BCom 1st Year Business Economics Profit Study Material notes in Hindi

BCom 1st Year Business Economics Profit Study Material Notes in Hindi

Table of Contents

BCom 1st Year Business Economics Profit Study Material Notes in Hindi: Meaning of Profit Distinguishing features of profit Gross profit and Economic Profit  Constituents of Gross Profit  Normal Profit and Abnormal Profit Difference Between Normal profit and Surplus Profit Normal Profit and COst of Production Difference Between Accounting Profit and Economic Profit Theories of Profit Theoretical Questions Long Answer Questions Short Answer Questions :

Profit Study Material notes
Profit Study Material notes

BCom 1st Year Business Economics Interest Study Material Notes in Hindi

लाभ (Profit)

लाभ का आशय

(Meaning of Profit)

राष्ट्रीय आय का वह भाग जो वितरण प्रक्रिया में साहसियों को प्राप्त होता है, लाभ कहलाता है। लाभ एक अवशेष होता है जो कुल उत्पादन में से उत्पत्ति के अन्य साधनों का प्रतिफल देने से रह जाता है। यह साहसी का पुरस्कार होता है। लाभ के अर्थ के सम्बन्ध में अर्थशास्त्रियों में प्रारम्भ से ही मत विभिन्नता रही है। प्रो० नाइट ने ठीक ही कहा है, “सम्भवतः आर्थिक विश्लेषण में लाभ के अतिरिक्त कोई ऐसा शब्द नहीं है जिसे इतने विभिन्न अर्थों में प्रयोग किया गया हो।”

फ्रांसिस एल० वाकर ने लाभ को साहसियों की योग्यता का लगान कहा है। टॉजिक और डेवनपोर्ट ने इसे साहसी और उद्यमी की मजदूरी कहा है। प्रो० हॉले ने इसे जोखिम उठाने का पुरस्कार कहा है तो प्रो० नाइट ने इसे गैर-बीमा योग्य जोखिमों या अनिश्चितताओं को उठाने का पुरस्कार माना है। प्रो० जे० बी० क्लार्क के अनुसार लाभ परिवर्तनों का परिणाम है और यह केवल प्रावैगिक अर्थव्यवस्था में ही उत्पन्न होता है, स्थिर अर्थव्यवस्था में नहीं। प्रो० शुम्पीटर का मत है कि लाभ साहसी द्वारा जोखिम व अनिश्चितता को उठाने और नवप्रवर्तन के लिये किया गया भुगतान है। इन सभी विचारधाराओं को समन्वित करते हुए प्रो० हेनरी ग्रेसेन ने कहा है कि “लाभ को नवप्रवर्तन का पुरस्कार, जोखिम उठाने का पुरस्कार तथा बाजार में अपूर्ण प्रतियोगिता के कारण उत्पन्न अनिश्चितताओं का परिणाम कहा जाता है। इनमें से कोई भी दशा अथवा दशाएँ आर्थिक लाभ को उत्पन्न कर सकती हैं।”

अतः स्पष्ट है कि एक साहसी को लाभ व्यवसाय की जोखिमों और अनिश्चितताओं को उठाने तथा नवप्रवर्तन के पुरस्कार स्वरूप प्राप्त होता है। ध्यान रहे कि साहसी को लाभ तभी होता है जबकि वह इन जोखिमों व अनिश्चितताओं का उचित प्रबन्ध कर लेता है अन्यथा उसे हानि उठानी पड़ सकती है। अतः व्यवसाय में लाभ कमाने के लिये एक साहसी को दो बातें करनी होती हैं – (1) जोखिम का चयन करना और (2) उसका सफलतापूर्वक प्रबन्ध । व्यवसाय में जोखिम और अनिश्चितता का तत्व जितना अधिक होता है, उसमें अधिक लाभ कमाने के अवसर उतने ही अधिक रहते हैं। यहाँ एक बात ध्यान देने योग्य और यह है कि लाभ की प्राप्ति प्रावैगिक परिवर्तनों या बाजार ढाँचे में अपूर्णताओं (जो कि अनिश्चितताओं और जोखिमों को उत्पन्न करते हैं) के कारण होती है।

Business Economics Profit

लाभ की प्रभेदक विशेषताएं

(Distinguishing Features of Profit)

1 लाभ एक अवशेष होता है। अतः इसका सही पूर्वानुमान प्रायः कठिन होता है।

2. लाभ ऋणात्मक भी हो सकता है।

3. सभी व्यवसायों में लाभ के समान अवसर नहीं होते।

4.लाभ एक गैर-अनुबन्धित आय है। इसकी मात्रा अनिश्चित होती है तथा वर्ष-प्रति-वर्ष बदलती रहती है।

5. लाभ प्रावैगिक अवस्था में उत्पन्न होता है।

6. लाभ बाजार ढाँचे की अपूर्णता के कारण उत्पन्न होता है।

Business Economics Profit

कल लाभ और आर्थिक लाभ

(Gross Profit and Economic Profit)

कुल लाभ या सकल लाभ (Total Profit or Gross Profit): साधारण भाषा में जिसे लाभ कहा जाता है, उसे अर्थशास्त्र में कुल लाभ कहते हैं। एक उत्पादक या फर्म द्वारा अपने उत्पादों के विक्रय से प्राप्त कुल आगम (Total Revenue) में से उत्पत्ति के अन्य सभी साधनों के पुरस्कार तथा सम्पत्तियों पर घिसाई व रखरखाव के व्यय व बीमा व्यय घटाने के बाद जो शेष रहता है, उसे कुल लाभ कहते हैं। उत्पत्ति के अन्य साधनों के पुरस्कार व हास व्यय को स्पष्ट या व्यक्त लागते (explicit costs) कहते हैं। अतः

कुल लाभ = कुल विक्रय आगमस्पष्ट लागतें

शुद्ध लाभ या आर्थिक लाभ (Net Profit or Economic Profit) : कुल लाभ में से (i) साहसी द्वारा स्वयं लगाये गये उत्पादन के साधनों के पारिश्रमिक (जिन्हें अस्पष्ट लागते कहते हैं), (2) मूल्य ह्रास एवं रखरखाव व्यय तथा (3) एकाधिकारात्मक व अवसर लाभ जैसे अव्यक्तिगत लाभों को घटा देने पर शेष प्रतिफल शुद्ध लाभ (Net Profit) या आर्थिक लाभ (Economic Profit) कहलायेगा।

अर्थशास्त्र में लाभ का आशय इसी शुद्ध लाभ से होता है। इस पर साहसी का अधिकार होता है। यही उसकी सेवाओं का पुरस्कार है।

Business Economics Profit

कुल लाभ के अंग

(Constituents of Gross Profit)

कुल लाभ में निम्नलिखित सम्मिलित हैं –

(1) साहसी के स्वयं के साधनों का पुरस्कार (Reward for Entrepreneur’s Own Resources) : साहसी व्यवसाय में अपनी निजी भूमि, पूँजी व मकान लगा सकता है तथा वह स्वयं या उसके परिवार के सदस्य कार्य कर सकते हैं। अतः शुद्ध लाभ का अनुमान लगाने के लिये कुल लाभ से भूमि व भवन का लगान या किराया, पूँजी पर ब्याज, श्रम की मजदूरी व संगठन सम्बन्धी उसकी सेवाओं का वेतन घटा देना चाहिये क्योंकि यदि वह इन साधनों का किसी दूसरी जगह प्रयोग करता तो उसे इनके बदले में पुरस्कार अवश्य मिलता।

(2) घिसावट रखरखाव व्यय (Depreciation and Maintenance Charges): इसमें निम्न दो व्यय शामिल होते हैं –

(A) हास (Depreciation) : उत्पादन प्रक्रिया में प्रयुक्त संयंत्र व मशीनरी का हास व उनके अप्रचलन से हानि उत्पादन लागत का ही एक भाग है। अतः शुद्ध लाभ का गणना में इन्हें कुल लाभ से घटाया जायेगा।

(B) बीमा प्रभार (Insurance Charges): व्यवसाय को विभिन्न जोखिमों से बचाय रखने के लिये ली गई बीमा पालिसियों का प्रीमियम भी कुल लाभ से घटाया जायगा।

(3) अव्यक्तिगत लाभ (Extra Personal Profit) : यह दो प्रकार का होता है –

(A) एकाधिकारी लाभ (Monopoly Gains) : साहसी के एकाधिकारी स्थिति में होने के कारण अर्जित अतिरिक्त लाभ एकाधिकारी लाभ कहलाते हैं। एकाधिकारी लाभ कुल लाभ का एक भाग होता है।

(B) अप्रत्याशित आय या अवसर लाभ (Windfall Income or Chance Profit) : युद्ध, फैशन में परिवर्तन, सामाजिक तथा राजनैतिक परिस्थितियों में परिवर्तन आदि के कारण वस्तु की माँग व मूल्यों में अनायास वृद्धि के फलस्वरूप अर्जित लाभ अवसर लाभ कहलाते हैं। ये लाभ साहसी की योग्यता के कारण नहीं वरन परिस्थितियों के अनुकूल होने के कारण प्राप्त होते हैं

(4) आर्थिक लाभ या शुद्ध लाभ (Economic Profit or Net Profit) : व्यवसाय को जोखिम उठाने, उत्पत्ति के साधनों को एकत्र करने व उनके कुशल समन्वय और नवप्रवर्तन के प्रतिफलस्वरूप साहसी को मिलने वाला पुरस्कार शुद्ध लाभ या आर्थिक लाभ कहलाता है।

सामान्य लाभ और अतिरिक्त लाभ (Normal Profit and Abnormal Profit)

सामान्य लाभ (Normal Profit) : प्रत्येक साहसी लाभ की आकांक्षा से ही उत्पादन कार्य करता है। अतः प्रत्येक साहसी को कम से कम इतना लाभ अवश्य प्राप्त होना चाहिये जिससे उत्पादन कार्य में उसकी रुचि बनी रहे। लाभ की इस मात्रा को अर्थशास्त्र में सामान्य लाभ कहा जाता है। डा० मार्शल के अनुसार, “सामान्य लाभ औसत व्यापार योग्यता और शक्ति की पूर्ति कीमत है।” यह लाभों की वह उचित व सामान्य दर होती है जिसका, समुचित व्यापार योग्यता के व्यक्तियों को एक उद्योग में आकर्षिक करने के लिये प्राप्त होना आवश्यक है। यह लागत का अंग होता है। यह सम्भव है कि अल्पकाल में किसी साहसी को सामान्य लाभ प्राप्त न हो अर्थात् उसे हानि हो किन्तु दीर्घकाल में प्रत्येक साहसी को यह लाभ प्राप्त होना चाहिये, अन्यथा वह उस व्यवसाय को छोड़ देगा। स्टोनियर एवं हेग के अनुसार, “सामान्य लाभ वे होते हैं जो कि एक साहसी को उद्योग में टिके रहने की प्रेरणा देने को ठीक पर्याप्त ही होते

जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है कि दीर्घकाल में उद्योग के समस्त साहसियों को केवल सामान्य लाभ ही प्राप्त होता है। ऐसा होने के कारण ही उद्योग मे नयी फर्मों के प्रवेश या पुरानी फर्मों के बर्हिगमन की प्रवृत्ति नहीं पायी जाती है। श्रीमती जॉन राबिन्सन ने अपनी सामान्य लाभ की परिभाषा में इसी बात पर जोर दिया है। उनके शब्दों में, “सामान्य लाभ, लाभ का वह स्तर है जिस पर व्यवसाय में नयी फर्मों के प्रवेश करने की या पुरानी फर्मों को उद्योग से निकल जाने की कोई प्रवृत्ति नहीं होती।” ध्यान रहे कि उद्योग के पूर्ण साम्य की स्थिति में फर्मों को केवल सामान्य लाभ ही प्राप्त होता है।

असामान्य लाभ या अतिरिक्त लाभ (Abnormal or Surplus Profit) : प्रो० हेन्सन के शब्दों में, “सामान्य लाभ के अतिरिक्त जो लाभ प्राप्त होता है उसे असामान्य लाभ कहते हैं।” लगान की तरह यह एक अतिरेक (Surplus) होता है जो कि सीमान्त साहसी के उत्पादन व्यय के ऊपर होता है। अतः सीमान्त साहसी को असामान्य लाभ नहीं प्राप्त होता। इसके बिना भी फमें उद्योग में बनी रहती हैं किन्तु नयी फर्मे इसी लाभ से आकर्षित होकर ही उद्योग में प्रवेश करती हैं।

प्रो नाइट ने सामान्य और असामान्य लाभों का विवेचन एक दूसरे दृष्टिकोण से किया अनुसार जोखिम दो प्रकार की होती हैं – (1) ज्ञात जोखिम और (2) अज्ञात गत जोखिम वह है जिसका पहले से ही अनुमान लगाया जा सकता है, अतः इसका बीमा समय है। इसके विपरीत अज्ञात जोखिम वह है जिसका पहले से अनुमान नहीं लगाया शा सकता, अतः इसका बीमा सम्भव नहीं है। प्रो० नाइट के अनुसार ज्ञात जोखिम उठाने का उकार सामान्य लाभ होता है तथा अज्ञात जोखिम का पुरस्कार असामान्य लाभ होता है।

Business Economics Profit

सामान्य और असामान्य लाभ में अन्तर

(Difference between Normal Profit and Surplus Profit)

(1) सामान्य लाभ ज्ञात जोखिम उठाने का पुरस्कार है जबकि असामान्य लाभ अज्ञात जोखिम उठाने का पुरस्कार है।

(2) सामान्य लाभ उत्पादन लागत में सम्मिलित होता है जबकि असामान्य लाभ उत्पादन MINS म साम्मालत नहीं होता। सामान्य लाभ सामान्य-स्तर का होता है, जबकि असामान्य लाभ एक अतिरेक होता है।

(3) सामान्य लाभ सभी साहसियों को प्राप्त होता है जबकि असामान्य लाभ अधि-सीमान्त सालासया का प्राप्त होता है। दूसरे शब्दों में, सीमान्त साहसी को सामान्य लाभ तो प्राप्त होता है किन्तु असामान्य लाभ नहीं प्राप्त होता।

(4) सामान्य लाभ सदैव ही धनात्मक होता है जबकि असामान्य लाभ ऋणात्मक भी हो सकता है। हानि को ऋणात्मक लाभ कहा जाता है।

Business Economics Profit

सामान्य लाभ और उत्पादन लागत

(Normal Profit and Cost of Production)

सामान्य लाभ उत्पादन लागत का अंग होता है। प्रो० मार्शल का विचार है कि किसी वस्तु का दीर्घकालीन मूल्य उस उद्योग की प्रतिनिधि फर्म की उत्पादन लागत के बराबर होता है और उस उत्पादन लागत में सामान्य लाभ भी सम्मिलित होता है। इसका कारण यह है कि उत्पत्ति के अन्य साधनों की तरह साहसी (अर्थात् साहसी की योग्यता) एक सीमित या दुर्लभ साधन है और इसका भी एक न्यूनतम पूर्ति मूल्य होता है जिसके प्राप्त होने पर ही कोई साहसी उद्योग में बना रहेगा। साहसी का न्यूनतम पूर्ति मूल्य ही सामान्य लाभ है। दूसरे शब्दों में, सामान्य लाभ ही ‘हस्तान्तरण आय’ या ‘अवसर लागत’ होती है। अतः वह लागत का अंग होता है। यह एक आवश्यक भुगतान होता है जो कि उत्पत्ति के अन्य साधनों की भाँति साहसी को समन्वय और जोखिम के प्रतिफल में मिलता है।

Business Economics Profit

लेखा लाभ और आर्थिक लाभ में अन्तर

(Difference between Accounting Profit and Economic Profit)

वित्तीय लेखा-विधि और अर्थशास्त्र में लाभ शब्द के आशय के सम्बन्ध में पर्याप्त अन्तर है। यह कुछ धारणा सम्बन्धी अन्तरों (Conceptual differences) और अधिक विशिष्ट रूप से दोनों लाभ के प्रयोग के उद्देश्यों में भिन्नता के कारण है। लेखा-विधि के अन्तर्गत किसी व्यवसाय के किसी निश्चित अवधि के कुल आगमो (Total Revenues) का उस अवधि के कल व्यक्त या वास्तविक व्ययों (Total Explicit or Actual Expenses) पर आधिक्य लाभ या शुद्ध लाभ कहलाता है। कुल व्यक्त लागतों का आशय उत्पत्ति के अन्य सभी साधनों के परस्कार तथा सम्पत्तियों पर हास व बीमा व्यय के योग से होता है। लाभ की इस विचारधारा को अवशेष की विचारधारा’ (Residual Concept) कहते हैं। किन्तु अर्थशास्त्र में इस प्रकार ज्ञात किये गये लाभ के लिये ‘सकल लाभ’ (Gross Profit) शब्द का प्रयोग किया जाता है। वस्तुतः अर्थशास्त्र में लाभ का आशय साहसी को प्राप्त उस परका की विशद्ध जोखिम व अनिश्चितता सहने और नव-प्रवर्तन के लिये प्राप्त होता है। यह आर्थिक जगत के प्रावैगिक परिवर्तनों या बाजार ढाँचे की अपूर्णता के कारण उत्पन्न होता है। एक अर्थशास्त्री की दृष्टि से लेखा-विधि के अन्तर्गत संगणित लाभ (अर्थात् लेखा-लाभ या सकल लाभ) में साहसी द्वारा स्वयं लगाये गये उत्पादन के साधनों का पुरस्कार (जैसे स्व-स्वामित्व भवन का किराया, स्वामी की पूँजी पर ब्याज, स्वामी की सेवाओं की अवसर लागत आदि) तथा एकाधिकारात्मक व अवसर लाभ जैसे अव्यक्त (Implicit) लाभ सम्मिलित रहते हैं। अतः आर्थिक लाभ की गणना के लिये लेखा लाभ (या सकल लाभ) में से अव्यक्त लाभों को भी पृथक करना होता है। सूत्र रूप में –

लेखा लाभ या सकल लाभ = कुल आगम – कुल व्यक्त लागते

आर्थिक लाभ = लेखा लाभ अथवा सकल लाभ – कूल अव्यक्त लागतें

लेखापालों और अर्थशास्त्रियों के लाभ के सम्बन्ध में उपर्युक्त दृष्टिकोण के आधार पर लेखा लाभ और आर्थिक लाभ में निम्न अन्तर किये जाते हैं –

(1) घटायी जाने वाली लागतें (Costs to be deducted) : लेखा लाभ और आर्थिक लाभ की गणना के लिये कुल आगमों से घटायी जाने वाली लागतों के सम्बन्ध में पर्याप्त अन्तर है। लेखा लाभ की गणना के लिये कुल आगम से केवल व्यक्त लागतों को ही घटाया जाता है जबकि आर्थिक लाभ की गणना के लिये कुल आगम से कुल व्यक्त और अव्यक्त दोनों लागतों को घटाया जाता है।

(2) सामान्य लाभ (Normal Profit) : अर्थशास्त्र में सामान्य लाभ को लागत का भाग या जाता है तथा इसे सामान्य स्तर से अधिक प्राप्त अतिरेक का लाभ कहा जाता है किन्तु रखा-विधि के अन्तर्गत सामान्य लाभ और इस स्तर से अधिक लाभ के बीच कोई अन्तर नहीं

(3) ह्रास प्रभार (Depreciation Charge) : लेखा लाभ की गणना में वार्षिक हास निरिण सम्पत्ति की मूल लागत के आधार पर किया जाता है जबकि आर्थिक लाभ लाभ की गणना में वार्षिक हास प्रभार के निर्धारण का आधार सम्पत्ति की प्रतिस्थापन लागत होता। है। एक अर्थशास्त्री सम्पत्ति के निस्तारण मूल्य में आयी कमी को ह्रास मानता है।

(4) अमौद्रिक लाभ (Non-monetary Profits) : लेखा लाभ की गणना में ऐसे किसी लाभ को नहीं सम्मिलित किया जाता है जिसका मौद्रिक माप सम्भव न हो। दूसरी ओर आर्थिक लाभ वास्तविक लाभ होता है तथा इसकी गणना में मौद्रिक व अमौद्रिक सभी प्रकार के लाभ सम्मिलित किये जाते हैं।

(5) लाभ मान्यता (Profit Recognition) : आर्थिक लाभ निर्माण प्रक्रिया के परा हो जाने पर ही स्वीकार कर लिये जाते हैं। किन्तु लेखा लाभ तब स्वीकार किये जाते हैं जबकि माल बिक जाये।

(6) मूल्य स्तर के परिवर्तन (Price Level Changes) : लेखा लाभ की गणना मुद्रा की स्थिर इकाई की मान्यता (Stable Monetary Unit Assumption) के आधार पर की जाती है तथा इसे मौद्रिक शब्दों (Monetary terms) में व्यक्त किया जाता है। इस गणना में मुद्रा मूल्य के परिवर्तनों पर ध्यान नहीं दिया जाता है किन्तु आर्थिक लाभ की गणना में मुद्रा मूल्य के परिवर्तनों के लिये आवश्यक संमायोजन किये जाते हैं तथा वास्तविक लाभ (Real Profit) का अंक ज्ञात किया जाता है। वस्तुतः एक अर्थशास्त्री के लिये लाभ का आशय व्यवसाय की वास्ततिक सम्पदा (Real Wealth) में वृद्धि से होता है। इस प्रकार लेखा लाभ की गणना ऐतिहासिक लागत के अंकों से की जाती है जबकि आर्थिक लाभ की गणना में विभिन्न लागत अंकों को उनके चालू मूल्य पर दिखलाया जाता है।

(7) लाभ की अवसर लागत अवधारणा (Opportunity Cost Concept of Profit): अर्थशास्त्र में लाभ की अवसर लागत धारणा का प्रयोग किया जाता है। इस धारणा के अनुसार किसी साधन विशेष को किसी कार्य विशेष में बनाये रखने के लिये आवश्यक न्यूनतम अर्जन से अधिक प्राप्त होने वाला पुरस्कार लाभ कहलाता है जो कि उसे कार्य में निहित जोखिम व अनिश्चितता धारण करने के प्रतिफल में प्राप्त होता है। इस धारणा के आधार पर यह कहा जा सकता है कि लाभ उत्पत्ति के सभी साधनों को प्राप्त हो सस्ता है। लाभ का यह व्यापक अर्थ लेखा-विधि में स्वीकार्य नहीं है। लेखा-विधि के अन्तर्गत केवल साहसी को प्राप्त पुरस्कार ही लाभ माना जाता है।

महत्व (Importance) : प्रबन्धकीय दृष्टिकोण से आर्थिक लाभ की गणना अधिक महत्वपूर्ण होती है क्योंकि यही व्यवसाय की लाभप्रदता का सही एवं सच्चा माप होता है। हो सकता है कि एक फर्म लेखा-लाभों पर बड़ी कुशल प्रतीत हो किन्तु वास्तव में फर्म में हानि हो रही है। दीर्घकाल में ऐसी फर्म को अपना कारोबार बंद करना पड़ेगा। वस्तुतः किसी फर्म की वास्तविक कुशलता उसके आर्थिक लाभों से ही मापी जानी चाहिये।

Business Economics Profit

लाभ के सिद्धान्त

(Theories of Profit)

(1) लाभ का लगान सिद्धान्त (Rent Theory of Profit) : इस सिद्धान्त का प्रतिपादन प्रो० वाकर ने किया था। इस सिद्धान्त के अनुसार, “लाभ योग्यता का लगान है।” यह सिद्धान्त रिकार्डों के लगान सिद्धान्त की भाँति ही है। जिस प्रकार श्रेष्ठ और सीमान्त भूमिया होती हैं, उसी प्रकार श्रेष्ठ और सीमान्त साहसी होते हैं। सीमान्त साहसी का आशय एस साहसी से है जो कि अपनी वस्तु बेचकर केवल वस्तु की लागत ही प्राप्त कर पाता है,

उसे कुछ भी लाभ नहीं प्राप्त होता है। श्रेष्ठ साहसी कम लागत पर वस्तु उत्पादित करते हैं। तथा कीमत और लागत के अन्तर के कारण बचत या लाभ प्राप्त करते हैं। इस लाभ की मात्रा साहसियों की योग्यता पर निर्भर करती है। इसीलिये वाकर ने लाभ को योग्यता का लगान कहा है। इस प्रकार इस सिद्धान्त के अनुसार लगान लाभ की भाँति, एक भेदात्मक बचत है जो कि श्रेष्ठ साहसियों को सीमान्त साहसी पर प्राप्त होता है। एक बचत होने के कारण ही लाभ लगान की भाँति मूल्य का निर्धारण नहीं करता वरन् स्वयं मूल्य से निर्धारित होता है।

आलोचनायें : (i) यह सिद्धान्त “रिकार्डो के लगान सिद्धान्त पर आधारित” है जो स्वयं ठीक नहीं है।

(ii) सीमान्त साहसी की धारणा काल्पनिक है।

(iii) यह सिद्धान्त “जोखिम तथा अनिश्चितता” के तत्वों की उपेक्षा करता है जो कि ठीक नहीं है। मार्शल के अनुसार लाभ योग्यता का पुरस्कार न होकर जोखिम उठाने का प्रतिफल है। योग्य-अयोग्य प्रत्येक प्रकार के साहसी को जोखिम उठानी होती है।

(iv) यह सिद्धान्त “लाभ के कारणों पर उचित प्रकाश नहीं डालता।”

(v) इस सिद्धान्त की “यह धारणा ठीक नहीं है कि लाभ कीमत को प्रभावित नहीं करता”। वास्तव में सामान्य लाभ लागत का अंग होता है और वह कीमत को प्रभावित करता है।

(vi) लाभ और लगान को एकसा मानना ठीक नहीं है क्योंकि लगान एक निश्चित, प्रत्याशित एवं स्थिर आय है किन्तु लाभ एक अनिश्चित, अप्रत्याशित और परिवर्तनशील आय है। दूसरे, लगान सदैव धनात्मक होता है जबकि लाभ ऋणात्मक भी हो सकता है। तीसरे, लाभ प्रावैगिक अर्थव्यवस्था में ही उत्पन्न होता है जबकि लगान स्थिर और प्रावैगिक दोनों ही अर्थव्यवस्थाओं में पाया जाता है।

(2) लाभ का मजदूरी सिद्धान्त (Wage Theory of Profit) : इस सिद्धान्त के समर्थकों में टॉजिक तथा डेवनपोर्ट प्रमुख हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार लाभ मजदूरी का ही एक रूप है। टॉजिक के शब्दों में, “लाभ केवल संयोगवश प्राप्त नहीं होते, इनके लिये एक विशिष्ट ज्ञान की आवश्यकता है, यह श्रम उसी प्रकार का होता है, जैसा कि वकील या निर्णायकों का श्रम।” लाभ तथा निरंतर सफलता के लिये व्यवसायी में कुछ विशेष गुण, जैसे संगठन एवं प्रबन्ध की कुशलता, दूरदर्शिता, निर्णय लेने की क्षमता आदि अनिवार्य होते हैं। इन गुणों का उपयोग मानसिक श्रम ही तो है। अतः दोनों वर्गों के श्रम के प्रतिफल के निर्धारण के लिये मजदूरी का सिद्धान्त समान रूप से लागू होता है।

आलोचनायें : यद्यपि यह सिद्धान्त लाभ के स्वभाव तथा औचित्य पर प्रकाश डालता है। परन्तु यह सिद्धान्त लाभ तथा मजदूरी के वास्तविक अन्तर को भुला देता है। जैसे लाभों में अनियमितता तथा जोखिम की सम्भावना मजदूरी की अपेक्षा कहीं अधिक होती है। लाभ में संयोग का तत्व अधिक होता है जबकि मजदूरी में वास्तविक प्रयत्नों का भाग अधिक होता है। इसी तरह अपूर्ण प्रतियोगिता में लाभ बढ़ता है किन्तु मजूदरी घटती है।

(3) लाभ का सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त (Marginal Productvity Theory of D : मार्शल द्वारा प्रतिपादित इस सिद्धान्त के अनुसार लाभ साहसी की सीमान्त द्वारा निर्धारित होता है। उत्पत्ति के अन्य साधनों की भाँति साहस की भी एक सीमान्त उत्पादकता होती है तथा लाभ इसी सीमान्त उत्पादकता के बराबर होता है। अतः साहस की सीमान्त उत्पादकता जितनी अधिक होगी, लाभ उतना ही अधिक होगा।

आलोचनायें : यद्यपि यह सिद्धान्त देखने में सरल है किन्तु इसमें बहुत से लोक साहसी की सीमान्त उत्पादकता का माप सरल नहीं है। दूसरा, यह एकाधिकार अप्रत्याशित लाभों की व्याख्या नहीं करता। अन्तिम, यह सिद्धान्त एकपक्षीप है क्योंकि इसमें साहस की माँग पर ही ध्यान दिया जाता है, पूर्ति पर नहीं।

(4) लाभ का समाजवादी सिद्धान्त (The Socialist Theory of Profit): कार्ल मार्क्स द्वारा प्रतिपादित इस सिद्धान्त के अनुसार किसी वस्तु का मूल्य उसमें लगाये गये श्रम द्वारा निर्धारित होता है। चूंकि सारी उत्पत्ति श्रम के द्वारा होती है, अतः वह सारी की सारी श्रमिकों को मिलनी चाहिये। जहाँ तक पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का प्रश्न है, इसमें कुल उत्पादन का श्रमिक को तो केवल एक निश्चित भाग ही प्राप्त होता है, उसका अधिकांश भाग (जिसे कार्ल मार्क्स ने अतिरिक्त मूल्य कहा) को पूँजीपति ही हड़प कर जाते हैं। अतः इस सिद्धान्त के अनुसार लाभ श्रमिकों के शोषण का पुरस्कार है। मार्क्स ने इसे ‘कानूनी डकैती’ की संज्ञा दी। इसीलिये उन्होंने लाभ को समाप्त करने का सुझाव दिया।

आलोचनायें : (i) लाभ श्रमिकों के शोषण का परिणाम न होकर साहसी द्वारा जोखिम और अनिश्चितता उठाने तथा व्यवसाय में योग्यता के प्रयोग का पुरस्कार होता है।

(ii) वस्तु के मूल्य का एकमात्र कारण श्रम ही नहीं होता। उत्पादन में अन्य साधनों का भी महत्वपूर्ण योगदान होता है।

(iii) समाजवादी देश भी लाभ को पूर्णतया समाप्त नहीं कर सके हैं। वहाँ पर सरकार लाभ प्राप्त करती है।

Business Economics Profit

(5) लाभ का जोखिम सिद्धान्त (The Risk Theory of Profit) : हॉले द्वारा प्रतिपादित तथा मार्शल द्वारा समर्थित इस सिद्धान्त के अनुसार लाभ जोखिम उठाने का पुरस्कार है। जोखिम उठाने का आशय सभी प्रसंविदागत भुगतानों (Contractual Outlays) के पश्चात बची राशि को लेने के लिये सहमत होना है। यह एक अरुचिकर और जोखिमपूर्ण कार्य होता है क्योंकि सभी प्रसंविदागत भुगतानों के पश्चात बची राशि कम अथवा ऋणात्मक भी हो सकती है। अतः व्यवसाय में इस अरुचिकर कार्य के लिये साहसी पुरस्कारस्वरूप लाभ प्राप्ति की आशा से ही सहमत होता है। आधुनिक युग में एक साहसी व्यवसाय में अपनी पूँजी विनियोजित करता है तथा भविष्य की माँग के पूर्वानुमान के आधार पर अपनी वस्तु का उत्पादन करता है। यदि माँग, लागत, कीमत आदि के उसके पूर्वानुमान सही निकलते हैं तो उसे लाभ होता है, अन्यथा हानि। कोई भी व्यक्ति इस जोखिम को उठाने के लिये तब तक तैयार नहीं होगा जब तक कि उसे इसके लिये कुछ पुरस्कार प्राप्ति की आशा न हो। अतः जोखिम उठाना साहसी का एक विशिष्ट कार्य है तथा लाभ जोखिम उठाने का पुरस्कार है। चूंकि वाभन्न व्यवसायों में निहित जोखिम की मात्रा में अन्तर होता है, इसलिये उनमें साहसियों के मात्रा में भी अन्तर पाया जाता है। जिन व्यवसायों में अधिक जोखिम होता है, उनमें लाभ के अवसर अधिक होंगे तथा जिनमें जोखिम कम होता है, उनमें कम लाभ प्राप्त होता है।

आलोचनायें : (i) कारवर के अनुसार लाभ जोखिम उठाने का पुरस्कार नहीं होता वरन् यह जोखिम कम करने का पुरस्कार है।

(ii) प्रो० नाइट के अनुसार लाभ सभी प्रकार की जोखिम का पुरस्कार न होकर केवल अज्ञात जोखिम उठाने का ही पुरस्कार होता है।

(iii) जोखिम को लाभ का एकमात्र कारण मानना उचित नहीं। नवप्रवर्तन, साहसी की प्रबन्ध-योग्यता, एकाधिकारी स्थिति आदि भी लाभ को उत्पन्न करते हैं।

(6) लाभ का अनिश्चितता सहन सिद्धान्त (The Uncertainty Bearing Theory of Profit): प्रो० नाइट ने जोखिम सिद्धान्त से अलग अनिश्चितता सिद्धान्त प्रतिपादित करते हुए लिखा है कि लाभ ‘बीमा अयोग्य जोखिमों’ अर्थात् ‘अनिश्चितताओं’ को उठाने का पुरस्कार है तथा लाभ की मात्रा अनिश्चितता उठाने की मात्रा पर निर्भर करती है। उनके अनुसार सभी प्रकार की जोखिमें अनिश्चितता उत्पन्न नहीं करतीं। इस बात को स्पष्ट करने के लिये उन्होंने जोखिमों को दो भागों में बाँटा है –

(i) बीमायोग्य जोखिम या ज्ञात जोखिम : इस प्रकार की जोखिमों का पूर्वानुमान लगाया जा सकता है। इसीलिये ये अनिश्चितता उत्पन्न नहीं करतीं। इन जोखिमों के विरुद्ध बीमा कराकर भी अनिश्चितता को समाप्त किया जा सकता है। अतः इस प्रकार की जोखिम लाभ उत्पन्न नहीं करती हैं।

(ii) बीमाअयोग्य जोखिम या अज्ञात जोखिम : अर्थात् वे जोखिम जिनका पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता और जिनके विरुद्ध बीमा भी नहीं किया जा सकता। जैसे फैशन और रुचि में परिवर्तन, व्यापार चक्र, सरकारी नीति में परिवर्तन, नये आविष्कार आदि अप्रत्याशित एवं अनिश्चित घटनायें हैं। ये जोखिमें ही अनिश्चितताओं को जन्म देती हैं जिनके सहन करने के पुरस्कार स्वरूप साहसी को लाभ प्राप्त होता है। जो साहसी इन अनिश्चितताओं का सही पूर्वानुमान लगा लेते हैं, वे अधिक लाभ कमाते हैं तथा जिनके अनुमान सही नहीं होते, वे कम लाभ या हानि उठाते हैं।

आलोचनायें : (i) केवल अनिश्चितता उठाना ही साहसी का एकमात्र कार्य नहीं। उसके अन्य महत्वपूर्ण कार्य भी हैं।

(ii) लाभ केवल अनिश्चितताओं के कारण ही नहीं उत्पन्न होते वरन् प्रतियोगिता की अपूर्णताएँ भी लाभ उत्पन्न करती हैं।

(iii) अनिश्चितता को उत्पत्ति का एक स्वतन्त्र साधन नहीं माना जा सकता।

(iv) चूँकि अनिश्चितता का माप सम्भव नहीं, अतः इस सिद्धान्त के अनुसार लाभ की मात्रा का सही माप नहीं किया जा सकता।

Business Economics Profit

(7) लाभ का प्रावैगिक सिद्धान्त (Dynamic Theory of Profit) : प्रो० जे० बी० क्लार्क द्वारा प्रतिपादित इस सिद्धान्त के अनुसार लाभ परिवर्तनों का परिणाम है और वह केवल प्रावैगिक अर्थव्यवस्था में ही प्राप्त होता है, स्थिर अर्थव्यवस्था में नहीं। प्रावैगिक अर्थव्यवस्था वह है जहाँ जनसंख्या, पूँजी की मात्रा, उपभोक्ताओं की रुचियों, इच्छाओं आदि में परिवर्तन के साथ-साथ उत्पादन की रीतियों तथा औद्योगिक इकाइयों के रूपों में निरन्तर परिवर्तन होते रहते है। इन परिवर्तनों के परिणामस्वरूप केवल कुशल साहसी ही प्रतियोगिता में जीवित रह पाते हैं। अकशल साहसी या तो हट जाते हैं या अपेक्षाकृत बहुत कम लाभ कमाते हैं। स्पष्ट है कि यवस्था के आधारभूत परिवर्तन ही मूल्य और लागत में अन्तर उत्पन्न करते हैं। एक साहसी अपनी चतुराई और कुशलता के द्वारा उत्पादन प्रणाली में परिवर्तन करके लाभ के स्थिर अर्थव्यवस्था में लाभों का होना सम्भव नहीं होता क्योंकि परिवर्तनों की पूर्ण अनुपस्थिति में आर्थिक भविष्य स्पष्टतया दिखायी देने लगता है और इसलिये अनिश्चितता न होने के कारण कोई लाभ प्राप्त नहीं होता।

आलोचनायें : (i) प्रो० नाइट के अनुसार प्रावैगिक अर्थव्यवस्था के सभी परिवर्तन लाभ का सजन नहीं करते। लाभ केवल अनिश्चित प्रावैगिक परिवर्तनों के परिणामस्वरूप होते हैं. निश्चित या ज्ञात परिवर्तनों के परिणामस्वरूप नहीं।

(ii) प्रो० टॉजिग के अनुसार इस सिद्धान्त ने ‘लाभ’ एवं ‘प्रबन्ध-मजदूरी’ के बीच एक कृत्रिम एवं अनावश्यक भेद उत्पन्न कर दिया है।

(iii) लाभ का प्रादुर्भाव केवल गतिशील परिवर्तनों के कारण नहीं होता बल्कि यह साहसी के साहस और उसकी संगठन शक्ति का भी परिणाम होता है।

(iv) गतिहीन अर्थव्यवस्था में भी लाभ प्रकट हो सकते हैं। यदि पूर्ण प्रतियोगिता नहीं है तो लाभ अवश्य प्रकट होंगे।

(v) प्रो० क्लार्क का लाभ का जोखिम से सम्बन्ध तोड़ना ठीक नहीं।

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(8) लाभ का नवप्रवर्तन सिद्धांत (Innovation Theory of Profit) : शुम्पीटर द्वारा प्रतिपादित लाभ का यह सिद्धान्त क्लार्क के प्रावैगिक सिद्धांत से अधिक व्यापक है। उनके शब्दों में, “लाभ साहसी के कार्य का प्रतिफल है अथवा वह जोखिम, अनिश्चितता तथा नवप्रवर्तन के लिये किया जाने वाला भुगतान है। इस सिद्धान्त के अनुसार लाभ प्रावैगिक दशा में उत्पन्न होता है परन्तु लाभ का कारण नवप्रवर्तन होता है। एक साहसी नवप्रवर्तन लाकर ही लाभ कमाता है। नवप्रवर्तन का आशय उत्पादन विधियों या उपभोक्ता रुचियों में किसी उद्देश्यपूर्ण परिवर्तन से होता है जो कि राष्ट्रीय उत्पादन को इसकी लागतों में वृद्धि से अधिक बढ़ाता है। पुरानी मशीनों के स्थान पर नवीन मशीनों व तकनीकों का प्रयोग करना, कच्चे माल के उपयोग में मितव्ययिता लाना, वस्तु विक्रय के नये-नये बाजार खोजना, विक्रय और वितरण के तरीकों में सुधार लाना, वस्तु के रूप, रंग व डिजाइन में ग्राहकों की रुचि के अनुसार परिवर्तन करना, नये उत्पाद का विकास आदि से नव-प्रवर्तक का नई वस्तु पर एकाधिकार रहता है जिससे वह अधिक मूल्य वसूल करने में सफलता प्राप्त करता है। अतः नव-प्रवर्तन द्वारा व्यवसायी मूल्य और लागत का अन्तर करके लाभ प्राप्त करता है।

शुम्पीटर के अनुसार लाभ नव-प्रवर्तन का कारण और परिणाम दोनों ही है। नव-प्रवर्तन के कारण कीमत और लागत में अन्तर आता है और लाभ उत्पन्न होते हैं। दूसरी ओर लाभ से प्रभावित होकर ही साहसी नव-प्रवर्तन को प्रयोग में लाता है। इस प्रकार लाभ और नव-प्रवर्तन एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। व्यवसाय में नव-प्रवर्तन एक सतत् प्रक्रिया है। क्योंकि एक व्यवसायी जब कोई नव-प्रवर्तन को क्रियाशील करता है तो थोड़े दिन में ही अन्य व्यवसायी उसकी नकल कर लेते हैं और इस प्रकार कुछ समय बाद उसके नव-प्रवर्तन में कोई नवीनता नहीं रह जाती है जिससे उसके नव-प्रवर्तन सम्बन्धी लाभ समाप्त हो जाते हैं। इसीलिये यह कहा जाता है कि लाभ नवप्रवर्तन द्वारा उत्पन्न होते हैं तथा अनुसरण द्वारा लुप्त हो जात है। इस प्रकार नव-प्रवर्तन के लाभ केवल अल्पकालिक होते हैं। एक सफल साहसी नव-प्रवतन प्रक्रिया का सतत् बनाये रखकर ही अधिक लाभ कमा पाता है। इस प्रकार गतिशील आर अर्थव्यवस्था में नवप्रवर्तन के परिणामस्वरूप लाभ सदैव बने रहते हैं क्योंकि व्यवसाय म नव-प्रवर्तन की प्रक्रिया सदैव चलती ही रहती है। जो साहसी इस प्रक्रिया में लगे रहते हैं ।

उन्हें अधिक लाभ होता है क्योंकि जनता नई और अच्छी वस्तु से आकर्षित होकर ऐसे व्यवसायी के उत्पादों के लिये अधिक मूल्य देने के लिये तैयार हो जाती है। यद्यपि यह सिद्धान्त लाभ-निर्धारण में जोखिम तथा अनिश्चितता की उपेक्षा करता है, फिर भी नव-प्रवर्तन जोखिम उठाने का ही एक विशिष्ट रूप है। यह सिद्धान्त लाभ के अन्य सिद्धान्तों से अधिक व्यापक और पूर्ण है।

इस सिद्धान्त की आलोचनाएँ वही हैं जो कि क्लार्क के सिद्धान्त की हैं। मुख्य बात यह है। कि इस सिद्धान्त में जोखिम और अनिश्चितता की उपेक्षा की गई है। इसके अतिरिक्त इस सिद्धान्त में साहसी के कार्यक्षेत्र को संकीर्ण कर दिया है। वस्तुतः साहसी केवल नव-प्रवर्तन द्वारा ही लाभ नहीं अर्जित करता वरन् वह अनेक प्रकार की व्यवस्था भी करता है। शुम्पीटर ने साहसी के अन्य कार्यों व लाभ के अन्य कारणों की उपेक्षा की है।

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बाजार की अपूर्णता का परिणाम (Consequence of Market Imperfection) : कुछ अर्थशास्त्री लाभ को अर्थव्यवस्था के प्रावैगिक परिवर्तनों से प्रतियोगात्मक समायोजन में अपूर्णता का परिणाम मानते हैं। उनके अनुसार लाभ बाजार की अपूर्णता का परिणाम है। दूसरे शब्दों में, पूर्ण प्रतियोगिता में लाभ का लोप हो जाता है। वास्तव में पूर्ण प्रतियोगिता की दशा में एक व्यवसायी को केवल सामान्य लाभ ही प्राप्त होता है जो कि उसकी उत्पादन लागत में सम्मिलित रहता है। इस सिद्धान्त के अनुसार लाभ तभी उत्पन्न होते हैं जबकि बाजार में अपूर्णता हो तथा बाजार में जितनी अधिक अपूर्णता होगी, व्यवसायी उतने ही अधिक लाभ अर्जित कर सकेगा। अपूर्ण प्रतियोगिता और एकाधिकार की स्थितियों में साहसी न केवल अल्पकाल में बल्कि दीर्घकाल में भी लाभ कमाता है। इन स्थितियों में व्यवसायी वस्तु की पूर्ति को नियन्त्रित करके तथा क्रेताओं की अपूर्ण जानकारी का लाभ उठाकर अपनी वस्तु को उसकी औसत लागत से अधिक पर बेचने में सफल हो जाता है तथा वह लाभ कमाता है। इसके अतिरिक्त इस स्थिति में साहसी उत्पत्ति के अन्य साधनों को उनकी औसत व सीमान्त उत्पादकता से कम पुरस्कार देने में सफल हो जाता है। इन सभी कारणों से वह लाभ अर्जित करने में सफल होता है। इस प्रकार लाभ का कारण बाजार की अपूर्णता व एकाधिकारी शक्ति होते हैं।

लाभ के उपरोक्त सिद्धान्तों में से किसी एक को पूर्णतया सही नहीं कहा जा सकता। कोई भी सिद्धान्त अपने में पूर्ण नहीं है। ये सब सिद्धान्त एक-दूसरे के पूरक हैं क्योंकि जोखिम, अनिश्चितता, नव-प्रवर्तन, बाजार की अपूर्णता व एकाधिकार सभी तत्व व्यवसायी के लाभ को प्रभावित करते हैं। प्रो० हेनरी ग्रेसेन का भी यही मत है। उनके विचार में निम्नलिखित में से एक दशा या इनका कोई भी मिश्रण आर्थिक लाभ को उत्पन्न कर सकता है – (1) जोखिम तथा अनिश्चितता को स्वीकार करने का पुरस्कार, (2 ) नव-प्रवर्तन का पुरस्कार, (3) बाजार ढाँचे की अपूर्णता।

(9) लाभ का माँग और पूर्ति का सिद्धान्त (The Demand and Supply Theory profitn: लाभ निर्धारण का आधुनिक सिद्धान्त यही है। इस सिद्धान्त के अनुसार उत्पत्ति के  अन्य साधनों की भाँति साहसी का मूल्य (अर्थात् लाभ) भी उसकी माँग एवं पूर्ति द्वारा निर्धारित होता है।

साहसी की माँग (Demand of Entrepreneurship) : साहसियों की माँग (1) औद्योगिक विकास का स्तर (3) विनियोग की सम्भावनायें (4) साहसी मागास उत्पादकता आदि पर निभर करती है। किन्तु फर्मों द्वारा साहसी की माँग की सीमान्त आगम उत्पादकत उत्पादन का पैमाना (2) औद्योगिक विकास का स्तर मुख्य रूप से उसकी सीमान्त आगम उत्पादकता पर ही निर्भर करती है। साहसी की सीमान्त आगम उत्पादकता जितनी अधिक होगी, उसकी माँग भी उतनी ही अधिक होगी। उत्पत्ति के अन्य साधनों की भाँत्ति एक फर्म के लिये साहसी की सीमान्त आगम उत्पादकता नहीं ज्ञात की जा सकती है क्योंकि एक फर्म में केवल एक ही साहसी होता है। उसकी संख्या में न तो वृद्धि ही की जा सकती है और न कमी। इस कठिनाई को दूर करने के लिये साहसी की सीमान्त उत्पादकता को एक उद्योग के संदर्भ में देखा जाता है। ऐसा करते समय हम यह मानकर चलते हैं कि उद्योग-विशेष में कार्यरत सभी साहसी समान रूप से कार्यकुशल हैं।

एक उद्योग में साहसियों की संख्या फर्मों की संख्या पर निर्भर करती है। एक उद्योग में जितनी फर्मे होंगी, उतने ही साहसी होंगे। अतः एक उद्योग में साहसियों की संख्या में परिवर्तन करके उनकी सीमान्त आगम उत्पादकता को ज्ञात किया जा सकता है। उत्पत्ति के परिवर्तनशील अनुपातों के नियम की क्रियाशीलता के कारण साहसियों की सीमान्त आगम उत्पादकता निश्चित रूप से घटती हुई होती है। इसीलिये एक उद्योग में साहसियों का सीमान्त आगम उत्पादकता वक्र (Marginal Revenue Productivity Curve or MRP Curve) बायें से दायें नीचे गिरता हुआ अर्थात् ऋणात्मक ढाल वाला होता है। नीचे चित्र 5.1 में देखिये। इसका कारण यह है कि किसी उद्योग में साहसियों की संख्या बढ़ते जाने से प्रति साहसी लाभ स्तर कम होता जाता है। सभी उद्योगों से सम्बन्धित साहसियों के सीमान्त आगम उत्पादकता वक्रों की सहायता से सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था के लिये साहसियों का माँग वक्र ज्ञात किया जा सकता है।

साहसी की पूर्ति (Supply of Entrepreneurship) : साहसियों की पूर्ति अनेक तत्वों पर निर्भर करती है, जैसे समाज की दशा, देश का औद्योगिक स्तर, जनसंख्या वृद्धि की दर, पूँजी की उपलब्धता, प्रबन्धकीय एवं तकनीकी सेविवर्ग की उपलब्धता, आय का वितरण, व्यवसाय में जोखिम आदि। किसी उद्योग में साहसी की पूर्ति मुख्यतया लाभ की दर पर निर्भर करती है। यदि लाभ दर ऊँची है तो साहसियों की पूर्ति अधिक होगी तथा लाभ दर घट जाने पर साहसियों की पूर्ति कम हो जायेगी। अतः स्पष्ट है कि लाभ-दर और साहसियों की पूर्ति में सीधा या धनात्मक सम्बन्ध पाया जाता है। इसीलिये सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था की दृष्टि से साहसी का पूर्ति वक्र बायें से दायें ऊपर की ओर चढ़ता हुआ होता है जैसा कि चित्र 5.1 में SS वक्र द्वारा दर्शाया गया है। पूर्ण प्रतियोगिता में सभी. साहसियों को समान निपुण माना जाता है, अतः उन्हें उद्योग में समान लाभ प्राप्त होते हैं।

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लाभ का निर्धारण (Determination दीर्घ काल में लाभ निर्धारण of Profit) : पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत एक उद्योग का दीर्घकालीन संतुलन उस बिन्दु पर होगा जहाँ साहसी की कुल माँग और कुल पूर्ति बराबर हों। चित्र 5.1 में DD माँग वक्र sss पूर्ति वक्र को P बिन्दु पर काटता है। इस स्थिति  लाभ रेखा में साहसियों की माँग और पूर्ति दोनों OQ के बराबर हैं तथा प्रत्येक साहसी को EQ या OP सामान्य लाभ प्राप्त होता है।

पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत अल्पकाल में साहसियों की पूर्ति अनन्त लोचदार होती है साहसियों की मांग और पूर्ति अर्थात् सामान्य लाभ दर पर उद्योग को अनन्त संख्या में साहसी उपलब्ध होंगे। अतः एक उद्योग में साहसी का अल्पकालीन पूर्ति वक्र एक क्षतिज सरल रेखा के रूप में होता है। चित्र 5.2 में साहसियों की अल्पकालीन पूर्ति रेखा SS हा चित्र में MRP माग वक्र SS पूर्ति वक्र का अल्पकाल में लाभ निर्धारण P बिन्दु पर काटता है। इस स्थिति में प्रत्येक साहसी को PQ या OS सामान्य लाभ प्राप्त होता है जो उनकी हस्तान्तरण आय का भी प्रतीक है। इस लाभ दर पर साहसियों की माँग और पूर्ति दोनों ही OQ हैं। यही उद्योग के दीर्घकालीन साम्य की अवस्था है।

यद्यपि दीर्घकाल में प्रत्येक साहसी केवल सामान्य लाभ ही प्राप्त करता है किन्तु अल्पकाल में वे असामान्य लाभ प्राप्त कर सकते हैं या हानि भी उठा सकते हैं। रेखाचित्र साहसियों की संख्या 5.2 में माना कि साहसियों की संख्या 0Q, है

तो इस स्थिति में प्रत्येक साहसी को PQ. अथवा OM लाभ प्राप्त होगा। इस स्थिति में प्रत्येक साहसी OM – OS = SM असामान्य लाभ प्राप्त करेगा। किन्तु यह स्थिति धीरे-धीरे समाप्त हो जाती है क्योंकि इस असामान्य लाभ से आकर्षित होकर दीर्घकाल में उद्योग में नये साहसी प्रवेश करेंगे और अन्त में प्रत्येक साहसी केवल सामान्य लाभ ही प्राप्त कर सकेगा। इसी तरह यदि अल्पकाल में साहसियों की संख्या बढ़कर OQ, हो जाती है तो इस मात्रा के लिये साहसी की MRP घटकर PQ, हो चुकी है, इसलिये साहसी के सामान्य लाभ में SM, के बराबर गिरावट होगी। सामान्य लाभ भी न मिलने के कारण दीर्घकाल में उद्योग की कुछ फर्मे उद्योग से बाहर हो जायेंगी और अन्त में प्रत्येक साहसी को सामान्य लाभ प्राप्त होगा। अतः स्पष्ट है कि दीर्घकाल में प्रत्येक साहसी को केवल सामान्य लाभ ही प्राप्त होता है।

अपूर्ण प्रतियोगिता या एकाधिकार की स्थितियों में साहसी अल्पकाल और दीर्घकाल दोनों में असामान्य लाभ प्राप्त कर सकता है। इसका कारण यह है कि इस स्थिति में नयी फर्मों के उद्योग में प्रवेश पर कुछ बाधाएँ होने के कारण साहसी का पूर्ति वक्र एक पड़ी-रेखा न होकर बायें से दायें ऊपर की ओर चढ़ती हुई एक रेखा होता है। इसके अतिरिक्त इन स्थितियों में साहसी एक ओर तो अपनी वस्तु का मूल्य औसत लागत से अधिक प्राप्त कर सकता है

अतिरिक्त लाभ तथा दूसरी ओर वह उत्पत्ति के अन्य साधनों को उनकी औसत या सीमान्त उत्पादकताओं से सामान्य लाभ कम पुरस्कार देकर भी असामान्य लाभ प्राप्त कर सकता है। रेखाचित्र 5.3 में साहसियों की साहसियों की माँग तथा पूर्ति पर्ति रेखा SS उनकी माँग रेखा DD को E बिन्दु पर काटती है।

अतः साम्य बिन्दु E पर प्रत्येक साहसी को OP के बराबर लाभ होगा तथा 0 साहसियों का कुल लाभ OQPE आयत के क्षेत्रफल के बराबर होगा जिसमें से OSEO सामान्य लाभ है तथा SPE अतिरिक्त लाभ होगा।

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लगान और लाभ

(Rent and Profit)

लगान और लाभ दोनों कीमत द्वारा निर्धारित अतिरेक (Surplus) भुगतान होते हैं। लगान किसी साधन की वास्तविक आय का उस साधन की स्थानान्तरण आय या अवसर लागत पर अतिरेक होता है जबकि लाभ एक व्यावसायिक फर्म की कुल आय का उत्पादन लागत पर अतिरेक होता है। वास्तव में लाभ के अन्तर्गत भी लगान तत्व विद्यमान हो सकता है। पूर्ण प्रतियोगिता में अल्पकाल में तथा अपूर्ण प्रतियोगिता और एकाधिकार में अल्पकाल तथा दीर्घकाल दोनों में साहसी असामान्य या अतिरिक्त लाभ प्राप्त कर सकता है। इस असामान्य लाभ का कुछ भाग सामान्यीकृत रूप में लगान को बताता है जो कि साधन-साहसी की अपेक्षाकत सीमितता या कमी के कारण प्राप्त करता है। अल्पकाल में साधन-साहसी की कमी या सीमितता के कारण प्राप्त होने वाले असामान्य लाभ को मार्शल ने आभास लगान बताया है। जिन उद्योगों में साहसी की पूर्ति पूर्णतया बेलोचदार हो, उनमें साहसी की समस्त आय लगान के रूप में होती है। प्रो० वाकर ने तो लाभ को योग्यता का लगान बतलाया है। उनके अनुसार प्रत्येक लाभ में साहसी की योग्यता का पुरस्कार सम्मिलित होता है जो कि रिकार्डो के लगान की तरह ही होती है। इस विवेचन से स्पष्ट है कि लाभ में कुछ न कुछ अंश लगान का अवश्य रहता है। इसीलिये लाभ और लगान दोनों एक से लगते हैं।

ध्यान रहे कि यद्यपि सभी आयों में कुछ न कुछ लगान अवश्य होगा लेकिन सभी आयों में लाभ का अंश होना आवश्यक नहीं। कुछ स्थितियों में साहसी को हानि हो सकती है जिससे लाभ का लोप हो जाता है।

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लगान और लाभ में अन्तर

(Difference between Rent and Profit)

1 लगान एक प्रसंविदात्मक आय है जबकि लाभ एक अवशिष्ट आय है।

2. आर्थिक लगान साधन की सीमितता के कारण उत्पन्न होता है जबकि शुद्ध लाम अनिश्चितता सहने और जोखिम उठाने के कारण उत्पन्न होता है।

3. लगान सदैव धनात्मक होता है जबकि लाभ धनात्मक और ऋणात्मक दोनों ही ले सकते हैं।

4. लगान की तुलना में लाभ में उतार-चढ़ाव अधिक तेजी से होते हैं। लगान एक निश्चित और प्रत्याशित आय है जबकि लाभ अनिश्चित, अप्रत्याशित व अस्थिर आय है।

5. लगान स्थिर और प्रावैगिक दोनों ही प्रकार की अर्थव्यवस्थाओं में पाया जाता है परन्तु लाभ केवल प्रावैगिक अर्थव्यवस्था में ही पाया जाता है।

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सैद्धान्तिक प्रश्न

(Theoretical Questions)

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

(Long Answer Questions)

1 लाभ क्या है ? सामान्य लाभ और अतिरिक्त लाभ में अन्तर बताइये।

What is profit ? Distinguish between normal profit and surplus profit,

2. आर्थिक लाभं क्या है ? आर्थिक लाभ और लेखा-लाभ में अन्तर कीजिये।

What is economic profit ? Distinguish between economic profit and accounting profit.

3. लाभ के नवप्रवर्तन सिद्धान्त को समझाइये।

Describe the Innovation Theory of Profit. “

4. लाभ जोखिम उठाने तथा अनिश्चितता सहन करने का पुरस्कार है।” समीक्षा कीजिये।

Profit is the reward for risk-taking and uncertainty bearing.” Explain.

5. लाभ के आधुनिक सिद्धान्त को पूर्णतया स्पष्ट कीजिये।

Explain fully the Modern Theory of Profit.

6. लाभ अनिश्चितता वहन करने का पुरस्कार है।” समझाइये।

Profit is the payment for uncertainty bearing.” Explain.

7. लाभ का सिद्धान्त वर्तमान समय में अर्थशास्त्र का सर्वाधिक विवादाग्रस्त तथा असन्तोषजनक सिद्धान्त है।” विवेचना कीजिये।

The theory of profit is at present the most controversial and unsatisfactory branch of economic theory.” Discuss.

8. लाभ की प्रकृति की विवेचना कीजिये। क्या यह ‘योग्यता का लगान’ कहा जा सकता है ?

Discuss the Nature of Profit. Can it be called the Rent of Ability ?

9. लाभ क्यों उत्पन्न होते हैं ? स्थिर तथा प्रावैगिक दशाओं के अन्तर्गत लाभ के विचार की विवेचना कीजिये।

Why do profit arise ? Discuss the concept of profit under static and dynamic conditions.

10. लाभ निर्धारण में जोखिम, अनिश्चितता और अभिनवीकरण का महत्व समझाइये।

Explain the role of risk, uncertainty and innovation in the determination of profits.

11. लगान और लाभ एकसे लगते हैं क्योंकि दोनों ही अधिशेष हैं लेकिन उनमें अन्तर है क्योंकि सब आयों में लगान हो सकता है, पर लाभ नहीं।” विवेचना कीजिये।

Rent and profit are alike because both are surplus, but they differ because there might be rent in all incomes but not profit.” Discuss.

12. लगान तथा लाभ में अन्तर कीजिये। किस प्रकार प्रत्येक आय में लगान का कुछ अंश विद्यमान रहता है ?

Distinguish between rent and profit. How is some element of rent present in every income?

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लघु उत्तरीय प्रश्न

(Short Answer Questions)

निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर 100 से 120 शब्दों में दीजिये।

Answer the following Questions in 100 to 120 words.

1 लाभ क्या है ? इसकी प्रभेदक विशेषताएँ बतलाइये।

What is profit ? State its distinguishing features.

2. सामान्य लाभ और अतिरिक्त लाभ में अन्तर कीजिये।

Distinguish between normal profit and surplus profit.

3. आर्थिक लाभ और लेखा-लाभ में अन्तर कीजिये।

Distinguish between economic profit and accounting profit.

4. लगान और लाभ में समानताए और असमानताएँ बतलाइये।

similarities and dissimilarities between rent and profit.

5. कुल लाभ और शुद्ध लाभ में अन्तर कीजिये।

Distinguish between total profit and net profit.

6. कुल लाभ के अंग बतलाइये।

State the constituents of total profit.

7. लाभ योग्यता का लगान है। समझाइये।

Profit is rent of ability. Discuss.

8. लाभ का जोखिम सिद्धान्त स्पष्ट कीजिये।

Explain the risk theory of profit.

9. लाभ का अनिश्चितता वहन सिद्धान्त समझाइये।

Explain the uncertainty bearing theory of profit.

10. बीमायोग्य जोखिम और बीमा अयोग्य जोखिम में अन्तर कीजिये।

Distinguish between insurable risk and uninsurable risk.

11. लाभ नवकरण का कारण और परिणाम दोनों ही है।” समझाइये।

“Innovation is the cause and effect both of profit.” Explain.

12. लाभ बाजार की अपूर्णता का परिणाम है।” समझाइये।

Profit is the consequence of market imperfection.” Explain.

13. साहसी की माँग का अनुमान कैसे लगा सकते हैं ?

How can demand for entrepreneurship be estimated ?

14. लाभ के आधुनिक सिद्धान्त द्वारा पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत साहसी की सामान्य लाभ दर कैसे निर्धारित की जा सकती है?

How normal profit rate is determined under perfect competition by modern theory of profit?

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III अति लघु उत्तरीय प्रश्न

(Very Short Answer Questions):

(अ) निम्नलिखित प्रश्नों का एक शब्द या एक पंक्ति में उत्तर दीजिये।

Answer the following questions in one word or one line.

1 लेखा लाभ का समीकरण बताइये।

State the equation of accounting profit.

2. शुद्ध लाभ का दूसरा नाम क्या है ?

What is the other name of net profit?

3. प्रो० नाइट ने जोखिम को किन दो वर्गों में बाँटा है ?

In which two categories risks have been classified by Prof. Knight.

4. लाभ योग्यता का लगान है।” लाभ की यह परिभाषा किसने दी है ?

“Profit is the rent of ability.” Who has given this definition of profit ?

5. लाभ का अनिश्चितता सिद्धान्त का प्रतिपादन किसने किया ?

Who propounded the uncertainty bearing theory of profit?

6. लाभ का नवप्रवर्तन सिद्धान्त का प्रतिपादन किसने किया ?

Who propounded the innovation theory of profit?

7. लाभ का प्रावैगिक सिद्धान्त का प्रतिपादन किसने किया ?

Who propounded the dynamic theory of profit?

8. लाभ एक कानूनी डकैती है।” यह कथन किसका है ?

Profits are legal dacoit,” Whose statement it is ?

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chetansati

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