BCom 1st Year Business Economics Social Injustice Study Material Notes in Hindi

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BCom 1st Year Business Economics Social Injustice Study Material Notes in Hindi

BCom 1st Year Business Economics Social Injustice Study Material Notes in Hindi: Meaning of Social Injustice Social Justice Towards Scheduled Tribes Problem of Scheduled Tribe and Untouchability Measures to Eradicate Social Injustice Examination Questions Long Answer Question Short Answer Questions :

Social Injustice Study Material
business environment

BCom 1st Year Business Environment Regional Imbalances Study Material Notes in Hindi

 

सामाजिक अन्याय

[SOCIAL INJUSTICE]

सामाजिक अन्याय का अर्थ

(MEANING OF SOCIAL INJUSTICE)

सामाजिक अन्याय एक सामाजिक समस्या है। सामाजिक समस्या वह है जिसका सम्बन्ध किसी एक व्यक्ति से न होकर पूरे समाज या समाज के एक बड़े हिस्से से होता है। इसका प्रभाव समाज के कल्याण पर पड़ता है। कुछ सामाजिक समस्याएं कम महत्व की होती हैं, कुछ अल्पकालिक होती हैं, कुछ का सम्बन्ध समाज के थोड़े लोगों से होता है, तो कुछ का असर पूरे समाज पर पड़ता है तथा सदियों तक बना रहता है। कुछ समस्याएं इतनी व्यापक, दीर्घकालिक तथा हानिकारक होती हैं कि उन्हें सामाजिक अन्याय का नाम दिया जाता है। ऐसे अन्याय से जुड़ी कुछ सामाजिक समस्याएं निम्नलिखित हैं :

  • जाति प्रथा जब वह अन्याय तथा असमानता का सृजन करने लगती है।
  • कमजोर वर्ग की समस्या जब वह अत्याचार का सृजन करती है।
  • जनजाति की समस्या जब राष्ट्रीय मुख्य धारा में उसे शामिल होने नहीं दिया जाता है;
  • अनुसूचित जाति की समस्या जो इन जातियों को अछूत बना देती है; एवं
  • स्त्रियों की समस्या जब समाज उनके साथ भेदभाव करने लगता है।

ऊपर दी गईं सभी ऐसी सामाजिक समस्याएं हैं, जो सामाजिक अन्याय के रूप में हमारे समाज में बार-बार उत्पन्न होती हैं। इसके निम्नलिखित कारण हैं। जाति प्रथा तथा सामाजिक अन्याय (Caste System and Social Injustice)

भारत में हिन्दू धर्म की एक प्रमुख विशेषता है जाति प्रथा (caste system)। प्रत्येक जाति अपनी खुद शासक होती है। जाति एक ऐसा ग्रुप है जिसकी सदस्यता का निर्धारण जन्म से होता है। जाति की अपनी पंचायत होती है जो अपने सदस्यों के जाति-सम्बन्धी सभी मसलों पर अपनी राय देती है।

जाति प्रथा सामाजिक अन्याय का एक कारण बन गई है, क्योंकि इसने समाज की समरूपता को भंग कर दिया है। एक जाति के लोगों का खान-पान, शादी-विवाह, आना-जाना, आदि सभी कार्य अपनी ही जाति के लोगों के साथ होता है। इस तरह प्रत्येक जाति एक द्वीप बन गई है जिसका दूसरी जाति के साथ शायद ही कोई सम्बन्ध होता है। ऐसी स्थिति शहरों की तुलना में गांवों में अधिक भयंकर है।

जाति प्रथा सामाजिक अन्याय का एक गन्दा नमूना है। ‘ऊंची’ जाति के लोगों के समक्ष ‘छोटी’ जाति । के लोग न उठ-बैठ सकते हैं और न शादी-विवाह कर सकते हैं। शिक्षा में भी भेदभाव किया जाता है। इससे सामाजिक गतिशीलता (social mobility) में कमी आती है, जो आर्थिक विकास में बाधा डालती है।

जाति प्रथा ने कुछ जातियों, जैसे हरिजनों, दलितों, को अछूत बना दिया है। यह सबसे बड़ा सामाजिक । अन्याय है। संविधान में ‘छुआछूत’ को अवैध करार दिया गया है, लेकिन 68 वर्षों से इसके लागू होने पर भी। अस्पृश्यता आज भी बनी हुई है।

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कमजोर वर्गों पर अत्याचार (Atrocities on Weaker Sections)

कमजोर वर्ग में वे लोग आते हैं जो दाय वंचित (disinherited) हैं। इसमें कषि श्रमिक, पारम्परिक ग्रामीण कारीगर, मछुआ, वन में निवास करन वाले, सफाई कर्मचारी, बन्धुआ मजदूर, शहरी असंगठित मजदूरवर्गों की औरतें, आदि है। बहुत बड़ी संख्या में ऐसे लोग अनुसूचित जाति तथा जनजाति से आते ।

इन वर्गो पर समाज में प्रत्येक प्रकार का अत्याचार किया जाता है। राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की आयोजित  इन्हें भाग लेने नहीं दिया जाता है। इन वर्गों को सामाजिक असमानता तथा अन्याय का सामना करना पड़ता है। फलतः ये समाज के सबसे अधिक सताए हुए वर्ग हैं, सबसे आधिक प्रताड़ित वर्ग हैं सबसे अधिक शोषित हैं । इतना ही नहीं, ये राजनीतिक, शैक्षणिक तथा आर्थिक रूप से अत्यन्त पिछड़े वर्ग हैं।

अनुसूनित जनजाति पर सामाजिक अन्याय (Social Justice towards Scheduled Tribes)

अनुसूचित जनजाति के लोग देश के मूल निवासी हैं जो मुख्य रूप से पहाड़ों और जंगलों में रहते हैं। उनकाबल्कुल पृथक सामाजिक रीति-रिवाज हैं। उनका मख्य पेशा शिकार करना तथा खता करना हा भारत का कुल जनसंख्या में इनका हिस्सा लगभग 8.6 प्रतिशत है। इनकी जीवन-शैली बिल्कुल अलग है।

अनुसूचित जनजाति के लोग अनेक प्रकार के सामाजिक अन्याय, भेदभाव एवं शोषण के शिकार रहे समयम, जनजाति के लोग भूमि हस्तान्तरण (land alienation) के शिकार हुए हा गरअनुसूचित जनजाति वाला न गलत तरीके से. या जालसाजी करके या अत्यन्त कम कीमत पर इनकी जमानलला हा जमीन से हाथ धोने का अर्थ है आय के सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्रोत का समाप्त होना। इसलिए अनुसूचित जनजाति देश के निर्धनतम वर्गों में से एक है। भूमि खोने के कारण अधिकांश अनुसूचित जनजाति के लोग भूमिहीन श्रमिक बन गए है।

अनुसूचित जनजाति में अशिक्षा भी सबसे अधिक मात्रा में है। 2011 में अनुसूचित जनजाति की साक्षरता दर 58.96 प्रतिशत थी जबकि शेष जनसंख्या के लिए यह दर 73 प्रतिशत रही। इस प्रकार इन दोनों में साक्षरता की खाई लगभग 14.04 प्रतिशत थी।

निर्धनता रेखा के नीचे रहने वाले वर्गों में अनुसूचित जनजाति ही सबसे बड़ा वर्ग है। 1987-88 में कुल जनसंख्या में निर्धनों की संख्या 33.4 प्रतिशत थी, किन्तु 52.6 प्रतिशत जनजाति निर्धन थी अर्थात् आधी से अधिक अनुसूचित जनजाति गरीब थी।

अधिकांश अनुसूचित जनजाति के लोगों के पास न तो अपनी जमीन है और न ही उत्पादन सम्पत्ति। वे लम्बे समय तक बेरोजगार रहते हैं या अल्प-रोजगार पाते हैं। निर्धनता, अज्ञानता, रोजगार के अवसरों में विकल्प का अभाव तथा अपने अधिकारों के लिए लड़ने वाले संगठनों की अनुपस्थिति के कारण उनका युगों से शोषण होता आ रहा है।

अनूसुचित जाति की समस्या तथा अस्पृश्यता (Problem of Scheduled Tribe and Untouchability)

अनुसचित जाति का एक बड़ा भाग सामाजिक तथा शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़ा हुआ है तथा सामाजिक एवं आर्थिक पिरामिड के तल में है। 1987-88 में इस जाति का 44.7 प्रतिशत भाग निर्धन था जबकि कुल जनसंख्या में निर्धनों का हिस्सा मात्र 33.4 प्रतिशत था।

अधिकांश अनसचित जाति परिवारों को न तो भूमि का स्वामित्व प्राप्त है और न ही अन्य उत्पादक सम्पत्ति। इन्हीं जाति के लोग अधिकांश भूमिहीन मजदूरो, निर्माण श्रमिकों तथा असंगठित क्षेत्र के मजदरों की पर्ति करते हैं। ये साक्षरता में भी पिछड़े हुए हैं। ग्रामीण क्षेत्र में ये असमानता तथा शोषण के शिकार हैं।

लेकिन अनसूचित जाति के साथ सबसे बड़ा अन्याय है उन्हें अस्पृश्य बना देना। अस्पश्यता एक जटिल सामाजिक समस्या है जो सामाजिक अन्याय का सबसे बड़ा उदाहरण है। किसी भी सभ्य समाज के लिए यह कलंक है। यह मानव अधिकार का अपहरण है।

अनसचित जाति के लोग किसी खास जगह पर केन्द्रित नहीं हैं, बल्कि सम्पूर्ण देश में फैले हुए हैं।

स्त्रियों के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार

महिलाओं के सम्बन्ध में एक प्रचलित उक्ति इस प्रकार है “ढोल, गंवार, शुद्र, पश और नारी ताड़न के अधिकारी।” इस उक्ति से स्पष्ट होता है कि जनसाधारण में नारी की स्थिति कितनी कितनी प्रताड़ना सहती हैं तथा उन्हें घर की चारदीवारी में कैद कर दिया गया है। सदियों उपयोग, दुरुपयोग एवं शोषण किया गया है।

लड़की के जन्म का समाज स्वागत नहीं करता। उसे आर्थिक भार समझा जाता है। जन्म के समय हा कई बार उसकी हत्या कर दी जाती है। परिवार में लड़कियों के पोषण पर उतना ध्यान नहीं दिया जाता, जितना लड़कों पर दिया जाता है।

पारम्परिक धारणा यह है कि स्त्रियों की भूमिका घर के अन्दर बच्चों को पालने तथा खाना पकाने तक ही सीमित है; इसलिए उनकी शिक्षा की ओर विशेष ध्यान नहीं दिया जाता है। रोजगार में नारियों के प्रति भेदभावपूर्ण नीति अपनाई जाती है। एक तो नौकरियों में मर्दो को प्राथमिकता दी जाती है और दूसरे स्त्रियों को एक ही काम के लिए कम वेतन दिया जाता है। स्त्रियों के प्रति यह भेदभावपूर्ण नीति भी सामाजिक अन्याय का एक उदाहरण है।

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सामाजिक अन्याय की समाप्ति के उपाय

(MEASURES TO ERADICATE SOCIAL INJUSTICE)

चूंकि सामाजिक अन्याय कई रूपों में प्रकट होता है, अतः इसकी समाप्ति किसी मास्टर प्लान से नहीं हो सकती है बल्कि अलग-अलग तरह के अन्याय को मिटाने के लिए पृथक्-पृथक् उपाय करने की आवश्यकता है।

हमारी योजनाओं का उद्देश्य शुरू से ही ‘सामाजिक न्याय के साथ विकास’ (Growth with Social Justice) रहा है, इसलिए सामाजिक अन्याय को मिटाकर सामाजिक न्याय दिलाने की चेष्टा की गई है। हम लोगों ने देखा कि सामाजिक अन्याय अनेक प्रकार से होता है, इसलिए सामाजिक न्याय विभिन्न उपायों से दिलाने के प्रयत्न हुए हैं। इन उपायों में प्रमुख निम्न प्रकार हैं :

(1) संविधान में यह स्वीकार किया गया है कि किसी व्यक्ति के साथ जाति, धर्म, भाषा, लिंग के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा : (i) संविधान के दिशा निर्देशक सिद्धान्तों में कहा गया कि राज्य की नीति का संचालन इस प्रकार किया जाएगा कि, प्रत्येक नागरिक, नर एवं नारी, को समान रूप से जीविका के पर्याप्त साधन का अधिकार होगा, (ii) समाज के साधनों का स्वामित्व एवं नियन्त्रण का वितरण ऐसे ढंग से होगा ताकि सम्पूर्ण समुदाय का कल्याण हो, तथा (iii) अर्थव्यवस्था का संचालन ऐसे ढंग से होगा ताकि सम्पत्ति तथा उत्पादन के साधनों का केन्द्रीकरण सामाजिक कल्याण के लिए हानिकारक न हो। ये दिशा निर्देशक सिद्धान्त हैं जो लोगों की भावनाओं को व्यक्त करते हैं।

(2) संविधान की भावनाओं के अनुसार पंचवर्षीय योजनाओं में निम्न चार उद्देश्यों को व्यक्त किया गया है:

(क) उत्पादन में अधिकतम वृद्धि ताकि राष्ट्रीय एवं प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि हो;

(ख) पूर्ण रोजगार की प्राप्ति;

(ग) आय एवं सम्पत्ति के वितरण की असमानता में कमी एवं

(घ) समानता एवं न्याय पर आधारित एक शोषण-रहित समाजवादी समाज की स्थापना। इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए निम्न कार्यक्रम अपनाए गए:

(क) तीव्र गति से आर्थिक विकास;

(ख) रोजगार में वृद्धि

(ग) आय की असमानता में कमी:

(घ) समाजवादी समाज की स्थापना।

उपर्यक्त उद्देश्यों में से सिर्फ प्रथम अर्थात् तीव्र गति से आर्थिक विकास को ही वस्तुतः महत्व प्रदान किया गया तथा अन्य उद्देश्यों की अवहेलना की गई। जैसा कि जनता पार्टी की छठी योजना (1978-83) में स्वीकार किया गया है कि योजनाकरण के पहले 25 वर्षों में एक प्रवाहहीन तथा औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था को आधुनिक अर्थव्यवस्था में बदलना सम्भव हो सका, किन्तु बेरोजगारी तथा अल्परोजगारी अब भी बहत अधिक है तथा 40 प्रतिशत जनसंख्या गरीबी रेखा के नीचे है, इसलिए विकास की रणनीति में परिवर्तन लाना। जरूरी है ताकि भारतीय जनता द्वारा स्वीकृत लक्ष्यों को पूरा किया जा सके। ये लक्ष्य हैं :

(क) पूर्ण रोजगार की प्राप्ति

(ख) निर्धनता का उन्मूलन; तथा

(ग) अधिक समान समाज का सृजन

वस्तुतः चाथी योजना (1969-74) में ही ‘गरीबी हटाओ’ तथा ‘न्याय के साथ विकास’ का नारा दिया गया था । इसके बाद ही निर्धनता पर प्रत्यक्ष प्रहार की रणनीति अपनाई गई तथा निर्धनता उन्मूलन एवं रोजगार कार्यक्रमों का सिलसिला शुरू हुआ है। इन कार्यक्रमों को ग्रामीण तथा शहरी दोनों ही क्षेत्रों में चलाया। जा रहा है।

सरकार ने अब स्वीकार किया है कि सभी विकास कार्यों का अन्तिम लक्ष्य मानवीय विकास (human development) है जिसमें जीवन की गुणवत्ता (quality of life), कल्याण का स्तर (level of well being) तथा बुनियादी सामाजिक सेवाओं की उपलब्धता शामिल हैं। इसलिए सामाजिक न्याय के साथ तीव्रतर आथिक विकास में अब सामाजिक क्षेत्रों के विकास पर बल दिया जा रहा है। शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवार कल्याण, पोषण, सफाई, ग्रामीण विकास, आवास,सामाजिक कल्याण, आदि पर अधिक व्यय किए जा रहे है। 1992-93 में इस क्षेत्र पर 11,323 करोड़ र व्यय किए गए। जबकि. 2018-19 के बजट अनुमान में सामाजिक कल्याण (ग्रामीण आवास शामिल नहीं) के लिए कल 44,220 करोड़ र व्यय का प्रावधान किया गया।

UNDP द्वारा प्रस्तुत Human Development Report 2016 के अनुसार 187 देशों में भारत का स्थान 131वां है। योजना आयोग द्वारा प्रकाशित प्रथम राष्ट्रीय मानवीय विकास रिपोर्ट में बताया गया है कि सम्पूर्ण देश का मानवीय विकास सूचकांक में सुधार हुआ है। 1981 में 0.302 की तुलना में 2001 में 0.4721 सूचकांक तालिका में केरल सबसे ऊपर है तथा बिहार सबसे नीचे। इस सूचकांक के तीन आयाम हैं। आर्थिक, शैक्षिक तथा स्वास्थ्य सम्बन्धी।

सामाजिक अन्याय को दूर करने के लिए जो उपाय किए जा रहे हैं वे निम्नलिखित हैं :

(1) महिला सशक्तिकरण (Women Empowerment)—इसके लिए सभी स्तरों पंचायत से लेकर संसद तक पर महिलाओं के स्थान सुरक्षित किए जा रहे हैं।

(2) शिक्षा में वृद्धि (Increase in Educational Facilities) साक्षरता तथा शिक्षा के स्तरों में सुधार के लिए शिक्षा पर अधिक खर्च किया जा रहा है।

(3) जनसंख्या नियन्त्रण (Population Control)—सामाजिक न्याय से वंचित वर्ग ही जनसंख्या में तीव्र वन्दि से ग्रस्ति है। अतः ऐसे वर्गों को जनसंख्या नियन्त्रण के महत्व को समझाना होगा तथा अमल में लाना होगा।

(4) अन्य उपाय (Others) इस वर्ग में रोजगार सृजन, निर्धनता उन्मूलन, गन्दी बस्तियों का विकास. आदि को शामिल किया जाता है।

इन उपायों के बावजूद हम यह नहीं कह सकते कि सामाजिक अन्याय समाप्त हो गया है। इसमें कुछ कमी अवश्य हुई है, किन्तु राजनीति के अपराधीकरण की आज जो स्थिति है उससे यही लगता है कि अन्याय आज भी समाज में मौजूद है, केवल अन्याय करने वाले तथा अन्याय का रूप बदल गया है।

प्रश्न

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

1 सामाजिक अन्याय से जुड़ी समस्याओं पर प्रकाश डालें।

2. सामाजिक अन्याय को समाप्त करने के लिए उठाए गए कदमों की विवेचना करें।

लघु उत्तरीय प्रश्न

1 जाति प्रथा तथा सामाजिक अन्याय पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।

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