BCom 1st Year Business Environment New Economic Policy Study Material Notes in Hindi

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BCom 1st Year Business Environment New Economic Policy Study Material Notes in Hindi

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New Economic Policy Study
New Economic Policy Study

BCom 1st Year Environment Public Sector & Private Sector Study Material Notes in Hindi

नवीन आर्थिक नीति

[NEW ECONOMIC POLICY]

आर्थिक नीति का अर्थ

(MEANING OF ECONOMIC POLICY)

आर्थिक नीति का सम्बन्ध देश की अर्थव्यवस्था के मामले में राज्य के आचरण से है। अर्थव्यवस्था की ओर राज्य का दृष्टिकोण सामान्यतः दो प्रकार का हो सकता है। प्रथम, अहस्तक्षेप की नीति (Laissez faire Policy) के अन्तर्गत राज्य अपने को कानून व्यवस्था बनाए रखने तथा बाह्य आक्रमण से देश की रक्षा करने तक ही सीमित रखता है। द्वितीय, दूसरे छोर पर, राज्य आयोजित अर्थव्यवस्था की तरह अत्यधिक हस्तक्षेप की नीति अपना सकता है।

आर्थिक नीति को दो प्रमुख वर्गों में विभाजित किया जा सकता है, यथा :

(1) व्यष्टि आर्थिक नीति (Micro Economic Policy)—वह नीति जिसका उद्देश्य साधनों के आबंटन में सुधार करना होता है। इस नीति के अन्तर्गत क्षेत्रीय नीति (regional policy), स्पर्धा नीति (अकार्यकुशलता, जैसे—एकाधिकार तथा प्रतिबन्धात्मक व्यवहार को समाप्त करना) तथा मानव शक्ति सम्बन्धी नीति आती हैं।

(2) समष्टि आर्थिक नीति (Macro Economic Policy)—वह नीति जिसका उद्देश्य साधनों का पूर्ण उपयोग तथा मूल्य स्थिरता है। इसके अन्तर्गत राजकोषीय नीति, विनिमय दर नीति, मौद्रिक नीति तथा आय नीति आती हैं। इन सभी नीतियों का उद्देश्य अर्थव्यवस्था को स्थिर रखना होता है।

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भारतीय आर्थिक नीति

(INDIAN ECONOMIC POLICY)

स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत में आर्थिक नीति का उद्देश्य समानता तथा न्याय के साथ तीव्रतर एवं सन्तुलित आर्थिक विकास रहा है। प्रथम योजना का दीर्घकालीन लक्ष्य प्रत्येक 27 वर्षों में प्रति व्यक्ति आय को दूना करना था। विकास योजनाकरण के प्रारम्भिक चरणों में जिस आर्थिक नीति को अपनाया गया उसमें सरकार को विकास का मुख्य कर्ता माना गया। इस नीति के अन्तर्गत निजी विनियोग पर कड़ा नियन्त्रण रखा गया तथा सभी प्रमुख उद्योगों में सार्वजनिक क्षेत्र को प्रमुख भूमिका प्रदान की गई। व्यापार नीति अन्तर्मुखी थी जिसमें आयात प्रतिस्थापन के माध्यम से औद्योगिक विकास पर बल दिया गया। आयात-प्रतिस्थापन को बढ़ावा देने के लिए आयात पर कड़ा नियन्त्रण रखा गया तथा ऊंची दर पर टैरिफ लगाया गया। 1970 के दशक के अन्त तथा 1980 के दशक के प्रारम्भ में यह स्पष्ट हो गया कि इस नीति के फलस्वरूप कशलता में कमी हई तथा भारतीय उद्योग ने विश्व बाजार में अपनी स्पर्धात्मक शक्ति खो दी है। फलतः विकास की दर लक्ष्य से कम रही।

विकास की रणनीति के दोषों को दूर करने के लिए 1980 के दशक के उत्तरार्द्ध में कछ प्रयल किए गए। नए उद्योगों की स्थापना या मौजूदा उद्योगों के विस्तार के लिए सरकार से लाइसेन्स लेना जरूरी था। प्रारम्भिक वर्षों में दर्लभ पूंजी के उचित उपयोग के लिए लाइसेन्स ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. लेकिन धीरे-धीरे इस व्यवस्था का दुरुपयोग होने लगा तथा निर्णय लेने में अत्यधिक विलम्ब होने लगा। इससे परियोजनाओं को पूरा करने में अधिक समय लगने लगा। इससे लागत में वृद्धि होने लगी।

इसमें सन्देह नहीं कि शुरू में भारत ने आर्थिक विकास तथा औद्योगीकरण के क्षेत्र में महत्वपूर्ण प्रगति की, लेकिन धीरे-धीरे यह बात स्पष्ट होने लगी कि अत्यधिक नियन्त्रण तथा संरक्षित वातावरण भावी विकास के लिए बाधक बन रहे हैं। औद्योगिक लाइसेन्स प्रणाली प्रतिस्पर्धा को निरुत्साहित कर रही है। इससे आर्थिक विकास की दर काफी धीमी पड़ गई।

बाह्य क्षेत्र में भारत ने आत्म-निर्भरता की नीति अपनाई। निर्यात प्रोत्साहन की तुलना में आयात प्रतिस्थापन की नीति को अधिक महत्व दिया गया। आयात केवल उन्हीं वस्तुओं का होता था जो देश में उपलब्ध नहीं थीं तथा जो आर्थिक विकास के लिए आवश्यक थीं। विदेशी उद्यमों द्वारा निवेश को प्रोत्साहन नहीं मिला। फलतः जहां एशिया तथा लैटिन अमरीका के अन्य देशों ने बड़े पैमाने पर विदेशी निवेश को आकृष्ट किया वहां भारत को इसकी केवल एक क्षीण धारा ही प्राप्त हुई।

जटिल आयात लाइसेन्स प्रणाली तथा सीमा शुल्क की ऊंची दरों के कारण घरेलू उद्योगों को संरक्षण प्राप्त हुआ। आश्वासित घरेलू बाजार के कारण भारतीय उद्योगों की अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धात्मक शक्ति समाप्त हो गई। इसलिए अन्य एशियाई देशों की तरह भारतीय निर्यात में वृद्धि नहीं हुई।

निर्यात में धीमी गति से वृद्धि के कारण भारत के समक्ष भुगतान सन्तुलन की समस्या खड़ी हो गई जो 1991 के मध्य में शिखर पर पहुंच गई। इसी समय कुछ अन्य समस्याएं भी उठ खड़ी हुईं या और भी जटिल हो गईं जिनमें निम्नलिखित प्रमुख हैं :

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(1) 1980 के दशक में लोक व्यय में अत्यधिक वृद्धि हुई। इस अनुपात में लोक राजस्व में वृद्धि नहीं हो सकी। परिणाम हुआ राजकोषीय घाटा में आशातीत वृद्धि। यह 1990-91 में GDP का 12 प्रतिशत था। इस घाटे की वित्त व्यवस्था आंशिक रूप में विदेशों से ऊंची ब्याज दर पर उधार लेकर की गई।

(2) 1990 के खाड़ी युद्ध के कारण तेल की कीमतों में वृद्धि हो गई। इस कारण आयातित तेल की लागत बहुत बढ़ गई। साथ ही,खाड़ी के देशों में हमारे निर्यात को धक्का लगा तथा पश्चिमी एशिया के प्रवासी भारतीयों द्वारा भेजी गई रकम में कमी हो आई।

(3) राजनीतिक अस्थिरता के कारण विदेशी ऋणदाताओं का विश्वास हम पर से उठ गया, अनिवासी भारतीयों का भी।

(4) मुद्रा स्फीति की दर दो अंकों में चली गई। उपर्युक्त कारणों से विदेशी विनिमय रिजर्व में भारी गिरावट आई और वह केवल दो सप्ताहों के आयात के बराबर रह गया। जून 1991 में पहली बार भारत के इतिहास में ऐसी सम्भावना उठ खड़ी हुई कि भारत अपने ऋण की अदायगी करने में चूक जाएगा।

ऐसी ही परिस्थिति में राव सरकार ने आर्थिक सुधारों की महत्वपूर्ण प्रक्रिया शुरू की जिन्हें निष्ठुर उपाय (Draconian measures) कहा गया। इस सुधार प्रक्रिया के मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित थे:

  • भारतीय उद्योगों की कुशलता (efficiency) तथा विश्व में प्रतिस्पर्धा करने की क्षमता में वृद्धि करना;
  • इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए विदेशी निवेश तथा विदेशी टेक्नोलॉजी का पहले की तुलना में अधिक उपयोग करना;
  • निवेश की उत्पादकता में वृद्धि करना;
  • भारतीय वित्तीय क्षेत्र का तीव्र गति से आधुनिकीकरण करना;
  • लोक उद्यमों के निष्पादन में सुधार।

इन उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए केन्द्रीय सरकार ने जुलाई 1991 में महत्वपूर्ण आर्थिक सुधारों की क श्रंखला (series) की घोषणा की। ये सुधार सर्वागी हैं जिन्हें कई क्षेत्रों में समन्वित क्रियाओं के एक पैकेज सपा में प्रस्तत किया गया। यह सुधार प्रक्रिया इस अवधारणा पर आधारित है कि केवल एक क्षेत्र में सुधार सीमित ही होंगे यदि अन्य सम्बद्ध क्षेत्रों में भी सुधारों को एक साथ लागू नहीं किया जाए। इसलिए नवीन आर्थिक नीति

इन सुधारों के दायरे में लोक वित्त क्षेत्र, विदेशी व्यापार क्षेत्र, वित्तीय क्षेत्र, बैंकिंग क्षेत्र, औद्योगिक क्षेत्र, बीमा क्षेत्र, श्रम क्षेत्र, पूंजी बाजार क्षेत्र, आदि सभी शामिल हैं। कुछ महत्वपूर्ण कदम निम्नलिखित है:

  • रुपए का अवमूल्यन तथा इसकी विनिमय दर का बाजार द्वारा निर्धारण:
  • आयात लाइसेन्स व्यवस्था की समाप्ति कुछ अपवादों के साथ जिनका सम्बन्ध निर्मित उपभोक्ता वस्तुओं तथा कृषि के विदेशी व्यापार से है। चालू खाते में रुपए की परिवर्तनीयता;
  • टैरिफ की संख्या तथा टैरिफ दरों में कमी
  • केन्द्रीय उत्पाद शुल्क में कमी तथा प्रत्यक्ष करों में सीमित सुधार:
  • औद्योगिक लाइसेन्स प्रणाली की समाप्ति उन उद्योगों को छोड़कर जिनका सम्बन्ध स्थानीयकरण या वातावरण से है।
  • MRTP अधिनियम के अन्तर्गत बड़े उद्योगों पर लगे प्रतिबन्धों में ढील (relaxation);
  • विदेशी प्रत्यक्ष निवेश को सरल बनाना;
  • ब्याज दर की संरचना का सरलीकरण।

नई आर्थिक नीति के प्रभाव

(EFFECTS OF THE NEW ECONOMIC POLICY)

1950, 1960 तथा 1970 के दशकों में भारतीय अर्थव्यवस्था की दस वर्षीय औसत वार्षिक वृद्धि दर क्रमशः 3.94 प्रतिशत, 3.74 प्रतिशत तथा 3.17 प्रतिशत अर्थात 3 प्रतिशत के आसपास रही थी। इसे राजकृष्ण ने हिन्दू विकास दर कहा किन्तु, 1980 के दशक में यह बढ़कर 5.65 प्रतिशत के वार्षिक औसत पर आ गई। 1991-92 में भुगतान शेष के संकट के परिणामस्वरूप विकास दर मात्र 1.3 प्रतिशत रही लेकिन, नई आर्थिक नीति को अपनाने के पश्चात् वार्षिक वृद्धि दर 1994-95 से 1996-97 की अवधि में 7.5 प्रतिशत पहुंच गई। दसवीं पंचवर्षीय योजना (2002-07) में 7.5 प्रतिशत तथा ग्यारहवीं योजना (2007-12) में 7.8 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि दर प्राप्त की गई। बारहवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान वर्ष 2012-13, 2013-14, 2014-15, 2015-16 तथा 2016-17 में जीडीपी की वार्षिक वृद्धि दर क्रमशः 5.1%, 6.4%, 7.5%, 8% तथा 7.1% रही।

नई आर्थिक नीति को अपनाने के कारण जिस नए आर्थिक वातावरण का सृजन हुआ है उसमें तीव्र विकास एवं परिवर्तन के लिए तीन कारक जिम्मेवार रहे हैं। ये हैं :

  • तकनीक (Technology);
  • प्रतिस्पर्धा (Competition); तथा
  • सर्वोत्तम अन्तर्राष्ट्रीय व्यवहार (best international practics) का अपनाया जाना।

इन तीनों कारकों से भारत लाभ उठा रहा है। तीव्रगति तकनीकी सुधार हो रहे हैं तथा बाजार में स्पर्धा काफी प्रबल हो गई है। IT क्रान्ति तथा देश के कम्पायमान IT उद्योग के कारण नवीनतम टेक्नोलॉजी उपलब्ध हो रही है।

आयात पर से परिमाणात्मक प्रतिबन्ध की समाप्ति, आयात शुल्क में तेजी से कटौती तथा विदेशी निवेश-प्रत्यक्ष एवं पोर्टफोलियो दोनों को उदार बनाने के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था का तेजी से भमण्डलीकरण हो रहा है। निर्यात में वद्धि, चालू खाते में अतिरेक तथा मजबूत भुगतान शेष की स्थिति विश्व अर्थव्यावसार साथ एकीकरण की सफलता को दर्शाती है।

तकनीक, स्पर्धा तथा सर्वोत्तम अन्तर्राष्ट्रीय व्यवहार की अन्तक्रिया को कृषि तक पहुंचाने की जरूरत है। ताकि हमारी कृषि में विविधता आ सके। इन्फ्रास्ट्रक्चर दूसरा क्षेत्र है जिसमें सुधार की जरूरत है।

दसवीं योजना में नवीन आर्थिक नीति की स्थिति

दसवीं योजना (2002-07) में राज्य की भूमिका को पुनर्परिभाषित किया गया है। इस योजना का कहना है कि लोग सामान्यतः मानने लगे हैं कि अतीत में राज्य ने अपने ऊपर अनेट जामियों को से था जिसके कारण सीमित वित्तीय एवं प्रशासकीय क्षमताओं पर गम्भीर तनान = साहस का गला घुट गया था। ऐसा कहा जा सकता है कि चूंकि निजी क्षेत्र की क्षमता अविकसित थी इसलिए सरकार की आर्थिक क्षेत्र में विस्तृत भूमिका की आवश्यकता थी, लेकिन अब स्थिति में नाटकीय परिवर्तन हुआ है। अब भारत का निजी क्षेत्र शक्तिशाली तथा कम्पायमान (strong and vibrant) है। दूसरी ओर, सार्वजनिक क्षेत्र अब कम प्रबल हो गया है कई क्षेत्रों में तथा इसका महत्व ओर घटने वाला है ज्यों-ज्यों इस क्षेत्र की कम्पनियों में लगी पूंजी का अधिक विनिवेश किया जाता है। स्पष्ट है कि भविष्य में औद्योगिक विकास निजी क्षेत्र के निष्पादन पर ही अधिक मात्रा में निर्भर करेगा सरकार की भूमिका अब एक ऐसे वातावरण का सृजन करने की है जो ऐसे विकास को मदद पहुंचावे। इससे सरकार की भूमिका कम नहीं हुई है, बल्कि बदली हुई परिस्थिति में बदल गई है।

इस बदली हुई आर्थिक परिस्थिति में विकास की प्रक्रिया को कार्यकुशलता (Efficiency) के रूप में देखा जा रहा है। इसलिए अब नीति तथा प्रक्रिया में ऐसे सुधार की जरूरत है जिससे कार्यकुशलता में वृद्धि हो। इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए निम्न सात नीतिगत धारणाओं को अपनाने की जरूरत है :

  • पूंजी के उपयोग में कार्यकुशलता में वृद्धि
  • अधिक खुलापन:
  • पूंजी बाजार को विस्तृत एवं गहन बनाना:
  • कृषि एवं ग्रामीण विकास में तेजी;
  • प्रतिस्पर्धात्मक व औद्योगिक नीति वातावरण
  • सामाजिक तथा आर्थिक संरचना का निर्माण तथा प्रत्येक क्षेत्र में शासन कला में सुधार।

इनमें से प्रत्येक क्षेत्र में नीति में परिवर्तन पर बल दिया गया है ताकि प्राथमिकताओं का फिर से निर्धारण किया जा सके तथा आवश्यकता होने पर अतीत की नीतियों में आमूलचूल परिवर्तन भी किया जा सकता है।

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ग्यारहवीं योजना तथा समावेशी वृद्धि

(ELEVENTH PLAN AND INCLUSIVE GROWTH)

भारत की आयोजित आर्थिक विकास के प्रति कटिबद्धता इस बात का द्योतक है कि :

हम लोगों की आर्थिक स्थिति में सुधार करना चाहते हैं;

इसके लिए अनेक सामाजिक, आर्थिक तथा संस्थागत माध्यमों की आवश्यकता होगी: तथा

ऐसा करने के लिए राज्य की भूमिका अहम है।

इस कटिबद्धता की पृष्ठभूमि में ग्यारहवीं योजना में समावेशी वृद्धि की एक विस्तृत रणनीति को अपनाया गया। दसवीं योजना में वार्षिक वृद्धि की औसत वृद्धि 7.5 प्रतिशत रही, जो उसके पूर्व (प्रथम से नवम) की सभी योजनाओं की तुलना में काफी अधिक थी। इसके बावजूद अधिकांश भारतीयों की आधारभूत आवश्यकताओं, जैसे—भोजन, शिक्षा, स्वास्थ्य, पेय जल तथा मल निकासी, की पूर्ति नहीं हो पाती है। अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़े वर्ग, महिलाओं तथा अल्पसंख्यकों की आर्थिक स्थिति विशेष रूप से बुरी है। ग्यारहवीं योजना में आर्थिक विकास की रणनीति यह है कि इन वर्गों को आय वृद्धि तथा रोजगार का लाभ विशेषकर प्राप्त हो। ऐसा केवल बड़े शहरों में ही न हो, बल्कि गांवों तथा छोटे शहरों में भी। ऐसा सभी राज्यों में हो, न केवल कुछ विकसित राज्यों में।

ग्यारहवीं योजना की आर्थिक नीति का उद्देश्य यह है कि आर्थिक विकास की वार्षिक वृद्धि दसवीं योजना से भी अधिक 2007-08 से 2011-12 के मध्य औसतन 9 प्रतिशत रहे तथा योजना के अन्त तक इसे बढ़ाकर 10 प्रतिशत किया जाय, ताकि भारत विश्व में सबसे अधिक तेजी से वृद्धि करते देशों में से एक हो जाय। इस योजना में औसत वार्षिक वृद्धि दर 7.8 प्रतिशत रही।

इस योजना में निर्धनता, शिक्षा, स्वास्थ्य, महिला तथा बच्चों. इन्फ्रास्ट्रक्चर तथा पर्यावरण से संबंधित 26 माप योग्य सूचकांकों को चिह्नित किया गया है राष्ट्रीय स्तर पर। राज्य स्तर पर 26 राष्ट्रीय स्तर के लक्ष्यों को 13 राज्य स्तर लक्ष्यों में उपविभाजित किया गया है।

आज योजना ऐसी बाजार अर्थव्यवस्था की पृष्ठभूमि में की जाती है जो विश्व स्तर पर एकीकृत होती जा रही है। इसलिए आज की योजना पूर्व योजनाओं से भिन्न है। निर्मित वस्तुओं तथा वाणिज्यिक सेवाओं। के उत्पादन सहित अनेक कार्य पहले सरकार करती थी। अब इन कार्यों का सम्पादन निजी क्षेत्र द्वारा किया जा रहा है। भारत इस अर्थ में भाग्यशाली है कि यहां निजी साहसियों की एक लम्बी परम्परा रही है। आर्थिक सुधारों के कारण जो अवसर प्राप्त हुए उनका भरपूर उपयोग हमारे साहसियों ने किया। किन्तु, इसका यह अर्थ नहीं है कि राज्य की भूमिका अब घट गई है। वस्तुतः राज्य की भूमिका बढ़ गई है, किन्तु, दूसरे क्षेत्री में हट गई है।

ग्यारहवीं योजना की नवीन आर्थिक नीति के अन्तर्गत सार्वजनिक क्षेत्र के लिए नई प्राथमिकताएं निर्धारित की गई हैं। अब सार्वजनिक क्षेत्र को कृषि, ग्रामीण इन्फ्रास्ट्रक्चर, ग्रामीण क्षेत्र में शिक्षा तथा स्वास्थ्य एवं कमजोर वर्ग के लोगों की आर्थिक एवं सामाजिक दशा सुधारने पर विशेष ध्यान देना होगा। समावेशी विकास के लिए कृषि में सुधार की सबसे अधिक आवश्यकता है।

चूंकि हमारे आर्थिक विकास के पथ पर इन्फ्रास्ट्रक्चर का कम विकास एक बहुत बड़ा रोढ़ा है, इसलिए, केवल ग्रामीण ही नहीं, सामान्य स्तर पर इसका विस्तार जरूरी है। इसके लिए निजी सार्वजनिक क्षेत्र को सम्मिलित प्रयास करना होगा। ग्यारहवीं योजना के प्रथम वर्ष में ही मुद्रास्फीति की गति तेज हो गई, मुख्य रूप से अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में तेल तथा खाद्यान्नों की कीमतों में वृद्धि के कारण। इसलिये ग्यारहवीं योजना की आर्थिक नीति का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य रहा है मुद्रास्फीति को नियंत्रण में रखना। इसमें सरकार को अधिक सफलता नहीं मिल पायी है। 2007 के वर्ष से वैश्विक वित्तीय एवं आर्थिक संकट ने ग्यारहवीं योजना की आर्थिक नीति को काफी प्रभावित किया है। इसने आर्थिक वृद्धि की वार्षिक वृद्धि दर पर भी प्रतिकूल प्रभाव डाला है।

बारहवीं पंचवर्षीय योजना (2012-17) कोतीव्र, धारणीय और अधिक समावेशी विकास‘ (Faster, Sustainable and More Inclusive Growth) के केन्द्रीय दृष्टिकोण के आधार पर तैयार किया गया था। इस योजना में 8.0 प्रतिशत वार्षिक वृद्धि का लक्ष्य रखा गया था। इस योजना में ऊर्जा, परिवहन, ग्रामीण रूपान्तरण कृषि तथा विनिर्माण एवं सार्वजनिक सेवाओं के विकास पर बल दिया गया और तदनुरूप उद्देश्य की प्राप्ति हेतु प्रयास किए गए।

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प्रश्न

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

1 1990 के दशक से प्रारम्भ आर्थिक सुधारों की विवेचना करें।

2. नई आर्थिक नीति के भारतीय अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले प्रभाव पर प्रकाश डालें।

लघु उत्तरीय प्रश्न

1 समष्टि आर्थिक नीति के क्या-क्या घटक हैं?

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