BCom 1st Year Consumer Protection Act 1986 An Introduction Study Material Notes in Hindi

//

BCom 1st Year Consumer Protection Act 1986 An Introduction Study Material Notes in Hindi

Table of Contents

BCom 1st Year Consumer Protection Act 1986 An Introduction Study Material Notes in Hindi: Meaning and Definition of Consumer Protection Need or Importance of Consumer Protection act in India Important Definition Who is not a Consumer Examinations Questions Long Answer Questions Short Answer Questions Objective Types Questions :

1986 An Introduction
1986 An Introduction

BCom 1st Year Remedies Breach Contract Sale Auction Sale Study Material Notes in Hindi

उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 : एक परिचय

(Consumer Protection Act, 1986: An Introduction)

उपभोक्ता संरक्षण का अर्थ एवं परिभाषा

(Meaning and Definition of Consumer Protection)

उपभोक्ता संरक्षण का आशय ऐसे सभी उपायों से है जो उपभोक्ताओं की विक्रेताओं द्वारा किए। जाने वाले विभिन्न प्रकार के शोषण से रक्षा करते हैं। दूसरे शब्दों में, उपभोक्ता के आधारभूत अधिकारों एवं हितों को समुचित सरक्षा प्रदान करना ही उपभोक्ता संरक्षण है। वस्तुत: उपभोक्ता संरक्षण एक। व्यापक शब्द है जिसमें उन सभी उपायों को सम्मिलित किया जाता है जोकि उपभोक्ताओं के अधिकारों एवं हितों की रक्षा करने में सहायक है; जैसे—उपभोक्ता चेतना, उपभोक्ता शिक्षा, वैधानिक अधिनियम एवं नियमन, सार्वजनिक वितरण प्रणाली की स्थापना, प्रदूषण की रोकथाम के उपाय आदि।

श्रीमती रंगनाथन के अनुसार, “उपभोक्ता संरक्षण व्यावसायिक अन्यायों के विरुद्ध एक विरोध है। और उन अन्यायों को ठीक करने का प्रयत्न है।”

स्पष्ट है कि उपभोक्ता संरक्षण उपभोक्ताओं को निर्माताओं, मध्यस्थों एवं व्यावसायियों द्वारा किए जाने वाले शोषण के विरुद्ध सुरक्षा प्रदान करता है। यह उपभोक्ता के आधारभूत अधिकारों एवं हितों की रक्षा करता है।

Consumer Protection Act 1986

भारत में उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम की आवश्यकता अथवा महत्व

(Need or Importance of Consumers Protection Act in India)

भारत में अधिकांश वस्तुओं में ‘विक्रेता का बाजार’ है। यहाँ के अधिकांश विक्रेता भ्रष्ट, बेईमान, धोखेबाज एवं मुनाफाखोरी करने वाले हैं। हमारे यहाँ दैनिक जीवन तक में प्रयोग में आने वाली वस्तुओं में मिलावट, घटिया किस्म की दवाएँ एवं बिजली के उपकरण और खतरनाक रसायन से उपभोक्ताओं के जीवन को खतरा दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है।

वस्तुतः अनुचित लाभ कमाने के लिए व्यवसायियों के अनुचित व्यवहारों ने उपभोक्ताओं के शोषण में वृद्धि की है। भारत का उपभोक्ता अशिक्षित, असंगठित, असहाय एवं अनुभवहीन है। अतएव उपभोक्ता शोषण से बचने के लिए उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम को लागू किया जाना परमावश्यक है। भारत में उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम की आवश्यकता के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं

1 उपभोक्ताओं की व्यवसायियों की शोषण करने की प्रवृत्ति से रक्षा करने के लिए-आज व्यवसायियों ने उपभोक्ताओं का शोषण करने के लिए भिन्न-भिन्न तरीके निकाले हुए हैं; जैसे-कम तोलना, उपभोग की वस्तुओं में मिलावट करना, कृत्रिम कमी उत्पन्न कर देना, काला बाजारी करना आदि। भारत जैसे देश में जहाँ का उपभोक्ता अपेक्षाकृत अधिक असंगठित, अनपढ़ या कम पढ़ा-लिखा एवं अपने अधिकारों के प्रति कम जागरुक है, आसानी से व्यवसायियों की शोषण की प्रवृत्ति का शिकार बन जाता है। उसे व्यवसायियों की इस दूषित शोषण करने की मनोवृति से बचाने व लिए भी उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम की नितान्त आवश्यकता है।

2. उपभोक्ताओं को अपने अधिकारों के प्रति जागरूक करने के लिए-आज सामान्य उपभोक्ता अपने अधिकारों के प्रति उदासीन है उसे या तो अपने अधिकारों के प्रति जानकारी नहीं है अथवा यदि उसे थोड़ी-सी जानकारी है भी तो वह विभिन्न कारणों से अपने आपको पूर्णत: अकेला, असहाय एवं निष्क्रिय अनुभव करता है। इस दृष्टि से भी उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम की आवश्यकता है।

3. सामाजिक उत्तरदायित्व के प्रति चेतना जगाने के लिए-व्यवसायियों में अपने सामाजिक उत्तरदायित्वों के प्रति चेतना जागृत कराने के दृष्टिकोण से भी उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम का आवश्यकता अनुभव की गई है।

4. आवश्यक सूचनाएँ उपलब्ध कराने के लिएउपभोक्ताओं को आवश्यक सूचनाएँ उपलब्ध। कराने की दृष्टि से भी उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम की आवश्यकता है।

5. परिवेदनाओं एवं शिकायतों का यथाशीघ्र निपटारा करने के लिए उपभोक्ताओं को शिकायतें करने का न केवल मूलभूत अधिकार प्राप्त है वरनं उनकी शिकायो चाहिए। इस दृष्टि से भी उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम की आवश्यकता है।

Consumer Protection Act 1986

6. व्यवसाय का एकाधिकारी मनोवत्ति से मक्ति प्रदान करने के लिए असंगठित उपभाक्ताआ को एकाधिकारी व्यावसायिक संगठनों की शोषण रूपी मनोवृति का शिकार होना पड़ता है। व्यवसायिया की इस अनुचित एकाधिकारी मनोवृति का शिकार होने से उपभोक्ताओं को बचाने के लिए भी उपभाक्ता संरक्षण अधिनियम की आवश्यकता है।

7. मानव कल्याण के लिए हम सभी किसी न किसी रूप में उपभोक्ता ही तो हैं। मानवीय कल्याण की दृष्टि से भी उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम आवश्यक है।

8. अन्य कारण-(i) निर्माताओं एवं उत्पादकों को उत्पाद की गुणवत्ता के प्रति जागरूक करने के लिए: उपभोक्ता के उपभोग के स्तर को ऊँचा उठाने के लिए: (iii) शद्ध एवं गुणवत्ता वाली वस्तुआ। के निर्माण एवं उत्पादन को प्रोत्साहित करने के लिए: (iv) उपभोक्ता चेतना में वृद्धि करने के लिए; (v) वितरण प्रणाली के दोषों को दूर करने एवं उसे अधिक सदढ़ बनाने के लिए; (vi) उपभोक्ताओं के जीवन-स्तर को ऊँचा उठाने के लिए; (vii) उपभोक्ताओं की आवश्यकताओं को समझने के लिए; (viii) सरकार को उपभोक्ताओं के प्रति जागरूक बनाए रखने के लिए।

Consumer Protection Act 1986

उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986

उपभोक्ताओं के हितों के संरक्षण के लिए भारत में उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 लागू किया गया। यह अधिनियम जम्मू एवं कश्मीर राज्य को छोड़कर सम्पूर्ण भारत में 1 जुलाई, 1987 से लागू हुआ है। इस अधिनियम के लागू होने के पश्चात इसमें अनेक कमियाँ दृष्टिगोचर होने लगी और अधिनियम के प्रावधानों में व्यापक संशोधन किए जाने की आवश्यकता महसूस की जाने लगी। परिणामस्वरूप उपभोक्ता संरक्षण (संशोधन) अधिनियम, 1993 द्वारा अधिनियम में व्याप्त कुछ कमियों को दूर किया गया तथा अधिनियम के क्षेत्र को विस्तृत कर दिया गया। एक बार पुन: यह अनुभव किया गया कि वर्तमान अधिनियम के प्रावधान अपेक्षाओं के अनुकूल नहीं हैं, अत: इन प्रावधानों में व्यापक संशोधन की आवश्यकता है। फलस्वरूप भारत सरकार द्वारा उपभोक्ता संरक्षण (संशोधन) अधिनियम, 2002 पारित किया गया जो कि 15 मार्च, 2003 से प्रभावी बनाया गया।

उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के उद्देश्य-इस अधिनियम के विधेयक को संसद में प्रस्तुत करते समय निम्नलिखित उद्देश्य बताये गये थे—(i) उपभोक्ता के अधिकारों का संरक्षण एवं संवर्द्धन करना। (ii) उपभोक्ताओं के हितों एवं अधिकारों के संरक्षण के लिये उपभोक्ता परिषदों की स्थापना के लिये व्यवस्था करना। (iii) उपभोक्ताओं के विवादों तथा उनसे सम्बन्धित मामलों के निपटारे के लिये व्यवस्था करना। (iv) उपभोक्ता विवादों का शीघ्रता एवं सरलता से निपटारा करना। (v) उपभोक्ता विवादों के निपटारे के लिये अद्धन्यायिक मशीनरी (Quasi-judicial machinery) की व्यवस्था करना।

उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 के प्रमुख प्रावधान

1 संक्षिप्त शीर्षक-इस अधिनियम को उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 कहा जाता है।

2. भौगोलिक क्षेत्र-यह अधिनियम जम्मू एवं कश्मीर को छोड़कर सम्पूर्ण भारत में समान रूप से लाग होता है। यह अधिनियम सभी केन्द्र शासित प्रदेशों पर भी समान रूप से लागू होता है।

3. माल तथा सेवाओं का क्षेत्र-यह अधिनियम सभी माल (वस्तुओं) तथा सेवाओं पर लागू होता है, जब तक कि केन्द्रीय सरकार ने अधिसूचना जारी करके किसी वस्तु या सेवा को इसके प्रावधानों से मुक्त न कर दिया हो।

4. अतिरिक्त प्रावधान-इस अधिनियम के प्रावधान देश में प्रचलित किसी भी अन्य अधिनियम के प्रावधानों के अतिरिक्त हैं। अत: यह अधिनियम किसी भी अन्य अधिनियम के क्षेत्र को सीमित या कम नहीं करता है।

5. अधिनियम का प्रभाव-यह अधिनियम केन्द्रीय सरकार की अधिसूचना की तिथि से लाग होगा। केन्द्रीय सरकार देश के विभिन्न राज्यों में तथा इस अधिनियम के विभिन्न अध्यायों के प्रावधानों को अलग-अलग तिथियों से लागू कर सकती है।

6. उपभोक्ता संरक्षण परिषदों का गठन-उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 के अन्तर्गत केन्द्र एवं राज्य स्तर पर उपभोक्ता संरक्षण परिषदों का गठन किया गया था, परन्तु उपभोक्ता संरक्षण (संशोधन) अधिनियम, 2002 के अन्तर्गत अब जिला स्तर भी उपभोक्ता संरक्षण परिषद के गठन का प्रावधान किया गया है। इन परिषदों के गठन का उद्देश्य उपभोक्ताओं के हितों का संरक्षण एवं संवर्द्धन करना है।

Consumer Protection Act 1986

7. उपभोक्ता विवाद समाधान व्यवस्था-उपभोक्ता की शिकायतों के समाधान के लिए। उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम में निम्नलिखित त्रिस्तरीय अर्द्ध-न्यायिक (Three-tier quasi-judicial machinery) व्यवस्था की गई है

(a) जिला मंच (District Forum)-राज्य सरकार अधिसूचना द्वारा प्रत्येक जिले में एक ‘उपभोक्ता विवाद निवारण मंच’ स्थापित करेगी जिसे ‘जिला मंच’ के नाम से जाना जाएगा। राज्य सरकार यदि उपयुक्त समझे तो एक जिले में एक से अधिक जिला मंच भी स्थापित कर सकती है।

जिला मंच को उन शिकायतों की सुनवाई करने का अधिकार है जबकि वस्तुओं एवं सेवाओं की लागत तथा क्षतिपूर्ति की राशि बीस लाख रुपए से अधिक नहीं है।

(ii) राज्य आयोग (State Commission)-प्रत्येक राज्य सरकार अपने राज्य में केन्द्रीय सरकार की पूर्वानुमति से उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग की स्थापना कर सकती है। इसे ही राज्य आयोग के नाम से जाना जाता है। इसके लिए राज्य सरकार अधिसूचना निर्गमित करती है। 20 लाख रुपए या अधिक परन्तु एक करोड़ रुपए से अधिक नहीं होने वाली राशि के उपभोक्ता विवाद ही राज्य आयोग के समक्ष प्रस्तुत किए जा सकते हैं। जिला मंचों के विरुद्ध अपील की सुनवाई करने का अधिकार भी राज्य आयोग को दिया गया है।

(iii) राष्ट्रीय आयोग (National Commission)-यह उपभोक्ता विवादों का निपटारा करने वाली राष्ट्रीय स्तर पर सर्वोच्च संस्था है। यह एक स्वतन्त्र वैधानिक संस्था है। इसका पूरा नाम ‘राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग’ (National Consumer Disputes Redressal Commission) है। राष्ट्रीय आयोग उन सभी शिकायतों की सुनवाई करेगा जिनमें वस्तुओं अथवा सेवाओं का मूल्य तथा क्षतिपूर्ति की राशि का दावा एक करोड़ रुपए से अधिक का है।

8. अपील हेतु प्रावधानधारा 15 के अनुसार जिला मंच के आदेश से पीड़ित पक्ष उस आदेश के विरुद्ध आदेश की तिथि से 30 दिन के भीतर निर्धारित तरीके से राज्य आयोग को अपील कर सकता है। धारा 19 के अनुसार यदि कोई व्यक्ति राज्य आयोग के आदेश से सन्तुष्ट नहीं है तो वह उस आदेश के विरुद्ध आदेश की तिथि से 30 दिन के भीतर राष्ट्रीय आयोग के समक्ष अपील कर सकता है। धारा 23 के अनुसार राष्ट्रीय आयोग के आदेश से असन्तुष्ट या पीड़ित पक्ष आदेश की तिथि से 30 दिन के भीतर उच्चतम न्यायालय में अपील कर सकता है। इन सभी दशाओं में आदेश की तिथि से 30 दिन के पश्चात् भी अपील को स्वीकार किया जा सकता है यदि राज्य आयोग, राष्ट्रीय आयोग अथवा उच्चतम न्यायालय (जैसी भी स्थिति हो) इस बात से सन्तुष्ट है कि देरी का कारण उचित एवं न्यायसंगत है।

9. आदेशों की अन्तिमता (धारा 24)-जिला मंच, राज्य आयोग या राष्ट्रीय आयोग में से किसी के भी आदेश के विरुद्ध इस अधिनियम के प्रावधानों के अधीन अपील न करने की दशा में सम्बन्धित आदेश अन्तिम माना जाता है।

10. परिसीमा अवधि (Limitation Period)-जिला मंच, राज्य आयोग या राष्ट्रीय आयोग ऐसी शिकायतों को स्वीकार नहीं कर सकेगा जो कार्यवाही के कारण उत्पन्न होने की तिथि से 2 वर्ष के भीतर प्रस्तुत न की गई हो।उक्त अवधि की समाप्ति के पश्चात् भी जिला मंच, राज्य आयोग या राष्ट्रीय आयोग शिकायतों को स्वीकार कर सकेगा बशर्ते शिकायतकर्ता उन्हें सन्तुष्ट कर दे कि निर्धारित अवधि में अपील न करने के पर्याप्त कारण थे। ऐसी किसी भी शिकायत को स्वीकार करते समय देरी के निरस्त करने के कारणों को रिकॉर्ड करना होगा।

Consumer Protection Act 1986

11. आदेश का क्रियान्वयन (Enforcement of Order)-जिला मंच, राज्य आयोग एवं राष्ट्रीय आयोग के आदेशों के क्रियान्वयन सम्बन्धी निम्नलिखित प्रावधान महत्वपूर्ण हैं अन्तरिम आदेश का प्रवर्तन-यदि उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के अधीन जारी किए गए। किसी अन्तरिम आदेश का पालन नहीं किया जाता है तो जिला मंच, राज्य आयोग या राष्ट्रीय आयोग (जैसी भी स्थिति हो) आदेश का पालन नहीं करने वाले व्यक्ति की सम्पत्ति की कर्की का आदेश दे सकता है।

उपर्युक्त प्रकार से कुकी की गई सम्पत्ति तीन माह तक रखी जा सकती है। तत्पश्चात् सम्बन्धित मंच या आयोग उस सम्पत्ति को बेच सकता है। उससे प्राप्त राशि में से शिकायतकर्ता को क्षतिपर्ति के रूप में राशि का भुगतान करने के बाद शेष राशि को उस पक्षकार को दे देगा जो उस राशि का हकदार होगा ।

12. अन्तिम आदेश का प्रवर्तनसम्बन्धित मंच या आयोग के आदेश (अन्तिम आदेश) के मी व्यक्ति से कोई राशि वसूली जानी है तो उस राशि का हकदार व्यक्ति सम्बन्धित मंच या क आवेदन करेगा। तत्पश्चात् सम्बन्धित मंच या आयोग उस राशि का एक प्रमाणपत्र नाम जारी करेगा और वह जिलाधीश तब उस राशि की वसूली हेतु उसी प्रकार कार्यवाही जिस प्रकार भू-राजस्व की बकाया राशि वसूलने हेतु करता है।

13. परिवाद (शिकायत) का खारिज (निरस्त) होना-यदि सम्बन्धित शिकायत तुच्छ या तंग पाई गई हो तो सम्बन्धित जिला मंच, राज्य आयोग या राष्ट्रीय आयोग उक्त शिकायत को करने वाली पाई सकता है परन्तु उसके कारणों को अभिलिखित भी किया जाएगा। साथ ही शिकायतकर्ता द्वारा कार (प्रतिवादी) को दस हजार र तक का हर्जाना दिए जाने का आदेश दिया जा सकता है।

14. दण्ड सम्बन्धी प्रावधानयदि कोई व्यापारी या व्यक्ति जिसके विरुद्ध शिकायत दर्ज की गई। जिला मंच. राज्य आयोग या राष्ट्रीय आयोग द्वारा दिए गए किसी आदेश का पालन नहीं करता है या करता है तो ऐसा व्यापारी या व्यक्ति कम से कम एक महीना तथा अधिक से अधिक तीन वर्ष के कारावास अथवा कम से कम 2,000 ₹ तथा अधिकतम 10,000 ₹ तक के आर्थिक दण्ड वा दोनों प्रकार के दण्डों का भागी हो सकता है। परन्तु यदि जिला मंच, राज्य आयोग या राष्ट्रीय आयोग जिसने भी दण्ड का आदेश दिया है वह मामले की परिस्थितियों को देखते हुए सन्तुष्ट हो जाता है तो वह उपर्युक्त वर्णित न्यूनतम सीमाओं से भी कम दण्ड प्रदान कर सकता है। [धारा 27]

Consumer Protection Act 1986

उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के अन्य प्रावधान

(Other Provisions of the Consumer Protection Act)

1 सद्भाव से किए गए कार्यों से सुरक्षायदि जिला मंच, राज्य आयोग अथवा राष्ट्रीय आयोग के सदस्यों तथा इनके निर्देशों के अनुसार कार्य करने वाले किसी भी अधिकारी के द्वारा आदेश के क्रियान्वयन के लिए सद्भाव से दिए गए आदेशों तथा किए गए कार्यों के विरुद्ध कोई भी वाद, अभियोग नहीं चलाया जा सकेगा या वैधानिक कार्यवाही नहीं की जा सकेगी। इस हेतु यह आवश्यक है कि उनके द्वारा दिया गया आदेश या उनके क्रियान्वयन के लिए की गई कार्यवाही इस अधिनियम के प्रावधानों तथा इसके अन्तर्गत बनाए गए नियमों के अनुसार होनी चाहिए।

2. क्रियान्वयन की कठिनाइयों को दूर करनायदि इस अधिनियम के प्रावधानों को लागू करने में कोई कठिनाई उपस्थित होती है तो केन्द्रीय सरकार राजकीय गजट में अधिसूचना जारी करके उस कठिनाई को दूर करने के लिए आवश्यक अथवा समुचित आदेश प्रसारित कर सकती है। किन्तु, ऐसा आदेश इस अधिनियम के प्रावधानों के विपरीत नहीं होना चाहिए। परन्तु अधिनियम के प्रभावी होने से 2 वर्ष की अवधि समाप्त हो जाने पर ऐसा कोई आदेश जारी नहीं किया जा सकेगा। इस प्रकार अब इस धारा की व्यावहारिकता समाप्त हो गई है।

3. कार्यवाही की वैधता अप्रभावितजिला मंच, राज्य आयोग अथवा राष्ट्रीय आयोग की कार्यवाही केवल इस आधार पर अवैध नहीं हो जाएगी कि उसमें किसी सदस्य का पद रिक्त है या उसके गठन में कोई त्रुटि रह गई है।

4. नियम बनाने का अधिकार केन्द्रीय सरकार तथा राज्य सरकार को इस अधिनियम के प्रावधानों को लागू कराने के लिए नियम बनाने का अधिकार है।

5. संसद अथवा विधानसभा में नियमों को रखना-केन्द्रीय सरकार द्वारा बनाए गए नियमों को ससद के दोनों सदनों में तथा राज्य सरकार द्वारा बनाए गए नियमों को राज्य विधानसभा में प्रस्तुत किया। जाएगा।

Consumer Protection Act 1986

महत्त्वपूर्ण परिभाषाएँ

(Important Definitions)

उपभोक्ता सरक्षण अधिनियम, 1986 की धारा के अन्तर्गत इस अधिनियम में प्रयक्त शब्दों का ज्या का गई है और जब तक विषय या सन्दर्भ से कोई प्रतिकल अर्थ न निकले, उनका अर्थ इस धारा को उपधारा में बताए अनुसार ही होगा। ये शब्द निम्नलिखित हैं

1 उपयुक्तप्रयोगशाला (Appropriate-Laboratory)-उक्त शब्द का आम कोई भी मंगलवार संगठन अथवा प्रयोगशाला, जिसे केन्द्रीय सरकार द्वारा मान्यता प्रदान की गई हो। इसके अन्तर्गत ऐसा प्रयोगशालाओं एवं संगठनों को भी शामिल किया गया है, जिन्हें या तो केन्द्रीय या फिर राज्य सरकार द्वारा

(i) सहायता प्रदान की जा रही हो; अथवा

(ii) वित्तीय सहायता प्रदान की जा रही हो; अथवा

(iii) संचालित किया जा रहा हो; तथा जिनकी स्थापना देश में लागू किसी भी कानून के अन्तर्गत की गई हो एवं इनका उद्देश्य प्राप्त हए उत्पाद से सम्बन्धित कमियों एवं दोषों को खोजना, उनका विश्लेषण करना (Analysis) एवं परीक्षण (Examination) करना हो।

2. शाखा कार्यालय (Branch office)-धारा 2(10 (aa) के अनुसार शाखा कार्यालय है(i) कोई संस्थान जिसका विपक्षी पक्षकार ने शाखा के रूप में वर्णन किया है।

(ii) कोई संस्थान, जो उसी प्रकार की या उसी समान अथवा पर्याप्त रूप में उसी प्रकार की गतिविधियों में संलग्न है—जिस प्रकार की गतिविधियों में उस संस्थान का प्रधान कार्यालय संलग्न है।

3. शिकायत कौन दायर कर सकता है? (Who can file a Complaint?)-शिकायतकर्ता हो सकता है

(i) एक उपभोक्ता; अथवा

(i) कोई भी ऐसा स्वेच्छिक उपभोक्ता संघ (Voluntary Consumer Association) जो या तो-भारतीय कम्पनी अधिनियम, 1956 के अन्तर्गत पंजीकृत (Registered) हो या फिर देश में लागू। किसी भी अन्य अधिनियम के अन्तर्गत पंजीकृत हो; अथवा

(iii) ऐसे उपभोक्ताओं का समूह अथवा उस समूह का कोई भी व्यक्ति, बशर्ते-उन सबके हितों में कोई अन्तर न हो; अथवा

(iv) केन्द्रीय या राज्य सरकार द्वारा की गई शिकायत।

(v) उपभोक्ता की मृत्यु की दशा में उसका वैधानिक प्रतिनिधि।

4. फरियाद/शिकायत (Complaint)-इस शब्द का अभिप्राय है-ऐसा आरोप, जिसे फरियादी या शिकायतकर्ता द्वारा लिखित रूप में प्रस्तुत किया गया है तथा शिकायत-कर्ता ने सम्बन्धित आरोप इस हेतु लगाया है ताकि वह इस अधिनियम में वर्णित विभिन्न प्रावधानों के अन्तर्गत प्राप्त हो सकने वाले उपचारों को प्राप्त करने में सक्षम हो सके। शिकायतकर्ता द्वारा की जाने वाली शिकायतों के प्रमुख प्रकार इस प्रकार हैं

Consumer Protection Act 1986

(i) किसी व्यापारी द्वारा किया गया ऐसा कोई भी अनुचित व्यापार व्यवहार, (unfair trade practice) जिसके परिणामस्वरूप-शिकायकर्ता को कोई हानि या क्षति (loss or damage) हुई है।

(ii) शिकायतकर्ता द्वारा दायर शिकायत-पत्र में वर्णित एक या अधिक दोष हो;

(iii) शिकायत में वर्णित ऐसा दोष, जिन्हें शिकायतकर्ता द्वारा प्राप्त की गई विभिन्न सेवाओं में से किसी भी सेवा के सम्बन्ध में पाया गया।

(iv) शिकायत में वर्णित वह मूल्य, जिसका भुगतान शिकायतकर्ता द्वारा किया गया है, उस मूल्य से ज्यादा है, जो मूल्य सम्बन्धित उत्पाद या सेवा के सन्दर्भ में इस अधिनियम के अन्तर्गत निर्धारित किया गया है, अथवा उस उत्पाद की पैकिंग पर छपे हुए मूल्य से ज्यादा है या मूल्य सूची में वर्णित मूल्य से अधिक है, या फिर किसी भी अन्य लागू अधिनियम (enforced-Act) में वर्णित मूल्य से ज्यादा है;

(v) शिकायत में वर्णित उपयोग-सम्बन्धी आरोप, जिसके बारे में व्यापारी द्वारा जानकारी प्रदान करना अनिवार्य है।

Consumer Protection Act 1986

केस लॉ (Case Law)

मारुति उद्योग लिमिटेड बनाम कोडीकनाल टाउनशिप (1993) के विवाद में मारुति उद्योग द्वारा कार की कीमतों में की गई वृद्धि के विरुद्ध वाद प्रस्तुत किया गया। न्यायालय द्वारा इस आधार पर विवाद को रद्द कर दिया गया कि शिकायत तभी की जा सकती है जबकि कीमत किसी अधिनियम द्वारा निश्चित की गई हो और निर्धारित मूल्य से अधिक वसूल की गई हो।

उपभोक्ता (Consumer)-अधिनियम में उपभोक्ता को दो वर्गों में विभाजित करते हुए । परिभाषित किया गया हे-(अ) माल का उपभोक्ता तथा (ब) सेवा का उपभोक्ता।

() माल का उपभोक्ता (Consumer of Goods)-माल के उपभोक्ता से आशय ऐसे व्यक्ति । से है जिसने प्रतिफल के बदले किसी माल को खरीदा हो जिसका भुगतान कर दिया गया हो अथवा भगतान करने का वचन दिया हो अथवा आंशिक भुगतान एवं आंशिक वचन दिया हो अथवा किसी प्रणाली के अधीन भुगतान स्थगित कर दिया हो।

उपभोक्ता की श्रेणी में उन व्यक्तियों को शामिल नहीं किया गया है, जिन्होंने किसी उत्पाद का पुनः विक्रय (Re-sale) हेतु प्राप्त किया है अथवा वे व्यक्ति जो सम्बन्धित उत्पाद का व्यापारिक प्रयाग कर चुके हैं। उपभोक्ता संरक्षण (संशोधन) बिल के माध्यम से यह भी स्पष्ट किया गया है कि यदि कोई। बेरोजगार व्यक्ति आजीविका के निर्वाह हेत कोई उत्पाद क्रय करता है, तो उसे उपभोक्ता की श्रेणी में शामिल किया जाएगा।

इसका आशय यह है कि यदि कोई बेरोजगार व्यक्ति फोटो स्टेट, कम्प्यूटर, फैक्स, टैक्सी, टाइपराइटर आदि यन्त्र खरीदकर अपना कारोबार करके अपनी आजीविका चलाता है तो वह उपभोक्ता हो। माना जाएगा।

() सेवा का उपभोक्ता (Consumer of Services)-ऐसा उपभोक्ता जो प्रतिफल के बदले किन्हीं ऐसी सेवाओं को किराए पर लेता है जिनका भुगतान कर दिया हो अथवा भुगतान करने का वचन दिया हो अथवा आंशिक भुगतान एवं आंशिक वचन दिया हो अथवा किसी प्रणाली के अधीन भुगतान स्थगित कर दिया हो। इसके अतिरिक्त, इसमें ऐसी सेवाओं से लाभ उठाने वाले व्यक्ति को भी सम्मिलित करते हैं जिसने सेवाओं का लाभ किसी ऐसे व्यक्ति (किराए पर लेने वाले) के अनुमोदन पर उठाया हो जिसने उक्त सेवाओं को प्रतिफल के बदले किराए पर लिया हो जिनका भुगतान कर दिया हो अथवा भुगतान करने का वचन दिया हो अथवा आंशिक भगतान एवं आंशिक वचन दिया हो अथवा किसी प्रणाली के अधीन भुगतान स्थगित कर दिया हो।

सन् 2002 में किए गए संशोधन के अन्तर्गत इस अधिनियम में ऐसे व्यक्ति को सम्मिलित नहीं किया जाएगा जो किसी वाणिज्यिक उद्देश्य के लिए सेवाएँ उपलब्ध कराता है। . इस प्रकार से उपभोक्ता की परिभाषा में निम्नलिखित शामिल हैं

(a) वह व्यक्ति, जो व्यक्तिगत प्रयोग हेतु प्रतिफल के बदले में कोई वस्तु खरीदता है या खरीदने के लिए सहमत होता है;

(b) वह व्यक्ति जो ऐसी वस्तुओं के क्रेता की अनुमति से उन वस्तुओं का प्रयोग करता है;

(c) वह, जो किराया क्रय या पट्टे पर वस्तुएँ प्राप्त करता है;

(d) वह जो किराए पर अथवा प्रतिफल के बदले में कोई भी सेवाएँ प्राप्त करता है;

(e) वह जो उन सेवाओं का उस व्यक्ति की अनुमति से प्रयोग करता है, जिसने उन सेवाओं को किराए पर या प्रतिफल के बदले में प्राप्त किया है।

(1) वह, जो विलम्बित भुगतान के आधार पर सेवाएँ प्राप्त करता है, जैसे किराया क्रय या पट्टे पर;

(g) वह जो पूर्ण रूप से केवल स्वत: रोजगार के अधीन जीविकोपार्जन हेतु वस्तुएँ क्रय करता है। इस प्रकार से एक व्यक्ति जो एक ट्रक या सिलाई मशीन या कम्प्यूटर खरीदता है, इस धारा के अधीन ‘उपभोक्ता’ की श्रेणी में आएगा।

Consumer Protection Act 1986

केस लॉ

(i) इस सम्बन्ध में लक्ष्मी इंजीनियरिंग वर्क्स बनाम पी० एस० जी० इण्डस्ट्रीयल इन्सटीट्यूट (1995) 17 CLA 137 SC का विवाद महत्वपूर्ण है। इसमें क्रेता एक व्यापारिक स्वामित्व संस्था थी तथा उद्योग-निदेशालय, महाराष्ट्र के पास एक लघु-इकाई उद्योग के रूप में पंजीकृत थी। उसने पी एस जी औद्योगिक संस्थान को मशीन की आपूर्ति हेतु आदेश दिया। एक दोषयुक्त (खराब) मशीन की सुपुर्दगी दी गई। क्रेता ने उस मशीन के सुपुर्दगीकर्ता को मशीन सम्बन्धी दोषों की जानकारी दी किन्तु मशीन की मरम्मत तसल्लीबख्श तौर पर नहीं हुई। क्रेता ने महाराष्ट्र उपभोक्ता विवाद समाधान आयोग के समक्ष शिकायत दर्ज की जिसमें उसने वित्तीय-हानियों के रूप में 4 लाख ₹ की क्षति की पूर्ति का दावा किया। सुपुर्दगीकर्ता ने फौरन यह आपत्ति उठायी कि चूंकि अपीलकर्ता ने मशीन को व्यापारिक उद्देश्यों की पूर्ति हेतु क्रय किया है, अतः उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम की धारा 2(1) (d) के अन्तर्गत वह “उपभोक्ता” की श्रेणी में नहीं आता। चूंकि उस दोषयुक्त मशीन को, जिसका मूल्य 21 लाख ₹ था, व्यापारिक उद्देश्य हेतु खरीदा गया था, अतः उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के अन्तर्गत प्राप्त होने वाले लाभों से क्रेता को इन्कार कर दिया गया।

इस आदेश से पीड़ित होकर क्रेता उच्चतम न्यायालय पहुंच गया। उच्चतम न्यायालय ने यह व्याख्या दी कि सभी प्रकार के प्रयोगों को व्यापारिक उद्देश्यों की पूर्ति की दृष्टि से नहीं देखा जा सकता। यदि माल का क्रेता जीविकोपार्जन के लिए उस माल का प्रयोग स्वयं करता है, तो उसे ‘व्यापारिक उद्देश्य’ के रूप में मान्यता नहीं दी जा सकती तथा इस अधिनियम के उद्देश्यों की पूर्ति हेतु उसे उपभोक्ता’ होने। से नहीं रोका जा सकता।

(ii) कोडी एल्कोर्ट लि० बनाम डॉ० सी० पी० गुप्ता (1996) के विवाद में शिकायकर्ता मेडिकल के पेशे में कार्यरत था तथा एक नर्सिंग होम व क्लीनिक चला रहा था। उसने अपीलकर्ता कम्पनी से। जुलाई 1990 में 3 लाख 85 हजार र मूल्य के उपकरण आश्वासन-सहित (with warranty) क्रय किए। उपकरण ने समस्या उत्पन्न करनी शुरू कर दी जो ठीक नहीं हुई। इसके परिणामस्वरूप डॉक्टर (शिकायकर्ता) ने निर्माता को नोटिस देने के पश्चात् लखनऊ में राज्य-आयोग के समक्ष शिकायत दर्ज। कर दी तथा अपने पक्ष में आदेश प्राप्त कर लिया। निर्माता ने राष्ट्रीय आयोग के समक्ष अपील की. जिसने। राज्य-आयोग के निर्णय पर रोक लगा दी क्योकि शिकायतकर्ता द्वारा उस उपकरण का प्रयोग अपने। जीविकोपार्जन हेत व्यक्तिगत रूप से किया गया था।

Consumer Protection Act 1986

कौन उपभोक्तानहीं है

(Who is not a :Consumer’)

‘उपभोक्ता’ शब्द में निम्नलिखित को शामिल नहीं किया गया है

(a) वह, जो व्यापारिक उद्देश्यों की पूर्ति हेतु माल खरीदता है।

(b) वह, जिसने माल नहीं खरीदा है। इस प्रकार से एक एकल व्यक्ति तब तक शिकायत नहीं कर सकता जब तक उसने वास्तव में माल को क्रय न किया हो या सेवाएँ प्राप्त न की हों। किन्तु यह शर्त उस दशा में लागू नहीं होती जब शिकायत किसी स्वैच्छिक उपभोक्ता संगठन या सरकार द्वारा की गई हो।

उपभोक्ताविवाद (Consumer-Dispute)-जब शिकायत-कर्ता द्वारा आरोप-पत्र में दर्ज किए गए आरोपों को मानने से दूसरा पक्ष इन्कार कर देता है, या उन आरोपों से असहमति व्यक्त करने के ‘कारण’ जो ‘विवाद’ (Dispute) उत्पन्न होता है, उसे इस अधिनियम के अन्तर्गत ‘उपभोक्ता विवाद’ के नाम से पुकारा जाता है।

दोष (Defect)-दोष से आशय किसी माल की किस्म, मात्रा, सामर्थ्य, शुद्धता अथवा प्रमाप जिसे उस समय प्रचलित किसी विधान के अधीन व्यापारी द्वारा, किसी भी ढंग से, माल के सम्बन्ध में बनाए रखना आवश्यक हो, में किसी त्रुटि, अपूर्णता अथवा कमी से है।

कमी (Deficiency)-कमी से आशय निष्पादन की किस्म, प्रकृति तथा निष्पादन का ढंग, जिसे उस समय प्रचलित किसी विधान के अधीन व्यक्ति द्वारा किसी अनुबन्ध के अन्तर्गत या सेवा के सम्बन्ध में निष्पादन का दायित्व लिया हो, में त्रुटि, अपूर्णता, कमी अथवा अपर्याप्तता से है।

कमी’ शब्द की परिभाषा के दो भाग हैं, पहला वह, जिसमें सेवा सम्बन्धी मानकों का कानून द्वारा निर्धारण किया गया है तथा दूसरा जिसमें सम्बन्धित व्यक्ति द्वारा स्पष्ट आश्वासन या प्रत्याभूति अथवा गारण्टी दी गई है। निष्पादन के गुणों को कानून द्वारा निर्धारित स्तर पर बरकरार रखने में असफलता अथवा दिए गए आश्वासनों के अनुसार सेवाएं प्रदान करने में असफलता ‘कमी’ की ओर संकेत करती है। ।

बैंक द्वारा, खाते में पर्याप्त कोष होने के पश्चात् भी चैक का अनादरण कर देना एक भंयकर भूल है तथा सेवा में कमी’ का सूचक है। इसी प्रकार से आरक्षण (reservation) प्राप्ति के पश्चात् भी सीट उपलब्ध न करवाना सेवा में कमी का प्रतीक है किन्तु बैंक द्वारा ऋण को स्वीकृत करने से इन्कार कर देना सेवा में कमी का सूचक नहीं है।

केस लॉ-(i) इस सम्बन्ध में लखनऊ विकास प्राधिकरण बनाम एम० के० गुप्ता का विवाद उल्लेखनीय है। इसमें लखनऊ विकास प्राधिकरण ने नकद भुगतान के आधार पर फ्लैटों के पंजीकरण व आबंटन हेतु आवेदन-पत्र आमन्त्रित किए। विभिन्न आवेदकों में से एक आवेदक मि० गुप्ता ने भी आवेदन किया तथा जुलाई 1988 में सम्पूर्ण धनराशि का भुगतान एक मध्यवर्गीय श्रेणी के फ्लैट हेतु कर दिया जो कि एक लाख से ज्यादा थी। उनके नाम से फ्लैट का पंजीकरण अगस्त 1988 में हुआ। चूंकि निर्माण कार्य समाप्त नहीं हुआ था, अत: नवम्बर 1988 तक होती देरी देखकर उन्होंने राज्य-आयोग के समक्ष एक शिकायत दर्ज की। राज्य-आयोग ने फरवरी 1990 में यह आदेश दिया कि जमा-तिथि से जमा किए गए धन पर 12% सामान्य-ब्याज की दर से आदेश जारी होने की तिथि तक ब्याज का भुगतान किया जाए इसके साथ ही शीघ्रातिशीघ्र फ्लेट का कब्जा मि० गुप्ता को प्रदान किया जाए। इसके साथ हो। यह वैकल्पिक आदेश भी दिया गया कि यदि निर्माण कार्य शीघ्र पूरा नहीं हो सकता, तो कमियों का सिरण करने के पश्चात फ्लैट का कब्जा दे दिया जाए तथा कमियों को दूर करने में होने वाले व्यय की राशि का भुगतान कर दिया जाए।

Consumer Protection Act 1986

उपभोक्ता द्वारा प्रत्यापील (cross-appeal) करने पर राष्ट्रीय-आयोग ने यह निर्देश दिया कि उपभोक्ता को 44,615 ₹ का भुगतान किया जाए जो कि फ्लैट के बचे हुए कार्यों को पूरा करने की लागत थी। आयोग ने उपभोक्ता को हुई मानसिक यातना, चिन्ता, दुख, परेशानी के बदले में प्राधिकरण को 10,000 ₹ क्षतिपूर्ति के रूप में उपभोक्ता को देने का निर्देश दिया।

राष्ट्रीय आयोग द्वारा दिए गए निर्णय को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी गई। उच्चतम न्यायालय ने लखनऊ विकास प्राधिकरण को यह निर्देश दिया कि वह क्षतिपूर्ति के रूप में 10,000₹ उपभोक्ता को प्रदान करे तथा बाद में इस राशि की वसूली उनसे करे जो वास्तव में इस अक्षम्य व्यवहार के लिए जिम्मेदार हैं।

(ii) पंजाब नेशनल बैंक बनाम के० बी० शैट्टी के विवाद में बैंक के लॉकर में रखे गए कुछ गहने गुम पाए गए जबकि बैक के संरक्षक (custodian) द्वारा यह प्रमाणित किया गया कि उस दिन ग्राहक ने लॉकर का प्रयोग किया तथा उस दिन प्रयोग में लाए गए सभी लॉकर चैक कर लिए गए हैं तथा उन्हें पूर्णतया बंद पाया गया है। राष्ट्रीय आयोग ने राज्य-आयोग के निर्णय पर रोक लगाते हुए यह निर्णय दिया कि बैंक लापरवाही हेतु उत्तरदायी है तथा क्षतिपूर्ति के लिए बाध्य है।

जिला मंच (District Forum)-जिला मंच से आशय किसी ऐसे उपभोक्ता विवाद निवारण मंच से है जिसक स्थापना धारा 9(a) के अधीन की गई हो।

माल (Goods)-माल से आशय उस माल से है जिसे वस्तु विक्रय अधिनियम, 1930 (3) के अन्तर्गत परिभाषित किया गया है।

वस्तु विक्रय अधिनियम, 1930 की धारा 2 (7) के अनुसार माल से आशय प्रत्येक प्रकार की चल सम्पत्ति (Moveable Property) से है जिसमें अभियोग के योग्य दावे (Actionable claims) एवं मुद्रा (Money) तो सम्मिलित नहीं होती किन्तु स्कन्ध तथा अंश, खड़ी फसलें, घास तथा वस्तुएँ जो भूमि से जुड़ी हुई हो और जिनको विक्रय के पहले अथवा विक्रय के अनुबन्ध के अन्तर्गत अलग करने का ठहराव कर लिया गया हो, सम्मिलित हैं। पुराने तथा दुर्लभ सिक्के भी माल के अन्तर्गत सम्मिलित किए जाते हैं।

निर्माता (Manufacturer)-‘निर्माता’ शब्द के अन्तर्गत उन व्यक्तियों को सम्मिलित किया गया है, जो

Consumer Protection Act 1986

(i) किसी भी उत्पाद अथवा उसके किसी हिस्से या पुर्जे का निर्माण करता है;

(ii) यद्यपि न तो किसी उत्पाद का एवं न ही उससे सम्बन्धित हिस्से का निर्माण करता है, किन्तु अन्य व्यक्तियों द्वारा निर्मित किए गए पुजों या हिस्सों का संयोजन करके (assembling) बनाए गए उत्पाद के बारे में यह घोषणा करता है कि वह उत्पाद उसी के द्वारा बनाया गया है;

(iii) किसी भी अन्य निर्माता द्वारा निर्मित किए गए उत्पाद पर अपना चिन्ह (Mark) लगाता है या फिर ऐसा करने की इजाजत देता है एवं इसके साथ यह घोषणा भी करता है कि उक्त उत्पाद का निर्माता वह स्वयं है।

यदि एक निर्माता किसी उत्पाद अथवा सम्बन्धित पुर्जो या हिस्सों को अपने किसी शाखा कार्यालय के पास भेजता है एवं उस शाखा द्वारा यदि प्राप्त हुए पुों या हिस्सों का संयोजन करके (assembling) उनका वितरण या विक्रय किया जाता है तो ऐसी दशा में सम्बन्धित शाखा कार्यालय को इस अधिनियम के अन्तर्गत निर्माता की श्रेणी में शामिल नहीं किया जाएगा।

राष्ट्रीय आयोग (National-Commission)-‘राष्ट्रीय योग’ का अभिप्राय है, उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम की धारा 1 के वाक्यांश (c) [sec. 1 (c)] के अधीन स्थापित किया गया ‘राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग’ (National consumer redressal commission). [धारा 2 (1) (K)|

व्यक्ति (Person)-इस अधिनियम के अन्तर्गत निम्नलिखित को ‘व्यक्ति’ की परिधि में शामिल किया गया है, जिसका वर्णन इस प्रकार है

(i) कोई भी फर्म भले ही वह पंजीकृत (Registered) हो या न हो।

(ii) एक संयुक्त हिन्दू परिवार;

(iii) सहकारी-समिति

(iv) व्यक्तियों का कोई भी संघ, जो भले ही संघ पंजीकरण अधिनियम, 1860 (The Association Registration Act, 1860) के अन्तर्गत पंजीकृत हुआ हो या नहीं। धारा 2 (1) (m)

सेवा (Service)-सेवा से आशय किसी भी विवरण की ऐसी सेवा से है जोकि सम्भावित उपयोगकर्ता के लिए उपलब्ध की गई हो। इसमें बैंकिंग, वित्त, बीमा, परिवहन, माल तैयार करने, विद्यत । अथवा अन्य शक्ति की आपूर्ति, भोजन या रहने का अस्थाई स्थान या दोनों, आवास निर्माण, मनोरंजन. मनोविनोद या नवीन समाचारों या अन्य सूचनाओं को प्रदान करने के सम्बन्ध में प्रदान की गई सुविधाओं को भी सम्मिलित किया गया है किन्त इसमें किसी ऐसी सेवा को सम्मिलित नहीं किया गया है जोकि। नि:शुल्क हो अथवा किसी व्यक्तिगत सेवा के अनुबन्ध के अन्तर्गत प्रदान की गई हो।

धारा 2 (1) (O) के अनुसार सेवा शब्द के अन्तर्गत केवल उसी सेवा को शामिल किया गया है। जो व्यापारिक प्रकृति (commercial natuer) की हैं तथा जो भुगतान (payment) के बदले में दी जाती हैं। किरायदारी (tenancy) के अनुबन्ध के अन्तर्गत पानी की आपूर्ति का ठहराव व्यापारिक-प्रकृति का नहीं है।

Consumer Protection Act 1986

टेलीफोनअभिदाता (Telephone Subscriber) द्वारा यदि प्रतिफल का भुगतान करके केन्द्रीय सरकार से किराए पर टेलीफोन लिया जाता है तो ऐसी दशा में सम्बन्धित अभिदाता को दूर-संचार विभाग द्वारा प्रदान की जाने वाली सेवाएँ, इस अधिनियम में वर्णित ‘सेवा’ शब्द की परिधि में आती हैं। ऐसी दशा में यदि किसी भी ऐसे टेलीफोन-अभिदाता (Subscriber) द्वारा, जो इस अधिनियम के अन्तर्गत ‘उपभोक्ता’ की श्रेणी में आता है, एवं यदि सम्बन्धित अभिदाता दूर-संचार विभाग द्वारा प्रदान की जा रही सेवाओं से सम्बन्धित कोई आरोप-पत्र लिखित रूप में ‘उपभोक्ता-मंच’ (consumer-forum) के समक्ष प्रस्तुत करता है तो सम्बन्धित उपभोक्ता मंच को इस बात का पूर्ण अधिकार है कि वह प्राप्त किए गए आरोप-पत्र पर विचार करे।

जनता से जमाएँ (deposits) प्राप्त करना एवं इस बात की सहमति देना कि उन जमाओं पर ब्याज दिया जाए, ‘सेवा’ (service) है। यदि भुगतान-तिथि पर मूल-ऋण वं ब्याज का भुगतान नहीं किया गया है तो इसे ‘सेवा में कमी’ (deficiency in service) माना जाएगा।

उच्चतम न्यायालय ने इण्डियन मेडिकल एसोसिएसन बनाम वी० पी० शान्या के वाद में चिकित्सा-पेशे (medical-profession) को ‘सेवा’ शब्द की परिधि में अधिनियम की धारा 2 (1) के अन्तर्गत शामिल किया है। इसमें निम्न निर्णय लिए गए

(a) एक रोगी को एक चिकित्सक द्वारा दी जा रही सेवाएँ इस अधिनियम की परिधि में तब नहीं आती हैं जब चिकित्सक ने रोगी के साथ सेवा का अनुबन्ध (contract of service) किया हो (अर्थात् वह रोगी का कर्मचारी हो) या फिर दी जानी वाली सेवाएँ निःशुल्क हों। ।

(b) अस्पतालों, नर्सिग होम, या हैल्थ-क्लब, जहाँ रोगियों की नि:शुल्क चिकित्सा की गई है जबकि सभी अन्य रोगियों से उनके शुल्क की वसूली कर ली गई है, प्रत्येक रोगी, जो वहाँ से उपचार करवा रहा है एवं ऐसे रोगी भी, जिनके पास भुगतान हेतु कुछ भी नहीं है, एक ‘उपभोक्ता’ की श्रेणी में शामिल किए जाएंगे।

(c) इस अधिनियम के अधीन सरकारी एवं गैर-सरकारी अस्पतालों व नर्सिंग होम द्वारा प्रदान की जाने वाली नि:शुल्क सेवा को शामिल नहीं किया जाएगा।

Harjot Ahluwalia Vs. SpringMeadows Hospital के वाद में एक अप्रशिक्षित नर्स ने एक अवयस्क बालक को इंजेक्शन लगाया जिसके फलस्वरूप उस बालक को कभी न ठीक होने वाला ब्रेन-हेनेज हो गया। अब उस बालक को सारी उम्र दूसरे पर निर्भर रहना था जिसमें सारी उम्र देखभाल व उसका ध्यान रखना शामिल था। इस वाद में डॉक्टर न नर्स को लापरवाही का दोषी पाया गया तथा उस बालक को 12.50 लाख ₹ एवं उसके माता-पिता को 5 लाख ₹ क्षतिपूर्ति के रूप में प्राप्त हुए।

नकली (या अवैध) वस्तुएँ और सेवाएँ (Spurious Goods and Services)-“नकली वस्तुओं और सेवाओं से अभिप्राय है-ऐसी वस्तुएँ और सेवाएँ, जिनके असली होने का दावा किया गया है जबकि वास्तव में वे असली नहीं हैं।”

Consumer Protection Act 1986

राज्य आयोग (State Commission)-राज्य आयोग से आशय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग से है जिसकी स्थापना धारा 9 (b) के अन्तर्गत की गई हो।

व्यापारी (Trader)-किसी माल के सम्बन्ध में व्यापारी से आशय ऐसे व्यक्ति से है जो विक्रय के उद्देश्य से माल को बेचता है अथवा उसका वितरण करता है। इसमें निर्माता भी सम्मिलित है। जहाँ माल का विक्रय अथवा वितरण पैकेज (Package) के रूप में होता है, वहाँ उसका पैकिंग करने वाला भी व्यापारी में सम्मिलित किया जाता है।

के पट्टे हेतु’ अनुमति देना, उत्पाद-विक्रय नहीं है, अत: खदान हेतु अनुदान/अनुमति देने से। सम्बन्धित अधिकारी-गण ‘व्यापारी’ शब्द के अन्तर्गत नहीं आते।

शिक्षा, उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के क्षेत्र में नहीं आती, अत: जिला मंच (District-Forum) को यह अधिकार नहीं है कि वह ऐसी किसी भी शिकायत पर विचार करे, जो शिक्षा से सम्बन्धित हो। [AIR 1992 Cal 95]

प्रतिबन्धात्मक व्यापार व्यवहार” (“Restrictive trade nractice”)-“प्रतिबन्धात्मक व्यापार व्यवहार” से आशय है-एक ऐसा व्यापार व्यवहार, जिसके माध्यम से बाजार में वस्तुओं या सेवाओं के मूल्य या उनकी सुपुर्दगी की शर्ते या फिर उस वस्तु या सेवा से सम्बन्धित बाजार में उसकी आपूर्ति (supply) इस प्रकार से करना ताकि उपभोक्ताओं पर अनुचित लागत या प्रतिबन्ध थोपे जा सकें। इसमें निम्नलिखित शामिल हैं

(a) व्यापारी द्वारा (सहमति पर आधारित) निर्धारित की गई सुपुर्दगी की अवधि बीत जाने के बाद भी सुपुर्दगी में देरी करना या फिर इस प्रकार से सेवाएँ प्रदान करना जिससे उनके मूल्यों में वृद्धि हो जाए;

(b) ऐसा व्यापार व्यवहार जिसमें उपभोक्ता द्वारा किसी वस्तु को क्रय करने, किराए पर प्राप्त करने या फिर उसका उपयोग करने पर व्यापारी द्वारा यह पूर्व-शर्त रखी जाए कि उन्हें सेवाएँ (services) तभी प्रदान की जाएँगी जब वह कोई अन्य वस्तु भी क्रय करेंगे या किराए पर लेंगे या उसका उपयोग करेंगे। [धारा 2 (1) (nnn)];

प्रतिबन्धात्मक व्यापार व्यवहार के कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं-(i) गैस कनैक्शन देते समय डीलर द्वारा उपभोक्ता को गैस-स्टोव खरीदने के लिए बाध्य करना, (ii) बैंक में लॉकर देने से पहले एक व्यक्ति को कुछ धन, स्थाई जमा (fixed-deposit) के रूप में बैंक के पास जमा कराने के लिए कहना।

अनुचित व्यापार व्यवहार” (Unfair trade practice) से आशय उस व्यापारिक व्यवहार से है जिसके माध्यम से किसी वस्तु का विक्रय, संवर्द्धन (promotion), उपयोग या फिर उसकी आपूर्ति को प्रोत्साहित करने हेतु या फिर सेवाओं में बढ़ोतरी करने के लिए निम्न में से किसी भी अनुचित व्यवहार का सहारा लिया जाता है तथा जिसके परिणामस्वरूप उस वस्तु या सेवा के उपभोक्ताओं को हानि होती है। ऐसा प्रतियोगिता में कमी लाकर या फिर प्रतियोगिता को समाप्त करके अथवा प्रतिबन्धित (Restricted) करके या फिर निम्नलिखित में से किसी भी रूप में हो सकता है

(1) झूठा प्रस्तुतीकरण तथा भ्रामक विज्ञापन (False Representation and Misleading Advertisement)-ऐसा कोई भी कथन या विवरण, जो मौखिक या लिखित या फिर दश्यवान (visible) है तथा जो निम्नलिखित से सम्बन्धित किसी तथ्य के बारे में झूठा एवं भ्रामक प्रस्तुतीकरण करता है

(i) माल या वस्तु के किसी विशेष स्तर, किस्म, मात्रा, श्रेणी, सम्मिश्रण, बनावट (style) या आदर्श नमूने (model) के सम्बन्ध में;

(ii) सेवा के किसी विशेष स्तर, किस्म या श्रेणी के सम्बन्ध में

(iii) किसी पुनर्निर्मित (re-built), पुराने, नवीनीकृत (renovated) या सुधारे गए माल को नया माल बताना;

(iv) माल या सेवाओं के बारे में यह प्रचारित करना कि वे माल या सेवाएँ प्रायोजित (sponsored), अनुमोदित (approved) या कार्य-निष्पादित हैं तथा उनमें अमुक विशेषताएँ हैं जो उस जैसी अन्य वस्तु में नहीं हैं, तथा उस वस्तु के साथ संलग्न-वस्तुओं के सम्बन्ध में (accessories) उस वस्तु के प्रयोग व उससे होने वाले उन लाभों का वर्णन, जो वास्तव में हैं ही नहीं;

(v) यह प्रदर्शित करना कि विक्रेता या पूर्तिकर्ता के पास प्रायोजन (sponsorship), अनुमोदन (approval) या सम्बद्धता (affiliation) है, जबकि वास्तव में ऐसा नहीं है।

(vi) किसी माल या सेवा की जरूरत अथवा उसके उपयोग के सन्दर्भ में झूठा एवं भ्रामक प्रचार करना;

(vii) किसी उत्पाद या माल के टिकाऊपन, प्रभावोत्पादकता (efficacy), या उसके जीवन के विस्तार (length of life) के बारे में कोई गारण्टी या वारण्टी देना, जो माल की उचित व पर्याप्त जाँच पर आधारित नहीं है। इस सन्दर्भ में यदि दी गई गारण्टी या वारण्टी के उचित जाँच पर आधारित होने के बारे में कोई बचाव प्रस्तुत किया जाता है तो इसे सिद्ध करने का भार उसी व्यक्ति पर होगा, जिसने ऐसा बचाव प्रस्तुत किया है।

(viii) जनता के समक्ष इस प्रकार का प्रदर्शन करता है जिससे यह प्रतीत होता है कि माल या। सेवा के सम्बन्ध में गारण्टी या वारण्टी दी गई है या फिर ऐसा वचन देता है कि माल जब तक निश्चित परिणाम नहीं प्रदान करता, (तब तक) उसे आवश्यकतानुसार बदल दिया जाएगा, ठीक कर दिया जाएगा, या फिर उसकी मरम्मत कर दी जाएगी, जबकि वास्तविकता यह है कि दिया गया वचन या प्रदर्शन भ्रामक है तथा ऐसी सम्भावना नहीं लगती कि दी गई गारण्टी या वारण्टी का पूर्ण रूप से पालन किया जाएगा।

(ix) माल या सेवाओं के सम्बन्ध में जनता को महत्त्वपूर्ण तरीके से भ्रमित करना।

(x) किसी अन्य व्यक्ति द्वारा बेचे जाने वाले माल या सेवाओं के सम्बन्ध में या उसके व्यापार के सम्बन्ध में ऐसी भ्रामक, झूठी व गलत बातें प्रचारित करना ताकि उसके व्यापार या माल या सेवा को बदनाम किया जा सके।

(II) सौदेबाजी मूल्य पर माल बेचने या उसकी आपूर्ति का प्रस्ताव (Offer to sale or supply at bargain price)-माल की आपूर्ति या विक्रय के सम्बन्ध में ऐसा कोई प्रकाशन या विज्ञापन, भले ही वह समाचार-पत्र में दिया गया हो या अन्य किसी माध्यम से, जिसमें सौदेबाजी द्वारा निर्धारित मूल्य पर माल बेचने का प्रस्ताव किया गया हो जबकि वास्तव में विक्रेता की इच्छा उस मूल्य पर विक्रय की न हो अथवा कुछ समय तक या कम मात्रा में माल के विक्रय की इच्छा हो जो व्यापार की प्रकृति एवं उसके आकार को ध्यान में रखते हुए उचित प्रतीत न होता हो।

व्याख्या (Explanation) वाक्यांश (2) के उद्देश्य हेतु ‘सौदेबाजी-मूल्य’ से अभिप्राय(अ) उस मूल्य से है जो विज्ञापन में वर्णित है:

() उस मूल्य से है जिसे एक व्यक्ति विज्ञापन में पढ़ता, सुनता या फिर देखता है या फिर उसी प्रकार का माल आम तौर पर जिस मूल्य पर बेचा जाता है।

(III) उपहार, पुरस्कार आदि का प्रस्ताव (To offer Gifts, Prizes Etc.)

() कोई वस्तु या सेवा क्रय करते समय उपहार, पुरस्कार या फिर अन्य कुछ देने का प्रस्ताव जबकि वास्तव में विक्रेता का ऐसा कोई इरादा न हो अथवा ऐसी धारणा बनाना कि माल के क्रय के साथ कुछ वस्तुएँ मुफ्त दी जाती हैं जबकि वास्तविकता यह हो कि मुफ्त में दी जाने वाली वस्तुओं का आंशिक या पूर्ण मूल्य बेचे जाने वाले माल के मूल्य में पहले से ही समायोजित कर लिया गया है।

(ब) प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से किसी वस्तु के विक्रय, उपयोग, आपूर्ति को प्रोत्साहित करने हेतु या फिर व्यावसायिक हितों की पूर्ति हेतु अपनाई गई लॉटरी, गेम-चान्स तथा अन्य प्रतियोगिताएं आयोजित करना।

(IV) निर्धारित स्तर को अपनाना (Non-Compliance of the prescribed standard)-ऐसे माल, या वस्तु के विक्रय या आपूर्ति, जिसके बारे में निर्माता यह भली-भाँति जानता है कि उस माल या वस्तु के उपयोग के दौरान उत्पन्न होने वाले जोखिमों को कम करने के लिए अथवा उन पर पूर्ण नियन्त्रण स्थापित करने की दृष्टि से उस वस्तु या माल के कार्य-निष्पादन, संरचना, विषय-वस्तु निर्माण, डिजाइन, फिनिशिंग अथवा पैकिंग के सम्बन्ध में निर्धारित किए गए स्तरों का पालन नहीं किया जा रहा है।

(v) जमाखोरी, माल को नष्ट करना या बेचने से इन्कारी (Hoarding, Destruction of Goods or Refuse to Sell)-मूल्य वृद्धि हेतु माल की जमाखोरी करना या फिर उसे नष्ट करना ताकि उस एवं उसी प्रकार के माल के मूल्य बढ़ जाएँ या फिर माल को बेचने से इन्कार करना।

Consumer Protection Act 1986

उपभोक्ता के सामान्य अधिकार

(General Rights of Consumer)

उपभोक्ता को विभिन्न अधिकार प्राप्त हैं। इस दृष्टि से अमेरिका के उपभोक्ताओं को अन्य देशों । की तुलना में सबसे अधिक व्यापक अधिकार प्राप्त हैं। थोडा-सा भी उनके अधिकारों का हनन होने पर वह तुरन्त न्यायालय की शरण ले सकते हैं। अतएव वहाँ के उपभोक्ता अपने अधिकारों के प्रति सबसे अधिक जागरूक हैं। अमेरिका के भूतपूर्व राष्ट्रपति जॉन एफ० कैनेडी व जॉनसन पहले व्यक्ति थे जिन्होंने उपभोक्ता के अधिकारों त्रबद्ध किया। उन्होंने उपभोक्ता के निम्नलिखित चार अधिकारों का उल्लेख किया

1 सुरक्षा का अधिकार,

2. चुनाव या पसन्द का अधिकार,

3. जानने का अधिकार तथा

4. सुनवाई का अधिकार।

बाद में इन अधिकारों में एक और अर्थात् पाँचवाँ अधिकार जोड़ा गया जो ‘मूल्य के अधिकार’ के नाम से जाना जाता है। इन्हीं पाँचों अधिकारों को बाद में अमेरिका के ‘उपभोक्ता अधिनियम’ में जोड़ा गया।

‘उपभोक्ता संघों के अन्तर्राष्ट्रीय संगठन’ (IOCU) ने इन अधिकारों की सूची में तीन अधिकार और जोड़े हैं। वे हैं

(i) उपचार का अधिकार,

(ii) उपभोक्ता शिक्षा का अधिकार

(iii) स्वस्थ वातावरण का अधिकार।

इस प्रकार अब अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर उपभोक्ता के आठ अधिकार माने जाते हैं। भारत के उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1996 की प्रारम्भिक टिप्पणी तथा इस अधिनियम की धारा 6 में उपभोक्ता के अधिकारों का उल्लेख किया गया है। इन अधिकारों में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्य आठ अधिकारों में से सात अधिकार सम्मिलित हैं। आठवाँ अधिकार ‘पर्यावरण का अधिकार’ हमारे देश के अधिनियम में शीघ्र ही सम्मिलित होने की सम्भावना है किन्तु हम यहाँ उपभोक्ता के सभी आठों अधिकारों का वर्णन कर रहे है

1 सुरक्षा का अधिकार (The right of Safety)-सुरक्षा के अधिकार से आशय ऐसे अधिकार से है जो उपभोक्ता को ऐसी सभी वस्तुओं के विपणन के लिए सुरक्षा प्रदान करने में सहायक है जो कि उसके स्वास्थ्य एवं जीवन के लिए खतरनाक अथवा हानिकारक सिद्ध हो सकती हैं। जैसे-वस्तुओं में मिलावट एवं खतरनाक रसायन आदि।

उपभोक्ता इस अधिकार के द्वारा खराब एवं दुष्प्रभावी खाद्य वस्तुओं (खराब ब्रेड, बटर, जैम आदि), नकली दवाओं, घटिया यंत्रों एवं उपकरणों (स्टोव, प्रेस, मिक्सर आदि) सभी वस्तुओं से होने वाली धन, स्वास्थ्य एवं शरीर की हानि से सुरक्षा प्राप्त कर सकता है।

2. चुनाव या पसन्द का अधिकार (The right to choice)-एक उपभोक्ता अपनी आवश्यकता एवं इच्छानुसार वस्तुओं और सेवाओं का चयन करने के लिए स्वतन्त्र होता है। उसे किसी वस्तु या सेवा को क्रय करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। यदि कोई भी व्यक्ति उसकी पसन्द को अनावश्यक एवं अनुचित ढंग से प्रभावित करता है तो यह उसके अधिकार में हस्तक्षेप (विघ्न) माना जाता है।

संक्षेप में, उपभोक्ता अपने इस अधिकार के अन्तर्गत विभिन्न निर्माताओं द्वारा निर्मित विविध ब्राण्ड, किस्म, गुण, रूप, रंग, आकार तथा मूल्य की वस्तुओं में से किसी भी वस्तु का चुनाव करने के लिए स्वतन्त्र है।

3. सूचना पाने का अधिकार (The right to be informed)-उपभोक्ता को वे सभी आवश्यक सूचनाएँ भी प्राप्त करने का अधिकार होता है जिनके आधार पर वह वस्तु या सेवा खरीदने का निर्णय कर सके। ये सूचनाएँ वस्तु की किस्म, मात्रा, प्रभावोत्वादकता (Potency) शुद्धता, प्रमाप, मूल्य आदि के सम्बन्ध में हो सकती हैं।

सूचना प्राप्त करने का उपभोक्ता का अधिकार उसे कपट, मिथ्याकथन एवं भ्रामक सूचनाओं, झूठे एवं मिथ्या विज्ञापनों एवं अन्य अनुचित व्यवहारों के प्रति सुरक्षा प्रदान करने से सम्बन्धित है।

4. सुनवाई या कहने का अधिकार (The right to be heard)-उपभोक्ता का यह अधिकार उस अपनी बात या शिकायत उचित मंचों पर कहने या प्रस्तुत करने का अधिकार देता है। दूसरे शब्दों में, उपभोक्ता को अपने हितों को प्रभावित करने वाली सभी बातों को उपयुक्त मंचों के समक्ष प्रस्तुत करने का अधिकार है। वे अपने इस अधिकार का उपयोग करके व्यवसायी एवं सरकार को अपने हितों के अनुरूप निर्णय लेने तथा नीतियाँ बनाने के लिए बाध्य कर सकते हैं। उपभोक्ता के इस अधिकार की रक्षा के लिए सरकार कानूनी रूप से सुनवाई की व्यवस्था करती है।

5. उपचार का अधिकार (The right to be redressed)-उपभोक्ता का यह अधिकार उसे अपनी परिवेदनाओं एवं शिकायतों का उचित एवं न्यायपूर्ण उपचार अथवा समाधान प्रदान करता है। इस अधिकार के अन्तर्गत वह न्यायालय की शरण ले सकता है। इस अधिकार से उपभोक्ताओं को व्यवसायी के अनुचित एवं अनैतिक व्यवहार अथवा अनुचित एवं अनैतिक शोषण से मुक्ति मिल सकती है।

संक्षेप में, यह अधिकार उसे यह आश्वासन प्रदान करता है कि क्रय की गई वस्तु या सेवा उचित. न्यायोचित एवं संतोषजनक ढंग से उपयोग में नहीं लाई जा सकेगी तो उसकी उसे उचित क्षतिपर्ति प्राप्त करने का अधिकार होगा। बाद में इन अधिकारों में एक और अर्थात् पाँचवाँ अधिकार जोड़ा गया जो ‘मूल्य के अधिकार’ के नाम से जाना जाता है। इन्हीं पाँचों अधिकारों को बाद में अमेरिका के ‘उपभोक्ता अधिनियम’ में जोड़ा गया।

6. उपभोक्ता शिक्षा का अधिकार (The right to consumer education)-इस अधिकार के अन्तर्गत उपभोक्ता को उन सब बातों की शिक्षा या जानकारी प्राप्त करने का अधिकार होता है जो एक उपभोक्ता के लिए आवश्यक होती हैं। वस्तुत: यह अधिकार उपभोक्ता को शोषण से मुक्ति दिलाने तथा हितों की रक्षा हेतु शिक्षा प्राप्त करने से सम्बन्धित है। उदाहरण के लिए, जीरा, धनिया, मिर्च आदि मसालों में मिलावट की जाँच कैसे करें? कम नाप-तौल की पकड़ कैसे करें? इत्यादि के सम्बन्ध में यह शिक्षा उपभोक्ताओं को सरकारी तथा गैर-सरकारी प्रचार माध्यमों द्वारा दी जा सकती है।

7. मूल्य या प्रतिफल का अधिकार (The right to value)-उपभोक्ता यह अपेक्षा करने का अधिकार भी रखता है कि उसे उसके द्वारा चुकाए गए धन का पूरा मूल्य मिल सकेगा। वस्तुत: उपभोक्ता का यह अधिकार उसे व्यवसायी द्वारा विक्रय के दौरान या विज्ञापन में किए गए वायदों तथा जगाई गई। आशाओं को पूरा करवाने का अधिकार प्रदान करता है।

8. स्वस्थ वातावरण का अधिकार (The right to a healthy environment)-इस अधिकार के अन्तर्गत उपभोक्ता व्यवसायी से ऐसे स्वस्थ भौतिक वातावरण की अपेक्षा करता है जिससे उसके जीवन किस्म में सुधार हो सके।

इस अधिकार के अन्तर्गत उपभोक्ता व्यवसायी से अपेक्षा करता है कि वह ऐसी निर्माण प्रक्रिया या तकनीक को अपनाएगा, ऐसी सामग्री एवं साधनों का उपयोग करेगा, ऐसे पैकेजिंग को अपनाएगा, जिससे देश के भौतिक वातावरण (जल, वायु, ध्वनि) को किसी भी प्रकार हानि नहीं होगी। इसके अतिरिक्त वह यह भी अपेक्षा करता है कि इन वस्तुओं एवं सेवाओं के उपयोग से उसे अधिक उच्च किस्म का जीवन जीने में मदद मिलेगी।

भारत के उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 की धारा 6 के अन्तर्गत उपभोक्ता के उपर्युक्त प्रथम सात अधिकारों का उल्लेख किया गया है. किन्तु अन्तिम तथा आठवें अधिकार स्वस्थ पर्यावरण के अधिकार को अभी तक अधिनियम में शामिल नहीं किया गया है। आशा है कि भविष्य में इसे भी सम्मिलित कर लिया जाएगा। वस्तुत: वर्तमान में उपभोक्ताओं के इस अधिकार की सुरक्षा के लिए राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न कदमों के उठाए जाने पर विशेष बल दिया जा रहा है।

Consumer Protection Act 1986

परीक्षा हेतु सम्भावित महत्त्वपूर्ण प्रश्न

(Expected Important Questions for Examination)

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

(Long Answer Questions)

1 उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 के प्रमुख प्रावधानों की व्याख्या कीजिए।

Explain the main provisions of Consumer’s Protection Act, 1986.

2. उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम क्या है? इसके उद्देश्य एवं महत्व को समझाइए।

What is Consumer Protection Act? Explain its objectives and Importance.

3. एक उपभोक्ता कौन है? उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के अन्तर्गत उसके क्या अधिकार हैं?

Who is a consumer? What are his rights under Consumer Protection Act?

4. उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के अन्तर्गत ‘उपभोक्ता’ शब्द का वर्णन कीजिए। उत्तर को कुछ निपटाए वादों से समर्थित कीजिए।

Explain the term Consumer under the Consumer Protection Act. Support your answer with few decided case.

5. उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 क्या है? उपभोक्ता के अधिकारों को समझाइए।

What is consumer Protection Act, 1986? Explain the rights of consumer.

6. निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए-

(Write short notes on the following):

(i) निर्माता (Manufacturer)

(ii) सेवा (Service)

(iii) उपभोक्ता (Consumer)

लघु उत्तरीय प्रश्न

(Short Answer Questions)

1 उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के उद्देश्य क्या हैं?

What are the objectives of the Consumer Protection Act?!

2. उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम की आवश्यकता क्यों है?

What is the need for the Consumer Protection Act today?

3. उपभोक्ता को परिभाषित कीजिए।

Define consumer.

4. कौन उपभोक्ता नहीं है?

Who is not a consumer?

5. उपभोक्ता के दो अधिकारों का वर्णन कीजिए।

Describe the two rights of consumer.

6. निर्माता को परिभाषित कीजिए।

Define manufacturer.

7. प्रतिबन्धात्मक व्यवहार’ क्या है?

What is ‘Restrictive Trade Practice’?

8. अनुचित व्यापार व्यवहार क्या है?

What is ‘Unfair Trade Practice’?

9. कमी से क्या आशय है?

What is meant by deficiency?

10. शिकायत कौन दायर कर सकता है?

Who can file a complaint?

11. ‘सेवा’ को परिभाषित कीजिए।

Define Service’.

12. शिकायत से क्या तात्पर्य है?

What is meant by a complaint?

13. व्यापारी किसे कहते हैं?

What is meant by Trader?

14. उपभोक्ता विवाद से क्या आशय है?

What is meant by consumer Dispute?

सही उत्तर चुनिए

(Select the Correct Answer)

1 उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम लागू हुआ हैं—

(Consumer Protection Act came into force with effect from):

(अ) 15 अप्रैल 1987 से (15th April 1987) (/)

(ब) 1 मार्च 1986 से (1st March 1986)

(स) 11 सितम्बर 2001 से (11th September, 2001)

(द) उपरोक्त में से कोई नहीं (None of the above)”

2. उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के अन्तर्गत शिकायत कौन प्रस्तुत कर सकता है-

(Who can file a complaint under consumer Protection Act) :

(अ) एक उपभोक्ता (A consumer)

(ब) रजिस्टर्ड स्वैच्छिक उपभोक्ता संघ (Registered voluntary consumer’s association)

(स) उपभोक्ता की मृत्यु की दशा में उसका वैधानिक प्रतिनिधि (Legal heir in case of death of a consumer)

(द) उपर्युक्त सभी (All of the above) (1)

3. उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम पारित हुआ था—

(Consumer Protection Act was passed in) :

(अ) 1986 (1)

(ब) 1976 (स) 1956

(द) 1996

Consumer Protection Act 1986

chetansati

Admin

https://gurujionlinestudy.com

Leave a Reply

Your email address will not be published.

Previous Story

BCom 1st Year Remedies Breach Contract Sale Auction Sale Study Material Notes in Hindi

Next Story

BCom 1st Year Regulatory Framework Consumer protection Councils Study Material Notes in Hindi

Latest from BCom 1st Year Business Regulatory Framework Notes