BCom 1st Year Business Economics Wages Study Material Notes in Hindi

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BCom 1st Year Business Economics Wages Study Material Notes in Hindi

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BCom 1st Year Business Economics Wages Study Material Notes in Hindi:   Meaning of Wages  Money Wages and real wages  Factors determining Real Wages Theories of Wages Modern Theory of Wage Determination Under Perfect Competition Equilibrium of Firm Wage Determination Under Monopoly Theoretical Questions Long Answer Questions Short Answer Questions  :

Wages Study Material Notes
Wages Study Material Notes

BCom 1st Year Business Economics Rent Study Material Notes in Hindi

मजदूरी (Wages)

मजदूरी का अर्थ

(Meaning of Wages)

अर्थशास्त्र में मजदूरी शब्द का प्रयोग व्यापक अर्थों में किया जाता है। यहाँ मनुष्य की शारीरिक अथवा मानसिक किसी भी प्रकार की श्रम सेवा के लिये दी गई कीमत मजदूरी कहलाती है। डॉ० मार्शल के शब्दों में, “श्रम की सेवा के लिये दी गई कीमत मजदूरी है। अर्थशास्त्र में वेतन और मजदूरी में भेद नहीं किया जाता है तथा श्रम के प्रतिफल में दी गई फीस, कमीशन, रायल्टी, बोनस, मजदूरी आदि सभी प्रकार के भुगतान मजदूरी में ही सम्मिलित किये जाते हैं, चाहे ये भुगतान समयानुसार (अर्थात् प्रति घण्टा, प्रति दिन, प्रति सप्ताह, प्रति माह अथवा वार्षिक) किये जाते हों अथवा कार्यानुसार और चाहे ये मुद्रा में किये जायें अथवा वस्तुओं अथवा दोनों में। संक्षेप में, अर्थशास्त्र में निम्न तीन प्रकार के श्रमिकों की सेवाओं का पुरस्कार मजदूरी कहलाता है :

(1) वे श्रमिक जो अपना शारीरिक व .मानसिक श्रम बेचते हैं।

(2) वे स्वतन्त्र कर्मचारी अर्थात व्यावसायिक लोग, जैसे डॉक्टर, वकील आदि जो अपनी सेवाओं के लिये फीस लेते हैं।

(3) व्यवसायी और प्रबन्धक जो स्वयं अपने व्यवसाय की देख-भाल करते हैं।

Business Economics Wages

नकद या द्राव्यिक मजदूरी और असल या वास्तविक मजदूरी

(Money Wages and Real Wages)

द्राव्यिक मजदूरी : द्राव्यिक मजदूरी से अभिप्रायः मुद्रा के रूप में मिलने वाली मजदूरी से होता है। दूसरे शब्दों में, किसी श्रमिक को उसके श्रम के बदले में द्रव्य या मुद्रा के रूप में जो पारिश्रमिक दिया जाता है उसे द्राव्यिक मजदूरी या नकद मजदूरी कहते हैं। ध्यान रहे कि नकद मजदूरी से किसी श्रमिक की वास्तविक आर्थिक स्थिति का ज्ञान नहीं होता, इसके लिये हमें उसकी वास्तविक मजदूरी का ज्ञान आवश्यक होता है।

वास्तविक मजदूरी : वास्तविक मजदूरी का आशय वस्तुओं और सेवाओं की उस मात्रा से होता है जिन्हें एक व्यक्ति अपनी द्राव्यिक मजदूरी से प्राप्त कर सकता है। दूसरे शब्दों में, द्राव्यिक मजदूरी की क्रय शक्ति ही वास्तविक मजदूरी कहलाती है। इसमें उन वस्तुओं, सेवाओं तथा अन्य लाभों की मात्रा को भी सम्मिलित कर लिया जाता है जो कि उसे नकद मजदूरी के अलावा प्राप्त होते हैं, जैसे निःशुल्क चिकित्सा, निःशुल्क या सस्ती बिजली, निःशुल्क अथवा रियायती मकान आदि। डॉ० मार्शल के अनुसार, “वास्तविक मजदूरी में केवल उन्हीं सुविधाओं तथा आवश्यकताओं को शामिल नहीं करना चाहिये जो सेवायोजक के द्वारा प्रत्यक्ष रूप में श्रम के बदले में दी जाती हैं, बल्कि उसके अन्तर्गत उन लाभों को भी शामिल किया जाना चाहिये

व्यावसायिक अर्थशास्त्र जो व्यवसाय विशेष से सम्बन्धित होते हैं और जिनके लिये उसे अलग व्यय नहीं करना। पड़ता।

टॉमस के अनुसार, “किसी मजदूर को उसके श्रम के बदले में मिलने वाली रकम से जो वस्तएँ प्राप्त की जा सकती हैं तथा इस राशि के अतिरिक्त जो आवश्यकता, आराम व विलास के अन्य पदार्थ या सेवाएँ उसे प्राप्त होती हैं, इन सबके योग को अर्थशास्त्र में असल मजदुरी कहा जा सकता है।

वास्तविक मजदूरी को निर्धारित करने वाले तत्व

(Factors Determining Real Wages)

(1) मुद्रा की क्रय शक्ति (Purchasing Power of Money) : वास्तविक मजदूरी पर मुद्रा की क्रय-शक्ति का बहुत प्रभाव पड़ता है। मुद्रा की क्रय शक्ति का आशय सामान्य मूल्य-स्तर से होता है। जिस स्थान पर वस्तुओं के मूल्य कम होंगे, वहाँ पर मुद्रा की क्रय-शक्ति अधिक होगी और इसलिये वहाँ के मजदूरों की वास्तविक मजदूरी अधिक होगी। इसके विपरीत मूल्य-स्तर ऊँचा होने पर वास्तविक मजदूरी कम होगी।

(2) अतिरिक्त आय (Extra Earnings): जैसे अध्यापक को पुस्तक लिखने से रायल्टी प्राप्त होना, टाइपिस्ट को फैक्ट्री के बाद अतिरिक्त समय में कार्य मिल जाना, फैक्ट्री श्रमिक के आश्रितों को काम मिल जाना आदि।

(3) अतिरिक्त सुविधायें (Extra Facilities): जैसे निःशुल्क डॉक्टरी सहायता, सस्ता मकान, निःशुल्क या सस्ती बिजली, बच्चों की निःशुल्क शिक्षा आदि।

(4) कार्य का स्वभाव (Nature of Work) : यदि कार्य कठिन, अरुचिकर, गन्दा अथवा जोखिमपूर्ण है तो नकद मजदूरी अधिक होने पर भी वास्तविक मजदूरी कम समझी जाती है।

(5) कार्य की दशायें (Working Conditions) : कार्य की सुधरी दशायें, दिन का कार्य, समुचित अवकाश तथा मालिक का अच्छा व्यवहार होने पर वास्तविक मजदूरी अपेक्षाकृत अधिक समझी जाती है।

(6) कार्य की नियमितता (Regularity of Work) : नियमित व स्थायी कार्य में अस्थायी कार्यों की तुलना वास्तविक मजदूरी अधिक मानी जाती है।

(7) व्यावसायिक व्यय (Job Expenses) : कुछ व्यवसायों में श्रमिक को अपनी कार्यकुशलता का अच्छा स्तर बनाये रखने के लिये कुछ व्यय करने पड़ते हैं, जैसे एक प्रोफेसर को अपने विषय से सम्बन्धित नवीनतम जानकारी प्राप्त करने के लिये नवीनतम पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं में कुछ व्यय करना पड़ता है। अतः उसकी वास्तविक मजदूरी ज्ञात करने के लिये इस प्रकार के व्यावसायिक व्ययों को उसकी नकद मजदूरी से घटाना आवश्यक है।

(8) प्रशिक्षण का समय और लागत (Training Period and its Cost) : कुछ समायों में कार्य करने के लिये प्रशिक्षण आवश्यक होता है, जैसे डॉक्टरी अथवा इन्जीनियरिंग का कार्य, ऐसे व्यवसायों में वास्तविक मजदूरी उन व्यवसायों की तुलना कम मानी जायेगी जिन्हें। करने के लिये किसी प्रकार के प्रशिक्षण की आवश्यकता नहीं होती।

(9) भावी तरक्की की आशा (Future Prospects of Promotion) : जिन व्यवसायों में पदोन्नति के अच्छे अवसर होते हैं, उनमें आरम्भ में नकद मजदूरी कम होने पर भी। वास्तविक मजदूरी अधिक मानी जाती है।

(10) सामाजिक सम्मान (Social Status): समाज की दृष्टि में सम्मानजनक व प्रतिष्ठा प्राप्त व्यवसायों में नकद मजदूरी कम होने पर भी वास्तविक मजदूरी अधिक समझी जाती है।

मजदूरी के सिद्धान्त

(Theories of Wages)

मजदूरी के निर्धारण के लिये समय-समय पर अर्थशास्त्रियों ने अनेक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया किन्तु वे सभी दोषपूर्ण रहे हैं। अतः वे अब केवल सैद्धान्तिक विवेचन की विषय-वस्तु मात्र ही रह गये हैं। इसीलिये इस पुस्तक में इनका अध्ययन नहीं किया गया है। इस पुस्तक में केवल मजदूरी निर्धारण के आधुनिक सिद्धान्त का ही विवेचन किया गया है।

मजदूरी निर्धारण का आधुनिक सिद्धान्त

(Modern Theory of Wage Determination)

मजदूरी श्रम की सेवाओं का मूल्य है। अतः आधुनिक अर्थशास्त्रियों का मत है कि अन्य वस्तुओं की भाँति श्रम का मूल्य (अर्थात् मजदूरी) भी मूल्य के सामान्य सिद्धान्त (अर्थात् माँग और पूर्ति के सिद्धान्त) द्वारा ही निर्धारित होता है। किन्तु मजदूरी निर्धारण में इस सिद्धान्त का प्रयोग करते समय हमें इस सिद्धान्त में श्रम की विशेषताओं (विशेषकर सामूहिक सौदेबाजी तथा श्रमिक में स्वतन्त्र इच्छा शक्ति का पाया जाना) के आधार पर कुछ संशोधन करना पड़ता है। इसीलिये मजदूरी निर्धारण को मूल्य के सामान्य सिद्धान्त का ही एक विशिष्ट रूप माना जाता है। इस सिद्धान्त के अन्तर्गत मजदूरी निर्धारण का अध्ययन दो बाजार दशाओं में किया जाता

(1) पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत और (2) अपूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत।

पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत मजदूरी का निर्धारण

(Wage Determination Under Perfect Competition)

आधुनिक सिद्धान्त के अनुसार पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत एक उद्योग में मजदूरी उस बिन्दु पर निर्धारित होती है जहाँ पर श्रम की कुल माँग और श्रम की कुल पूर्ति बराबर हों।

श्रम की माँग (Demand of Labour): श्रम की माँग उत्पादकों या साहसियों द्वारा की जाती है। वे श्रम की माँग करते समय उसकी उत्पादकता पर ध्यान रखते हैं। श्रम की अधिकाधिक इकाइयाँ प्रयोग करने पर उत्पत्ति हास नियम की क्रियाशीलता के कारण एक बिन्दु के पश्चात् इसकी उत्पादकता घटती जाती है। प्रत्येक उत्पादक श्रमिकों को केवल उस सीमा तक ही नियोजित करता है जहाँ पर श्रम की सीमान्त उत्पादकता का मूल्य उसकी लागत (अर्थात् दी जाने वाली मजदूरी) के बराबर हो। इस प्रकार श्रम की सीमान्त उत्पादकता मजदूरी की अधिकतम सीमा होती है। श्रम की माँग (1) उत्पादन की तकनीकी दशाओं, (2) श्रम द्वारा बनाई जाने वाली वस्तु की माँग तथा (3) उसकी उत्पत्ति के अन्य साधनों (विशेष कर पूजी) से। प्रतिस्थापन की सम्भावनाओं से प्रभावित होती है।

मजदूरी की विभिन्न दरों पर श्रम की माँग की जाने वाली मात्रा को बतलाती हुई एक मॉग तालिका की रचना की जा सकती है। सामान्यतया ऊँची मजदूरी दर पर श्रमिको का माँग कम तथा नीची दर पर श्रमिकों की माँग अधिक होती है। इस तालिका की सहायता से बनाया गया माँग-वक्र बाँयें से दाँयें नीचे की ओर गिरता हुआ होता है जो कि मजदूरी तथा श्रम की माँग के विपरीत सम्बन्ध को प्रदर्शित करता है, जैसा कि चित्र 3.1 में दिखाया गया है।

श्रम की पूर्ति (Supply of Labour) : इसका आशय किसी विशेष प्रकार के श्रम के उन घण्टों एवं दिनों से है जिन्हें विभिन्न मजदूरी दरों पर नियोजनार्थ प्रस्तुत किया जाता है। सामान्यतः मजदूरी और श्रम की ‘ पूर्ति में प्रत्यक्ष सम्बन्ध होता है अर्थात् मजदूरी की दरों में वृद्धि से श्रम की पूर्ति बढ़ती है तथा इनमें कमी से श्रम की पूर्ति कम हो जाती है। प्रत्येक प्रकार के श्रम की मजदूरी दर में गिरावट की एक न्यूनतम सीमा भी श्रम की माँग होती है जिसके नीचे कोई भी श्रमिक स्थायी रूप से कार्य के लिये उपलब्ध नहीं होता है। यह सीमा श्रमिक के जीवन स्तर को बनाये रखने के लिये आवश्यक द्रव्य के बराबर होगी। मजदूरी दर में वृद्धि पर श्रम की पूर्ति कार्य-अवकाश अनुपात’ (Work-leisure Ratio) से प्रभावित होती है।

मजदूरी दर में वृद्धि पर श्रमिक अपनी आय बढ़ाने के लिये अपने आराम के घण्टे कम करके कार्य के घण्टे बढ़ाता है। यह मजदूरी में वृद्धि का प्रतिस्थापन प्रभाव कहलाता है तथा यह सदैव धनात्मक होता है किन्तु एक सीमा के पश्चात् मजदूरी दरों में वृद्धि होने पर आय-प्रभाव’ के परिणामस्वरूप उच्चतर मजदूरी दरों पर श्रम की पूर्ति कम हो जाती है क्योंकि वे काम के स्थान पर आराम को अधिक महत्व देने लगते हैं। अतः आय प्रभाव ऋणात्मक हो जाता है। इसीलिये श्रम का पूर्ति वक्र बायें से दायें ऊपर की ओर उठता हुआ होता है तथा एक बिन्दु के पश्चात् यह बायें पीछे की ओर श्रम के कार्य घण्टे मुड़ता जाता है। श्रम की पूर्ति की निम्नतम सीमा श्रमिकों के सीमान्त त्याग अर्थात् जीवन-स्तर से निश्चित होती है। इस सीमा के नीचे मजदूरी दर पर श्रमिक कार्य के लिये तैयार नहीं होते हैं। श्रम के प्रति वक्र के स्वरूप को चित्र 3.2 में दिखाया गया है।

मजदूरी निर्धारण : जैसा कि पहले स्पष्ट किया जा चुका है कि पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत एक उद्योग में मजदूरी उस दर पर निर्धारित होगी जिस पर श्रम की कुल माँग और कुल पूर्ति बराबर हों। अगले पृष्ठ पर दिये चित्र 3.3 के (अ) भाग में यही दिखाया गया है। चित्र में श्रम की माँग और पूर्ति का सन्तुलन P बिन्दु पर होता है। अतः उद्योग में मजदूरी PQ या ow निर्धारित होगी क्योंकि इस दर पर श्रम का माँग और पूर्ति दोनों OQ के बराबर हैं। साम्य की दशा में मजदूरी-दर सदैव ही श्रम की सीमान्त उत्पादकता के बराबर होगी। यदि अल्पकाल में मजदूरी-दर इस साम्य दर से ऊपर है तो इससे श्रम की पर्ति बढेगी और यह उसकी माँग से अधिक हो जायेगी और कुछ श्रमिक बेरोजगार हो जायेंगे। श्रमिकों की अतिरिक्त पति से मजदूरी-दर में गिरावट आयेगी तथा अन्त में वह घटकर PQ ही हो जायेगी। इसी तरह मजदूरी-दर के साम्य दर PQ से नीचा होने पर श्रम की पूर्ति माँग से कम हो जाती है। इससे मजदूरी-दर में वृद्धि होगी और वह बढ़कर साम्य दर PQ के बराबर हो जायेगी।

Business Economics Wages

फर्म का साम्य (Equilibrium of Firm)

पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत मजदूरी का निर्धारण उद्योग में श्रम की कुल माँग और कुल पूर्ति के साम्य द्वारा होता है तथा उस उद्योग की प्रत्येक फर्म इस मजदूरी-दर को दिया हुआ मान लेती है। इसीलिये एक फर्म के लिये ‘मजदूरी-रेखा’ (अथवा श्रमिकों की पूर्ति रेखा) एक ‘पड़ी हुई रेखा’ होती है। (ऊपर दिये गये चित्र 3.3 के (ब) भाग को देखिये) इसका आशय यह है कि सीमान्त मजदूरी (MW) की दर पर फर्म जितने चाहे उतने श्रमिक नियोजित कर सकती है। दूसरे शब्दों में, एक फर्म के लिये श्रम की पूर्ति पूर्णतया लोचदार होती है। इसीलिये फर्म के लिये औसत मजदूरी (Average Wage or AW) और सीमान्त मजदूरी (Marginal Wages or MW) बराबर होती हैं।

एक फर्म अपने लाभों को अधिकतम अथवा हानि को न्यूनतम करने के लिये उद्योग द्वारा निर्धारित दर पर श्रमिकों की वह संख्या प्रयुक्त करेगी जिस पर श्रमिकों की सीमान्त आगम उत्पादकता  (Marginal Revenue Productivity or MRP)  श्रमिकों की सीमान्त मजदूरी (Marginal Wage or MW) के बराबर हो। दूसरे शब्दों में, श्रमिकों के प्रयोग की दृष्टि से एक फर्म की साम्यावस्था में MRP = MW। चित्र 3.3 के (ब) भाग में फर्म का सन्तुलन P, बिन्दु पर होता है और वह OQ, मात्रा में श्रम नियोजित करेगी। यदि श्रम की MRP उसकी MW से अधिक है (MRP>MW) तो फर्म अधिकाधिक श्रमिकों को नियोजित करके अपने कुल लाभों को अधिकतम करेगी। ऐसा तब तक किया जायेगा जब तक कि MRP, MW के बराबर न आ जाये। इसी तरह यदि MRP, MW से कम है (MRP <MW) तो फर्म श्रमिकों की संख्या तब तक कम करती जायेगी जब तक कि MRP.MW के बराबर न आ जाये।

श्रमिकों के प्रयोग की दृष्टि से किसी बिन्दु पर फर्म के लाभ-हानि की स्थिति ज्ञात करने के लिये उसकी औसत आगम उत्पादकता (Averace Revenue Productivity or ARP) आर आसत मजदूरी (Average Wage or AW) का अन्तर किया जाता है। यदि ARP> AW, तो फर्म को लाभ होगा; यदि ARP <AW, तो फर्म को हानि होगी; और यदि ARP = AW तो फर्म को न तो लाभ होगा और न हानि, वरन केवल सामान्य लाभ ही प्राप्त होगा।

अल्पकाल में फर्म का साम्य (Equilibrium of the Firm in the Short Period) : अल्पकाल में श्रमिकों के प्रयोग की दृष्टि से साम्य की स्थिति में एक फर्म को लाभ, सामान्य लाभ या हानि हो सकती है। इन तीनों स्थितियों को नीचे दिये चित्र 3.4 पर दिखलाया गया है। चित्र के तीनों भागों में फर्म P बिन्दु पर सन्तुलन की स्थिति में है क्योंकि इस बिन्दु पर MRP = MW। अतः फर्म 00 श्रमिकों के लिये PQ प्रति श्रमिक मजदूरी देगी। चित्र के (अ) भाग में ARP, AW के ऊपर है। अतः ARP तथा AW के बीच खड़ी दूरी TP प्रति श्रमिक लाभ बतलाती है। फर्म का कुल लाभ ज्ञात करने के लिये हमें प्रति श्रमिक लाभ TP को प्रयुक्त श्रमिकों की संख्या OQ से गुणा करना होगा। इस स्थिति में फर्म का कुल लाभ आयत RSTP का क्षेत्रफल होगा।

चित्र का () भाग फर्म के सामान्य लाभ की स्थिति दर्शा रहा है क्योंकि साम्य बिन्दु P पर ARP = AWI

चित्र का (स) भाग हानि की स्थिति को दर्शा रहा है। इस स्थिति में प्रति श्रमिक हानि PT है तथा कुल हानि PT और OQ का गुणनफल (अर्थात् आयत RSPT) का क्षेत्रफल है।

दीर्घकाल में फर्म का साम्य (Equilibrium of the Firm in the Long Period) : दीर्घकाल में एक फर्म को केवल सामान्य लाभ ही प्राप्त होता है। ऐसा तब होगा जबकि ARP = AWI

अतः फर्म के दीर्घकालीन साम्य के लिये निम्न दो दशाओं का पूरा होना आवश्यक है :

(1) MRP = MW, और

(2) ARP = AWI

चूँकि पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत MW = AW=MW AW। अतः फर्म के दीर्घकालीन साम्य की स्थिति मेंARP MRP = MW = AW = ARPI इसे MRP में दिखलाया गया है। चित्र में P बिन्दु साम्य का बिन्दु है क्योंकि इस बिन्दु पर दीर्घकालीन साम्य की श्रम की इकाइयाँ उपर्युक्त दोनों दशायें पूरी हो रही । । इस प्रकार मजदूरी दीर्घकाल में मजदूरी दर PO होगी तथा फर्म श्रमिकों की OQ मात्रा का प्रयोग करेगी। इस स्थिति में फर्म को केवल सामान्य लाभ ही प्राप्त होगा।

Business Economics Wages

एकाधिकार के अन्तर्गत मजदूरीनिर्धारण

(Wage Determination Under Monopoly)

व्यवहार में श्रम बाजार में पूर्ण प्रतियोगिता नहीं पायी जाती। वस्तुतः श्रम बाजार में एकाधिकार की स्थिति पायी जाती है। एकाधिकार के अन्तर्गत भी श्रम बाजार में कई स्थितियाँ हो सकती हैं किन्तु प्रमुख स्थितियाँ निम्न दो हैं:

(1) क्रेता-एकाधिकारी अथवा अल्प-क्रेता एकाधिकारी प्रतियोगिता (Monopsony),

(2) द्विपक्षीय एकाधिकार अथवा सामूहिक सौदेबाजी (Bilateral Monopoly)

पहली स्थिति में, मजदूरी निर्धारण में सेवायोजक बहुत अधिक शक्तिशाली होते हैं। यदि सेवायोजक एक है या उनका एक शक्तिशाली संघ है और दूसरी ओर श्रमिक असंगठित हैं। तथा उनमें गतिशीलता का अभाव है तो मजदुरी-दर बहुत नीची होगी। इतनी नीची कि श्रमिक का ठीक से भरण-पोषण भी न हो सके। लेकिन यदि सेवायोजकों में प्रतियोगिता है और श्रमिकों में अधिक गतिशीलता है तो मजदूरी प्रतियोगिता के स्तर पर पहुँच जायेगी।

दूसरी स्थिति में, श्रमिक और सेवायोजक दोनों ही संगठित होते हैं। अतः इसमें मजदूरी का निर्धारण दोनों पक्षों की सामूहिक सौदेबाजी से होता है। इसमें सेवायोजक कम से कम मजदूरी देना चाहेंगे तथा श्रमिक संघ ऊँची से ऊँची मजदूरी दर प्राप्त करना चाहेंगे। किसी समय पर मजदूरी की वास्तविक दर दोनों पक्षों की तुलनात्मक शक्ति पर निर्भर करेगी।

रेखाचित्र द्वारा स्पष्टीकरण : चूँकि श्रम बाजार में अपूर्ण प्रतियोगिता है, अतः ‘औसत मजदूरी रेखा’ (AW-Curve) तथा सीमान्त मजदूरी रेखा’ (MW-Curve) दोनों ही बायें से दायें ऊपर को चढ़ती हुई होंगी तथा MW-रेखा, AW रेखा के ऊपर होगी। सीमान्त मजदूरी रेखा के ऊपर चढ़ते हुए होने का अर्थ यह है कि यदि कोई उत्पादक अतिरिक्त श्रमिकों को नियोजित करना चाहता है तो उसे ऊँची मजदूरी देनी होगी।

क्रेताएकाधिकार (Monopsony): नीचे दिये चित्र 3.6 में क्रेता एकाधिकारी की स्थिति के अन्तर्गत मजदूरी निर्धारण को प्रदर्शित किया गया है। चित्र में फर्म का सन्तुलन E बिन्दु पर हो रहा है, क्योंकि इस बिन्दु पर MRP = MW। इस स्थिति में फर्म PQ मजदूरी दर पर श्रमिकों की OQ मात्रा नियोजित करके अपने कुल लाभों को अधिकतम करेगी। फर्म का प्रति श्रमिक लाभ TQ और PQ का अन्तर अर्थात् TP होगा तथा कुल लाभ TP और OQ का गुणनफल (अर्थात् आयत RSTP का क्षेत्रफल) होगा। इसमें औसत मजदूरी, सीमान्त आगम उत्पादकता से कम होती है (चित्र में PQ <EQ)। अतः श्रमिकों का शोषण होता है। चित्र में EQ – PQ = EP श्रम MRP का क्रयाधिकारात्मक शोषण है। और फर्म श्रम के शोषण से असाधारण लाभ प्राप्त करती है। इस स्थिति में मजदूरी दर तथा श्रमिक रोजगार का स्तर श्रम की इकाइयाँ दोनों ही पूर्ण प्रतियोगिता की तुलना काफी नीचे रहते हैं।

द्विपक्षीय एकाधिकार (Bilateral Monopoly): द्विपक्षीय एकाधिकार का आशय उस स्थिति से है जिसमें नियोक्ता अपना संघ बनाकर श्रम-संघों से सामूहिक सौदेबाजी द्वारा मजदूरी निर्धारित करता है। यदि श्रमिक संगठित होकर सामूहिक सौदेबाजी से अपनी मजदूरी निर्धारित कराते हैं तो वे क्रेताधिकारी शोषण से बच सकते हैं। इस स्थिति में मजदूरी अनिर्धारणीय होती है। इसमें तो केवल दो व्यापक सीमायें ही निर्धारित की जा सकती हैं जिनके बीच मजदूरी निर्धारित होगी क्योंकि वास्तविक मजदूरी-दर किसी समय विशेष पर दोनों पक्षों की सापेक्षिक सौदा-शक्ति पर निर्भर करेगी। यदि श्रम-संघ की तुलना सेवायोजक-संघ अधिक शक्तिशाली है। तो मजदूरी पूर्ण प्रतियोगिता दर से नीचे किन्तु क्रेता-एकाधिकारात्मक प्रतियोगिता दर से ऊँची रहेगी। इसके विपरीत यदि किसी समय विशेष पर श्रम-संघ, सेवायोजक-संघ से अधिक शक्तिशाली है तो मजदूरी-दर पूर्ण प्रतियोगिता दर से भी ऊँची निर्धारित होगी किन्तु यह एकाधिकारी मजदूरी-दर से नीचे ही रहेगी। इस स्थिति में रोजगार की मात्रा पूर्ण प्रतियोगिता की तुलना घट जायेगी।

श्रमसंघ और मजदूरी (Trade Union and Wages)

श्रम-संघों का प्रमुख कार्य अपने सदस्यों की मजदूरी की दर को बढ़वाना तथा उनकी सेवा-शों में सुधार लाना होता है। इसके लिये वे सामूहिक सौदेबाजी का सहारा लेते हैं, परन्तु इस सम्बन्ध में प्रश्न यह उठता है कि क्या श्रम-संघ मजदूरी की दर में वृद्धि करा सकते हैं ? विश्व मन्दीकाल तक प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों की यह विचारधारा थी कि श्रम-संघ मजदूरी में वृद्धि नहीं करा सकते। इसके लिये निम्न तर्क दिये जाते थे:

(1) मजदूरी श्रम की सीमान्त उत्पादकता पर निर्भर करती है। अतः यदि श्रम-संघों की कार्यवाहियों से मजदूरी में सीमान्त उत्पादकता से अधिक की वृद्धि प्राप्त कर ली जाती है तो इसके दो परिणाम होंगे—(अ) साहसियों का लाभ कम हो जाना, और (ब) वस्तु के मूल्य में वृद्धि । प्रथम स्थिति में, साहसियों का लाभ कम हो जाने पर वे उत्पादन घटायेंगे या बन्द कर देंगे जिससे श्रमिकों में बेरोजगारी फैलेगी और अन्त में मजदूरी-दर गिरेगी। दूसरी स्थिति में, वस्तु का मूल्य बढ़ा दिये जाने पर उसकी माँग घट जायेगी, उत्पादन घटेगा, परिणामस्वरूप बेरोजगारी फैलेगी। इन तर्कों के आधार पर यह कहा जाता था कि श्रम-संघ स्थायी रूप से मजदूरी की दर नहीं बढ़वा सकते।

(2) श्रमिकों की मजदूरी बढ़ जाने पर वस्तु की उत्पादन लागत बढ़ेगी, मूल्य बढ़ेंगे, अतः देश में सामान्य कीमत-स्तर ऊँचा जायेगा। सामान्य कीमत-स्तर के ऊँचा जाने से द्रव्य की क्रय-शक्ति कम हो जायेगी और इस प्रकार श्रमिकों की वास्तविक मजदूरी घट जायगी। निष्कर्ष रूप में, श्रम-संघ मौद्रिक मजदूरी को तो बढ़वा सकते हैं किन्तु वास्तविक मजदूरी को नहीं . बढ़वा सकते।

उपरोक्त विचारधारा ठीक नहीं है। मजदूरी की सीमान्त उत्पादकता का तर्क उचित नहीं है क्योंकि यह तो समस्या का एक पक्षीय विवेचन हुआ। सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त केवल माँग । पक्ष की विवेचना करता है तथा पूर्ति पक्ष की उपेक्षा करता है। अतः श्रम-संघ श्रमिकों की माँग और पर्ति दोनों को प्रभावित करके एक सीमा तक मजदूरी में वृद्धि करा सकते हैं। मजदूरी वृद्धि निम्न परिस्थितियों में सम्भव है :

(1) पूर्ण प्रतियोगिता में श्रमसंघ अल्पकाल में श्रम की पूर्ति घटाकर मजदूरी बढ़वा सकते हैं। इस बात को चित्र 3.7 द्वारा स्पष्ट किया गया है। माना कि श्रम की माँग रेखा DD और पूर्ति रेखा PM ss का प्रारम्भिक संतुलन E बिन्दु पर होता है। इस साम्य पर ON श्रम-मात्रा के लिये मजदूरी की दर OP निर्धारित होती है। यदि श्रम-संघ प्रभावी होकर श्रम की पूर्ति घटाकर ON, कर देते हैं तो श्रमिकों की नयी पूर्ति रेखा SS, होगी तथा नया

(2) क्रेताएकाधिकार की दशा में श्रमिकों को मजदूरी उनकी सीमान्त उत्पादकता से भी कम दी जा सकती है। ऐसी परिस्थितियों में श्रम-संघ अपनी शक्ति से अपने सदस्यों की मजदूरी में उनकी सीमान्त उत्पादकता के स्तर तक वृद्धि करा सकते हैं।

(3) श्रमसंघ श्रमिकों की सीमान्त उत्पादकता में वृद्धि करा कर श्रम की माँग में वृद्धि कर सकते हैं। सीमान्त उत्पादकता में वृद्धि दो प्रकार से करायी जा सकती है – (अ) श्रम-संघ उत्पादकों को इस बात के लिये बाध्य कर सकते हैं कि वे श्रमिकों को कार्य के लिये अच्छे तथा आधुनिकतम यंत्र प्रदान करें तथा उनकी कार्य की दशाओं को सुधारें। इससे श्रमिकों की सीमान्त उत्पादकता में वृद्धि होगी, फलतः उनकी मजदूरी दर में भी वृद्धि होगी। (ब) D… श्रम-संघ अपने कल्याणकारी कार्यों से श्रमिकों की कुशलता बढ़ा सकते हैं। इससे उनकी सीमान्त

PI उत्पादकता और तदनुसार इनकी मजदूरी में वृद्धि होगी। इस बात को चित्र 3.8 में स्पष्ट किया गया । है। चित्र में श्रम की माँग और पूर्ति का प्रारम्भिक साम्य E बिन्दु पर है तथा मजदूरी दर OP है। यदि श्रम संघ श्रमिकों की कार्यक्षमता बढ़वाने में सफल हो जाते हैं तो श्रमिकों की माँग ON से श्रम की मात्रा बढ़कर ON, हो जायेगी तथा माँग और पूर्ति का नया संतुलन E बिन्दु पर होगा तथा मजदूरी OP, होगी।

(4) डॉ० मार्शल के अनुसार श्रमसंघ कुछ स्थितियों में श्रमिकों के एक विशेष वर्ग के लिये मजदूरी दर में वृद्धि करा सकते हैं। ये स्थितियाँ निम्नलिखित हैं :

() श्रमिकों की माँग की लोच : श्रमिकों के उस विशेष वर्ग की माँग बेलोचदार हो तथा उनके बिना उत्पादन सम्भव न हो।

() वस्तु की माँग की लोच का स्वरूप : श्रमिकों के उस विशेष वर्ग द्वारा उत्पादित वस्तु की माँग बेलोचदार हो जिससे मजदूरी में वृद्धि के कारण वस्तु के मूल्य में वृद्धि से उसकी माँग में कोई विशेष कमी न हो।

() मजदूरी का कुल लागत में अंश : इस वर्ग का मजदूरी-बिल संस्था के कुल मजदूरी-बिल का बहुत थोड़ा भाग हो जिससे उस वर्ग के श्रमिकों की मजदूरी बढ़ा देने पर वस्तु की कुल उत्पादन लागत में कोई विशेष वृद्धि नहीं होगी। () अन्य लागत में कमी करना सम्भव : उत्पादक किसी दूसरे वर्ग के श्रमिकों की मजदूरी कम कर सके या कच्चे माल के उत्पादकों को कम मूल्य स्वीकार करने के लिये विवश कर सके। इन चारों दशाओं में से कोई भी दशा पायी जाने पर श्रम-संघ मजदूरी में वृद्धि करा। सकते हैं। किन्त ऐसी वृद्धि केवल अल्पकाल में ही सम्भव है क्योंकि दीर्घकाल में उत्पादक। श्रमिकों के ऐसे विशेष वर्ग के स्थानापन्न की युक्ति निकाल सकते हैं।

Business Economics Wages

श्रमसंघों की मजदूरी वृद्धि कराने की शक्ति की सीमायें

(1) श्रमिकों के प्रतिस्थापन की लोच : किसी फर्म में श्रमिकों का प्रतिस्थापन मशीनों द्वारा अथवा असंघीय या दूसरे स्थान के श्रमिकों द्वारा सम्भव होता है। अतः श्रमिकों के प्रतिस्थापन की लोच जितनी अधिक होगी, श्रम-संघों की सौदा-शक्ति उतनी ही कम होगी। अतः वे मजदूरी वृद्धि कराने में कम सफल होंगे।

(2) अन्य साधनों की पूर्ति की लोच : सामान्यतः श्रम का प्रतिस्थापन मशीनों (पूँजी) से होता है किन्तु इसका वास्तविक प्रतिस्थापन मशीनों की पूर्ति की लोच पर निर्भर करेगा, अर्थात् यदि किसी समय देश में इन ‘श्रम बचत मशीनों’ की कमी है तो उत्पादक श्रमिकों का प्रतिस्थापन नहीं कर पायेंगे। अतः उन्हें श्रम-संघों के दबाव में श्रमिकों को ऊँची मजदूरी देनी होगी। इसके विपरीत स्थिति में श्रम-संघ असफल रहेंगे।

(3) वस्तु की माँग की लोच : यदि उत्पादित वस्तु की माँग अधिक लोचदार है तो श्रम-संघ मजदूरी नहीं बढ़वा सकते क्योंकि मजदूरी बढ़ाने के फलस्वरूप वस्तु के मूल्य में वृद्धि को उपभोक्ताओं से नहीं वसूल किया जा सकेगा। किन्तु इसका वास्ता इन “श्रम बचत मशीन दबाव में श्रमिकों

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सैद्धान्तिक प्रश्न

(Theoretical Questions)

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

(Long Answer Questions)

1 मजदूरी का अर्थ बताइये। द्राव्यिक और वास्तविक मजदूरी में अन्तर कीजिये।

Explain the term wages. Distinguish between nominal and real wages.

2. वास्तविक मजदूरी क्या है ? वास्तविक मजदूरी को निर्धारित करने वाले तत्वों को बताइये।

What is real wages ? Enumerate the factors determining real wages.

3. मजदूरी निर्धारण के आधुनिक सिद्धान्त की विवेचना कीजिये।

Explain modern theory of wage determination.

4. पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत मजदूरी कैसे निर्धारित होती है ? रेखाचित्र द्वारा समझाइये।

How are wages determined under perfect competition ? Explain with the help of diagrams.

5. क्रेता-एकाधिकार के अन्तर्गत मजदूरी कैसे निर्धारित होती है ? रेखाचित्र द्वारा समझाइये।

How wages are determined under monopsony ? Explain with the help of diagrams..

6. श्रम-संघ किस प्रकार मजदूरी के स्तर में वृद्धि करने में सहायता करते हैं ? इस संदर्भ में श्रमिक संघों की सीमाओं की भी विवेचना कीजिये।

How do the trade unions help in raising the level of wages ? Also discuss the limitations of trade uniu.ls in this respect.

7. जटरी श्रम की माँग तथा पूर्ति से निर्धारित होती है। उदाहरण देकर स्पष्ट कीजिये।

care determined by the demand for labour and supply of labour.’Explain with example.

Business Economics Wages

लघु उत्तरीय प्रश्न

(Short Answer Questions)

उत्तर 100 से 120 शब्दों के बीच होना चाहिये।

The answer should be between 100 to 120 words.

1 नकद मजदूरी और वास्तविक मजदूरी में अन्तर बताइये।

Distinguish between nominal wages and real wages.

2. वास्तविक मजदूरी को निर्धारित करने वाले तत्व बताइये।

Discuss the factors determining real wages.

3. किसी कारखाने में श्रम की पूर्ति को प्रभावित करने वाले तत्व कौन-कौन से हैं ?

What are the factors affecting the labour supply in a factory.

4. कार्य-आराम अनुपात क्या है ? यह श्रम की पूर्ति को कैसे प्रभावित करता है ?

What is work-leisure ratio ? How it affects the supply of labour ?

5. सामूहिक सौदेबाजी क्या है ? मजदूरी के निर्धारण में यह कहाँ तक प्रभावी रहती है ?

What is collective bargaining ? How does it affect the wage determination ?

6. श्रमिक संघ किस प्रकार मजदूरी के स्तर में वृद्धि कराने में सहायता करते हैं ?

How do the trade unions help in raising the level of wages?

7. क्रेता-एकाधिकार के अन्तर्गत मजदूरी-निर्धारण कैसे होता है ?

How wages are determined under monopsony ?

8. द्विपक्षीय एकाधिकार क्या है ? यह मजदूरी निर्धारण को किस प्रकार प्रभावित करता है ?

What is bilateral monopoly? How does it affect wage determination ?

9. क्रयाधिकारात्मक शोषण क्या है ? रेखाचित्र की सहायता से स्पष्ट करो।

What is monopsonistic exploitation ? Explain with the help of a diagram.

10. श्रम-संघ श्रमिकों की मजदूरी वृद्धि कराने में कैसे सहायक हो सकते हैं ?

How can trade unions be helpful in increasing the wages of labour ?

Business Economics Wages

III. अति लघु उत्तरीय प्रश्न

(Very Short Answer Questions)

(अ) एक शब्द या एक पंक्ति में उत्तर दीजिये।

Answer in one word or in one line.

1 वास्तविक मजदूरी क्या है ?

What is real wages?

2. सीमान्त मजदूरी क्या है ?

What is marginal wages?

3. पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत सीमान्त मजदूरी और औसत मजदूरी के बीच सम्बन्ध बतलाइये।

Point out the relationship between marginal wages and average wages under perfect competition.

4. मजदूरी दर में वृद्धि पर प्रतिस्थापन प्रभाव और आय प्रभाव की प्रकति बतलाइये।

Point out the nature of substitution effect and income effect on increase in wage rates.

5. मजदूरी-दर में गिरावट की सीमा क्या हो सकती है ?

What can be the limit of fall in wage rate ?

6. औसत आगम उत्पादकता और औसत मजदूरी का अन्तर क्या है ?

What is the difference of average revenue productivity and average wages.

7. औसत आगम उत्पादकता – सीमान्त आगम उत्पादकता – औसत मजदूरी = ?

ARP – MRP – AW = ?

उत्तर : क्रयाधिकारी शोषण (Monopsonistic exploitation)]

8. श्रम-संघ श्रमिकों की सीमान्त उत्पादकता में वृद्धि लाने में कैसे सहायक हो सकते हैं ?

How can trade unions be helpful in raising the marginal productivity of labour?

9. श्रम का व्यावसायिक विवर्तन क्या है ?

What is occupational shift of labour ?

10. कार्य-आराम अनुपात क्या है ?

What is work-leisure ratio ?

11. बतलाइये कि सामूहिक सौदेबाजी अथवा श्रम-संघवाद अपूर्ण प्रतियोगिता में प्रभावशाली होता है या अप्रभावशाली।

State whether collective bargaining or trade unionism is effective or ineffective in imperfect competition.

उत्तर : प्रभावशाली (effective)] (ब) बतलाइये कि क्या निम्नलिखित कथन सत्य हैं या असत्य।

 

Business Economics Wages

chetansati

Admin

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