BCom 1st Year Business Environment Inflation Study Material Notes in Hindi

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BCom 1st Year Business Environment Inflation Study Material Notes in Hindi

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BCom 1st Year Business Economics Social Injustice Study Material Notes in Hindi

मुद्रास्फीति

[INFLATION]

मुद्रास्फीति का अर्थ

(MEANING OF INFLATION)

आर्थिक विकास एवं आर्थिक वृद्धि की एक प्रमुख समस्या मुद्रास्फीति रही है। एक निर्धन विकासशील देश के लिए कीमतों का बढ़ना स्वाभाविक (inherent) है।

मुद्रास्फीति का अर्थ है सामान्य कीमत स्तर में लगातार वृद्धि तथा मुद्रा की कीमत में लगातार ह्रास। सामान्यतः मुद्रास्फीति के कारणों की व्याख्या के दो सिद्धान्त हैं : लागत पक्ष से तथा मांग पक्ष से।

मांग पक्ष से मुद्रास्फीति की व्याख्या को मांग प्रेरित (Demand-pull) मुद्रास्फीति कहा जाता है। यह मुद्रास्फीति की पारम्परिक व्याख्या है। इस सिद्धान्त के अनुसार सामान्य कीमत स्तर में वृद्धि का कारण है। विद्यमान कीमतों पर उपलब्ध पूर्ति की तुलना में वस्तुओं और सेवाओं की मांग का अधिक होना । इस मुद्रास्फीति की विवेचना अक्सर स्फीतिक खाई (Inflationary gap) के रूप में की जाती है।

मुद्रास्फीति की दूसरी व्याख्या लागत पक्ष से की जाती है। लागत में वृद्धि सामान्य कीमत स्तर को ऊपर की ओर धकेल सकती है, इसलिए इसे लागत मुद्रास्फीति (Cost inflation) या लागत प्रेरित मुद्रास्फीति (Cost-push inflation) कहा जाता है। लागत में वृद्धि के कई कारण हो सकते हैं, जैसे—उत्पादकता में वृद्धि की तुलना में मजदूरी में अधिक वृद्धि, एकाधिकारी या अल्पाधिकारी द्वारा लाभ में वृद्धि के लिए कीमतों में वृद्धि, कर में वृद्धि के कारण लागत में वृद्धि, आदि।

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मुद्रास्फीति के प्रकार

(TYPES OF INFLATION)

कारणों तथा प्रकृति के आधार पर मुद्रास्फीति को कई वर्गों में बांटा जाता है. यथा :

(i) पूर्ण या सही स्फीति तथा अर्द्धस्फीति—पूर्ण रोजगार की स्थिति में वस्तुओं तथा सेवाओं की पूर्ति स्थिर रहती है, उसमें वृद्धि सम्भव नहीं। इस स्थिति में यदि वस्तुओं तथा सेवाओं की मांग बढ़ जाती है, तो कीमतें बढ़ जाएंगी। इस कीमत वृद्धि को सही अर्थ में मुद्रास्फीति (True Inflation) या पूर्ण स्फीति कहा जाता है। पूर्ण रोजगार की स्थिति के पूर्व यदि मुद्रा की मात्रा को बढ़ाया जाता है तो इसके कारण कीमत स्तर में जो वृद्धि होती है उसे अर्द्ध या आंशिक स्थिति कहा जाता है।

(ii) खुली या दबी हुई मुद्रास्फीति (Open and Suppressed Inflation) यदि समाज की बढ़ती हुई। आय के उपयोग पर कोई नियन्त्रण नहीं लगाया जाए, तो इस स्थिति में कीमतों की वृद्धि को खुली मुद्रास्फीति। कहा जाएगा, किन्तु यदि आय के उपयोग पर नियन्त्रण लगा दिया तो कीमत वृद्धि को दबी हुई मुद्रा स्फीति। कहा जाएगा। युद्ध के समय ऐसा अक्सर होता है।

(iii) रेंगती हुई या साधारण स्फीति (Creeping Inflation), टहलती हुई स्फीति (Moving or Walking Inflation), दौड़ती हुई स्फीति (Running Inflation) तथा सरपट दौड़ती हुई स्फीति (Galloping | or Hyper Inflation)

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अर्थशास्त्रियों की मान्यता है कि यदि मुद्रा की पूर्ति की वार्षिक वद्धि दर 2 प्रतिशत या उससे कम हो,। कीमत वद्धि की दर साधारण होगी। यह साधारण वृद्धि दर है। इसलिए इसे रेंगती हुई स्फीति कहा जाता है।।

इससें अर्थव्यवस्था को हानि की सम्भावना नहीं होती है। इस स्फीति को साधारण स्फीति (mild inflation) भी कहा जाता है।

याद साधारण स्फीति का नियमन न किया जाए तो यह टहलती हुई स्फीति (Moving or Walking, Inflation) में परिणत हो सकती है। जहां साधारण स्फीति की दर 2-3 प्रतिशत रहती, वहां टहलती हुइ स्फीति की दर 5 प्रतिशत के लगभग होती है। यह स्फीति धीरे-धीरे सामान्य जनता के लिए कष्टदायक हान लगती है।

यदि टहलती हुई मुद्रास्फीति पर भी नियन्त्रण कायम नहीं किया जा सके तो यह दौड़ती हुई स्फीति में बदल सकती है तथा कीमत वृद्धि दो अंकों में चली जाएगी। यह दौड़ती हुई स्फीति (running inflation) भी कही जाती है।

जब मुद्रास्फीति की वार्षिक दर 15 प्रतिशत या उससे अधिक हो जाए तो उसे सरपट या तीव्रगामी मुद्रास्फीति कहा जाता है। ऐसी मुद्रास्फीति किसी अर्थव्यवस्था को शीघ्र ही चौपट करने के लिए पर्याप्त है। कारण यह है कि जनता का मुद्रा पर से विश्वास हटने लगता है तथा सर्वत्र अशान्ति एवं असन्तोष का। वातावरण छा जाता है।

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योजनाकाल में मुद्रास्फीति

(INFLATION DURING PLAN PERIOD)

आर्थिक विकास की प्रक्रिया स्वाभाविक रूप से स्फीतिक होती है। आर्थिक वृद्धि की गति को तेज करने के लिए विनियोग में वृद्धि भी आवश्यक है। निवेश में वृद्धि के कारण समग्र मांग में वृद्धि होती है। इससे उपभोक्ता वस्तुओं की मांग बढ़ जाती है। किन्तु, इन वस्तुओं की पूर्ति में मांग में वृद्धि के अनुसार वृद्धि नहीं हो पाती है। अतः कीमतें बढ़ने लगती हैं।

मुद्रास्फीति समष्टि आर्थिक स्थिरता का एक महत्वपूर्ण सूचक है। भारत में मुद्रास्फीति की जानकारी थोक मूल्य सूचकांक (Wholesale price index) तथा उपभोक्ता कीमत सूचकांक (Consumer price index) से मिलती है। उपभोक्ता मूल्य सूचकांक की तीन पृथक् सीरिज हैं, यथा, (i) औद्योगिक श्रमिक सूचकांक [CPI (W)], (ii) कृषि श्रमिक सूचकांक [CPI(AL)] तथा (iii) शहरी गैर-शारीरिक श्रमिक सूचकांक [CPI (UNME)] | इन तीनों का आकलन मासिक आधार पर खुदरा मूल्य में परिवर्तन को मापने के लिए होता है। इन तीनों में CPI(W) सबसे अधिक लोकप्रिय है तथा इसी का उपयोग केन्द्रीय सरकार द्वारा महंगाई भत्ता देने में किया जाता है।

प्रथम पंचवर्षीय योजना (1951-56) को मुद्रास्फीति की दृष्टि से स्वर्णिम युग कहा जा सकता है जिसमें घाटे के वित्त की मात्रा अधिक होते हुए भी कीमतें नियन्त्रण में रहीं और अर्थव्यवस्था में स्फीतिक दबाव उत्पन्न नहीं हुआ। इस योजना के अन्तिम वर्ष में मूल्य सूचकांक गिर गया।

द्वितीय पंचवर्षीय योजना (1956-61) वस्तुतः लम्बी परिपक्वता अवधि वाली औद्योगिक निवेश योजनाओं के कारण मद्रास्फीति उत्पन्न करने वाली योजना रही। बड़े आकार का घाटे का वित्त निर्गमित किये जाने के कारण इस योजनावधि में कीमत सूचकांक 30 प्रतिशत बढ़ गया।

तृतीय पंचवर्षीय योजना (1961-66) के आरम्भिक दो वर्षों में कीमतों में स्थिरता रही. किन्त अन्तिम तीन वर्षों में कीमतों में लगभग 29 प्रतिशत की वृद्धि हुई। चीन युद्ध (1962) तथा पाकिस्तान युद्ध (1965) के कारण घाटे के वित्त का स्तर 1,150 करोड़ ₹ के ऊचे स्तर तक पहुंच गया। इस योजनावधि में पडे सखे के कारण खाद्य वस्तुओं की कीमतों में 48 प्रतिशत की वृद्धि हुई।

वार्षिक योजनाओं 1966-69) में वर्ष 1966-67 में कीमतों में तेजी से वृद्धि हुई किन्तु 1968-69 में खाद्यान्नों के उत्पादन में सुधार होने के कारण थोक मूल्य सूचकांक में 9% की कमी आई।

चौथी पंचवर्षीय योजना (1969-74) म बाग्लादश शरणार्थी, युद्ध आदि के कारण घाटे की वित्त व्यवस्था की राशि बढ़कर 2,625 करोड़ र हो गई। इस योजनावधि में कीमतों में तेजी से वद्धि खाद्यान्न की कीमतों में हुई जिनका निदेशाक बढ़कर 336 (1961-62 = 100) हो गया। यद्यपि इस सरकार ने मद्रा-स्फीति को नियन्त्रित करने के लिए अनेक कदम उठाए किन्तु कीमतों पर सन्तोषजनक अंकुश नहीं रखा जा सका।

पाँचवा पचवर्षीय योजना (1974-79) में बड़े आकार की घाटे की वित्त व्यवस्था के कारण कीमतों में पख हुइ किन्तु मार्च 1974 से मार्च 1976 तक देश में राजस्व और मौद्रिक नीतियों को प्रभावपूर्ण ढंग से लागू करने के कारण कीमतों पर अंकुश रहा।

छठी पंचवर्षीय योजना (1980-85) में कुल योजना व्यय का 14.2% घाटे के वित्त से पूरा किया गया। इसके परिणामस्वरूप कीमतों में भारी वृद्धि हुई। इसके अतिरिक्त इस योजनावधि में काला बाजारी (Black Marketing) के कारण भी मुद्रास्फीति की गति में वृद्धि हुई। वर्ष 1970-71 आधार वर्ष के साथ थोक मूल्य सूचकांक जो 1980-81 में 256.2 था वर्ष 1984-85 में बढ़कर 338.4 हो गया।

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सातवीं पंचवर्षीय योजना (1985-90) में छठी योजनावधि की ही भांति मुद्रास्फीति जारी रही। बढ़ता घाटे का वित्त, रक्षा व्यय में वृद्धि, सूखा, आदि के कारण इस योजनावधि में वस्तुओं की कीमतों विशेषकर खाद्यान्नों की कीमतों में तेजी से वृद्धि हुई। यद्यपि सरकार ने मुद्रास्फीति पर नियन्त्रण पाने के लिए अनेक उपायों का सहारा लिया किन्तु इसमें पूर्ण सफलता नहीं मिली।

आठवीं पंचवर्षीय योजना (1992-97) के आरम्भ होने के पूर्व के वर्ष 1990-91 में अच्छा मानसून एवं अच्छी फसल के होते हुए भी कीमतों पर भारी दबाव बना रहा। इस वर्ष थोक कीमत सूचकांक में मुद्रास्फीति की वार्षिक दर 12.1% थी जबकि उपभोक्ता वस्तुओं की मुद्रास्फीति की वार्षिक दर 13.6% थी। जुलाई 1991 में मुद्रास्फीति की दर बढ़कर 16% हो गई। वर्ष 1991-92 में भी कीमतों पर भारी दबाव बना रहा।

वर्ष 1992-93 में मुद्रास्फीति दर घटकर वर्ष के अन्त में 7% रह गई। नब्बे के दशक के आरम्भ में अपनाए गये आर्थिक सुधारों के दौर के कारण स्फीति पर नियन्त्रण किया जा सका किन्तु 1993-94 और 1994-95 में मुद्रास्फीति दर पुनः द्विअंकीय हो गई। 1995-96 में पुनः मुद्रास्फीति दर को एक-अंकीय तक लाया गया।

नौवीं पंचवर्षीय योजना (1997-2002) के दौरान मुद्रास्फीति की दर में तेजी से गिरावट हुई। थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित वार्षिक मुद्रास्फीति दर 1999-2000 में यद्यपि 6.5% के ऊंचे स्तर पर थी किन्तु 2000-01 तथा 2001-02 के दौरान इस दर में कमी दर्ज की गई। मुद्रास्फीति की दर में विशेष गिरावट सितम्बर 2001 के बाद आनी शुरू हुई। यह दर दिसम्बर 2001 तक गिरकर 2.2% के स्तर पर आ गई और यह दिसम्बर 1999 के बाद दर्ज की गई सबसे कम दर है। 9 जनवरी, 2002 को यह दर पुनः घटकर 1.3% रह गई जो पिछले दो दशकों में न्यूनतम है।

दसवीं योजना (2002-07) के प्रथम वर्ष अर्थात् 2002-03 में थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित वार्षिक

औसत मुद्रास्फीति की दर, जो 2001-02 में 3.6 प्रतिशत थी, घटकर 3.4 प्रतिशत हो गयी। उसके बाद दो वर्षों तक इसमें वृद्धि हुई और 2004-05 में यह 6.5 प्रतिशत हो गयी। उसके बाद दसवीं योजना के अन्तिम दो वर्षों में यह 2005-06 में घटकर 4.4 प्रतिशत किन्तु 2006-07 में बढ़कर 5.4 प्रतिशत हो गई। दसवीं योजना-काल में मुद्रास्फीति की वार्षिक औसत दर 5.04 प्रतिशत रही।

ग्यारहवीं योजना (2007-12) के अन्तिम वर्ष 2006-07 की तुलना में ग्यारहवीं योजना के प्रथम वर्ष (2007-08) में मुद्रास्फीति की औसत वार्षिक दर 5.4 प्रतिशत से घटकर 4.7 प्रतिशत पर आ गयी। किन्तु, 2008-09 यह दर बढ़कर 8.4 प्रतिशत हो गई। वर्ष 2009-10 में मद्रास्फीति की दर 7% से अधिक स्तर। पर बनी रही। समग्र डब्ल्यू.पी.आई. मुद्रास्फीति जो औसतन 9.56% थी, वह आंशिक रूप से घटकर 2011-12 में 8.94% प्रतिशत हो गयी।

बारहवीं योजना (2012-17) के दौरान 2012-13, 2013-14,2014-15, 2015-16 तथा 2016-17 में। थोक मूल्यों पर आधारित मुद्रास्फीति की दर क्रमशः 6.9%, 5.20%, 1.2% – 3.7% तथा 1.7% हो गया।। इस तरह पिछले वर्षों की तुलना में मुद्रा स्फीति में गिरावट के संकेत देखे गए। यद्यपि उपभोक्ता मूल्य सूचकाक थोक मूल्य सूचकांक से आधक बना रहा फिर भी इसमें भी कमी के संकेत देखे गए। जहां सी.पी.ई. मुद्रास्फीति वर्ष 2012-13 के 10.2% से कम होकर 2016-17 में 4.5% हो गयी वहीं उपभोक्ता खाद्य कीमत सूचकाक। पर आधारित खाद्य मद्रास्फीति 2014-15 में 6.4% और 2015-16 में 4.9% से कम होकर 2016-17 में। 4.2% हो गयी थी। मद्रास्फीति का सतोषजनक स्तर पर लाने के लिए, अतः भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा कठोर मौद्रिक नीति का रुख अपनाया गया।

यह उल्लेखनीय है कि थोक मल्य निर्देशांक /WPO जनसामान्य की दष्टि से मद्रास्फीति का सही मापन सिद्ध नहीं होता। अतः विभिन्न उपभोक्ता वर्गों की दष्टि से भी उपभोक्ता मूल्य सूचकांक तैयार किए जात हैं जो निम्न प्रकार हैं:

(1) औद्योगिक श्रमिकों के लिए उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (CPI-IW)

(2) कृषि मजदूरों के लिए उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (CPI-AL)

(3) ग्रामीण श्रमिकों के लिए उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (CPI-RL)

(4) शहरी गैर-शारीरिक श्रम कर्मचारी उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (CPI-UNME)

सांख्यिकी एवं कार्यक्रम क्रियान्वयन के केन्द्रीय सांख्यिकीय कार्यालय ने जनवरी 2011 में सी.पी.आई. की एक नई शृंखला प्रारंभ की है जिसे CPI-NS कहा जाता है।

विभिन्न सूचकांकों के आधार पर मुद्रास्फीति की स्थिति निम्न प्रकार रही है:

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मुद्रास्फीति के कारण

(CAUSES OF INFLATION)

भारत में मुद्रास्फीति के कारक मांग पक्ष के साथ-साथ पूर्ति पक्ष में भी हैं। इनके अतिरिक्त संरचनात्मक कठोरताओं (structural rigidities) ने भी इसे मदद पहुंचाई है।

(1) मांग पक्ष के कारक (Factors on the Demand side)—मांग पक्ष से मुद्रास्फीति की गति के तेज होने का कारण होता है समग्र मांग में वृद्धि। यह वृद्धि भारत में निम्न कारणों से हुई है :

() मुद्रा की पूर्ति में वृद्धि–भारत जैसे विकासशील देशों में अर्थव्यवस्था का एक भाग ऐसा है जहां मुद्रा का उपयोग नहीं होता है। लेकिन विकास की गति ज्यों-ज्यों तेज होती है, इन क्षेत्रों में मुद्रा का उपयोग बढ़ने लगता है। मुद्रीकरण (monetization) की प्रक्रिया को चालू रखने के लिए मुद्रा की पूर्ति में वृद्धि करने की जरूरत होती है। यह वृद्धि राष्ट्रीय आय में वृद्धि की गति से अधिक होती है, क्योंकि मद्रीकरण के साथ-साथ राष्ट्रीय आय में वृद्धि के कारण भी मुद्रा की मांग बढ़ जाती है। मुद्रा की पूर्ति की वार्षिक वद्धि दर 15 से 18 प्रतिशत रही है जबकि राष्ट्रीय आय की वार्षिक वृद्धि दर 5 प्रतिशत से अधिक नहीं रही। राष्ट्रीय आय में वृद्धि तथा अर्थव्यवस्था के मुद्रीकरण के दो कारण है जिनसे मुद्रा की पूर्ति में वृद्धि की आवश्यकता है। मुद्रा की पूर्ति में वृद्धि की दर इन दोनों से भी अधिक रही है। इस अनुपात में उत्पत्ति में वृद्धि नहीं होने के कारण कीमतों पर स्फीतिक प्रभाव पड़ा है।

() लोक व्यय में वृद्धि लोक व्यय दो प्रकार के होते हैविकाससम्बन्धी (developmental) तथा गैरविकास (non-developmental विकास व्यय से अर्थव्यवस्था का उत्पादक क्षमता में वृद्धि होती है और इसलिए राष्ट्रीय उत्पादन में वृद्धि होती है। गैर-विकास व्यय से वास्तविक वस्तु का सृजन नहीं होता है। इससे केवल मौद्रिक आय तथा क्रय शक्ति में वृद्धि होती है। भारत का गैर-विकास कुल लोक व्यय का बहत बदा हिस्सा होता है। 1980-81 में केन्द्रीय तथा राज्य सरकारों का सम्मिलित गैर-विकास व्यय कल लोक व्यय का करीब 34 प्रतिशत था। 2000-01 में इसका हिस्सा बढ़कर 48 प्रतिशत हो गया। यह वृद्धि भी मद्रास्फीति । का एक महत्वपर्ण कारण है। 2004-05 में भारत सरकार का समग्र व्यय 5.5 लाख करोड़ ₹ था जो 2018-19 (ब.अ.) में 24.4 लाख करोड़ ₹ से भी अधिक हो गया। इसने समग्र मांग में वृद्धि में मदद पहुँचाई

(ग) घाटे का वित्त प्रबन्धभारत में इसका अर्थ है नई मुद्रा का सृजन । यह बजट घाट को पाटन का। करता हा प्रथम तीन योजनाओं में घाटे के वित्त द्वारा कुल व्यय का क्रमशः 17, 20 तथा 13 प्रतिशत किया गया। अगली योजनाओं में इसका बहुत बड़ी मात्रा में उपयोग किया गया है। सातवीं योजना में। का मात्रा लगभग 36,000 करोड र थी। यह ऐसा वित्त प्रबन्ध है जिससे मुद्रा की पूर्ति में वृद्धि होती जाती। हा अतः इसका सीधा असर कीमतों पर पड़ता है। 2004-05 से राजकोषीय घाटा GDP के प्रतिशत के रूप म कुछ अंश तक घट रहा था. किन्त 2009-10 इसमें फिर तेजी से वृद्धि हुई और यह बढ़कर GDP का 0.5% हा गया। इसके बाद के वर्षों में इसमें कछ कमी आई और यह 2018-19 (व.अ.) में स. घ. उ. का 3.3% हो गया।

() विदेशी विनिमय रिजर्व में वृद्धि1970 के दशक के उत्तरार्द्ध तथा 1980 के दशक के पूर्वार्द्ध में विदेशी विनिमय रिजर्व में आशातीत वृद्धि हुई। इससे भी मुद्रा की पूर्ति बढ़ती है। 1991 से इसमें और तेजी से वृद्धि हुई।

उपर्युक्त सभी कारक मांग पक्ष से मुद्रास्फीति का सृजन करते हैं।

(2) पूर्ति पक्ष के कारक (Factors on the Supply side)—पूर्ति पक्ष से मुद्रा पूर्ति पर प्रभाव डालने वाले प्रमुख कारक निम्नलिखित हैं :

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() प्रशासनिक कीमतों में वृद्धि कीमतों के निर्धारण को यदि पूर्ण रूप से बाजार तन्त्र पर छोड़ दिया जाए तो विकासशील देशों में, जहां बड़े पैमाने पर विनियोग सार्वजनिक क्षेत्र में योजना के अन्तर्गत किया जाता है, कीमतें आकाश को छूने लगेंगी। पूर्ण प्रतिस्पर्धा के अभाव में तथा दुर्लभता (scarcity) की स्थिति में हालत और भी बिगड़ जाती है। इसलिए सरकार महत्वपूर्ण वस्तुओं की कीमतों को खुद निर्धारित करती है। ये प्रशासनिक कीमतें हैं। भारत में इन कीमतों में बार-बार वृद्धि की गई है जिसका प्रभाव अन्य कीमतों तथा सामान्य कीमत स्तर पर लागत पक्ष से पड़ा है।

() आधारिक संरचना सुविधाओं की कमी पूर्ति पक्ष में यह एक महत्वपूर्ण कारण रहा है। विद्युत्, परिवहन, आदि सुविधाओं के नियमित नहीं होने के कारण उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। इससे भी लागत पक्ष से कीमतों में वृद्धि को सहायता मिलती है।

() लागत पक्ष के कुछ अन्य कारक हैंआवश्यक वस्तुओं के आयात मूल्य में वृद्धि, उपभोक्ता वस्तुओं के उत्पादन में कमी, दोषपूर्ण प्रबन्ध, निवेश तथा उत्पादन के मध्य की लम्बी खाई (long gestation period) आदि। दिसम्बर 2009 एवं इसके उपरान्त मुद्रास्फीति में वृद्धि के प्रमुख कारण रहे हैं चावल, गेहूं, दलहन, सब्जियों तथा फल, दूध, मछली तथा मांस एवं चाय जैसी प्राइमरी वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि, ईंधन वर्ग में गैर-प्रशासनिक खनिज तेल की कीमतों में वृद्धि तथा विनिर्मित वर्ग में चीनी-गुड़ तथा खली की कीमतों में वृद्धि।

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मुद्रास्फीति के नियन्त्रण के उपाय

(REMEDIES TO CONTROL INFLATION)

मुद्रास्फीति के अनेक कारण हैं। इसलिए इसके नियन्त्रण के लिए कई तरह के उपायों की आवश्यकता पड़ती है। भारत में प्रथम योजनाकाल से ही कीमतों में स्फीतिक वृद्धि को रोकने के उपाय किए गए हैं।

द्वितीय विश्वयुद्ध काल से ही कीमतों में वृद्धि शुरू हुई। युद्धकाल में कीमत नियन्त्रण (Price control) । तथा राशनिंग (rationing) की नीति को अपनाया गया। महात्मा गांधी कीमत नियन्त्रण नीति के घोर विरोधी थे। इसलिए स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद उनकी इच्छा को ध्यान में रखते हए, कीमत नियन्त्रण की नीति को कुछ। समय के लिए समाप्त कर दिया गया।

1961 तक भारत सरकार कीमतों को नियन्त्रित करने की नीति के विषय में अधिक गंभीर नहीं थी। इसका कारण यह था कि कीमतों में धीरे-धीरे वृद्धि हो रही थी तथा मूल्य वृद्धि के खिलाफ कोई लोक प्रदर्शन नहीं था। किन्तु । 1961 के बाद स्थिति बदल गई। कीमतों में तेजी से वृद्धि हई। इसलिए सरकार को कई प्रकार के उपाय कीमता। को बढ़ने से रोकने के लिए करने पड़े। चूंकि मूल्य वृद्धि के मुख्य कारण थे आवश्यक वस्तुओं की पूर्ति का मांग से कम होना तथा मुद्रा की पूर्ति तथा बैंक साख में तीव्र वृद्धि, इसलिए स्फीति के नियन्त्रण के लिए जो कदम उठाए। गए उनका सम्बन्ध मुद्रा की पूर्ति, महत्वपूर्ण वस्तुओं की कीमतों का निर्धारण (प्रशासनिक कीमतों की व्यवस्था)। तथा उचित मूल्य की दुकानों द्वारा आवश्यक वस्तुओं का वितरण (सार्वजनिक वितरण प्रणाली की व्यवस्था) से। था। इन सारे उपायों को दो विस्तृत वर्गों में विभाजित किया जा सकता है, यथा, मांग प्रबन्ध तथा पूर्ति प्रबन्ध।

मांग प्रबन्द (Demand Management)

(1) माद्रिक नीतिसरकार ने सामान्य एवं चयनात्मक साख नियन्त्रण उपायों का पूरा-पूरा उपयोग किया हानातिका मुख्य दबाव उन वस्तुओं के लिए बैंक साख को कम करना रहा है जिनकी कीमतों में वृद्धि का आधक सम्भावना रहती है (inflation-sensitive goods) तथा बैंक साख की उपलब्धता पर रोक लगाना तथा साख की लागत में वृद्धि करना रहा है। खाद्यान्न, कपास, तिलहन तथा तेल, चीनी,टेक्सटाइल, आदि पर चयनात्मक साख व्यवस्था लागू की गई है। साथ ही बैंक दर में वृद्धि की गई।

यह सावधानी भी बरती गई कि अर्थव्यवस्था में न तो अत्यधिक तरलता का सृजन हो और न ही उत्पादक तथा प्राथमिकता वाले क्षेत्रों की वास्तविक साख आवश्यकता की पूर्ति में कठिनाई हो। अतिरिक्त तरलता को । कम करने के लिए नकद रिजर्व अनुपात (Cash Reserve Ratio CRR) में वृद्धि की गई।

किन्तु, 1990 के दशक के उत्तरार्द्ध से मद्रास्फीति की दर के लगातार घटने से बैंक दर तथा CRR म लगातार कमी की गई तथा ब्याज दरों को भी घटाया गया है। साथ ही, व्याज दरों को सरकार द्वारा निर्धारित। उच्चतम सीमा के अन्तर्गत बाजार द्वारा तय होने के लिए खुला छोड़ दिया गया है।

(2) राजकोषीय नीतिसरकार ने राजकोषीय नीति का भी सहारा लिया है। 1970 के दशक से कीमतों में वृद्धि को देखते हुए व्यय-योग्य आय में कमी करने के लिए करारोपण का उपयोग किया (जैसे-अनिवार्य बचत। योजना), अनुत्पादक व्यय में कटौती, कर चोरी को रोकने के प्रयत्न, बजट घाटे को कम करने के उपाय, आदि।।

(3) पूर्ति प्रबन्धपूर्ति प्रबन्ध का सम्बन्ध पूर्ति के परिमाण तथा वितरण प्रणाली से है। यहां सरकार ने जो कदम उठाए वे इस प्रकार हैं:

  • अधिकतम कीमतों का निर्धारण कपड़ा, चीनी, वनस्पति, जैसी वस्तुओं के लिए:
  • दोहरी कीमत प्रणाली का चीनी, सीमेण्ट, कागज, आदि वस्तुओं में उपयोग;
  • स्फीति उन्मुख वस्तुओं जैसे—तिलहन, दलहन, चाय, चीनी, आदि के उत्पादन में वृद्धि के उपाय;
  • जन वितरण प्रणाली को मजबूत बनाना;
  • खाद्यान्नों के निजी व्यापार पर नियन्त्रण
  • कृषि उत्पादन में वृद्धि के उपाय; आदि।

सूखा तथा मुद्रास्फीति (Drought and Inflation)-14 वर्षों तक लगातार सामान्य वर्षा (normal or near normal rainfall) के पश्चात 2002-03 में 17 राज्यों में सूखा पड़ गया। इससे यह आशंका व्यक्त की जाने लगी है कि मुद्रास्फीति की दर बढ़ जाएगी किन्तु, ऐसा हुआ नहीं। 2002-03 में थोक मूल्य सूचकांक में मात्र 2.6 प्रतिशत (52 सप्ताहों का औसत) की वृद्धि हुई, जबकि 18 जनवरी, 2003 में वृद्धि की दर 4.4 प्रतिशत थी। आर्थिक सर्वेक्षण 2002-03 के अनुसार मुद्रास्फीति की वार्षिक दर 2001-02 में 1.4 प्रतिशत की तुलना में 2002-03 में 4.4 प्रतिशत थी।

यहां ऐसा पूछना स्वाभाविक है कि सूखा के बावजूद कीमतों में तेजी क्यों नहीं आई ? दसरे शब्दों में सूखा तथा स्फीति के सम्बन्ध की जांच अति आवश्यक बन गई है।

कमजोर मानसन के कारण कृषि/खाद्यान्नों की उत्पत्ति में कमी आ जाती है। इससे खाद्यान्नों का अभाव हो जाता है तथा खाद्य पदार्थों की कीमतों में वृद्धि के कारण मुद्रास्फीति की दर भी बढ़ने लगती है।। __1970 के दशक में तीन वर्षों में वर्षा की कमी रही जिससे सूखा पड़ा और इन सभी वर्षों में स्फीति। दर दो अंकों में रही। 1974-75 में वर्षा की कमी के साथ एक अन्य महत्वपूर्ण घटना घटी। इस वर्ष OPEC कार्टेल की स्थापना के पश्चात तेल की कीमतें चौगुनी हो गई। इसलिए मुद्रास्फीति की दर 25.2 प्रतिशत रही। जो एक रिकॉर्ड है।

1980 के दशक में तीन वर्षों में वर्षा का अभाव रहा। इन तीनों वर्षों में कृषि तथा खाद्यान्न की वार्षिक वृद्धि दर ऋणात्मक रही। ये वर्ष थे 1982-83, 1986-87, तथा 1987-88 जिनमें मुद्रास्फीति की दर 5 से 8 प्रतिशत रही। हाल के वर्षों में हमारी कृषि अर्थव्यवस्था अभाव का जगह अतिरेक (Shortage to Surpines की स्थिति में आ गई है। इसलिए इस पर अब प्राकृतिक आपदाआ की वसी मार नहीं पड़ती है। इन तीनों वर्षों में खाद्यान्नों के भण्डार में अतिरेक (Surplus) के कारण स्फीति की औसत दर निम्न स्तर पर बनी रही। साथ ही खाद्यान्न उत्पादन के लिए वर्षा पर निर्भरता के घटने के कारण भी सखा का वियोग उत्पादन पर नहीं पड़ता है। इसलिए 2002-03 के सूख का भा प्रभाव मुद्रास्फीति पर अधिक नहीं पडां 2002-03 में खाद्यान्न के कल उत्पादन का 55 प्रतिशत सिंचाई वाले क्षेत्रों में हुआ तथा केवल 45 प्रतिशत निर्भरता वर्षा पर थी। इसके विपरीत 1987-88 में खाद्यान्न के कुल उत्पादन का केवल 33 प्रतिशत सिंचित भूमि में पैदा हुआ। 1970 के दशक में यह भाग मात्र 25 प्रतिशत पर था। इन्हीं कारणों से सूखा का अब अधिक प्रभाव स्फीति पर नहीं पड़ता है। क्या यह विश्लेषण सही है?

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2008-09 से खाद्य मद्रास्फीति में जो वन्दि शरू हई वह 2016-17 तक बनी रही। इसका प्रमुख कारण था 1972 के बाद इस वर्ष दक्षिण-पश्चिम मानसून का सर्वाधिक प्रतिकूल होना। इस प्रकार मुद्रास्फीति पर प्रमुख प्रभाव पूर्ति पक्ष से पड़ा। इसलिए सरकार ने पूर्ति को बढ़ाने के कई उपाय किए, जैसे—चावल, गेहूं, दलहन, खाने के तेल, मक्का तथा चीनी पर लगे आयात शुल्क को शून्य कर देना, तेलों के आयात शुल्क को घटाना, भारतीय खाद्य निगम के भंडारों से अधिक मात्रा में खाद्यान्नों की राज्यों को निकासी करना, आदि। पूर्ति पक्ष के इन उपायों के साथ-साथ समग्र मांग को नियंत्रण में रखने के भी अनेक उपाय किए गए हैं, रेपो दर, नकद रिजर्व अनुपात (CRR) तथा वैधानिक तरलता अनुपात (SLR) को नियन्त्रित करके अर्थव्यवस्था में तरलता को कम करना, आदि।

भारत सरकार के प्रमुख आर्थिक सलाहकार, कौशिक बसु का कहना है कि हम लोगों को वस्तु-विशेष की अल्पकालिक कीमत वृद्धि को सभी वस्तुओं की लगातार कीमत वृद्धि से पृथक करना चाहिए। प्रथम प्रकार की वृद्धि सापेक्ष कीमतों का अल्पकालिक समायोजन है, जबकि दूसरे की वृद्धि को ही मुद्रास्फीति कहा जाता है। इसलिए पहले प्रकार की कीमत वृद्धि के लिए क्षेत्र-विशेष (sector-specific) की समस्या पर ध्यान देना चाहिए, जैसे, मांग-पूर्ति असंतुलन, भागीदारों के विस्तृत बाजार प्रवेश के आवश्यक सुधार तथा वस्तु को उपभोक्ता तक पहुंचाने के पथ पर आने वाले इंफ्रास्ट्रक्चर संबंधी अवरोधों को दूर करना। बसु ने अविवेचित नियंत्रण (control), जैसे, निर्यात पर रोक, कीमत के बढ़ने पर रोक, आदि उपायों को उचित नहीं ठहराया। उनका कहना है कि निर्यात पर रोक से समस्या सुलझने के बजाय और बिगड़ सकती है। उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा कि हाल ही में भारत ने रुई के निर्यात पर रोक लगा दी, क्योंकि कपड़े के उत्पादकों ने ऊंची इनपुट कीमत की शिकायत की। लेकिन इस सरकारी निर्णय से रुई उपजाने वाले किसानों के हित को नुकसान पहुंचा। बसु ने आगे कहा कि भारत के रुई निर्यात प्रतिबन्ध ने पाकिस्तान के कपड़ा उद्योग को बर्बाद कर दिया, क्योंकि बाढ़ के कारण वहां कच्ची रुई की 25 लाख गांठ (bales) नष्ट हो गई। इसलिए क्षेत्र विशेष समस्या के लिए समाधान है सुधार तथा अग्रवर्ती दृष्टि (forward-looking) वाले निवेश, पीछे की ओर ले जाने वाले नियंत्रण नहीं। जरूरत है उस स्पष्ट नीति की जिससे वे सारे अवरोधक (bottlenecks) समाप्त हो जायं, जो आर्थिक वृद्धि को कुंठित करते हैं तथा मुद्रास्फीति की सृष्टि करते हैं।’

आर्थिक सर्वेक्षण (2010-11) के अनुसार, वैश्विक संकट के कम होने तथा पुनरुद्धार के गति पकड़ने के साथ मुद्रा स्फीति उन विकासशील देशों में विशेष रूप से तेज हो रही है जो तेजी के साथ विकास कर रहे हैं। भारत में मुद्रा स्फीति को खाद्य एवं ऊर्जा क्षेत्र बल प्रदान कर रहे हैं। इनके अतिरिक्त ईंधन, धातु तथा खनिज वस्तुओं की बढ़ती कीमतें भी प्रभाव डाल रही हैं। खाद्य मुद्रा स्फीति एक साल से अधिक समय से दो अका में बनी हुई है। इसकी रोकथाम के लिए भारतीय रिजर्व द्वारा मौद्रिक नीति के उपयोग करने के साथ-साथ पूर्ति पक्ष के अवरोधकों को दूर करने का प्रयास किया जा रहा है।

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प्रश्न

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

1 योजनाकाल में भारत में मुद्रास्फीति की स्थिति पर प्रकाश डालें।

2. मुद्रास्फीति के नियन्त्रण के लिए भारत में क्या कदम उठाए गए हैं? विस्तार से लिखें।

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लघु उत्तरीय प्रश्न

1 सूखा तथा मुद्रास्फीति के सम्बन्ध पर प्रकाश डालें।

2. मुद्रास्फीति के कारणों को संक्षेप में लिखें।

3. वर्तमान खाद्य मुद्रास्फीति की रोकथाम के सरकारी प्रयलों की विवेचना करें।

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