BCom 2nd year Corporate Laws Company Promoters Study material Notes In Hindi

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BCom 2nd  year Corporate Laws Company Promoters Study  material Notes In Hindi

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BCom 2nd Year Corporate Company Legislation India An Introduction Study material Notes in hindi

कम्पनी प्रवर्तक

(Company Promoters)

प्रवर्तक का अर्थ एवं परिभाषा

(Meaning And Definition of Promoter)

प्रवर्तक से अभिप्राय ऐसे व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह से है जो कम्पनी प्रवर्तन सम्बन्धी कार्य करते हैं। प्रवर्तक ही वह व्यक्ति है जिसके मस्तिष्क में सर्वप्रथम कम्पनी के निर्माण का विचार आता है और जिसे वह क्रियान्वित करते हेतु आवश्यक कदम उठाता है। वह व्यापार सम्बन्धी अनुसन्धान करता है, एक निश्चित योजना के अनुसार कम्पनी का निर्माण करता है, आवश्यक साधन एकत्रित करता ह और प्रारम्भिक व्ययों का भुगतान करता है। वास्तव में, प्रवर्तक अपने ऊपर भारी जोखिम लेता है क्योकि याद कम्पनी असफल होती है तो समस्त हानि का भार उसे ही वहन करना होता है। संक्षेप में, कम्पनी को अस्तित्व में लाने का श्रेय जिस व्यक्ति को जाता है, उसे ‘प्रवर्तक’ कहते हैं।

‘प्रवर्तक’ शब्द की मुख्य परिभाषाएँ निम्न प्रकार हैंकम्पनी अधिनियम 2013 की धारा 2(69) के अनुसार प्रवर्तक एक ऐसा व्यक्ति है

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() जिसे प्रविवरण में उस रूप में नामित (named) किया गया है, अथवा जिसकी पहचान धारा 92 में निर्दिष्ट (refer) वार्षिक-रिटर्न में एक प्रवर्तक के रूप में कम्पनी द्वारा कराई गई है, अथवा ।

() जिसका कम्पनी के काम-काज (क्रिया-कलाप) पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से नियन्त्रण  हो, चाहे वह नियंत्रण अंशधारी, निदेशक के रूप में या अन्यथा हो अथवा

() जिसकी सलाह, निर्देशों या अनुदेशों के अनुसार कम्पनी का निदेशक मण्डल कार्य करने का अभ्यस्त है।

परन्तु उपधारा (स) की कोई बात ऐसे व्यक्ति पर लागू नहीं होगी जो केवल किसी पेशेवर हैसियत/क्षमता से कार्य कर रहा है।

न्यायाधीश कॉकबर्न के अनुसार, “प्रवर्तक निश्चित उद्देश्यों के आधार पर कम्पनी का निर्माण करता है और अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए आवश्यक कार्यवाही करता है।”

लार्ड लिण्डले के अनुसार, “प्रवर्तक शब्द का कोई निश्चित अर्थ नहीं है। कम्पनी के सम्बन्ध में प्रवर्तक का आशय उस प्रभावपूर्ण क्रिया से है जो कम्पनी को तैयार करने, प्रारम्भ करने एवं प्रचलन में लाने के लिये आवश्यक है।”

सर फ्रांसिस पामर के अनुसार, “प्रवर्तक एक ऐसा व्यक्ति है जो एक कम्पनी के निर्माण की योजना बनाता है, पार्षद सीमानियम और अन्तर्नियमों को तैयार करवाता है, उनकी रजिस्ट्री करवाता है और प्रथम संचालकों को चुनता है, प्रारम्भिक प्रसंविदों की शर्तों को तय करता है और यदि आवश्यकता हो, तो प्रविवरण बनवाता है और उसे प्रकाशित करने और पूँजी एकत्र करने का प्रबन्ध करता है।”

यह आवश्यक नहीं है कि प्रवर्तक एक व्यक्ति ही हो। एक फर्म, कम्पनी अथवा संस्था भी प्रवर्तक के रूप में कार्य कर सकती है। वर्तमान समय में प्रायः कम्पनियाँ ही प्रवर्तन का कार्य करती हैं।

निष्कर्षउपर्यक्त परिभाषाओं का अध्ययन करने के पश्चात् निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि, “प्रवर्तक वह व्यक्ति है जो कम्पनी की स्थापना के विचार से लेकर कम्पनी को प्रारम्भ करने का अवस्था तक किये जाने वाले सभी कार्यों को सम्पन्न करता है।

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प्रवर्तकों के प्रकार

(Types of Promoters)

(1) पेशेवर प्रवर्तक (Professional Promoters)—ऐसे प्रवर्तकों का प्रमुख व्यवसाय नई कम्पनियों का प्रवर्तन करना होता है। ये प्रवर्तन सम्बन्धी कार्यों में दक्ष होते हैं।

(2) सामयिक प्रवर्तक (Occasional Promoters)—इनका मुख्य व्यवसाय कम्पनियों का प्रवर्तन न होकर कोई और होता है। ये कभी-कभी ही कम्पनी के प्रवर्तन का कार्य करते हैं।

(3) वित्तीय प्रवर्तक (Financial Promoters)—ये वे प्रवर्तक हैं जो वित्तीय लाभ प्राप्त करने के लिए प्रवर्तन कार्य में वित्तीय सहायता देते हैं।

(4) विशिष्ट संस्थाएँ (Specialised Institutions) ये ऐसी विशिष्ट संस्थाएँ हैं जो कम्पनियों के प्रवर्तक का कार्य करने हेतु स्थापित की जाती हैं। भारत में ‘राष्ट्रीय औद्योगिक विकास निगम’ (National Industrial Development Corporation) इसका श्रेष्ठ उदाहरण है।

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प्रवर्तकों के कार्य

(Functions of Promoters)

प्रवर्तकों द्वारा सामान्यत: किये जाने वाले मुख्य कार्य निम्न प्रकार हैं

(1) कम्पनी निर्माण की कल्पना करना-प्रवर्तक के मस्तिष्क में ही सर्वप्रथम कम्पनी के निर्माण का विचार आता है और अपनी इस कल्पना को साकार रूप देने हेतु वही आवश्यक प्रयास करता है।

(2) विस्तृत अनुसन्धान करनाप्रवर्तक जब कम्पनी के निर्माण का प्रारम्भिक अध्ययन कर लेता है तो वह किसी निश्चित व्यवसाय की योजना बनाता है। प्रवर्तक इसी योजना का विस्तृत अनुसन्धान करता है। वह इस व्यवसाय के बारे में कई तथ्य एवं आँकड़े एकत्रित करता है तथा उस व्यावसायिक योजना का मूल्यांकन करता है। इस हेतु वह भावी लाभ की सम्भावना को ज्ञात करता है। इसी समय वह सरकारी नीति का भी गहन अध्ययन करता है। वह कम्पनी के उत्पादन में उपयोग आने वाले कच्चे माल, श्रम शक्ति के साधनों आदि का अनुमान लगाता है। वह कम्पनी के उत्पादन, माँग तथा पूर्ति, व्यवसाय में प्रतिस्पर्धा, प्रतिस्पर्धी संस्थाओं की संख्या आदि के सन्दर्भ में विस्तृत अनुसन्धान करता है। इस सम्बन्ध में वह विशेषज्ञों की सेवाओं का भी उपयोग करता है। ऐसा करके ही प्रवर्तक कम्पनी की सुदृढ़ आधार पर स्थापना कर सकता है।

(3) विक्रेताओं के साथ अनुबन्ध करना-यदि कम्पनी का निर्माण किसी विद्यमान व्यवसाय को क्रय करके किया जाना है तो उस व्यवसाय के क्रय के सम्बन्ध में बातचीत करना एवं विक्रेताओं के साथ आवश्यक अनुबन्ध करने का कार्य भी प्रवर्तकों द्वारा ही किया जाता है। यदि कम्पनी किसी नये व्यापार या उद्योग को प्रारम्भ करने के लिये स्थापित की जा रही है तो उसके लिये भूमि, मशीन इत्यादि बातों के लिये प्रवर्तक प्रारम्भिक अनुबन्ध करता है।

(4) नाम, उद्देश्य एवं पूँजी निश्चित करना-प्रवर्तक का कार्य यह निश्चित करना भी है कि कम्पनी किस नाम से व्यापार करेगी, उसका रजिस्टर्ड कार्यालय कहाँ स्थित होगा, कम्पनी का उद्देश्य क्या होगा तथा पूँजी की सीमा एवं स्वरूप क्या होगा।

(5) आवश्यक प्रलेख तैयार करवाना-पार्षद सीमानियम एवं पार्षद अन्तर्नियम आदि महत्वपूर्ण प्रलेखों को तैयार करवाना भी प्रवर्तकों का महत्वपूर्ण कार्य होता है।

(6) प्रथम संचालकों एवं पार्षद सीमानियम पर हस्ताक्षर करने वालों की खोज करना-प्रवर्तक का कार्य ऐसे व्यक्तियों को ढूँढना है जो कम्पनी में प्रथम संचालक होंगे एवं पार्षद सीमानियम पर हस्ताक्षर करेंगे।

(7) आवश्यक लाइसेंस अनुमति लेना-कम्पनी की स्थापना हेतु आवश्यक होने पर लाइसेंस व अनुमति लेना भी प्रवर्तकों का ही कार्य है।

(8) समामेलन प्रमाणपत्र एवं व्यापार प्रारम्भ करने का प्रमाण-पत्र प्राप्त करना-समामेलन । प्रमाण-पत्र की प्राप्ति पर ही कम्पनी वैधानिक रूप से अस्तित्व में आती है। प्रवर्तक समामेलन प्रमाण-पत्र । प्राप्ति हेत आवश्यक प्रपत्र रजिस्ट्रार के पास जमा कराता है। रजिस्ट्रार द्वारा सभी प्रपत्रों व प्रलेखों को। जाँच की जाती है और सही पाये जाने पर समामेलन का प्रमाण-पत्र निर्गमित कर दिया जाता है।

कम्पनी अधिनियम, 2013 की धारा 11 के अनुसार अंश पूँजी वाली एक सार्वजनिक कम्पनी और एक निजी कम्पनी अपना व्यवसाय तब तक आरम्भ नहीं कर सकती एवं ऋण लन क योग भी नहीं कर सकती जब तक कि

(i) निदेशकों द्वारा निर्धारित प्रारूप एवं ढंग से एक घोषणा रजिस्टार के पास फाइलन जो कि पार्षद सीमा नियम के प्रत्येक अभिदाता ने अपने द्वारा लिये जाने वाले अंशों के मूल्य का भुगता दिया है और घोषणा करने की तिथि को सार्वजनिक कम्पनी की चकता पूँजी 5 लाख रस वं निजी कम्पनी की दशा में एक लाख ₹ से कम नहीं है, तथा (ii) कम्पनी ने कार्यालय के पते का धारा 12 उपधारा (2) के अनुसार सत्यापन नहीं करा लिया है।

कम्पनी संशोधन अधिनियम, 2015 की अधिसूचना संख्या 1/6/2015-CL (V) क 705.2015 से व्यापार प्रारम्भ करने का प्रमाणपत्रप्राप्त करने का प्रावधान समाप्त कर दिया गया अर्थात 29.5.2015 से एक कम्पनी समामेलन का प्रमाणपत्र प्राप्त करने के उपरान्त हा व्यापार प्रारम्भ कर सकती है।

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(9) प्रविवरण का निर्गमनप्रविवरण तैयार करना. उसे छपवाना व उसके निर्गमन की व्यवस्था करना।

(10) अभिगोपन सम्बन्धी अनबन्ध करना-यदि कम्पनी के अंशों के विक्रय हेतु अभिगोपको (Underwriters) की नियुक्ति की जानी है तो अभिगोपकों का चयन करना व उसके साथ आवश्यक अनुबन्ध करना। अंश विक्रय में सहायता हेतु दलालों की भी नियुक्ति की जा सकती है।

(11) पूँजी निर्गमनपूँजी निर्गमन की व्यवस्था करना।

(12) स्टॉक एक्सचेन्ज को आवेदन-पत्र भेजना-यदि कम्पनी अपने अंशों के क्रय-विक्रय की सुविधा मान्यता प्राप्त स्टॉक एक्सचेंज में उपलब्ध कराना चाहती है तो इसके लिए सम्बन्धित स्टॉक एक्सचेंजों में आवेदन-पत्र एवं आवश्यक शुल्क जमा करने के साथ-साथ अन्य औपचारिकताएँ भी पूरी करनी पड़ती है।

(13) प्रारम्भिक व्ययों का भुगतान-प्रवर्तन के सम्बन्ध में किये जाने वाले व्ययों का भुगतान भी प्रवर्तकों द्वारा ही किया जाता है।

(14) वैधानिक सलाहकार, बैंकर एवं अंकेक्षक आदि की नियुक्ति-कम्पनी के लिए बैंकों को निर्धारित करना, अंकेक्षकों तथा वैधानिक सलाहकारों की नियुक्ति भी प्रवर्तक ही करवाते हैं।

प्रवर्तक का पारिश्रमिक

(Promoter’s Remuneration)

सामान्यतः एक प्रवर्तक कम्पनी से कोई पारिश्रमिक प्राप्त नहीं कर सकता जब तक कि समामेलन के बाद प्रवर्तक के साथ इस आशय का अनुबन्ध न किया गया हो। ऐसे अनुबन्ध के अभाव में, यहाँ तक कि यदि उसने कम्पनी की स्थापना से सम्बन्धित कोई भुगतान अपनी जेब से किया है तो वह उस राशि की वसूली भी कम्पनी से नहीं कर सकता। वैसे प्रवर्तकों को पारिश्रमिक देने सम्बन्धी धारणा को कम्पनी द्वारा अपने अन्तर्नियमों में प्रकट कर दिया जाता है।

पारिश्रमिक के भुगतान का तरीका (Manner of Payment)

प्रवर्तक को निम्नलिखित विधियों द्वारा पारिश्रमिक का भुगतान किया जा सकता है

1 प्रवर्तक किसी व्यवसाय या सम्पत्ति को खरीद कर उसे अधिक मूल्य पर कम्पनी को बेच सकता है अथवा वह अपने स्वयं के व्यवसाय को भी कम्पनी को लाभ पर बेच सकता है।

2 कम्पनी. प्रवर्तक के माध्यम से क्रय किये गये व्यवसाय या सम्पत्ति के क्रय-मूल्य पर उसे (प्रवर्तक को) कमीशन दे सकती है।

3. कम्पनी. प्रवर्तक को उसकी सेवाओं के बदले में पारिश्रमिक के रूप में एक-मुश्त राशि (lumpsum) भुगतान कर सकती है।

4. प्रवर्तक को उसकी सेवाओं के प्रतिफलस्वरूप कम्पनी उसे पूर्णदत्त या आंशिक-दत्त अंश (fully or partly paid up) प्रदान कर सकती है।

5. कम्पनी, प्रवर्तक को, बेचे गये अंशों पर कमीशन प्रदान कर सकती है।

6.  कम्पनी द्वारा प्रवर्तक को यह विकल्प भी प्रदान किया जा सकता हैं कि वे एक निर्धारित अवधि के भीतर कम्पनी के अनिर्गमित अंशों (unissued shares) को क्रय करे।

प्रवर्तक के पारिश्रमिक की प्रकृति चाहे कुछ भी हो, परन्तु प्रविवरण जारी करने की तिथि से पिछले दो वर्षों के भीतर यदि इसका भुगतान किया गया है अथवा किसी भी समय इसका भुगतान करना। निर्धारित किया गया है तो इस तथ्य का वर्णन प्रविवरण में अनिवार्य रूप से किया जाना चाहिये।

प्रवर्तकों के अधिकार

(Rights of Promoters)

प्रवर्तकों के मुख्य अधिकार इस प्रकार हैं

(1) प्रारम्भिक व्यय पाने का अधिकार (Right to Receive Preliminary Expenses) कम्पनी के निर्माण काल में प्रवर्तक अपने द्वारा किये गये प्रारम्भिक व्ययों को समामेलन के पश्चात की प्राप्त करने का अधिकारी है. परन्तु प्रवर्तक ऐसे व्ययों का भुगतान प्राप्त करने के लिए कम्पनी पा वाट प्रस्तुत नहीं कर सकता क्योंकि प्रवर्तक का कम्पनी के साथ इस सम्बन्ध में कोई स्पष्ट अनबन्ध नहीं होता है। इतना ही नहीं यदि कम्पनी के अन्तर्नियमों में प्रारम्भिक व्ययों के भुगतान की व्यवस्था हो तो भी। कम्पनी उसका भगतान करने के लिए बाध्य नहीं है। लेकिन यदि कम्पनी ने समामेलन के पश्चात प्रवर्तकों के साथ प्रारम्भिक व्ययों के भुगतान के लिए कोई अनुबन्ध कर लिया है तो कम्पनी को ऐसे व्ययों का भुगतान करना पड़ेगा।

(2) सहप्रवर्तकों से आनुपातिक राशि प्राप्त करने का अधिकार (Right to Recover Proportionate Amount from the Co-partners)-यदि विवरण-पत्रिका में मिथ्यावर्णन के आधार पर सह-प्रवर्तकों में से किसी एक प्रवर्तक को क्षतिपूर्ति करनी पड़ती है तो वह प्रवर्तक सह-प्रवर्तकों से आनुपातिक राशि प्राप्त कर सकता है। प्रवर्तकों द्वारा लिए गए गुप्त लाभों के लिए भी प्रवर्तक व्यक्तिगत तथा संयुक्त रूप से उत्तरदायी होते हैं। यदि इन लाभों की राशि एक प्रवर्तक को देनी पड़ती है तो वह उसे आनुपातिक रूप में अन्य प्रवर्तकों से प्राप्त कर सकता है।

(3) पारिश्रमिक पाने का अधिकार (Right to Receive Remuneration)-कम्पनी के प्रवर्तन से सम्बन्धित किए जाने वाले कार्यों के लिए प्रवर्तक कम्पनी से पारिश्रमिक पाने का तभी अधिकारी होता है जबकि प्रवर्तक ने पारिश्रमिक के सम्बन्ध में कम्पनी से समामेलन के बाद इस आशय का अनुबन्ध कर लिया हो। कम्पनी प्रवर्तक को देय पारिश्रमिक की धनराशि अंशों, ऋण-पत्रों, नकदी, सम्पत्तियों के क्रय पर कमीशन तथा सम्पत्ति क्रय पर लाभ के रूप में दे सकती है। यह आवश्यक है कि प्रवर्तकों को दिये जाने वाले पारिश्रमिक के सम्बन्ध में प्रविवरण (Prospectus) में उल्लेख अवश्य करना चाहिए।

प्रवर्तकों के दायित्व

(Liabilities of Promoters)

प्रवर्तकों के महत्त्वपूर्ण दायित्व इस प्रकार हैं

(1) समामेलन से पूर्व किये गये कार्यों के लिए दायित्व-कम्पनी के समामेलन से पूर्व किये गये कार्यों के लिए प्रवर्तक व्यक्तिगत रूप से बाध्य होते हैं। यदि समामेलन के बाद कम्पनी प्रवर्तक के कार्यों का अनुमोदन कर दे तो प्रवर्तक अपने दायित्व से मुक्त हो जाते हैं।

(2) गुप्त लाभ प्रकट करने का दायित्वप्रवर्तकों का कम्पनी के साथ विश्वासाश्रित सम्बन्ध होता है। अत: उनसे यह आशा की जाती है कि वह किसी प्रकार का गुप्त लाभ न कमायें। यदि प्रवर्तकों द्वारा कोई गुप्त लाभ कमाया गया है तो उन्हें उस लाभ को प्रकट करने का दायित्व है और उसके हिसाब सहित उसे कम्पनी को वापस कर देना चाहिये। प्रवर्तकों द्वारा गुप्त लाभ न लौटाने पर कम्पनी को ज्ञात होने पर कम्पनी लाभ की राशि प्रवर्तकों से वसूल कर सकती है।

यहाँ यह महत्त्वपूर्ण है कि लाभों को स्पष्ट तथा वास्तविक रूप में प्रकट किया जाना चाहिये। दूसरे शब्दों में, लाभ के स्रोत एवं तरीके को स्पष्ट रूप से प्रकट करना चाहिये। केवल लाभ की राशि को प्रकट करने से ही प्रवर्तकों के दायित्व की पूर्ति नहीं हो जाती है।

इस सम्बन्ध में यह भी जान लेना आवश्यक है कि प्रवर्तकों का लाभ प्रकट करने का दायित्व तभी उत्पन्न होता है जबकि कम्पनी अपने अस्तित्व में जाये। [Ladywell Mining Co. vs. Brookes.35 Ch.D.400] किन्तु यदि कम्पनी अस्तित्व में नहीं आ पाती है तो ऐसी दशा में उन लाभों को प्रकट करने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता है।

(3) कम्पनी के साथ कपट या कर्त्तव्य भंग की दशा में उत्तरदायित्व-यदि कम्पनी ने कोई हानि प्रवर्तकों के कपट के कारण या कर्त्तव्य भंग के कारण उठाई है तो प्रवर्तक इस हानि को पूरा करने के लिये उत्तरदायी होते हैं।

(4) बिना विवरण दिये हुये सम्पत्ति के क्रय से होने वाली हानि के लिये दायित्व-यदि प्रवर्तक कम्पनी को बिना पूरा विवरण दिये हुये कम्पनी के लिये किसी सम्पत्ति का क्रय करते हैं, जिससे कम्पनी को नुकसान होता है, तो कम्पनी इन हानियों की पूर्ति के लिये उन पर मुकदमा चला सकती है और वे उसके लिये उत्तरदायी होंगे।

(5) प्रविवरण में कपट के लिये दायित्वप्रवर्तक, जो प्रविवरण के निर्गमन में भाग लेते हैं, प्रविवरण में किये गये कपट के लिये धारा 447 के अन्तर्गत अंशधारियों के प्रति उत्तरदायी होते हैं।

(6) प्रविवरण की वैधानिक त्रुटियों के कारण उत्तरदायित्व-यदि कम्पनी के अंशधारियों को इसलिये हानि उठानी पड़ती है कि प्रविवरण में वैधानिक त्रुटियाँ थीं और इन त्रुटियों के लिये प्रवर्तक दोषी थे तो इस हानि के लिये प्रवर्तक उत्तरदायी होते हैं।

(7) निस्तारक की रिपोर्ट पर दायित्व-यदि कम्पनी में समापन के समय निस्तारक द्वारा न्यायालय को ऐसी रिपोर्ट की जाये कि प्रवर्तक द्वारा कम्पनी निर्माण में कपट किया गया है तो न्यायालय सार्वजनिक जाँच (Public Enquiry) के लिए आदेश दे सकता है। दोषी पाये जाने पर प्रवर्तक ऐसे कपटपूर्ण कार्यों के लिये उत्तरदायी होंगे।

(8) कम्पनी के समापन की दशा में उत्तरदायित्वयदि कम्पनी के समापन से यह प्रकट होता है कि कम्पनी के प्रवर्तकों ने कम्पनी की किसी भी राशि या सम्पत्ति का दुरुपयोग किया है तो सरकारी निस्तारक, लेनदार अथवा धनदाता के प्रार्थना-पत्र पर न्यायालय इस प्रकार का आदेश दे सकते हैं कि प्रवर्तक उस सब राशि या सम्पत्ति को कम्पनी को लौटा दे।

विशेषकिसी प्रवर्तक की मृत्यु या दिवालिया हो जाने पर भी उसकी सम्पत्ति में से उसके दायित्व की राशि वसूल की जा सकती है।

प्रवर्तकों का दायित्व कब प्रारम्भ होता है ?

(When Promoters Liability Commence?)

कम्पनी के प्रति प्रवर्तकों का दायित्व उसी समय से प्रारम्भ हो जाता है जब वे कम्पनी के प्रवर्तन का कार्य प्रारम्भ करते हैं। यह ध्यान देने योग्य है कि प्रवर्तकों का यह दायित्व तभी उत्पन्न होता है जबकि कम्पनी अस्तित्व (समामेलन) में आ जाती है। यदि कम्पनी अस्तित्व में नहीं आती तो कम्पनी के प्रति प्रवर्तकों का दायित्व भी उत्पन्न नहीं होता। कम्पनी के अस्तित्व में आते ही प्रवर्तक कम्पनी के प्रति उस समय से उत्तरदायी होंगे जिस समय उन्होंने कम्पनी के निर्माण का कार्य प्रारम्भ किया था।

केस लॉइस सम्बन्ध में लेडीवेल माइनिंग कम्पनी बनाम बुक्स [Ladywell Mining Co. vs. Brookes, 35 Ch. D. 400] का मामला अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इस मामले के तथ्यों के अनुसार पाँच व्यक्तियों ने मिलकर एक खान 5,000 पौण्ड में क्रय इसलिये की थी कि वे उसे एक निर्माण की जाने वाली कम्पनी को बेच देंगे। खान क्रय करने के समय इनमें से कोई भी व्यक्ति कम्पनी के प्रवर्तन के कार्य में भाग नहीं ले रहा था। इन व्यक्तियों ने इस खान को 18,000 पौण्ड में निर्माणाधीन कम्पनी के प्रवर्तकों को बेचने का अस्थायी अनुबन्ध कर लिया। कम्पनी के अस्तित्व में आने के बाद कम्पनी के संचालक मण्डल द्वारा इस अनुबन्ध को स्वीकार कर लिया गया। इस संचालक मण्डल में चार सदस्य उन पाँच व्यक्तियों में से थे जिन्होंने मिलकर खान को खरीदा था। इस पर कम्पनी ने खान विक्रेताओं पर (18,000-5,000) = 13,000 पौण्ड की वसूली का मुकदमा चलाया। कम्पनी ने तर्क दिया कि कम्पनी के समक्ष लाभ को प्रकट नहीं किया गया था। न्यायालय ने निर्णय लिया कि जिस समय खान खरीदी गई, उस समय विक्रेता प्रवर्तक नहीं थे। ऐसी स्थिति में उनके द्वारा प्राप्त लाभ को प्रकट करना उनका कर्त्तव्य नहीं था। प्रवर्तकों का दायित्व उनके द्वारा कम्पनी के प्रवर्तन का कार्य प्रारम्भ करने के समय से ही प्रारम्भ हो गया था।

प्रवर्तक की वैधानिक स्थिति

(Legal Position of A Promoter)

एक प्रवर्तक कम्पनी के लिए उसके अस्तित्व में आने से पूर्व कार्य करता है। कम्पनी के अस्तित्व म आते ही प्रवर्तक का कार्य समाप्त हो जाता है। अत: प्रवर्तक के रूप में कार्य करने वाले व्यक्ति अथवा व्यक्तियों की स्थिति न तो स्वामी के रूप में होती है, न प्रन्यासी के रूप में और न अभिकर्ता के रूप में। ही, क्योंकि उस समय तक कम्पनी का कोई अस्तित्व ही नहीं होता है। केलनर बनाम वेक्सट के विवाद में न्यायाधीश द्वारा यह निर्णय दिया गया था कि एक प्रवर्तक कम्पनी का एजेन्ट नहीं होता है क्योंकि वह कम्पनी जो अभी तक अस्तित्व में नहीं आई है, एजेन्ट नहीं रख सकती है।

प्रवर्तक की स्थिति के सम्बन्ध में दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि प्रवर्तक कम्पनी का प्रन्यासी (Trustee) भी नहीं होता है। इसका कारण भी वही है, जो एजेन्ट नहीं होने के सम्बन्ध में दिया गया है। दूसरे शब्दों में कम्पनी जब तक अस्तित्व में नहीं आ जाती है तब तक वह अपने प्रन्यासी को भी नियुक्त नहीं कर सकती है। अत: प्रवर्तक के प्रन्यासी के रूप में भी कोई दायित्व उत्पन्न नहीं हो सकते हैं।

अब प्रश्न यह उठता है कि प्रस्तावित कम्पनी तथा प्रवर्तक का क्या सम्बन्ध है?

कम्पनी अधिनियम में तो प्रवर्तकों के सम्बन्ध में कोई प्रावधान नहीं है फिर भी विभिन्न महत्त्वपूर्ण निर्णयों में प्रवर्तक की वैधानिक स्थिति स्पष्ट की गई है।

लार्ड केयर्स ने एक विवाद में प्रवर्तक की स्थिति के सम्बन्ध में अपने विचार निम्न शब्दों में प्रकट किये- “कम्पनी के प्रवर्तक निस्सन्देह विश्वासाश्रित” (Fiduciary) स्थिति में होते हैं। कम्पनी का निर्माण और रचना उनके हाथ में होती है तथा उन्हें इस बात की व्याख्या करने का अधिकार है कि वह (कम्पनी) कैसे, कब और किस रूप में तथा किस प्रकार के निरीक्षण के अन्तर्गत, अस्तित्व में जाना प्रारम्भ करेगी तथा एक व्यापारिक निगम के रूप में कार्य करना शुरू करेगी।।

लार्ड लिण्डले ने प्रवर्तकों की वैधानिक स्थिति के सम्बन्ध में निम्नलिखित पाँच बातें बताई हैं

(1) विश्वासाश्रित सम्बन्धकम्पनी के प्रवर्तकों का कम्पनी के साथ तथा उन व्यक्तियों के साथ जिन्हें वे कम्पनी का अंशधारी बनने के लिए आकर्षित करते हैं, विश्वासाश्रित सम्बन्ध होता है। विश्वासाश्रित सम्बन्ध के कारण प्रवर्तक को कम्पनी की ओर से किये गये किसी भी व्यवहार में गुप्त लाभ नहीं कमाना चाहिये। यदि ऐसा लाभ कमाया है तो पता लगने पर प्रवर्तक को वह लाभ कम्पनी को लौटाना होगा। इतना ही नहीं वह अपनी निजी सम्पत्ति भी कम्पनी को बेचकर लाभ प्राप्त नहीं कर सकता।

(2) अनुबन्ध के लिये बाध्य करनाकम्पनी का निर्माण हो जाने के बाद कम्पनी के संचालक प्रवर्तकों को किसी भी ऐसे अनुबन्ध से बाध्य कर सकते हैं जो प्रवर्तकों ने कम्पनी के प्रवर्तन की स्थिति में किये हों।

(3) प्रवर्तकों का व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी न होना-यदि प्रवर्तकों ने अपने अधिकारों के अन्तर्गत, उचित सावधानी तथा ईमानदारी से कम्पनी के हित में कार्य किया है, तो वे कम्पनी के प्रति उन हानियों के लिए व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी नहीं होते हैं, जो कम्पनी ने उनकी त्रुटियों या निर्णय की भूलों के कारण उठायी हों।

(4) अनुबन्ध को पिथ्यावर्णन के आधार पर समाप्त करना-यदि यह सिद्ध हो जाये कि एक पक्षकार ने महत्त्वपूर्ण तथ्यों के मिथ्यावर्णन द्वारा दूसरे पक्षकार को अनुबन्ध करने के लिए प्रेरित किया है, भले ही ऐसा मिथ्यावर्णन कपटमय न हो तो किसी भी अनुबन्ध को समाप्त किया जा सकता है। यह सिद्धान्त प्रवर्तकों तक ही सीमित नहीं है, अपित कम्पनियों पर भी लागू होता है। ।

(5) पक्षकारों की स्थिति में परिवर्तन होने की दशा में व्यर्थनीय अनुबन्धों का समाप्त न होना-इस सिद्धान्त के अनुसार पक्षकारों की स्थिति में परिवर्तन होने की दशा में, जिसके फलस्वरूप वे। पुरानी स्थिति पर नहीं पहुँचाये जा सकते, व्यर्थनीय अनुबन्ध को समाप्त नहीं किया जा सकता है। इस सिद्धान्त के सम्बन्ध में न्यायाधीश लिण्डले ने आगे कहा है कि. “इस सिद्धान्त का प्रयोग कपट को। दशा में नहीं होता है, इसके अतिरिक्त मुझे इसका अन्य कोई अपवाद ज्ञात नहीं हैं।”

प्रारम्भिक अनुबन्ध

(Preliminary Contracts)

कम्पनी के समामेलन से पूर्व कम्पनी के प्रवर्तकों द्वारा कम्पनी के लिए किए गए समस्त अनुबन्ध प्रारम्भिक अनुबन्ध कहलाते हैं। ऐसे अनुबन्ध सामान्यतया कम्पनी की

कम्पनी सन्नियम

(i) कुछ सम्पत्तियाँ प्राप्त करने के लिए, तथा

(ii) कुछ अधिकार प्राप्त करने के लिए किये जाते हैं।

वैधानिक रूप में कम्पनी ऐसे अनुबन्धों के लिए बाध्य नहीं होती है क्योंकि ये कम्पनी के अस्तित्व से पूर्व किये गये हैं। प्रवर्तक इन अनुबन्धों को कम्पनी के एजेण्ट, या ट्रस्टी की स्थिति में करते। हैं जबकि वे वास्तव में न तो कम्पनी के एजेण्ट हैं और न टस्टी। अत: कम्पनी इनके लिए बाधित नहीं हो सकती, कम्पनी इनका पुष्टीकरण भी नहीं कर सकती क्योकि वैध पुष्टीकरण के लिए अनुबन्ध के समय स्वामी का अस्तित्व होना आवश्यक होता है। अत: ऐसे अनबन्धों के लिए न तो कम्पनी तृतीय पक्ष के विरुद्ध इनको प्रवर्तनीय कराने के लिए वाद प्रस्तुत कर सकती है और न ही तृतीय पक्ष कम्पनी के विरुद्ध। अत: कम्पनी अपने समामेलन के बाद तृतीय पक्षकारों के साथ पुन: अनुबन्ध करती है अर्थात् प्रारम्भिक अनुबन्धों को कम्पनी पुन: नये सिरे से करती है तभी उसका दायित्व होता है।

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परीक्षा हेतु सम्भावित महत्त्वपूर्ण प्रश्न

(Expected Important Questions for Examination)

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न (Long Answer Questions)

1 प्रवर्तकों से आपका क्या आशय है ? कम्पनी प्रवर्तकों के कार्य, अधिकार एवं दायित्व समझाइये।

What do you mean by Promoters ? Explain the functions, rights and liabilities of company promoter.

2. “प्रवर्तक किसे कहते हैं? प्रवर्तकों के कर्तव्यों व दायित्वों का वर्णन कीजिए।

Who are the promoters? State the duties and liabilities of promoters.

3. एक प्रवर्तक की कम्पनी में क्या वैधानिक स्थिति होती है ? एक कम्पनी के प्रवर्तकों के क्या अधिकार व दायित्व होते हैं ?

What is the legal position of a promoter in a company ? What are the rights and liabilities of promoters of a company ?

4. “एक प्रवर्तक न तो कम्पनी का ट्रस्टी तथा न ही एजेन्ट होता है, बल्कि इसकी स्थिति विश्वासश्रित होती है।” इस कथन की व्याख्या कीजिए।

A promoter is neither a trustee nor an agent for the company, but the stands in a fiduciary position towards it.” Explain this statement.

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लघु उत्तरीय प्रश्न (Short Answer Questions)

1 प्रवर्तकों से क्या आशय है ?

What is meant by Promoters ?

2. प्रवर्तकों के प्रमुख कार्य क्या हैं ?

What are the main functions of promoters?

3. प्रारम्भिक अनुबन्ध क्या होते हैं ?

What are preliminary contracts ?

4. एक कम्पनी के प्रवर्तक की वैधानिक स्थिति का उल्लेख कीजिये।

Discuss the legal position of company promoter.

5. प्रवर्तकों का दायित्व कब प्रारम्भ होता है ?

When promoters liability commence ?

6. प्रवर्तकों के दायित्व बताइये।

Describe liabilities of promoters.

7. प्रवर्तकों के अधिकार क्या हैं ?

What are the rights of promoters ?

8. प्रवर्तकों के पारिश्रमिक का भुगतान किस प्रकार किया जा सकता है ?

How remuneration of promoters can be paid ?

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