BCom 2nd year Corporate Laws Company An Introduction Study Material notes in Hindi

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BCom 2nd year Corporate Laws Company An Introduction Study Material notes in Hindi

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BCom 2nd year Corporate Laws Company An Introduction Study Material notes in Hindi: Meaning of Company Definition of Company Essentials or Characteristics of Company Company is Not a Citizen principle of Company Company Corporate Veil Lifting or Peering the Corporate Veil Exceptions of the Principle Company Corporate Veil Deference between Partnership and Company Illegal Association Important Examination Questions Long Answer Questions Short Answer Questions :

Company An Introduction
Company An Introduction

BCom 2nd Year Corporate Company Legislation India An Introduction Study material Notes in hindi

कम्पनीएक परिचय

(Company : An Introduction)

प्राय: हम कुछ मित्रों या रिश्तेदारों को आपस में कहते हए सुनते हैं कि अकेले तो जा नहीं पायो ५ तुम साथ में तैयार हो तो अमक स्थान पर (मंसरी, नैनीताल, कुल्लू-मनाली आदि) घमने चले चलग, अच्छी कम्पनी रहेगी। इस प्रकार सामान्य व्यक्ति की दृष्टि में कम्पनी का आशय ‘साथ’ या सहयोग से है। वस्तुतः अंग्रेजी भाषा के ‘कम्पनी’ शब्द की उत्पत्ति लेटिन शब्द ‘कॅम’ (Com) तथा ओर ‘पन्स का पन्स (Pains) के योग से हई है। लेटिन भाषा में ‘कॅम’ शब्द का अर्थ साथ-साथ से है आशय रोटी’ से है। इस प्रकार प्रारम्भ में ‘कम्पनी’ ऐसे व्यक्तियों के संघ को कहा जाता था जो अपना खाना साथ-साथ खाते थे। इस खाने पर व्यवसाय की बातें भी होती थीं। बाद में ‘कम्पनी’ शब्द का प्रयोग ऐसे व्यक्तियों के समूह या संगठन के लिए किया जाने लगा जो किसी सामान्य उद्देश्य की पूर्ति के लिए एकत्र होते थे। धीरे-धीरे ‘कम्पनी’ शब्द का प्रयोग व्यापारिक तथा गैर-व्यापारिक दोनों प्रकार के संगठनों के लिए किया जाने लगा।

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कम्पनी का अर्थ

(Meaning of A Company)

कम्पनी से आशय व्यापारिक संगठन के ऐसे प्रारूप से है जिसकी स्थापना कुछ व्यक्तियों द्वारा लाभ कमाने के उद्देश्य से विधान (कानून) के प्रावधानों के अन्तर्गत की जाती है।

सरल शब्दों में, ‘कम्पनी’ से आशय व्यक्तियों के एक ऐसे समूह से है जिनका एक सामान्य उद्देश्य होता है एवं जिसकी पूँजी हस्तान्तरणशील सीमित दायित्व वाले अंशों में विभाजित होती है। कम्पनी का कारोबार एक सार्वमुद्रा (Common Seal) के अधीन संचालित होता है और पंजीकरण के बाद इसका अपना पृथक् स्थायी अस्तित्व हो जाता है। कोई भी व्यक्ति कम्पनी के ऊपर तथा कम्पनी किसी भी व्यक्ति पर अभियोग (मुकदमा) चला सकती है।

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कम्पनी की परिभाषाएँ

(Definitions of Company)

‘कम्पनी’ की विभिन्न परिभाषाओं को सुविधा के दृष्टिकोण से निम्नलिखित दो भागों में विभाजित किया जा सकता है—(1) प्रमख विद्वानों एवं न्यायाधीशों द्वारा दी गई परिभाषाएँ, तथा (II) कम्पनी अधिनियम, 2013 में प्रदत्त परिभाषा।

(1) प्रमुख विद्वानों एवं न्यायाधीशों द्वारा दी गई परिभाषाएँ

(1) न्यायाधीश जेम्स के अनुसार, “कम्पनी का आशय व्यक्तियों के ऐसे संघ से है जो एक सामान्य उद्देश्य के लिए संगठित हुए हो।” (यह परिभाषा ‘कम्पनी’ शब्द की सही व्याख्या नहीं करती है।)

(2) लार्ड लिण्डले के अनुसार, “कम्पनी व्यक्तियों का समूह है, जो कि द्रव्य या द्रव्य के बराबर का अंशदान एक संयुक्त कोष में जमा करते हैं और इसका प्रयोग एक निश्चित उद्देश्य के लिए करते। हैं।” (यह परिभाषा अपूर्ण है।) (3) अमेरिकन प्रमुख न्यायाधीश मार्शल के अनुसार, “संयुक्त पूँजी कम्पनी एक कृत्रिम, अदृश्य तथा अमूर्त संस्था है, जिसका अस्तित्व वैधानिक होता है और जो विधान द्वारा निर्मित होती है।” (यह परिभाषा कम्पनी की मुख्य विशेषताओं को स्पष्ट करती है, अतः इसे सही परिभाषा कहा जा सकता है।)

(4) प्रोफेसर हैने (Haney) के अनसार. “कम्पनी विधान द्वारा निर्मित एक कृत्रिम व्यक्ति है, जिसका उसके सदस्यों से प्रथक एवं स्थायी अस्तित्व होता है और जिसके पास सार्वमुद्रा (Seal) होती है।” । (यह परिभाषा ठीक प्रतीत होती है।)

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(II) कम्पनी अधिनियम, 2013 में प्रदत्त परिभाषा

कम्पनी अधिनियम, 2013 की धारा 2(20) के अनसार. “कम्पनी से अशय इस अधिनियम के अधीन अथवा इसके पूर्व के किसी कम्पनी अधिनियम के अधीन समामेलित कम्पनी से है।”

यह परिभाषा पूर्ण एवं उपयुक्त परिभाषा नहीं है क्योंकि यह कम्पनी के प्रमुख लक्षणों व इसकी विशेषताओं को स्पष्ट नहीं करती। इस परिभाषा में वर्णित विद्यमान कम्पनी से आशय पिछले कम्पनी अधिनियमों में से किसी भी अधिनियम के अन्तर्गत निर्मित एवं पंजीकृत कम्पनी से है।

निष्कर्षउपयुक्त परिभाषा-उपर्यक्त परिभाषाओं का अध्ययन करने के बाद हम यह कह सकते हैं कि, “कम्पनी एक वैधानिक एवं अवश्य कृत्रिम व्यक्ति है जिसका समामेलन कम्पनी अधिनियम के अन्तर्गत किसी विशेष उद्देश्य से होता है, जिसका दायित्व सामान्यत: सीमित और अस्तित्व उसके सदस्यों से अलग होता है तथा इसकी एक सार्वमुद्रा होती है।

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कम्पनी की विशेषताएँ या लक्षण

(Essentials or Characteristics of A Company)

कम्पनी की उपर्युक्त परिभाषाओं के अध्ययन एवं विश्लेषण से कम्पनी की निम्नलिखित विशेषताएँ स्पष्ट होती हैं

(1) पूंजीकृत स्वाच्छक संघ (Registered voluntary association)- कम्पनी की प्रथम विशेषता यह है कि यह व्यक्तियों का पंजीकृत या समामेलित (Incorporated) स्वैच्छिक संघ है। जिसका निर्माण तभी सम्भव होता है जब कुछ व्यक्ति स्वेच्छा से कम्पनी बनाने के लिये सहमत होते हैं तथा उसका कम्पनी अधिनियम के अधीन पंजीयन कराते हैं।

एक निजी कम्पनी के निर्माण के लिये कम से कम दो तथा सार्वजनिक कम्पनी के लिये कम से कम सात व्यक्तियों का होना आवश्यक होता है। जो व्यक्ति कम्पनी बनाने के लिये सहमत होते हैं उन्हें सीमानियम के ‘संघ वाक्य’ पर हस्ताक्षर करने होते हैं तथा इन्हें ही कम्पनी के प्रथम सदस्य कहा जाता है।

एक निजी कम्पनी में अधिकतम 200 सदस्य हो सकते एक सार्वजनिक कम्पनी में सदस्यों की संख्या पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है।

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(2) विधान द्वारा निर्मित कृत्रिम व्यक्ति (An Artificial Person Created by Law)-कम्पनी राजनियम (कानुन) द्वारा निर्मित एक कृत्रिम वैधानिक व्यक्ति है। प्राकृतिक व्यक्ति की भाँति एक कम्पनी सभी कार्य कर सकती है, इसलिए इसे व्यक्ति कहा गया है। इसे वैधानिक व्यक्ति इसलिए कहा जाता है क्योंकि इसकी स्थापना कानूनी प्रक्रियाओं द्वारा होती है। कृत्रिम व्यक्ति इसलिए कहा गया है क्योंकि एक प्राकतिक व्यक्ति की भाँति इसकी भौतिक उपस्थिति सम्भव नहीं है। अत: कम्पनी विधान के प्रावधानों के अनरूप निर्मित एक कृत्रिम व्यक्ति है। न्यायमूर्ति मार्शल (Marshall) ने लिखा है कि, “कम्पनी अदश्य. अमर्त तथा कृत्रिम व्यक्ति है जिसका अस्तित्व केवल कानून की दृष्टि में ही होता है।” लॉर्ड चान्सलर सेलबोर्न (Selborne, L.C.) के अनुसार, “यह कानून की कल्पना मात्र है” (It is a mere abstraction of law)..

इतना सब कुछ होने के उपरान्त भी यह जाली व्यक्ति नहीं अपितु एक वास्तविक व्यक्ति (Real person) है। इसके अनेक कारण हैं। कम्पनी प्राकृतिक मनुष्यों की तरह ही अपने नाम से सम्पत्ति खरीद सकती है, अपने नाम से प्राकृतिक व्यक्तियों के माध्यम से अनुबन्ध कर सकती है, तथा अपने ही नाम से अन्य पक्षकारों पर न्यायालय में वाद प्रस्तुत कर सकती है, तथा अन्य पक्षकार भी कम्पनी के नाम से वाद प्रस्तुत कर सकते हैं। दूसरे शब्दों में, कम्पनी के भी उतने ही व्यावसायिक दायित्व तथा अधिकार हो सकते हैं जितने कि एक प्राकृतिक व्यक्ति के। इस प्रकार सभी वैधानिक उद्देश्यों की पूर्ति की दष्टि से कम्पनी भी ठीक उसी प्रकार का एक व्यक्ति है जिस प्रकार एक प्राकृतिक व्यक्ति होता है।

3 वधानिक अस्तित्व (Separate Legal Entity) कम्पनी का अपने अंशधारियों सपृथक् वैधानिक अस्तित्व होता है। परिणामस्वरूप कम्पनी अपने किसी भी सदस्य के साथ काइ भा अनुबन्ध कर सकती है एवं सदस्य कम्पनी के साथ अनुबन्ध कर सकते हैं। कम्पनी अपने सदस्या पर मुकद्दमा चला सकती है और सदस्य भी उस पर मुकद्दमा चला सकते हैं। इसके अतिरिक्त कम्पना द्वारा किये गये कार्यों के लिए अंशधारी या सदस्य उत्तरदाया नहा हात हा इग्लण्ड क हाउस आफलाड्स ने सालोमन बनाम सालोमन एण्ड कं. लि. के मामले में इसी सिद्धान्त को अपनाया तथा सदस्यों को कम्पनी से पृथक माना था। कलकत्ता तथा मुम्बई उच्च न्यायालयों का भी यही मत रहा है।

(4) स्थायी अस्तित्व (Perpetual Existence) कम्पनी अधिनियम, 2013 की धारा 9 के अनुसार कम्पनी का अस्तित्व स्थायी होता है अर्थात कम्पनी का जीवन इसके सदस्यों के जीवन पर निर्भर । नहीं करता। कम्पनी के किसी सदस्य की मत्य. दिवालिया या पागल हो जाने या किसी सदस्य द्वारा कम्पनी से अलग होने का कम्पनी के अस्तित्व पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता अर्थात् कम्पनी निरन्तर चलती रहती है। वस्तुतः कम्पनी के सदस्यों में किसी भी प्रकार का कोई भी परिवर्तन हो, कम्पनी का जीवन समाप्त नहीं होता और वह स्थायी रूप से कार्य करती रहती है।इसीलिये यह कहा जाता है कि “Members may go, and members may come, but a company goes on forever.” दूसरे शब्दों में, यदि कम्पनी के सभी पुराने सदस्यों के स्थान पर नये सदस्य आ जाएँ तो भी कम्पनी के अस्तित्व पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।

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ब्लेकस्टोन (Blackstone) ने कम्पनी के स्थायी अस्तित्व की तुलना नदी के अस्तित्व से करते हुए लिखा है कि “यद्यपि नदी के निर्माण करने वाले तत्व प्रतिक्षण बदलते रहते हैं किन्तु नदी के पाट या किनारे वहीं स्थिर रहते हैं। ठीक उसी प्रकार कम्पनी के सदस्य भी परिवर्तित हो सकते हैं किन्तु कम्पनी के अस्तित्व पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।”

कम्पनी के अस्तित्व को सरकार भी समाप्त नहीं कर सकती है। यदि सरकार किसी कम्पनी के सम्पूर्ण कारोबार को अधिगृहित कर ले तो भी कम्पनी का अस्तित्व तब तक बचा रहेगा जब तक कि कम्पनी का विधिवत समापन नहीं कर दिया जायेगा | [Mookerjee B. vs. State Bank of India, AIR (1992) Cal. 250]

(5) सार्वमुद्रा (Common Seal)—सार्वमुद्रा का आशय कम्पनी के नाम की मुहर से होता है। कृत्रिम व्यक्तित्व होने के कारण कम्पनी स्वयं कोई कार्य नहीं कर सकती क्योंकि इसका कोई भी भौतिक अस्तित्व नहीं होता। कम्पनी का कार्य कम्पनी के संचालक, सचिव व प्रबन्ध संचालकों आदि के द्वारा किया जाता है और ये व्यक्ति कार्य करते समय कम्पनी की मुहर लगा देते हैं तभी उनके द्वारा किये गये कार्य कम्पनी द्वारा किये गये कार्य माने जायेंगे और कम्पनी उनसे बाध्य होगी। इस प्रकार कम्पनी की मुहर कम्पनी के हस्ताक्षर हैं। जिन पत्रों, प्रपत्रों व प्रसंविदों पर कम्पनी की मुहर नहीं लगी हुई होती हैं वे कम्पनी के नहीं माने जाते। कम्पनी संशोधन अधिनियम, 2015 की अधिसूचना संख्या 1/6/2015-CL (V) के अनुसार दिनांक 29.5.2015 से सार्वमुद्रा की अनिवार्यता समाप्त कर दी गई है।

(6) सीमित दायित्व (Limited Liability)—सीमित दायित्व का अर्थ है-“आपको उतना ही भुगतान करना है जितना भुगतान करने की आपने सहमति दी है।” (You have to pay as much as you have agreed to pay)। इसके विपरीत असीमित दायित्व का अर्थ है-“आपको उतना भुगतान करना है जितना आप कर सकते हैं।” (You have to pay as much as you have)। सीमित दायित्व के सिद्धान्त को भारत में सर्वप्रथम सन् 1857 में लागू किया गया था। कम्पनी के सदस्यों का दायित्व उनके द्वारा क्रय किये गये अंशों की राशि तक सीमित होता है। कम्पनी अंशों द्वारा सीमित या गारण्टी द्वारा सीमित हो सकती है। अंशों द्वारा सीमित कम्पनी की दशा में कम्पनी के सदस्यों का दायित्व उनके द्वारा। लिए गये अंशों की अदत्त राशि तक ही सीमित होता है। अत: यदि किसी अंशधारी ने अपने अंशों को। पूर्ण राशि का भुगतान कर दिया है तो उसका कम्पनी के प्रति कोई दायित्व नहीं रहता। गारण्टी द्वारा सीमित कम्पनी की दशा में सदस्यों का दायित्व उस राशि तक सीमित होता है जो वे (अंशधारी), कम्पनी के समापन की दशा में, कम्पनी की सम्पत्तियों में अंशदान करने को सहमत होते हैं। इस प्रकार स्पष्ट है। कि सदस्यों का दायित्व सीमित होता है, असीमित नहीं। सारांश रूप में यह कहा जा सकता है कि कम्पना। में हानि होने की दशा में कम्पनी के ऋणदाता, अंशधारियों की निजी सम्पत्ति से कोई रकम वसूल नहीं कर सकते। यदि कम्पनी का व्यवसाय कम्पनी के ऋणदाताओं या अन्य पक्षकारों के साथ धोखाधड़ी करन। के उद्देश्य से संचालित किया गया हो तो ऐसे सदस्यों/संचालकों का दायित्व असीमित होगा। [धारा 339] (Representative Management)-प्रायः कम्पनी के अंशधारिया।

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(7) प्रतिनिधि प्रबन्ध व्यवस्था (Representative Management)-प्रायः क का सख्या बहुत अधिक होती है व दर-दर भी रहते हैं जिसके कारण प्रत्येक अंशधारी का कम्पना क प्रबन्ध एव सचालन में भाग लेना असम्भव होता है। अत: कम्पनी का प्रबन्ध अंशधारियों द्वारा चुने हुए। प्रतिनिधियों द्वारा किया जाता है जिन्हें संचालक (Director) कहते हैं। संचालकों के अधिकार एव दायत्व कम्पनी के पार्षद अन्तर्नियम के द्वारा निश्चित किये जाते हैं।

(8) अंशो का हस्तान्तरणशीलता (Transferability of Shares) कम्पना आधानयम, 2013 की धारा 56 के अनुसार सामान्यत: कम्पनी के अंशधारी अपने अंशों का हस्तान्तरण स्वेच्छा से किसी भी व्यक्ति, फर्म या संस्था के पक्ष में कर सकते हैं जब तक कि कम्पनी के पार्षद अन्तर्नियम में इसके विपरीत कोई अन्य बात न हो। एक निजी कम्पनी की दशा में जब तक अन्तर्नियमों की शर्तों का पालन नहीं किया जाएगा, तब तक अंशों को हस्तान्तरित नहीं किया जा सकता।

(9) कार्यक्षेत्र की सीमाएँ (Limitations of Action) एक कम्पनी अपने पार्षद सीमानियम तथा पार्षद अन्तर्नियमों के बाहर कार्य नहीं कर सकती है। इसका कार्य-क्षेत्र कम्पनीज अधिनियम तथा इसके सीमानियम व अन्तर्नियम द्वारा सीमित होता है।

(10) अंशधारी एजेन्ट नहीं (Shareholders are not Agents) कम्पनी की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह भी है कि इसके अंशधारी कम्पनी के एजेन्ट के रूप में कार्य नहीं कर सकते अर्थात् अंशधारी अपने कार्यों से कम्पनी को बाध्य नहीं कर सकते।

(11) सदस्यों की संख्या (Number of Members) एक सार्वजनिक कम्पनी में सदस्यों की न्यूनतम संख्या सात होती है तथा अधिकतम संख्या पर कोई प्रतिबन्ध नहीं होता अर्थात् यह निर्गमित अंशों की संख्या के बराबर तक हो सकती है। इसके विपरीत, एक व्यक्तिगत या निजी कम्पनी में सदस्यों की न्यूनतम संख्या दो या अधिकतम संख्या पचास तक हो सकती है।

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(12) कम्पनी का समापन (Winding-up of a Company) जिस प्रकार एक कम्पनी का निर्माण अधिनियम के द्वारा होता है, उसी प्रकार इसकी समाप्ति भी कम्पनी अधिनियम में वर्णित समापन की विधियों के द्वारा ही हो सकती है।

(13) लाभ के लिए ऐच्छिक संघ (Voluntary Association for Profit)- सामान्यत: प्रत्येक कम्पनी की स्थापना लाभ कमाने के उद्देश्य से की जाती है, परन्तु यह एक ऐच्छिक संघ है अर्थात किसी को जबरदस्ती इसका अंशधारी नहीं बनाया जा सकता। कम्पनी को जो भी प्राप्त होता है, वह निश्चित नियमों के अनुसार अंशधारियों में बाँट दिया जाता है।

(14) अभियोग चलाने का अधिकार (Right to Sue)—कम्पनी एक वैधानिक व्यक्ति है अर्थात कम्पनी की सारी कार्यवाही उसके नाम में ही होती है। किसी अनुचित दायित्व से बचने के लिए तथा अपने अधिकार या सम्पत्ति की रक्षा करने के लिए कम्पनी को अपने नाम से दूसरों पर वाद प्रस्तत करने का अधिकार है।

(15) पृथक सम्पत्ति (Separate property)-कम्पनी की सम्पत्ति इसके अंशधारियों की सम्पत्ति नहीं, अपित् कम्पनी की अपनी सम्पत्ति होती है। कृत्रिम व्यक्ति होने के उपरान्त भी कम्पनी एक वास्तविक व्यक्ति (Real person) है। अत: कम्पनी अपने नाम में सम्पत्ति का क्रय-विक्रय कर सकती है. उसे अपने नाम में रख सकती है, उसे बन्धक रख सकती है तथा उसका उपयोग कर सकती।

जहाँ तक अंशधारियों का प्रश्न है वे कम्पनी की सम्पत्ति के स्वामी या सह-स्वामी नहीं होते। वे कम्पनी के जीवनकाल में ही नहीं अपितु उसके समापन के समय भी कम्पनी की सम्पत्तियों के स्वामी होने का दावा नहीं कर सकते हैं। [Perumal (R.T.) vs. John Deavin, AIR (1960) Mad. 43] वे कम्पनी की सम्पत्तियों का निजी हित के लिये उपयोग भी नहीं कर सकते हैं। इतना ही नहीं. अंशधारियों का कम्पनी की सम्पत्तियों में बीमायोग्य हित भी नहीं होता है। फलतः वे कम्पनी की सम्पत्तियों का बीमा भी नहीं करवा सकते हैं। [Macaura vs. Northern Insurance Co. Ltd., (1925) AC619]

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कम्पनी एक नागरिक नहीं है

(Company is Not a Citizen)

यद्यपि कम्पनी एक कानूनी व्यक्ति है जिसके पास राष्ट्रीयता एवं निवास स्थान (Domicile) है। परन्तु यह एक नागरिक नहीं है।

न्यायाधीश हिदायतउल्ला ने कहा है-सदस्य जो निगमित कम्पनी का निर्माण करते हैं. वे अपने 10 पद या व्यक्तित्व को एकत्रित नहीं करते। यदि वे सभी भारत के नागरिक हैं तो कम्पनी भारत की नागरिक नहीं बन जायेगी-उससे अधिक यदि वे सभी शादी शुदा हैं तो कम्पनी शादी शुदा नहीं बन जायगी। परन्तु दुश्मन चरित्र (Enemy Character) का निर्धारण करते समय न्यायालय कम्पनी के सदस्यों या निदेशकों की नागरिकता पर विचार कर सकता है जैसा कि डायमलर कम्पनी लिमिटेड बनाम कॉन्टीनेन्टल टायर एवं रबड कम्पनी लिमिटेड के विवाद में निर्णय दिया गया था।

चूँकि कम्पनी एक नागरिक नहीं है, अत: इसे आधारभूत अधिकार (Fundamental Rights) भी प्राप्त नहीं है जो स्पष्ट रूप से केवल नागरिकों को उपलब्ध हैं। परन्तु यह उन अधिकारों की मांग कर सकती है जो नागरिकों-गैर-नागरिकों. सभी को उपलब्ध हैं। उदाहरण के लिए, व्यापार करने की स्वतन्त्रता को कम नहीं किया जा सकता।

यद्यपि कम्पनी एक नागरिक नहीं है, परन्तु इसके पास राष्ट्रीयता एवं निवास स्थान है। कम्पनी के समामेलन का देश इसका निवास स्थान (Domicile) है। एक कम्पनी उस स्थान पर रहती है जहाँ से इसके व्यवसाय का केन्द्रीय नियन्त्रण एवं प्रबन्ध संचालित किया जाता है। डस्वीडिश रेल कम्पनी लिमिटेड बनाम थॉमसन।

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क्या परीक्षा केन्द्र पर एकत्रित हआ विद्यार्थियों का समूह एक कम्पनी है ?

परीक्षा केन्द्र पर एकत्रित हुए विद्यार्थियों के समूह को कम्पनी नहीं कहा जा सकता क्योंकि लाभ के लिए विधान द्वारा एकत्रित व्यक्तियों के समूह को ही कम्पनी कहा जा सकता है जिसमें उपर्युक्त वर्णित कम्पनी की विशेषताएँ विद्यमान हों। परीक्षा केन्द्र पर एकत्रित विद्यार्थियों के समूह में कम्पनी हेतु वर्णित वांछित विशेषताएँ पूरी नहीं हो रही हैं, इसलिए उक्त विद्यार्थियों के समूह को कम्पनी नहीं कहा जा सकता।

कम्पनी/निगम आवरण सिद्धान्त

(Principle of Company/Corporate Veil)

कम्पनी, विधान द्वारा निर्मित व्यक्तियों का एक संघ है लेकिन समामेलन के पश्चात् कम्पनी और उसके सदस्यों के बीच एक आवरण अथवा पर्दा खड़ा हो जाता है जो कम्पनी को उसके सदस्यों से अलग करता है एवं उसके पृथक् अस्तित्व को वैधानिक रूप प्रदान करता है। कम्पनी का अपना नाम होता है और उसके नाम की पृथक् सार्वमुद्रा होती है जो उसके अस्तित्व का प्रतीक होती है। कम्पनी अपने सदस्यों के विरुद्ध वाद प्रस्तुत कर सकती है और सदस्य कम्पनी के विरुद्ध वाद प्रस्तुत कर सकते हैं। कम्पनी के पृथक् अस्तित्व का लक्षण सालोमन बनाम सालोमन एण्ड कम्पनी (1897) के विवाद से पूर्णतः स्पष्ट हो जाता है। सालोमन जूतों का व्यापारी था। उसने अपना कारोबार सालोमन एण्ड कम्पनी को 30,000 पौण्ड में बेच दिया। इस कम्पनी का निर्माण भी स्वयं सालोमन द्वारा ही किया गया था। प्रस्तुत कम्पनी की अधिकृत पूँजी 40,000 पौण्ड थी। इस कम्पनी में 7 सदस्य निम्न प्रकार थे-स्वयं सालोमन, उसकी पत्नी, 4 लड़के एवं । लड़की। इस प्रकार ये सभी स्वयं सालोमन परिवार के ही सदस्य थे। सालोमन ने इस कम्पनी के 20,000 पौण्ड के अंश स्वयं खरीदे तथा एक-एक अंश परिवार के प्रत्येक सदस्य को दे दिया। इसके अतिरिक्त सालोमन ने 10,000 पौण्ड के ऋण-पत्र भी लिये, जिन पर कम्पनी की सम्पत्ति गिरवी रखी गई थी। बाद में कम्पनी में हड़ताल प्रारम्भ होने के कारण हानि होने लगी, जिसके परिणामस्वरूप कम्पनी का समापन करना पड़ा। समापन पर कम्पनी की सम्पत्ति के विक्रय से 6,000 पौण्ड मिले। कम्पनी के 7,000 पौण्ड के अन्य ऋणदाता भी थे, जिनके ऋण पूर्णत: असुरक्षित थे। समापन के समय कुल देनदारियाँ 17,000 पौण्ड (10,000 पौण्ड के ऋण-पत्र स्वयं सालोमन के पास थे, जिसके पीछे कम्पनी की सम्पत्ति जमानत के रूप में रखी हुई थी तथा 7.000 पौण्ड के असरक्षित बाहर के ऋणदाता थे) की थी। समापन के समय असुरक्षित ऋणदाताओं ने यह माँग की कि सालोमन एण्ड कम्पनी वास्तव में स्वयं सालोमन है और इस प्रकार वह स्वयं अपने आपका लेनदार नहीं हो सकता। इसके विपरीत सालोमन का कहना था कि कम्पनी उससे पृथक् है, अत: उसके ऋण-पत्रों का भुगतान अन्य असुरक्षित लेनदारों से पूर्व होना चाहिए। इस विवाद में न्यायालय द्वारा यह निर्णय दिया गया कि सालोमन तथा सालोमन एण्ड कम्पनी दोनों अलग-अलग हैं। इसलिए सालोमन, अन्य असुरक्षित लेनदारों की अपेक्षा अपने ऋण-पत्रों की रकम पहले प्राप्त करेगा।

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भारतीय न्यायालयों ने भी कम्पनी के पृथक् अस्तित्व के सिद्धान्त को कई मामलों में स्वीकार किया है।

केस लॉरी कॉन्डोली टी कम्पनी लिमिटेड [Re Kondali Tea Co. Ltd.. (1886), ILR 13 Cal .43 के मामले में  कलकत्ता उच्च न्यायालय में इस सिद्धान्त को स्वीकार किया था। इस मामले में तथ्यों के अनुसार कुछ व्यक्तियों का एक चाय बागान था। उन्होंने इसे एक कम्पनी को बेच दिया। उन्होंने न्यायालय से बेचान-पत्र (Sale-deed) पर लगने वाले टिकटों से छट की माँग इस आधार पर की कि वे स्वयं ही कम्पनी के अंशधारी हैं और यह हस्तान्तरण भी वास्तव में उन्हीं के नाम में ही है। न्यायालय ने इस तर्क को अस्वीकार करते हुए लिखा कि कम्पनी का अपने सदस्यों से पृथक् अस्तित्व होता है। अत : सदस्यों द्वारा कम्पनी को सम्पत्ति का हस्तान्तरण ठीक उसी प्रकार का है जिस प्रकार एक व्यक्ति दूसर। व्यक्ति को करता है।

(ii) एक अन्य मामले में मुम्बई उच्च न्यायालय में न्यायाधीश कानिया (Kania J.) ने निर्णय में। लिखा कि, “एक समामेलित कम्पनी अपना पृथक अस्तित्व रखती है चाहे सब अंश एक व्यक्ति के आधिकार में ही क्यों न हों। इस बात की जॉच-पड़ताल भी उपयुक्त नहीं होगी कि कम्पनी के सभी अंशधारी या संचालक एक ही परिवार के सदस्य हैं।” IT.R. Pratt Ltd. vs. E.D. Sassoon & Co. Ltd. AIR (1936) Bombay 62]

इन विवादों के अतिरिक्त अन्य कई विवादों में भी यह निर्णय दिया जा चुका है कि कम्पनी के सदस्यों का अस्तित्व कम्पनी से पृथक होता है। दूसरे शब्दों में, कम्पनी के व्यक्तित्व तथा उसके सदस्यों के व्यक्तित्व के बीच एक पर्दा होता है जो कि दोनों को एक-दूसरे से अलग करता है। न्यायालय सामान्यतः उस पर्दे को हटाकर अथवा बेधकर वास्तविक सत्य को जानने की कोशिश नहीं करता। इसे ही कम्पनी-निगम आवरण सिद्धान्त (Principle of Company/Corporate Veil) कहा जाता है।

 

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समामेलन के आवरण या पर्दे को उठाना अथवा बेनकाब करना

(Lifting or Piercing The Corporate Veil)

या

कम्पनी/निगम आवरण सिद्धान्त के अपवाद

(Exceptions of The Principle of Company/Corporate Veil)

कभी-कभी कम्पनी के सदस्य तथा संचालक कम्पनी के नाम से पर्दे में रहकर कपटपूर्ण कार्य करते हैं। ऋणदाताओं के साथ अन्याय करते हैं, राष्ट्रीय हितों की अवहेलना करते हैं अथवा लोक नीति एवं न्याय के विरुद्ध कोई ऐसा कार्य करते हैं जिसे कपटमय, अनुचित, दमनकारी एवं अवैधानिक कहा जा सकता है। ऐसी स्थिति में न्यायालय कम्पनी के कार्यकलापों की जाँच-पड़ताल कर सकता है एवं दोषी व्यक्तियों को उत्तरदायी ठहराने के लिए कम्पनी और उसके अंशधारियों को पृथक् नहीं माना जाता बल्कि दोनों को एक ही माना जाता है। इस परिस्थिति को ही समामेलन का आवरण या पर्दा उङ्गाना अथवा बेनकाब करना कहते हैं। यही परिस्थितियाँ कम्पनी/निगम आवरण सिद्धान्त के अपवाद कही जाती हैं।

मुख्यत: निम्नलिखित परिस्थितियों में कम्पनी या निगम के आवरण का बेधन हो सकता है

(1) कपट एवं अनुचित व्यवहार की दशा में-यदि कोई कम्पनी किसी कपटपूर्ण अथवा अनुचित व्यवहार के लिए स्थापित की जाती है तो न्यायालय कम्पनी के पृथक् अस्तित्व की उपेक्षा कर सकता है अर्थात् कम्पनी एवं उसके सदस्य एक ही माने जायेंगे।

केस लॉ-इस सम्बन्ध में गिलफोर्ड मोटर कम्पनी बनाम हॉर्न [Gilford Motors Co. vs. Horna (1933) I Ch. 935] का मामला उल्लेखनीय है। इसमें हॉर्न को एक कम्पनी का प्रबन्ध संचालक इस शर्त पर नियुक्त किया गया कि वह अपने प्रबन्ध संचालक काल में और उसके बाद भी कम्पनी के ग्राहकों को नहीं तोड़ेंगे। कुछ समय बाद एक अनुबन्ध के आधार पर उन्हें प्रबन्ध संचालक पद से हटा दिया गया। इसके बाद उन्होंने एक नई कम्पनी का निर्माण किया जो वादी (नियोक्ता) के ग्राहकों को तोड़ने लगी। न्यायालय ने निर्णय दिया कि कम्पनी केवल एक दिखावा मात्र है जिसे प्रतिवादी ने अपने लाभ के लिये पर्व नियोक्ता के साथ हुए अनुबन्ध की शर्तों से बचने के लिये बनाई है। अत: न्यायालय ने। इसे छल-कपट के लिये बनाई कम्पनी माना और कम्पनी तथा प्रतिवादी पर ग्राहक तोड़ने पर रोक लगा दी।

(2) कर की चोरी के लिए कम्पनी की स्थापना करना-यदि किसी कम्पनी की स्थापना करों (Taxes) से बचने के लिए की गई है तो न्यायालय समामेलन के आवरण को हटाकर कम्पनी के कर-दायित्वों को सदस्यों का दायित्व घोषित कर देगा अर्थात् कम्पनी का अलग अस्तित्व नहीं माना जाता।

केस लॉइस सम्बन्ध में सर दिनशॉ मानेकजी पेटीट (Dinshah Maneckjee Petit) का ला उल्लखनाय है। इस मामले के अनसार करदाता एक धनी व्यक्ति था तथा उसका लाभाश तथा ब्याज की बहुत बड़ी आय थी। उसने चार निजी कम्पनियों का निर्माण करके अधिकांश अंश खरीद कर अपने विनियोगों (Shares and Debentures) को इन कम्पनियों को हस्तान्तरित कर दिया। इस प्रकार इन विनियोगों की आय कम्पनियों को प्राप्त होने लगी। कम्पनियों ने अपने अंशधारी को बनावटी रूप में ऋण दना प्रारम्भ कर दिया और स्वयं थोडा-थोडा आयकर देने लगी। इस प्रकार भारी मात्रा में आयकर की बचत होने लगी। किन्तु आयकर अधिकारी द्वारा वाद प्रस्तुत करने पर न्यायालय ने इसे कर बचाने के लिये बनाई गयी कम्पनी माना तथा कम्पनी के समामेलन के पर्दे को उठाकर उसके सदस्यों को कर-चोरी के लिये उत्तरदायी ठहराया।

(3) कम्पनी का सदस्यों के लिए प्रन्यासी या एजेन्ट की तरह कार्य करनायदि कोई कम्पनी अपने अंशधारियों के लिये अभिकर्ता (Agent) या प्रन्यासी (Trustee) के रूप में कार्य कर रही है तो जिस प्रकार एजेन्ट के कार्य के लिये उसका नियोक्ता उत्तरदायी होता है, उसी प्रकार अंशधारी भी कम्पनी के कार्य के लिये उत्तरदायी होंगे।

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(4) न्यूनतम सदस्य संख्या से कम सदस्य रह जाने की दशा में-कम्पनी अधिनियम के अनुसार सार्वजनिक कम्पनी की दशा में कम से कम सात तथा निजी कम्पनी की दशा में कम से कम दो सदस्यों का होना अनिवार्य होता है। कम्पनी में सदस्यों की संख्या इससे कम हो जाने तथा सदस्यों को इस बात की जानकारी हो जाने के पश्चात् भी कम्पनी का व्यापार चलते हए 6 माह से अधिक की अवधि हो जाने पर उक्त अवधि से सम्बन्धित कम्पनी के सभी दायित्वों का भुगतान करने के लिए वे सभी सदस्य व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी माने जायेंगे जिन्हें न्यूनतम सदस्य संख्या से कम सदस्य रह जाने की जानकारी थी।

(5) विनिमयसाध्य विलेखों पर व्यक्तिगत हस्ताक्षरों की दशा में-यदि किसी विनिमयसाध्य विलेख (चैक, प्रतिज्ञा-पत्र, विनिमय पत्र) आदि पर कम्पनी के किसी व्यक्ति ने केवल अपने हस्ताक्षर किये हों किन्तु कम्पनी की सार्वमुद्रा नहीं लगायी हो तो ऐसी दशा में हस्ताक्षरकर्ता व्यक्तिगत रूप में उत्तरदायी ठहराया जा सकता है। न्यायालय को कम्पनी के पृथक् अस्तित्व के सिद्धान्त को स्वीकार करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है।

(6) अधिकारों के बाहर कार्य करने की दशा मेंयदि कम्पनी के संचालक अपनी अधिकार सीमा से बाहर कार्य करते हैं तो उन कार्यों के लिए वे व्यक्तिगत रूप से एवं सामूहिक रूप में उत्तरदायी ठहराये जा सकते हैं।

(7) प्रविवरण में मिथ्याकथन की दशा में-यदि कम्पनी के प्रविवरण में मिथ्या-कथन है और किसी व्यक्ति ने अंशों का क्रय इस मिथ्या कथन पर विश्वास करके किया है तो हानि होने पर ऐसा व्यक्ति कम्पनी के संचालकों, प्रवर्तकों अथवा अन्य दोषी व्यक्तियों को व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी ठहरा सकता है जो कि ऐसे प्रविवरण के निर्गमन के लिए उत्तरदायी है।

(8) आवेदन राशि वापस लौटाने में चूक करना (Failure to Returm Application Money) यदि प्रविवरण जारी करने के 30 दिन के अन्दर या SEBI द्वारा बढ़ाई गई अवधि में न्यूनतम अभिदान के लिए प्रार्थना-पत्र प्राप्त न हो और प्रार्थना राशि प्राप्त न हो तो कम्पनी को प्राप्त राशि निर्धारित समय में निर्धारित तरीके से वापस कर देनी चाहिए। इसमें चूक होने पर कम्पनी तथा प्रत्येक अधिकारी जो दोषी हैं प्रत्येक भूल के लिए ₹ 1,000 प्रतिदिन की दर से जुर्माने का भागी होगा जब तक भूल जारी रहती है या एक लाख रुपये जो भी कम है। ऐसी दशा में न्यायालय या अधिकरण कम्पनी का आवरण हटाकर दोषी अधिकारियों की पहचान कर सकता है। ये अधिकारी पृथक् अस्तित्व की आड़ में। अपने व्यक्तिगत दायित्व से नहीं बच सकते।

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(9) आवेदन राशि को अलग बैंक खाते में रखने में भूल करने पर या उसके गलत प्रयोग करने पर धारा 40 कम्पनी द्वारा प्राप्त आवेदन राशि अंशों के आवण्टन न होने तक अलग बैंक खाते में रखना व निर्दिष्ट कार्यों के लिए प्रयोग करना अनिवार्य है। इसमें भूल होने पर प्रत्येक दोषी अधिकारी को एक वर्ष तक का कारावास या जुर्माना जो पचास हजार रुपये से कम नहीं होगा और जो तीन लाख रुपये तक हो सकता है या दोनों दिए जा सकते हैं।

ऐसी दशा में भी न्यायालय पृथक् अस्तित्व को अस्वीकार करके दोषी अधिकारियों को दण्डित कर सकता है।

(10) सूत्रधारी कम्पनी एवं सहायक कम्पनी के रूप में सम्बन्धित होने की दशा में-कानूनी रूप से सूत्रधारी एवं सहायक कम्पनियाँ पृथक-पृथक अस्तित्व रखती हैं। परन्तु न्यायालय या अधिकरण कम्पना क आवरण का हटा सकता है, सूत्रधारी कम्पनी एवं सहायक कम्पनी के बीच यह जानने क लिए। कि वास्तव में कोन-कौन से व्यक्ति कम्पनियों का नियन्त्रण कर रहे हैं। अत: कुछ मामलों में कानून, सूत्रधारी कम्पनी एवं सहायक कम्पनी को स्वतन्त्र या पथक संस्था न माने। उदाहरण के लिए, कम्पना अधिनियम, 2013 की धारा 129 के अनुसार जहाँ एक कम्पनी की एक या अधिक सहायक कम्पनिया हैं. इसे अपने वित्तीय विवरणों के अतिरिक्त, अपना एवं सभी सहायक कम्पनियों का समेकित विवरण (Consolidated Statement) बनाना होगा तथा वार्षिक सामान्य बैठक में प्रस्तुत करना होगा। इसके अतिरिक्त सूत्रधारी कम्पनी को, सहायक कम्पनी में अपने हित के विवरण को निदेशक रिपोर्ट के साथ संलग्न करना होगा ताकि उनका पृथक् व्यक्तित्व स्पष्ट रूप से प्रतिबिम्बित हो सके।

(11) कम्पनी का नाम ठीक से या पुरा नाम प्रकट किये जाने पर-यदि किसी अनुबन्ध में । कम्पनी का नाम पूरी तरह प्रकट नहीं किया गया है तो अनबन्ध कम्पनी के नाम में होने पर भी वही व्यक्ति व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी माने जाते हैं जिन व्यक्तियों ने वह अनुबन्ध किया है।

(12) वैधानिक दायित्व से बचने के लिये बनाई गई कम्पनी की दशा में- यदि किसी व्यक्ति ने कम्पनी का निर्माण वैधानिक दायित्वों से बचने के लिये किया है तो न्यायालय कम्पनी का पर्दा उठा सकता है तथा उसके सदस्यों को इसके लिये उत्तरदायी ठहरा सकता है।

केस लॉ : एक व्यक्ति ने किसी अन्य व्यक्ति को एक जमीन का टुकड़ा बेचा। बाद में उसने अपना मन बदल लिया। न्यायालय के विनिर्दिष्ट निष्पादन के आदेश से बचने के लिये उसने एक कम्पनी बनाई तथा वह जमीन उस कम्पनी को बेच दी। इस कम्पनी में वह एवं उसके वकील का क्लर्क ही अंशधारी एवं संचालक थे। दूसरे व्यक्ति ने अनुबन्ध के विनिर्दिष्ट निष्पादन हेतु न्यायालय से आवेदन किया। न्यायालय ने कम्पनी के नाम जमीन के विक्रय को अनदेखी करके क्रेता के नाम जमीन अन्तरित करने का आदेश दे दिया। न्यायालय ने कहा कि यह कम्पनी अनुबन्ध पूरा न करने का एक बहाना था। विक्रेता अपने वैधानिक दायित्व से बचना चाहता था। [Jones vs. Lipman (1962) I WLR 832] |

(13) कम्पनी के शत्रु चरित्र का निर्धारण करने के लिए (To Determine Enemy Character of the Company)—जब कम्पनी का प्रबन्ध उन व्यक्तियों के हाथ में हो जो शत्रु देश (Enemy Countrv) में रह रहें तो न्यायालय या कम्पनी अधिकरण कम्पनी के आवरण को हटा सकता है क्योंकि कम्पनी का शत्रु चरित्र है। ऐसे मामलों में शत्रुओं को समामेलन के आवरण की आड़ में व्यवसाय करने देना सार्वजनिक नीति (Public Policy) के विरुद्ध होगा।

(14) कल्याणकारी अधिनियमों से बचना (Avoidance of Welfare Legislations) न्यायालय या कम्पनी अधिकरण कम्पनी का आवरण हटा सकता है यदि इसे लगे कि कम्पनी. आवरण का दुरुपयोग कल्याणकारी अधिनियम से बचने के लिए कर रही है।

(15) न्यायालय की मानहानि का निर्धारण करने के लिए (To Determine Contempt of Court) जहाँ कम्पनी के आवरण का दुरुपयोग न्यायालय या कम्पनी अधिकरण की मानहानि से बचने के लिए किया जा रहा है, वहाँ न्यायालय या कम्पनी अधिकरण कम्पनी के आवरण को हटा सकता है और दोषी व्यक्तियों के विरुद्ध कानूनी कार्यवाही कर सकता है।

(16) कम्पनी के साथ कपट या कुप्रबन्ध की जाँच की दशा में धारा 210 2121-केन्द्र सरकार, रजिस्ट्रार या धारा 208 के अन्तर्गत निरीक्षक की रिपोर्ट पर या कम्पनी द्वारा विशेष प्रस्ताव पारित करने पर या सार्वजनिक हित में कम्पनी के मामलों की जाँच का आदेश दे सकती है।

वास्तविक रूप से दोषी व्यक्तियों की पहचान करने के लिए कम्पनी के आवरण को हटाया जा सकता है और उन्हें सजा दी जा सकती है।

कम्पनी एवं साझेदारी में अन्तर

(Difference Between Partnership And Company)

अन्तर का आधार  

कम्पनी

 

साझेदारी
1. पृथक् अस्तित्व कम्पनी का अस्तित्व अपने सदस्यों से पृथक होता है।

 

साझेदारी का अस्तित्व अपने सदस्यों से पृथक् नहीं माना जाता है।

 

2. अधिनियम

 

भारतीय कम्पनियों का कार्य कम्पनीज अधिनियम, 2013 के अनुसार चलाया जाता है। साझेदारी फर्म, भारतीय साझेदारी अधिनियम, 1932 के अनुसार चलायी जाता है।

 

3. सदस्यों की संख्या

 

सदस्यों की न्यनतम संख्या प्राइवेट कम्पनी में दो तथा पब्लिक कम्पनी में सात निर्धारित  हैं । सदस्यों की अधिकतम संख्या प्राइवेट कम्पनी में00 (कर्मचारी सदस्यों को छोड़कर) है तथा पब्लिक कम्पनी के लिए अधिकतम संख्या पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है। साझेदारी में सदस्यों की न्यूनतम संख्या दो है और अधिकतम संख्या 100 है

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अवैधानिक संघ

(Illegal Association)

अवैध संघ से आशय ऐसे संघ से है जिसका निर्माण कम्पनी अधिनियम, 2013 की धारा 464 का उल्लंघन करके किया जाता है। कम्पनी अधिनियम 2013 की धारा 464 के अनुसार, कोई भी संस्था या साझेदारी व्यापार करने या लाभ अर्जित करने के उद्देश्य से ऐसी संख्या से अधिक सदस्यों के साथ पंजीकृत नहीं की जायेगी जो निर्दिष्ट की जाए, जब तक कि यह इस अधिनियम के अन्तर्गत कम्पनी के रूप में या अन्य कानून के अन्तर्गत पंजीकृत न हो, परन्तु निर्दिष्ट किए जाने वाले सदस्यों की संख्या 100 से अधिक नहीं होगी। यदि इनमें, इनसे अधिक व्यक्ति होंगे तो इनकी कम्पनी अधिनियम अथवा अन्य भारतीय अधिनियम के अन्तर्गत रजिस्ट्री कराना अनिवार्य है। परन्तु इस धारा के प्रावधान निम्नलिखित पर लागू नहीं होंगे

(i) व्यापार करने वाले एक हिन्दू अविभाजित परिवार (Hindu Undivided Family) पर; या (ii) एक संस्था या साझेदारी फर्म पर यदि यह पेशेवर व्यक्तियों द्वारा बनाई गई है जो किसी विशेष अधिनियम द्वारा शासित होते हैं।

इस प्रकार 100 से अधिक साझेदारों की संस्था को कम्पनी विधान के अन्तर्गत पंजीकृत या समामेलित कराना अनिवार्य है अन्यथा यह एक अवैधानिक संस्था कहलायेगी।

अवैधानिक संस्था के परिणाम (Consequences of an illegal association)- एक अवैधानिक संस्था के निम्नलिखित परिणाम होंगे

(1) अवैधानिक संस्था का प्रत्येक सदस्य जो इस अधिनियम के प्रावधानों का उल्लंघन करके व्यापार कर रहा है सजा पाने का दायी होगा। उस पर ₹ एक लाख तक का जुर्माना भी किया जा सकता

(2) व्यक्तिगत दायित्व (Personal Liability) अवैधानिक संस्था का प्रत्येक सदस्य ऐसे व्यापार के सभी दायित्वों के लिए व्यक्तिगत रुप से दायी होगा।

(3) किसी संस्था या व्यक्ति पर वाद प्रस्तुत नहीं किया जा सकता (Can not Sue)_ऐसी संस्था, किसी व्यक्ति या सदस्य पर वाद प्रस्तुत नहीं कर सकती। यही नहीं एक सदस्य न तो संस्था के विरुद्ध और न ही अन्य सदस्य के विरुद्ध वाद प्रस्तुत कर सकता है। परन्तु एक सदस्य अवैध संस्था से अपनी सदस्यता के मूल अंशदान (Original Subscription) की वापसी की माँग कर सकता है। अंशदान की वापसी के लिए वह संस्था की सम्पत्तियों की बिक्री की मांग भी कर सकता है।

भी ध्यान रखने योग्य है कि सदस्य को अंशदान की वापसी या अवैध संस्था की सम्पत्ति के विभाजन के लिए दावे को स्वीकार करना अवेध अनुबन्ध का प्रवर्तन (Enforcement नहीं है कि इसके विपरीत यह अवैध संस्था का अन्त कर देगा।

(4) कोई कानूनी अस्तित्व नहीं (No Legal Existence)-एक अवैध संस्था का कोई काननी  अस्तित्व नहीं होता  कानून इसे मान्यता नहीं देता। अत: ऐसी संस्था कोई अनुबन्ध नहीं कर सकती

(5) ‘सीमितया निजी सीमितशब्द का दुरुपयोग करने पर दण्ड (Penalty for Impron use of Words : Limited’ and ‘Private Limited’) [धारा 453] यदि कोई व्यक्ति ‘निजी सीमित’ शब्दों का कम्पनी के नाम के बाद अनुचित रुप से उपयोग करता है तो वह जान लिए दायी होगा, जो प्रतिदिन के उल्लंघन के लिए ₹500 से कम नहीं होगा एवं जो ₹2000 तक सकता है जितने समय तक यह शब्द प्रयोग किया गया।

(6) षड्यन्त्र की दोषी नहीं (Cannot be Accused of Conspiracy)-एक अवैध संस्था अवैध होने के बावजूद आवश्यक रुप से गैर-कानूनी नहीं है, अत: इस पर षड्यन्त्र रचने का अभियोग नहीं । चलाया जा सकता।

(7) आयकर अन्य कर चुकाने का दायित्व (Liability for Income Tax and Other Taxes)—एक अवैध संस्था को अन्य वैध संस्थाओं की तरह आयकर एवं अन्य करों का भुगतान करना होता है।

(8) सदस्यों की संख्या में कमी होने पर भी अवैधता में परिवर्तन नहीं (No Change in Illegality Due to Subsequent Reduction in the Number of Members)-अवैध संस्था हमेशा अवैध रहेगी चाहे बाद में इसके सदस्यों की संख्या निर्धारित संख्या से कम क्यों न हो जाए। परन्तु यदि एक अवैध संस्था, कम्पनी अथवा किसी अन्य अधिनियम के अन्तर्गत अपना पंजीकरण कराले तो यह वैध संस्था बन जाएगी। परन्तु इसके बावजूद भी इसके वैध संस्था बनने से पहले के कार्य अवैध ही रहेंगे, वैध नहीं हो जायेंगे।

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कम्पनी (निगम) की पहचान संख्या

(Corporate Identification Number (CIN))

भारत सरकार के आधार कार्ड की भाँति, नवम्बर 2000 से निगमित (Incorporate) होने वाली कम्पनियों को कम्पनियों के रजिस्ट्रार से कम्पनी पहचान संख्या (Corporate Identification Number) प्राप्त करना अनिवार्य कर दिया है। कम्पनी के लिए इसकी पहचान संख्या (CIN) को व्यावसायिक पत्रों, बिल, फामों, पत्रों की शीट, इसके सभी सूचना पत्रों (Notices) एवं अन्य कार्यालयी प्रकाशनों पर अंकित करना आवश्यक है। CIN में अंकों व अक्षर दोनों का उपयोग किया जा सकता है-अत: इसे अल्फा न्यूमेरिक कैरेक्टर (Alpha Numeric Character) कहा जाता है। कम्पनी पहचान संख्या का उद्देश्य कम्पनियों के प्रबन्धन में सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 का उपयोग करना है। इसके द्वारा कम्पनी की गतिविधियों की निगरानी सरलता से की जा सकती है। उदाहरण के लिए, कम्पनी सूचीबद्ध है या नहीं, कम्पनी का समामेलन कब हुआ, किस राज्य में हुआ, कम्पनी सार्वजनिक है या निजी आदि।

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परीक्षा हेतु सम्भावित महत्त्वपूर्ण प्रश्न

(Expected Important Questions for Examination)

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न (Long Answer Questions)

1 “व्यक्तियों का एक समूह जो किसी सामान्य उद्देश्य के लिये एकत्रित हुआ हो, कम्पनी है।” क्या परीक्षा केन्द्र पर एकत्रित हुआ विद्यार्थियों का समूह एक कम्पनी है ? ”

An association of persons, united for a common object is a company.” Discuss. Is the gathering of students at examination centre, a company?

2. “कम्पनी विधान द्वारा निर्मित एक कृत्रिम व्यक्ति है जिसका पृथक् वैधानिक अस्तित्व होता है। इसे अविच्छिन्न उत्तराधिकार प्राप्त होता है तथा इसकी एक सार्वमुद्रा होती है।” इस कथन की व्याख्या कीजिये तथा कम्पनी की प्रमुख विशेषताएँ बताइये।

“A company is an artificial person created by law having a separate entity with a perpetual succession and a common seal.” Discuss this statement and explain the characteristics of a company.

3. कम्पनी की प्रमुख विशेषताओं का संक्षेप में वर्णन कीजिये। किन परिस्थितियों में कम्पनी के पृथक्वैधानिक अस्तित्व सिद्धान्त को नकारा जा सकता है ?

Mention in byief the characteristic features of a company. Under what circumstances the concept of legal entity of a corporation (company) can be discarded ?

4. कम्पनी को परिभाषित कीजिये। कम्पनी की विशेषताओं का वर्णन कीजिये।

Define a company. Discuss the characteristics of a company.

5. “कम्पनी एक कानूनी व्यक्ति है जो अपने सदस्यों से व्यक्तिगत एवं सामूहिक रूप से पृथक है।” इस कथन की विवेचना कीजिये। क्या ऐसी परिस्थितियाँ हैं जिनमें कानून कम्पनी के वैधानिक अस्तित्व की उपेक्षा करता है ? ”

A company is a legal person distinct from its members taken individually and collectively.” Discuss this statement. Are there any circumstances in which the law  would discard the legal personality of a company ?

6. समामेलन का पर्दा उठाने का सिद्धान्त वैधानिक दृष्टि से एक मान्य सिद्धान्त है। विवेचना कीजिये।

The doctrine of lifting the corporate veil is an accepted legal principle. Elucidate.

7. किन परिस्थितियों में कम्पनी आवरण हटाया जा सकता है ? किन्हीं 10 परिस्थितियों को समझाइये और सम्बन्धित कानूनी मामलों को भी दीजिये।

Enumerate any 10 conditions under which corporate veil can be lifted ? Also give relevant case laws.

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लघु उत्तरीय प्रश्न (Short Answer Questions)

1 कम्पनी के पृथक् वैधानिक अस्तित्व से क्या आशय है ?

What do you mean by Separate Legal Entity of Company ?

2. ‘सालोमन बनाम सालोमन एण्ड कम्पनी लि.’ के केस का वर्णन कीजिये।

Describe the case ‘Saloman Vs. Saloman and Company Ltd.’

3. समामेलन का पर्दा क्या है ? इसे कैसे भेदा जा सकता है ?

What is Corporate Veil ? How it can be lifted ?

4. ‘कम्पनी समामेलन का पर्दा उठाना’ समझाइये।

Explain “Piercing the Corporate Veil”.

5. “एक कम्पनी का अस्तित्व शाश्वत् होता है।” समझाइये।

“A company has perpetual succession.” Explain.

6. कम्पनी एवं साझेदारी में अन्तर बताइये।

Distinguish between partnership and company.

7. क्या एक साझेदारी फर्म किसी कम्पनी में सदस्य हो सकती है ? यदि हाँ तो, कैसे, यदि नहीं, तो क्यों?

Can a partnership firm become the member of a company ? If yes, how and if not, why not?

8. “एक कम्पनी का अपने सदस्यों से पृथक् वैधानिक अस्तित्व है।” न्यायालय किन परिस्थितियों में इस सिद्धान्त की उपेक्षा करते हैं ?

“A company has a legal entity distinct from its members.” In what cases do the court ignore this principle ?

9. एक कम्पनी के पृथक् वैधानिक अस्तित्व से आप क्या समझते हैं ? किन परिस्थितियों में ये सिद्धान्त लागू नहीं होता?

What do you understand by separate legal existence ? Under what circumstances this principle does not apply?

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