BCom 3rd Year Auditing Depreciation and Reserves Study Material notes in Hindi

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Depreciation and Reserves
Depreciation and Reserves

BCom 3rd Year Audit Types Classification Study Material Notes in hindi

हास एवं संचय

[DEPRECIATION AND RESERVES] (DEPRECIATION)

किसी सम्पत्ति के मूल्य में उसके प्रयोग से होने वाली कमी को ह्रास कहते हैं। सम्पत्ति के मूल्य में कमी धीरे-धीरे होती है लेकिन यह कमी स्थायी और लगातार होने वाली होती है। जब कोई सम्पत्ति लाभ उपार्जन करने के उद्देश्य से प्राप्त की जाती है और समय बीतने के साथ-साथ धीरे-धीरे बेकार या अप्रचलित हो जाती है तो यह पूंजीगत हानि मानी जाती है। इस हानि के लिए पूर्वायोजन उस आमदनी में से अवश्य करना चाहिए जो सम्पत्ति के प्रयोग में लाने से प्राप्त हुई है। यदि ऐसा न किया जाएगा तो लाभ-हानि खाता और चिट्ठा संस्था की सही आर्थिक स्थिति को प्रस्तुत नहीं कर सकता है।

हास की परिभाषाएं

(DEFINITIONS OF DEPRECIATION)

हास की परिभाषाएं विभिन्न विद्वानों द्वारा निम्न प्रकार दी गयी हैं :

(1) “एक सम्पत्ति के मूल्य में किसी भी कारण होने वाली शनैः-शनैः और स्थायी कमी को ह्रास कहते

(2) “मूल्य-ह्रास एक निश्चित अवधि में सम्पत्ति के प्रयोग या अप्रचलन के कारण उसके सार्थक जीवन की समाप्ति का माप है।”

(3) “प्रयोग में आने से सम्पत्ति के मूल्य में जो क्रमिक ह्रास या कमी आती है उसे ह्रास कहते हैं।”

(4) ह्रासित सम्पत्ति में टूट-फूट, उपभोग या मूल्य में अन्य कमी का माप ह्रास है जो सम्पत्ति के प्रयोग, समय के व्यतीय होने, तकनीकी व बाजार में परिवर्तन के कारण अप्रचलन होने से होता है। प्रत्येक लेखांकन वर्ष में सम्पत्ति के उपयोगी जीवनकाल में उचित आधार पर हासित मूल्य का प्रावधान ह्रास के द्वारा किया जाता है। ह्रास में सम्पत्ति का अपलेखन भी सम्मिलित है जिनकी उपयोगिता पूर्व निश्चित है।

हास के कारण

(CAUSES OF DEPRECIATION)

ह्रास के प्रमुख दो कारण होते हैं :

(1) आन्तरिक और

(2) बाह्य।

(1) आन्तरिक कारण (Internal Causes)—ऐसे कारण जो किसी सम्पत्ति के स्वभाव से ही सम्बसि होते हैं, आन्तरिक कारण कहलाते हैं। ये कारण निम्नांकित हैं :

(क) प्रयोग से ह्रास (Wear and Tear) कछ सम्पत्तियां, जैसे—भवन, प्लाण्ट, मशीन तथा मोटर इत्यादि संस्था में लगातार प्रयोग होने से धीरे-धीरे नष्ट होती रहती हैं। उनमें समय-समय पर सम्पत्ति से सुधार करते रहने से भी एक समय वह आता है जब वे बिल्कुल बेकार हो जाती है।

(ख) समाप्त होने से हास (Exhaustion) ऐसी सम्पत्तियों में, जैसे-बगीचे के पेड या जानवरो तो प्रयोग से लगातार ह्रास होता रहता है, परन्तु प्रयोग के साथ-साथ ये अपनी अवस्था के अनुसार बेकार और पुरानी हो जाती हैं।

(ग) खाली होने से हास (Depletion) तेल के कुएं और अन्य खानों में उनके खाली होने से निरन्तर मूल्य में कमी होती रहती है। इसे खाली होने से ह्रास कहते है।

 (घ) शीघ्र नष्ट होने वाली वस्तुओं का हास (Deterioration) साधारणतया उन अस्थायी सम्पत्तियों के। लिए जैसे खाने की वस्तुएं जो शीघ्र खराब हो जाती हैं, यह हास होता है। यदि स्थायी सम्पत्तियों की मरम्मत की व्यवस्था न हो पाये तो इस प्रकार का ह्रास हो सकता है।

(2) बाह्य कारण (External Causes)—ये ऐसे कारण हैं, जो सम्पत्ति से बिल्कुल अलग बाहरी परिस्थितियों पर निर्भर होते हैं। ये कारण निम्नांकित हैं :

(क) समय बीतने पर हास (Effluxion of the Time)-उन सम्पत्तियों में जिनका जीवन-काल निश्चित होता है जैसे एकस्व (Patent) या पट्टे पर ली गयी सम्पत्ति—समय के बीतने के साथ-साथ यह ह्रास होता रहता है।

(ख) अप्रचलन से ह्रास (Obsolescence)—नयी मशीनों के बन जाने से पुरानी मशीनें प्रयोग में नहीं आती और पुरानी मशीनों से काम करते रहने से नयी मशीनों के मुकाबले अधिक उत्पादन व्यय होता है, इसे अप्रचलन से ह्रास कहते हैं।

(ग) दुर्घटना से ह्रास (Accident) कभी-कभी कुछ सम्पत्तियों जैसे—कारखाने, मशीन, फर्नीचर आदि आग लगने, बाढ़. आने, बिजली गिरने इत्यादि दुर्घटनाओं से बेकार हो जाती हैं। ये दुर्घटना से ह्रास के उदाहरण हैं।

(घ) बाजार-मूल्य में स्थायी गिरावट से हास (Permanent fall in the Market Value)—कुछ सम्पत्तियों जैसे विनियोग में बाजार-मूल्य की स्थायी गिरावट से मूल्य में कमी आ जाती है। यह बाजार-मूल्य में स्थायी गिरावट से ह्रास के उदाहरण हैं।

हास के आयोजन की आवश्यकता, उद्देश्य या महत्व

(NEED, OBJECTS OR SIGNIFICANCE OF PROVIDING DEPRECIATION)

(1) शुद्ध लाभ ज्ञात करने के लिए (To know Net Profit) प्रत्येक सम्पत्ति व्यापारिक कार्य के लिए। खरीदी जाती है और उसके लगातार प्रयोग से मूल्य में कमी होती रहती है। मल्य में कमी एक व्यापारिका व्यय है, अत: इनको प्रत्येक वर्ष के लाभ-हानि खाते में अवश्य डेबिट करना चाहिए। ऐसा न करने से एक तो प्रति वर्ष शुद्ध लाभ का पता नहीं चल सकता और दूसरे उसे वर्ष के लाभ-हानि खाते में जिसमें यह सम्पत्ति बिल्कल बेकार हो जाती है, सम्पत्ति के ह्रास की पूरी रकम लिखनी होती है। यह सिद्धान्त के विरुद्ध है और सदैव अनुचित है।

(2) आर्थिक स्थिति जानने के लिए (To know the Financial Position) यदि हास का आयोजन नहीं किया गया तो संस्था के चिट्टे में सम्पत्ति को असली मूल्य से अधिक मूल्य पर लिखा जायेगा और इस पकार संस्था का चिट्ठा उसकी आर्थिक स्थिति का सही स्वरूप प्रस्तुत नहीं कर सकता है।

(3) पूंजी को डूबने से बचाना (Prevent Erosion of Capital) ह्रास का आयोजन करने का वास्तविक उद्देश्य सम्पत्ति को सही रुप में रखाना और संस्था की पूँजी को डूबने से बचाना है ।जिसके लिए सम्पत्ति के ह्रास की हानि को उनके प्रयोग होने के वर्षों के लाभ-हानि खाते में अपलिखित कर दिया जाता है। उदाहरण के उत्पादन में 500 ₹ का कच्चा माल खर्च हुआ और 100 ₹ मजदूरी एवं 50 ₹ अन्य अप्रत्यक्ष व्यय हुए। साथ ही एक मशीन भी इस्तेमाल की गयी जो 1.000 ₹ में खरीदा गया था।

सात वर्ष के बाद बेकार हो गयी और अन्त में जिसका अवशिष्ट मल्य (scrap value) 200 ₹30 वस्त की लागत 1,450₹ हुइ न कि केवल 650 ₹। इस प्रकार वस्त की लागत कच्चा माल DU र । राजदरी 100 ₹+अप्रत्यक्ष व्यय 50 ₹ = 650₹ में प्रयक्त मशीन का मल्य 800₹ (क्रय मूल्य 1,000 अवशिष्ट मूल्य 200 ₹) सम्मिलित करने के पश्चात ही वस्त की वास्तविक लागत निकलगा।

(4) सम्पत्ति के प्रतिस्थापन के लिए (Replacement of Asset) ह्रास के आयोजन करन का ह भी है कि सम्पत्ति की आयु के पूर्ण होने के पश्चात उसके प्रतिस्थापन के लिए आवश्यक रकम एकात्रत हो सके। प्रति वर्ष ह्रास का थोड़ा-थोड़ा आयोजन करने से इस व्यवस्था में सहायता मिलती है। यदि ऐसा न किया जाए तो नयी सम्पत्ति को खरीदने के लिए अतिरिक्त पंजी प्राप्त नहीं हो सकती है। यदि ह्रास की व्यवस्था न की गयी तो यह संस्था के लिए बड़ा हानिकारक होगा।

(5) लाभांश का बंटवारा (Distribution of Dividend) यदि प्रतिवर्ष हास का आयोजन न किया जाय, तो यह एक ओर किसी संस्था का चिट्ठा उसकी आर्थिक स्थिति को सही रूप में प्रदर्शित नहीं करेगा और दूसरी ओर लाभ-हानि खाते में लाभ की रकम वास्तविक रकम से अधिक दिखायी जायेगी जिसका परिणाम यह होगा कि अंशधारियों को लाभांश पूंजी में से वितरित कर दिया जायेगा और संस्था की पूंजी धीरे-धीरे समाप्त हो जाएगी और इस प्रकार संस्था शीघ्र ही दिवालिया हो जायगी। इसी प्रकार ह्रास का प्रावधान किये बगैर संस्था लाभांश घोषित नहीं कर सकती।

हास के आयोजन के आधार

(BASES OF PROVIDING DEPRECIATION)

अंकेक्षक को ह्रास के आयोजन के सम्बन्ध में निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए :

(1) सम्पत्ति का मूल्य (Cost of Asset)-हिसाब-किताब की पुस्तकों से यह पता लगाना चाहिए कि सम्पत्ति का लागत-मूल्य क्या है। उस मूल्य का पता लगाना चाहिए जिस पर सम्पत्ति प्रारम्भ में खरीदी गयी थी।

(2) सम्पत्ति की आय (Life of Asset) सम्पत्ति की आयु का पता लगाना चाहिए कि सम्पत्ति कितने वर्ष तक संस्था के लिए उपयोगी हो सकती है। किसी सम्पत्ति की उपयोगिता उसके स्वभाव तथा उसके सुरक्षित रखने की व्यवस्था पर बहुत कुछ निर्भर होती है।

(3) मरम्मत तथा नवीनीकरण के लिए व्यय (Expenses on Repairs and Renewal)—यह निश्चित है कि यदि किसी सम्पत्ति के लिए मरम्मत तथा नवीनीकरण (Repairs and renewals) की व्यवस्था होती रहेगी, तो उस सम्पत्ति का जीवन-काल बढ़ जायेगा।

(4) पूंजी व्यय (Capital Expenditure)—पूरे वर्ष में समय-समय पर सम्पत्ति में वृद्धि (additions) के लिए जितना पंजी-व्यय किया जाता है उसी प्रकार ह्रास के लिए आयोजन करना चाहिए। यह पूंजी-व्यय उसकी कार्य करने की क्षमता को सामान्य रखना होता है। ऐसा व्यय पूंजी-व्यय होता है। यदि यह व्यय अत्यधिक होता है. तो इसको अधिक मात्रा में प्रति वर्ष अपलिखित करना उचित होता है।

(5) पूंजी पर ब्याज का हानि ( Loss on Interest on Capital ) जितनी पूँजी सम्पत्ति प्राप्त करने में  व्यय की गयी है. यदि उतनी अन्यत्र विनियोजित की जाती तो उस पर ब्याज कमाया जा सकता था। ह्रास निर्धारण के लिए इस ब्याज की हानि को ध्यान में अवश्य रखना चाहिए।

(6) सम्पत्ति का अवशिष्ट मल्य (Scrap Value of Asset) ह्रास की रकम तय करने के लिए मातम अवाशष्ट मूल्य (scrap or break-up or residual value of the asset) को भी रखना चाहिए।

(7) सम्पत्ति के से ह्रास (Obsolescene) यदि नये आविष्कार से काई सम्पत्ति बेकार हो जाता Sता इस प्रचलन-हानि के लिए आयोजन अवश्य करना चाहिए। सम्पत्ति के अप्रचलन होने की जिनक सम्भावना अधिक होगी, ह्रास के लिए उतना ही अधिक आयोजन करना होगा।

(8) पिछले वर्षों में अत्यधिक हास का आयोजन (Excess Provision of Depreciation in pal years) यदि पिछले वर्षों में हास का अत्यधिक आयोजन किया गया है, तो इस वर्ष हास का आयकम दर पर किया जा सकता है।

(9) वैधानिक नियम या अन्य परिवर्तन (Statutory Requirement)–यदि सम्पत्तियों पर हास की। व्यवस्था करने के सम्बन्ध में कोई वैधानिक नियम बन गया है अथवा ऐसे किसी नियम या कानून के होने पर उसमें कोई संशोधन या परिवर्तन हो गया है, तो ह्रास की राशि के निर्धारण में इसका क्या प्रभाव होगा. इसकी भी जानकारी होनी चाहिए। यह देखना होगा कि इसका भली-भांति पालन किया गया है या नहीं। कम्पनी अधिनियम की व्यवस्था का वर्णन ‘विभाज्य लाभ एवं लाभांश’ नामक अध्याय में दिया गया है।

हास तथा उच्चावचन में अन्तर

(DIFFERENCE BETWEEN DEPRECIATION AND FLUCTUATION)

(1) सम्पत्ति की प्रकृति–हास की व्यवस्था स्थायी सम्पत्तियों पर की जाती है जबकि उच्चावचन प्रायः अस्थायी सम्पत्तियों के मूल्यों में होने वाले परिवर्तन का नाम है।

(2) मूल्य में परिवर्तन का स्वभाव-हास के परिणामस्वरूप स्थायी सम्पत्तियों के मूल्यों में सदैव कमी ही होती है परन्तु उच्चावचन अस्थायी सम्पत्तियों के मूल्यों में कमी तथा वृद्धि दोनों ओर ही संकेत करता है।

(3) ह्रास स्थायी सम्पत्तियों के मूल्य में अस्थायी कमी का द्योतक है, परन्तु उच्चावचन एक अस्थायी तथ्य है।

(4) वित्तीय विवरण पर प्रभाव-उच्चावचन से होने वाले लाभ-हानि को प्रायः बहियों में नहीं दिखाया जाता परन्तु ह्रास का लेखा अवश्य किया जाता है।

कारण—हास सम्पत्ति के प्रयोग, समय के व्यतीत होने या अप्रचलन के कारण होता है, जबकि उच्चावचन बाजार की अपेक्षाओं पर निर्भर करता है।

हास की विधियां

(METHODS OF DEPRECIATION)

ह्रास का आयोजन करने के लिए नीचे लिखी प्रणालियां विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं :

(1) स्थायी किस्त प्रणाली (Fixed Instalment Method) सम्पत्ति के वास्तविक मूल्य एवं सम्पत्ति के जीवन-काल के आधार पर ह्रास की रकम निर्धारित की जाती है। इसके अनुसार प्रति वर्ष सम्पत्ति के लागत-मूल्य या ह्रास-योग्य-मूल्य (लागत मूल्य या अवशिष्ट मूल्य) में से एक स्थायी भाग ह्रास के लिए लिखते जाते हैं और इस प्रकार सम्पत्ति के जीवन-काल के समाप्त होने पर उसका मूल्य भी शून्य या अवशिष्ट मूल्य के बराबर हो जाता है।

यह पद्धति गणना के लिए सरलतम है तथा लाभ-हानि खाते में प्रतिवर्ष समान रकम दिखायी जाती है।। परन्तु समय बीतने के साथ मरम्मत पर व्यय बढ़ता जाता है और इस प्रकार शुद्ध लाभ पर प्रभाव प्रतिवषा स्थिर नहीं रह सकता, जो वर्ष प्रतिवर्ष बढ़ता जाता है। इस पद्धति में सम्पत्ति के हास की राशि जो सम्पत्ति की प्राप्ति के पहले वर्ष में है, वह ही अन्तिम वर्ष में होती है। मरम्मत व नवीनीकरण व्यय प्रथम वर्ष में कम, पर आगामी वर्षों में शनैः-शनैः बढ़ता रहता है। इस प्रकार मरम्मत, नवीनीकरण व ह्रास की सकल साश oregate amount) अन्तिम वर्षों में अधिकतम बढ़ जाती है।

(2) क्रमागत ह्रास पद्धति (Diminishing Balance Method) इस प्रणाली के अनुसार प्रतिवर्ष मूल्य लागत-मल्य-हास) पर एक निश्चित दर से ह्रास का आयोजन किया जाता है। इस प्रणाली की विशेषता यह से जैसे सम्पत्ति की आयु समाप्त होती जाती है, वैसे ही वैसे प्रति वर्ष हास की रकम भी कम होता।

पाशीन आदि ऐसी सम्पत्तियां हैं, जिनकी आयु के समाप्त होने पर उनका कछ-न-कुछ अवाशा रहती है। प्लाण्ट, मशीन आदि ऐसी सम्पत्तियां मूल्य अवश्य होता है।

उदाहरणस्वरूप यदि किसी सम्पत्ति की लागत 25,000 ₹ है और उस पर हास की दर 10% है ता पहले वर्ष में इस पर ह्रास = 2,500 ₹ होगा। दूसरे वर्ष में यह राशि 2,250 ₹ होगी जो इस प्रकार

निकाली जायेगी:

(3) वार्षिक वृत्ति पद्धति (Annuity Method) इस पद्धति के अनुसार हास का रकम प्रातवष बरा रहती है। इसमें सम्पत्ति के ह्रास का आयोजन करने के साथ-साथ उस ब्याज की भी व्यवस्था की जाती है जो सम्पत्ति के मूल्य के बराबर रकम के विनियोग करने से प्राप्त हो सकता था। वार्षिक-वृत्ति-तालिका (Annuity Tables) की सहायता से उस निश्चित रकम का पता लगाया जाता है। प्रति वर्ष ह्रास की रकम बराबर रहती है और अनुमानित ब्याज की रकम घटती जाती है।

इस पद्धति का प्रयोग उन सम्पत्तियों के लिए किया जाता है जो लम्बे पट्टे पर ली जाती हैं तथा जिनका मूल्य अधिक होता है।

(4) ह्रास कोष पद्धति (Depreciation Fund Method) इस विधि के अनुसार ह्रास की रकम प्रति वर्ष ह्रास कोष खाते (Depreciation Fund Account) में क्रेडिट कर दी जाती है और हास कोष खाते की रकम विनियोग कर दी जाती है। प्रति वर्ष प्राप्त होने वाली ब्याज भी विनियोग कर दी जाती है। इस पद्धति की विशेषता यह है कि इसमें एक निश्चित प्रतिशत के आधार पर हास की व्यवस्था की जाती है और सम्पत्ति के जीवन-काल के समाप्त होने के साथ ही इतना धन इकट्ठा होता रहता है जो सम्पत्ति के बेकार होने पर उसकी जगह नयी सम्पत्ति प्राप्त करने के लिए पर्याप्त होता है।

इस पद्धति का प्रयोग उन सम्पत्तियों के लिए किया जाता है जिनके बेकार होने के समय नयी सम्पत्तियों के खरीदने की आवश्यकता होती है।

(5) बीमा पॉलिसी पद्धति (Insurance Policy Method)—इस पद्धति के अनुसार उतने वर्षों के लिए जिनमें कोई सम्पत्ति बेकार हो सकती है, एक बीमा पॉलिसी ले ली जाती है। एक ओर सम्पत्ति का ह्रास होता रहता है और साथ ही साथ दूसरी ओर नयी सम्पत्ति खरीदने के लिए रुपया इकट्ठा होता रहता है। समय के अन्त में बीमा कम्पनी से सम्पत्ति के प्रतिस्थापन के लिए पर्याप्त रकम मिल जाती है।।

हास कोष पद्धति तथा इसमें यही अन्तर है कि इसमें धन प्रति वर्ष प्रतिभूतियों की खरीद में विनियोग न करके बीमा पॉलिसी लेने में लगाया जाता है।
(6) पनर्मल्यन पद्धति (Revaluation Method) कुछ सम्पत्तियां जैसे—कल-पुर्जे, पशु आदि ऐसी होती जिनका जीवन अस्थिर होता है। इसी कारण इनका मूल्यांकन प्रतिवर्ष किया जाता है। गत वर्ष के मूल्य तथा नये मूल्य के अन्तर को ही ह्रास समझा जाता है।

(7) चक्रवद्धि ब्याज पद्धति (Compound Interest Method)  बिजली-पूर्ति कम्पनियों की स्थायी सम्पत्ति केदार की व्यवस्था करने के लिए इस पद्धति का प्रयोग किया जाता है। यह प्रणाली प्रायः हास कोष पद्धति दिदी है। अन्तर केवल यह है कि एक तो विनियोग बाहर नहीं किये जाते हैं और दसरे ब्याज की वर्ष की हास की बढ़ती हुई रकम पर की जाती है। ह्रास की रकम में ही उस रकम को जोड भावास के लिए उतनी रकम की व्यवस्था की जाती है जितनी यदि 4% चक्रवृद्धि ब्याज की दर जाय तो सम्पत्ति के जीवन के अन्त में उसकी लागत-मूल्य के 90% के बराबर रकम हो सके।

(8)कम करने की इकाई प्रणाली (Depletion Unit Method) इस विधि का प्रयोग क्षयी सम्पत्तियों नों आदि के सम्बन्ध में किया जाता है। ह्रास की रकम मालूम करने के लिए खान के मूल्य में उसके। अनुमानित उत्पाद न उत्पादन (टनों) का भाग दिया जाता है। उदाहरण के लिए, यदि एक खान में अनुमानित उत्पादन उन कोयला है और उसका मूल्य 2,500 ₹ है तो ह्रास 50 पैसे प्रति टन होगा। जैसे-जैसे कोयला जायेगा, वैसे ही वैसे ह्रास की रकम निश्चित की जा सकेगी।

(9) उपयोग या किलोमीटर पद्धति (Use or Kilometre Method) कुछ सम्पत्तियों जैसे मोटर आ का ह्रास उनके प्रयोग पर निर्भर होता है। यदि एक मोटर अपने पूरे जीवन-काल में 1,00,000 किमी सकता है और यदि औसतन 10.000 किमी. प्रतिवर्ष चलती रहे तो वह 10 वर्ष में बिल्कुल बेकार हो जाय पर यदि वह 1,00,000 किमी. पहले ही वर्ष में चलायी जाय तो एक वर्ष से अधिक नहीं चल सकती है। दश प्रकार इस पद्धति के अनसार हास का निर्धारण सम्पत्तियों के द्वारा किये गये लाभ पर निर्भर होता है।

उसी प्रकार यन्त्रों के ह्रास की रकम उनके एक वर्ष में काम करने के घण्टों के आधार पर निश्चित का जाती है। यह पद्धति देखने में सरल है परन्तु व्यवहार में कठिन होती है।

(10) कुशलता घण्टा पद्धति (Efficiency Hour Method)—यह पद्धति ‘मशीन घण्टा पद्धति’ या ‘उत्पादन इकाई पद्धति’ या ‘सेवा के घण्टों का आधार पद्धति’ (Machine Hour Method’, or ‘Unit of Production Method’, or ‘Hours of Service Method’) के नाम से भी जानी जाती है। यह ‘किलोमीटर आधार पद्धति’ की तरह है। अन्तर यह है कि सम्पत्ति की कार्यशील अवधि किलोमीटर के आधार के स्थान पर घण्टों के रूप में गणना की जाती है। यह उन मशीनों के लिए ह्रास लगाने का अच्छा आधार है जिनकी कार्यशील अवधि घण्टों के रूप में आंकी जाती है।

(11) एकल-प्रभार पद्धति (Single Charge Method)—इस पद्धति में सम्पत्ति की कार्यशील अवधि के लिए उपयुक्त ह्रास व मरम्मत व्यय की राशि के बराबर धन की स्थायी राशि लाभ-हानि खाते में डेबिट की जाती है तथा ह्रास व मरम्मत खाते में क्रेडिट की जाती है। आगामी वर्षों में होने वाले मरम्मत व्यय इस खाते में लिखे जाते हैं।

(12) सामूहिक विधि (Global Method)—इस पद्धति में सभी सम्पत्तियों के लिए ह्रास की एक निश्चित राशि (flat rate of depreciation) प्रतिवर्ष चार्ज की जाती है। यह विधि अधिक प्रयोग में नहीं आती है। कम्पनी अधिनियम के अन्तर्गत इस पद्धति के प्रयोग पर प्रतिबन्ध है।

chetansati

Admin

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