BCom 1st Year Business Self Development Communications Study material Notes in Hindi

//

BCom 1st Year Business Self Development Communications Study Material Notes in Hindi

Table of Contents

BCom 1st Year Business Self Development Communications Study Material Notes in Hindi: Meaning of Self Development Objectives of Self Development Inter Dependence of Self Development and Communication Improvement in Communication Through Self Development  Improvement in Self Development Through Communication How to Develop One Self Positive Personal Attitudes Function of Attitudes  Types of Attitudes Communication and Attitude Examination Questions Long Answer Questions Short Answer Question :

Self Development Communications
Self Development Communications

BCom 1st Year Business Effective Communication Study Material Notes In Hindi

स्वविकास तथा संचार

(Self-Development and Communication)

स्व-विकास को संचार दक्षता का पायदान कहा जा सकता है। ज्यों-ज्यों व्यक्ति का स्व-विकास होता जाता है त्यों-त्यों वह संचार दक्षता में एक-एक पायदान ऊपर चढ़ता जाता है। स्व-विकास एवं संचार दक्षता को एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता है। ये कारण एवं प्रभाव की तरह एक-दूसरे से आपस में सम्बन्धित होते हैं। मनोविज्ञान में स्व-विकास का अर्थ अपने व्यक्तित्व तथा योग्यताओं के बारे में जानना एवं उनका उत्तरोत्तर विकास करना है। यह विकास शिक्षा प्राप्त करने एवं उसके सही प्रयोग करने से होता है, साथ ही अनुभव इस विकास में चार-चाँद लगाता है। ज्ञान एवं अनुभव प्राप्त करना सम्प्रेषण क्रिया के द्वारा ही सम्भव होता है और यही ज्ञान एवं अनुभव व्यक्ति का स्व-विकास करता है, इसीलिये स्व-विकास एवं सम्प्रेषण कुशलता को एक-दसरे से सम्बन्धित माना गया है। यह दोनों क्रियायें मानव जीवन में कभी न समाप्त होने वाली क्रियाएँ हैं।

समाज में विचारों का आदान-प्रदान केवल संचार द्वारा ही सम्भव है। स्व-विकास एवं संचार एक-दूसरे पर निर्भर हैं। संदेश प्रेषक एवं प्राप्तकर्ता का स्व-विकास उसकी प्रकृति, शैली व संचार के स्तर को प्रभावित करता है। प्रभावी संचार भी दूसरी ओर स्व-विकास की आवश्यकता को प्रभावित करता है। व्यावसायिक जागरूकता व आत्म चेतना के द्वारा स्व-विकास में वृद्धि की जा सकती है। इसके साथ ही ध्यानपूर्वक सुनना, अध्ययन करना, रचनात्मक लेखन व प्रभावशाली भाषा भी स्व-विकास की वृद्धि में सहायक होते हैं। इस प्रकार स्व-विकास व संचार निरन्तर साथ-साथ चलने वाली प्रक्रिया है। स्व-विकास व संचार के बीच सम्बन्धों के विश्लेषण से पूर्व यह आवश्यक है कि इनके अर्थ को अलग-अलग रूप में तथा एक रूप में समझा जाये। पिछले अध्यायों में प्रभावी संचार का अर्थ समझाया जा चुका है। इस अध्याय में स्व-विकास की धारणा तथा संचार के साथ उसके सम्बन्धों का विश्लेषण किया जायेगा।

Business Self Development Communications

स्वविकास का अर्थ

(Meaning of Self-Development)

स्व-विकास का अर्थ है-व्यक्ति द्वारा अपना विकास करना। स्व-विकास व्यक्तिनिष्ठ एवं सापेक्षिक है जिसका अध्ययन मानव व्यवहार की पूर्णता को जानने के लिये किया जाता है। भिन्न-भिन्न लोगों के लिए इसके भिन्न-भिन्न अर्थ होते हैं। उदाहरणार्थ-आध्यात्मिक व्यक्ति के लिए चेतना के उच्च स्तरों की खोज, वैज्ञानिक के लिए उसकी खोजों में सफलता और वृद्धि तथा एक खिलाड़ी के लिए पुराने कीर्तिमानों को तोड़ना एवं नये कीर्तिमानों को बनाना आदि आत्मविकास (स्व-विकास) हो सकता है। प्रत्येक व्यक्ति अपने अस्तित्व एवं व्यक्तित्व के अनुसार इसको परिभाषित करता है और इसका विस्तार करता है। स्व-विकास दो शब्दों ‘स्व’ तथा ‘विकास’ से मिलकर बना है। यहाँ ‘स्व’ शब्द का आशय व्यक्ति के गणों की समग्रता से है जो उसके निजी गुणों एवं लक्षणों से सम्बन्धित है। विकास का आशय व्यक्ति में नई-नई विशेषताओं एवं क्षमताओं का विकसित होना है जो प्रारम्भिक जीवन से शरू होकर परिपक्वावस्था तक चलता है।

स्व विकास शरीर के गणात्मक परिवर्तनों का नाम है जिसके कारण व्यक्ति की कार्यक्षमता एवं अवनति होती है। दूसरे शब्दों में, आत्म-विकास (स्व-विकास) से आशय एक व्यक्ति में शारीरिक, बौद्धिक, आध्यात्मिक, भौतिकवाद आदि गुणों के सन्तुलित शैली में विकास से है।

संक्षेप में ‘स्व-विकास’ एक व्यक्ति में शारीरिक, बौद्धिक, भौतिक व आध्यात्मिक गणों के विकास की एक प्रक्रिया है।

स्व-विकास के अन्तर्गत व्यक्ति निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर स्वयं से चाहता है

  • मैं कौन हूँ (who I am)?
  • मैं क्या हूँ (What I am)?
  • और मैं क्या कर सकता हूँ (What can I do)?

उपर्यक्त प्रश्नों का सही हल खाज लना हा व्यक्ति का आत्म विकास है। इन प्रश्नों का हल वर स्वयं ही खोजता है किन्तु कभा-कभा दूसरा का आलोचना या प्रशंसा से भी इनके जवाब मिल जाते और व्यक्ति का आत्म-विकास होने लगता है।

वस्तुत: आत्म-विकास शरीर के गुणात्मक परिवर्तनों का नाम है जिसके कारण व्यक्ति का। कार्यक्षमता, कार्यकुशलता और व्यवहार में प्रगतिशील परिवर्तन होता है।

Business Self Development Communications

स्वविकास के उद्देश्य

(Objectives of Self-Development)

स्व-विकास के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं

(1) अनुकूल व्यक्तित्व का विकास (Development of Positive Personality) विकास का प्रमुख उद्देश्य व्यक्ति के व्यक्तित्व का उचित एवं सन्तुलित विकास करना है। समाज मनावज्ञानका के अनसार व्यक्तित्व विभिन्न गणों का एक समूह ह जा मनुष्य का प्रकृति एप प्यपहार को प्रदर्शित करता है।

(2) आत्मसम्मान का विकास (Development of Self-honour)-स्व-विकास से स्वाभिमान अथवा स्व-सम्मान का विकास होता है। स्व-विकास से आशय है कि हम स्वयं के बारे में क्या अनुभव करते हैं। स्व-विकास एक व्यक्ति को शिष्ट तथा नम्र बनाता है। स्व-विकास अपने व्यवहार के आधार पर व्यक्ति को स्वयं को विश्लेषित करने के लिए प्रेरणा देता है।

(3) सकारात्मक दृष्टिकोण का विकास (Development of Positive Attitude)स्व-विकास सकारात्मक दृष्टि का कारण व परिणाम दोनों ही है। दृष्टिकोण की प्रकृति प्रतिकूल अथवा अनुकूल प्रदर्शन की होती है जिसका सम्बन्ध व्यक्तियों की प्रकृति व दशा पर निर्भर होता है। स्व-विकास व्यक्ति को प्रतिकूल भावनाओं से बचाता है व उसकी अनुकूल दृष्टि को बढ़ाता है। सकारात्मक दृष्टिकोण व्यक्ति के जीवन को आशावादी व सुखमय बनाता है।

(4) समग्र विकास (Whole Development)-आत्म-विकास एक मनुष्य में शारीरिक, भौतिक, बौद्धिक व आध्यात्मिक/धार्मिक गुणों को विकसित करता है। ये सभी बातें एक व्यक्ति के समग्र विकास में सहायक होती है।

(5) सांस्कृतिक समरसता को विकसित करना (Development of Cultural Harmony)आत्म-विकास व्यक्ति की दृष्टि को विस्तारित करता है। एक विस्तृत/वृहद् दृष्टिकोण वाला व्यक्ति ही विभिन्न संस्कृतियों या धर्मों या समुदायों के मूल्यों का आदर करता है। यह प्रवृत्ति देश की सांस्कृतिक एकाग्रता में वृद्धि करती है।

(6) विचार शक्ति का विकास (Development of Thinking Power)-आत्म-विकास व्यक्ति की विचार शक्ति को बढ़ाने में सहायक है। एक विचारशील व्यक्ति ही उचित निर्णय लेने में सक्षम होता है। यह किसी व्यक्ति में कृपालु, दयालु, सहयोग की भावना को विकसित कर चिन्तनशील बनाती है।

(7) संगठन क्षमता का विकास (Development of Organisational Efficiency)आत्म-विकास एक व्यक्ति में संगठन क्षमता को बढ़ाता है। एक अच्छा संगठक समाज के लिए वरदान होता है।

(8) आत्मविश्वास का विकास (Development of Self Confidence)-आत्म-विकास, आत्म-विश्वास को बढ़ाने में सहायक है। यह एक व्यक्ति में नेतृत्व क्षमता को विकसित करता है। एक आत्म-विश्वासी अन्य की अपेक्षा अधिक साहसी होता है व जोखिम उठाने में सक्षम होता है।

(9) अच्छे गुणों का विकास (Development of Good Qualities)-आत्म-विकास, व्यक्ति में अच्छे गुणों के विकास की पूर्व आवश्यकता है। अच्छी आदतें समय, धन व ऊर्जा की बचत में सहायक हैं। साथ ही साथ यह एक व्यक्ति को साधन-सम्पन्न बनाती है।

(10) ज्ञान का विकास (Development of Knowledge)-स्व-विकास का उद्देश्य व्यक्ति में कछ सीखने व करने की भावना को विकसित करना होता है। इससे व्यक्ति में सीखने की इच्छा, समझने तथा विश्लेषण करने की शक्ति बढ़ती है। स्व-विकास व्यक्ति को अधिक साहसी तथा गतिशील बनाता है।

Business Self Development Communications

स्वविकास संचार की पारस्परिक निर्भरता

(Inter-dependence of Self-Development and Communication)

स्व-विकास तथा संचार प्रक्रिया परस्पर एक दूसरे पर निर्भर होते हैं। स्व-विकास जहाँ एक तरफ संचार को अधिक गतिशील एवं प्रभावी बनाता है वहीं दूसरी तरफ प्रभावी संचार, स्व-विकास में स्थाया। वद्धि करता है। इस प्रकार स्व-विकास के द्वारा संचार को प्रभावशाली बनाने में सहायता मिलती है तथा प्रभावपूर्ण संचार के माध्यम से स्व-विकास सम्भव हो पाता है।

अतः स्व-विकास और सम्प्रेषण एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जहाँ स्व-विकास सम्प्रेषण को अभिगतिशील व प्रभावी बनाता है वहा सम्प्रेषण स्व-विकास का मार्गदर्शन करता है। स्व-विकास से व्यक्ति के लिखने में विद्वता, बोलने में वाकपटता शारीरिक हाव-भाव में आकर्षण और सुनने मदृढ़ता आती है जिसका सकारात्मक असर सम्प्रेषण क्रिया पर पड़ता है अर्थात् संचार में तेजी और औचित्यता आती है। बिना सम्प्रेषण के स्व-विकास नहीं किया जा सकता और बिना स्व-विकास के प्रभावी सम्प्रेषण नहीं हो सकता। अतः सम्प्रेषण एवं स्व-विकास दोनों एक-दूसरे के परस्पर पूरक है। स्व-विकास व सम्प्रेषण की पारस्परिक निर्भरता को निम्नलिखित प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है

स्वविकास सम्प्रेषण

स्वविकास द्वारा संचार में सुधार

(Improvement in Communication through Self-Development)

स्व-विकास, संचार कुशलता में सुधार करके उसे अधिक प्रभावशाली बनाने में सहायक होता है। स्व-विकास व संचार के मध्य सम्बन्ध को निम्नलिखित बिन्दुओं के आधार पर स्पष्ट किया जा सकता है

(1) स्वविकास द्वारा संचार कुशलता में सुधार (Improvement in Communication Efficiency by Self-development)-स्व-विकास के द्वारा संचार कुशलता में सुधार लाकर उसे अधिक प्रभावशाली बनाया जा सकता है। विभिन्न संचार कुशलताओं जैसे लिखना, बोलना, सुनना तथा शारीरिक भाषा में स्व-विकास के द्वारा सुधार लाया जाता है। स्व-विकास व्यक्ति को अधिक योग्य, शिक्षित व शारीरिक रूप से सक्षम बनाता है। बौद्धिक विकास से व्यक्ति की लेखन शैली अधिक रचनात्मक व उपयोगी बन जाती है।

(2) स्वविकास द्वारा वृहद् दृष्टिकोण का विकास (Development of Wide Vision by Self-development)-स्व-विकास व्यक्ति के दृष्टिकोण को वृहद् स्वरूप प्रदान करता है। इससे व्यक्ति को विभिन्न प्रकार के संचार को समझने में तथा उनका उत्तर देने में निपुणता प्राप्त होती है। इससे व्यक्ति अपने श्रोताओं तथा अन्य व्यक्तियों की शीघ्रता से जाँच परख कर सकता है।

(3) स्वविकास द्वारा विश्लेषण शक्ति का विकास (Development of Analysis Power by Self-development)-आत्म-विकास विश्लेषण शक्ति को बढ़ाने में सहायक होता है। आत्म-विकसित व्यक्ति जटिल या कठिन स्थितियों में भी सम्बधित समस्याओं का ह होता है। वह समस्याओं के अनुरूप वाद-संवाद करने में सक्षम होता है व श्रोताओं का विश्लेषण भी कर सकता है। अत: उक्त गुणों के चलते वह एक संचार प्रक्रिया में अपना योगदान अत्यन्त ही प्रभावी ढंग से दे सकता है।

(4) स्वविकास द्वारा आलोचनात्मक शैली का विकास (Development of Critical Skill by Self-development)-स्व-विकास व्यक्ति में आलोचनात्मक शैली का विकास करता है। स्व-विकास के द्वारा उसमें संचार नियोजन, संशोधन व सम्पादन करने की क्षमता विकसित होता है। वह सवाद (सन्देश) का आलोचनात्मक विश्लेषण करके अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने में भी सक्षम होता है।

(5) स्वविकास द्वारा अन्य क्षमताओं का विकास (Development of othere by Self-development)-स्व-विकास के द्वारा व्यक्ति में कछ अन्य क्षमताओं जैसे पूर्णता, स्पष्टता, सूक्ष्मता, चैतन्यता आदि का भी विकास होता है।

 (6) सामूहिक संचार दक्षता में सधार (Improvement in Interpersonal Communiation skill)-एक ऐसा व्यक्ति जिसका आत्म-विकास हआ रहता है वह समाज में दूसरों के साथ समायोजित हात हुय जीता है। ऐसा व्यक्ति दूसरों के साथ एकरूपता महसूस करता है एवं दूसरों पर अपना अधिकार 78 जमाता ह जिससे उसका सन्देश दसरे लोग ध्यान से सनना चाहते हैं और उस पर अमल भा करना चाहते हैं। दैनिक जीवन में जो आपसी विवाद उत्पन्न होते हैं उनके अधिकांश कारण हमारे अन्दर का क्या अन्तर्द्वन्द, अवचेतन स्वभाव एवं तुच्छ मानसिकता का होना होता है।

(7) सन्तुष्टि कारक सहयोग (Synergistic Co-operation)-स्व-विकास द्वारा खुद में तो आत्म-विश्वास जागृत होता ही है साथ ही उन व्यक्तियों में भी आत्म-विश्वास उत्पन्न होता है जो उसके साथ कार्य कर रहे हैं, इससे सन्तुष्टि की भावना उत्पन्न होती है एवं लोग एक दूसरे को सहयोग करते है। प्रत्येक व्यक्ति एक दूसरे पर विश्वास करता है, एक दूसरे से प्रभावित होता है जिसका परिणाम होता है कि एक दूसरे के मध्य बिना किसी हिचकिचाहट के सन्देशों का आदान-प्रदान होता है। अत: हम कह सकते हैं कि आत्म-विकास सम्प्रेषण क्रिया में सन्तुष्टि कारक सहयोग प्रदान करता है।

Business Self Development Communications

सम्प्रेषण द्वारा स्वविकास में सुधार

(Improvement in Self-Development through Communication)

जिस प्रकार स्व-विकास के द्वारा संचार कुशलता में सुधार करके उसे प्रभावशाली बनाया जा सकता है, उसी प्रकार प्रभावशाली संचार के द्वारा स्व-विकास में वृद्धि भी की जा सकती है। एक प्रभावशाली संचार आत्म-विकास का महत्त्वपूर्ण उपकरण है। संचार के मुख्य माध्यम जैसे मौखिक व अभाषिक आत्म-विकास को बढ़ाते हैं। भाषा-प्रवाह, प्रभावशाली लेखन, शारीरिक भाषा व श्रवण शक्ति आदि ऐसे तत्त्व हैं जो आत्म-विकास को बढ़ाते हैं। अतः प्रभावी व्यावसायिक संचार आत्म-विकास में निम्नलिखित रूप से सुधार कर सकता है

(A) सीखने का यन्त्र (Tool of Learning)-आत्म-विकास का आशय है स्वयं का विकास करना और स्वयं के विकास का अर्थ है सीखना। व्यक्ति सीख कर ही आत्म-विकास कर सकता है। एक बच्चा जन्म के समय से ही सीखता है और यह सीखना उसका संचार क्रिया से ही प्रभावित होता है। जब तक वह बात को सुनकर समझने के योग्य नहीं होता तब तक हम उसे इशारे से सिखाते हैं जब वह थोड़ा बोलने और समझने लगता है तो हम बोलकर सिखाते हैं। उस समय बच्चे से जिस भाषा में बोला जाता है बच्चा उसी भाषा को सीखकर और उसी भाषा में जवाब देता है। अतः हम कह सकते हैं कि बिना संचार के व्यक्ति बोलना नहीं सीख सकता तो आत्म-विकास कैसे सम्भव है। अतः आत्म-विकास अर्थात कुछ सीखने के लिये संचार क्रिया नितान्त आवश्यक है। संचार के द्वारा निम्न प्रकार आत्म-विकास का पथ-प्रदर्शन किया जाता है।

(1) शारीरिक भाषा द्वारा स्वविकास (Self-development by Body Language)शारीरिक भाषा के विभिन्न स्वरूप जैसे, भाव-भंगिमा, मुद्रा या आसन आदि आत्म-विकास में वृद्धि करते हैं। शारीरिक भाषा के निरन्तर प्रयोग व समझ से व्यक्ति की बौद्धिक क्षमता का विकास होता है। शारीरिक भाषा के द्वारा संचार, व्यक्ति के आत्म-विकास को बढ़ाने में सहायक होता है।

(2) मौखिक संचार द्वारा स्वविकास (Self-development by Oral Communication)मौखिक संचार के विभिन्न स्वरूप जैसे सार्वजनिक भाषण, वाद-विवाद स्व-विकास में वृद्धि के महत्त्वपूर्ण साधन हैं। डेलकार्नेगी के अनुसार, “प्रगति के लिए बद्धिमानी से अधिक आवश्यक भाषा एवं विचार। प्रवाह हैं।” यदि एक वक्ता अपने विषय पर गहन चिन्तन कर व्याख्यान में तर्कों तथा तथ्यों को सम्मिलित करते हए भाषण देता है तो वह अधिक प्रभावशाली होता है।

(3) लिखित सम्प्रेषण आत्मविकास (Writing and Self-development)-किसा भा। प्रकार के लेखन का प्रारम्भ एक विचार से होता है। इस विचार की उत्पत्ति मानव मस्तिष्क में होती है। लेखन ही व्यक्ति की रचनात्मक व कल्पनाशीलता में वृद्धि करता है। ये बातें ही आत्म-विकास को बढ़ाती है।

(4) श्रवण क्षमता आत्मविकास (Listening and Self-development) श्रवणता प्रभावशाली सम्पेषण का एक विशिष्ट अग है। एक सफल व्यवसायी अपने ग्राहकों की बात को सनता है तथा उनके द्वारा दिए गए उपयागा सुझावों को अपनाता है। इससे उसके स्व-विकास में सधार होता है।

(B) सूचना स्त्रात (Information Resource)-सम्प्रेषण क्रिया सचना का स्रोत होती है जिसके द्वारा तरह-तरह की सूचनाएं हमें प्राप्त होती हैं और इन सूचनाओं के माध्यम से हमारा स्व-विकास होता है। यह सूचना स्रोत निम्नलिखित दो प्रकार का होता है

(i) आन्तरिक सूचना (Internal Information) अर्थात् देश के अन्दर कहाँ क्या हो रहा है, व्यवसाय में क्या हो रहा है, यह जानकारी प्राप्त करना आन्तरिक सूचना स्रोत कहलाता है और जानकारी के माध्यम से हमें अपना विकास करने में सहायता मिलती है।

(11) बाह सूचना (External Information_बाहा सचना का आशय है कि देश के बाहर क्या हो रहा है, व्यवसाय के बाहर क्या हो रहा है इस बात की जानकारी भी विभिन्न सम्प्रेषण माध्यमों से होती रहती है जिसके द्वारा उसके अनुरूप हम अपने आचार-विचार में परिवर्तन करने का प्रयास करते  हैं। अत: बाह्य सूचनाओं को ग्रहण करने से भी व्यक्ति का स्व-विकास होता है।

Business Self Development Communications

अपने आप को विकसित कैसे किया जाये

(How to Develop One Self)

स्व-विकास के द्वारा व्यक्ति में संचार दक्षता बढ़ती है और संचार दक्षता से व्यक्ति का स्व-विकास होता है, इन बातों पर चर्चा पहले की जा चुकी है। यहाँ यह बताने का प्रयास किया जा रहा है कि यदि किसी को स्व-विकास करना है तो वह कौन से तत्त्व हैं जिनके द्वारा व्यक्ति अपना विकास कर सकता है। अपने विकास के लिये स्वयं का प्रबन्ध करना आवश्यक है अर्थात् हमें कब क्या करना है, क्यों करना है, कैसे करना है तथा इसका क्या परिणाम होगा इन सब बातों पर यदि विचार किया जाये और तत्पश्चात कार्य किया जाये तो स्व-विकास निश्चित रूप से सकारात्मक होगा। पीटर एफ डकर ने अपने-आप का प्रबन्ध करने के लिये कहा है, सबसे पहले अपनी शक्ति पर ध्यान केन्द्रित कीजिये। अपनी शक्ति को वहाँ लगाइये जहाँ वह नतीजे ला सकती है। दूसरे, अपनी शक्ति को सुधारने के लिये कार्य कीजिये। विश्लेषण तुरन्त यह बतायेगा कि कहाँ आपको अपनी दक्षता में सुधार लाना चाहिये अथवा नई शक्ति प्राप्त करनी चाहिये। तीसरे इस बात का पता लगाइये कि क्या आपका ज्ञानिकअहंकार अज्ञानता का कारण बन रहा है एवं फिर उस पर अंकश लगाइये।

स्व-विकास कभी न समाप्त होने वाली सीढ़ी है। एक दृढ़ इच्छा शक्ति के साथ इस सीढ़ी पर निरन्तर चढ़ते रहने का प्रयास किया जाना चाहिये तभी हम अपना विकास कर सकते हैं। प्रत्येक व्यक्ति में स्व-विकास की आकांक्षा हमेशा सुलगती रहनी चाहिये जो निरन्तर मनुष्य से कोशिश कराती रहेगी। यह आत्मा को खोजने का एक सतत् प्रयास है, जिस प्रकार हम अपनी दैनिक क्रियाओं को रोज करते हैं और अगले दिन भूल जाते हैं इसी प्रकार रोज स्व-विकास का प्रयास किया जाना चाहिये और कितना हमने स्व-विकास कर लिया उसे पीछे छोड़ते जाना चाहिये। प्रत्येक व्यक्ति के भीतर एक ऊर्जा होती है जिसे की आवश्यकता है। हर व्यक्ति अपना विकास नहीं कर पाता क्योकि वह उसके लिये सच्ची लगन एवं कठिन मेहनत के साथ प्रयास नहीं करता। यदि सभी व्यक्ति अपने भीतर छिपी हुई ऊर्जा को विकसित करने के लिये सतत् प्रयास सच्चे मन और कठोर परिश्रम के साथ करें तो स्व-विकास असम्भव नहीं है। इस सन्दर्भ में एक विद्वान के विचार यहाँ उपयुक्त प्रतीत होते हैं-“सभी व्यक्ति विकसित क्यों नहीं हो सकते और अलग प्रकार के मनुष्य क्यों नहीं बन सकते? क्योंकि वे चाहते नहीं हैं, क्योंकि वे इसके बारे में जानते नहीं हैं और अधिक लम्बी तैयारी के बिना इसे समझ भी न सकेंगे। इसका क्या अर्थ है चाहे उन्हें बतलाया भी जाए ………. एक अलग प्रकार का व्यक्ति बनने के लिये (अपने आप में) मनष्य में चाहत होनी चाहिये और यदि वह मन से चाहता भी है लेकिन आवश्यक कोशिशें नहीं करता तो वह विकसित नहीं हो सकता।

Business Self Development Communications

सकारात्मक व्यक्तिगत दृष्टिकोण

Personal Attitudes)

सकारात्मक व्यक्तिगत दृष्टिकोण का अर्थ समझने के लिये हमें सर्वप्रथम दृष्टिकोण के अर्थ को । समझना होगा।

दृष्टिकोण से आशय (Meaning of Attitudes) दृष्टिकोण से अभिप्राय किसी एक व्यक्ति, समूह, वस्तु या विचार के विश्लेषण करने की एक मानसिक प्रक्रिया से है। दृष्टिकोण का एक व्यक्ति को पसन्द तथा नापसन्द एवं उसके व्यवहार के ऊपर अत्यन्त प्रबल प्रभाव होता है अर्थात् दृष्टिकोण एक भावगत घटना है। अतः दृष्टिकोण व्यक्ति के स्वभाव एवं व्यवहार को प्रभावित करने वाला महत्त्वपूर्ण घटक है। व्यक्ति की सफलता का मुख्य आधार उसका दष्टिकोण होता है तथा उसी से उसका पहचान। बनती है।

मोरगन एवं आइसिंग के अनुसार, “दृष्टिकोण किसी व्यक्ति, वस्तु तथा परिस्थिति के लिए । सकारात्मक या नकारात्मक प्रतिक्रिया को अभिव्यक्त करने की प्रवृत्ति है। इसमें मुख्यत: तीन तत्त्व होते । हैं-ज्ञान, भावना एवं कार्य।”

बोगार्डस के अनुसार, “यह एक कार्य करने की प्रवृत्ति है जो कि कुछ वातावरणीय तत्त्वों के पक्ष में । या विपक्ष में होती है जिसके फलस्वरूप यह एक सकारात्मक अथवा नकारात्मक मूल्य अपना लेती है।

क्रेच एवं क्रेच फील्ड के अनुसार, “दृष्टिकोण एक चिरस्थायी संप्रेरणाओं, संवेगों, प्रत्यक्ष एवं ज्ञानात्मक प्रक्रियाओं का संगठन है जो व्यक्ति के संचार के कुछ पक्षों के बारे में होता है।”

के. यंग के अनुसार, “एक दृष्टिकोण अनिवार्य रूप से एक प्रत्याशी प्रत्युत्तर का स्वरूप है, एक क्रिया का प्रारम्भ है जो आवश्यक नहीं कि पूर्ण हो। इसके साथ ही इस प्रतिक्रिया की तत्परता में किसी प्रकार की उत्तेजना, विशिष्ट या सामान्य निहित होती है।”

Business Self Development Communications

उपरोक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि मनोवृत्ति में निम्नलिखित तीन तत्व सम्मिलित होते हैं

(i) ज्ञान तत्त्व (Cognitive Component),

(ii) भाव तत्त्व (Feeling Component),

(iii) क्रिया तत्त्व (Action Component)|

(i) ज्ञान तत्त्व-ज्ञान तत्त्व का अभिप्राय किसी विषय के सम्बन्ध में किसी भी प्रकार के नजरिये/विचारधारा से है। यदि आप किसी व्यक्ति/वस्तु/विचार के प्रति सकारात्मक मनोवृत्ति रखते हैं तो आपका नजरिया भी सकारात्मक होगा और यदि आप किसी व्यक्ति/वस्तु/विचार के प्रति नकारात्मक मनोवृत्ति रखते हैं तो आपका नजरिया भी नकारात्मक होगा। उदाहरणार्थ, यदि एक व्यवसायी का यह विचार है कि आय में वृद्धि, माँग में वृद्धि का कारण है तो उसकी मनोवृत्ति सकारात्मक होगी।

(ii) भाव तत्त्व-भाव तत्त्व का अभिप्राय किसी विषय के प्रति निरन्तर भावना से है। यह दृष्टिकोण का अत्यधिक महत्त्वपूर्ण अवयव है।

(iii) क्रिया तत्त्व-क्रिया तत्त्व का अभिप्राय किसी विषय के प्रति किसी राय या भाव के अनुसार कार्य करने की प्रवृत्ति से है। यह व्यक्ति के विश्वास व भाव को प्रतिबिम्बित करता है।

संक्षेप में निम्नांकित तीन प्रकार की सूचनाओं से दृष्टिकोण का निर्माण होता है-(1) विषय के प्रति । भाव तथा आवेग, (2) विषय के प्रति सकारात्मक अथवा नकारात्मक मत, (3) अतीत तथा वर्तमान काल में विषय के लिये हुए क्रियाकरण (Action) की सूचना। जैसे ही दृष्टिकोण का निर्माण होता है, यह विषय । के ज्ञान से सम्बन्धित हो जाता है।

दृष्टिकोण तथा प्रेरणाएँ (Attitudes and Motives)-दृष्टिकोण की उत्पात्त प्रर होती है, अत: ये दोनों आपस में घनिष्ठ रूप में सम्बन्धित हैं। किन्त प्रेरणाएँ एवं दृष्टिकोण बिल्कुल एक-दूसरे के समान नहीं है। दृष्टिकोण प्रेरणाओं से अधिक स्थायी होता है। प्रेरणाएँ एक समय पर सक्रिय

जाता ह आर जैसे ही उद्देश्य प्राप्त हो जाता है. वह गायब हो जाती हैं किन्त दष्टिकोण उद्देश्य प्राप्त हान के पश्चात् भी उपस्थित रहता है। उदाहरण के लिए, जब हमें भूख लगती है तो भूख की प्रेरणा उसा समय गायब हो जायेगी जबकि भूख की सन्तष्टि हो गई है, किन्तु भोजन के प्रति दृष्टिकोण भूख का सन्तुष्टि होने के साथ-साथ गायब नहीं होता। एक व्यक्ति जिसे मिठाई पसन्द है और जिसका मिठाई का

ओर दृष्टिकोण विकसित हो गया है, उसके अन्दर वह दधिकोण उस समय भी रहेगा जबकि पेट भरकर भोजन किया हुआ है।

इस प्रकार दृष्टिकोण एक व्यक्ति में अपने अनभव के द्वारा आता है, वह जन्मजात नहीं होता। वह हमारी जैविक जनित प्रेरणाओं पर निर्भर हो जाता है. परन्त स्वयं जैविक जनित नहीं होता। उदाहरण के लिए, भूख एक जेविक जनित प्रेरणा है, किन्तु माँसाहारी या शाकाहारी भोजन का खाना हमारे सीखे हुए दृष्टिकोण पर निर्भर होता है। यह हमारे समाज और परिवार के कारण होता है कि हम अपने भाजन म माँस लेते हैं या नहीं लेते हैं। दृष्टिकोण कम या अधिक मात्रा में स्थायी होता है, किन्तु उसमें भी परिवर्तन हो सकते हैं। इसके लिए उपयुक्त परिस्थिति का होना आवश्यक है।

Business Self Development Communications

दृष्टिकोण के कार्ये  (Functions of Attitudes)

दृष्टिकोण एक व्यक्ति की मानसिक प्रस्तुति है जो उसके विश्लेषण को सत्यापित करती है। दृष्टिकोण के मुख्यत: दो कार्य होते हैं

(i) ज्ञान अर्जन/पदार्थ विश्लेषण कार्य-दृष्टिकोण किसी व्यक्ति को वातावरण को समझने में सहायक होता है, जैसे, कोल्ड ड्रिन्क तथा अर्थशास्त्र की कक्षा के प्रति विद्यार्थी की मनोवृत्ति निम्नलिखित रूप से स्पष्ट होती है

  • कोल्ड ड्रिंक को पसन्द करना, तथा
  • अर्थशास्त्र की कक्षा में गोल मारना/अनुपस्थित रहना।

यद्यपि ये कार्य वस्तुपरक मनोवृत्ति की महत्त्वपूर्ण विशेषता को स्पष्ट करते हैं, जिसमें हम विद्यार्थी के साथ प्रभावपूर्ण तरीके से कुशलतापूर्वक व्यवहार कर सकें।

(ii) व्यक्तित्व सूचक/सामाजिक पहचान के कार्य-दृष्टिकोण का यह कार्य व्यक्ति को स्वयं को, स्वयं के विचारों को तथा किसी मामले के पक्ष/विपक्ष में अपने विचारों को व्यक्त करने में सहायक होता है। यह व्यक्तियों के मध्य सम्बन्ध बनाने में सहायता करता है। एक व्यक्ति की मनोवृत्ति, उस व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को समझने में सहायक होती है।

यद्यपि अधिकांश दृष्टिकोण सीखे जाते हैं अथवा प्राप्त/ग्रहण किये जाते हैं। व्यक्ति एक दृष्टिकोण का प्रयोग कर, उसके बारे में सुनकर या उसके बारे में वार्तालाप/समूह चर्चा/सत्संग करके सीखता है। मनोवृत्ति का यह पहलू सम्बन्धित विषय से सम्बन्धित ज्ञान अर्जन में सहायक होता है।

अत: मनोवृत्ति ज्ञानवर्द्धक एवं किसी विषय के सम्बन्ध में हमारे विश्लेषण की प्रस्तुति के स्वरूप में होता है। इसमें हम स्वयं, अन्य मनुष्य, क्रियाशील वस्तुएँ व घटनाएँ, विचार आदि सम्मिलित होते हैं।

Business Self Development Communications

दृष्टिकोण के प्रकार (Types of Attitudes)

यद्यपि किसी भी विषय के सम्बन्ध में हमारे दृष्टिकोण की प्रस्तुति नकारात्मक, सकारात्मक अथवा तटस्थ हो सकती है, परन्तु दृष्टिकोण मुख्यत: निम्नलिखित दो प्रकार के होते हैं

(1) नकारात्मक दृष्टिकोण (Negative Attitude)

(2) सकारात्मक दृष्टिकोण (Positive Attitude)

(1) नकारात्मक दृष्टिकोण (Negative Attitude)-किसी भी कार्य के बारे में पहले से ही यह सोच लेना कि यह कार्य मुझसे नहीं हो पायेगा नकारात्मक दृष्टिकोण का परिचायक है अर्थात् व्यक्ति का निराशावादी होना, स्वयं पर विश्वास न होना, दूसरों की कमियों को खोजना, आलस्य करना, जीवन को उद्देश्य रहित बना लेना नकारात्मक सोच की परिणति होती है। मनुष्य का स्वभाव होता है कि वह गलती का दोष सदा दूसरों पर डालने की चेष्टा करता है और स्वयं को अच्छा व दूसरों को बुरा बनाने का प्रयास करता है. यही नकारात्मक दृष्टिकोण है। सामान्यतया प्रत्येक व्यक्ति नाकामयाबी का सारा दोष माँ-बाप, गुरु, दोस्त या पत्नी पर डालने का प्रयास करता है। ये सारे बहाने नकारात्मक की परिभाषा में आते है यह नकासत्मक दृष्टिकोण भय व अपरिपक्वता के कारण उत्पन्न होता है।

(2) सकारात्मक दृष्टिकोण (Positive Attitude) सकारात्मक दृष्टिकोण से आशय किसी विषय या तथ्य के सम्बन्ध में अनुकूल विश्लेषण से है अर्थात किसी विषय के लिए पसन्द एवं अनुकूल व्यवहार का उत्पत्ति का होना सकारात्मक दृष्टिकोण प्रदर्शित करता है। सकारात्मक दृष्टिकोण या मनोवृत्ति की उत्पत्ति प्रेरणा के माध्यम से होती है। दढ इच्छा शक्ति, आत्मविश्वास, कर्त्तव्य के प्रति समर्पण, रचनात्मक कार्य एवं विचारों के प्रति निष्ठा, सकारात्मक दृष्टिकोण के परिचायक होते हैं।

सकारात्मक दृष्टिकोण वाला व्यक्ति कठिनाइयों या समस्याओं का सरलतापूर्वक सामना करते हुए। अपने जीवन को अर्थपूर्ण बनाने में सहायक होता है। सकारात्मक दृष्टिकोण, व्यक्ति को अनावश्यक चिन्ताओं से मुक्ति प्रदान करता है। सकारात्मक दृष्टिकोण को आशावादी या स्वस्थ दृष्टिकोण भी कहते हैं।

सकारात्मक दृष्टिकोण होना प्रत्येक व्यक्ति के जीवन की सफलता का प्रथम सोपान है। अत: एक व्यवसायी में स्वयं के व्यवसाय को सुचारु रूप से चलाने के लिए सकारात्मक दृष्टिकोण अर्थात् आशावादी मनोवृत्ति का होना अत्यन्त आवश्यक होता है।

संचार एवं दृष्टिकोण (Communication and Attitude)

क्या नकारात्मक एवं सकारात्मक दृष्टिकोण सम्प्रेषण पर प्रभाव डालते है? हाँ अवश्य प्रभाव डालते है। नकारात्मक सोच वाला व्यक्ति जो ईर्ष्या, घृणा, हीन भावना, भय, भ्रम आदि से भरा पड़ा है वह अपनी बात कहने में भी समस्याओं का सामना करता है और सुनने में भी। किन्तु सकारात्मक सोच वाला व्यक्ति अपना सन्देश स्पष्टता के साथ दे सकता है और दूसरों की बात को ध्यानपूर्वक सुन सकता है। अतः सम्प्रेषण क्रिया को प्रभावशाली बनाने के लिये सम्प्रेषक में सकारात्मक दृष्टिकोण का होना नितान्त आवश्यक है। दृष्टिकोण और सम्प्रेषण दोनों अन्तर्सम्बन्धित एवं आत्म निर्भर हैं। जिस प्रकार सम्प्रेषण में व्यक्ति के दृष्टिकोण का प्रभाव सम्प्रेषण की विषय-वस्तु एवं प्रस्तुति के ढंग पर पड़ता है उसी प्रकार सम्प्रेषण द्वारा व्यक्ति अपने दृष्टिकोण का विकास भी करता है। सम्प्रेषण से व्यक्ति को नवीन सूचनाओं का ज्ञान, घटनाओं की सही जानकारी सम्प्रेषण द्वारा ही प्राप्त होती है जो उसके दृष्टिकोण को प्रभावित करती है।

सकारात्मक दृष्टिकोण का निर्माण (Building A Positive Attitude)

मनुष्य अपने जीवन के प्रारम्भ काल से ही जो मनोवृत्ति या दृष्टिकोण बना लेता है, वही मनोवृत्ति या दृष्टिकोण उसके सम्पूर्ण जीवन काल तक साथ रहता है, अत: यह आवश्यक है कि व्यक्ति को जीवन के प्रारम्भिक काल से ही उचित अनुकूल दृष्टिकोण का निर्माण कर लेना चाहिए।एक सकारात्मक दृष्टिकोण के निर्माण के लिए व्यक्ति को सफल बनने की इच्छा, सफल व्यक्ति बनाने वाले नियमों की जानकारी एवं इन नियमों के अनुपालन सबन्धी निष्ठा व अनुशासन आवश्यक है। एक व्यक्ति को सकारात्मक दृष्टिकोण के निर्माण के लिए निम्नलिखित बातों का अनुसरण करना चाहिए

(1) सकारात्मक मनोवृत्ति के निर्माण के लिए किसी भी व्यक्ति को प्रत्येक दिन की शुरूआत अनुकूल विचारों से करनी चाहिए अर्थात् व्यक्ति को अनुकूल सोच एवं आचरण को अपनाना चाहिए।

(2) व्यक्ति में सकारात्मक दृष्टिकोण का विकास करने के लिए अनुकूल स्वाभिमान का निर्माण करना अनिवार्य है। स्वाभिमान के द्वारा ही स्वयं को समझने की क्षमता पैदा होती है, क्योंकि हम किसी तथ्य के सम्बन्ध में जिस प्रकार महसूस करेंगे, उसके प्रति वैसा ही व्यवहार करेंगे।

(3) व्यक्ति को नकारात्मक तत्त्वों से दूर रहना चाहिए। एक व्यक्ति जिस प्रकार के जीवन को जीना चाहता है, उसे उस जीवन से सम्बन्धित नियमों अर्थात तौर-तरीकों को सीखना चाहिए। एक व्यक्ति विशेषकर जिस प्रकार के वातावरण में रहता है, वह उसी वातावरण में ढल जाता है। अत: व्यक्ति को नकारात्मक सोच को स्वयं के ऊपर हावी होने से रोकना चाहिए।

(4) व्यक्ति को स्वयं की सोच को बदलना चाहिए तथा प्रत्येक तथ्य में अच्छाई वाले भाग को खोजना चाहिए, क्योंकि सदैव किसी व्यक्ति या तथ्य में कमियों या गलतियों को देखने से व्यक्ति/तथ्य की अच्छाइयों की उपेक्षा हो जाती है और वह व्यक्ति कमियों को ढूंढने का आदी हो जाता है। किसी व्यक्ति में अच्छाइयों को खोजने का अर्थ यह नहीं है कि उसकी कमियों की उपेक्षा की जाये। सकारात्मक दृष्टिकोण के निर्माण के लिए व्यक्ति का आशावादी होना अत्यन्त आवश्यक है।

(5) व्यक्ति को प्रत्येक कार्य को समय पर करने की आदत डालनी चाहिए क्योंकि कार्य के प्रति नकरात्मक सोच को बढ़ावा देती है। किसी भी कार्य को लापरवाही के कारण टालन व्यावसायिक संचार कार्य करने की क्षमता को कम करना है।

(6) व्यक्ति को कृतज्ञता का आचरण अपनाना चाहिए। किसी भी तथ्य को अपने प्रकार से ही नहीं । समझना चाहिए। सामान्यत: व्यक्तियों में किसी भी तथ्य की अपने पूर्वाग्रह पर आधारित अर्थ निकालने का आदत होती है।

(7) सकारात्मक दृष्टिकोण के विकास के लिए व्यक्ति को सदैव ज्ञान प्राप्त करने की आदत डालनी चाहिए। अनुकूल शिक्षा व्यक्ति के हृदय व मस्तिष्क पर असरकारक होती है, अत: किसी भी व्यक्ति को शिक्षा केवल श्रेणी / उपाधि अर्जन के लिए ही प्राप्त नहीं करनी चाहिए बल्कि ज्ञानार्जन के लिए करनी चाहिए क्योंकि एक अच्छी शिक्षा सदैव सकारात्मक दृष्टिकोण को प्रबलता प्रदान करती है।

Business Self Development Communications

व्यक्तिगत सकारात्मक दृष्टिकोण का विकास

(Development of Personal Positive Attitude)

व्यक्तिगत सकारात्मक दृष्टिककोण का विकास करने में प्रवर्तक की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। प्रवर्तक से आशय सम्प्रेषण के द्वारा दृष्टिकोण का निर्माण करना, उसमें परिवर्तन करना तथा उसके पुनःनिर्माण से होता है।

दृष्टिकोण में परिवर्तन वास्तविक हो या कृत्रिम, इसमें तीन बातें सम्मिलित होती हैं-परिवर्तन लाने वाले एजेन्ट अर्थात् सन्देश वाहक, सन्देश तथा प्राप्तकर्ता। अतएव परिवर्तन लाने में सम्प्रेषण अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। कौन, क्या, किससे कहता है और इसका क्या प्रभाव पड़ता है ? ये प्रश्न ही हमें दृष्टिकोण परिवर्तन को समझने में सहायता देते हैं। यद्यपि दष्टिकोण परिवर्तन सम्पूर्ण प्रक्रिया स्वयं संचालित नहीं होती। एक व्यक्ति को सूचना उपलब्ध कराना अत्यन्त आसान कार्य है, परन्तु उस व्यक्ति को सूचना के सम्बन्ध में विचार करने या कार्य करने के लिए विवश नहीं किया जा सकता। एक व्यक्ति की सूचनाओं के सम्बन्ध में प्रतिक्रिया के आधार पर प्रवर्तक की प्रभावशीलता को निश्चित किया जाता है।

यह देखा गया है कि “जितनी अधिक स्रोत की प्रतिष्ठा होती है उतना ही अधिक व्यक्ति अपना दृष्टिकोण बदल लेगा।”

दृष्टिकोण के सम्बन्ध में एक मुख्य पक्ष है संचार की विश्वसनीयता। यदि उस व्यक्ति के सामने जिसके दृष्टिकोण में परिवर्तन लाना है, वह व्यक्ति जिसमें उसका विश्वास है कुछ मत प्रस्तुत करता है तो दष्टिकोण में परिवर्तन आने की अधिक सम्भावना होती है। होवलेण्ड एवं वीस (Hovland and

Weiss), के एक अध्ययन में ऐसा ही पाया गया। उन्होंने चार ऐसी समस्याओं पर व्यक्तियों से उनके विचार माँगे, जिन पर काफी मत विभेद था। उनके सामने यह बात भी रखी गई कि यह मत / विचार एक प्रतिष्ठित अखबार के लेखक के हैं और दूसरे प्रकार के मत एक गद्य लिखने वाले लेखक के। यह देखा गया कि व्यक्तियों ने अधिकतर उन मतों को मान्यता दी जो कि अखबार के प्रतिष्ठित लेखक के थे।

प्रवर्तक निम्नलिखित दो प्रकार के हो सकते हैं

बाह्य प्रवर्तक-बाह्य प्रवर्तक से अभिप्राय एक व्यक्ति के अपने दृष्टिकोण को बाह्य प्रभावों के आधार पर परिवर्तित करने से है। उदाहरण के लिए, श्रोता प्रायः लम्बे सन्देशों या तथ्यों पर आधारित सन्देश देने वाले विशेषज्ञों पर अधिक विश्वास करते हैं।

व्यवस्थित प्रवर्तक-व्यवस्थित प्रवर्तक से अभिप्राय एक व्यक्ति को अपने दृष्टिकोण पर अधिकतम ध्यान, तर्क व शक्ति तथा गुणवत्ता व वार्तालाप की प्रकृति के आधार पर देने से है। जब श्रोता सन्देश को सुनता है, विषय-सूची को समझता है व अनुकूल प्रतिक्रिया देता है तो यह कहा जा सकता है कि सन्देश, व्यवस्थित प्रवर्तक है। इन प्रभावपूर्ण सन्देशों के द्वारा जो परिवर्तन आता है, वह अधिक समय तक स्थायी होता है, जबकि बाह्य प्रवर्तक से आने वाला परिवर्तन कम स्थायी होता है।

प्रवर्तक संचार की प्रक्रिया की विधि निम्नलिखित प्रकार होती है

(1) सन्देश प्राप्त करना (Receiving Message)-संचार इस प्रकार से होना चाहिए कि वह संदेश प्राप्तकर्ता का ध्यान तुरन्त आकर्षित करे तथा उसे संदेश को देखने व सुनने के लिये विवश करे।

(2) सन्देश ग्रहण करना (Comprehending Message)-संचार का मूल उद्देश्य संदेश प्राप्तकर्ता को सन्देश ग्रहण करने के लिये प्रेरित करना होता है। संचार के प्रति श्रोता को प्रेरित करने के लिये यह आवश्यक है कि सन्देश सरल हो जिससे श्रोता उसे आसानी से समझ सकें तथा ग्रहण कर सकें।

(3) सन्देश की प्रतिक्रिया (Reaction on Message)-व्यक्ति सन्देश को पढ़ने व सुनने के बाद उस पर अपनी प्रतिक्रिया भी व्यक्त करता है। यह प्रतिक्रिया अनुकूल व प्रतिकूल किसी भी प्रकार

स्वाति प्रकाशन का हो सकती है। जब श्रोताओं की प्रतिक्रिया अनुकल होती है तो संचार की विषय सामग्रा वे जिस विचार का सृजन करते हैं उसमें उन्हें प्रेरित करने में महत्त्वपूर्ण योगदान होता है

(4) सन्देश को स्वीकार करना (Accepting Message)-जब भाताआ के द्वारा स्वीकार कर लिया जाता है तो वह प्रवर्तक सन्देश कहलाता है जब एक सुव्यवस्थित सन्देश आधार पर प्रस्तुत करता है तो इससे सकारात्मक प्रतिक्रिया प्राप्त होती है। इससे नकारात्मक दृष्टिकोण विकसित करने का कार्य सुगम व प्रभावी हो जाता है जो लक्ष्यों को प्राप्त करने में सहायक होता है।

Business Self Development Communications

स्वॉट विश्लेषण

(SWOT Analysis)

किसी व्यक्ति/संस्था/संगठन/व्यवसाय के लिये यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है कि वह अपनी वास्तविकता से परिचित हो। वह स्वयं में निहित कमियों/अच्छाइयों से अवगत रहे ताकि वह अपनी कमियों को दूर कर सके एवं अपनी अच्छाइयों में और सुधार लाने अर्थात् निरन्तर अपने व्यवहार में सुधार के प्रति सजग रहे।

किसी व्यक्ति, संस्था, अथवा व्यवसाय को उनकी वास्तविकता से अवगत कराने अर्थात् उनकी शक्तियों, कमियों, अवसरों, कठिनाइयों को विश्लेषित करने के लिये जो तकनीक प्रयोग की जाती है, उसे स्वॉट (SWOT) विश्लेषण कहा जाता है। यह विश्लेषण किसी व्यवसाय द्वारा अपने आन्तरिक एवं बाह्य वातावरण को समझने के लिए किया जाता है, इससे संस्था की संगठनात्मक रणनीति तैयार करने में सहायता मिलती है। अत: स्पष्ट है कि एक कम्पनी की शक्तियों, दुर्बलताओं, अवसरों व कठिनाइयों सम्बन्धी सम्पूर्ण विश्लेषण ही स्वॉट विश्लेषण कहलाता है। स्वॉट (SWOT) निम्नांकित चार शब्दों से मिलकर बना है

“एक प्रभावपूर्ण संगठनात्मक रणनीति वह कहलाती है जिसमें एक व्यवसाय अपनी तमाम शक्तियों का प्रयोग करके अपने अवसरों का अधिकाधिक लाभ उठाता है एवं विद्यमान कमजोरियों के प्रभाव को न्यूनतम करके समस्याओं को प्रभावहीन बना देता है।”

अन्य शब्दों में, “स्वॉट विश्लेषण एक व्यवसाय को प्राप्त अवसरों का अधिकाधिक लाभ लेकर अपनी क्षमताओं का अधिकतम प्रयोग करना सिखाता है।” इस तरह से अक्षमताओं को कम कर तमाम समस्याओं व कठिनाइयों को व्यवसाय से दूर रखा जाता है।

अतः एक संगठन में स्वॉट विश्लेषण (SWOT Analysis) का उपयोग प्रभावशाली संगठनात्मक रणनीतियों को तैयार करने में किया जाता है, क्योंकि इस विश्लेषण के द्वारा एक व्यवसाय अपने संगठन की शक्तियों/क्षमताओं, Strength (S), दुर्बलताओं/निर्बलताओं Weaknesses (W), उसके वातावरण या पर्यावरण में उपस्थित अवसरों/मौकों Opportunities (O) एवं समस्याओं/कठिनाइयों Threats (T) की तुलना कर सकता है।

अर्थात स्वॉट विश्लेषण किसी भी व्यवसाय के द्वारा स्वयं के आन्तरिक व बाह्य पर्यावरण/वातावरण को जानने या समझने की दृष्टि से किया जाता है।

स्वॉट विश्लेषण के अंग

(Components of SWOT Analysis)

बाट विश्लेषण के अंगों को प्रमुख रूप से दो भागों में बाँटा जा सकता है

आन्तरिक वातावरण (Internal Environment)-वह व्यावसायिक स्थितियाँ जिनके अनर्यात व्यवसाय किया जा रहा है उन्ह व्यवसाय का आन्तरिक वातावरण कहते हैं। यह तत्त्व जहाँ व्यावसायिक संचार बलताएँ निर्बलताएँ जो आन्तभिप्राय संगठन में पूर्व करता है, जैसे अधिकाधिक व्यवसाय को शक्ति प्रदान करते हैं वहीं उसको दर्बल भी बनाते हैं।

(ब) बाह्य वातावरण (External Environment_ऐसे तत्त्व जो व्यवसाय को बाहर स प्रभावित करते हैं जैसे गला काट प्रतिस्पर्धा, सरकार की औद्योगिक नीति, कर नीति, विदेशी व्यापार नाति आदि बाह्य वातावरण कहलाते हैं। इसी वातावरण के कारण व्यवसाय को अवसर भी मिलते है एव। कठिनाईयों का सामना भी करना पड़ता है।

अर्थात् जिस पर्यावरण/वातावरण में व्यवसाय क्रियाशील रहता है, उसे हम निम्नलिखित दो हिस्सा में बाँट सकते हैं

(i) अवसर व कठिनाइयाँ/समस्याएँ जो बाह्य वातावरण में विद्यमान होती हैं।

(ii) क्षमताएँ व दुर्बलताएँ/निर्बलताएँ जो आन्तरिक वातावरण में होती हैं।

(1) शक्तिं/क्षमताएं (Strength)-इसका अभिप्राय संगठन में पर्व से विद्यमान उन समस्त तत्त्वा से है जिसका प्रयोग कर व्यवसाय अपने प्रतिस्पर्धियों पर लाभ अजित करता ह, जस’ योग्यता, पूंजी की अधिक मात्रा, संगठन में अच्छी अनुसन्धान सुविधाएँ व विकास का आ सम्भावनाएँ एक व्यवसाय की क्षमता/शक्ति हैं। इनका प्रयोग नये-नये उत्पादों के विकास वन सिद्धान्तों/नियमों की खोज के लिए भी किया जाता है। अर्थात् एक व्यवसाय को स्वय म विद्यमान सकारात्मक गुणों की सूची बनानी चाहिए जो उनसे प्रत्यक्षतः सम्बद्ध होती है। सकारात्मक व्यवहार तात्पर्य कुशलताओं व क्षमताओं से है।

(2) दुबलताए (Weaknesses)-इसका अभिप्राय एक संगठन के अन्दर विद्यमान सीमाओं से हाता है, ये सीमाएं ही दुर्बलताएँ हैं। ये व्यवसाय को प्रतिद्वन्द्वियों के समक्ष दुर्बल बना देता ह आर व्यवसाय अपने प्रतिद्वन्द्वियों से अधिक अच्छा व सचारू रुप से कार्य करने में अक्षम रहता ह जस कम माल के लिये दूसरे व्यापारी पर निर्भर होना, पूँजी की कम मात्रा आदि। यदि एक व्यक्ति अपना काममा से अवगत होना चाहता है तो वह स्वयं से यह प्रश्न कर अपनी दुर्बलताओं को जान सकता ह, जस, क्या वह एक अच्छा सम्प्रेषक है? क्या वह कम्प्यूटर साक्षर है? क्या इन बातों के सम्बन्ध में किसी विश्वास में कमी है? _

(3) अवसर/मौके (Opportunities)-एक व्यवसाय के पर्यावरण/वातावरण में स्थित समस्त अनुकूल परिस्थितियाँ ही अवसर/मौके कहलाती हैं। ये परिस्थितियाँ ही व्यवसाय को अपने प्रतिद्वन्द्वियों का सामना करने व स्वयं को मजबूत करने के लिए प्रेरित करती हैं। यहाँ एक व्यक्ति या व्यवसाय को यह जानना चाहिए कि क्या वह किसी अवसर का लाभ उठाने में सक्षम है या नहीं? क्या वह अपने व्यवसाय को उत्कृष्टता प्रदान करने की क्षमता रखता है?

(4) समस्याएँ/कठिनाइयाँ (Threats)-एक व्यावसायिक संगठन में विद्यमान प्रतिकूल परिस्थितियाँ ही व्यवसाय के लिए कठिनाइयों/समस्याओं के रूप में सामने आती हैं जैसे श्रम असन्तोष, सरकारी नीतियों में प्रतिकूल परिवर्तन आदि। ये संगठन के लिए अत्यन्त ही हानिकारक होती हैं। यदि एक व्यक्ति के सन्दर्भ में चर्चा करें तो उसे यह जानना आवश्यक है कि क्या उसके कैरियर व प्रमोशन के सन्दर्भ में कोई कठिनाई है, इस अवस्था में उसे स्वयं को अन्य से कमजोर नहीं समझना चाहिए।

एक व्यक्ति/संस्था/संगठन/व्यवसाय को स्वॉट विश्लेषण के द्वारा अपनी कमजोरियों/कठिनाइयों को विश्लेषित करके उनके सम्बन्ध में ऐसी योजना/रणनीति का निर्माण करना चाहिए कि वह कमजोरियाँ. उसकी शक्तियों में रूपान्तरित हो जायें एवं कठिनाइयाँ, अवसरों में बदल जायें। कभी भी पूर्ण सन्तुष्टि की मनोवत्ति को नहीं अपनाना चाहिए। सदैव उत्कृष्ट ऊँचाइयों को प्राप्त करने के लिए ऊँचे उद्देश्यों व लक्ष्यों को अपने समक्ष रखना चाहिए। किसी भी स्थिति में असन्तुष्ट व निराश नहीं होना चाहिए। कभी भी उन ऊँचाइयों को अपने या संस्था/संगठन/व्यवसाय का उद्देश्य या लक्ष्य न बनायें जिन्हें प्राप्त नहीं किया जा सकता. क्योंकि यह प्रवृत्ति नकारात्मक प्रभाव डालती है लेकिन इसका यह तात्पर्य बिल्कल नहीं है कि ऊँचे आदर्श विचारों को त्याग दिया जाये।

स्वॉट विश्लेषण एवं संचार

(SWOT Analysis and Communication)

जब व्यक्ति या संस्था को अपनी शक्ति एवं कमजोरी ज्ञात हो जाती है तो वह उसी के अनुरूप अपने अन्दर परिवर्तन लाने का प्रयास करता है और इस परिवर्तन का असर उस व्यक्ति की सम्प्रेषण क्रिया पर भी पड़ता है। उसे अपनी संचार व्यवस्था की दुर्बलताओं का ज्ञान हो जाता है जिससे सम्प्रेषण क्रिया करते समय वह उक्त दुर्बलताओं को ध्यान में रखकर सम्प्रेषण करता है। जब व्यक्ति अपनी कमजोरियों को ध्यान में रखकर  हो जाता है। सम्प्रेषण के सन्दर्भ में स्वाट विश्लेषण को निम्नांकित प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है

Business Self Development Communications

उपरोक्त बातों का विश्लेषण करके जब सम्प्रेषण किया जायेगा तो वह कभी भी अप्रभावी नहीं होगा। अत: स्वॉट विश्लेषण सम्प्रेषण की क्रिया को प्रभावी बनाने में सहायक होता है।

स्वॉट विश्लेषण का महत्त्व

(Importance of SWOT Analysis)

स्वॉट विश्लेषण प्रबन्धकीय क्रिया के लिये एक महत्त्वपूर्ण यन्त्र के रूप में प्रयोग किया जाता है। स्वॉट विश्लेषण के द्वारा सम्प्रेषण को प्रभावी बनाकर संस्था अपने लक्ष्यों को आसानी से प्राप्त कर सकती है। किसी भी संस्था की सफलता उसके प्रबन्धकों द्वारा बनायी गयी नीतियों एवं लिये गये निर्णयों पर निर्भर करती है और इन नीतियों एवं निर्णयों का क्रियान्वयन सम्प्रेषण की प्रभावशीलता पर निर्भर करता है। सम्प्रेषण की प्रभावशीलता कहीं न कहीं स्वॉट विश्लेषण से प्रभावित होती है, अत: स्वॉट विश्लेषण के महत्त्व को निम्नलिखित प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है

(1) व्यवसाय के आन्तरिक बाह्य पर्यावरण के विश्लेषण में सहायक (Helpful in analysis of Internal and External Environment of Business)-व्यवसाय के आन्तरिक व बाह्य विश्लेषण में स्वॉट विश्लेषण की बहुत ही महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। प्रत्येक व्यवसाय स्वॉट विश्लेषण के द्वारा अपनी आन्तरिक दुर्बलताओं एवं शक्तियों की जानकारी प्राप्त करके अवसरों की तलाश करता है और इन अवसरों से सम्बन्धित समस्याओं का अध्ययन करके उन्हें दूर करते हुये अवसर का लाभ उठाता है। अतः स्वॉट विश्लेषण ही किसी व्यवसाय की कमजोरियों तथा कठिनाइयों को शक्तियों एवं अवसरों में परिवर्तित करने व उनमें निरन्तर सुधार करने की एकमात्र विधि है।

(2) व्यवसाय की कार्य संस्कृति के विकास में सहायक (Helpful in development of work culture of Business)-स्वॉट विश्लेषण के द्वारा व्यक्ति और संस्था दोनों की दुर्बलताओं का ज्ञान प्राप्त करके उन्हें दूर करने का प्रयास किया जाता है जिससे कर्मचारियों में अच्छा कार्य करने का उत्साह उत्पन्न होता है तथा व्यवसाय में कार्य संस्कृति का विकास होता है। इससे सभी कर्मचारी अपने दायित्वों का निर्वहन जिम्मेदारीपूर्वक करते हैं।

(3) व्यवसाय के लक्ष्य प्राप्ति का साधन (Means of Achieving Target of Business) स्वॉट विश्लेषण के द्वारा संस्था और व्यक्ति दोनों का विकास होता है जिसका परिणाम यह होता है कि व्यक्ति मन से कार्य करता है और जब व्यक्ति या कर्मचारी मन से कार्य करेगा तो व्यवसाय के लक्ष्यों को आसानी से प्राप्त किया जा सकता है।

(4) सतत् सृजनात्मकता में सहायक (Helpful in continuous Creativity) स्वॉट विश्लेषण किसी भी व्यावासयिक संस्था में सतत् चलने वाली प्रक्रिया है क्योंकि व्यवसाय को हमेशा अपनी शक्ति एवं दुर्बलता के ज्ञान की आवश्यकता होती है जिससे भविष्य में होने वाली समस्याओं से बचा जा सके। निरन्तर समस्याओं के अध्ययन करते रहने से जो भी चुनौतियाँ सामने आती हैं उनका सही हल भी निकलता रहता है जो कि संस्था की सृजनात्मक क्षमता में वृद्धि करता है।

Business Self Development Communications

chetansati

Admin

https://gurujionlinestudy.com

Leave a Reply

Your email address will not be published.

Previous Story

BCom 1st year Business Theories Communication Audience Analysis Study Material Notes in Hindi

Next Story

BCom 1st year Business Corporate Communication Study Material Notes In Hindi

Latest from BCom 1st Year Business Communication Notes