BCom 1st Year Business Environment Foreign Capital India Study Material Notes in Hindi  

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BCom 1st Year Business Environment Foreign Capital India Study Material Notes in Hindi

Table of Contents

BCom 1st Year Business Environment Foreign Capital India Study Material Notes in Hindi:  Meaning of Foreign Capital Types of Foreign Investment Needs of Feign Capital Investment Disadvantage of Foreign Capital Investment  Present policy of foreign Direct Investment Liberalization of Foreign investment policy FDI in India Foreign Portfolio Investment Examination Question Long Answer Questions Short Answer Questions :

Foreign Capital India
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BCom 1st Year Business Environment Devaluations Study material Notes in Hindi

भारत में विदेशी पूंजी

[FOREIGN CAPITAL IN INDIA)

विदेशी निवेश अथवा विदेशी पूंजी से अर्थ

(MEANING OF FOREIGN CAPITAL)

विदेशी निवेश से अर्थ किसी उद्योग में विदेशी सरकार, संस्था या समुदाय द्वारा पूंजी के लगाये जाने से है। यह पूंजी विदेशी मुद्रा, विदेशी मशीनों व विदेशी तकनीकी ज्ञान के आधार पर लगायी जा सकती है जिसका स्वरूप पूंजी में हिस्सा बँटाना (Capital Participation), विदेशी सहयोग (Foreign Collaboration) व विदेशी मुद्रा में ऋण (Loans in Foreign Currency), आदि हो सकता है, लेकिन कुछ विदेशी संस्थाएँ या सरकारें ऋणों के साथ-साथ कुछ अनुदान (Grant) भी देती हैं जिसको वे वापस नहीं लेती हैं। यह अनुदान विदेशी सहायता (Foreign Assistance) कहलाता है। यह सहायता वर्गीकृत व अवर्गीकृत (Project aid and non-project aid) दोनों प्रकार की होती है। वर्गीकृत सहायता किसी विशेष परियोजना के लिए होती है उसको उसी परियोजना पर व्यय करना पड़ता है, जबकि अवर्गीकृत सहायता किसी भी परियोजना के लिए काम में लायी जा सकती है।

आजकल ‘विदेशी निवेश’ के स्थान पर विदेशी सहायता’ शब्द अधिक प्रचलित है। अतः इसका अर्थ भी अधिक व्यापक हो गया है। वर्तमान में विदेशी सहायता शब्द में विदेशी पूंजी, विदेशी ऋण, विदेशी अनुदान, आदि सभी शामिल हैं।

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विदेशी निवेश के प्रकार

(TYPES OF FOREIGN INVESTMENT)

विदेशी निवेश तीन प्रकार के होते हैं—(1) प्रत्यक्ष विदेशी निवेश, (2) एक सरकार से दूसरी सरकार को ऋण, (3) अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा ऋण ।

(1) प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (Direct Foreign Investment)—यह विनियोग एक देश की निजी विदेशी संस्थाओं द्वारा दूसरे देश की निजी या सार्वजनिक संस्थाओं में किया जाता है। इस विनियोग का दूसरा नाम विदेशी उद्यमी विनियोग भी है। प्रत्यक्ष निजी विदेशी विनियोग दो प्रकार का होता है : (i) प्रत्यक्ष विदेशी विनियोग व (ii) पोर्टफोलियो विनियोग (Portfolio Investment)| प्रत्यक्ष विदेशी विनियोग में विदेशी पूंजीपतियों का कम्पनियों पर स्वामित्व के साथ-साथ प्रबन्धकीय नियन्त्रण भी रहता है। इसके विपरीत, पोर्टफोलियो स्वामित्व में प्रभुत्व एवं नियन्त्रण विदेशी पूंजीपतियों का नहीं रहता है, बल्कि प्रभुत्व एवं नियन्त्रण उस देश पर ही छोड़ देते हैं जिस देश में कम्पनी स्थापित हुई है। इस प्रकार के विनियोग पर केवल ब्याज या निश्चित लाभांश की गारण्टी होती है। इस प्रकार ऐसे विनियोग में विनियोगकर्ता अपने ऊपर जोखिम नहीं लेते हैं और न प्रबन्ध पर ही नियन्त्रण रखते हैं।

(2) एक सरकार से दूसरी सरकार को ऋणविदेशी पूंजी लगाने का यह दूसरा तरीका है जिसमें एक देश की सरकार दूसरे देश की सरकार को ऋण प्रदान करती है। यह ऋण दो प्रकार के होते हैं : (i) उदार ऋण (Soft Loans) व (ii) अनुदार ऋण (Hard Loans)| उदार ऋण वे होते हैं जो लम्बी अवधि के लिए होते हैं तथा जिन पर व्याज की दर कम होती है। अनुदार ऋण अपेक्षाकृत अधिक ब्याज दर व सीमित अवधि के लिय़े होते हैं। यह ऋण भी दो प्रकार के होते हैं एक तो वे जो किसी विशेष कार्य के लिए दिये जाते है। दसरे जो किसी विशेष कार्य के लिए नहीं दिये जाते हैं जिन्हें क्रमशः प्रोजेक्ट ऋण (Project Loans) व गैर-प्रोजेक्ट । ऋण (Non-Project Loans) कहते हैं।

(3) अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा ऋणअन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा भी ऋणों के रूप में विदेशी पूंजी प्रदान की जाती है। यह संस्थाएँ हैं अन्तर्राष्ट्रीय वित्त निगम, अन्तर्राष्ट्रीय विकास संगठन, एशियाई विकास बैंक. आदि। इन संस्थाओं द्वारा ऋण निजी व सार्वजनिक दोनों प्रकार के क्षेत्रों को दिये जाते हैं।

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विदेशी पूंजी निवेश की आवश्यकता

(NEEDS OF FOREIGN CAPITAL INVESTMENT)

भारत अभी एक विकासशील देश है। यहाँ प्राकृतिक साधनों का उचित विदोहन नहीं हो पाया है। पूंजी का अभाव है। आन्तरिक बचतें कम हैं। तकनीकी ज्ञान भी अधिक उच्च प्रकार का नहीं है। व्यावसायिक जोखिम सहने की क्षमता कम है। पूंजीगत मशीनों का अभाव है। ऐसी स्थिति में यह उचित है कि विदेशी निवेश एवं सहायता प्राप्त की जाय। इस सम्बन्ध में निम्न तर्क प्रस्तुत किये जाते हैं :

(1) प्राकृतिक साधनों का उचित विदोहन विद्वानों का विचार है कि भारत में प्राकृतिक साधन पर्याप्त मात्रा में पाये जाते हैं, लेकिन पूंजी एवं तकनीकी ज्ञान के अभाव में उनका विदोहन नहीं हो पा रहा है। अतः यह उचित एवं आवश्यक है कि विदेशी पूंजी एवं सहायता के माध्यम से इन प्राकृतिक साधनों का समचित विदोहन एवं उपयोग किया जाय जिससे कि औद्योगीकरण की गति को तीव्र किया जा सके।

(2) विदेशी तकनीकी ज्ञान का लाभभारत के लिए विदेशी पूंजी एवं सहायता प्राप्त करना आवश्यक है जिससे कि देश में विदेशी तकनीक का लाभ उठाया जा सके। औद्योगिक कुशलता में वृद्धि की जा सके। देश की जनता को सस्ती एवं टिकाऊ वस्तुएँ उपलब्ध की जा सकें तथा निर्यात को भी बढ़ाया जा सके।

(3) बचतों एवं विनियोग को प्रोत्साहन विदेशी पूंजी एवं सहायता से देश में बचत एवं विनियोग प्रोत्साहित होते हैं। अतः इसकी देश में आवश्यकता है।

(4) बेरोजगारी में कमीविदेशी पूंजी एवं सहायता से उद्योग स्थापित होते हैं जिसमें हजारों व्यक्तियों को रोजगार मिलता है। इससे बेरोजगारी में कमी होती है।

(5) व्यावसायिक जोखिम में कमी आधारभूत एवं पूंजीगत उद्योगों की स्थापना में भारी पूंजी लगाने की आवश्यकता होती है। इसके साथ-साथ इन उद्योगों में भारी व्यावसायिक जोखिम भी होती है। विदेशी पूंजी एवं सहायता इस जोखिम में कमी करती है, क्योंकि ऐसे व्यवसाय की कुछ जोखिम विदेशी संस्थाओं पर टल जाती है।

(6) आधारभूत उद्योगों की स्थापना भारत में यद्यपि कुछ आधारभूत उद्योग स्थापित किये जा चुके हैं, लेकिन अभी भी ऐसे उद्योगों की स्थापना की आवश्यकता है, लेकिन यह उद्योग बिना भारी मात्रा में पूंजी को विनियोजित किये स्थापित नहीं किये जा सकते हैं। विदेशी पूंजी इनकी स्थापना में सहायता देती है। अतः इसकी भारत को आवश्यकता है।

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(7) भुगतानअसन्तुलन में सहायताभारत में पिछले कई दशकों से विदेशी व्यापार असन्तुलित है तथा नियोजन के कारण अभी भी आयात अधिक होने की सम्भावना है। ऐसी स्थिति में विदेशी सहायता एवं पूंजी भुगतान-असन्तुलन को कम करने में सहायक होती है। अतः इसकी अभी भी भारत में आवश्यकता है।

(8) आर्थिक नियोजन यद्यपि देश में नियोजन हेतु पर्याप्त साधन उपलब्ध हैं, लेकिन फिर भी आर्थिक नियोजन की सफलता के लिए विदेशी पूंजी एवं सहायता लेना उचित एवं आवश्यक है।

(9) आवश्यक वस्तुओं की पूर्ति विदेशी पूंजी व सहायता इसलिए भी आवश्यक है जिससे कि आवश्यक वस्तुओं के आयात बिना विदेशी मुद्रा कोष पर दबाव डाले किये जा सकें।

(10) मुद्रास्फीति की कम सम्भावना विदेशी पूंजी व सहायता के हित में एक तर्क यह भी दिया जाता है कि इससे मुद्रास्फीति या तो होती ही नहीं है या फिर कम मात्रा में होती है।

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विदेशी पूंजी निवेश से हानियाँ

(DISADVANTAGE OF FOREIGN CAPITAL INVESTMENT)

भारत में विदेशी पूंजी लगाने के सम्बन्ध में विद्वानों में एक राय नहीं है। कुछ विद्वानों का कहना है कि यह देश के हित में नहीं है और वे इस सम्बन्ध में निम्न तक रखते हैं जिन्हें विदेशी पूंजी निवेश एवं सहायता की हानियाँ या विदेशी पूंजी के खतरे भी कहते हैं :

(1) राजनीतिक पराधीनताविदेशी पूंजी एवं सहायता के विरुद्ध सबसे बड़ा आरोप राजनीतिक पराधीनता या हस्तक्षेप का लगाया जाता है और इस सम्बन्ध में कहा जाता है कि व्यापार के पीछे झण्डा चलता है (Flag Follows Trade)। इसका प्रमाण यह है कि भारत-पाकिस्तान संघर्ष के समय अमरीका ने भारत पर दबाव डाला था। विदेशी पूंजी व सहायता पर अत्यधिक निर्भरता से देश की सुरक्षा का भी संकट पैदा हो सकता है।

(2) स्वतन्त्र आर्थिक नीति अपनाने में कठिनाई विदेशी पूंजी एवं सहायता प्राप्त करने में दूसरी हानि या खतरा स्वतन्त्र आर्थिक नीति अपनाने में कठिनाई है। इसका कारण यह है कि विदेशी सहायता लेने से कर-नीति, औद्योगिक नीति व प्रशुल्क नीति को इस प्रकार अपनाना पड़ता है कि उससे विदेशी सहायता में कोई बाधा उत्पन्न न हो और वह निरन्तर मिलती रहे। इससे आर्थिक योजनाओं की प्राथमिकताओं को भी परिवर्तित करना पड़ जाता है। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री नानावती एवं अन्जीरिया का मत है कि “विदेशी सहायता ने भारत की आर्थिक नीतियों को परोक्ष रूप में प्रभावित किया है।”

(3) विदेशी निर्भरताविदेशी पूंजी एवं सहायता एक देश की विदेशों पर निर्भरता में वृद्धि करती है। इसका कारण कुछ विशेष शर्तों का पालन करना होता है। यह शर्ते भारी मशीनों एवं यन्त्रों का आयात, कच्चे माल का आयात, पक्के माल का निर्यात, तकनीकी ज्ञान, आदि के सम्बन्ध में हो सकती हैं। इन शर्तो के कारण विदेशी निर्भरता में वृद्धि होती है जो देश के हित में नहीं है।

(4) भुगतान के समय कठिनाइयाँ विदेशी पूंजी एवं सहायता से देश को लाभ होता है, लेकिन जब यह सहायता लौटानी होती है तो इसका अर्थव्यवस्था पर बुरा प्रभाव पड़ता है, विशेष रूप से उस समय जबकि सहायता अनुत्पादक कार्यों में व्यय की गयी है।

(5) आन्तरिक वित्तीय साधनों का अपर्याप्त विकास–विदेशी पूंजी एवं सहायता की सहायता प्राप्त होने से देश के अन्दर विद्यमान वित्तीय साधनों का पूर्ण विकास नहीं हो पाता है। भारत में कुछ विद्वानों का यह आरोप है कि यहाँ नियोजन काल की प्रारम्भिक व्यवस्थाओं में आन्तरिक बचतों की गति बहुत ही धीमी रही है जिसका कारण विदेशी पूंजी व सहायता का उपलब्ध होना रहा है।

(6) राष्ट्रीय उत्पादकों के लिए हानिकारक विदेशी सहायता से स्थापित उद्योगों के कारण राष्ट्रीय उत्पादकों को क्षति होती है और वे अपने क्षेत्र में प्रतियोगिता के कारण टिक नहीं पाते हैं। उनके लाभों में कमी होती है और कभी-कभी उनको हानि होने लगती है जिससे कि उनको अपना व्यवसाय बन्द करना पड़ता है। अतः विदेशी सहायता राष्ट्रीय हित में नहीं है।

(7) उच्च पदाधिकारियों की नियुक्ति में भेदभाव विदेशी सहायता से स्थापित उपकरणों के द्वारा यहाँ उच्च पदाधिकारियों की नियुक्ति में भेदभाव किया जाता है और वे महत्वपूर्ण एवं तकनीकी पदों पर अपने देश या किसी अन्य देश के व्यक्तियों को ही नियुक्त करते हैं। इससे देश में प्रशिक्षण देने एवं निपुण व्यक्तियों को देश सेवा के लिए तैयार करने में कठिनाई होती है।

(8) अव्यवस्थित विकासविदेशी पूंजी के बारे में कहा जाता है कि इससे देश का विकास व्यवस्थित रूप में नहीं होता है। विदेशी पूंजीपति केवल ऐसे उद्योगों में ही धन लगाते हैं जिनसे उनको लाभ मिलने की सम्भावनाएँ सबसे अधिक होती हैं। इस प्रकार देश में विकास व्यवस्थित ढंग से नहीं हो पाता है। सरकार को आर्थिक विकास के हित में ऐसे उद्योगों की अनुमति देनी पड़ती है।

(9) अनिश्चितता विदेशी सहायता एवं पूंजी के सम्बन्ध में यह भय सदा ही बना रहता है कि वह मोदी-सी विपत्ति आने पर देश से पलायन कर सकती है। विदेशी पूंजी किसी भी देश के आर्थिक सायी अंग नहीं बन सकती है। इसीलिए इसको समृद्धि काल का मित्र कहा जाता है।

(10) आर्थिक शक्ति का केन्द्रीकरणविदेशी पूंजी एवं सहायता से आर्थिक शक्ति का केन्द्रीकरण होता। है जो देश के हित में नहीं है।

(11) लाभों का निर्यातविदेशी पूंजी एवं सहायता के विरुद्ध एक तर्क यह दिया जाता है कि इसमें लाभों का निर्यात होता है। अतः यह देश के हित में नहीं है।

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निष्कर्ष विदेशी पूंजी एवं सहायता की देश को आवश्यकता है। इसलिए इसका उपयोग निश्चय ही किया जाना चाहिए, लेकिन इसको काम में लेने में कुछ दोष या हानियाँ या खतरे हैं जिनका उल्लेख उपर्यक्त पंक्तियों में किया गया है। अतः विदेशी पूंजी एवं सहायता का उपयोग करते समय उसके सम्बन्ध में आवश्यक सावधानी बरतनी चाहिए जिससे कि वह उचित नियन्त्रण में रहे, देश को हानि न पहुंचा सके और आर्थिक एवं राजनीतिक नीतियों पर कोई प्रभाव न डाल सके।

विदेशी पूंजी निवेश के सम्बन्ध में सरकारी नीति

भारत में स्वतन्त्रता-प्राप्ति से पूर्व विदेशी पूंजी निवेश के सम्बन्ध में कोई स्पष्ट नीति नहीं थी, लेकिन रेलों की स्थापना, विद्युत्-गृहों का निर्माण, चाय व कहवा के बगीचों की स्थापना, जूट एवं कोयला उद्योग की स्थापना एवं विकास, आदि में विदेशी पूंजी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। 6 अप्रैल, 1949 को तत्कालीन प्रधानमन्त्री पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने संविधान सभा में भारत की पहली औद्योगिक नीति की घोषणा की जिसमें कहा गया कि देश की औद्योगिक नीति के अन्तर्गत विदेशी एवं देशी उपक्रमों के बीच भेदभाव नहीं किया जायेगा। विदेशी विनियोजकों द्वारा लगायी गयी पूंजी पर प्राप्त होने वाले लाभों को अपने देश में भेजने के लिए सभी आवश्यक सुविधाएँ दी जायेंगी। जो विदेशी उपक्रम इस समय देश में चल रहे हैं उन पर सरकार कोई भी ऐसा प्रतिबन्ध नहीं लगायेगी जो भारतीय उपक्रम पर नहीं लगाया गया है। सरकार की इच्छा विदेशी उपक्रमों को किसी भी प्रकार की हानि पहुंचाने की नहीं है, लेकिन यदि किसी कारण से किसी भी विदेशी उपक्रम का राष्ट्रीयकरण किया गया तो विदेशी उद्योगपतियों को उचित एवं न्यायपूर्ण क्षतिपूर्ति की जायेगी। विदेशी पूंजी पर नियन्त्रण रखा जायेगा। इस नियन्त्रण का उद्देश्य उसका इस प्रकार उपयोग करना होगा कि देश के लिए उपयोगी सिद्ध हो सके। विदेशी उपक्रमों का नियन्त्रण भारतीय हाथों में होना चाहिए। धीरे-धीरे विदेशी विशेषज्ञों के द्वारा भारतीय कर्मचारियों को उचित प्रशिक्षण देने के लिए व्यवस्था की जायेगी।

1956 की औयोगिक नीति में 1949 का प्रधानमन्त्री का उपर्युक्त वक्तव्य अपनाया गया और कहा गया कि सरकार देशी व विदेशी प्रतिष्ठानों में कोई मतभेद नहीं बरतेगी। उन्हें लाभ व पूंजी ले जाने की छूट होगी, लेकिन यदि राष्ट्रीयकरण किया जायेगा तो उन्हें न्यायपूर्ण क्षतिपूर्ति दिया जायेगा।

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विदेशी प्रत्यक्ष निवेश के सम्बन्ध में वर्तमान नीति

(PRESENT POLICY FOR FOREIGN DIRECT INVESTMENT)

वर्ष 1991 के पश्चात् उदार औद्योगिक नीति अपनाने पर उद्योगों के निजीकरण (Privatization) के सन्दर्भ में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (FDI) का योगदान अत्यन्त महत्वपूर्ण रहा है। हाल के वर्षों में भारत के अनेक औद्योगिक क्षेत्रों के लिए विदेशी कम्पनियों को प्रत्यक्ष निवेश की अनुमति दी गई है। विदेशी कम्पनियां भारतीय कम्पनियों के साथ मिलकर संयुक्त रूप से अनेक औद्योगिक क्षेत्रों में संयुक्त निवेश के समझौते सम्पन्न करती हैं। कुछ दशक पहले तक भारतीय कम्पनियों की ईक्विटी-पूंजी में विदेशी कम्पनियों की भागीदारी कवल 40 प्रतिशत के आस-पास तक ही सीमित थी, जिसे अब विनिर्दिष्ट उद्योगों के लिए बढ़ाया जाता रहा है। औद्योगिक विकास को आगे बढ़ाने की दिशा में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (FDI) की अहम भूमिका को स्वाकार कर लिया गया है। आर्थिक विकास की ऊंची दर प्राप्त करने के उद्देश्य से विदेशी प्रत्यक्ष निवेश को आत्साहन देना सर्वोत्तम उपाय माना जाने लगा है। पिछले बीस वर्षों में निजी औद्योगिक क्षेत्रों में अनेक नए उद्योग इसी आधार पर स्थापित एवं विकसित किए गए हैं। इसने अनेक प्रकार की सुविधाएं देश के उद्योगों का प्रदान की है। जैसे—उन्नत प्रौद्योगिकी, विश्व स्तर की प्रबन्ध कुशलताएं, प्राकृतिक एवं मानवीय साधनों कअनुकूलतम उपयोग के अवसर, निर्यात के नए बाजारों की खोज तथा उत्पादित माल एवं सेवाओं के लिए अन्तराष्ट्रीय स्तर की गुणवत्ता, आदि। विदेशी प्रत्यक्ष निवेश के लिए उदारतापूर्वक प्रदान की गई सुविधाओं पशम उद्योगों के निजीकरण के लिए नए आयाम प्रदान किए हैं। ऐसे विनिर्धारित उद्योगों (जिनमें विदेशी पक्ष की पूंजी की भागीदारी 51 से 74 प्रतिशत से अधिक नहीं हो) के लिए स्वतः अनुमोदन (automatic-approval) प्रदान करने का प्रावधान किया गया है। विदेशी पक्ष की इससे अधिक भागीदारी क प्रस्तावों विदेशी निवेश प्रोत्साहन मण्डल (FIPM) द्वारा विचार किया जाता है। यह मण्डल 600 करोड़ र तक के प्रस्तावों पर विचार करके अपनी संस्तुति भारत सरकार के उद्योग मन्त्रालय को भेजता है तथा इस। पर स्वीकृति मन्त्रालय द्वारा दी जाती है। इससे अधिक राशि के विदेशी निवेश के प्रस्तावों पर मन्त्रिमण्डल की केबिनेट-कमेटी (CCFI) द्वारा विचार किया जाता है। इस समिति की अध्यक्षता प्रधानमन्त्री द्वारा की जाती है तथा उद्योग, वित्त एवं प्रशासनिक विभागों के मन्त्री इसके सदस्य होते हैं।।

वर्तमान में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के सन्दर्भ में प्रमुख प्रावधान निम्न प्रकार हैं :

भारत में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के प्रारूप

भारत में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश निम्न प्रारूपों में अनुमन्य है—(1) वित्तीय सहबन्धन (Financial Alliance), (2) संयुक्त योजना एवं तकनीकी सहबन्धन, (3) पूंजी बाजार द्वारा, (4) अंशों के निजी स्थापन या प्राथमिक आबंटन द्वारा।

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प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का निषेध

भारत में निम्न क्षेत्रों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश अनुमन्य नहीं है—(1) अस्त्र-शस्त्र एवं युद्ध सामग्री, (2) अणु शक्ति, (3) कोयला एवं लिग्नाइट, (4) रेल परिवहन, (5) धातुओं जैसे लोहा, मैंगनीज, क्रोम, जिप्सम, सल्फर, स्वर्ण, हीरा, तांबा, जिंक इत्यादि का खनन। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति

(1) होटल एवं पर्यटनइस क्षेत्र में ऑटोमेटिक मार्ग से 100% प्रत्यक्ष विदेशी निवेश अनुमन्य है।

(2) व्यापार व्यापारिक कम्पनियों को निर्यात, बल्क आयात तथा कैश एवं कैरी थोक व्यापार के लिये 100% प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति है।

(3) ऊर्जा—अणु शक्ति संयन्त्रों को छोड़कर विद्युत् सृजन, पारेषण एवं वितरण में 100% प्रत्यक्ष विदेशी निवेश किया जा सकता है।

(4) औषधियां अनिवार्य लाइसेन्सिंग तथा डी. एन. ए. तकनीक को छोड़कर औषधि उत्पादन के अन्य क्षेत्रों में 100% प्रत्यक्ष विदेशी निवेश हो सकता है।

(5) निजी बैंकिंग-बैंकिंग क्षेत्र में रिजर्व बैंक के मार्ग निर्देशक नियमों का पालन करते हुए 49% तक प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति है।

(6) बीमा क्षेत्र बीमा नियामक एवं विकास प्राधिकरण से लाइसेन्स प्राप्त करने पर 26% तक प्रत्यक्ष विदेशी निवेश ले सकता है।

(7) दूरसंचार—बेसिक, सैल्युलर तथा मोबाइल व्यक्तिगत संचार व्यवस्था में 49% तक तथा रेडियो पेजिंग, आई. एस. पी. में 74% तक प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति है, लेकिन 49% से अधिक निवेश होने पर सरकार की अनुमति अनिवार्य है।

(8) व्यापारिक प्रक्रियन आउटसोर्सिंग इसमें कुछ पूर्व निर्धारित शर्तों के पालन करने की शर्त सहित 100% प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति है।

(9) गैरप्रवासी भारतीय (NRI)—गैर-प्रवासी भारतीय उद्योग, व्यापार एवं अवसंरचना में प्रत्यक्ष विनियोग। कर सकते हैं।

(10) शतप्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश वाले अन्य क्षेत्र इस वर्ग में 35 उच्च प्राथमिकता वाले उद्योग, अस्पताल, जहाजरानी, गहरे समुद्र में मछली पकड़ना, तेल निष्कर्षण, आवास एवं रीयल एस्टेट विकास, राजमार्ग, पल एवं बन्दरगाह निर्माण, बीमार औद्योगिक इकाइयां, अनिवार्य लाइसेन्सिंग वाले उद्योग तथा लघु क्षेत्र के लिये आरक्षित उद्योग शामिल हैं।

प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए सरकारी नीति में और अधिक उदारता

देश में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (FDI) को बढ़ावा देने के लिए इसके सम्बन्ध में नीति में दूरगामी महत्व के कई बदलाव सरकार ने जून 2016 में किए हैं तथा रक्षा, नागरिक उड्डयन, ई-कॉमर्स, खाद्य प्रसंस्करण, मोबाइल टी.वी., केवल एवं डीटीएच की प्रसारण सेवाओं, फार्मास्यूटिकल्स, पशुपालन तथा एकल ब्रांड रिटेल टेडिंग आदि क्षेत्रों में एफडीआई को अधिक उदार इनके अन्तर्गत बनाया गया है। नीतिगत परिवर्तनों के मुख्य बिन्दु निम्नलिखित हैं:

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1 रक्षा क्षेत्र में स्वदेशी उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए इस क्षेत्र में 49 प्रतिशत से अधिक (100 प्रतिशत तक) प्रत्यक्ष विदेशी निवेश अब सरकार की अनुमति से किया जा सकेगा। शस्त्र अधिनियम (Arms Ac 1959 के अन्तर्गत आने वाले छोटे हथियारों का भी उत्पादन इसके अन्तर्गत किया जा सकेगा।

2. भारत में उत्पादित खाद्य पदार्थों के व्यापार (ई-कॉमर्स सहित) के लिए सरकार की अनुमति से 100 प्रतिशत तक एफडीआई की अनुमति अब दे दी गई है।

3. फार्मास्यूटिक क्षेत्र में ग्रीनफील्ड फार्मा (नई स्थापित की जाने वाली इकाइयों) के मामले में 100 प्रतिशत तक एफडीआई की अनुमति ऑटोमेटिक रूट के अन्तर्गत प्रदान की गई है, जबकि ब्राउनफील्ड फार्मा में 74 प्रतिशत तक एफडीआई ऑटोमेटिक रूट के अन्तर्गत तथा शेष (100 प्रतिशत तक) सरकार की अनुमति से किया जा सकेगा।

4. नागरिक उड्डयन (Civil Aviation) क्षेत्र में जो नई व्यवस्था की गई है। उसके अन्तर्गत ब्राउनफील्ड एयरपोर्ट परियोजनाओं (पहले से मौजूद परियोजनाओं) में ऑटोमेटिक रूट के अन्तर्गत 100 प्रतिशत एक एफडीआई की अनुमति दे दी गई है। अभी तक यह सीमा 74 प्रतिशत तक थी। घरेलू एयरलाइंस में 49 प्रतिशत तक एफडीआई ऑटोमेटिक रूट के अन्तर्गत किया जा सकेगा तथा इससे अधिक (100 प्रतिशत तक) एफडीआई सरकारी स्वीकृति से किया जा सकेगा।

5. निजी सुरक्षा एजेंसियों के मामले में 49% तक एफडीआई ऑटोमेटिक रूट से किया जा सकेगा, जबकि इससे अधिक (74% तक) सरकारी स्वीकृति से किया जा सकेगा पशुपालन (Animal Husbandry) के क्षेत्र में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश की शर्तों को भी उदार बनाया गया है।

6. एकल ब्रांड रिटेल ट्रेडिंग के मामले में स्थानीय सोर्सिंग के नियमों में ढील दी गई है।

विदेशी निवेश नीति का उदारीकरण

(LIBERALIZATION OF FOREIGN INVESTMENT POLICY)

अमरीकी फण्ड रिजर्व द्वारा ब्याज दर में कटौती के बाद विदेशी मुद्रा के सम्भावित अन्तर्प्रवाह के दबाव से निपटने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक ने भारतीय नागरिकों, निगमित इकाइयों व म्यूचुअल फण्डों को विदेश में निवेश करने के लिए प्रावधानों को और अधिक उदार बना दिया है। रुपए की जबरदस्त मजबूती और शेयर बाजारों में विदेशी संस्थागत निवेशकों (FII) के लगातार बढ़ते निवेश के चलते रिजर्व बैंक ने विदेशी वाणिज्यिक ऋणों (ECB) से सम्बन्धित नियमों को भी उदार बनाया है 25 सितम्बर, 2007 को इस दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाते हए रिजर्व बैंक ने देशवासियों के लिए विदेशों में निवेश की सीमा को मौजुदा एक लाख डॉलर से बढ़ाकर अब दो लाख डॉलर कर दिया है। यह निवेश विदेशी शेयर बाजार आदि में किया जा सकता है। इसके साथ ही म्यूचुअल फण्ड्स को भी अप्रैल 2008 से विदेशी शेयर बाजारों में 7 अरब डॉलर तक निवेश करने की अनुमति दे दी गई है। अभी तक ये फण्ड 5 अरब डॉलर तक ही निवेश कर सके थे।

कई विदेशी कम्पनियों का अधिग्रहण कर अपनी आक्रामक मंशा जता चुकी भारतीय कम्पनियों को आरबीआई ने अब और छट प्रदान कर दी है। इसके अन्तर्गत उन्हें विदेश स्थित संयुक्त उपक्रमों या सौ प्रतिशत हिस्सेदारी वाली सब्सिडियरियों में अपनी नेटवर्थ का 400 प्रतिशत तक ऑटोमैटिक रूट के द्वारा निवेश करने की अनुमति दी गई है। भारत में पंजीकत साझीदारी कम्पनियां भी इस नियम से फायदा उठा सकती है। इसके अतिरिक्त विदेशी शेयर बाजारों में सूचीबद्ध भारतीय कम्पनियों की हिस्सेदारी बढ़ाने के इरादे से सरकार ने उन्हें अपनी नेटवर्थ का 50 प्रतिशत तक पोर्टफोलियो निवेश करने की अनुमति प्रदान की है। अभी तक यह सीमा केवल 35 प्रतिशत ही थी।

भारत में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश

(FDI IN INDIA)

प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) मेजबान देश में पूंजी, कौशल व प्रौद्योगिकी लाकर उच्चतर स्तर पर आर्थिक विकास को सम्भव बनाता है। आर्थिक समीक्षा में बताया गया है कि वर्ष 2016 में सरकार ने परमाणु ऊर्जा, सिगार और तम्बाकू के विनिर्माण, भवन सम्पदा व्यवसाय (Real Estate Business), लॉटरी, जुआ व चिटफंड आदि की छोटी से नकारात्मक सची को छोडकर अधिकांश क्षेत्रों में एफडीआई को स्वतः अनुमोदन मार्ग (Automatic approval route) के अन्तर्गत ला दिया है। इससे भारत अब एफडीआई के मामले में विश्व में सर्वाधिक खुली अर्थव्यवस्थाओं में से एक हो गया है अधिकांश क्षेत्र स्वतः अनुमोदित मार्ग के अन्तर्गत आ जाने के कारण सरकार ने अब विदेशी निवेश संवर्धन बोर्ड (Foreign Investment Promotion Board-FIPB) को भी भंग कर दिया है।

2016-17 में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश आप्रवाह 60.082 बिलियन डॉलर के स्तर पर पहुंच गया। इससे पूर्व वर्ष 2015-16 में भी विदेशी प्रत्यक्ष निवेश 55.457 बिलियन डॉलर के रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गया था। इससे पूर्व 2011-12 में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश 44.55 बिलियन डॉलर तथा 2014-15 में 45.148 बिलियन डॉलर रहा था।

2017-18 (अप्रैल-दिसम्बर) में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश आप्रवाह 48.2 अरब डॉलर रहा है, जबकि इसी अवधि में पोर्टफोलियो निवेश 19.8 अरब डॉलर रहा।

अप्रैल 2000 से दिसम्बर 2017 की अवधि में कुल विदेशी प्रत्यक्ष निवेश अन्तप्रवाह 532.6 बिलियन डॉलर रहा है। इसी अवधि में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश ईक्विटी अन्तप्रवाह 214.0 बिलियन डॉलर रहा। अप्रैल 2000 से दिसम्बर 2017 की अवधि विश्व के शीर्ष पांच देशों से होने वाली विदेशी प्रत्यक्ष निवेश अन्तप्रवाह निम्नलिखित प्रकार रहा (विलियन डॉलर) :

मॉरिशस 124.99 34%
सिगंपुर 63.80  17%
जापान 26.94 7%
यू.के.

25.31 

7%
नीदरलैण्ड्स 23.07 

6%

 

जहां तक विभिन्न क्षेत्रकों का प्रश्न है, तो अप्रैल 2000-दिसम्बर 2017 में भारत में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश प्राप्त करने वाले शीर्ष 5 क्षेत्रक निम्नलिखित प्रकार हैं :

1. सेवाएं (वित्तीय, बैंकिंग, बीमा, गैर-वित्तीय व्यवसाय आउटसोर्सिग, अनुसंधान एवं विकास, कोरियर, तकनीकी परीक्षण एवं विश्लेषण 64.097 (बिलियन डॉलर) 17%

2. कम्प्यूटर हार्डवयेर-सॉफ्टवेयर

29.83 (विलियन डॉलर) 8%

 

3. निर्माण, विकास (टाउनशिप, आवास, बिल्ट-अप 24.674 (विलियन डॉलर

7%

 

4. दूरसंचार 30.082 (बिलियन डॉलर 8%

 

5. ऑटोमोबाइल उद्योग 18.413 (बिलियन डॉलर)

 

5%

 

अप्रैल 2000-दिसम्बर 2017 की अवधि में सर्वाधिक विदेशी प्रत्यक्ष निवेश महाराष्ट्र, दादरा नागर हवेली, दमन एवं दीव (113.824 बिलियन डॉलर : 31%) क्षेत्र को प्राप्त हुआ है। दिल्ली-हरियाणा एवं उत्तर के काठ भागों को 74.150 बिलियन डॉलर (20%), कर्नाटक में 28.820, तमिलनाड़ एवं पूडचेरी को 26.516 बिलियन डॉलर (7%) विदेशी प्रत्यक्ष निवेश प्राप्त हुआ है।

आर्थिक समीक्षा 2016-17 (खण्ड-2) में बताया गया है कि सरकार की विभिन्न पहलों के चलते । 2016-17 में देश में 43.4 अरब डॉलर का एफडीआई ईक्विटी प्रवाह हुआ है। जो पर्व वर्ष की तलना में 8 प्रतिशत अधिक होने के साथ-साथ अब तक का सर्वोच्च ईक्विटी प्रवाह भी है।।

विदेशी पोर्टफोलियो निवेश

(FOREIGN PORTFOLIO INVESTMENT)

आर्थिक समीक्षा (2016-17) के अनुसार वर्ष 2016 में देश में विदेशी पोर्टफोलियो निवेश ऋणात्मक रहा। इसका अर्थ है कि इस वर्ष के दौरान भारतीय बाजारों से विदेशी पूंजी की निवल निकासी इस मद में हुई समीक्षा के अनुसार 2008 की वैश्विक मंदी के पश्चात् ऐसा पहली बार 2016 में हुआ। वर्ष 2010 से 2016 के दौरान भारत में विदेशी पोर्टफोलियो निवेश के उपर्युक्त आंकड़े नेशनल सिक्युरिटीज डिपॉजिटरी लि. (NSDL) के हवाले से आर्थिक समीक्षा में दर्शाए गए हैं।

भारत में निवल विदेशी पोर्ट फोलियो निवेश/विदेशी संस्थागत निवेश

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समीक्षा में बताया गया है कि वर्ष 2016 में एफपीआई की निकासी केवल भारतीय बाजारों से जुड़ी प्रक्रिया ही नहीं थी। विकसित अर्थव्यवस्थाओं में बेहतर प्रतिफल मिलने की प्रत्याशा में अधिकांश उभरती अर्थव्यवस्थाओं में बड़े पैमाने पर पोर्टफोलियो/संस्थागत निवेश की निकासी हुई।

विदेशी पूंजी निवेश को प्रोत्साहित करने के लिए सरकारी प्रयत्न

अथवा

प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के सम्बन्ध में सरकारी नीति

भारत सरकार ने विदेशी पूंजी निवेश को भारत में प्रोत्साहित करने के लिए निम्न प्रयत्न किये हैं। जिनका विवरण इस प्रकार है :

(1) भारतीय विनियोग केन्द्र की स्थापना भारत में विदेशी पूंजी को प्रोत्साहित करने के लिए दिल्ली में एक विनियोग केन्द्र भारतीय विनियोग केन्द्र के नाम से फरवरी 1961 में स्थापित किया गया था जिसका कार्य विनियोग से सम्बन्धित पहलुओं का प्रचार एवं प्रसार करना है।

(2) कर सम्बन्धी छूटविदेशी एवं देशी विनियोग को प्रोत्साहित करने के लिए भारत सरकार ने आय-कर अधिनियम के अन्तर्गत अनेक छूट देने की व्यवस्था की है जिसमें उपक्रमों के लिए अवकाश विकास छूट, वैज्ञानिक अनुसन्धान, विदेशी तकनीक विशेषज्ञों को कर छूट, आदि शामिल है।

(3) दुहरे करारोपण की छूट करदाता को एक ही आय पर दो देशों में कर न देना पड़े इस उद्देश्य से भारत सरकार ने कई देशों से दहरे करारोपण की छट देने के लिए समझौते कर रखे हैं। इन देशों में जमनी, अमरीका, स्वीडन, फिनलैण्ड, डेनमार्क, आदि प्रमुख हैं।

(4) विदेशी सहायता के सम्बन्ध में गारण्टी–भारत सरकार व अन्य विशिष्ट वित्तीय संस्थाओं ने विदेशी निजी वित्तीय संस्थाओं को गारण्टी देकर विदेशी पंजी को भारत में आने के लिए प्रोत्साहित किया है। यही नहा, भारत सरकार के आश्वासन पर अन्तर्राष्टीय मद्रा कोष, विश्व बैंक, आदि ने भी विदेशी पूंजी के सम्बन्ध में गारण्टी देकर विदेशी पूंजी को भारत में लाने के लिए प्रोत्साहित किया है।

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भारत के आर्थिक विकास में विदेशी पूंजी निवेश का योगदान

भारत के आर्थिक विकास में विदेशी पूंजी निवेश ने भारी उद्योगों की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका। निभायी है तथा खाद्य संकट हल करने, सिंचाई एवं बिजली क्षमता का विस्तार करने, रेलवे का विकास करने. तकनीकी विकास एवं प्रशिक्षण सुविधा प्राप्त करने में काफी सहयोग दिया है। विदेशी पूंजी निवेश के योगदान का अग्र शीर्षकों में अध्ययन कर सकते हैं ।

(1) औद्योगिक विकास देश की सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्र की अनेक परियोजनाओं के लिए विदेशी पूंजी मिलने से औद्योगिक विकास में सहायता मिली है। इस्पात उद्योग जैसे मूलभूत उद्योगों की स्थापना में विदेशी पूंजी महत्वपूर्ण है। विदेशी पूंजी निवेश के परिणामस्वरूप ही राउरकेला, भिलाई, दुर्गापुर, बोकारो, विशाखापटनम, आदि जैसे इस्पात एवं अन्य कारखाने स्थापित हो सके हैं।

(2) परिवहन एवं संचार का विकास–परिवहन एवं संचार सेवाओं के विकास में विदेशी पूंजी ने महत्वपूर्ण योगदान दिया है।

(3) खायानों की पूर्ति एवं मूल्य स्थायित्व—विदेशी पूंजी ने खाद्यान्नों की पूर्ति तथा खाद्यान्नों के मूल्यों में स्थायित्व करने में काफी योगदान दिया है। इस सम्बन्ध में समय-समय पर अमरीका, कनाडा व आस्ट्रेलिया द्वारा महत्वपूर्ण विदेशी सहायता प्रदान की गयी है।

(4) सिंचाई एवं विद्युत् क्षमता का विस्तारविदेशी पूंजी निवेश ने देश की सिंचाई एवं विद्युत् क्षमता का विस्तार करने में काफी सहायता दी है। देश में प्रयुक्त विदेशी सहायता का लगभग 4 प्रतिशत इस क्षेत्र पर व्यय किया गया है जिसके फलस्वरूप विद्युत् उत्पादन की क्षमता में कई गुनी वृद्धि हुई है।

(5) तकनीकी विकासविदेशी निवेश के अन्तर्गत विदेशी दक्ष विशेषज्ञों की सेवाएँ प्राप्त हुई हैं तथा उन्होंने भारतीय तकनीकी व्यक्तियों को उचित प्रशिक्षण देकर देश के लिए तैयार किया है। कुछ विशेषज्ञों को विदेशों में भी प्रशिक्षण दिया गया है। इन विशेषज्ञों ने देश में अनुसन्धान एवं विकास सुविधाओं की स्थापना एवं विकास में भी योगदान दिया है। इन सभी बातों से देश में तकनीकी विकास हुआ है।

(6) पूंजीनिर्माण की गति में वृद्धि विदेशी सहायता ने पूंजी-निर्माण की गति में वृद्धि की है। प्रथम योजना के प्रारम्भ में देश में पूँजी-निर्माण की दर 8.4% थी जो अब बढ़कर 32.3% हो गयी है।

(7) विदेशी मुद्रा की पूर्तिभारत में आर्थिक नियोजन होने से आयात में भारी वृद्धि हुई है जिसके फलस्वरूप व्यापार सन्तुलन, पिछले एक-दो वर्ष को छोड़कर हमारे विपक्ष में ही रहा है। विदेशी सहायता ने हमको गम्भीर मुद्रा संकटों से बचाया है तथा हमारी विदेशी विनिमय कठिनाइयों को दूर करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।

विदेशी पूंजी निवेश की समस्याएँ

विदेशी पूंजी निवेश ने भारत के आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है, लेकिन इनसे देश के लिए कई नवीन समस्याएँ पैदा हो गयी हैं जिन्हें विदेशी पूंजी निवेश की कठिनाइयाँ कहा जा सकता है।

(1) शोधन (Redemption) की समस्या—भारत के समक्ष सबसे बड़ी समस्या शोधन या ऋण-सेवा का भुगतान है। ऋण सेवा से अर्थ मूलधन एवं उस पर ब्याज के भार के भुगतान से लगाया जाता है। यह भार दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है जिसके फलस्वरूप विदेशी विनिमय पर दबाव बना रहता है।

प्रति वर्ष भारी भुगतान का दबाव होने के कारण अनेक देशों से ऋण भुगतान करने की तिथि को कुछ समय के लिए स्थगित करने की प्रार्थना करनी पड़ती है या भुगतान में ढील देने के लिए अनुरोध करना पड़ता है या भुगतान की शर्तों को पुनःनिर्धारित करने के लिए कहना पड़ता है।

(2) बँधी सहायता अधिक विदेशी पूंजी दो प्रकार की होती है—एक तो मुक्त सहायता (Un-tied aid) जिसका उपयोग किसी भी प्रकार से किया जा सकता है। दूसरी बँधी सहायता (Tied aid) जिसका उपभोग उसी प्रोजेक्ट के लिए किया जा सकता है जिसके लिए उसे प्रदान किया गया है। अब तक भारत को जो विदेशी सहायता मिली है उसमें बँधी सहायता का प्रतिशत अधिक है। इस प्रकार भारत के सामने एक समस्या यह है कि यद्यपि ऐसी सहायता का उपयोग हो रहा है, लेकिन यह अच्छा होता कि बँधी सहायता का अनुपात कम होता।

(3) योजनाओं में अस्थिरताविदेशी पूंजी के सम्बन्ध में एक समस्या उनकी अस्थिरता भी रही है जिससे हमारी पंचवर्षीय योजनाओं में भी अस्थिरता बनी रही है। बोकारो इस्पात कारखाने की स्थापना में देरी विदेशी सहायता की अस्थिरता के कारण ही हुई है।

(4) निम्न उपयोग दर भारत में स्वीकृत विदेशी पंजी के उपयोग की दर शत-प्रतिशत न रहकर कम रही है। इसके कारण सरकारी कार्यवाही में देरी, अनुभव की कमी, आदि रहे हैं।

(5) विदेशी राजनीतिक दबाव-विदेशी पूंजी देते समय विदेशी सरकारें कोई राजनीतिक दबाव नहीं डालती हैं और न समझौते में इस प्रकार का कोई इकरार होता है. लेकिन व्यवहार में यह समस्या पायी जाती है कि यह विदेशी सरकारें एवं संस्थाएँ राजनीतिक दबाव डालती हैं। उदाहरण के लिए, 1966 के अवमूल्यन का सुझाव विश्व बैंक द्वारा दिया गया था जिसे भारत सरकार ने मान लिया। अमरीका ने भी अवमूल्यन करने पर ही सहायता देने की बात कही थी। 1971 के भारत-पाकिस्तान संघर्ष के समय भी अमरीका ने सहायता बन्द करने की धमकी दी थी।

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विदेशी पूंजी निवेश के सम्बन्ध में सुझाव

विदेशी पूंजी निवेश से उत्पन्न समस्याओं को हल करने एवं विदेशी पूंजी का पूर्ण उपयोग करने एवं उसको नियन्त्रित रखने के लिए निम्न सुझाव प्रस्तुत किये जा सकते हैं :

(1) बँधी सहायता को कम करना—विदेशी पूंजी लेते समय इस बात का ध्यान रखा जाय कि सहायता बँधी न हो। ऐसा होने से भारत विदेशी पूंजी का उपयोग अपनी आवश्यकता व इच्छा के अनुसार कर सकेगा जिससे आर्थिक विकास की गति और तेज हो सकेगी।

(2) दीर्घकालीन सहायता—विदेशी पूंजी लेते समय यह ध्यान रखा जाय कि वह दीर्घकाल के लिए हो जिससे कि उसके भुगतान की समस्या तुरन्त पैदा न हो और विदेशी मुद्रा कोषों पर तुरन्त दबाव न पड़े।

(3) अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं से सहायता यदि विदेशी पूंजी लेना आवश्यक ही हो तो विभिन्न देशों से लेने के स्थान पर अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं; जैसे—विश्व बैंक, आदि से ही ली जाय। ऐसा करने से राजनीतिक हस्तक्षेप में कमी होगी जो देश के हित में होगा।

(4) उत्पादक कार्यों के लिए सहायता विदेशी पूंजी उत्पादक कार्यों के लिए ही ली जाय। इससे विदेशी पूंजी में कमी होगी तथा ऋण भार अधिक नहीं होंगे। साथ ही विदेशी पूंजी को स्वयं शोधक (Self-liquidating) बनाया जाना चाहिए जिससे कि परियोजना से प्राप्त आय के आधार पर उसका भुगतान किया जा सके।

(5) निजी विदेशी निवेशों को प्रोत्साहनभारत को निजी विदेशी निवेशों को आयात करने के लिए प्रोत्साहन देने की नीति अपनानी चाहिए। इसके लिए आकर्षक ब्याज की नीति अपनायी जा सकती है। आय-कर अधिनियम के अन्तर्गत छूट देने की नीति अपनायी जा सकती है। भारतीय दूतावास को अनुकूल वातावरण बनाने के लिए कहा जा सकता है।

(6) विदेशी पूंजी को व्यापार से सम्बद्ध करना विदेशी पूंजी लेते समय भारत को समझीतों में यह व्यवस्था करनी चाहिए कि सहायता देने वाले देश हमारे देश के निर्यातों के लिए अपने देश में छूट देंगे, अधिक आयात करेंगे तथा अपने देश में उदार सविधाएँ देंगे जिससे कि भारत का उस देश के साथ व्यापार बढ़ सके और विदेशी ऋणों का भुगतान करने में कठिनाई न हो।

(7) भुगतान भार को कम करनाभारत को ऋण सेवा भुगतान के भार को कम करने के लिए जिबात-उन्मुख उद्योगों में विदेशी पूंजी लगानी चाहिए। समझौतों में कम व्याज दर की व्यवस्था होनी चाहिए। राष्ट्रीय संगठनों से ऋण राहत (Debt Relief) के रूप में सहायता माँगनी चाहिए। पुराने ऋणों के अपान मार क लिए लम्बी अवधि के नवीन समझौते करके भगतान भार को कम करना चाहिए। मूलधन व चाक भुगतान को कुछ समय के लिए स्थगित करने के लिए देशों को राजी करना चाहिए।

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प्रश्न

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

1 भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास में विदेशी पूंजी निवेश के सहयोग की विवेचना कीजिए।

2. भारत के आर्थिक विकास में प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी निवेश की भूमिका की व्याख्या कीजिए। इस सम्बन्ध में भारत सरकार की क्या नीति है?

3. भारत में विदेशी पूंजी की आवश्यकता बताइए। विदेशी पूंजी निवेश से क्या हानियां हैं?

लघु उत्तरीय प्रश्न

1 विदेशी निवेश किसे कहते हैं?

2. प्रत्यक्ष विदेशी निवेश क्या है?

3. विदेशी निवेश के सम्बन्ध में सरकारी नीति क्या है?

4. भारत के आर्थिक विकास में विदेशी निवेश का महत्व बताइए।

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