BCom 1st Year Economics market Price Normal Price Study Material Notes in Hindi

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BCom 1st Year Economics market Price Normal Price Study Material Notes in Hindi

Table of Contents

BCom 1st Year Economics market Price Normal Price Study Material Notes in Hindi: Meaning and Definition of Market Factors Affecting expansion of market internal condition of country Meaning of market price Meaning of Normal Price Determination of Market Price determination of Perishable And nonreproducible goods Determination of Normal Price and Laws of Return Theoretical Questions Long Answer Questions Short  Answer Questions :

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BCom 1st Year Economics Short run Long run Cost Curves Study Material Notes in Hindi

बाजार, बाजार मूल्य और सामान्य मूल्य

(Market, Market Price And Normal Price)

बाजार का आशय और परिभाषा  (Meaning and Definition of Market) साधारण बोलचाल की भाषा में ‘बाजार’ शब्द का प्रयोग उस स्थान के लिये किया जाता है जहाँ पर वस्तुओं के क्रेता और विक्रेता दोनों परस्पर सौदा करने के लिये एकत्रित होते हैं। परन्तु अर्थशास्त्र में इस शब्द का प्रयोग बहुत व्यापक अर्थ में किया जाता है इसमें बाजार शब्द से तात्पर्य उस सम्पूर्ण क्षेत्र से होता है जहाँ वस्तु विशेष के क्रेता और विक्रेता आपस में प्रतिस्पर्धा करके उस क्षेत्र भर के लिये वस्तु की एक कीमत स्थापित कर देते हैं। इस शब्द की कुछ महत्वपूर्ण परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं :

“अर्थशास्त्री बाजार शब्द से अभिप्राय केवल उस स्थान से नहीं लगाते जहाँ वस्तुओं का क्रय-विक्रय होता है, अपितु उस समस्त क्षेत्र से लगाते हैं जहाँ क्रेताओं व विक्रेताओं के बीच इस प्रकार का स्वतन्त्र सम्पर्क होता है कि एक वस्तु की कीमत की प्रवृत्ति सुगमता से तथा शीघ्रता से समान होने की पायी जाती है।”

अर्थशास्त्र में बाजार का अर्थ क्रेताओं तथा विक्रेताओं के बीच किसी साधन या वस्तु के लेन-देनों का जालसूत्र है।

केअरनक्रॉस _ “अर्थशास्त्री बाजार का अर्थ एक ऐसे संगठन से लेते हैं जिसमें कि किसी वस्तु के क्रेता और विक्रेता एक दूसरे के निकट सम्पर्क में रहते हैं।

स्टोनियर एवं हेग उपरोक्त परिभाषाओं से बाजार की निम्न विशेषताएँ स्पष्ट होती हैं :

1 एक क्षेत्र (An Area) : बाजार का आशय किसी स्थान विशेष से नहीं होता, वरन् उस समस्त क्षेत्र विशेष से होता है जिसमें वस्तु के क्रेता-विक्रेता फैले होते हैं और आपसी सम्बन्ध रखते हैं।

2 क्रेताओं और विक्रेताओं की उपस्थिति (Presence of Buyers and Sellers) : बाजार के लिये क्रेताओं और विक्रेताओं का सह-अस्तित्व अनिवार्य है।

3. एक वस्तु (Only one Commodity) : अर्थशास्त्र में बाजार का अर्थ किसी एक वस्तु विशष के संदर्भ में किया जाता है जिसका कि सौदा किया जाता है। अर्थशास्त्र में प्रत्येक वस्तु के लिये एक पृथक बाजार होता है।

4. प्रतियोगिता (Competition) : बाजार के लिये क्रेताओं और विक्रेताओं के बीच स्वतन्त्र प्रतियोगिता आवश्यक है।

5. एक मूल्य (One Price) : बाजार में प्रतियोगिता के कारण वस्तु की कीमत की। प्रवृत्ति समान रहने की पायी जाती है।

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बाजार के विस्तार को प्रभावित करने वाले तत्व

(Factors affecting Expansion of Market)

बाजार के विस्तार का आशय इसके विस्तृत या संकीर्ण होने से होता है। यह निम्न दो तत्वों पर निर्भर करता है : (1) वस्तु के गुण और (2) देश की आन्तरिक दशाएँ।

1 वस्तु के गुण (Nature of Commodity)

(i) माँग की चापकता (Wide Demand) : जिस वस्तु की माँग अधिक और व्यापक है उसका बाजार विस्तृत होगा तथा जिसकी माँग सीमित है उसका बाजार संकीर्ण होगा। उदाहरण के लिये अनाज, कपड़ा आदि की माँग विश्वव्यापी है, अतः इनका बाजार भी अन्तर्राष्ट्रीय होता है। दूसरी ओर साड़ी, चूड़ी, टोपी आदि का बाजार राष्ट्रीय है क्योंकि ये वस्तुयें केवल हमारे देश में ही माँगी जाती हैं।

(ii) वहनीयता (Portability) : जो वस्तुएँ कम भार और अधिक मूल्य की होती हैं, जैसे सोना-चाँदी आदि, उनका बाजार अत्यन्त विस्तृत होता है तथा इसके विपरीत गुण वाली वस्तुओं, जैसे ईंट, पत्थर आदि का बाजार संकीर्ण होता है।

(iii) टिकाऊपन (Durability) : टिकाऊ वस्तुओं, जैसे कपड़ा, मशीनें आदि का बाजार विस्तृत होता है तथा शीघ्र नष्ट होने वाली वस्तुओं, जैसे दूध, दही, सब्जी आदि का बाजार संकीर्ण होता है।

(iv) पूर्ति की पर्याप्तता (Adequacy of Supply) : जिस वस्तु की पूर्ति अधिक है और माँग के अनुसार बढ़ायी जा सकती है तो उसका बाजार विस्तृत होगा। इसके विपरीत गुण वाली वस्तु का बाजार संकीर्ण होगा।

(v) नमूने या ग्रेड बनाने की उपयुक्तता (Suitability for Samples or Grades) : जिन वस्तुओं के नमूने निकाले जा सकते हैं (जैसे ऊनी कपड़ा) या जिन्हें निश्चित ग्रेडों में विभाजित किया जा सकता है (जैसे गेहूँ), उनका बाजार विस्तृत होगा। इसके विपरीत गुण वाली वस्तुओं, जैसे सब्जी, मछली आदि, का बाजार संकीर्ण होता है।

(vi) स्थानापन्न वस्तुओं की संख्या (Number of Substitutes) : जिस वस्तु के जितने अधिक स्थानापन्न होंगे, उस वस्तु की माँग उतनी ही कम होगी जिसके फलस्वरूप उसका बाजार संकीर्ण होगा।

2. देश की आन्तरिक दशाएँ (Internal Conditions of Country)

(i) शान्ति और सुरक्षा (Peace and Safety) : देश में शान्ति और सुरक्षा के वातावरण में बाजार का विस्तार होता है। इसके विपरीत युद्ध व दंगों के समय बाजार अति संकीर्ण हो जाता है।

(ii) परिवहन संचार के साधनों का विकास (Development of Means of Transport and Communication) : इन साधनों के विकसित होने पर वस्तुएँ कम लागत पर शीघ्रता से एक स्थान से दूसरे स्थान को भेजी जा सकती हैं। अतः ऐसी स्थिति में वस्तुओं के बाजार विस्तृत होते हैं।

(iii) विपणन रीतियों में सुधार (Improvement in Marketing Methods): यदि वस्तुओं के विक्रय के लिये वैज्ञानिक तथा आधुनिक रीतियों, विन’न, प्रदर्शनी आदि का सहारा लिया जाता है तो उनके बाजार का विस्तार होगा।

(iv) मुद्रा तथा साख प्रणाली (Money and Credit System) : जिस देश की मुद्रा प्रणाली सुदृढ़ और सुव्यवस्थित है तथा बैंकिंग सुविधाएँ पर्याप्त हैं, उस देश में वस्तुओं का बाजार विस्तृत होगा।

(v) सरकार की कर और व्यापार नीति (Government Taxation and Trade Policy) : यदि सरकार स्वतन्त्र व्यापार नीति अपनाती है तो वस्तुओं के बाजार विस्तृत होंगे। इसके विपरीत यदि सरकार प्रतिबन्धात्मक नीति का अनुसरण करती है (जैसे आयात-निर्यात पर। कर लगाना, एक राज्य से दूसरे राज्य को अथवा राज्य के एक जिले से दूसरे जिले को वस्तुओं के स्थानान्तरण पर भारी कर अथवा प्रतिबन्ध लगाना आदि) तो वस्तुओं के बाजार सीमित हो। जाते हैं।

(vi) श्रम विभाजन की सीमा (Extent of Division of Labour) : अधिक सूक्ष्म श्रम विभाजन से उत्पादन अधिक मात्रा में तथा सस्ता होगा जिससे उसका दूरवर्ती बाजारों में विक्रय सरलता से हो सकेगा।

बाजार मूल्य का आशय (Meaning of Market Price)

बाजार मूल्य वह मूल्य होता है जो किसी समय-विशेष पर बाजार में वास्तव में प्रवलित होता है। यह माँग और पूर्ति की शक्तियों के अस्थायी सन्तुलन द्वारा निर्धारित होता है। इसे अति अल्पकालीन साम्य मूल्य (Very short period equilibrium price) भी कहते हैं। अति अल्पकाल या बाजार काल वह समयावधि है जिसमें पूर्ति लगभग स्थिर या गोदामों में रखे स्टॉक तक ही सीमित होती है। यह समयावधि कुछ घण्टों से लेकर एक दिन या 1 सप्ताह तक हो सकती है। इस काल में पूर्ति पक्ष निष्क्रिय रहता है। अतः मूल्य निर्धारण में माँग की भूमिका सक्रिय एवं प्रबल रहती है अर्थात् माँग के घटने-बढ़ने से ही मूल्य घटता-बढ़ता है। प्रो० स्टिगलर के शब्दों में, “बाजार मूल्य समय की उस अवधि के अन्तर्गत निर्धारित मूल्य को कहते हैं जिसमें उस वस्तु की पूर्ति स्थिर रहती है।” प्रतियोगिता की दशाओं में बाजार मूल्य की प्रवृत्ति सदैव दीर्घकालीन साम्य मूल्य की ओर जाने की होती है।

सामान्य मूल्य का आशय (Meaning of Normal Price)

प्रायः दीर्घकालीन साम्य मूल्य को ही ‘सामान्य मूल्य’ कहा जाता है। यह वह मूल्य होता है। जो माँग और पूर्ति की शक्तियों के दीर्घकालीन सन्तुलन से स्थापित किया जाता है। दीर्घकाल का आशय एक ऐसी समयावधि से होता है जिसमें वस्तु की पूर्ति को घटा-बढ़ाकर माँग के अनुरूप किया जा सकता है। इस काल में व्यवसाय के स्थिर संयंत्रों की क्षमता को माँग के अनुरूप किया जा सकता है।

प्रो० मार्शल के शब्दों में, “किसी वस्तु का सामान्य मूल्य वह है जो बाजार की आर्थिक शक्तियाँ अन्ततोगत्वा निश्चित करती हैं।” अतः यह मूल्य अपेक्षाकृत अधिक स्थायी होता है क्योंकि यह दीर्धकाल में ऐसे सन्तुलन की स्थिति में विद्यमान होगा जबकि स्थायी मूल्य समायोजन में विघ्न डालने वाले तत्व पूर्णतया हटा दिये जाते हैं। चूँकि इस प्रावैगिक संसार में विघ्नकारक तत्व सदैव क्रियाशील रहते हैं और स्थायी मूल्य समायोजन प्रक्रिया में बाधा डालते रहते हैं, अतः सामान्य मूल्य काल्पनिक एवं अमूर्त होता है जो कि वास्तव में किसी समय-विशेष में प्रचलित नहीं होता क्योंकि जिस दीर्घकाल की हम आशा करते हैं वह निरन्तर। आगे खिसकता रहता है और आने वाले कल’ की भाँति कभी नहीं आता। वास्तव में इस प्रावैगिक समाज में सामान्य मूल्य एक ‘गतिशील लक्ष्य’ (moving target) है जिसकी ओर। बाजार मूल्य निरन्तर जाने की प्रवृत्ति रखता है परन्तु वास्तव में वहाँ पहँच नहीं सकता।

व्यावसायिक अर्थशास्त्र बाजार मूल्य का निर्धारण (Determination of Market Price)

बाजार मूल्य का निर्धारण माँग और पूर्ति के अस्थायी सन्तुलन द्वारा होता है। अति अल्पकाल में वस्तु की पूर्ति लगभग स्थिर रहती है, इसलिये मूल्य निर्धारण में माँग का ही प्रमुख हाथ रहता है। माँग बढ़ने पर मूल्य बढ़ता है तथा माँग के कम हो जाने पर मूल्य कम हो। जाता है।

जैसा कि अभी उल्लेख किया गया है कि बाजार अवधि में वस्तु की पूर्ति मौजूदा स्टॉक द्वारा सीमित होती है किन्तु इसका आशय यह नहीं है कि बाजार अवधि में वस्तु की पूर्ति आवश्यक रूप से वस्तु के मौजूदा स्टॉक के बराबर ही हो। अति अल्पकाल में वस्तु की पूर्ति विभिन्न बाजार मूल्यों पर अपनी प्रकृति के अनुसार अपने मौजूदा स्टॉक के बराबर हो सकती है या उससे कम; किन्तु यह कभी भी उपलब्ध स्टॉक से अधिक नहीं हो सकती। इस विवेचन के लिये सभी वस्तुओं को दो वर्गों में रखा जा सकता है :

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(1) पुनरुत्पादनीय वस्तुएँ (Reproducible Goods)

(2) निरुत्पादनीय वस्तुएँ (Non-Reproducible Goods)

पुनरुत्पादनीय वस्तुएँ वे वस्तुएँ होती हैं जिनका उत्पादन बार-बार किया जा सकता है। इन्हें दो वर्गों में रखा जाता है : (अ) शीघ्र नष्ट होने वाली वस्तुएँ (Perishable Goods), जैसे हरी सब्जी, दूध आदि और (ब) शीघ्र नष्ट न होने वाली वस्तुएँ या टिकाऊ वस्तुएँ (Non-Perishable Goods or Durable Goods), जैसे अनाज, कपड़ा आदि। निरुत्पादनीय वस्तुएँ वे होती है जिन्हें दुबारा नहीं उत्पादित किया जा सकता है, जैसे प्राचीन समय के कलात्मक चित्र, पुरानी हस्तलिपियाँ आदि।

शीघ्र नष्ट होने वाली तथा निरुत्पादनीय वस्तुओं का बाजार मूल्य निर्धारण

(Market Price Determination of Perishable and Non-Reproducible Goods)

शीघ्र नष्ट होने वाली वस्तुओं के समस्त RMPS स्टॉक को उसी दिन बेचना होता है, चाहे उनका बाजार मूल्य कुछ भी क्यों न हो। दूसरे शब्दों में, ऐसी वस्तु की पूर्ति उसके उपलब्ध स्टॉक के बराबर होती है। इसी तरह निरुत्पादनीय वस्तुओं की पूर्ति भी मौजूदा स्टॉक के बराबर ही होती है। अतः इन दोनों प्रकार की वस्तुओं की पूर्ति पूर्णतया बेलोचदार (Perfectly inelastic) होती है अर्थात यह एक खड़ी सरल रेखा का रूप लिये होती है, जैसा कि चित्र सं0 1.1 में MPS रेखा द्वारा स्पष्ट किया गया है।

इन वस्तुओं के बाजार मूल्य के निर्धारण में पूर्ति (या उत्पादन लागत) का प्रभाव निष्क्रिय होगा; मुख्य तथा सक्रिय प्रभाव माँग का पड़ेगा। चित्र में DD मूल माँग वक्र है जो पर्ति वक्र को E बिन्दु पर काटता है। अतः बाजार मूल्य OP निर्धारित होगा और इस मूल्य पर वस्तु की समस्त पूर्ति 0Q बिक जाती है। यदि मांग बढ़कर DD हो जाती है तो बाजार मूल्य बढ़कर OP, हो जायेगा और इस बढ़े हुए मूल्य पर भी वस्तु की पूर्ति OQ ही बनी रहेगी। इसी प्रकार यदि मांग घटकर DD हो जाती है तो बाजार मूल्य घटकर OP रह जायेगा लेकिन पूर्ति तब भी ० ही बनी रहेगी क्योंकि वस्तु के नाशवान होने के कारण विक्रेता उसे भविष्य के लिये बचा कर नहीं रख सकता।

शीघ्र नष्ट होने वाली वस्तुओं के सम्बन्ध में मूल्य गिरावट की एक निम्नतम सीमा हो सकती है जिससे कम मूल्य पर विक्रेता वस्त को बेचने के स्थान पर स्वयं उपभोग करना या नष्ट करना पसंद कर सकता है। इस निम्नतम मूल्य को ‘आरक्षित मूल्य’ कहते हैं। चित्र में विक्रेताओं के लिये आरक्षित मूल्य P है। यदि माँग गिरकर D,D, हो जाती है तो मूल्य Po होता, किन्तु इस मूल्य पर विक्रेता अपनी वस्तु नहीं बेचेगा क्योंकि यह मूल्य सुरक्षित मूल्य P, से कम है। सुरक्षित मूल्य से नीचे (अर्थात् K बिन्दु के नीचे) पूर्ति रेखा को चित्र में ‘टूटी रेखा’ (Broken line) द्वारा दिखाया गया है जो यह बताती है कि इस मूल्य से नीचे वस्तु के बेचे जाने वाली मात्रा शून्य होगी।

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शीघ्र नष्ट होने वाली या टिकाऊ वस्तुओं का बाजार मूल्य निर्धारण

(Market Price Determination of Non-Perishable or Durable Goods)

अति अल्पकाल में टिकाऊ वस्तु की पूर्ति को घटाया-बढ़ाया जा सकता है किन्तु यह परिवर्तन मौजूदा स्टॉक तक सीमित रहता है। दूसरे शब्दों में, बाजार काल में ऐसी वस्तुओं की पूर्ति को घटाया तो जा सकता है किन्तु इनमें वृद्धि इनके मौजूदा स्टॉक तक ही सम्भव है। अतः टिकाऊ वस्तुओं के मूल्य निर्धारण में भी मुख्य प्रभाव माँग का ही रहता है, पूर्ति का प्रभाव बहुत कम होता है। यदि ऐसी वस्तु की माँग घट जाती है जिसके फलस्वरूप बाजार मूल्य लाभकारी मूल्य नहीं रह जाता है तो विक्रेता मूल्य बढ़ने की आशा में अपनी वस्तु की पूर्ति कुल स्टॉक से कम करेगा और उसका कुछ भाग गोदाम में ही पड़ा रहने देगा। किन्तु पूर्ति को घटाकर पूर्णतया माँग के अनुरूप नहीं किया जा सकेगा, अतः माँग घटने पर वस्तु का मूल्य भी घटेगा।

इसी प्रकार यदि बाजार में वस्तु की माँग बढ़ जाती है जिसके फलस्वरूप वस्तु का मूल्य अधिक लाभकारी हो जाता है तो विक्रेता अपने समस्त स्टॉक को बिक्री के लिये उपस्थित करके पूर्ति को बढ़ा सकता है किन्तु यह वृद्धि माँग के अनुरूप न होने के कारण वस्तु का बाजार मूल्य बढ़ जायेगा। इस सम्बन्ध में यह ध्यान रखना है कि विक्रेता का एक निम्नतम मूल्य अथवा सुरक्षित मूल्य होता है जिससे कम कीमत पर उसकी Pपूर्ति शून्य हो जाती है और वह वस्तु की सारी मात्रा स्टॉक कर लेता है। मूल्य के बढ़ने पर र वह वस्तु की पूर्ति बढ़ाता जाता है तथा एक निश्चित मूल्य स्तर (अधिकतम मूल्य) पर वह अपना सारा स्टॉक बेचने को तैयार हो जाता है। निम्नतम मूल्य और अधिकतम मूल्य के बीच पूर्ति रेखा बायें से दायें ऊपर की ओर चढ़ती हुई होगी और. अधिकतम मूल्य के पश्चात पति रेखा खड़ी रेखा हो जायेगी क्योंकि अधिकतम मल्य के बाट मल्य बढने पर विक्रेता वस्त की पूर्ति नहीं बढ़ा सकता है। चित्र 1.2 में MPS टिकाऊ वस्तुओं की अति अल्पकालीन पर्ति रेखा है। चित्र में मूल माग रखा DD पूर्ति रेखा को E बिन्द पर काटती है। अतः सन्तुलन मूल्य OP होगा।

इस मूल्य पर विक्रेता अपने कुल स्टॉक OQ से OQ, मात्रा की बाजार में पूर्ति करेगा तथा QQ मात्रा का स्टॉक कर लेगा। यदि माँग बढ़कर DD, हो जाती है तो सन्तुलन मूल्य OP, होगा और इस मूल्य पर वह अपना सारा स्टॉक OQ बेच देगा। यदि माँग पुनः बढ़कर D,D, हो जाती है तो मूल्य बढ़कर OP3 हो जायेगा किन्तु बेची जाने वाली मात्रा OQ, ही रहेगी क्योंकि उसे बढ़ाया नहीं जा सकता। यदि माँग घटकर DD, हो जाती है तो मूल्य घटकर OP, हो जायेगा और विक्रेता अपने कुल स्टॉक से केवल OQ. मात्रा बेचेगा तथा Q.Q मात्रा का स्टॉक कर लेगा। OM आरक्षित मूल्य से नीचे किसी मूल्य पर विक्रेता वस्तु को बिल्कुल नहीं बेचेगा और सारी OQ मात्रा का स्टॉक कर लेगा।

सामान्य मूल्य का निर्धारण (Determination of Normal Price)

सामान्य मूल्य दीर्घकालीन मूल्य होता है। यह माँग और पूर्ति के दीर्घकालीन सन्तुलन द्वारा निर्धारित होता है। दीर्घकाल में इतना समय होता है कि फर्म के स्थिर साधनों में परिवर्तन लाकर तथा नई फर्मों के उद्योग में प्रवेश अथवा पुरानी फर्मों के बहिर्गमन द्वारा वस्तु की पूर्ति को पूर्णतया माँग के अनुरूप किया जा सकता है। इस प्रकार इस काल में वस्तु के मूल्य निर्धारण में माँग की अपेक्षा पूर्ति पक्ष अधिक प्रभावी होता है।

 

चित्र 1.3 में सामान्य मूल्य निर्धारण को प्रदर्शित किया गया है। चित्र में DD दीर्घकालीन माँग रेखा है तथा Ss दीर्घकालीन पूर्ति रेखा है। ये दोनों एक दूसरे को P बिन्दु पर काटती हैं। अतः PQ ‘दीर्घकालीन साम्य मूल्य’ हुआ तथा 0Q माँग और पूर्ति की मात्रा साम्य मात्राएँ हुईं। ध्यान रहे कि साम्य मूल्य ।

चित्र 1.3 पर सीमान्त लागत और सीमान्त उपयोगिता बराबर होती हैं। चित्र में P बिन्दु माँग रेखा DD पर स्थित है, अतः PQ सीमान्त उपयोगिता (Marginal Utility) को बतलाता है। चूंकि P बिन्दु पूर्ति रेखा SS पर भी स्थित है, अतः PQ सीमान्त आगम को भी बताता है। अतः स्पष्ट है कि दीर्घकालीन साम्य की स्थिति में सामान्य मूल्य, सीमान्त उपयोगिता और सीमान्त लागत दोनों के बराबर होता है।

दीर्घकाल में पूर्ण प्रतियोगिता की दशा में वस्तु के मूल्य की प्रवृत्ति सामान्य मूल्य के बराबर होने और स्थिर बने रहने की होती है। यदि किसी कारण वश मूल्य PQ से बढ़कर PO, हो जाता है तो इसका यह अर्थ हुआ कि यह मूल्य सीमान्त लागत MO, से अधिक है। ऐसी स्थिति में विक्रेता अपने लाभों को अधिकतम करने के लिये अपने उत्पादन को बढायेगा। उत्पादन (या पूति) बढ़ने से मूल्य गिरेगा और अन्त में यह सामान्य मुल्य PO के बराबर हो जायेगा. जैसा कि चित्र में बार्य से दायें तीर द्वारा दिखलाया गया है। इसी तरह यदि माल्य सामान्य मूल्य से कम है, माना कि यह PQ. है तो इसका अर्थ हआ कि यह मूल्य सीमान्त लागत LQ2 से कम है। ऐसी स्थिति में विक्रेता अपनी जान का उत्पादन घटायेगा। उत्पादन (या पूर्ति) घटने से मूल्य बढेगा और अन्त में यह सामान्य के बराबर हो जायेगा, जैसा कि दार्य से बायें को जाता हुआ तीर बताता है।

सामान्य मूल्य की दूसरी शर्त यह है कि यह औसत लागत (Average Cost) के बराबर होता है। यदि सामान्य मूल्य औसत लागत से अधिक है तो उत्पादकों को अतिरिक्त लाभ प्राप्त होगा जिससे आकर्षित होकर कुछ नयी फर्मे उद्योग में प्रवेश करेंगी। इससे वस्तु की पूर्ति बढ़ेगी और मूल्य घटकर औसत लागत के बराबर आ जायेगा। इसी तरह यदि सामान्य मूल्य औसत लागत से कम है तो उत्पादकों को हानि होगी जिसके कारण कुछ फमें उद्योग को छोड़ देंगी। इससे वस्तु की पूर्ति घटेगी और मूल्य बढ़कर औसत लागत के बराबर आ जायेगा।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि पूर्ण प्रतियोगिता में सामान्य मूल्य के लिये निम्न दो शर्ते पूरा करना आवश्यक है :

(1) सामान्य मूल्य = सीमान्त लागत = सीमान्त उपयोगिता।

(2) सामान्य मूल्य = औसत लागत।

सामान्य मूल्य और उत्पत्ति के नियम (Normal Price and Laws of Returns)

जैसा कि बताया जा चुका है कि सामान्य मूल्य उत्पादन लागत के बराबर होता है तथा उत्पादन लागत स्वयं उद्योग में क्रियाशील उत्पत्ति के नियम पर निर्भर करती है। अतः सामान्य मूल्य निर्धारण में उत्पत्ति के नियमों के प्रभाव का विवेचन आवश्यक होगा।

सामान्य मूल्य और उत्पत्ति ह्रास नियम या लागत वृद्धि नियम (Normal Price and Law of Diminishing Returns or Law of Increasing Costs) : जब किसी वस्तु का उत्पादन लागत वृद्धि नियम के अन्तर्गत हो रहा है तो इसका यह आशय हुआ कि उत्पादन की जाने वाली प्रत्येक अगली इकाई की लागत क्रमशः बढ़ती जायेगी। इस नियम के क्रियाशील होने पर पूर्ति रेखा बायें से दायें ऊपर की ओर चढ़ती हुई होगी, जैसा कि चित्र 14 में Ss रेखा द्वारा दर्शाया गया है। मूल माँग रेखा DD पूर्ति रेखा SS को P बिन्दु पर काटती है। अतः PQ मूल्य निर्धारित होगा। यदि माँग बढ़कर DD हो जाती है तो वस्तु की पूर्ति बढ़ाने पर औसत लागत बढ़ेगी जिससे माँग और पूर्ति का साम्य बढ़े हुए मूल्य PR पर होगा। इसी तरह यदि माँग घटकर D,D, हो जाती है तो वस्तु की पूर्ति घटायी जायेगी जिससे औसत मात्रा लागत घटेगी और माँग और पूर्ति का संतुलन घटे मूल्य PQ, पर होगा।

 

सामान्य मूल्य और उत्पत्ति वृद्धि नियम या लागत हास नियम (Normal Price and Law of Increasing Returns or Law of Decreasing Costs) : जब किसी वस्तु का उत्पादन लागत हास नियम के अन्तर्गत हो रहा हो तो इसका आशय यह हुआ कि उत्पादित की जाने वाली प्रत्येक अगली इकाई की लागत क्रमशः कम होती जायेगी। इसीलिये इसमें पूर्ति रेखा बाप स दायें नीचे की ओर गिरती हई होती है जैसा कि चित्र 1.5 में SS रेखा द्वारा दिखाया गया है। चित्र में मूल माँग रेखा DD पूर्ति रेखा SS को P बिन्दु पर काटती है, अतः मूल्य PQ निर्धारित होगा। यदि माँग बढ़कर DD हो जाती है तो बढ़ी माँग के अनुसार पूर्ति बढ़ेगी तथा पूर्ति बढ़ने पर लागत हास नियम की क्रियाशीलता के कारण औसत लागत घटेगी। जिसके फलस्वरूप माँग और पूर्ति का सन्तुलन पहले से नीचे मूल्य PQ, पर होगा। इसके विपरीत यदि माँग घटकर DD हो जाती है तो पूर्ति घटाने पर औसत लागत बढ़ेगी तथा माँग मात्रा और पूर्ति का सन्तुलन पहले से ऊँचे मूल्य पर होगा।

सामान्य मूल्य और उत्पत्ति समता नियम या लागत समता नियम (Normal Price and Law of Constant Returns or Law of Constant Costs) : इस नियम की क्रियाशीलता की स्थिति में पूर्ति रेखा एक पड़ीY रेखा होगी जैसा कि चित्र 1.6 में दर्शाया गया है। ऐसी स्थिति में प्रत्येक उत्पादन मात्रा के लिये उत्पादन लागत स्थिर रहती है। अतः माँग में परिवर्तन का वस्तु के मूल्य पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। जैसा कि चित्र से स्पष्ट है कि मूल माँग रेखा DD पूर्ति रेखा SS को P बिन्दु पर काटती है, अतः PQ मूल्य निर्धारित होगा। यदि माँग बढ़कर DD, हो जाती है तो बढ़ी माँग के लिये पूर्ति बढ़ाने पर लागत समता नियम की क्रियाशीलता के कारण औसत लागत समान है

जिससे बढ़ी मात्रा के लिये नया संतुलन मात्रा मूल्य PIQ, पूर्व मूल्य PQ के बराबर ही रहता है। इसी तरह यदि माँग घटकर DD हो जाती है तो भी घटी मात्रा के लिये नया सन्तुलन मूल्य P2Q2 पूर्व मूल्य PQ के बराबर ही रहता है।

बाजार मूल्य और सामान्य मूल्य की तुलना

(Comparison of Market Price and Normal Price)

1 समयावधि (Period) : बाजार मूल्य अति अल्पकालीन मूल्य होता है जबकि सामान्य मूल्य दीर्घकालीन मूल्य होता है।

2. व्यावहारिकता (Practicability) : बाजार मूल्य किसी समय-विशेष में प्रचलित वास्तविक मूल्य होता है और वास्तविक लेनदेन इसी मूल्य पर किये जाते हैं। इसके विपरीत सामान्य मूल्य काल्पनिक व अमूर्त होता है जो व्यवहार में कहीं देखने को नहीं मिलता। फिर भी समल्य में इस दृष्टि से वास्तविकता होता है कि यह केन्द्र बिन्दु (Focal Point) की भांति होता है जिसके चारों ओर बाजार मूल्य घूमता रहता है।

3. कीमत निर्धारण में मांग पूर्ति की भूमिका (Role of Demand and Supply in : बाजार मूल्य के निधोरण में मांग की भूमिका मुख्य व सक्रिय Price Determination) : बाजार मूल्य के निर्धारण में माँग की बाजार, बाजार मूल्य और सामान्य मूल्य रहती है किन्तु पूर्ति की भूमिका निष्क्रिय। इसके विपरीत सामान्य मूल्य के निर्धारण में माँग की भूमिका मुख्य नहीं रह जाती क्योंकि दीर्घकाल में वस्तु की पूर्ति में परिवर्तन लाना सम्भव होता है। अतः इसमें पूर्ति पक्ष सक्रिय रहता है।

4. साम्यावस्था (Equilibrium) : बाजार मूल्य माँग और पूर्ति का अस्थायी सन्तुलन (Temporary equilibrium) होता है, परिणामस्वरूप यह दिन में कई बार बदल सकता है। इसके विपरीत सामान्य मूल्य अन्तिम सन्तुलन (final equilibrium) होता है और यह मूल्य स्थिर रहेगा बशर्ते कि माँग और पूर्ति की शक्तियों में कोई परिवर्तन न आये। किन्तु अनेक कारणों से सामान्य मूल्य स्थिर न होकर गतिशील बिन्दु होता है जिसकी ओर बाजार मूल्य के जाने की प्रवृत्ति रहती है।

5. उत्पादन लागत (Cost of Production) : बाजार मूल्य वस्तु की उत्पादन लागत से कम, अधिक अथवा बराबर हो सकता है किन्तु सामान्य मूल्य सदैव उत्पादन लागत के बराबर होता है।

6. लाभहानि (Profit or Loss) : बाजार काल में एक फर्म को असामान्य लाभ हो सकता है और हानि भी। परन्तु दीर्घकाल में फर्म को केवल सामान्य लाभ ही प्राप्त होता है। और यह उत्पादन लागत में सम्मिलित रहता है।

7. वस्तु की प्रकृति (Nature of Commodity) : बाजार मूल्य सभी प्रकार की वस्तुओं अर्थात् निरुत्पादनीय एवं पुनरुत्पादनीय का होता है जबकि सामान्य मूल्य केवल पुनरुत्पादनीय वस्तुओं का होता है; निरुत्पादनीय वस्तुओं का सामान्य मूल्य बताना बड़ा कठिन है क्योंकि इनका मूल्य उत्पादन लागत से निश्चित न किया जा कर ‘भावुकता’ के आधार पर तय होता है।

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बाजार मूल्य और सामान्य मूल्य में सम्बन्ध

(Relation Between Market Price And Normal Price)

बाजार मूल्य और सामान्य मूल्य में घनिष्ट सम्बन्ध पाया जाता है। बाजार मूल्य में क्षणिक शक्तियाँ प्रभावी रहती हैं जिसके कारण इसमें निरन्तर परिवर्तन आते रहते हैं किन्तु इसकी प्रवृत्ति सदैव सामान्य मूल्य के बराबर हो जाने की होती है। बाजार मूल्य सामान्य मूल्य के चारों ओर चक्कर लगाता रहता है। इस प्रयास में यह कभी सामान्य मूल्य से ऊँचा हो जाता है तो कभी नीचा; किन्तु यह अधिक समय तक सामान्य मूल्य से ऊँचा या नीचा नहीं रह सकता क्योंकि यदि बाजार मूल्य सामान्य मूल्य से ऊँचा है तो उत्पादकों का लाभ बढ़ेगा, वे अधिक लाभ से प्रभावित होकर वस्तु की पूर्ति बढ़ायेंगे, पूर्ति के बढ़ने से मूल्य गिरेगा और अन्त में यह सामान्य मूल्य के बराबर आ जायेगा। इसी तरह यदि बाजार मूल्य सामान्य मूल्य से नीचा है तो उत्पादकों को हानि होगी, इससे वे अपना उत्पादन घटायेंगे, जिससे वस्तु की पूर्ति घटेगी, परिणामस्वरूप वस्तु के मूल्य बढ़ेंगे और धीरे-धीरे ये सामान्य मूल्य के बराबर आ जायेंगे। इस प्रकार हम देखते हैं कि बाजार मूल्य सदैव सामान्य मूल्य के चारों ओर चक्कर लगाता रहता है

उपर्युक्त चित्र में पड़ी रेखा सामान्य मूल्य को प्रदर्शित कर रही है और टेडी-मेड़ी रेखा बाजार मूल्य को। चित्र से स्पष्ट है कि बाजार मूल्य अस्थायी कारणों से कभी सामान्य मूल्य से ऊँचा हो जाता है तो कभी नीचा। किन्तु इसकी दीर्घकालीन प्रवृत्ति सामान्य मूल्य के बराबर आने की रहती है।

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सैद्धान्तिक प्रश्न

(Theoretical Questions)

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

(Long Answer Questions)

1 बाजार का अर्थ बताइये तथा बाजार के विस्तार को प्रभावित करने वाले तत्वों की व्याख्या कीजिये।

State the meaning of market and explain the factors affecting the expansion of market.

2. बाजार मूल्य क्या है ? यह किस प्रकार निर्धारित होता है ? आप बाजार मूल्य को किस प्रकार सामान्य मूल्य से भेदित कर सकते हैं ?

What is the market price? How is it determined? How do you distinguish market price from normal price?

3. बाजार मूल्य तथा सामान्य मूल्य के भेद को स्पष्ट कीजिये। सामान्य मूल्य का निर्धारण कैसे होता है ?

Distinguish between market price and normal price. How is normal price determined?

4. बाजारी कीमत और सामान्य कीमत में अन्तर कीजिये। समझाइये कि शीघ्र नष्ट होने वाली वस्तुओं का बाजार मूल्य कैसे निर्धारित होता है ?

5. सामान्य मूल्य एवं बाजार मूल्य से आप क्या समझते हैं ? इन मूल्यों के अन्तर एवं सम्बन्ध को स्पष्ट कीजिये।

What do you understand by normal price and market price? Explain clearly the relation and the difference between these two prices.

6. सामान्य मूल्य पर टिप्पणी लिखिये।

Write short note on Normal Price.

7. किसी वस्तु का सामान्य मूल्य स्थायी रूप में उसके उत्पादन व्यय से अधिक या कम नहीं हो सकता।” विवेचना कीजिये।

The normal price of a commodity cannot be permanently be either above or below its cost of production.” Elucidate.

8. बाजार मूल्य सामान्य मूल्य के चारों ओर ऊँचा-नीचा होता है और वह सामान्य मूल्य की ओर जाने की प्रवृत्ति रखता है’। विवेचना कीजिए। “

Market price moves up and down the Normal Price but has a tendency to merge with the Normal Price.’ Explain.

9. सामान्य मूल्य तथा बाजार मूल्य के बीच अन्तर स्पष्ट करो। क्या यह कहना सत्य है कि सामान्य मूल्य वह मूल्य है जिसके चारों ओर बाजार मूल्य चक्कर काटता है ?

Explain the difference between normal price and market price. Is it true to say that a normal price is that price around which the market price revolves?

10. सामान्य मूल्य पर उत्पत्ति के नियमों के प्रभाव की बाजार मूल्य और सामान्य मूल्य

Discuss the effects of the Laws of Returns on Normal Price.

11. क्या आप इस विरोधाभास को समझा सकते हैं कि कभी-कभी एक वस्तु की सामान्य मांग में वृद्धि वस्तु की कीमत में कमी कर सकती है?

Can you account for the paradox that sometimes a rise in normal demand for a commodity may lead to a fall in price?

लघु उत्तरीय प्रश्न

(Short Answer Questions)

उत्तर 100 से 120 शब्दों के बीच होना चाहिये।

The answer should be between 100 to 120 words.

1 बाजार के आवश्यक तत्वों से आपका क्या अभिप्राय है?

What do you mean by essential elements of the market?

2. बाजार मूल्य और सामान्य मूल्य के बीच सम्बन्ध स्पष्ट कीजिये।

Explain clearly the relationship between market price and normal price.

3. किसी वस्तु का सामान्य मूल्य स्थायी रूप से उसकी उत्पादन लागत से अधिक या कम नहीं हो सकता है।” विवेचना कीजिये।

The normal price of a commodity cannot permanently be either above or below its cost of production.” Elucidate.

4. बाजार मूल्य सामान्य मूल्य के चारों ओर ऊँचा-नीचा होता है किन्तु वह सामान्य मूल्य की ओर जाने की प्रवृत्ति रखता है।” विवेचना कीजिये।

Market price moves up and down the Normal Price but has a tendency to merge with the Normal Price.” Explain.

Economics market Price Normal

III. अति लघु उत्तरीय प्रश्न

(Very Short Answer Questions)

(अ) एक शब्द या एक पंक्ति में उत्तर दीजिये।

Answer in one word or in one sentence.

1 बाजार मूल्य क्या है?

What is the market price?

2. सामान्य मूल्य क्या है?

What is the normal price?

3. मूल्य निर्धारण में किस अवधि में माँग कारक प्रबल रहता है।

In which period demand is dominant in determining price?

4. वस्तु कीमत निर्धारण में समय तत्व की अवधारणा किसकी देन है।

In commodity price determination who has given the concept of time element.

(उत्तरमाला : (1) बाजार मूल्य वह मूल्य होता है जो किसी समय-विशेष पर बाजार में वास्तव में प्रचलित होता है। (2) सामान्य मूल्य वह मूल्य होता है जो कि माँग और पूर्ति के दीर्घकालीन संतलन द्वारा निर्धारित होता है। (3) बाजार काल में। (4) मार्शल)

Economics market Price Normal

() जतलाइये कि क्या निम्नलिखित कथन सत्य हैं या असत्य।

State whether the following statements are True or False..

1 बाजार का आशय एक ऐसे स्थान से है जहाँ वस्तुओं का क्रय-विक्रय किया जाता है।

Market means the place at which commodities are bought and sold.

2. मूल्य और कीमत समानार्थक हैं।

Value and price are synonyms.

3. बाजार मूल्य और सामान्य मूल्य समानार्थक हैं।

Market price and normal price are synonyms.

4. अल्पकाल में बाजार मूल्य सामान्य मूल्य से कम या अधिक हो सकता है किन्तु दीर्घकाल में यह सामान्य मूल्य के बराबर होने की प्रवृत्ति रखता है।

In short-run, market price may be more or less than the normal price but in long-run, it tends to be equal to normal price.

5. बाजार मूल्य सामान्य मूल्य के चारों ओर चक्कर लगाता रहता है।

Market price clusters around the normal price.

6. अति अल्पकाल में वस्तु की पूर्ति को न तो घटाया जा सकता है और न बढ़ाया जा सकता है।

In very short period, supply of a commodity can neither be increased, nor decreased.

7. अल्पकालीन सामान्य मूल्य औसत उत्पादन लागत से कम, बराबर या अधिक हो सकता है।

The short period normal price can be less than, equal to or more than the average cost of production.

8. एक फर्म को अपने न्यूनतम लागत उत्पादन स्तर से अधिक उत्पादन नहीं करना चाहिये।

A firm must not produce more than its least cost output level.

9. अति अल्पकाल में मूल्य के निर्धारण में माँग का ही प्रमुख हाथ रहता है।

In very short period, demand plays dominant role in the determination of price.

10. वस्तु का अधिकतम मूल्य उसकी सीमान्त उपयोगिता के बराबर होता है।

The maximum price of the commodity is equal to its marginal utility.

11 वस्तु का न्यूनतम मूल्य उसकी सीमान्त उत्पादन लागत के आधार पर निर्धारित किया जाता है।

The minimum price of the commodity is determined on the basis of its marginal cost of production.

12. वस्तु का मूल्य उसकी सीमान्त उपयोगिता के बराबर होता है।

Price of the commodity is equal to its marginal utility.

13. अति अल्पकाल और बाजार काल पर्याय हैं।

Very short periods and market periods are synonyms.

[उत्तरमाला : सत्य : 4,5,7,9, 10, 11, 13 असत्य : 1, 2, 3, 6, 8, 12]

Economics market Price Normal

() रिक्त स्थानों की पूर्ति करो

(Fill in the blanks) :

1 अर्थशास्त्र के अन्तर्गत बाजार से अभिप्राय उस ………. से होता है जहाँ विशिष्ट वस्तु के क्रेता और विक्रेता परस्पर प्रतियोगिता करते हैं।

In Economics, market implies ……….. where buyers and sellers of a particular commodity compete mutually. ……….

2. वस्तु के मूल्य की न्यूनतम सीमा है।

The ……….. is the lowest limit of price of a commodity.

3. वस्तु का अधिकतम मूल्य उसकी ………. उपयोगिता के आधार पर निर्धारित होता है।

Maximum price of a commodity is equal to its ……. utility.

4. अति अल्पकालीन साम्य मूल्य को ………. मूल्य भी कहते हैं।

Very short period equilibrium price is also known as …….. price.

5. साम्य मूल्य को सामान्य मूल्य भी कहते हैं।

equilibrium price is also known as normal price.

6. अति अल्पकालीन बाजार में वस्तु के मूल्य के निर्धारण में ………. का अधिक प्रभाव पड़ता है।

The ………… plays a dominant role in determining price in very short period market.

7. एक प्रतियोगी बाजार में बाजार मूल्य की प्रवृत्ति सदैव ………. के चारों ओर चक्कर लगाने की होती है।

In a competitive market the tendency of market price is to revolve around the ….

8. बाजार अवधि में पूर्ति-रेखा सरल ………….. रेखा होती है।

In market period supply line is a straight … … ……. line.

[उत्तरमाला : (1) समस्त क्षेत्र a whole area (2) सीमान्त लागत marginal cost (3) सीमान्त marginal (4) बाजार market (5) दीर्घकालीन long period (6) माँग demand (7) सामान्य मूल्य normal price (8) खड़ी vertical]

Economics market Price Normal

() सही उत्तर का चयन करो

(Choose the correct answer) :

1 फर्म का साम्य तब होता है जबकि :

The equilibrium of a firm occurs when :

(a) AR= MR

(b) MC = MR

(c) AR = MC

(d) AC = MC.

2. अति अल्पकाल में मूल्य निर्धारण में प्रबल भूमिका होती है : (अ) माँग की

(ब) पूर्ति की (स) (अ) और (ब) दोनों की।

In the very short period, the dominant role in price determination is of :

(a) demand

(b) supply

(c) (a) and

(b) both.

[उत्तरमाला : 1. (b) 2. (a)]

Economics market Price Normal

chetansati

Admin

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