BCom 2nd Year Decision Making Concepts Process Bounded Rationality Study Material Notes in Hindi

//

BCom 2nd Year Decision Making Concepts Process Bounded Rationality Study Material Notes in Hindi

Table of Contents

BCom 2nd Year Decision Making Concepts Process Bounded Rationality Study Material Notes in Hindi: Meaning Definition decision Making  Characteristics of Decision Making Types of Decisions Importance of  Decision Making Improving Group Decision Process of Decision Making Rationality and Decision Making Assumption Conditions of Perfect Rational Decision  Bounded Rationality Important Examination Questions Short Questions Objective Questions:

Decision Making Concepts Process
Decision Making Concepts Process

BCom 2nd Year Principles Business management Planning Concepts Types Process Notes in Hindi

निर्णयन : अवधारणा एवं प्रक्रिया; परिबद्ध विवेकशीलता

[Decision-Making : Concepts and Process: Bounded Rationality]

प्रबन्धक का एक महत्वपूर्ण कार्य निर्णय लेना है। पीटर एफ० ड्रकर के अनुसार, “एक । प्रबन्धक जो कुछ भी करता है, वह निर्णयन के द्वारा ही करता है।” प्रबन्धकों को दिन-प्रतिदिन अनेक कार्य करने पड़ते हैं और उन कार्यों को करने के विभिन्न वैकल्पिक ढंग होते हैं। प्रबन्धकों को। इन अनेक वैकल्पिक ढंगों में से सर्वोत्तम विकल्प का चयन करना होता है जिससे कि कम समय में। न्यूनतम लागत पर कार्यों को सम्पन्न किया जा सके। इस प्रकार सर्वोत्तम वैकल्पिक ढंग का चयन ही। ‘निर्णयन’ कहलाता है।

Decision Making Concepts Process

निर्णयन का अर्थ एवं परिभाषाएँ

MEANING AND DEFINITIONS OF DECISION-MAKING)

निर्णयन का शाब्दिक अर्थ अन्तिम परिणाम पर पहुँचने से लगाया जाता है, जबकि व्यावहारिक दृष्टि से निर्णयन का अर्थ एक ऐसी प्रक्रिया से लिया जाता है जिसके द्वारा किसी वांछित परिणाम की प्राप्ति हेतु सजगतापूर्वक सर्वोत्तम विकल्प का चयन किया जाता है। इस प्रकार निर्णयन से आशय विभिन्न विकल्पों में से सर्वश्रेष्ठ विकल्प को चुनने की बौद्धिक क्रिया से है। इसकी कुछ प्रमुख परिभाषाएँ इस प्रकार हैं

वेबस्टर शब्द कोष के अनुसार, “निर्णय लेने से आशय अपने मस्तिष्क में सम्मति या कार्यवाही के तरीके के निर्धारण से है।

टैरी के अनुसार, “निर्णयन किसी कसौटी पर आधारित दो या दो से अधिक सम्भावित विकल्पों में से एक का चयन है।”

मेक्फारलैण्ड के अनुसार, “निर्णयन एक चयन क्रिया है जिसके अन्तर्गत एक अधिशासी दी हुई परिस्थिति में इस निर्णय पर पहुँचता है कि क्या किया जाना चाहिए। निर्णय चयनित व्यवहार का प्रतिनिधित्व करता है जिसका चयन अनेक सम्भावित विकल्पों में से किया जाता है।”3 |

ऐलन के अनुसार, “निर्णयन वह कार्य है जिसे एक प्रबन्धक किसी निष्कर्ष और निर्णय पर पहुँचने के लिए करता है।”

निर्णयन की उपर्युक्त परिभाषाओं का अध्ययन करने से स्पष्ट होता है कि निर्णयन या निर्णय लेना एक ऐसी क्रिया है जिसके द्वारा किसी कार्य को करने के सम्भावित विकल्पों में से किसी एक सर्वश्रेष्ठ विकल्प का चयन किया जाता है एवं यह चयन कुछ मापदण्डों (Criteria) पर आधारित होता है।

Decision Making Concepts Process

निर्णयन के लक्षण/विशेषताएँ

(CHARACTERISTICS OF DECISION-MAKING)

निर्णयन की विभिन्न विद्वानों द्वारा दी गई परिभाषाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि निर्णय लेने की प्रक्रिया में निम्नलिखित मल लक्षण पाये जाते हैं

(1) निर्णयन एक मानसिक क्रिया है, क्योंकि तर्कपूर्ण विचार-विनिमय के उपरान्त ही निर्णय लिये जाते हैं।

(2) निर्णयन के अन्तर्गत अन्तिम निष्कर्ष पर पहुँचने से पहले विभिन्न तत्वों का मूल्यांकन करना होता है।

(3) निर्णयन एक चयनात्मक प्रक्रिया है, क्योंकि निर्णय प्रक्रिया में किसी कार्य को करने के अनेक विकल्पों में से सर्वश्रेष्ठ विकल्प का चयन किया जाता है।

(4) निर्णय प्रक्रिया मूलरूप से मानवीय क्रिया है जिसके लिए पर्याप्त बुद्धि, ज्ञान, विवेक एवं अनुभव की आवश्यकता होती है।

(5) निर्णयन स्वयं में कोई लक्ष्य नहीं है, वरन् यह अन्तिम लक्ष्य की प्राप्ति का एक साधन है।

(6) निर्णय नकारात्मक या सकारात्मक हो सकता है।

(7) यह नियोजन का अंग है अर्थात् नियोजन की समस्त प्रक्रिया निर्णयन पर आधारित रहती

निर्णयों के प्रकार

(TYPES OF DECISIONS)

प्रत्येक व्यावसायिक उपक्रम के अन्तर्गत प्रबन्धकों द्वारा समय-समय पर अनेक निर्णय लिये जाते हैं। अत: पीटर एफ० ड्रकर ने ठीक ही कहा है कि “प्रबन्ध निर्णय लेने की प्रक्रिया है।” व्यावसायिक निर्णयों को प्रबन्धकीय विद्वानों ने अनेक दृष्टिकोणों को ध्यान में रखकर विभिन्न श्रेणियों में विभक्त करने का प्रयास किया है। मुख्यतः प्रबन्धकीय निर्णयों को निम्न श्रेणियों में वगीकृत किया जा सकता है

1 नीति सम्बन्धी एवं संचालन सम्बन्धी निर्णय (Policy and Operative Decisions)-वे निर्णय जो उच्च प्रबन्धकों द्वारा लिये जाते हैं और जो व्यावसायिक उपक्रम की आधारभूत नीतियों से सम्बन्धित होते हैं, ‘नीति सम्बन्धी निर्णय’ कहलाते हैं। उदाहरणार्थ, कर्मचारियों को बोनस देना अथवा न देना, कर्मचारियों को मौद्रिक एवं अमौद्रिक प्रेरणाएँ उपलब्ध कराना अथवा न कराना, क्रय-विक्रय की नीतियों सम्बन्धी मामले, आदि। दूसरी ओर वे निर्णय जो निम्नस्तरीय प्रबन्धकों द्वारा नीति सम्बन्धी निर्णयों के क्रियान्वयन हेतु लिये जाते हैं, ‘संचालन सम्बन्धी निर्णय’ कहलाते हैं। संक्षेप में, संचालन सम्बन्धी निर्णयों से आशय ऐसे निर्णयों से है जो उपक्रम के दैनिक संचालन से सम्बन्ध रखते हैं। उदाहरणार्थ, कार्य का विभाजन करना, अधिकारों का भारार्पण करना, निर्धारित दरों पर कर्मचारियों को बोनस देना।

2. कार्यात्मक एवं अकार्यात्मक निर्णय (Programmed and Non-programmed decisions)-कार्यात्मक निर्णय वे निर्णय होते हैं जिनका सम्बन्ध सामान्यतः दिन-प्रतिदिन (रोजमर्रा) के कार्यों तथा बार-बार उत्पन्न होने वाली समस्याओं से होता है। ये निर्णय ऐसे होते हैं जो कि अनेक बार एक जैसी परिस्थितियों में एक-सी समस्याओं पर पूर्व में लिये जा चुके होते हैं। इसलिए इस प्रकार के निर्णयों को लेने के लिए एक निश्चित प्रणाली का निर्धारण कर दिया जाता है। अत: ऐसे निर्णय आसानी से ले लिये जाते हैं। ऐसे निर्णयों के कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं-कर्मचारी को अवकाश देने से सम्बन्धित निर्णय. अवकाश के दिनों के वेतन के बारे में निर्णय देना।

दूसरी ओर अकार्यात्मक निर्णय विशेष समस्याओं से सम्बन्धित होते हैं अर्थात् इनका सम्बन्ध ऐसी समस्याओं से होता है जो बार-बार उत्पन्न नहीं होती। ये ऐसे निर्णय होते हैं जिनको नये सिरे से लेना होता है और जो पुराने निर्णयों से मेल नहीं खाते हैं। ये निर्णय विशेष परिस्थितियों में जन्म लेते हैं; जैसे-किसी नये स्थान पर अपनी व्यापार-शाखा खोलने सम्बन्धी निर्णय, किसी नये उत्पाद को अपनी उत्पाद-पंक्ति में जोडने सम्बन्धी निर्णय, आदि। अत: ऐसे निर्णय के सम्बन्ध में हर बार एक नवीन मार्ग, विधि एवं कार्यक्रम की आवश्यकता होती है।

3. महत्वपूर्ण एवं नैत्यक निर्णय (Strategic and Routine Decisions)-ऐसे निणय जो उपक्रम के लिए काफी महत्वपूर्ण होते हैं और जिनके सम्बन्ध में गहन अध्ययन, पर्याप्त विवेक एवं दूरदृष्टि तथा गहन चिन्तन की आवश्यकता होती है, महत्वपूर्ण या आधारभूत निर्णयकहे जाते। हा एस निर्णयों का दीर्घकालीन प्रभाव होता है तथा इनके फलस्वरूप उपक्रम के लक्ष्यों, विधियों। लाभ-हानियों अथवा आकार, आदि में परिवर्तन हो जाते हैं। अत: ऐसे निर्णयों को लेने में यदि जरा-सी भी असावधानी हो जाये, तो घातक परिणामों का सामना करना पड़ सकता है। इन निर्णयों में। संयन्त्र अभिन्यास, उत्पाद की प्रक्रिया में परिवर्तन और वितरण के माध्यमों का चयन, आदि प्रमुख हैं। दसरी ओर नैत्यक निर्णय वे होते हैं जो उपक्रम की दिन-प्रतिदिन की क्रियाओं के सम्बन्ध में लिये जाते हैं और जिनके लेने में अधिक विचार-विमर्श की आवश्यकता नहीं होती। ये निर्णय अल्पकालीन महत्व के होते हैं। अत: प्रबन्धक इन पर शीघ्रतापूर्वक निर्णय ले लेते हैं। नैत्यक निर्णयों के अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं। जैसे—किसी कर्मचारी के अवकाश की मांग को स्वीकार करना या। अस्वीकार करना, स्टेशनरी खरीदना, आदि।

4. अनौपचारिक एवं नियोजित निर्णय (Off-the-Cuff and Planned Decisions)-अनौपचारिक निर्णय वे निर्णय होते हैं जिन्हें लेने के लिए कोई अधिकारिक या औपचारिक योजना नहीं होती। ये तो अवसर या परिस्थितियाँ उत्पन्न होने पर ही लिये जाते हैं। इस प्रकार के निर्णय सहज ज्ञान से लिये जाते हैं। निर्णयन की तत्कालता इसका प्रमुख लक्षण होता है। दूसरी ओर, ‘नियोजित निर्णय’ किसी-न-किसी योजना पर आधारित होते हैं। ऐसे निर्णयों के लिए वैज्ञानिक विधि अपनायी जाती है और ये ठोस तथ्यों पर आधारित होते हैं।

4. व्यक्तिगत एवं संगठनात्मक निर्णय (Personal and Organisational Decisions)-व्यक्तिगत निर्णय वे निर्णय हैं जो एक व्यक्ति स्वयं अपने लिये करता है: जैसे-व्यवसाय का चयन, शादी का निर्णय आदि। इसके विपरीत किसी प्रबन्धक द्वारा संगठन के उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु किया गया औपचारिक निर्णय संगठनात्मक निर्णय कहलाता है। जैसे-श्रमिकों की नियुक्ति, मशीन का क्रय, कच्चे माल की मात्रा व किस्म आदि से सम्बन्धित निर्णय।।

5. एकाकी तथा सामूहिक निर्णय (Individual and Group Decisions)—यह वर्गीकरण इस बात पर आधारित है कि निर्णयन प्रक्रिया में कितने लोगों ने भाग लिया। ऐसे निर्णय जो किसी एक व्यक्ति अथवा अधिकारी द्वारा लिए जाते हैं, एकाकी निर्णय कहलाते हैं। ऐसे निर्णयों में व्यक्ति अथवा अधिकारी किसी दूसरे की सहभागिता स्वीकार नहीं करता है। लघु आकार के व्यवसाय में जब एकल स्वामित्व, नियन्त्रण व हस्तक्षेप होता है तो किसी अन्य व्यक्ति से बिना परामर्श के एकाकी निर्णय किये जाते हैं। एकाकी निर्णय उन प्रबन्धकों द्वारा भी लिए जाते हैं जो अपने पद या प्रतिष्ठा में कमी होने के भय से अथवा अधीनस्थों की योग्यता व ईमानदारी में अविश्वास के कारण

अपनी निर्णयन प्रक्रिया में किसी की सहभागिता नहीं चाहते हैं। ऐसे निर्णय में विलम्ब हिचकिचाहट  या गतिरोध जैसे दोष उत्पन्न नहीं होते हैं।

Decision Making Concepts Process

इसके विपरीत, सामूहिक निर्णय गम्भीर मामलों पर अधिक सहयोग प्राप्त करने की दृष्टि स लिए जाते हैं। बड़ी संस्थाओं में सामूहिक निर्णय समितियों की बैठकों, सेमिनारों, संचालक मंडलों, कार्य दलों अथवा सभाओं में किए जाते हैं। सामूहिक निर्णय अनेक व्यक्तियों के जान कौशल, योग्यता, विवेक, सूचना का उपयोग करके निर्णयों की गुणवत्ता बताते हैं। इससे विभिन्न मतों को एकीकत करने में सहायता मिलती है और स्वीकार्यता, समझ सहयोग व प्रतिबद्धता व्यापक हो जाती है, फिर भी सामूहिक निर्णय की निम्न सीमाएँ भी होती हैं

1: सामहिक निर्णय में काफी धन और समय लगता है। अगर निर्णय मतदान के बजाय सर्वसम्मति से लेना हो तो बहुत अधिक समय लग जाता है।

2.सामूहिक निर्णयों में सृजनशील अधिशाषियों की पहलपन निरुत्साहित होती है।

3. सामूहिक निर्णयों की दशा में प्रायः मख्य अधिशाषी की संस्था प्रमुख के रूप में स्थिति कमजोर पड़ जाती है। बाहरी पक्षों; जैसे—वित्तदाताओं. सरकारी एजेन्सियों, जनता आदि के साथ सौदेबाजी में उसकी स्थिति कमजोर होती है।

4. सामूहिक निर्णय कभी-कभी जटिल और अनिर्णायक हो जाते हैं। सामूहिक विचार-विमर्श का अन्त न सुलझाने वाली गुत्थियों, विभाजित मतों और विरोध लेखन (Note of Dessent) के रूप म होता है।

5. सामूहिक निर्णयों में संयुक्त उत्तरदायित्व के कारण बहधा उत्तरदायित्वहीनता की स्थिति पनपती है।

6. सामूहिक निर्णयों में गोपनीयता का अभाव पाया जाता है।

निर्णयन का महत्त्व

(IMPORTANCE OF DECISION MAKING)

निर्णयन प्रबन्ध का प्राथमिक कार्य है। निर्णयन प्रबन्ध की आत्मा, सार व मूल है। निर्णयन को ए० एच० साइमन ने प्रबन्ध का पर्यायवाची बताया है। यदि प्रबन्धकीय प्रक्रिया से निर्णयन को पृथक् कर दिया जाये तो निश्चय ही प्रबन्ध निर्जीव हो जायेगा। एक प्रबन्ध जो कुछ भी करता है वह निर्णयन के द्वारा ही करता है और उसका सम्पूर्ण जीवन निर्णयन में ही गुजरता है। जॉन मैकडोनाल्ड (John McDonald) ने तो इस सम्बन्ध में एक बहुत ही सरल, संक्षिप्त परन्तु उपयुक्त वाक्य का प्रयोग किया है कि, “व्यावसायिक प्रबन्धक एक पेशेवर निर्णय लेने वाला व्यक्ति होता है।” निर्णयन की महत्ता को निम्नलिखित बिन्दुओं से और स्पष्ट किया जा सकता है

(1) निर्णयन समस्त प्रबन्धकीय कार्यों का मर्म (Core) हैनिर्णयन के बिना तो प्रबन्ध का कोई भी कार्य, जैसे—नियोजन, संगठन, स्टाफिंग, निर्देशन, नियन्त्रण, समन्वय सम्पन्न ही नहीं किया जा सकता है। उदाहरण के लिये, संगठन के सम्बन्ध में उसके ढाँचे, अधिकार सम्बन्ध, कार्य-विभाजन, अधिकार का प्रतिनिधायन व विकेन्द्रीकरण आदि बिना निर्णयन के सम्भव ही नहीं हो सकता। अर्नेस्ट डेल ने उचित ही कहा है कि, “प्रबन्धकीय निर्णयों से आशय उन निर्णयों से है जो कि सदैव सभी प्रबन्धकीय क्रियाओं जैसे—नियोजन, संगठन, नियन्त्रण, निर्देशन, कर्मचारियों की भर्ती, नव-प्रवर्तन तथा प्रतिनिधित्व के दौरान किये जाते हैं।”

(2) निर्णयन का सम्बन्ध साधन (Means) अथवा साध्य (End) अथवा दोनों से हो सकता है-कुछ दशाओं में विशिष्ट उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये प्रबन्धक यह निर्णय लेता है कि साधन कौन सा सर्वोत्तम होगा। कभी-कभी तो प्रबन्धक साध्य अर्थात् लक्ष्य ही निर्धारित करते हैं। अन्य दशाओं में प्रबन्धक विचार-विनिमय तथा विश्लेषण करके साधन और साध्य दोनों को निर्धारित करने हेतु निर्णय लेता है।

(3) नीतिनिर्माण में निर्णयन की भूमिकाएक प्रबन्धक को लक्ष्य पूर्ति हेतु नीति निर्माण एवं क्रियान्वयन करना पड़ता है। विभिन्न विभागों एवं उप-विभागों के नीति निर्माण और कार्य निष्पादन करने के लिये भी प्रबन्धकों को अनिवार्यतः निर्णय लेने पड़ते हैं।

Decision Making Concepts Process

(4) कार्यकुशलता मूल्याँकन का आधारप्रबन्धकों द्वारा लिये गये निर्णय से ही यह मालूम किया जाता है कि उन्हें स्थिति का वास्तविक ज्ञान है कि नहीं, है तो कितना, वे समस्या की तह तक पहुँच पाते हैं कि नहीं। वर्तमान प्रतिस्पर्धा के युग में अगर प्रबन्धक निर्णय में त्रुटि करे या विलम्ब करे तो संस्था की कुशलता कुप्रभावित होती है। निर्णयन तो कुशल प्रबन्ध की कसौटी होती है। अच्छे निर्णय के लिये प्रबन्धक को पुरस्कार और खराब निर्णय के लिये दण्डित किया जाता है।

(5) परिवर्तन की चुनौती का सामना करने के लिये तीव्र परिवर्तन तो इस 21वीं शताब्दी का मौलिक लक्षण हो गया है। प्रबन्धक को परिवर्तन से घबराना नहीं चाहिये बल्कि उससे लाभ लेने के लिये विवेकपूर्ण निर्णयन करना चाहिये। परिवर्तनों की चुनौती का सामना करने हेतु नीतियों, कार्यपद्धतियों, कार्यक्रमों, रणनीतियों में परिवर्तन के निर्णय प्रबन्धक को लेने पड़ते हैं।

(6) सार्वभौमिकता एवं व्यापकतानिर्णयन तो सभी प्रकार के संगठनों और क्रियात्मक क्षेत्रों जैसे उत्पादन, विपणन, वित्त, सेविवर्गीय, लेखांकन आदि के सम्बन्ध में समान रूप से उपयोगी है इसकी सार्वभौमिकता और व्यापकता के कारण इसका महत्त्व बढ़ता जा रहा है।

(7) जोखिम को सीमित करने के लिये-सुदृढ़ निर्णय तथ्यों एवं सूचनाओं के आधार पर पूर्ण विवेक से लिये जाते हैं। इससे प्रबन्धकों के निर्णय अधिक विश्वसनीय हो जाते हैं तथा व्यवसाय की जोखिम को सीमित किया जा सकता है।

(8) संस्था के उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक संस्था के संसाधनों का कुशल उपयोग करके ही संस्था के उद्देश्यों की पूर्ति की जा सकती है। प्रबन्धक यथासमय निर्णय लेकर व्यावसायिक अवसरों का समुचित लाभ उठा पाते हैं और संस्था के उद्देश्यों की पूर्ति कर लेते हैं।

अतः स्पष्ट है कि निर्णयन प्रबन्ध की सफलता के लिये परमावश्यक है। यह सम्पुर्ण सस्था की सफलता एवं अस्तित्व के लिये अनिवार्य कार्य है।

सामूहिक निर्णयों को समुन्नत/प्रभावी बनाना

(IMPROVING GROUP DECISIONS)

21वीं शताब्दी में संगठनात्मक समस्याएँ इतनी जटिल हो गई हैं कि उनके समाधान में सामूहिक निर्णय लेना ही उत्तम है। सामूहिक निर्णयों में निर्णयों की गुणवत्ता बढ़ाने, विभिन्न मंतव्यों को एकीकृत करने व व्यूहरचनात्मक निर्णयों की स्वीकृति विस्तारित करने हेतु निम्न दो विशिष्ट तकनीकें व्यापक रूप से लोकप्रिय हो रही हैं

1 डेल्फी तकनीक (Delphi Technique)-ग्रीस के उस प्राचीन तीर्थ-मन्दिर (Shrine) का नाम डेल्फी था जहाँ भविष्य के बारे में अनुमानित सूचना प्राप्त करने के लिए प्रार्थना की जाती थी। डेल्फी तकनीक में सम्बन्धित समस्या पर सभी सम्बद्ध प्रबन्धकर्मियों से अपना विचार, सुझाव एवं मंतव्य देने के लिए कहा जाता है। तदुपरान्त दूसरों के विचार, सुझाव एवं मंतव्य, बिना उनके नाम प्रकट किए हुए, से प्रत्येक को अवगत कराया जाता है। समूह निर्णय में संलग्न प्रत्येक कर्मी से दूसरों के विचारों पर अपनी प्रतिक्रिया आमंत्रित की जाती है। डेल्फी तकनीक में समूह के सदस्य प्रत्यक्षा रूप से आमने-सामने नहीं होते हैं, लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से विचारों का आदान-प्रदान करके सर्वसम्मत निर्णय लिया जाता है। इस प्रकार बिना आमने-सामने के सन्देशवाहन और पक्षपातपूर्ण रवैये के सभी निर्णायक सदस्यों के विशिष्ट ज्ञान, कौशल, योग्यता और सूचना के रूप में उनका योगदान प्राप्त किया जाता है। इस तकनीक का मुख्य दोष निर्णयन में अत्यधिक विलम्ब और सर्वसम्मति का अभाव होना है।

2. नाममात्र समूह तकनीक (Nominal Group Technique)-इस तकनीक में समूह सदस्य एकत्र तो होते हैं, परन्तु परस्पर विचार-विनिमय नहीं करते। बैठक में एकत्र होने पर सदस्यों को समस्या बता करके उन्हें अपनी प्रतिक्रिया, टिप्पणी, विचार व सुझाव कागज पर लिख करके देने को कहा जाता है। इसके पश्चात् बैठक का अभिलेखक विभिन्न सदस्यों के विचारों को श्यामपट्ट या प्रोजेक्टर की पारदर्शी कागजों से सबको बता करके खला विचार-विमर्श कराता है। अन्तिम रूप से सामूहिक निर्णय हेतु प्रत्येक समाधान पर मत डालकर बहुमत द्वारा निर्णय लिया जाता है। इस तकनीक का मुख्य लाभ पारस्परिक समझदारी एवं नेतृत्व के द्वारा निर्णय की गुणवत्ता में वृद्धि है, परन्तु, कभी-कभी सदस्यों के आपसी मतभेद सामूहिक निर्णय को दोषपूर्ण बना देते हैं।

Decision Making Concepts Process

निर्णयन के सिद्धान्त

(PRINCIPLES OF DECISION-MAKING)

निर्णयन कोई सरल कार्य नहीं है। वर्तमान युग की जटिलताओं तथा परिवर्तनशील परिस्थितियों ने इस कार्य को और भी अधिक कठिन बना दिया है। अत: उचित निर्णयों के लिए हमारे निर्णय कुछ ठोस व निश्चित सिद्धान्तों पर आधारित होने चाहिएँ। निर्णयन के कुछ प्रमुख सिद्धान्त निम्नलिखित

1 मानवोचित व्यवहार का सिद्धान्त (Principle of Reasonable Human Behaviour)प्रबन्धक को निर्णय लेते समय ‘मानवोचित व्यवहार का सिद्धान्त’ सदैव ध्यान में रखना चाहिए तभी। वह समस्याओं का सही ढंग से विश्लेषण करके उचित समाधान खोज सकेगा। इस सिद्धान्त का स्पष्ट आशय यह है कि प्रत्येक व्यक्ति पहले मानव है और उसके बाद कर्मचारी। मानव होने के नाते वह सामान्यत: उचित प्रकार से व्यवहार करता है तथा यह आशा करता है कि अन्य व्यक्ति साथ मानवता का व्यवहार करेंगे। यह सही है कि मनुष्य कब कैसा व्यवहार करेगा, कुछ नहा कहा जा सकता। यही कारण है कि मनुष्यों के व्यवहार के सम्बन्ध में कोई भी व्यक्ति सहा रूप स भावष्यवाणा नहा कर सकता। इसके बावजूद भी मानवोचित व्यवहार का सिद्धान्त यह मानकर चला है कि सामान्य दशाओं और यहाँ तक कि असामान्य दशाओं में भी एक व्यक्ति के व्यवहार के बार कुछ सीमा तक कुछ परिशुद्धता के साथ अनुमान लगाया जा सकता है। उदाहरण के लिए, यदि किसा योग्य व्यक्ति की उपेक्षा करके किसी अयोग्य व्यक्ति की पदोन्नति कर दी जाये अथवा कर्मचारिया क वेतन में कटौती करने एवं उनकी छंटनी करने के निर्णय लेते हैं. तो कर्मचारियों तथा श्रम संघ पर इसकी क्या प्रतिक्रिया होगी, इसका आसानी से अनमान लगाया जा सकता है। अत: प्रबन्धको का निर्णय लेते समय मानवतावादी दृष्टिकोण अपनाकर समस्या का समाधान इस प्रकार करना चाहिए जिससे कि उनके द्वारा लिये गये निर्णय की कोई भयंकर प्रतिक्रिया न हो। अत: समस्त निर्णय उचित व्यवहार के सिद्धान्त पर आधारित होने चाहिएँ।

2 व्यक्तिगत स्वार्थ का सिद्धान्त (Principle of Individual Self-interest)-निर्णयन का यह सिद्धान्त इस मान्यता पर आधारित है कि प्रत्येक प्रबन्धक को संस्था के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए आवश्यक निर्णय लेते समय कर्मचारियों के व्यक्तिगत स्वार्थ, उनके उद्देश्यों व हितों का भी ध्यान रखना चाहिए। कुछ व्यक्ति आर्थिक हितों को अधिक महत्व देते हैं, जबकि अनेक व्यक्ति पैसे की अपेक्षा अमौद्रिक हितों को प्राथमिकता देते हैं।

3.सीमित घटक का सिद्धान्त (Principle of Limiting Factor)-यह सिद्धान्त इस बात पर जोर देता है कि एक प्रबन्धक को निर्णय लेते समय सर्वप्रथम उन घटकों को जो इच्छित लक्ष्यों की प्राप्ति में सीमाकारी (Limiting) हैं, पहचान लेना चाहिए और तत्पश्चात् उनके समाधान हेतु आवश्यक कार्यवाही करनी चाहिए। साधनों की अपर्याप्तता, कर्मचारियों की सीमित कार्यकुशलता, सरकारी नीतियों का प्रबन्धन, श्रमिक संगठनों के साथ किये गये समझौते, आदि को सीमाकारी घटकों में सम्मिलित किया जा सकता है। अतः निर्णय लेते समय प्रबन्धक को इन सीमित घटकों को ध्यान में रखना चाहिए।

Decision Making Concepts Process

4. गतिशीलता का सिद्धान्त (Principle of Dynamics)-परिवर्तन प्रकृति का नियम है। आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक सभी क्षेत्रों में निरन्तर परिवर्तन होते रहते हैं। इन परिवर्तनों का प्रभाव व्यवसाय एवं उद्योग के क्षेत्रों में भी पड़ता है। परिस्थितियों में परिवर्तन के साथ-साथ संस्था के उद्देश्यों, लक्ष्यों, कर्मचारियों की मनोवृत्ति, श्रम संघों की मनोवृत्ति, माँग एवं पूर्ति की स्थिति, राजकीय नीति, प्रतिस्पर्धा की स्थिति में भी परिवर्तन होता रहता है। अतः प्रबन्धक को इन सभी परिस्थितियों को ध्यान में रखकर ही निर्णय लेना चाहिए।

5. समय का सिद्धान्त (Principle of Timing)-यह सिद्धान्त इस तथ्य पर आधारित है कि यदि निर्णयों को समय पर न लिया जाये तो लाभ के अवसर हाथ से निकल जाते हैं। इसलिए प्रबन्धकों को माल के क्रय करने, विक्रय करने, उत्पादन करने, कर्मचारियों की नियुक्ति करने, आदि से सम्बन्धित निर्णयों को लेते समय इस सिद्धान्त का अवश्य पालन करना चाहिए। ऐसा निर्णय कोई महत्व नहीं रखता जो समयानुकूल न हो।

6. आनुपातिकता का सिद्धान्त (Principle of Proportion)—प्रत्येक प्रबन्धक के पास उत्पादन के साधन सीमित होते हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार, सीमित साधनों से अधिकतम परिणामों की प्राप्ति के लिए उपलब्ध साधनों का आनुपातिक संयोजन होना चाहिए। इससे साधनों के दुरुपयोग को रोकने में भी सहायता मिलती है। वस्तुत: यह सिद्धान्त निर्णयन के क्षेत्र में सर्वोत्तम विकल्प के चयन में मार्गदर्शन का कार्य करता है।

Decision Making Concepts Process

निर्णयन की प्रक्रिया

PROCESS OF DECISION-MAKING)

निर्णयन की प्रक्रिया को निम्नलिखित दो भागों में विभक्त किया जा सकता है

(I) परम्परागत प्रक्रिया (Traditional Process)–निर्णयन की यह प्रक्रिया लक्षणात्मक निदान के ढंग (Method of Symptomatic Method of Symptomatic Diagnosis) पर आधारित है। जिस प्रकार प्राचीन समय में चिकित्सक अपने अनुभव और सहजबुद्धि (Experience and Intuition) के आधार पर रोगों के कुछ त लक्षण ज्ञात करके उनके आधार पर इलाज किया करते थे. ठीक उसी प्रकार व्यावसायिक प्रबन्धक अपने पूर्व अनुभवों के आधार पर ही सम्बन्धित प्रबन्धकीय समस्या को हल करने का 70 ल लत हैं। परम्परागत विधि के अनसार जो भी निर्णय लिये जाते हैं वे प्रबन्धकों के सीमित ज्ञान, अनुभव एवं अनुमान पर ही आधारित होते हैं। ।

II वैज्ञानिक एवं विवेकपूर्ण प्रक्रिया (Scientific and Rational Process)-निर्णय को। नक प्रक्रिया के अन्तर्गत प्रबन्धक निर्णय लेने में जल्दबाजी नहीं करते, वरन् एक निाश्चत क्रम से निर्णय तक पहुँचते हैं।

यद्यपि विभिन्न विद्वानों ने निर्णयन प्रक्रिया के विभिन्न चरणों का वर्णन किया है, परन्तु सार रूप में निर्णयन प्रक्रिया के प्रमख कदम निम्नलिखित हैं

1 समस्या की व्याख्या करना (Defining the Problem)-निर्णय लेने की वैज्ञानिक प्रक्रिया म सबसे पहला कदम समस्या के स्वरूप को समझना होता है। समस्या के स्वरूप तथा उसकी प्रकृति को समझे बिना उसके बारे में निर्णय कर लेना उसी भाँति हानिकारक सिद्ध हो सकता है जिस प्रकार किसी डॉक्टर द्वारा बिना रोग पहचाने दवा दे देना। जिस प्रकार एक बीमारी का भली प्रकार परीक्षण उसका आधा निदान माना जाता है, ठीक उसी प्रकार समस्या को भली प्रकार समझना भी उसके सही समाधान की ओर अग्रसर होना है। अत: यह कहा जा सकता है कि निर्णयन-प्रक्रिया के इस कदम पर समस्या को सही-सही रूप में समझना चाहिए।

उदाहरण के लिए, यदि किसी कम्पनी में कुल विक्रय की मात्रा गिरने लगे तो स्पष्टत: इसका बाहरी कारण उच्च विक्रय मूल्य ही समझा जायेगा, क्योंकि माँग के नियम के अनुसार मूल्य ऊँचे होने पर ही माँग गिरती है, परन्तु विक्रय में कमी का कारण वस्तु की किस्म में गिरावट या विक्रय प्रयासों में शिथिलता भी हो सकती है। समस्या के वास्तविक स्वरूप को समझे बिना यदि प्रबन्धकगण विक्रय-वृद्धि हेतु वस्तु-मूल्य घटाने का निर्णय ले लेते हैं तो लाभ के स्थान पर हानि की आशंका हो सकती है। अत: निर्णय लेने की वैज्ञानिक पद्धति के अनुसार पहले प्रबन्धकों को समस्या के सही स्वरूप को समझने का प्रयास करना चाहिए।

2. समस्या का विश्लेषण करना (Analysing the Problem)-समस्या के स्वरूप को निर्धारित करने के बाद दूसरा कदम समस्या का गहन विश्लेषण करना होता है। समस्या का विश्लेषण निम्न तथ्यों की जानकारी के लिए किया जाता है-(i) निर्णय किसे लेना है?; (ii) निर्णय लेने हेतु किन-किन व्यक्तियों से परामर्श लेना है?; (iii) निर्णय किस तरह लेना है?; (iv) निर्णय लेने के लिए किन सूचनाओं की आवश्यकता होगी?; (v) निर्णय लेने के उपरान्त उसकी सूचना किन-किन को देनी है? आदि।

Decision Making Concepts Process

निर्णय-प्रक्रिया के इस स्तर पर उपर्युक्त उद्देश्यों की पूर्ति हेतु समस्या को अनेक छोटे-छोटे हिस्सों में विभाजित किया जाता है और प्रत्येक भाग का व्यापक अध्ययन किया जाता है। किसी समस्या के विश्लेषण में समस्त सम्बन्धित तथ्यों की प्राप्ति पर अधिक बल नहीं देना चाहिए, जो तथ्य उपलब्ध न हों, उनके सम्बन्ध में अनुमान से काम लेना चाहिए।

3. सम्भावित विकल्पों का निर्धारण एवं विकास करना (Determining and Developing Possible Alternatives)-निर्णय प्रक्रिया के तीसरे चरण पर सम्भावित विकल्पों का निर्धारण एवं विकास का कार्य किया जाता है। किसी समस्या का एक समाधान न होकर अनेक समाधान हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, यदि किसी उपक्रम में घिसी हुई तथा अप्रचलित मशीनरी के प्रयोग कारण विक्रय की मात्रा निरन्तर घटती जा रही है, तो ऐसी परिस्थिति का सामना करने के लिए अनेक वैकल्पिक हल हो सकते हैं। जैसे—(i) पुराने संयन्त्रों को प्रतिस्थापित करके नवीन व आधानिक संयन्त्रों को उपयोग में लाना, (ii) किसी अन्य निर्माता को (जहाँ आधुनिकतम मशीनें लगी हों) निज के लिए उत्पादन का ठेका देना. GO उत्पादन कार्य को पर्णतः स्थगित कर देना, आदि। अतएव सर्वोत्तम समाधान की प्राप्ति के लिए जितने भी विकल्प सम्भव हो सकते हैं, उन्हें मालूम किया जाना चाहिए, परन्तु किसी भी समस्या के समस्त वैकल्पिक हलों पर विचार करना न तो सम्भव ही है आर न व्यावहारिक ही। अत: इस सम्बन्ध में ‘सीमितता के घटक सिद्धान्त’ का पालन करना चाहिए।

4. वैकल्पिक समाधानों का मल्यांकन करना (Evaluation of Alternative Solutions)-निर्णय-प्रक्रिया के इस चरण में किसी समस्या के वैकल्पिक समाधानों का विभिन्न दष्टिकोणों से मूल्यांकन किया जाता है। इस स्तर पर वास्तव में प्रबन्ध यह देखता है और पूर्वानुमान करता है कि यदि किसी विकल्प विशेष को काम में लिया जाये तो उसके ये परिणाम होंगे। उस पर इतना खर्च होगा। उसके लिए इतने श्रमिकों की आवश्यकता होगी। उसके लिए इतनी पूँजी की जरूरत होगी। उस पर क्या सरकारी प्रतिबन्ध हैं। उसके लिए किन साधनों व सूचनाओं की आवश्यकता होगी और प्रतिस्पर्धी अमुक कदम उठायेंगे। संक्षेप में, निर्णय प्रक्रिया के इस चरण पर प्रत्येक वैकल्पिक समाधान को लागू करने से उत्पन्न प्रभावों का अध्ययन किया जाता है। वैकल्पिक समाधानों के मुल्यांकन का कार्य एक जटिल कार्य है। अत: यह कार्य समस्या की व्याख्या और विश्लेषण करने वाले योग्य एवं अनुभवी व्यक्तियों को ही सौंपा जाना चाहिए।

5. सर्वश्रेष्ठ हल या विकल्प का चयन करना (Selection of the Best Solution) – निर्णयन-प्रक्रिया के इस चरण पर विभिन्न विकल्पों में से सर्वश्रेष्ठ विकल्प का चुनाव किया जाता है। सामान्यतया सर्वश्रेष्ठ विकल्प उसे माना जाता है जो सभी दृष्टि से व्यावहारिक, स्वीकार्य एवं संस्था के लक्ष्यों की पूर्ति में सहायक होता है। आर० एस० डावर के अनुसार सर्वश्रेष्ठ विकल्प का चयन करने हेतु निम्नलिखित प्रमापों या आधारों का प्रयोग किया जा सकता है

Decision Making Concepts Process

(i) जोखिम (Risk)-सर्वश्रेष्ठ विकल्प का चयन करते समय निर्णयकर्ता को प्रत्येक विकल्प के प्रत्याशित लाभों की तुलना में उस विकल्प से सम्बन्धित जोखिमों का मूल्यांकन करना चाहिए। यह ध्यान रखने योग्य है कि प्रत्येक विकल्प में ‘अपेक्षित लाभ’ (Expected Gain) या ‘प्रत्याशित जोखिम’ (Anticipated Risk) स्वयं में महत्वपूर्ण नहीं होते, वरन् अपेक्षित लाभ एवं प्रत्याशित जोखिम दोनों के मध्य का अनुपात महत्वपूर्ण होता है।

(ii) प्रयास की मितव्ययिता (Economy of Effort)-सामान्यतः ऐसे समाधान का चयन किया जाना चाहिए जिसमें न्यूनतम प्रयत्नों से अधिकतम परिणाम प्राप्त किये जा सकें।

(iii) समाप्ति दर (Cut-off-Rate)-समाधानों की संख्या में कमी करने के लिए समाप्ति दर का प्रयोग भी किया जा सकता है। उदाहरणार्थ, एक संस्था अपने साथ अन्य संस्थाओं को सम्मिलित करने के सम्बन्ध में निर्णय लेना चाहती है। इस निर्णय के उद्देश्य से यह संस्था की एक समाप्ति दर निश्चित कर लेती है अर्थात् ऐसी संस्था को सम्मिलित नहीं किया जाएगा, जो करों की अदायगी के पश्चात् 10% या इससे कम शुद्ध लार्भाजन करती हो। ऐसी दशा में निर्णय लेते समय वे संस्थाएँ स्वतः ही विचार- क्षेत्र से पृथक् हो जाएँगी जो करों की अदायगी के पश्चात् 10% या इससे कम शुद्ध लाभार्जन करती हों।

(iv) समयानुकूलता (Timeliness)-प्रत्येक निर्णय किसी एक विभाग को ही प्रभावित नहीं करता, अपितु अनेक विभागों को प्रभावित करता है। अत: लिया जाने वाला निर्णय समयानुकूल होना चाहिए, ताकि इससे सम्बन्धित व्यक्तियों को उचित समय पर सूचित किया जा सके।

(v) बाह्य प्रभाव (External Effects)-वैकल्पिक समाधानों में से सर्वश्रेष्ठ का चयन करते समय इस बात पर भी पर्याप्त विचार करना लेना चाहिए कि लिए गए निर्णय का संस्था के बाहर क्या प्रभाव होगा।

(vi) संसाधनों की सीमा (Limitations of Resources)-र्वश्रेष्ठ विकल्प वित्तीय संसाधनों की सीमा के भीतर होना चाहिए। साथ ही, वह कर्मचारियों की कार्यक्षमता, योग्यता, कौशल, दृष्टि एवं समझ के अनुकूल होना चाहिए।

वैकल्पिक समाधानों में से सर्वश्रेष्ठ विकल्प का चुनाव करते समय निम्नलिखित विधियों का। प्रयोग किया जा सकता है

() अनुभव (Experience);

() प्रयोग (Experiments);

() अनुसन्धान एवं विश्लेषण (Research and Analysis)

Decision Making Concepts Process

6. निर्णय को क्रियान्वित करना (Implementing the Decision)-आधुनिक समय में निणय को कार्यान्वित करना और उसका अनसरण करना भी निर्णय-प्रक्रिया का एक आवश्यक अंग माना जाने लगा है। कोई भी निर्णय उसी दशा में सफलतापूर्वक कार्यान्वित किया जा सकता है, जबाक सभी सम्बन्धित व्यक्ति उसे अपना निर्णय समझें। इसके लिए यह आवश्यक है कि निर्णय से। प्रभावित होने वाले व्यक्तियों को भी निर्णय प्रक्रिया में भागीदार बनाया जाये। ऐसा करने से लिया गया निर्णय सम्बन्धित व्यक्तियों की आलोचना का विषय नहीं बन पाता, अपितु उनमें उत्तरदायित्व की भावना का विकास करता है।

निर्णयन प्रक्रिया किसी समस्या पर निर्णय लेने और उसे लागू कर देने से ही समाप्त नहीं हो। जाती, अपितु निर्णय के प्रभावों की जानकारी तक विस्तृत होती है। यदि निर्णय को लागू करने पर यह। महसूस किया जाता है कि लिया गया निर्णय गलत एवं अव्यावहारिक है, तो प्रबन्धकों को समस्या पर पुनः विचार करना चाहिए और निर्णय में आवश्यक संशोधन करना चाहिए। गलत निर्णय पर पुन: विचार करके उसमें आवश्यक संशोधन करना प्रबन्धकों की प्रतिष्ठा में कोई कमी नहीं करता, अपितु उनकी बुद्धिमता का परिचायक होता है। संक्षेप में, निर्णय को क्रियान्वित करने हेतु निम्न प्रक्रिया अपनानी होती है

(i) निर्णय की सूचना उन कर्मचारियों को दी जानी चाहिए जिनको कि इसे क्रियान्वित करना

(ii) क्रियान्वयन हेतु आवश्यक साधन उपलब्ध कराये जाने चाहिएँ।

(iii) निर्णय के क्रियान्वयन पर निरन्तर दृष्टि रखनी चाहिए तथा समय-समय पर प्रगति का मूल्यांकन करते रहना चाहिए।

(iv) निर्णय गलत एवं अव्यावहारिक होने की दशा में प्रबन्धकों को समस्या पर पुनः विचार करना चाहिए और निर्णय में आवश्यक संशोधन करना चाहिए।

Decision Making Concepts Process

विवेकशीलता एवं निर्णयन

(Rationality and Decision-making)

विवेकपूर्ण निर्णय का अर्थ एवं परिभाषा (Meaning and Definition of Rational Decision)-व्यवस्थित, तर्कपूर्ण, समग्र ज्ञान एवं जानकारी के आधार पर लिये गये निर्णय विवेकपूर्ण निर्णय कहलाते हैं। दूसरे शब्दों में, वस्तुनिष्ठ ढंग से लिया गया निर्णय जो सीमित संसाधनों से इच्छित लक्ष्यों की प्राप्ति में सहायक होता है, विवेकपूर्ण निर्णय कहलाता है।

स्टीनर (Steiner) के अनुसार, “विवेकपूर्ण व्यावसायिक निर्णय वह हैं जो उन लक्ष्यों की प्रभावपूर्ण एवं दक्षतापूर्ण प्राप्ति को सुनिश्चित करते हैं जिनके लिए संसाधनों का चयन किया गया है।”

हर्बर्ट साइमन के अनुसार, “किसी भी प्रशासनिक निर्णय का सही होना एक सापेक्षिक बात है-यह तभी औचित्यपूर्ण होता है, जबकि यह अपने निर्धारित लक्ष्यों की पूर्ति के लिए उपयुक्त साधनों का चुनाव करता है।”

निष्कर्षविवेकपूर्ण निर्णय से आशय उपलब्ध संसाधनों एवं सीमाओं के अन्तर्गत व्यवस्थित, तर्कपूर्ण ढंग से तथा पूर्ण जानकारी के आधार पर सम्यक निर्णय-प्रक्रिया के द्वारा लिये गये निर्णय स

पूर्ण विवेकशील निर्णयन की मान्यताएँ/शर्ते

(Assumptions/Conditions of Perfect Rational Decision)

कोई भी निर्णय तभी पूर्ण विवेकशील माना जायेगा. जबकि वह निम्नलिखित मान्यताओं/शता को पूरा करता हो

1 जब निर्णयकर्ता की सोच पूरी तरह से तर्कपूर्ण हो।

2. सम्बन्धित निर्णय पूर्ण तथ्यों पर आधारित एवं सत्यता की जाँच करने के बाद लिया गया

3. जब निर्णयकर्त्ता पूर्णतः निष्पक्ष हो तथा वह भावनाओं एवं किसी व्यक्ति के प्रभाव से प्रेरित न हो।

4. जब निर्णयकर्ता के पास निर्णय से सम्बन्धित सभी सूचनाएँ पूर्ण रूप से उपलब्ध हों।

5. निर्णयकर्ता को निर्णयन से सम्बन्धित समस्या की पूर्ण एवं स्पष्ट जानकारी हो।

6. निर्णयकर्ता को लक्ष्यों की पूर्ण एवं स्पष्ट जानकारी हो।

7. निर्णयकर्ता को समस्या के सभी सम्भव विकल्पों की पूर्ण जानकारी होने के साथ-साथ उक्त विकल्पों के सम्भावित परिणामों एवं प्रभावों की भी जानकारी होनी चाहिए।

8. निर्णयकर्ता को विभिन्न विकल्पों के वरीयता क्रम की जानकारी हो।

9. पर्याप्त समय एवं वांछित संसाधन पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हों।।

10. उक्त निर्णय से अधिकतम लाभ या मितव्ययी परिणाम प्राप्त होना चाहिए।

Decision Making Concepts Process

सीमित/परिबद्ध विवेकशीलता

(Bounded Rationality)

अथवा

पूर्ण विवेकशील निर्णयन की सीमाएँ

(Limitations of Perfect Rational Decision-making)

परम्परागत प्रबन्धशास्त्रियों के अनुसार प्रबन्धकीय निर्णय सर्वथा/पूर्ण विवेकपूर्ण होने चाहिएँ, परन्तु वास्तविक जगत में पूर्ण विवेकशीलता से निर्णय करना कठिन ही नहीं असम्भव विवेकशील निर्णयन की निम्नलिखित सीमाएँ हैं

1 ज्ञान का अभाव (Lack of Knowledge)-निर्णय लेने वाले को प्रायः समस्या से सम्बन्धित सभी तथ्यों की सम्पूर्ण जानकारी नहीं होती। इसलिए निर्णय लेने में विवेक प्रयोग करना सदैव सम्भव नहीं होता।

2. अनिश्चितता (Uncertainty)–निर्णय भविष्य के लिए किये जाते हैं एवं भविष्य अनिश्चित है तथा इसकी सही जानकारी नहीं होती। अत: निर्णय लेते समय अनुमान लगाना पड़ता है तथा मान्यताओं (Assumptions) का प्रयोग किया जाता है जो शत-प्रतिशत सही नहीं होते।

3. समय की कमी (Shortage of Time)-प्रबन्धकों को अनेक बार तुरन्त निर्णय लेने पड़ते हैं। आँकड़े इकट्ठे करना तथा जाँच पड़ताल करने के लिए पर्याप्त समय नहीं होता। समय के अभाव में विवेक के अतिरिक्त व्यक्तिगत सोच का सहारा लेना पड़ता है।

4. लागत की सीमा (Cost Constraint)-कुछ निर्णय ऐसे होते हैं कि उनके लिए तथ्य एकत्रित करने आदि में काफी व्यय होता है। व्यय को कम करने के लिए विस्तृत जाँच-पड़ताल नहीं की जाती तथा निर्णय पूरी तरह तर्कसंगत नहीं होते।

5. मानवीय कमजोरी (Human Limitations)–निर्णय लेने वाला व्यक्ति प्राय: अपने दृष्टिकोण तथा स्वार्थ को महत्व देता है। वह पूरी तरह भेदभाव रहित नहीं होता। उसका स्वार्थ व दृष्टिकोण उसके विवेक को प्रभावित करते हैं।

Decision Making Concepts Process

उपरोक्त सीमाओं के विवेचन से स्पष्ट होता है कि पर्ण विवेकशील निर्णय का आदर्श अनक सामाआ से घिरा हुआ है। अतः वास्तविक जीवन में सीमित/परिबद्ध विवेकशीलता (Bounded Rationality) के आधार पर ही निर्णय किये जा सकते हैं। हरबर्ट साइमन के अनुसार, पूर्ण विवकील निर्णयन सदा सम्भव नहीं है. वास्तव में प्रबन्धक सन्तोषप्रद (Satisficing) IT न कि अधिकात्मक Maximising) निर्णय। साइमन के अनुसार, काई । सामित/परिबद्ध विवेकशीलता के आधार पर ही कार्य कर सकता है।

सीमित/परिबद्ध विवेकशीलता से आशय है कि

(i) निर्णय सदैव समस्या स्थिति की प्रकृति की अपूर्ण एवं अपर्याप्त समझ पर आधारित होंगे।

(ii) समस्त सम्भावित वैकल्पिक समाधानों की खोज सम्भव नहीं हो सकेगी।

(iii) विकल्पों का मूल्यांकन सदैव अपूर्ण होगा, क्योंकि प्रत्येक विकल्प के सभी सम्भावित परिणामों का पूर्वानुमान कर सकना सम्भव नहीं होता है।

(iv) अन्तिम निर्णय किसी ‘मापदण्ड पर आधारित होगा, लाभ के अधिकाधिकरण पर नहीं। क्योंकि यह निर्धारण करना असम्भव होता है कि कौन-सा विकल्प ‘श्रेष्ठ है।

हरबर्ट साइमन के अनुसार, हमारा वास्तविक निर्णयन व्यवहार उतना विवेकपूर्ण नहीं होता है। जितना हम मान लेते हैं।

कुण्ट्ज एवं डोनेल (Koontz and O’Donnell) के अनुसार, “प्रबन्धक को सीमित विवेक से कार्य करना चाहिए। इसको ‘चारदीवारी वाला विवेक’ भी कहते हैं अर्थात् अपनी सीमा में सीमित रहने वाला विवेक। व्यवहार में पूर्ण विवेक के लिए अत्यधिक सीमाएँ लगाई हुई हैं इस कारण यह आश्चर्य की बात नहीं होगी, यदि प्रबन्धक कभी-कभी जोखिम की नापसन्दगी बिना जोखिम के कार्य करने के सिद्धान्त का श्रेष्ठ हल निकालने के लिए अनदेखा कर दे। हरबर्ट-ए-साइमन ने इसे “सैटिस-फिसिंग” (satisficing) शब्द से सम्बोधित किया है। इसका अर्थ दी हुई परिस्थितियों में ऐसा मार्ग बनाना जो संतोषजनक अर्थात् पर्याप्त रूप में उचित हो। यद्यपि यह सच है कि बहत से। प्रबन्धकीय निर्णय जहाँ तक हो सके जोखिम से बचकर चलाने की नीति से प्रेरित होते हैं फिर भी यह विश्वास किया जाता है कि बहुत-से प्रबन्धक विवेक की सीमाओं में रहकर तथा अनिश्चितता से। सम्बन्धित जोखिम की प्रकृति एवं आकार को ध्यान में रखते हुए श्रेष्ठ निर्णय लेने का प्रयास करते

प्रो० साइमन के अनुसार, “प्रशासनिक व्यक्ति का मुख्य सम्बन्ध मानवीय सामाजिक व्यवहार के विवेकपूर्ण एवं गैर-विवेकपूर्ण पहलुओं के मध्य सीमा रेखा से है।उनके अनुसार निर्णयन में मानवीय व्यवहार तो पूर्ण रूप से विवेकशील होता है और ही पूर्ण रूप से गैरविवेकशील, वरन यह सदैव ‘मर्यादित विवेकशील’ होता है। मानव मस्तिष्क की क्षमता सीमित होती है।

Decision Making Concepts Process

परीक्षा हेतु सम्भावित महत्वपूर्ण प्रश्न

(Expected Important Questions for Examination)

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

(Long Answer Questions)

प्रश्न 1. निर्णयन से आपका क्या आशय है ? निर्णय लेने के सिद्धान्तों एवं तकनीकों को समझाइये।

What do you mean by decision-making? Discuss the principles and techniques of decision-making ?

प्रश्न 2. “निर्णयन प्रबन्ध की कुंजी है।” विवेचना कीजिये। इसके महत्त्व को समझाइये।

*Decision making is the key of management.” Discuss. Explain its importance.

प्रश्न 3. निर्णयन से क्या आशय है ? निर्णयन का महत्त्व व तकनीकें बताइये।

Define decision making. Explain importance and techniques of decision making

प्रश्न 4. निर्णयन से आप क्या समझते हैं ? निर्णयन प्रक्रिया क्रम का वर्णन कीजिया

What do you mean by decisioning ? Describe the process of decisioning.

प्रश्न 5. निर्णय लेने की प्रक्रिया से आप क्या समझते हैं ? निर्णय प्रक्रिया में शामिल मुख्य चरणों अथवा अवस्थाओं का वर्णन कीजिये।

What do you understand by the process of decision making ? Discuss the main steps or stages in process of decision making.

प्रश्न 6. निर्णयन का क्या महत्त्व है ? इसकी विधि को विस्तार से समझाइये।

What is the significance of decision making ? Explain its procedure in detail.

प्रश्न 7. “निर्णयन कभी भी तर्कपरक नहीं हो सकता।” समीक्षा कीजिये।

“Decision-making can never be rational.” Comment.

प्रश्न 8. निर्णयन-प्रक्रिया में सन्निहित है—बौद्धिक क्रिया, प्रारूप क्रिया और चयन क्रिया।

The process of Decision-making consists of intelligence activity, Design activity and choice activity.

Decision Making Concepts Process

लघु उत्तरीय प्रश्न

(Short Answer Questions)

प्रश्न 1. निर्णयन से आप क्या समझते हैं ?

What do you mean by decision-making ?

प्रश्न 2. निर्णयन में सम्मिलित प्रमुख चरणों को स्पष्ट कीजिये।

Explain the important steps involved in decision-making.

प्रश्न 3. निर्णयन के सिद्धान्तों को समझाइये।

Explain the principles of Decision-making.

प्रश्न 4. विवेकपूर्ण निर्णय क्या है ?

What is rationale decision making ?

प्रश्न 5. परिबद्ध विवेकशीलता क्या है ?

What is bounded rationality ?

प्रश्न 6. “निर्णयन प्रबन्ध का सार है समीक्षा कीजिये।

“Decision making is the essence of management.” Comment.

Decision Making Concepts Process

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

(Objective Type Questions)

1. बताइये कि निम्नलिखित वक्तव्य ‘सही हैं’ या ‘गलत’

State whether the following statements are ‘True’ or ‘False

(i) निर्णयन तथा निर्णय दोनों एक ही हैं।

Decision making and decision both are same.

(ii) वास्तविक जगत में पूर्ण विवेकशीलता से निर्णय करना कठिन है।

In real world, perfect rational decision is typical.

(iii) परिसीमित परिबद्धता हरबर्ट ए साइमन की देन है।

Bounded rationality has been given by Herbert A. Simon.

(iv) प्रबन्ध निर्णयन की प्रक्रिया है।

Management is the process of decision making.

उत्तर-(i) गलत (ii) सही (iii) सही (iv) सही

सही उत्तर चुनिये (Select the Correct Answer)

(i) “अन्य विकल्पों के मध्य से एक विशिष्ट क्रियापथ के चयन की प्रक्रिया निर्णयन है।” यह कथन किसका है ? “

Decision is the selection of specify activity among other options ?” Whose statement is this?

(अ) व्हीलर (Wheeler)

(ब) जार्ज टैरी (George Terry)

(स) आर० एस० डावर (R. S. Davar)

(द) उपरोक्त में से कोई नहीं (None of above)

(ii) परिसीमित विवेकता की अवधारणा देन है

The concept of bounded rationality has been given by

(अ) जार्ज आर० टैरी (George R. Terry)

(ब) पीटर एफ० ड्रकर (Peter E. Drucker)

(स) हरबर्ट साइमन (Herbert Simon)

(द) आर० एस० डावर (R. S. Davar)

उत्तर-(i) (ब) (ii) (स)

Decision Making Concepts Process

chetansati

Admin

https://gurujionlinestudy.com

Leave a Reply

Your email address will not be published.

Previous Story

BCom 2nd Year Principles Business management Planning Concepts Types Process Notes in Hindi

Next Story

BCom 2nd Year Principles Business Management Objectives Study Material Notes in Hindi

Latest from BCom 2nd year Principles Business Management Notes