्त’ कहते हैं। इस सिद्धान्त में प्रतिष्ठित सिद्धांत के बचत और विनियोग तत्वों (वास्तविक तत्वों) तथा कीन्स के सिद्धान्त के तरलता पसंदगी तथा मुद्रा की मात्रा तत्वों (मौद्रिक तत्वों) और आय तत्व का समावेश करके ब्याज दर के निर्धारण की एक संतोषजनक व्याख्या करने का प्रयत्न किया है। यह एक निर्धारणीय सिद्धान्त है अर्थात् इसके द्वारा ब्याज का निर्धारण किया जा सकता है। इस सिद्धान्त के अन्तर्गत व्याज-दर का निर्धारण दो वक्रों पर आधारित है -IS-वक्र और LM-वक्र।

विनियोग-बचत वक्र (Investment-Saving Curve or IS-Curve) की रचना : यह वक्र आय स्तरों तथा व्याज दरों के विभिन्न संयोगों पर बचत और विनियोग की समानता दर्शाता है। दूसरे शब्दों में, यह वक्र उन विभिन्न आय स्तरों तथा उन ब्याज दरों के संयोजनों को व्यक्त करता है जिन पर कुल वास्तविक बचत और कुल वास्तविक विनियोग समान हो जाते हैं। इस वक्र की रचना प्रतिष्ठित सिद्धान्त के बचत-विनियोग वक्र पर आधारित है। इसे अगले पृष्ठ पर दिये चित्र 4.6 पर दिखाया गया है।

चित्र में Y, Y, Y, तथा Y, विभिन्न आय-स्तर हैं। चित्र के (अ) भाग में आय के इन स्तरों से सम्बन्धित ‘बचत-रेखायें SY, SY2, SY3 तथा SAY, हैं। आय में वृद्धि से बचतें अधिक होती हैं, इसीलिये ‘बचत-रेखायें’ दार्य को खिसकती गयी हैं। ब्याज की दर ऐसी होती जिस पर बचत और विनियोग बराबर हों। जिस समय आय-स्तर Y, है उस समय PO. गाज की दर पर बचत तथा विनियोग में साम्य स्थापित होता है क्योंकि इस दर पर दोनों ही हैं। इसी तरह Y2,Y3 और Y आय स्तरों के लिये बचत और विनियोग की मात्रा हैं तथा ब्याज की दरें क्रमशः P.Q2, PQ, तथा PQ, हैं।

चित्र में बढ़ते हुए आय के स्तरों Y, Y2, Y, तथा Y पर तरलता पसंदगी रेखायें क्रमशः LY, LY, LY, तथा LY, हैं। आय में वृद्धि के साथ-साथ तरलता पसंदगी में वृद्धि होती है, इसलिये तरलता पसंदगी रेखायें बायें को ऊपर की ओर खिसकती जाती हैं। चित्र के (अ) भाग में माना कि वास्तविक मुद्रा की पूर्ति 00 है। चित्र में आय के स्तर Y, पर ब्याज की दर PQ अथवा R होगी तथा इसी दर पर नकद मुद्रा की माँग (तरलता पसंदगी) तथा पूर्ति बराबर (दोनों OQ हैं) होंगी। इसी तरह Y2, Y, और Y, आय स्तरों पर व्याज की दरें क्रमशः R, R, और R. होंगी।

दि विभिन्न आय के स्तरों तथा उनसे सम्बन्धित व्याज की दरों के सम्बन्ध को एक रेखा द्वारा बतायें तो LM-रेखा प्राप्त हो जाती है, जैसा कि चित्र के (ब) भाग में दिखलाया गया है। इस रेखा के प्रत्येक बिन्दु पर नकद द्रव्य की माँग और नकद द्रव्य की वास्तविक मात्रा बराबर होती है। इस रेखा का ढाल धनात्मक होता है। दूसरे शब्दों में, यह रेखा ऊपर को चढ़ती हुई होती है। इसका कारण यह है कि ब्याज की दर और आय के स्तर के बीच सीधा सम्बन्ध पाया जाता है। दूसरे शब्दों में, आय के बढ़ने पर तरलता पसन्दगी अर्थात नकदी की माँग अधिक होगी और इसलिये व्याज की दर ऊँची होगी।

ब्याज का निर्धारण : ब्याज का निर्धारण उपरोक्त दोनों वक्रों के साम्य द्वारा होता है। इसे नीचे चित्र 4.8 पर दिखलाया गया है। चित्र में IS-वक्र तथा LM-वक्र का साम्य P बिन्दु पर हो रहा है। अतः व्याज की दर PY या ORM निर्धारित होगी। इस ब्याज की दर पर एक ही आय-स्तर (OY) पर एक ओर तो बचत तथा विनियोग बराबर रहते हैं और दूसरी ओर नकद के लिये माँग और पूर्ति बराबर रहती हैं। इस बिन्दु पर चारों तत्व अर्थात् बचत विनियोग, तरलता पसंदगी और द्रव्य की मात्रा, आय के एक ही स्तर पर बराबर होते हैं। ध्यान रहे कि सन्तुलन दर PY या OR के Y Y Y अतिरिक्त और किसी दर पर ऐसा नहीं होगा।

आय चित्र में माना कि व्याज दर OR, है तो बचत तथा विनियोग तो OY, आय पर बराबर होंगे जबकि नकद के लिये माँग और पूर्ति OY, आय पर बराबर होंगी। किन्तु एक ही समय पर दो आय के स्तर नहीं हो सकते। स्पष्ट है कि OR, सन्तुलन दर नहीं है।

आधुनिक सिद्धान्त की कीन्स के सिद्धान्त से श्रेष्ठता

(1) कीन्स का सिद्धान्त केवल मौद्रिक सिद्धान्त है। इसमें वास्तविक तत्वों (बचत और विनियोग) की उपेक्षा की गयी है जबकि आधुनिक सिद्धान्त में मौद्रिक तथा वास्तविक दोनों तत्वों का अध्ययन किया जाता है। इस प्रकार आधुनिक सिद्धान्त अधिक वास्तविक है।

(2) कीन्स का सिद्धान्त अनिश्चित है। इससे व्याज अनिर्धारणीय रहती है। आधनिक मिटान्त निश्चित है। इससे ब्याज की दर का निश्चित निर्धारण सम्भव होता है।

(3) आधुनिक सिद्धान्त बहुत से नीति सम्बन्धी तत्वों की व्याख्या करता है जिन्हें कीन्स कर सका। वास्तव में आधुनिक सिद्धान्त मौद्रिक तथा राजकोषीय नीतियों को का सिद्धान्त नहीं कर सका। वास्तव में आधुनिक मिटा समझाने में बहुत लाभदायक सिद्ध हुआ है।

उपरोक्त से स्पष्ट है कि आधुनिक सिद्धान्त कीन्स के सिद्धान्त से श्रेष्ठ है।

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सैद्दान्तिक प्रश्न

(Theoretical Questions)

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

(Long Answer Questions)

1 ब्याज का क्या अर्थ है ? शुद्ध ब्याज और सकल ब्याज में अन्तर बताइये।

What is interest ? Distinguish between net interest and gross interest.

2. ब्याज के प्रतिष्ठित सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या दीजिये।

Examine critically the classical theory of interest

3. व्याजक नव-प्रतिष्ठित सिद्धान्त को समझाइये। यह प्रतिष्ठित सिद्धान्त से किन बातो में भिन्न है ?

Explain neo-classical theory of interest. How is it different from classical theory?

4. ब्याज उधार-देय कोषों के प्रयोग की कीमत है. तथा यह उधार-देय कोषों की माग व पूर्ति द्वारा निर्धारित होती है।” विवेचना कीजिये।

Interest is the price which is paid for the use of loanable funds, and it is determined by the demand and supply of loanable funds.” Discuss.

5. कीन्स के ब्याज के तरलता पसंदगी सिद्धान्त की व्याख्या कीजिये। इस सिद्धान्त की सीमायें क्या हैं ? Explain Keynesian Liquidity Preference Theory of Interest. What are its limitations?

6. ब्याज तरलता के परित्याग का पुरस्कार है तथा वह द्रव्य की माँग और पूर्ति द्वारा निर्धारित होता है।” विवेचना कीजिये।

Interest is the reward paid for parting with liquidity, and it is determined by the demand of money and supply of money.” Discuss.

7. ब्याज के आधुनिक सिद्धान्त की विवेचना कीजिये तथा इसकी कीन्स के ब्याज के सिद्धान्त से श्रेष्ठता बताइये।

Discuss the Modern Theory of Interest and explain its superiority over Keynesian Theory of Interest.

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लघु उत्तरीय प्रश्न

(Short Answer Questions)

उत्तर 100 से 120 शब्दों के बीच होना चाहिये।

The answer should be between 100 to 120 words.

1 शुद्ध ब्याज और सकल ब्याज में अन्तर बताइये।

Distinguish between net interest and gross interest.

2. कुल ब्याज को समझाइये।

Explain gross interest.

3.व्याज के प्रतिष्ठित सिद्धान्त के अन्तर्गत पूँजी की माँग और पूँजी की पूर्ति का आशय समझाइये। Explain the meaning of demand of capital and supply of capital under classical theory of interest.

4. ब्याज का नव-प्रतिष्ठित सिद्धान्त प्रतिष्ठित सिद्धान्त से किन बातों में भिन्न है ?

How neo-classical theory of interest is different from classical theory?

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