BCom 2nd Year Public Finance Deficit Financing Study Material Notes In Hindi

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BCom 2nd Year Public Finance Deficit Financing Study Material Notes In Hindi

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BCom 2nd Year Public Finance Deficit Financing Study Material Notes In Hindi:  Meaning  of Deficit Financing Difference Between Deficit Budget and Deficit Financing Effects of Deficit Financing Is Deficit Financing Necessary for Economic Development  Is Deficit Financing Essentially Inflationary Limitations of Deficit Financing in India Important Examination Questions :

 Deficit Financing Study Material
Deficit Financing Study Material

BCom 2nd Year Public Finance Government Budget Study Material Notes In Hindi

घाटे की वित्त व्यवस्था या हीनार्थ प्रबन्धन

[Deficit Financing]

“हीनार्थ प्रबन्धन अथवा घाटे की वित्त व्यवस्था शब्द का प्रयोग बजटीय घाटों द्वारा कुल राष्ट्रीय व्यय में स्पष्ट वृद्धि दर्शाने के लिए किया जाता है; चाहे वह घाटा चालू राजस्व पर हो अथवा पूँजी खातों पर। इसलिए इस नीति का सारांश सरकारी व्यय की सरकारी आय से अधिकता में निहित है जो आय सरकार करों, सार्वजनिक उपक्रमों के लाभ, सार्वजनिक ऋण (आन्तरिक), जमा खातों, कोषों तथा फुटकर साधनों से प्राप्त करती है। सरकार इन घाटों को अपने संचित कोष के प्रयोग से अथवा बैंक व्यवस्था से उधार लेकर (मुख्य रूप से देश के केन्द्रीय बैंक तथा इस प्रकार नई मुद्रा का निर्माण करके) पूरा करती है।”

भारतीय योजना आयोग

हीनार्थ प्रबन्धन वर्तमान सदी की देन है। प्रारम्भ में हीनार्थ प्रबन्धन का प्रयोग मन्दीकाल में गिरते हुए उत्पादन को उठाने व रोजगार की दशाओं में सुधार करने के लिए किया जाता था। विश्वव्यापी मन्दी (1930) में इसका प्रयोग विश्व की विकसित अर्थव्यवस्थाओं ने किया। वर्तमान में इसका प्रयोग अविकसित देशों द्वारा देश की आर्थिक स्थिति को सुधारने एवं आर्थिक विकास के लिए किया जाता है। पाश्चात्य देशों में बजट में वित्त के अभाव को या घाटे को पूरा करने के लिए लिया गया ऋण ही हीनार्थ प्रबन्धन माना जाता है। भारत जैसे लोकतान्त्रिक देश में हीनार्थ प्रबन्धन का महत्त्व बहुत बढ़ गया है। पिछले दशकों में इसमें निरन्तर वृद्धि हुई है जिसके कारण इसका महत्व बढ़ता जा रहा है।

Deficit Financing Notes

हीनार्थ प्रबन्धन का अर्थ

(Meaning of Deficit Financing)

सरल शब्दों में, हीनार्थ प्रबन्धन अथवा घाटे की वित्त व्यवस्था एक ऐसी स्थिति है जिसमें सरकार का व्यय उसकी आय की तुलना में अधिक होता है और सरकार इस घाटे की पूर्ति करने के लिए ऋण लेती है चाहे वह ऋण जनता से लिया जाये (आन्तरिक ऋण) या केन्द्रीय बैंक से अथवा नई मुद्रा छापकर उसकी पूर्ति की जाये। इस सम्बन्ध में निम्नलिखित दो विचारधाराएँ हैं

1 पाश्चात्य दृष्टिकोण (Western Concept)-अधिकांश पश्चिमी देशों में जब कभी सरकार का व्यय उसकी आय से अधिक हो जाता है तो बैंकों तथा जनता से ऋण लेकर इस घाटे की पूर्ति की जाती है। इस विधि को हीनार्थ प्रबन्धन कहते हैं। डा० के० के० शर्मा के अनुसार “पश्चिमी देशों में राजस्व प्राप्तियों की तुलना में सरकार द्वारा किये गये व्यय की अधिकता को जिसमें कि पूँजीगत व्यय भी सम्मिलित है, घाटे की वित्त व्यवस्था कहा जाता है, भले ही उस व्यय की पूर्ति ऋण द्वारा उपलब्ध प्राप्तियों से की गई हो।”

2. भारतीय दृष्टिकोण (Indian Concept)-भारत में घाटे की वित्त व्यवस्था से तात्पर्य है कि सरकार बजट के घाटे को अधिक नोट छापकर अथवा केन्द्रीय बैंक से ऋण लेकर पूरा करे। दोनों ही दशाओं में देश में मुद्रा की मात्रा में वृद्धि होती है। इस आधार पर हीनार्थ प्रबन्धन की मुख्य परिभाषाएँ निम्न हैं

(i) डॉ० वी० के० आर० वी० राव के अनुसार, “जब सरकार जानबूझ कर किसी उद्देश्य से अधिक व्यय करे और अपने घाटे की पूर्ति ऐसी विधि से करे जिससे देश में मुद्रा की मात्रा बढ़े तो इसे हीनार्थ प्रबन्धन कहते हैं।”2

(ii) योजना आयोग के अनुसार, “हीनार्थ प्रबन्धन शब्द का उपयोग बजट के घाटे द्वारा सकल राष्ट्रीय व्यय में प्रत्यक्ष वृद्धि से किया जाता है, चाहे यह आयगत कमी हो या पूँजीगत खाते से हो।

इस प्रकार घाटे की वित्त व्यवस्था का प्रयोग तब होता है जब सरकार अपनी आय से अधिक व्यय करती है जो उसे करों, राजस्व के अन्य साधनों, जनता से ऋणों, बैंकों से उधार तथा नकद कोषों को खर्च करके प्राप्त होती है।

Deficit Financing Notes

घाटे के बजट एवं घाटे की वित्त व्यवस्था में अन्तर

(Difference between Deficit Budget and Deficit Financing)

जब किसी देश के बजट में चालू आय की अपेक्षा व्यय अधिक दिखाया जाता है तो उसे घाटे का बजट कहते हैं। इसके विपरीत जब सरकार इस घाटे को पूरा करने के लिए किसी भी विधि (ऋण लेकर, संचित कोषों का प्रयोग करके या नोट छापकर) को अपनाती है तो उसे घाटे की वित्त व्यवस्था कहा जाता

घाटे का बजट = (कुल व्यय + ऋण का पुनर्भुगतान तथा जनता को दिया गया अग्रिम) – (कर

राजस्व + जनता से ऋण और जमाएँ)

हीनार्थ प्रबन्धन के उद्देश्य

(Objectives of Deficit Financing)

घाटे की वित्त-व्यवस्था के उद्देश्यों को मोटे तौर से दो भागों में बाँटा जा सकता है जैसा कि चार्ट में दर्शाया गया है

घाटे की वित्तव्यवस्था के उद्देश्य

 (I) परम्परागत या मौलिक उद्देश्य                   (II) आधुनिक उद्देश्य

                                                           (आर्थिक विकास में सहायक)

मन्दी को दूर करना                                                भौतिक साधनों का पूर्ण उपयोग

युद्ध की वित्त व्यवस्था के लिए                               उपभोग स्तर में कमी

निजी विनियोग की कमी को पूरा करने के लिए    तरलता पसन्दगी में वृद्धि

अर्थव्यवस्था का अमौद्रिक क्षेत्र

(I) परम्परागत या मौलिक उद्देश्य (Traditional or Basic Objectives)

ये उद्देश्य निम्नलिखित हैं

Deficit Financing Notes

(1) मन्दीकाल को दूर करना (To Counter Depression)-प्रत्येक देश में व्यापार-चक्र क्रियाशील रहते हैं। मन्दी की अवस्था में कुल प्रभावपूर्ण माँग में कमी, उत्पादन में गिरावट, विनियोग की कमी तथा बेरोजगारी आदि स्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। घाटे की वित्त-व्यवस्था मन्दी को दूर करने में सहायक होती है।

मन्दी के प्रभाव को दूर करने के लिये घाटे की वित्त-व्यवस्था के दो स्वरूप हैं

() पम्प उपक्रामण (Pump Priming)-इसके अन्तर्गत अर्थव्यवस्था में मन्दी से उत्पन्न शिथिलता कोटर करने के लिए सार्वजनिक निर्माण कार्य आरम्भ किये जाते हैं। इसके फलस्वरूप रोजगार में वृद्धि होती है, प्रभावी माँग बढ़ती है तथा उत्पादन एवं राष्ट्रीय आय में वृद्धि होती है।

() चक्रीय हीनार्थ प्रबन्धन (Cyclical Deficit Financing)-इस उपाय का उद्देश्य व्यापार-चक्र की तीवता को कम करना होता है। इसके अन्तर्गत सरकार अपने व्यय में वृद्धि करती है और करों में छट देती है। कभी-कभी बेरोजगारी भत्ते भी दिये जाते हैं।

(2) युद्ध की वित्तीय व्यवस्था के लिए (For War Financing)-युद्ध के संचालन के लिए बड़े मैमाने पर मुद्रा की आवश्यकता पड़ती है। इस समय करारोपण से एकाएक आय प्राप्त नहीं हो सकती और अतिरिक्त करों को लगाना भी सम्भव नहीं होता। ऋणों से भी पर्याप्त आय प्राप्त नहीं हो पाती। ऐसी स्थति में युद्ध संचालन की वित्तीय व्यवस्था में हीनार्थ प्रबन्धन के अतिरिक्त सरकार के पास दूसरा साधन नहीं रह जाता।

(3) निजी निवेश को पूरा करने के लिए (To Supplement Private Investment)-अर्थव्यवस्था में निजी क्षेत्र का महत्वपूर्ण स्थान होता है। जब देश में निजी निवेश पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं होता तो सरकार घाटे की वित्त-व्यवस्था करके स्वयं सामान्य से अधिक व्यय करती है जिससे निजी निवेश की कमी दूर हो जाये, प्रभावपूर्ण माँग में वृद्धि हो और अर्थव्यवस्था को गति मिले।

(II) आधुनिक उद्देश्य (Modern Objectives)

आधुनिक समय में घाटे की वित्त-व्यवस्था का प्रमुख उद्देश्य आर्थिक विकास के लिए वित्त उपलब्ध करना है। आर्थिक विकास में घाटे की वित्त-व्यवस्था निम्न प्रकार से सहायक होती है

(1) भौतिक साधनों का पूर्ण उपयोग (Full Utilisation of Physical Resources)-विकासशील देशों में भौतिक साधन पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध रहते हैं जिनका उपयुक्त विदोहन पूँजी के अभाव के कारण नहीं हो पाता। हीनार्थ प्रबन्धन के द्वारा सरकार पर्याप्त धन प्राप्त कर लेती है जिसके माध्यम से उपर्युक्त संसाधनों का विवेकपूर्ण विदोहन संभव होता है, फलतः उत्पादन और रोजगार में वृद्धि होती है।

(2) उपभोग स्तर में कमी (Reduction in Consumption Level)-घाटे की वित्त-व्यवस्था से कीमतें बढ़ती हैं। फलस्वरूप लोगों के उपभोग स्तर में कमी होती है तथा वे बचत करने के लिए विवश हो जाते हैं। इन बचतों का प्रयोग निवेश बढ़ाने के लिए किया जाता है।

(3) तरलता पसन्दगी में वृद्धि (Increase in Liquidity Preference)-आर्थिक विकास के फलस्वरूप लोगों के जीवन-स्तर में वृद्धि होने से उनके द्वारा नकद कोष के रूप में तरलता पसन्दगी बढ़ जाती है तथा मुद्रा की माँग अधिक की जाने लगती है।

(4) अर्थव्यवस्था का अमौद्रिक क्षेत्र (Non-monetary Sector of Economy)-अल्प-विकसित देशों का अधिकांश क्षेत्र अमौद्रिक क्षेत्र होता है। विकास की गति के साथ ही यह अमौद्रिक क्षेत्र धीरे-धीरे मौद्रिक होने लगता है जिससे मुद्रा की माँग स्वतः ही बढ़ने लगती है।

विकासशील देशों में घाटे की वित्त-व्यवस्था की कार्यकुशलता आर्थिक विकास को बढ़ाने के एक साधन के रूप में निम्नलिखित घटकों पर निर्भर करती है

(i) घाटे की वित्त-व्यवस्था को अर्थव्यवस्था के सोखने या पोषक की शक्ति के अनुसार करना चाहिए।

(ii) घाटे की वित्त-व्यवस्था द्वारा होने वाली अनिवार्य बचतों से उपभोग में कमी आ जाने से जो संसाधन मुक्त हो जाते हैं, उनका उपयोग उच्च उत्पादक क्षेत्रों में किया जाना चाहिए जिससे राष्ट्रीय उत्पादन अधिकतम हो सकें।

 (iii) घाटे की वित्त-व्यवस्था की क्रियाओं के अन्तर्गत वास्तविक बचतों का अनुपात स्फीतिक प्रभाव के अन्तर्गत समाज द्वारा सहन किये गये वास्तविक कष्टों से अधिक होना चाहिए।

हीनार्थ प्रबन्धन के प्रभाव

(Effects of Deficit Financing)

अर्थव्यवस्था पर हीनार्थ प्रबन्ध के मुख्यतः निम्न प्रभाव पड़ते हैं

1 रोजगार में वृद्धि (Increase in Employment)-कीन्स ने मन्दीकाल में विकसित अर्थव्यवस्थाओं में अनैच्छिक बेरोजगारी को दूर करने के साधन के रूप में हीनार्थ प्रबन्धन का प्रयोग किया। हीनार्थ प्रबन्धन द्वारा अर्थव्यवस्था में अधिक क्रय शक्ति डाल दी जाती है जिससे माँग में वृद्धि होती है और परिणामस्वरूप उत्पादन में वृद्धि होती है। यद्यपि घाटे की वित्त व्यवस्था अल्पविकसित देशों में आर्थिक विकास के लिए बहुत महत्वपूर्ण मानी जाती है तब भी इसका प्रयोग एक सीमा तक ही किया जा सकता है, क्योंकि कुछ परिस्थितियों में इसका विपरीत प्रभाव भी पड़ता है।

2. आर्थिक विकास (Economic Development)-विकासशील देशों की सबसे बड़ी समस्या धन की होती है। अल्प-विकसित देशों में पूँजी की कमी, बचत का अभाव, अशिक्षा, अधिक जनसंख्या आदि से आर्थिक विकास रुक जाता है। इन देशों में प्राकृतिक संसाधन बहुत अधिक मात्रा में होते हैं परन्तु पुँजी के अभाव में इनका दोहन नहीं हो पाता। इसलिए इसके लिए धन की पूर्ति हीनार्थ प्रबन्धन के द्वारा की जाती है।

3.मूल्यस्तर (Price Level)-घाटे की वित्त व्यवस्था मूल्यों में वृद्धि करती है, क्योंकि घाटे की वित्त व्यवस्था से मद्रा की मात्रा में वृद्धि होती है तथा इसके परिणामस्वरूप माँग में वृद्धि हो जाती है। इससे एक ओर कीमतों में वृद्धि हो जाती है और जीवन-स्तर पहले से भी निम्न हो जाता है। मन्दीकाल में मल्य स्तर को ऊँचा करने में घाटे की वित्त व्यवस्था महत्त्वपूर्ण काम करती है।

4.मन्दीकाल में (During Depression)-मन्दी से निपटने का सबसे प्रभावशाली शस्त्र हीनार्थ प्रबन्धन है। घाटे की वित्त व्यवस्था द्वारा अर्थव्यवस्था में मुद्रा की मात्रा बढ़ा दी जाती है जिससे माँग में वृद्धि हो जाती है और इसके परिणामस्वरूप उद्योगों को उत्पादन बढ़ाने के लिए प्रोत्साहन मिलता है और उत्पादन में वद्धि होती है। यदि स्फीति की अवस्था में हीनार्थ प्रबन्धन किया जाता है तो इससे स्फीति की दशा में और अधिक बढ़ोतरी होती है। अतः स्फीति की दशा में हीनार्थ प्रबन्धन न करके स्फीति की परिस्थितियों को नियन्त्रित करना चाहिए।

5. धन का वितरण (Distribution of Wealth)-हीनार्थ प्रबन्धन से मूल्यों में वृद्धि होती है तथा उद्योगपतियों के लाभ में भी वृद्धि होती है तथा वे और अधिक उत्पादन करने के लिए प्रोत्साहित होते हैं, जबकि मूल्यों में वृद्धि से जनता की क्रयशक्ति घट जाती है जिससे उनकी वास्तविक आय कम हो जाती है। दूसरी ओर उत्पादकों एवं व्यापारियों की आय में वृद्धि होती है। परिणामस्वरूप धन के वितरण की असमानता में वृद्धि होती है।

6.प्रतिकूल भुगतान सन्तुलन (Adverse Balance of Payments)-मुद्रा प्रसार की स्थिति में देश के निर्यातों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है तथा दूसरी ओर मूल्यों में वृद्धि के कारण आयातों में वृद्धि होती है जिसके कारण देश का भुगतान सन्तुलन प्रभावित होता है।

क्या हीनार्थ प्रबन्धन आर्थिक विकास के लिए आवश्यक है?

(Is Deficit Financing Necessary for Economic Development?)

आधुनिक समय में अल्पविकसित अर्थव्यवस्थाओं का प्रमुख उद्देश्य आर्थिक विकास के लक्ष्य को प्राप्त करना है। इसलिए बड़ी-बड़ी योजनाओं का निर्माण करना पड़ता है। इन देशों में आय, बचत एवं पूँजी निर्माण का स्तर निम्न होता है। अतः आर्थिक नियोजन की आवश्यकता को देखते हुए देश में उपलब्ध वित्तीय साधन पर्याप्त नहीं होते। इसकी पूर्ति वह हीनार्थ प्रबन्धन की नीति अपनाकर करता है। अतः हीनार्थ प्रबन्धन आर्थिक विकास के लिए न केवल उपयोगी है, बल्कि आवश्यक भी है। यह विकास वित्त की एक शक्तिशाली तकनीक है और अल्प विकसित देशों में विकास वित्त के साधन के रूप में इस तकनीक का एक महत्वपूर्ण स्थान है। डॉ० वी० के० आर० वी० राव के अनुसार, “यद्यपि हीनार्थ प्रबन्धन का विकास युद्ध सम्बन्धी वित्त की कमी को पूरा करने के लिए किया गया था, परन्तु आधुनिक समय में इसका प्रयोग मुख्य रूप से आर्थिक विकास के लिए इच्छित धन की प्राप्ति के लिए अधिक किया जाने लगा है।“1 प्रो० हैरिस, के अनुसारनियोजन सदैव दुर्भाग्य का परिणाम होता है। और इस दुर्भाग्य को सौभाग्य में बदलने के लिए हीनार्थ प्रबन्धन एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है  ।

विकासशील देशों में हीनार्थ प्रबन्धन का प्रयोग, विकसित देशों की तुलना में अलग परिस्थितियों में किया जाता है। विकसित देशों में कुशल श्रम और पूँजी का प्रयोग करके उत्पादन तथा रोजगार में वृद्धि की जा सकती है, किन्तु विकासशील देशों में पूँजीगत साधनों और प्रशिक्षित श्रमिकों के अभाव में यह सम्भव है कि रोजगार में वृद्धि न होकर मुद्रा-प्रसार की स्थिति उत्पन्न हो जाये अतः इन देशों में हीनार्थ प्रबन्धन का प्रयोग बहुत-ही विवेकशील तथा सतर्कतापूर्वक करना चाहिए।

क्या हीनार्थ प्रबन्धन आवश्यक रूप से मुद्राप्रसार को जन्म देता है?

(Is Deficit Financing Essentially Inflationary ?)

यह सोचना गलत है कि हीनार्थ प्रबन्धन निश्चित रूप से मुद्रा प्रसार को जन्म देता है। निःसन्देह चलन में मुद्रा की मात्रा बढ़ने से मूल्य स्तर भी बढ़ जाता है, परन्तु प्रत्येक मूल्य वृद्धि मुद्रा प्रसार को जन्म नहीं देती है। भवतोष दत्त का मत है कि मुद्रा की पूर्ति में प्रत्येक वृद्धि स्फीतिजनक नहीं होती है। यदि उत्पत्ति में वांछित वृद्धि हो तो स्फीति का सृजन नहीं होता है। बजट घाटा समस्या उस समय बन जाता है, जबकि उत्पत्ति में योजनानुसार वृद्धि न हो। हीनार्थ प्रबन्धन मुद्रा प्रसार को जन्म देता है इससे देश में वस्तुओं के मूल्यों में वृद्धि हो जाती है और निश्चित आय प्राप्त करने वाले व्यक्ति को हानि होती है। डॉ० राव के अनुसार, “हीनार्थ प्रबन्धन को मुद्रा प्रसार का एक कारण मान लेना भ्रमपूर्ण होगा। मूल्यों में होने वाली वृद्धि मुद्राप्रसार का रूप उस समय धारण करती है जब पारस्परिक मूल्य वृद्धि संचयी आधार पर पुनः मूल्य वृद्धि को जन्म देने लगती है।

मुद्रा प्रसार की जनक परिस्थितियाँ (Circumstances that Give Rise to Inflation)-किसी । देश में हीनार्थ प्रबन्धन के कारण मुद्रा-स्फीति को जन्म देने वाली मुख्य परिस्थितियाँ निम्न हैं

1 नवीन विनियोगों को प्रोत्साहन (Incentives to Investments)-मूल्यों में वृद्धि होने से नवीन निवेशों को प्रोत्साहन मिलता है तथा तरलता में वृद्धि हो जाती है। इससे मुद्रा प्रसार बढ़ जाता है क्योंकि | अल्पकाल में उत्पादन में एकाएक वृद्धि नहीं हो पाती।

2. मूल्य स्तर (Price Level)-हीनार्थ प्रबन्धन के कारण अर्थव्यवस्था में मुद्रा की मात्रा बढ़ती है लेकिन उसी अनुपात में उत्पादन नहीं बढ़ पाता जिस कारण वस्तुओं के मूल्य बढ़ जाते हैं। यदि जनता की आय बढ़ती है तो वह बढ़ते मूल्य स्तर के साथ समायोजन कर सकती है अन्यथा मूल्यों में वृद्धि होना स्वाभाविक है तथा आर्थिक विषमता भी।

3. उपभोग प्रवृत्ति (Propensity to Consume)-अल्पविकसित देशों में उपभोग प्रवृत्ति अधिक होती है। यदि जनता में अधिक धन व्यय करने की प्रवृत्ति पायी जाती है तो अर्थव्यवस्था में मुद्रा की गति में वृद्धि होकर मूल्यों में वृद्धि होती है। इसी प्रकार प्रशासकीय विनियोग में वृद्धि होने पर वस्तुओं एवं सेवाओं की माँग में वृद्धि होती है। परिणामतः मजदूरी एवं उत्पादन लागत बढ़ जाता है और मूल्यों में वृद्धि होकर स्फीति की अवस्था आ जाती है।

हीनार्थ प्रबन्धन से मुद्रा प्रसार को नियन्त्रित करने के उपाय

(Measures to Minimise the Inflationary Effect of Deficit Financing)

डॉ० राव का मत है कि, “हीनार्थ प्रबन्धन सरकार द्वारा विनियोजन काल में मूल्य वृद्धि के माध्यम से की गयी बलात् बचत का परिणाम है।”

हीनार्थ प्रबन्धन से उत्पन्न होने वाले मुद्रा-प्रसार को नियन्त्रित करने के मुख्य उपाय निम्नलिखित

1 राजकोषीय उपाय (Fiscal Measures)-हीनार्थ प्रबन्धन से उत्पन्न मुद्रा-प्रसार को नियन्त्रित करने के लिए कुछ राजकोषीय उपाय किये जा सकते हैं। ये उपाय मुख्यतः निम्नवत् हैं

(i) उचित करारोपण (Proper Taxation)-देश में उचित कर नीति की सहायता से माँग एवं पूर्ति को नियन्त्रित करके सन्तुलन स्थापित किया जा सकता है। जनता के पास मुद्रा प्रसार द्वारा एकत्र हुई अतिरिक्त क्रय शक्ति को कम करने के लिए पुराने करों में वृद्धि की जाए तथा नये कर लगाए जाएँ तो बढ़ती हुई माँग को नियन्त्रित किया जा सकता है।

(ii) सार्वजनिक ऋण (Public Debt)-जनता के पास एकत्र हुई अतिरिक्त क्रय-शक्ति को कम करने के लिए सरकार जनता से अधिकाधिक मात्रा में ऋण प्राप्त कर सकती है।

(iii) वितरण पर नियन्त्रण (Control on Distribution)-देश में उपलब्ध वस्तुओं की पूर्ति के वितरण को नियन्त्रित करके स्फीति के प्रभावों को कम किया जा सकता है जिसमें मूल्य नियन्त्रण, राशनिंग एवं वितरण आदि को सम्मिलित किया जाता है।

(iv) बचत एवं विनिवेश (Saving and Disinvestment)-अतिरिक्त क्रय-शक्ति के नियम लिए जनता को बचत के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। सरकार को पूँजी व विनियोग पर नियन्त्रण लगाना चाहिए जिससे पूँजीपति पूँजी अभाव वाले उद्योगों की ओर आकर्षित हो सकें।

2. अन्य उपाय (Other Measures)-देश में साख नियन्त्रण व्यवस्था को प्रभावशाली बनाने के लिए निम्न उपायों का प्रयोग किया जा सकता है

(i) उपभोग वस्तुओं की पूर्ति बढ़ाकर (By Increasing the Supply of Consumer Goods)-हीनार्थ प्रबन्धन से यदि उपभोग वस्तुओं का उत्पादन बढ़ाकर अतिरिक्त पूर्ति उत्पन्न कर दी जाए तो वस्तुओं का मूल्य नियन्त्रित किया जा सकता है।

(ii) विनिमय नियन्त्रण (Exchange Control)-विदेशी विनिमय नियन्त्रण द्वारा अनावश्यक वस्तुओं के आयात को कम करके तथा आवश्यक वस्तुओं के लिए विदेशी विनिमय उपलब्ध कराकर स्फीति के प्रभावों को रोका जा सकता है।

(iii) सार्वजनिक वितरण प्रणाली (Public Distribution System)-उपभोग वस्तुओं की कीमत नियन्त्रण के लिए सरकार को सार्वजनिक वितरण प्रणाली का प्रयोग करना चाहिए जिससे स्फीतिक प्रभावों को कम किया जा सके।

(iv) खाद्य भण्डारण (Food Storage)-आवश्यक खाद्यान्नों का भण्डारण करके सरकार विपरीत परिस्थितियों में इनका वितरण करके निर्धन जनता को सहायता प्रदान कर सकती है।

Deficit Financing Notes

हीनार्थ प्रबन्धन की सीमाएँ

(Limitations of Deficit Financing)

यद्यपि विकासशील देशों के आर्थिक विकास में हीनार्थ प्रबन्धन का विशेष महत्व है, तथापि हीनार्थ प्रबन्धन एक सीमा के अन्तर्गत होना चाहिए। हीनार्थ प्रबन्धन अपनाने में निम्न बातों को ध्यान में रखना चाहिए

1 हीनार्थ प्रबन्धन का प्रयोग अनुत्पादक कार्यों की अपेक्षा उत्पादक कार्यों में अधिक किया जाए जिससे वस्तओं की माँग बढ़ने के साथ-साथ उत्पादन भी बढ़ जाए और मल्यों में वद्धि न हो।

2. हीनार्थ प्रबन्धन की सुरक्षित सीमा से कम मात्रा में हीनार्थ प्रबन्धन करना चाहिए ताकि मुद्रा-स्फीतिक दशाएँ उत्पन्न न होने पाएँ।

3. हीनार्थ प्रबन्धन सरकार द्वारा अतिरिक्त क्रय-शक्ति को निष्क्रिय करने के लिए ही किया जाना चाहिए। सरकार नई मुद्रा को करारोपण, अनिवार्य बचत, सार्वजनिक-ऋण आदि की सहायता से यदि शीघ्रता से अपने पास वापस ले सकती है तो अधिक हीनार्थ प्रबन्धन किया जा सकता है।

4. यदि देश में अधिकाँश क्षेत्र अमौद्रिक हैं तो हीनार्थ प्रबन्धन अधिक मात्रा में किया जा सकता है क्योंकि आर्थिक विकास के साथ-साथ मौद्रिक क्षेत्र बढ़ेगा, मुद्रा की माँग बढ़ेगी और नई मुद्रा-स्फीतिक दशा उत्पन्न नहीं कर सकेगी।

5. यदि जनता प्रारम्भिक कष्टों को सहन करने के लिए तैयार है तो हीनार्थ प्रबन्धन अधिक मात्रा में किया जा सकता है।

हीनार्थ प्रबन्धन स्वयं में कोई खतरनाक पद्धति नहीं है, यदि इसे उचित सीमाओं और नियन्त्रण में रखा जाए। यह विकासशील देशों के आर्थिक विकास के लिए एक अनिवार्य तथा सुलभ साधन है, किन्तु इसका प्रयोग एक आकस्मिक या संकटकालीन प्रक्रिया के रूप में होना चाहिए, एक नियमित नीति के रूप में नहीं। “हीनार्थ प्रबन्धन अपने आप में अच्छा है और बुरा इसमें मुद्रास्फीति स्वभावतः निहित है। यह एक अत्यन्त कोमल हथियार है जिसका प्रयोग सावधानीपूर्वक किया जाना चाहिए।

Deficit Financing Notes

भारत में हीनार्थ प्रबन्धन

(Deficit Financing in India)

भारत में सर्वप्रथम द्वितीय महायुद्ध काल में सरकार ने हीनार्थ प्रबन्धन की नीति अपनाई। सरकार ने 1728 करोड़ रुपये की नई मुद्रा निकाली। 1940 से 45 तक देश में मुद्रा की पूर्ति 2243 करोड़ रुपये हो गई। वस्तुओं का उत्पादन इस गति से न बढ़ने के कारण कीमतों में वृद्धि होने लगी। ।

प्रथम योजना1951 में पंचवर्षीय योजनाओं का श्रीगणेश हुआ। प्रथम पंचवर्षीय योजना में कुल घाटे को वित्त व्यवस्था या होनार्थ प्रबन्धन करोड रुपये का होनार्थ प्रबन्धन करने का प्रावधान था, परन्तु लक्ष्यों को पूरा करने के लिए 333 रुपये का हीनार्थ प्रबन्धन किया गया। यह बजट परिव्यय का लगभग 17% था, परन्त उत्पादन में । पनों से अधिक वृद्धि होने के कारण कीमतों में बढ़ोतरी के स्थान पर 15% की कमी हो गई।

द्वितीय योजनाइस योजना में 1,200 करोड़ रुपये के हीनार्थ प्रबन्धन का प्रस्ताव था जिसमें 1000 करोड़ रुपये के नोट छापे जाने थे और 200 करोड़ रुपये पौंड-पावने में से निकालने थे, परन्तु इस योजना में केवल 954 करोड़ रुपये का वास्तविक हीनार्थ प्रबन्धन जो कुल बजट राशि का लगभग 20% । मल्य-वृद्धि को रोकने के लिए राशनिंग व मूल्य नियन्त्रण की नीति अपनाई गई।

तृतीय योजना-कीमतों के बढ़ते स्तर को देखते हुए इस योजना में हीनार्थ प्रबन्धन को सीमित रखने का प्रस्ताव किया गया। 550 करोड़ रुपये के हीनार्थ प्रबन्धन का आयोजन किया गया, परन्तु वास्तविक हीनार्थ प्रबन्धन 1,133 करोड़ रुपये हआ। इस अवधि में धन-पूर्ति का विस्तार 32% था जो कि वास्तविक आय में 21% से अधिक था। फलतः अर्थव्यवस्था पर मुद्रा-स्फीतिक दबाव और अधिक बढ़ने लगा, मूल्य स्तर में 36.3% की वृद्धि हई।

तीन वार्षिक योजनाएँ (1966-69)-तीनों वार्षिक योजनाओं में 676 करोड़ रुपये की राशि का हीनार्थ प्रबन्धन का आयोजन किया गया जिससे मूल्य और बढ़ गया।

चतुर्थ पंचवर्षीय योजना (1969-74)-इस योजना में 850 करोड़ रुपये का हीनार्थ प्रबन्धन का आयोजन किया गया, किन्तु मूल्यों के तेजी से बढ़ते रहने, उत्पादन लक्ष्यों के अनुरूप न होने कारण तथा वित्तीय स्रोतों की कम गतिशीलता के कारण हीनार्थ प्रबन्धन की राशि बढ़कर, 2,060 करोड़ रुपये हो गई।

पंचम पंचवर्षीय योजना (1974-78)-इस योजना में 1,000 करोड़ रुपये का हीनार्थ प्रबन्धन का आयोजन था, लेकिन वास्तविक हीनार्थ प्रबन्धन 3,560 करोड़ रुपये हुआ।

वार्षिक योजनाएँपहले दो वार्षिक योजनाएँ चलाई गईं। 1978-79 तथा 1979-80 में क्रमशः 1,748 तथा 1,355 करोड़ रुपये का हीनार्थ प्रबन्धन किया गया।

छठी पंचवर्षीय योजना (1980-85)-1980-81 के बजट में 1,417 करोड़ रुपये के घाटे का अनुमान था, परन्तु वास्तविक घाटा 15,684 करोड़ रुपये हुआ जो कुल परिव्यय का लगभग 5% था।

सातवीं पंचवर्षीय योजना (1985-90)-1985-86 के बजट में 3,339 करोड़ रुपये का घाटा दिखाया गया था, जबकि वास्तव में यह घाटा 4,490 करोड़ रुपये था। 1986-87 के बजट में अनुमानों के अनुसार इस वर्ष 3,650 करोड़ रुपये के घाटे का अनुमान था, जबकि वास्तविक घाटा 8,225 करोड़ रुपये हुआ। 1987-88 के बजट के अनुसार चालू वर्ष में 5,688 करोड़ रुपये के घाटे का अनुमान था, जबकि वास्तविक घाटा 6,080 करोड़ रुपये का था। 1989-90 में यह घाटा, 11,759 करोड़ रुपये था।

आठवीं योजना1990-91 के बजट में यह घाटा 7,206 करोड़ रुपये अनुमानित किया गया, जबकि वास्तविक घाटा 10,772 करोड़ रुपये हुआ। 1991-92 में यह घाटा 7,719 करोड़ रुपये अनुमानित किया गया, जबकि वास्तविक घाटा 6,855 करोड़ रुपये हुआ। 1992-93 में यह घाटा 5,389 करोड़ रुपये अनुमानित किया गया था, जबकि संशोधित अनुमानों के अनुसार यह घाटा 7,202 करोड़ रुपये रहा। 1993-94 के बजट के अनुसार यह घाटा 4,314 करोड़ रुपये अनुमानित किया गया, जबकि वास्तविक घाटा 9,060 करोड़ रुपये हुआ।

1994-95 के बजट के अनुसार यह घाटा 6,000 करोड़ रुपये अनुमानित किया गया। 1995-96 में यह 7,600 करोड़ रुपये था। यह घटकर 1996-97 में 6,900 करोड़ रुपये रह गया। 1997-98 के जिट में इसे शून्य तक ले आने का प्रस्ताव था।

1997-98 तक भारत सरकार घाटे की वित्त व्यवस्था के विषय में अपनी ही व्याख्या अर्थात कल जिटीय घाटे को हिसाब में लेकर के अनुसार कार्य करती रही। वर्ष भर में कुल आय तथा कुल व्यय को हसाब में लेकर घाटे के वित्त के परिणाम की गणना करती रही और बजटीय घाटे को रिजर्व बैंक सरकारी हुण्डिया बेचकर पूरा करता रहा। रिजर्व बैंक उन हुण्डियों के आधार पर नयी मुद्रा छापता रहा. परन्तु घाटे की वित्त व्यवस्था की यह व्याख्या गलत थी, क्योंकि इसके अन्तर्गत बाजार की सभी

जनता से प्राप्त लघु बचतों, भविष्य निधियों इत्यादि को पूँजीगत प्राप्तियाँ माना जाता रहा और उनको बजटीय घाटे में सम्मिलित नहीं किया गया।

किन्तु 1997-98 में सुखमोय चक्रवर्ती कमेटी के सुझाव पर कुल बजटीय घाटे के स्थान पर राजकोषीय घाटे को स्वीकार किया गया। अब बजटीय घाटे के साथ वर्ष में सरकार की अन्य देयताओं को राजकोषीय घाटे में सम्मिलित किया जाता है। यही घाटे के वित्त प्रबन्ध की सही व्याख्या है। हाल के वर्षों में सरकार ने प्राथमिक घाटा (Primary deficit) सम्बन्धी विचार लागू किया गया है। राजकोषीय घाटे में से ब्याज भुगतानों को घटा कर प्राथमिक घाटे की राशि का प्राकलन किया जाता है।

अब बजट घाटे की कोई प्रासंगिकता नहीं है। अब रिजर्व बैंक सरकार को तदर्थ सरकारी हुण्डियों के आधार पर ऋण नहीं देता। अब सरकार 91 दिन वाली हुण्डियों को बाज़ार में बेचकर कोष एकत्र करती है जिनको पूँजी प्राप्तियों में ‘उधारी तथा अन्य देयताओं की तरह दिखाया जाता है।

Deficit Financing Notes

परीक्षा हेतु सम्भावित महत्त्वपूर्ण प्रश्न

(Expected Important Questions for Examination)

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न (Long Answer Questions)

प्रश्न 1. हीनार्थ प्रबन्धन से आप क्या समझते हैं ? इसके उद्देश्यों की व्याख्या कीजिये।

What do you understand by deficit financing ? Explain its objectives.

प्रश्न 2. हीनार्थ प्रबन्धन के प्रभावों की विवेचना कीजिये। क्या हीनार्थ प्रबन्धन आर्थिक विकास के लिये आवश्यक है ?

Discuss the effects of deficit financing. Is deficit financing necessary for economic development ?

प्रश्न 3. क्या हीनार्थ प्रबन्धन आवश्यक रूप से मुद्रा प्रसार को जन्म देता है ? इसे किस प्रकार नियन्त्रित किया जा सकता है

Is deficit financing essentially inflationary ? How inflationary effect of deficit  financing can be minimised ?

Deficit Financing Notes

लघु उत्तरीय प्रश्न (Short Answer Questions)

प्रश्न 1. हीनार्थ प्रबन्धन से क्या आशय है ?

What is meant by deficit financing ?

प्रश्न 2. घाटे की वित्त व्यवस्था के प्रमुख उद्देश्य क्या हैं ?

What are the main objects of deficit financing ?

प्रश्न 3. घाटे की वित्त व्यवस्था देश की अर्थव्यवस्था को किस प्रकार प्रभावित करती है ?

How deficit financing affects the economy of a country?

प्रश्न 4. क्या हीनार्थ प्रबन्धन आवश्यक रूप से मुद्रा प्रसार को जन्म देता है ?

Is deficit financing essentially inflationary?

प्रश्न 5. हीनार्थ प्रबन्धन की सीमाएँ बताइये।

State the limitations of deficit financing.

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chetansati

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