BCom 1st Year Business Environment Meaning & Characteristics Study Material Notes in hindi

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BCom 1st Year Business Environment Meaning & Characteristics Study Material Notes in Hindi

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Meaning & Characteristics
Meaning & Characteristics

BCom 1st Year Business Environment Study Material Notes in Hindi

व्यवसाय का अर्थ तथा विशेषताएं

[MEANING AND CHARACTERISTICS OF BUSINESS]

व्यवसाय का अर्थ

(MEANING OF BUSINESS)

अर्थव्यवस्था के सरलतम चित्र में इसके भागीदारों को दो वर्गों में विभाजित किया जाता है : परिवार या व्यक्ति (Households or Individuals) तथा व्यवसाय (Business)। व्यवसाय वह आर्थिक क्रिया है। जिसके द्वारा वस्तुओं तथा सेवाओं का उत्पादन तथा वितरण किया जाता है, जबकि परिवार द्वारा इन वस्तुओं

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तथा सेवाओं को उपभोग के लिए खरीदा जाता है। इसे चित्र 1.1 में प्रस्तुत किया गया है जहां भीतरी वृत्त वास्तविक जिन्स तथा बाहरी वृत्त मौद्रिक प्रवाह को दर्शाते हैं। वास्तविक वस्तुएं (real goods) व्यवसायी के लिए उत्पादन के साधन हैं, जबकि वे परिवार के लिए उपभोग की चीजें । उत्पादन की क्रिया के लिए आवश्यक उत्पादन के साधन-भूमि, श्रम, पूंजी तथा साहस—परिवार द्वारा व्यवसायी को प्रदान किए जाते हैं। इनके लिए परिवार को लगान, मजदूरी, ब्याज तथा लाभ के रूप में मौद्रिक आय प्राप्त होती है। इस आय को परिवार व्यवसायी द्वारा उत्पादित एवं प्रदत्त वस्तुओं तथा सेवाओं की खरीद पर खर्च करता है। यह व्यय व्यवसायी के लिए आय है, जिसे वह उत्पादन के साधनों की सेवाओं को प्राप्त करने के लिए खर्च करता है।

उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर डेविस (Davis) ने व्यवसाय (Business) की निम्न परिभाषा दी है : “व्यवसाय वस्तुओं तथा सेवाओं का उत्पादन करने, बाजार में उनकी बिक्री करने तथा इस प्रयास से लाभ प्राप्त करने वाले व्यक्तियों का संगठित प्रयास है।

इसी से मिलती-जुलती परिभाषा उरविक तथा हण्ट (Urwick and Hunt) की है : “व्यवसाय एक उद्यम है जो किसी वस्तु या सेवा का निर्माण करता है, वितरण करता है या समाज के उन अन्य सदस्यों को प्रदान करता है जिन्हें इसकी आवश्यकता है तथा जो इसकी कीमत के भुगतान के लिए सक्षम तथा इच्छुक हैं।”

व्यावसायिक पर्यावरण व्यवसाय की कुछ अन्य परिभाषाएं निम्न प्रकार हैं :

हैने का कहना है कि “व्यवसाय से आशय उन मानवीय क्रियाओं से है जो वस्तुओं के क्रय-विक्रय द्वारा धन उत्पादन या धन प्राप्ति के लिए की जाती हैं।”

हूपर के द्वारा व्यवसाय की एक व्यापक परिभाषा दी गई जो इस प्रकार है :

“व्यवसाय का तात्पर्य आधारभूत उद्योगों, प्राविधिक एवं निर्माणी उद्योगों तथा सहायक सेवाओं के व्यापक जाल; वितरण, बैंकिंग, बीमा, यातायात आदि वाणिज्यों तथा उद्योगों के सम्पूर्ण जटिल क्षेत्र से है जो सम्पूर्ण व्यावसायिक जगत् की सेवा करता है तथा उसमें अन्तर्व्याप्त है।”

इस प्रकार व्यवसाय के अन्तर्गत मनुष्य को व्यस्त रखने वाली सभी क्रियाएं उत्पादन, वितरण, विनिमय, यातायात, सेवाएं शामिल हैं, पर अर्थशास्त्र की पारिभाषिक शब्दावली में व्यवसाय के अन्तर्गत केवल उन्हीं मानवीय क्रियाओं को शामिल किया जाता है जिनका सम्बन्ध वस्तुओं तथा सेवाओं के उत्पादन एवं वितरण तथा उन्हें बाजार में बेचकर लाभ प्राप्त करने से है (कभी-कभी इस प्रक्रिया में हानि भी हो सकती हैं ।

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औद्योगिक संगठन के सन्दर्भ में व्यावसायिक प्रबन्ध का विश्लेषण करते हुए प्रसिद्ध अर्थशास्त्री अल्फ्रेड मार्शल’ का कहना है कि व्यवसाय में उन सभी क्रियाओं को शामिल किया जाता है जिनका सम्बन्ध अन्य लोगों की आवश्यकताओं के उन प्रावधानों से है जिनसे प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से भुगतान पाने की आशा रहती है उन लोगों से जो इनसे लाभान्वित होते हैं। इस तरह व्यवसाय में स्वयं की आवश्यकता के लिए किए गए प्रावधान को शामिल नहीं किया जाता है; उन क्रियाओं को भी शामिल नहीं किया जाता है जिनके सम्पादन का आधार मित्रता तथा पारिवारिक स्नेह होता है। उपर्युक्त व्याख्या से निम्न तथ्य निकलते हैं :

  • अन्य लोगों की आवश्यकताओं की संतुष्टि के लिए किए गए प्रावधान व्यवसाय में शामिल होते
  • ऐसी क्रियाएं इसलिए की जाती हैं, क्योंकि इन प्रावधानों से लाभ प्राप्त करने वाले इनके लिए प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से भुगतान करते हैं (अर्थात् कीमत का भुगतान करते हैं)
  • व्यवसाय में व्यक्ति द्वारा अपनी स्वयं की आवश्यकता की संतुष्टि के लिए किए गए प्रावधानों (क्रियाओं) को शामिल नहीं किया जाता है, क्योंकि इनके लिए कोई भुगतान नहीं किया जाता है।
  • मित्रता तथा पारिवारिक प्रेम के लिए की गई सेवाओं को भी व्यवसाय में सम्मिलित नहीं किया जाता है क्योंकि इनके लिए कोई कीमत नहीं ली जाती है।

परिवार एवं व्यवसाय, दोनों का ही सम्पर्क बाहरी दुनिया से बाजार द्वारा होता है। आर्थिक समन्वयन (Coordination) का प्रमुख यन्त्र बाजार ही है। बाजार उन सभी विभिन्न प्रबन्धों का नाम है जिन्हें लोग एक-दूसरे के साथ व्यापार करने के लिए व्यवहार करते हैं।

उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर ऐसा कहा जा सकता है कि व्यवसाय में वे सभी आर्थिक क्रियाएं शामिल हैं जिनका उद्देश्य लाभ का उपार्जन करना है, अर्थव्यवस्था को जरूरत की उन सभी वस्तुओं तथा सेवाओं का उत्पादन कर समाज के अन्य सदस्यों तक पहुंचाना है उस कीमत पर जिसका वे भुगतान कर सकते हैं। अतः डेविस तथा ब्लॉमस्टार्म (Davis and Blomstorm) के शब्दों में, “व्यवसाय में सभी लाभ उपार्जन करने वाली क्रियाएं तथा उद्यम शामिल हैं जो अर्थव्यवस्था के जरूरत की वस्तुओं तथा सेवाओं को प्रदान करते हैं।

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व्यवसाय का अर्थ तथा विशेषताएं व्यवसाय के अर्थ को स्पष्ट करते हुए मानव अधिकारी’ ने मत व्यक्त किया है :

  • व्यवसाय एक लेनदेन या कारोबार (transaction) है, अधिक सही यह कहना होगा कि यह एक विनिमय कारोबार (exchange transaction) है, जो वस्तुओं तथा सेवाओं के क्रेताओं और विक्रेताओं, मजदूरी की दर तय करने के लिए प्रबन्धक एवं श्रम संघ या आर्थिक नीति में सुधार के लिए उद्योग तथा सरकार के मध्य होता है।
  • ऐसे सभी कारोबारों को करने के लिए काफी कारोबारी लागत (transaction cost) की आवश्यकताहोती है।
  • विनिमय (व्यावसायिक) लेनदेन की प्रक्रिया में शामिल दोनों पक्ष इस लागत को कम करना तथा प्रतिफल (returns) को अधिकतम करना चाहते हैं।

यही व्यावसायिक खेल, व्यावसायिक रणनीति तथा व्यावसायिक कौशल का सार है।

एक अन्य धारणा यह है कि व्यवसाय रूपान्तरण है। यह एक ऐसी क्रिया है जिसके द्वारा श्रम, पदार्थो, मशीनों, आदि जैसे आगतों (inputs) को वस्तुओं और सेवाओं जैसे उत्पादों (Product) के प्रवाह में बदल देती है। ऐसा करने का उद्देश्य शुद्ध मूल्य संवर्धन (net value added) को अधिकतम करना होता है। रूपान्तरण की प्रक्रिया में लागत का तत्व सम्मिलित है। यह रूपान्तरण लागत (transformation cost) है। सभी व्यावसायिक संगठनों का उद्देश्य ऐसी लागत को न्यूनतम करना तथा लाभ को अधिकतम करना होता है।

इस प्रकार व्यवसाय, चाहे इसे लेनदेन के रूप में देखा जाए या रूपान्तरण के रूप में,

  • एक आर्थिक क्रिया है।
  • व्यावसायिक फर्म आर्थिक इकाइयां हैं; तथा
  • व्यावसायिक निर्णय आर्थिक निर्णय हैं, क्योंकि इनमें चयन (choice) की क्रिया शामिल है।

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व्यवसाय की विशेषताएं

(CHARACTERISTICS OF BUSINESS)

उपर्युक्त विवेचना के आधार पर व्यवसाय की निम्नलिखित विशेषताएं सामने आती हैं :

(1) लाभ प्रदान करने वाली क्रियाएं (Profit-seeking Activities) जैसा कि मार्शल तथा डेविस एवं ब्लॉमस्टार्म का कहना है, व्यवसाय के अन्तर्गत वे ही क्रियाएं तथा उद्यम शामिल किए जाते हैं जिनका उद्देश्य लाभ तलाशना होता है। इस उद्देश्य में जो सफल होते हैं और जो सफल नहीं होते हैं, सभी व्यवसायी हैं।

(2) वस्तुएं तथा सेवाएं प्रदान करना (Providing Goods and Services)—व्यवसाय उसे कहेंगे या व्यवसायी वह है जो व्यक्ति या परिवार को वस्तुएं तथा सेवाएं प्रदान करता है ताकि वे उपभोक्ता के रूप में इनका उपभोग कर सकें। इन वस्तुओं और सेवाओं को मुफ्त प्रदान नहीं किया जाता है बल्कि कीमत के रूप में भुगतान लेकर प्रदान किया जाता है।

(3) उत्पादक साधनों का क्रेता (Buyer of Factors of Production)—व्यक्ति या परिवार केवल उपभोक्ता नहीं है। वह उत्पादन के विभिन्न साधनों-भूमि, श्रम, पूंजी तथा साहस का स्वामी भी है। इन्हें वह व्यवसायी को बेचता है। इनके लिए व्यवसायी से जो कीमत मिलती है वह उनकी आय है। इस प्रकार जहां परिवार उपभोक्ता वस्तुओं का क्रेता है वहां व्यवसायी उत्पादक साधनों का क्रेता है। उपभोक्ता वस्तुओं का प्रत्यक्ष उपभोग होता है। किन्तु, साधनों का क्रय प्रत्यक्ष उपभोग के लिए नहीं होता है, बल्कि उत्पादन क्रिया में सहयोग प्रदान करने के लिए होता है। अतः परिवार तथा व्यवसाय की खरीद में अन्तर है।

(4) अर्थव्यवस्था का भागीदार (Participant in the Economy) अर्थव्यवस्था के भागीदारों को दो वर्गों में विभाजित किया जाता है, यथा परिवार एवं व्यवसाय । परिवार उस वर्ग का हिस्सा है जिसका प्रमुख कार्य उपभोग करना है अर्थात् वह उपभोक्ता वर्ग है। व्यवसाय उस वर्ग का हिस्सा है जिसका प्रमुख कार्य वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन करना है। इनका उत्पादन यह वर्ग अपने लिए नहीं करता है बल्कि समाज के अन्य सदस्यों के लिए करता है। इस प्रकार यह वस्तुओं तथा सेवाओं के प्रवाह का सृजन करता है।

(5) आय प्रवाह का सृजन (Generation of Income Flow)-वस्तुओं तथा सेवाओं के प्रवाह का सृजन करने के साथ-साथ व्यवसाय द्वारा आय के प्रवाह का भी सृजन होता है। जब व्यवसाय द्वारा उत्पादन  के साधनों की खरीद होती है, इन साधनों के स्वामियों को बदले में जो कीमत मिलती है वह उनकी आय है। इस तरह व्यवसाय के माध्यम से आय के प्रवाह का सृजन होता है। ।

(6) प्रतिस्पर्धा (Competition) व्यवसाय उत्पादन करने वाली इकाई है। किसी भी वस्तु के उत्पादन में अनेक व्यक्ति या संस्थाएं लगी रहती हैं जो एक-दूसरे से अलग होती हैं। अपनी वस्तुओं को बेचने में उन्हें प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ता है।

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 (7) लाभ की अनिश्चितता (Uncertainty of Profit) व्यवसाय का सम्बन्ध उन क्रियाओं से है जो लाभ प्राप्त करने के उद्देश्य से की जाती हैं, किन्तु इस मकसद में व्यवसायी को हमेशा सफलता नहीं मिलती। है। प्रत्येक व्यवसाय में अनिश्चितता का तत्व रहता है। प्रोफेसर एफ. एच. नाइट (Knight) के अनुसार, जिस जोखिम की बीमा नहीं की जा सकती है (non-insurable risk) वही अनिश्चितता का सृजन करती है। ऐसी अनिश्चितता के वहन का पुरस्कार ही लाभ है, लेकिन लाभ का प्राप्त होना निश्चित नहीं है, क्योंकि सभी व्यवसायियों का अनुमान हमेशा सही नहीं निकलता है।

(8) ज्ञान (Knowledge) का महत्वड्रकर का कहना है कि व्यवसाय के लिए ज्ञान का अत्यधिक महत्व है। उनका कहना है कि “व्यवसाय को उस प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसके द्वारा बाह्य साधन यथा, ज्ञान, बाह्य परिणाम, यथा, आर्थिक मूल्यों, में रूपान्तरित होता है।” भूमि, श्रम, पूंजी, संगठन और साहस के अतिरिक्त व्यवसायी अपने प्रबन्धकीय तथा तकनीकी ज्ञान से आर्थिक मूल्यों एवं उपयोगिता का सृजन करता है।

(9) व्यापक क्षेत्र (Wide Scope)—व्यवसाय का क्षेत्र बहुत ही विस्तृत एवं विशाल है। इसके अन्तर्गत केवल उत्पादन ही शामिल नहीं है, बल्कि वितरण, परिवहन, संचार, बैंक, बीमा, गोदाम, विज्ञापन, पैकेजिंग, कम्प्यूटर, अनुसन्धान, आदि भी आ जाते हैं।

(10) वैधानिक अस्तित्व (Legal Existence)—व्यवसाय का वैधानिक अस्तित्व होता है अर्थात् इसकी स्थापना देश के व्यवसाय एवं कम्पनी अधिनियमों के अनुसार होती है। व्यवसायी इन्हीं नियमों एवं नियमनों के अन्तर्गत कार्य करता है। वैधानिक अस्तित्व के कारण व्यावसायिक फर्मों पर, इनके स्वामियों से पृथक्, कानूनी कार्यवाही की जा सकती है।

(11) जटिल क्षेत्र (Complex field)–आधुनिक व्यवसाय उत्पादन एवं वितरण से सम्बन्धित उद्योग एवं वाणिज्य का एक जटिल क्षेत्र है। आधुनिक व्यवसाय सामान्यतः बड़े पैमाने पर होता है, अल्पाधिकार (oligopoly) की हालत में परिचालित होता है, इसमें विविधता रहती है, अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर फैला होता है, तकनीकी प्रधान होता है तथा बड़ी तेजी से बदलता रहता है।

(12) उपभोक्ता के हित की अनदेखी (Disregard of Consumers Interest)—चूंकि आज का व्यवसाय वृहत् पैमाने पर होता है, इसलिए काफी शक्तिशाली होता है। इसलिए यह अक्सर उपभोक्ताओं के हित की अनदेखी करता है तथा सामाजिक कल्याण की अवहेलना। इस कारण सरकार को कभी-कभी व्यावसायिक क्रियाओं का नियमन करना पड़ता है।

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व्यवसाय के स्वरूप

(FORMS OF BUSINESS ORGANISATION)

फर्म की धारणा (Concept of a Firm)

फर्म अर्थात् व्यावसायिक कम्पनी अर्थव्यवस्था का वह एजेण्ट है जो उत्पादन-संबंधी निर्णय लेती है। वस्तुतः प्रायः सभी उत्पादन विशिष्ट संस्थाओं (specialised organisations) द्वारा होता है। ये संस्थाएं छोटे, मध्यम या बड़े व्यवसाय हो सकती हैं। यह समझना चाहिए कि उत्पादन फर्म में ही क्यों होता है?

फर्म के अस्तित्व के अनेक कारण हैं, किन्तु सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारण यह है कि व्यावसायिक फर्म विशिष्ट संस्थाएं हैं जो उत्पादन की प्रक्रिया के प्रबन्धन में लगी रहती हैं। इनके प्रमुख कार्य हैं व्यापक उत्पादन (mass production) के लाभ का दोहन करना, धनराशि जमा करना तथा उत्पादन के साधनों को संगठित करना।

फर्म के रूप में उत्पादन को संगठित करने वाला सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण घटक (factor) व्यापक उत्पादन के लाभ को प्राप्त करना है। कार्य कशल उत्पादन’ (efficient production) के लिए विशिष्ट (specialised) मशान तथा कारखानों, एकत्रित करने वाली व्यवस्था (assembly lines) तथा सूक्ष्म श्रम विभाजन का। आवश्यकता होती है। मोटरगाड़ी के कार्यकुशल उत्पादन के लिए अमरीका में उत्पादन की वार्षिक दर । कम-से-कम 3 लाख गाड़ियां होती हैं।

ऐसी आशा नहीं की जा सकती है कि श्रमिक स्वयं ही उत्पादन की प्रत्येक क्रिया के लिए सही क्रम में एकत्र हो जायेंगे। यह कार्य फर्म का है जो उत्पादन की क्रिया को शुरू करने के लिए भूमि, थम, पूजा। तथा कच्ची सामग्री को खरीद कर या पट्टे पर लेकर उन्हें समायोजित करता है। यदि श्रम विभाजन तथा विशिष्टीकरण की आवश्यकता नहीं होती, तो हम अपनी जरूरत की सभी चीजों का उत्पादन स्वयं ही अपने घर में कर लेते। लेकिन यह संभव नहीं है कि उत्पादन अकेले ही कर लें। वस्तुतः कार्यकुशल उत्पादन के लिए। व्यवसाय का बड़े पैमाने पर होना आवश्यक है, जो श्रमविभाजन तथा विशिष्टीकरण के बिना संभव नहीं है।

फर्म का दूसरा कार्य है बड़े पैमाने पर उत्पादन के लिए संसाधनों को एकत्र करना। आज एक नए व्यापारिक वायुयान को विकसित करने की लागत बिलियन डॉलर (4,600 करोड़ र) से भी अधिक हा एक नये कम्प्यूटर के शोध व विकास की लागत भी प्रायः इतनी है। इतनी बड़ी मात्रा में पंजी कैसे एकत्रित की जा सकती है? 19वीं सदी में उत्पादन छोटे पैमाने पर होता था, अतः धनी एवं जोखिम उठाने को प्रस्तुत व्यक्ति स्वयं वित्त प्रदान किया करता था। आज ऐसे धनी व्यावसायिक नायक (Captain of industry) नहीं है। आज बड़ी मात्रा में आवश्यक पूंजी कम्पनी के लाभ तथा वित्तीय बाजार से उधार लेकर जमा की जाती है, यह किसी एक व्यक्ति के वश के बाहर की बात है।

व्यावसायिक फर्म ऐसी विशिष्ट संस्था है, जो उत्पादन प्रक्रिया का प्रबन्धन करती है तथा फर्म में ही उत्पादन संगठित होता है। लेकिन फर्म कोई वास्तविक व्यक्ति नहीं है, यह एक अमूर्त धारणा (abstraction) है। बाजार में लेनदेन तो एक व्यक्ति अन्य लोगों के साथ ही करता है। इसलिए कुछ व्यक्तियों या उनके ग्रुप को यह अधिकार होना चाहिए कि वे फर्म के नाम पर निर्णय ले सकें। ऐसे व्यक्ति या व्यक्ति समूह को प्रबन्धक (management) कहा जाता है। करार-संबंधी सभी भुगतानों के बाद की बची हुई आय उसे प्राप्त होती है।

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व्यावसायिक फर्म/संगठन के रूप

(FORMS OF BUSINESS FIRMS/ORGANISATION)

बाजार अर्थव्यवस्था में उत्पादन अनेक प्रकार के व्यावसायिक फर्मों या संगठनों के द्वारा होता है—अत्यन्त लघु एकाकी स्वामित्व से लेकर विशाल कम्पनी तक (from tiniest individual proprietorship to giant corporation) प्रमुख व्यावसायिक फर्म निम्न प्रकार के हो सकते हैं।

एकाकी स्वामित्व (Sole Proprietorship)

यह व्यवसाय का प्राचीनतम रूप है। इस व्यवसाय का स्वामित्व एक ही व्यक्ति के हाथ में रहता है। उन्नीसवीं सदी के प्रारंभ तक अधिकांश व्यवसाय इसी तरह का था, जिसमें एक ही व्यक्ति या परिवार व्यक्तिगत रूप से व्यवसाय के सभी कार्यों के लिए उत्तरदायी होता था। व्यवसाय की सारी जोखिम उसे ही झेलनी पड़ती थी।

यह व्यावसायिक संगठन का एक छोर (one end) है। क्लासिकल लघु व्यवसाय को अक्सर “माता एवं पिता” (“mom-and-pop”) स्टोर कहा जाता था। ऐसी व्यावसायिक फर्मे संख्या में अधिक होती हैं, किन्तु कुल बिक्री में उनका अंश काफी कम होता है। अधिकांश लघु व्यवसायों में बहुत बड़ी मात्रा में व्यक्तिगत प्रयास की आवश्यकता होती है। स्वरोजगार में प्रायः लोग 50 या 60 घंटे प्रति सप्ताह श्रम करते हैं तथा कोई छुट्टी नहीं लेते हैं। इस व्यवसाय का औसत जीवन काल बहुत छोटा होता है।

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साझेदारी

(Partnership)

व्यवसाय के विस्तार के लिए बड़ी मात्रा में पूंजी की आवश्यकता होती है और होती है जरूरत प्रतिभाओं। क सयाग (combination of talents) की। इन आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए एकाकी – को साझेदारी (Partnership) में बदलने की जरूरत है। कोई दो या अधिक व्यक्ति एक साथ मिलकर साझेदारी की स्थापना कर सकते हैं। प्रत्येक साझेदार श्रम तथा पूंजी का कुछ अंश प्रदान करता है, लाभ में कछ हिस्सा प्राप्त करता है तथा हानि या उधार (debts) के भी कुछ अंश को वहन करता है।

साझेदारी व्यवसाय के दो लाभ हैं, यथा

(i) व्यवसाय में नए खून का प्रवेश;

(ii) पूंजी में वृद्धि।

साझेदारी व्यवसाय में सभी साझेदारों की समान शक्ति तथा जिम्मेदारी रहती है तथा ऋण एवं दायित्व के विषय में प्रत्येक साझेदार संयुक्त रूप से उत्तरदायी होता है अर्थात दायित्व असीमित होता है। असीमित दायित्व के कारण साझेदारी व्यवसाय बड़े पैमाने के व्यवसाय के लिए व्यावहारिक नहीं होता है। असीमित दायित्व का अर्थ यह है कि प्रत्येक साझेदार साझेदारी व्यवसाय द्वारा लिए गए उधार के लिए असीमित रूप से जिम्मेवार होता है अर्थात् ऋणदाता साझेदार की उस सम्पत्ति से भी ऋण वसूल सकता है, जो इस साझेदारी व्यवसाय में लगी नहीं है।

असीमित दायित्व के जोखिम तथा पूंजी प्राप्त करने की कठिनाई के कारण ही साझेदारी कृषि तथा खुदरा व्यापार जैसे-छोटे, व्यक्तिगत व्यवसाय तक सीमित है। अधिकांश व्यवसाय के लिए साझेदारी उपयुक्त नहीं है।

कुछ साझेदारी व्यवसायों में सीमित दायित्व की भी व्यवस्था है। नवम्बर 3, 2005 के दैनिक ‘हिन्दू’। (Hindu) के अनुसार भारत सरकार ने सीमित दायित्व साझेदारी (Limited Liability Partnership) लागू करने का प्रस्ताव किया है। नए कानून के अन्तर्गत इसका पृथक् वैधानिक अस्तित्व होगा। इस कानून के अनुसार साझेदारों का दायित्व, छल-कपट (fraud) को छोड़कर, सीमित होगा। कम्पनी रजिस्ट्रार के यहां सीमित दायित्व साझेदारी (LLP) का पंजीकरण होगा। फर्म, निजी कम्पनी तथा सूची में शामिल न होने वाली सार्वजनिक कम्पनी को LLP में बदला जा सकता है। LLP में कम-से-कम दो सदस्य होंगे, अधिकतम संख्या पर कोई सीमा नहीं है।

संयुक्तपूंजी कम्पनी (कॉरपोरेशन) [Joint-Stock Company (Corporation)]

संयुक्त-पूंजी कम्पनी (अमरीका में इसे कॉरपोरेशन कहा जाता है) एक ऐसी फर्म है जिसे कानूनी दृष्टि से अपना पृथक् अस्तित्व प्राप्त है। विकसित बाजार अर्थव्यवस्था में अधिकांश आर्थिक क्रियायें संयुक्त-पूंजी कम्पनी द्वारा संचालित होती हैं। सैकड़ों वर्ष पूर्व संयुक्त-पूंजी कम्पनी की स्थापना राजाओं या विधायकों द्वारा विशेष कानून के माध्यम से की गई। इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी है जिसकी स्थापना ब्रिटेन की महारानी इलिजाबेथ प्रथम द्वारा सोलहवीं सदी में की गयी थी। इस कम्पनी ने ही वस्तुतः भारत में सौ वर्षों से भी अधिक समय तक राज्य किया। उन्नीसवीं सदी में अमेरिका में रेल का निर्माण ऐसी ही कम्पनियों द्वारा हुआ। पिछली सदी में ऐसे कानून पारित हुए हैं, जो किसी भी उद्देश्य के लिए संयुक्त-पूंजी कम्पनी या कॉरपोरेशन की स्थापना के लिए प्रायः किसी को भी अनुमति देते हैं।

आज संयुक्त-पूंजी कम्पनी व्यावसायिक संगठन का वह रूप है जिसकी स्थापना अंशधारियों (Share holders or stock holders) द्वारा देश के भीतर या बाहर की जा सकती है। यह एक ऐसा व्यावसायिक संगठन है जिसे कानून की नजर में पृथक पहचान (separate legal entity) प्राप्त है। इसका स्वामी फर्म के नाम से किए गए किसी भी कार्य के लिए व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदार (personally responsible) नही है, लेकिन इसके संचालक (directors) ऐसा हो सकते हैं। इसके लिए ऐसी कम्पनी के नाम के आगे LTD (Limited) लिखा होता है।

ब्रिटेन में संयुक्त-पूंजी कम्पनी के नाम के बाद Plc या Ltd लिखा होता है। Plc का अर्थ है सार्वजनिक सीमित कम्पनी (Public limited company), जबकि Ltd का अर्थ होता है निजी सीमित दायित्व कम्पनी (private limited liability company) इस संदर्भ में निजी का अर्थ यह होता है कि इस कम्पनी के शेयर स्टॉक एक्सचेंज में खरीदे-बेचे नहीं जा सकते हैं। सार्वजनिक (public) का अर्थ है कि इसके शेयर स्टॉक मार्केट में खरीदे-बेचे जा सकते हैं। ब्रिटेन में अनेक निजी सीमित दायित्व कम्पनियां सार्वजनिक दायित्व कम्पनी की सहायक या पूरक (subsidiary) कम्पनियां होती हैं। सीमित दायित्व के कारण कम्पनी के प्रत्येक स्वामी अर्थात् हिस्सेदार (share holder) का निवेश एवं वित्त कम्पनी में लगाए गए शेयर की मात्रा तक ही। सीमित रहता है।

आधुनिक संयुक्त-पूंजी कम्पनी (कॉरपोरेशन) की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं :

  • ऐसी कम्पनी के स्वामित्व का निर्धारण इसके शेयर के स्वामित्व द्वारा होता है। अगर कोई व्यक्ति कम्पनी के 15 प्रतिशत शेयर का मालिक है, तो उसका कम्पनी में 15 प्रतिशत स्वामित्व है। सार्वजनिक स्वामित्व कॉरपोरेशन का मूल्यांकन स्टॉक एक्सचेंज में होता है। ऐसे ही शेयर बाजार में राष्ट्र के अधिकांश जोखिम पूंजी को एकत्र एवं निवेश किया जाता है।
  • सिद्धान्त में हिस्सेदार ही उस कम्पनी का नियंत्रण करते हैं जिसके वे स्वामी हैं। उन्हें उनके शेयर के अनुपात में ही निवेश प्राप्त होता है। वे ही निदेशकों (directors) का चुनाव करते हैं तथा महत्त्वपूर्ण विषयों पर मतदान करते हैं, लेकिन वस्तुतः, विशाल कॉरपोरेशन के संचालन में हिस्सेदारों का हाथ नहीं रहता है। कारण यह है कि ऐसी कम्पनियों के हिस्सेदार बड़े क्षेत्र में बिखरे हुए होते हैं और वे संस्थापित (entrenched) प्रबन्धकों (managers) के निर्णयों को रद्द नहीं कर सकते हैं। अक्सर एक हिस्सेदार कई कम्पनियों के शेयर खरीद लेते हैं।
  • कॉरपोरेशन के प्रबन्धकों तथा निदेशकों को कम्पनी के संबंध में निर्णय लेने का कानूनी अधिकार होता है। वे निर्णय लेते हैं कि क्या उत्पादन करना है तथा किस विधि द्वारा। वे श्रम संघों के साथ सौदेबाजी करते हैं तथा यह निर्णय लेते हैं कि यदि अन्य फर्म इस कम्पनी का अधिग्रहण करना चाहती है, तो इसे बेचा जाय या नहीं। हिस्सेदार कम्पनी के स्वामी हैं, किन्तु, इसका संचालन प्रबन्धकों द्वारा होता है।

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वित्त एकत्र करने की विधि (Ways of Accumulating Finance)

फर्म दो विधियों से वित्त एकत्र कर सकती है ईक्विटी (equity) तथा ऋण (debt) द्वारा। एकाकी तथा साझेदारी व्यवसाय के स्वामी ही ईक्विटी प्रदान करते हैं। (ईक्विटी वह फंड है जिसे व्यवसाय के स्वामी प्रदान करते हैं, जबकि ऋण व्यवसाय के बाहर से लिया गया उधार है।) संयुक्त पूंजी कम्पनी ईक्विटी को कम्पनी के स्वामी को स्टॉक, शेयर या ईक्विटी बेचकर प्राप्त करती है। ये वस्तुतः स्वामित्व के प्रमाणपत्र हैं, जो स्टॉक, शेयर या ईक्विटी के नाम से जाने जाते हैं। इस क्रिया से मुद्रा कम्पनी के पास जाती है तथा हिस्सेदार (Share holder) कम्पनी के स्वामी बन जाते हैं। हिस्सेदारों को शेयर के मूल्य के बराबर मुद्रा खोने की जोखिम को उठाना पड़ता है तथा कम्पनी के लाभ में हिस्सा पाने का अधिकार प्राप्त होता है। हिस्सेदारों को जिस लाभ का भुगतान किया जाता है, उसे लाभांश (dividend) कहा जाता है।

ईक्विटी फंड प्राप्त करने का एक आसान तरीका यह है कि चालू लाभ को लाभांश के रूप में हिस्सेदारों में न बांटकर या सम्पूर्ण राशि न बांटकर रख लिया जाय, जिसे रखा हुआ लाभ (retained profit) कहा जाता है। इसे अवितरित लाभ (undistributed profit) भी कहा जाता है। आधुनिक समय में अवितरित लाभ निधिकरण (funding) का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत हो गया है।

दूसरा महत्त्वपूर्ण स्रोत, जिससे निधि प्राप्त की जा सकती है, बाह्य उधार देने वालों से उधार प्राप्त करना है। इससे ऋण का सृजन होता है। सभी प्रकार के ऋण में दो सामान्य (common) विशेषतायें हैं :

  • ऋण के रूप में ली गई राशि, जिसे मूलधन (Principal) कहा जाता है, को वापस करना तथा
  • मूलधन पर व्याज का भुगतान करना।

जिस दिन मूलधन वापस किया जाता है उसे ऋण परिशोधन (debt redemption) या ऋण परिपक्वता (debt maturity) तिथि कहा जाता है। ऋण जारी करने तथा ऋण-परिशोधन तिथि के मध्य की अवधि को मीआद या मुद्दत (term) कहा जाता है।

ऋण के संबंध में कई प्रकार से समझौते किए जा सकते हैं। कुछ में बैंक जैसे वित्तीय मध्यस्थ होते है। जो कम्पनी को मुद्रा उधार देते हैं। अन्य में बॉण्ड जैसे ऋण-पत्र जारी किये जाते हैं। बॉण्ड IOU (Towed you) यानी वायदा है कि मुद्रा की एक निश्चित मात्रा किसी भावी तिथि को लौटा दी जायेगी तथा बॉण्ड जारी करने की तिथि तथा परिपक्वता तिथि के मध्य में कई बार व्याज का भगतान किया जायेगा। ऐसा बांद। बिक्री योग्य है अर्थात् अन्य को बेचा जा सकता है।

विल तथा नोट सामान्यतः अल्पकालीन ऋण (एक वर्ष तक) प्राप्त करने के लिए उपयोग में लाए जाते हैं। इन पर किसी निश्चित दर पर ब्याज नहीं मिलता है इन पर केवल मूलधन की रकम तथा परिशोधन (redemption) की तिथि लिखी होती है। दीर्घकालीन ऋण (20 से 30 वर्ष तक) के लिए बॉण्ड, स्टॉक तथा ऋणपत्र डिवेन्चर (debentures) का उपयोग किया जाता है। इन पर परिशोधन की तिथि लिखी होती है बिल की ही तरह। इन पर आवधिक (periodic) ब्याज का भुगतान किया जाता है अधिकांश अन्य उधारों की भांति। आर्थिक विश्लेषण में सरलता के दृष्टिकोण से सभी प्रकार के व्याज-वाहक (interest bearing) ऋणपत्रों को बांड कहा जाता है।

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chetansati

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