BCom 1st Year India Current Business Environment Background Global Financial Economic Basic notes in Hindi

//

BCom 1st Year India Current Business Environment Background Global Financial Economic Basic notes in Hindi

BCom 1st Year India Current Business Environment Background Global Financial Economic Basic notes in Hindi : Genesis of the Global Financial and Economic Crisis Global Crisis Effect of india Challenges of Crisis and Steps taken by india Examination Questions Long Answer Questions Short Answer Questions Important Notes :

Background Global Financial Economic
Background Global Financial Economic

BCom 1st Year Business Environment Allocation Resources Study Material Notes in hindi

वर्तमान वैश्विक वित्तीय एवं आर्थिक संकट की पृष्ठभूमि में भारत का मौजूदा व्यावसायिक पर्यावरण

[INDIA’S CURRENT BUSINESS ENVIRONMENT IN THE BACKGROUND OF PRESENT GLOBAL FINANCIAL AND ECONOMIC BASIS]

मौजूदा वैश्विक आर्थिक संकट का उदभव

(GENESIS OF THE GLOBAL FINANCIAL AND ECONOMIC CRISIS)

वैश्विक अर्थव्यवस्था 2008 के मध्य से वैश्विक संकट के दौर से गुजर रही है। यह स्थिति अगस्त 2007 से अमरीकी सब-प्राइम बाजार में पहले-पहल उभरी। यह सितम्बर 2008 में शिखर पर पहुंची जब वाल स्ट्रीट (Wall Street) की वित्तीय संस्थाओं ने एक-दूसरे को उधार देना प्रायः बन्द कर दिया। इससे साख बाजार का काम-काज प्रायः ठप पड़ गया। भरोसा उठ जाने के कारण परिसम्पत्ति तथा वस्तुओं की कीमतों में ह्रास होने लगा। इसकी वजह से प्रारंभ में विकसित देशों में आय घटने लगी, मांग और व्यापार तथा पूंजी का प्रवाह छोटा पड़ने लगा तथा बेरोजगारी में वृद्धि होने लगी। यद्यपि वैश्विक संकट का केन्द्र-बिन्दु विकसित देश थे, फिर भी भारत जैसे उदीयमान देशों पर भी इसका काफी प्रभाव पड़ा। सितम्बर 2008 में लेहमान ब्रादर्स के दिवालिया होने के पश्चात् विकासशील देश इस संकट की चपेट में आ गये। वित्तीय, व्यापारिक एवं भरोसा के माध्यम (channels) से संकट की छूत अन्य देशों में फैल गयी। इस प्रकार, अगस्त 2007 में जो संकट अमरीका में भवन बाजार में सब-प्राइम कठिनाई के रूप में प्रारंभ हुआ, वह अन्ततः वैश्विक बैंकिंग संकट, वैश्विक वित्तीय संकट तथा वैश्विक आर्थिक संकट के रूप में बदल गया।

वैश्विक संकट के आने के पूर्व की अवधि में विकसित देशों में स्थिर दर से आर्थिक वृद्धि हो रही थी तथा मुद्रास्फीति की दर भी स्थायी थी, जबकि उदीयमान तथा विकासशील देशों में आर्थिक वृद्धि तथा विकास की गति तेज थी। समष्टि आर्थिक स्थिरता की इस दीर्घ अवधि को उन्मुक्त बाजार तथा सफल भूमंडलीकरण का परिणाम बताया गया, लेकिन इस ओर शायद ही ध्यान गया कि इस समृद्धि के पीछे जटिल वित्तीय व्यवस्था क्रिया कर रही थी, जो सरकारी विनियमन नीति (regulatory policy) के बाहर थी और इसलिए जोखिमपूर्ण थी। इनके अतिरिक्त समृद्धि की इस अवधि में बचत और निवेश, उत्पादन एवं उपभोग में असंतुलन के रूप में ढांचागत परिवर्तन हो रहे थे। ऐसे परिवर्तन अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के चालू खाते में विकसित देशों में घाटे तथा चीन जैसे उदीयमान देशों में अधिशेष (surplus), विनिमय दरों में बेमेल, निम्न ब्याज दर और निम्न परिसम्पत्ति कीमत के रूप में प्रकट हो रहे थे। इन्हें कभी तो समाप्त होना ही था। और इसका वैश्विक वित्तीय संकट के रूप समापन हुआ

जिस तेजी के साथ वित्तीय संकट अमरीका से यूरोप और तब शेष विश्व में फैल गया, उसने सम्पूर्ण दुनिया को गहरा धक्का पहुंचाया। यह सही है कि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में वित्तीय संकट हमेशा से आते ही रहे हैं, लेकिन अब यह स्वीकारा जाने लगा है कि वर्तमान वित्तीय संकट इतना गंभीर रहा है कि इसकी। तुलना 1930 के दशक की महान आर्थिक मन्दी के साथ ही गहराई, भौगोलिक विस्तार, तीव्रता तथा मियाद में की जा सकती है। भिन्न-भिन्न तीव्रता के साथ सभी देशों पर इस वैश्विक संकट का प्रभाव पड़ा।

हाल के वित्तीय संकट तथा बाद की मन्दी ने दो महत्त्वपूर्ण वाद-विवाद को पुनर्जीवित कर दिया है। एक का संबंध बाजार की प्रभावोत्पादकता से है, तो दूसरे का राज्य की भूमिका (केन्सीय नीति) से। इसने अर्थशास्त्र के लिए नई चुनौतियां खड़ी कर दी हैं। वर्तमान संकट ने आर्थिक विकास की प्रक्रिया में वित्त के महत्त्व पर भी प्रश्न चिह्न लगा दिया है क्या वित्त विकास का इंजिन है? बाजार की क्रिया के उत्थान तथा पतन की व्याख्या करने गैर-आर्थिक प्रेरणाओं की क्या भूमिका है? वर्तमान संकट ने चालू वैश्विक विनियम प्रणाली तथा पर्यवेक्षण (Supervision) के ढांचे तथा व्यापक विध्वंस के वित्तीय यंत्रों के महत्त्व पर भी फिर से विचार करने को विवश कर दिया है।

Business Environment Background Global

वैश्विक संकट का भारत पर प्रभाव

(GLOBAL CRISIS: EFFECT ON INDIA)

वैश्विक संकट के प्रकट होने तक, विश्व अर्थव्यवस्था की ही तरह, भारतीय अर्थव्यवस्था में भी तीव्र गति से आर्थिक वृद्धि हो रही थी, जिसका संचालन घरेलू मांग के द्वारा हो रहा था। घरेलू मांग में वृद्धि मुख्य रूप से घरेलू निवेश द्वारा हो रही थी, जिसका वित्त पोषण घरेलू बचत द्वारा ही प्रमुख रूप से हो रहा था। वस्तुतः उपभोग तथा बचत में अच्छा संतुलन बना हुआ था। घरेलू मांग द्वारा प्रेरित सेवा क्षेत्र आर्थिक वृद्धि की गति को स्थिर रखने में योगदान कर रहा था। मुद्रास्फीति की दर निम्न स्तर पर स्थिर बनी हुई थी। भारत की इस अच्छी आर्थिक स्थिति को वित्त क्षेत्र का सुधार सहायता पहुंचा रहा था, इनके अतिरिक्त, व्यापार तथा पूंजी प्रवाह के क्षेत्र में क्रमिक उदारीकरण तथा विनिमय दर के निर्धारण में बाजार की बढ़ती भूमिका ने वैश्वीकरण (globalisation) की प्रक्रिया को तेज कर दिया। फलतः भारत विश्व अर्थव्यवस्था के साथ ज्यादा-से-ज्यादा जुड़ता चला गया और वित्तीय स्थिरता को बनाए रखना सरकारी नीति का एक महत्त्वपूर्ण अंग बन गया। चालू संकट के पूर्व मौद्रिक नीति का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य था वित्तीय स्थिरता। इसने भी वैश्विक एकीकरण से भारत को लाभ पहुंचाया तथा वैश्विक संकट को देश अधिक अच्छी तरह झेल सका। फिर भी चालू संकट ने भारत को व्यापार, वित्त तथा विश्वास (Confidence) के माध्यम से प्रभावित कर ही दिया।

वैश्विक संकट के प्रारंभिक चरण में, भारतीय वित्तीय बाजार पर इस संकट का प्रभाव मन्द ही रहा। कारण यह था कि भारत के वित्तीय बाजार पर बैंक का प्रभुत्व था और बैंकिंग व्यवस्था का बैलेंस शीट क्रियाओं एवं तरलहीन परिसम्पत्ति से कम सरोकार था, जिसने विकसित देशों में संकट को जन्म दिया। किन्त, भारत इस संकट से अछूता नहीं रह सका। 2008-09 के द्वितीय अर्द्ध में वैश्विक संकट का असर भारत के वित्तीय एवं वस्तु (real) क्रियाओं पर पड़ा। भारत का वित्तीय बाजार-ईक्विटी बाजार, मुद्रा बाजार विदेशी विनिमय बाजार तथा साख बाजार प्रभावित हुआ और यह असर कई दिशाओं से पड़ा।

Business Environment Background Global

वैश्विक संकट की चुनौती तथा भारत द्वारा उठाये गए कदम

(CHALLENGES OF CRISIS AND STEPS TAKEN BY INDIA)

2003-04 से 2007-08 के 5 वर्षों की अवधि में भारतीय अर्थव्यवस्था की औसत वार्षिक वृद्धि दर 8.8 प्रतिशत रही। इसलिए आर्थिक सर्वेक्षण 2007-08, जो फरवरी 2008 में प्रकाशित हुआ, ने कहा कि अब कोई संदेह नहीं है कि भारतीय अर्थव्यवस्था आर्थिक वृद्धि के ऊंचे स्तर पर पहुंच गई है। लेकिन इस सर्वेक्षण में सावधान भी किया गया कि वृद्धि की इस ऊंची दर को बनाए रखने तथा दो अंकों की वृद्धि को प्राप्त करने में नई चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। आगे यह भी कहा गया कि विश्व अर्थव्यवस्था के साथ बढ़ते हुए वैश्वीकरण के कारण चनीतियां अधिक जटिल हो गई हैं, लेकिन केवल दस महीने के पश्चात ही वैश्विक वित्तीय संकट के आलोक में मध्यवर्षीय पुनरावलोकन (दिसम्बर 2008) में कहा गया कि 2008-09 में हमें 7 प्रतिशत वृद्धि के लिए प्रस्तुत रहना चाहिए।

2008-09 तथा 2009-10 में, आर्थिक सर्वेक्षण 2008-09 के अनुसार, भारतीय अर्थव्यवस्था के समक्ष प्रस्तुत चुनौतियां दो प्रकार की थीं:

(i) मौद्रिक तथा राजकोषीय नीतियों की अल्पकालिक समष्टि आर्थिक चुनौतियां तथा उच्च आर्थिक वृद्धि दर को मध्यम काल में प्राप्त करना। अल्पकालिक समस्या के अन्तर्गत निम्नलिखित आते हैं :

  • मुद्रास्फीति एवं वृद्धि के मध्य संतुलन स्थापित करना;
  • मौद्रिक नीति बनाम राजकोषीय नीति का उपयोग तथा
  • दोनों की सापेक्षिक प्रभावकारिता एवं समन्वयन।

(ii) अल्पकालिक एवं दीर्घकालिक राजकोषीय नीति के बीच का तनाव, मौद्रिक नीति की तात्कालिक दीर्घकालिक आवश्यकता एवं उच्च वृद्धि दर को प्राप्त करने के लिए आवश्यक नीति तथा संस्थागत सुधारों का संबंध दूसरी चुनौती से है।

अगस्त 2007 के आस-पास वैश्विक वित्तीय संकट उभर कर सामने आया। इसका प्रारंभिक प्रभाव अमरीकी वित्तीय संस्थाओं पर गहरे रूप में पड़ा, कुछ कम गंभीर रूप से यूरोपीय संस्थाओं पर पड़ा तथा और भी कम गंभीर रूप से उदीयमान (emerging) अर्थव्यवस्थाओं पर पड़ा। प्रारंभिक चरणों में उदीयमान देशों में विदेशी पूंजी का प्रवाह वस्तुतः बढ़ गया, जिसे धनात्मक धक्का (Positive shock) कहा गया। इसने विसंबंधन वाद-विवाद (Decoupling Debate) को जन्म दिया। भारत में सितम्बर 2007 से जनवरी 2008 के पांच महीनों की अवधि में 22.5 बिलियन डॉलर के विदेशी संस्थागत निवेश (FII) का अन्तप्रवाह देश में हुआ, जबकि अप्रैल-जुलाई 2007 के चार महीनों में यह प्रवाह केवल 11.8 बिलियन डॉलर का रहा था। तत्पश्चात् यह प्रवाह बहिर्प्रभाव (outflow) में बदल गया, जिसने संकट की सृष्टि की। भारत से फरवरी-जून 2008 में 15.8 बिलियन डॉलर की पूंजी बाहर चली गई।

सितम्बर 2008 में लेहमैन ब्रदर्स (Lehman Brothers) के पतन के पश्चात् वैश्विक वित्तीय बाजार का पूरा पतन हो गया। इससे विश्वास का संकट (Crisis of Confidence) का सृजन हुआ और उदीयमान देशों के लिए व्यापार का वित्तीय पोषण (trade financing) समाप्त हो गया। इसके साथ ही, वैश्विक मांग में कमी आ गयी तथा वस्तुओं की कीमतें घटने लगीं। परिणाम हुआ निर्यात का कम होना। इससे वित्तीय संकट वस्तु बाजार में पहुंच गया। जो देश निर्यात पर अधिक निर्भर करते थे तथा जिनकी आर्थिक वृद्धि दर निर्यात पर आधारित थी, उन्हें ज्यादा नुकसान हुआ, जैसे दक्षिणीपूर्वी एशिया के देश। भारत पर यह प्रभाव कम पड़ा, क्योंकि GDP में भारतीय निर्यात का योगदान कम मात्रा में है तथा भारत, जो महादेश के आकार है, में GDP में घरेलू मांग का हिस्सा ही प्रमुख है।

वित्तीय क्षेत्र को जिन आधारभूत नियमों का पालन करना चाहिए वे हैं—इस क्षेत्र को सुरक्षित रखो, नियमों को सरल रखो तथा जैसा वारेन बुफे ने कहा, व्यापक संहार के वित्तीय यंत्रों का निर्माण न करो। चंकि भारतीय रिजर्व बैंक इन नियमों का पालन करता आया, इसलिए भारतीय वित्तीय व्यवस्था पर वैश्विक संकट का कम प्रभाव पड़ा। किन्तु, GDP में निर्यात का हिस्सा कम होने पर भी भारतीय निर्यात में शुरू में 30 प्रतिशत का ह्रास हुआ तथा रुटीन लेन-देन के लिए भी वित्त के अन्तर्राष्ट्रीय वित्त का स्रोत सूख गया।

Business Environment Background Global

उठाए गए कदम

(Policy Response)

भारतीय अर्थव्यवस्था पर वैश्विक मन्दी के प्रतिकूल प्रभाव से निपटने के लिए, भारत सरकार ने कर टेकर मांग में वृद्धि करने के साथ-साथ सार्वजनिक योजनाओं पर अधिक व्यय करके रोजगार में वद्धि परिसम्पत्ति के सृजन का प्रयास किया। इसका परिभाषा यह हुआ कि राजकोषीय घाटा जो 2008-09 में GDP का 6.2 प्रतिशत हो गया। 2008-09 के 2007-08 में GDP का 2.7 प्रतिशत था, 2008-0017

बजट में लोक व्यय में कुछ वृद्धि छठे वेतन आयोग के एवार्ड को लागू करने तथा लघु कृषिकों को कृषि ऋण में माफी देने के कारण भी हुआ।

राजकोषीय प्रेरणाओं को लागू करने के क्रम में सरकार ने योजना व्यय में वृद्धि की केन्द्रीय क्षेत्र माजना व्यय के साथ-साथ राज्य तथा केन्द्र शासित प्रदेशों की योजनाओं के लिए दी जाने वाली केन्द्रीय सहायता में भी। इस रूप में योजना व्यय में GDP के करीब एक प्रतिशत की वृद्धि की गई। गैर योजना व्यय में वृद्धि GDP के लगभग 2.5 प्रतिशत हई, जिसे उर्वरक तथा खाद्यान्न सब्सिडी, कृषि कर्ज की माफी, प्रतिरक्षा, वेतन और पेन्शन पर खर्च किया गया। इनके अतिरिक्त सरकार ने दूर-संचार, विद्युत् उत्पादन, वाई अड्डा, बन्दरगाह. सड़क तथा रेलवे जैसे इन्फ्रास्ट्रक्चर पर खर्च में भी वृद्धि का।

भारतीय रिजर्व बैंक ने भी तरलता में वृद्धि करने के लिए कई उपाय किये, जैसे, नकद रिजर्व अनुपात (CRR), वैधानिक तरलता अनुपात तथा मुख्य नीति संबंधी दरों में कमी। इनका उद्देश्य यह था कि वित्तीय सस्थाओं से फंड का प्रवाह उत्पादक क्षेत्रों की आवश्यकताओं को पूरा करने में हो। वैश्विक संकट की गंभीरता तथा विस्तार एवं अनिश्चितता को देखते हुए मौद्रिक नीति के पूरक के रूप राजकोषीय नीति का उपयोग किया गया तथा दोनों के मध्य पर्याप्त समन्वय की स्थापना की गई. ताकि वे दोनों एक-दूसरे के विपरीत क्रिया न करें।

भारत सरकार ने निर्यात क्षेत्र पर वैश्विक मन्दी के प्रभाव के मद्देनजर कुछ विशेष उपायों की घोषणा भी की, जैसे, श्रम प्रधान निर्यातों के लिए निर्यात साख का विस्तार, लदान के पूर्व तथा पश्चात् साख की उपलब्धता, केन्द्रीय उत्पाद/केन्द्रीय बिक्री कर की वापसी के लिए अतिरिक्त निधि का आबंटन, निर्यात प्रेरणा प्रदान के लिए स्कीम तथा कुछ वस्तुओं पर लगे निर्यात शुल्क तथा निर्यात प्रतिबन्ध को समाप्त किया गया।

इस वर्ष रबी की अच्छी फसल हुई। फलत: 2008-09 में कृषि उत्पादन की दर में 1.6 प्रतिशत की वृद्धि हुई, 2007-08 में कृषि उत्पादन की वृद्धि दर 5 प्रतिशत रही थी।

2008-09 में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश में 2007-08 की अपेक्षा अधिक वृद्धि हुई-2007-08 में 15.9 बिलियन डॉलर की तुलना में 2008-09 में 17.5 बिलियन डॉलर। 2009-10 में 19.7 बिलियन अमरीकी डॉलर का FDI भारत में आया। इसके विपरीत विदेशी पोर्टफोलियो निवेश जो 2007-08 में 27.4 बिलियन डॉलर का था, 2008-09 में 15.0 बिलियन डॉलर भारत से बाहर चला गया, लेकिन 2009-10 में भारत में 29.0 बिलियन डॉलर का पोर्टफोलियो निवेश हुआ।

Business Environment Background Global

वर्तमान स्थिति

वर्ष 2005-06 तथा 2007-08 के बीच लगातार तीन वर्षों तक 9 प्रतिशत से अधिक की अभूतपूर्व विकास दर प्राप्त करने तथा 2008-09 के वैश्विक वित्तीय संकट से तेजी से उबरने के पश्चात्, आज भारतीय अर्थव्यवस्था चुनौतीपूर्ण दौर से गुजर रही है जिसकी परिणति 2012-13 स्थिर कीमतों पर उपादान लागत पर स.घ.उ. के विकास दर के 5.1% पहुंचने के रूप में हुई। इसके पूर्व लगातार दो वर्षों तक 5% से कम की सकल घरेलू उत्पाद विकास दर, अंतिम बार पहले 1986-87 तथा 1987-88 में देखी गयी थी। वर्ष 2013-14 तथा 2014-15 में थोड़ा सुधार आया तथा यह आंकड़ा क्रमश: 6.9 प्रतिशत एवं 7.5 प्रतिशत रहा। यह विकास दर (2015-16) बढ़कर 8.0% के स्तर पर पहुंच गयी। वर्ष 2016-17 में यह वृद्धि दर 7.3% रही। वैश्विक अर्थव्यवस्था में सामान्य गिरावट और पूरे क्षेत्र में व्याप्त संकटों से उत्पन्न वैश्विक संभावनाओं से बनी निरंतर अनिश्चितता के साथ-साथ घरेलू संरचनागत रुकावटों और स्फीतिकारी दबाबों के कारण, मंदी की स्थिति लम्बे समय तक रही। भारत की विकास दर 2004-05 से 2011-12 के दौरान 8.3 प्रतिशत के औसत से गिरकर 2012-13 में 5.1% पर पहुंच गई। जबकि वर्ष 2013-14 व 2014-15 में 6.9% एवं 7.5% रही। इसी अवधि में चीन सहित उभरते बाजारा तथा विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में औसत विकास दर 6.8% से गिरकर 100% तक रह गई। जो बात चिताजनक है, वह है, विनिर्माण विकास में गिरावट जो 2012-13 तथा 2013-14 में औसतन 0.2 प्रतिशत वार्षिक रही।

उल्लेखनीय है कि वर्ष 2012-13 में जी. डी. पी. में 5.5% की निम्न वृद्धि से अगले तीन वर्षों तक लगातार सुधार हुआ और 2015-16 में यह शिखर पर (8%) पहंच गई। वर्ष 2016-17 की प्रथम तिमाही से वृद्धि में कमी आने लगी। 2016-17 की चौथी तिमाही में जी. डी. पी. और जी. वी. ए. में वृद्धि कम होकर क्रमश: 6.1% तथा 5.6% रह गई। प्रथम अग्रिम अनुमानों के अन्तर्गत 2017-18 में जीडीपी में वद्धि 6.5% होने की आशा है, जबकि आधार कीमतों पर वास्तविक जीवीए में 6.1 प्रतिशत होने की आशा है।

विनिर्माण विकास दर में 2014-15 में सुधार हुआ और यह वर्ष 2014-15 में 8.3% तथा 2015-16 में 10.8% तक पहुंच गई। वर्ष 2016-17 में इस क्षेत्र की विकास दर 7.9% रही।

वर्ष 2015-16 में थोक कीमत सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति (-)3.7 तथा 2016-17 में 1.7% हो गयी।

मुद्रास्फीति विकास दर में गिरावट के अतिरिक्त, लगातार अन्य महत्वपूर्ण चुनौतियां खड़ी करती रही है। यद्यपि औसत थोक मूल्य सूचकांक (WPI) मुद्रास्फीति 2011-12 में 8.9% और 2012-13 के 6.9 प्रतिशत की तुलना में 2013-14 में गिरकर 5.2 प्रतिशत तथा वर्ष 2014-15 में 1.2 प्रतिशत तक हो गया।

वर्ष 2015-16 में थोक कीमत सुचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति (-)3.7 तथा 2016-17 में 1.7% हो गयी।

इस तरह, यद्यपि मुद्रास्फीति कम हो गई है, परन्तु अभी भी संतोषजनक स्तर पर नहीं पहुंची है। खाद्य वस्तुओं की मुद्रास्फीति अभी भी खाद्य भिन्न वस्तुओं की तुलना में ऊंची बनी हुई है।

वैदेशिक क्षेत्र में 2013-14 की पहली तिमाही के बाद सुधार हुआ। 2012-13 में (-) 32.29 बिलियन डॉलर, की अपेक्षा 2016-17 में चालू खाता घाटा (-) 15.296 बिलियन डॉलर रहा। 28 अगस्त 2013 को रुपया एक अमेरिकी डॉलर के मुकाबले तेजी से गिरकर 68.36 ₹ हो जाने के पश्चात धीरे-धीरे मजबूत हुआ

और सरकार तथा भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा किए गए उपायों के चलते, 2016-17 में औसत विनिमय दर प्रति अमेरिकी डॉलर 67.072 ₹ थी।

विदेशी मुद्रा भण्डार जो सितम्बर 2013 के प्रारंभ में 275 बिलियन अमेरिकी डॉलर था, वह बढ़कर 2 फरवरी, 2018 को 421.915 बिलियन डॉलर हो गया। विदेशी मोर्चे पर हुए इन घटनाक्रमों से कुछ आशा जाग्रत हुई कि भारतीय अर्थव्यवस्था संयुक्त राज्य अमेरिका में नगदी की मात्रात्मक सुलभता सहित वैश्विक नीति की चुनौतियों का सामना करने के लिए अच्छी तरह से तैयार है।

राजकोषीय पक्ष पर भी सुधार देखा गया है, जहां राजकोषीय घाटा 2011-12 के स.घ.उ. के 5.7 प्रतिशत से घटकर 2012-13 में 4.8 प्रतिशत, 2013-14 में 4.5 प्रतिशत, 2014-15 में 4.1 प्रतिशत, 2016-17 में 3.5% तथा 2018-19 में 3.3% हो गया। इस तरह, राजकोषीय एवं चालू खातों में सुधार वृहत् आर्थिक स्थिरीकरण के लिए शुभ लक्षण हैं।

अर्थशास्त्रियों की धारणा है कि 2010-11 के पश्चात् आर्थिक वृद्धि की दर में कमी के लिए निम्न कारक भी जिम्मेवार रहे :

  • शासन (governance) की त्रुटियां, जैसे, निर्णय लेने की क्षमता का अभाव, आर्थिक सुधारों की दिशा में गतिहीनता, इन्फ्रास्ट्रक्चर लक्ष्यों का पूरा न होना, भ्रष्टाचार, खाद्यान्न की ऊंची कीमतें, बजट से बाहर लोक व्यय, खाद्य प्रबन्धन का अभाव, श्रम सुधार की दिशा में प्रगति का अभाव, FDI के उदारीकरण का बाकी बोझ, भूमि आबंटन में भ्रष्टाचार, आदि।
  • अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर वस्तुओं की ऊंची कीमत:
  • आर्थिक सुधारों के क्षेत्र में गतिहीनता;
  • उधार की लागत में वृद्धि
  • मुद्रास्फीति
  • राजकोषीय घाटा:
  • निम्न कृषि उत्पादन।

उपर्यक्त कारणों से अगले वर्षों में भारतीय आर्थिक विकास की दर के घटने की आशा की जा सकती भषि तथा खाद्य नीतियों के विषय में निम्न कमियों की ओर ध्यान जाता है।

  • न्यूनतम सहायता कीमतों के संबंध में;
  • टेक्नोलॉजी के हस्तान्तर की
  • दोषपूर्ण संस्थागत व्यवस्था;
  • शोध, बीज तथा इनपुट के लाभ किसानों को सही ढंग से नहीं पहुंचते हैं।
  • विस्तार यांत्रिकी (Extension machinery) पूर्ण रूप से ध्वस्त हो गयी है; बड़े किसानों को प्रवेश प्राप्त है, किन्तु छोटे किसानों को नहीं; छोटे किसानों को दी जाने वाली साख का 50 प्रतिशत भी उन्हें मिलता है।
  • समष्टि-कृषि नीति, क्षेत्र-विशेष कृषि नीति तथा जल प्रबन्धन, आदि ऐसे लक्ष्य हैं, जिन्हें तुरंत प्राप्त नहीं किया जा सकता है या राजनीतिक इच्छा शक्ति के बिना प्राप्त नहीं हो सकते हैं।

गैर-खाद्य अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में निम्न पर विचार करने की जरूरत है :

(1) इन्फ्रास्ट्रक्चर के लक्ष्य को पूरा करना मुश्किल प्रतीत होता है, क्योंकि ऐसी परियोजना को पूरा करने में काफी विलम्ब होता है। सड़क का उदाहरण लें। किसी सड़क परियोजना को विकासक (developer) को एवार्ड करने के बाद पूरा करने में 3 वर्ष से अधिक समय लग जाता है, इससे लागत काफी बढ़ जाती है, क्योंकि इन्हें भूमि अधिग्रहण तथा पर्यावरण की समस्याओं का सामना करना पड़ता है।

(2) वर्तमान सदी में आर्थिक वृद्धि की ऊंची दर औद्योगिक एवं सेवा क्षेत्र के अच्छे निष्पादन (performance) के कारण रही। लेकिन चिन्ता का विषय यह है कि अभी दोनों ही क्षेत्रों का निष्पादन आशा से कम है। इसमें सुधार की अभी उम्मीद भी नहीं दिखती है निम्न कारणों से :

  • ब्याज दरों में बार-बार वृद्धि
  • मुद्रास्फीति पर लगाम लगाने में असफलता
  • 2010 में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश में ह्रास (मात्र 19 बिलियन डॉलर), जबकि चीन में FDI का अन्तप्रवाह 100 बिलियन डॉलर से भी अधिक;
  • निवेश-संबंधी मनोभाव (Sentiment) का आशावादी न होना;
  • भ्रष्टाचार सम्बन्धी घटनाओं में लगातार वृद्धि । इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं, स्पेक्ट्रम के आबंटनतथा भूमि के अधिग्रहण एवं आबंटन में एक के बाद एक जो घोटाले सामने आ रहे हैं, वे देश की आर्थिक वृद्धि के लिए निश्चित रूप से नुकसानदेह हैं, क्योंकि वे निवेश को हतोत्साहित करने वाले हैं।

    Business Environment Background Global

(3) शासन (Governance) के क्षेत्र में त्रुटि कई रूपों में सामने आ रही है, वस्तुतः, जैसा ऊपर बताया गया, यह अर्थव्यवस्था के हर पहलू को प्रभावित कर रही है।

1990 के दशक के प्रारंभ में उदारीकरण की नीति को अपनाने के पश्चात् भारतीय अर्थव्यवस्था में कायापलट देखा जा सकता है। यह परिवर्तन आकांक्षाओं तथा क्षमता (capabilities) के विस्तार में देखा जा सकता है, आर्थिक क्रियाओं में सरकारी हस्तक्षेप में कमी के रूप में देखा जा सकता है और देखा जा सकता है व्यक्तिगत प्रेरणाओं (individual initiatives) में व्यापक विस्तार के रूप में। 2010 के अन्तिम चरण में अमरीकी राष्ट्रपति, बराक ओबामा, ने भारत का दौरा किया तथा इस दौरे के बीच में भारत के विश्व मंच पर पहुंचने की प्रशंसा की। किन्तु, ऐसा कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि कुछ ही सप्ताहों के अन्दर ही यह स्थिति बदल गयी। रतन टाटा ने कहा भारत ‘बनाना रिपब्लिक’ (Banana Republic) की राह पर शीघ्र ही जा सकता है। ऐसा भय क्यों सताने लगा है?

Business Environment Background Global

जयतीर्थ राव’ का कहना है कि व्यवसाय दो प्रकार के होते हैं : प्रतिस्पर्धात्मक (competitive) तथा सुखकर (cosy)| 1991 से 2000 तक के उदारीकरण की अवधि में सम्पत्ति का सुजन IT. खदरा तथा मोटर जैसे प्रतिस्पर्धात्मक उद्योगों में हुआ। किन्तु, 2000 के बाद सम्पत्ति का सृजन कोजी उद्योगों में होने लगा. जिनके चालक दिल्ली सरकार के शासक थे। ऐसे उद्योगों में निष्कर्षित (निकालने वाले—extractive) व्यवसाय कच्चा लोहा, गैस, बाक्साइट) या भूसम्पत्ति (जहां भूमि के एक उपयोग में अरबों ₹ बनाये जा सकते है) या लोक निर्माण (जैसे, सड़के, राजमार्ग, आदि) या विशेष आर्थिक क्षेत्र (SEZ) या दर संचार

नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री स्टिगलर (Stigler) ‘विनियमन द्वारा हथियाना’ (Regulatory capture) नामक विचार के जन्मदाता हैं। उनका कहना है कि विनियमित (regulated) उद्योगों (जैसे, रेल । में कार्य करने वाली कम्पनियां विनियामकों को राजी करा लेती हैं ऐसे नियमों को बनाने के लिए, जिनसे उन्हें लाभ प्राप्त हो, न कि उपभोक्ता या देश-समाज को। विनियामक (regulator) ही कम्पनी की तरफ से लाबी (lobby) करते हुए देखे जा सकते हैं, जो अनैतिक होने के साथ-साथ आर्थिक दृष्टि से कार्यक्षम (efficient) नहीं हैं। यह क्रोनी (crony) पूंजीवाद है, एक ऐसी व्यवस्था है जहां शासक अपने परम मित्रों को ही रोजगार देते हैं। रघुराम राजन (अपनी नवीनतम पुस्तक, ‘Fault Lines’ में), पत्रिका, The Economist तथा Newsweek, का कहना है कि क्रोनी पूंजीवाद (Crony Capitalism) भारत के आर्थिक विकास के लिए सबसे बड़ा खतरा बन गया है। रघुराम राजन का कहना है कि आज भारत के नए अरबपति पारम्परिक उद्योगों जैसे विनिर्माण, सूचना प्रौद्योगिकी (IT) या वित्त व्यवसाय के माध्यम से नहीं आये हैं. बल्कि इन्फ्रास्ट्रक्चर, भूसम्पत्ति तथा खनन (mining) जैसे व्यवसाय के माध्यम से जहां राज्य तथा राजनेता अव भी स्वेच्छाचारी हैं।’

आज के उदारीकरण के युग में भी राजनेताओं तथा उच्च अधिकारियों के पास अत्यधिक विवेकाधीन (discretionary) शक्तियां हैं। इन्हीं के माध्यम से, ऐसा लगता है कि, लाइसेन्स राज फिर से वापस आ रहा है। इसने निवेश के वातावरण को दूषित कर दिया है। कौन भारत में निवेश करना चाहेगा, जबकि बड़ी-बड़ी परियोजनाओं पर हजारों करोड़ खर्च करने के बाद उन्हें रोकने को कहा जाता है। HDFC के अध्यक्ष, दीपक पारिख, का लवासा के विषय में कहना है कि यहां HCC (Hindustan Construction Corporation) ने बहुत ही अच्छा काम किया है तथा इतना कार्य सरकार की अनुमति के बिना संभव नहीं था, लेकिन अब उसे काम बन्द करने को कहा जाता है तथा इस स्थल को 2003/2004 की स्थिति में लाने के लिए कहा जाता है। ऐसे अनेक उदाहरण हैं। इसलिए भारत के अधिकांश बड़े तथा सुयोग्य साहसी (entrepreneurs) विदेश की ओर मुड़ रहे हैं तथा विदेशों में निवेश कर रहे है। टाटा के कुल व्यवसाय का 60 प्रतिशत बाहरी देशों में हो रहा है। मुकेश अम्बानी ने 12 बिलियन डॉलर का निवेश अगले दस वर्षों में अमरीका में करने का कान्ट्रैक्ट किया है। आदित्य बिड़ला, आनन्द महेन्द्र, इसार, भारती. आदि सभी विदेशों की ओर मुड़ गये हैं। यह भारतीय व्यवसायियों का वैश्वीकरण नहीं है। पारम्परिक व्यवसायियों का पलायन है। इनकी जगह क्रोनी पूंजीवाद के नये अरबपति ले रहे हैं, जो आज शासक के परम मित्र हैं। इससे पिछले द्वार से लाइसेन्स राज वापस आ रहा है तथा सुधार की प्रक्रिया कन्द हो गयी है। भ्रष्टाचार का बोलबाला है। व्यवसाय करने के लिए स्वीकृति मिलने में देर ही नहीं होती है, अपितु बिना घूस दिए स्वीकृति मिलती ही नहीं है।

क्या यह निष्कर्ष निकाला जाय कि भारत के विकास की कहानी आगे अन्धकारपूर्ण है ? ऐसा निराशावादी निष्कर्ष उपयुक्त नहीं होगा। विकास के मूल तत्त्व (fundamentals) मजबूत है। भारत का प्रजातंत्र जागरूक है। अतः उम्मीद यही करनी चाहिए भारत उपर्युक्त कठिनाइयों को हल कर लेगा। वर्तमान राजग सरकार की आर्थिक नीतियों के कारण अन्तर्राष्ट्रीय वातावरण भारत के लिए उत्साहवर्धक है। विदेशी पूंजी निवेश जो देश में विगत वर्षों में अपेक्षाकृत कम उत्साहित एवं गतिमान था उसमें पर्याप्त वृद्धि की सम्भावना है। सरकार की आर्थिक विकास की आकांक्षा, भ्रष्टाचार पर नियन्त्रण एवं उद्यमियों के लिए उत्पन्न किए जा रहे सकारात्मक वातावरण से देश के आर्थिक विकास की दर को पुनः उच्च स्तर पर पहुंचने की सम्भावना बलवती हुई है।

Business Environment Background Global

प्रश्न

1 वैश्विक वित्तीय संकट ने भारत को किस प्रकार प्रभावित किया? इससे निबटने के लिए क्या कदम उठाए गए?

2. क्या भारत का वर्तमान व्यावसायिक पर्यावरण निराशाजनक है? प्रकाश डालें।

3. भारत का आन्तरिक व्यावसायिक पर्यावरण किन कारणों से चिन्ताजनक हो गया है? विवेचना करें। 1 Shekhar Gupta, Indian Express, December 11, p. 12.

Business Environment Background Global

chetansati

Admin

https://gurujionlinestudy.com

Leave a Reply

Your email address will not be published.

Previous Story

BCom 1st Year Business Environment Allocation Resources Study Material Notes in hindi

Next Story

BCom 2nd Year Income Tax Law Accounts Study Material Notes in Hindi

Latest from BCom 1st year Business Environment Notes