BCom 1st Year Economics Price Output Decisions Under Perfect Competition Notes in hindi

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BCom 1st Year Economics Price Output Decisions Under Perfect Competition Notes in Hindi

Table of Contents

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Decisions Under Perfect Competition
Decisions Under Perfect Competition

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पूर्ण प्रतियोगिता में मूल्य और उत्पादन के निर्णय

(Price And Output Decisions Under Perfect Competition)

व्यवसाय में मूल्य-उत्पादन सम्बन्धी विवेकपूर्ण निर्णयन के लिये एक व्यवसाय प्रबन्धक को बाजार ढाँचे का ज्ञान होना आवश्यक हो जाता है। बाजार ढाँचे (Market Structure) का आशय किसी उद्योग विशेष में व्याप्त प्रतियोगिता की प्रकृति, स्थिति अथवा रूप से होता है। पापास और हिरशे के शब्दों में, “बाजार संरचना का आशय किसी वस्तु या सेवा के लिये बाजार में क्रेताओं और विक्रेताओं की संख्या और वितरण-आकार से है। इसके अन्तर्गत न केवल वर्तमान में किसी वस्तु के क्रय-विक्रय में लगी फर्मों और व्यक्तियों को सम्मिलित किया जाता है, वरन् सम्भावी प्रवेशक (potential entrants) भी इसमें शामिल होते हैं। यह निम्न चार बातों पर निर्भर करता है :

(1) वस्तु की प्रकृति अर्थात् वस्तू समरूप है या भेदित।

(2) वस्तु के क्रेताओं की संख्या अर्थात् बाजार में वस्तु को क्रय करने के लिये अधिक व्यक्ति तैयार हैं या कम।

(3) वस्तु के विक्रेताओं की संख्या अर्थात् यह संख्या 1 है, 2 है, कुछ है या अधिक है।

(4) क्रेता और विक्रेताओं में पारस्परिक निर्भरता का अंश ।

संक्षेप में, बाजार ढाँचा बाजार में पायी जाने वाली प्रतियोगिता के अंश को व्यक्त करता है। एक बाजार में प्रतियोगिता की अनेक स्थितियाँ पायी जा सकती हैं। मोटे तौर पर इन्हें दो वर्गों में रखा जा सकता है : (1) पूर्ण प्रतियोगिता और (2) अपूर्ण प्रतियोगिता। अपूर्ण प्रतियोगिता को बाजार में पाये जाने वाले क्रेता और विक्रेताओं की संख्या के अनुसार अनेक वर्गों (जैसे एकाधिकारी प्रतियोगिता, अल्पाधिकार, द्वयाधिकार, एकाधिकार, क्रेता-एकाधिकार आदि) में विभाजित किया जाता है। बाजार के इन रूपों में दो चरम स्थितियाँ हैं : एक सिरे पर पूर्ण या विशुद्ध प्रतियोगिता होती है और दूसरे सिरे पर विशुद्ध एकाधिकार। यद्यपि ये दोनों ही काल्पनिक स्थितियाँ हैं किन्तु ये वास्तविक स्थितियों को समझने में सहायक होती हैं। व्यवहार में इन दोनों चरम स्थितियों के बीच बाजार में अनेक स्थितियाँ पायी जाती हैं। पूर्ण प्रतियोगिता का आशय (Meaning of Perfect Competition) – पूर्ण प्रतियोगिता बाजार की उस स्थिति को कहते हैं जिसमें बाजार में क्रेता और विक्रेता बहुत बड़ी संख्या में होते हैं और जो किसी समय पर बाजार का पूर्ण ज्ञान रखते हुए, किसी पूर्ण प्रतियोगिता में मूल्य और उत्पादन के निर्णय भी प्रकार के बनावटी बन्धनों के बिना किसी समरूप वस्तु के क्रय-विक्रय में लग इसमें कोई एक क्रेता या विक्रेता व्यक्तिगत रूप से बाजार मल्य को प्रभावित नहीं कर सकता है, वस्तु की मांग पूर्णतया लोचदार होती है, फर्मों के प्रवेश व बहिर्गमन पर कोई प्रतिबन्ध नहीं। होता है तथा बाजार में सभी जगह वस्तु का एक ही मूल्य होता है। श्रीमती राबिन्सन के शब्दों में, “पूर्ण प्रतियोगिता उस दशा में होती है जबकि प्रत्येक उत्पादक के उत्पादन की माँग पूर्णतया लोचदार होती है। इसका अर्थ यह है कि प्रथम, विक्रेताओं की कुल संख्या बहुत अधिक होती है जिसमें किसी एक विक्रेता का उत्पादन वस्तु के कुल उत्पादन का एक बहुत ही थोड़ा भाग होता है तथा दूसरे, सभी ग्राहक प्रतियोगिता के बीच चुनाव करने की दृष्टि से समान होते हैं। जिससे बाजार पूर्ण हो जाता है।”

Economics Price Output Decisions

पूर्ण प्रतियोगिता की विशेषतायें

(Main Features of Perfect Competition)

(1) क्रेताओं और विक्रेताओं की अधिक संख्या (Large Number of Buyers and Sellers) : पूर्ण प्रतियोगिता में क्रेता और विक्रेता बहुत बड़ी संख्या में और छोटे-छोटे होते हैं जिससे कोई भी क्रेता या विक्रेता अकेला अपने व्यवहार (क्रय-विक्रय) से वस्तु के मूल्य को प्रभावित नहीं कर सकता है।

(2) स्वतन्त्र निर्णय प्रक्रिया (Free Decisoin Making) : पूर्ण प्रतियोगिता में प्रत्येक क्रेता और विक्रेता स्वतन्त्र रूप से निर्णय लेता है। उनके बीच कोई गुटबन्दी, समझौता या गुप्त सन्धि नहीं होती।

(3) समरूप वस्तु (Homogeneous Product) : इसमें सभी उत्पादकों या विक्रेताओं की वस्तुएँ पूर्णतया एक जैसी होती हैं।

(4) फर्मों का स्वतन्त्र प्रवेश एवं बहिर्गमन (Free Entry and Exit of Firms) : पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत नई फर्मों को उद्योग में प्रवेश करने अथवा पुरानी फर्मों को उद्योग छोड़कर बाहर चले जाने की पूर्ण स्वतन्त्रता रहती है। इससे (i) कोई भी फर्म या फर्मे बाजार पर एकाधिकारात्मक नियन्त्रण की स्थिति में नहीं आ पाती हैं तथा (ii) दीर्घकाल में उद्योग की प्रत्येक फर्म को केवल सामान्य लाभ ही प्राप्त होता है।

(5) बाजार का पूर्ण ज्ञान (Perfect Knowledge of the Market) : पूर्ण प्रतियोगिता में क्रेताओं और विक्रेताओं में निकट सम्पर्क होता है। प्रत्येक क्रेता को प्रत्येक विक्रेता द्वारा माँगी जाने वाली तथा प्रत्येक विक्रेता को प्रत्येक क्रेता द्वारा दी जाने वाली कीमत की पूर्ण जानकारी रहती है। इससे बाजार में वस्तु की एक ही कीमत रहती है।

(6) क्रेताओं और विक्रेताओं में पूर्ण गतिशीलता (Perfect Mobility amongst Buyers and Sellers) : पूर्ण प्रतियोगिता में क्रेता और विक्रेता पूर्ण गतिशील होते हैं। उनके बीच आपसी लगाव नहीं होता। ऐसी स्थिति में एक ओर विक्रेताओं की मनोवृत्ति सबसे अधिक मूल्य पर क्रय करने वाले क्रेता को बेचने की होगी तो दूसरी ओर क्रेताओं की मनोवृत्ति सबसे कम कीमत पर बेचने वाले विक्रेता से क्रय करने की रहेगी। इससे बाजार में वस्तु की कीमत एक ही रहेगी।

(7) उत्पादन साधनों की पूर्ण गतिशीलता (Perfect Mobility of Factors of Production) : पूर्ण प्रतियोगिता में उत्पत्ति का प्रत्येक साधन एक प्रयोग से दूसरे प्रयोग में पूर्णतया गतिशील होता है। दूसरे शब्दों में, प्रत्येक साधन को व्यापारिक दृष्टि से अधिक लाभदायक उपयोग में प्रविष्ट होने की स्वतन्त्रता रहती है। इसमें कोई सरकारी या अन्य कोई बाह्य प्रतिबन्ध बाधक नहीं होता। ऐसा होने से उद्योग में उत्पादन के साधनों का प्रतिफल उनकी सीमान्त उत्पादकता के बराबर होता है।

(8) परिवहन लागतों का होना (Absence of Transport Costs) : पूर्ण प्रतियोगिता में यह मान लिया जाता है कि वस्तु के लाने व ले जाने में कोई परिवहन लागत नहीं आयेगी क्योंकि समस्त उत्पादक फर्मे एक दूसरे के निकट स्थित होती हैं। इसलिये बाजार में वस्तु की कीमत एक ही रहेगी।

(9) प्रतिबन्धों का अभाव (Lack of Restrictions) : पूर्ण प्रतियोगिता में किसी भी प्रकार के संस्थागत प्रतिबन्ध या हस्तक्षेप (जैसे सरकार द्वारा मूल्य निर्धारण में हस्तक्षेप) नहीं होता।

उपर्युक्त दशाओं के कारण बाजार में वस्तु का मूल्य एक ही रहता है। कोई भी क्रेता या विक्रेता अपनी व्यक्तिगत कार्यवाहियों से वस्तु के मूल्य को प्रभावित नहीं कर सकता। प्रत्येक व्यक्तिगत विक्रेता, उत्पादक या फर्म के लिये उसकी वस्तु की माँग पूर्णतया लोचदार होती है। अर्थात् इसमें एक फर्म की माँग रेखा एक पड़ी रेखा होती है। एक फर्म प्रचलित मूल्य पर चाहे जितना माल बेच सकती है। अतः वह दिये हुये मूल्य पर ही अपने उत्पादन की मात्रा निर्धारित करती है। इसीलिये इसमें एक फर्म केवल मूल्य ग्रहण करने वाली और उत्पादन समायोजक (price taker and output adjuster) ही होती है।

Economics Price Output Decisions

विशुद्ध प्रतियोगिता (Pure Competition)

अधिकांश अर्थशास्त्री पूर्ण प्रतियोगिता और विशुद्ध प्रतियोगिता के बीच अन्तर नहीं करते हैं और उन्हें एक दूसरे का पर्यायवाची ही मानते हैं। लेकिन कुछ अर्थशास्त्रियों, मुख्यतः प्रो० चेम्बरलिन ने इन दोनों में अन्तर किया है।

प्रो० चेम्बरलिन के अनुसार विशुद्ध प्रतियोगिता वह प्रतियोगिता होती है जिसमें एकाधिकारी तत्व का पूर्ण अभाव रहता है। यह पूर्ण प्रतियोगिता की तुलना बाजार की अधिक सरल एवं कम विस्तृत दशा है। पूर्ण प्रतियोगिता की तरह इसमें अधिक मात्रा में क्रेता और विक्रेता होते हैं, एक वैयक्तिक फर्म की वस्तु की माँग पूर्णतया लोचदार होती है, कोई एक फर्म अपने प्रयत्न से मूल्य में परिवर्तन नहीं कर सकती लेकिन प्रचलित भाव पर चाहे जितना माल बेच सकती है। ऐसी स्थिति में एक फर्म का औसत आगम वक्र एक क्षैतिज रेखा होती है। विलियम फ्लैनर के शब्दों में, “विशुद्ध प्रतियोगिता वह होती है जहाँ उत्पादों में कोई अन्तर नहीं होता। बाजार में सभी फर्मों के उत्पाद एक जैसे होते हैं तथा फर्मों की संख्या भी इतनी अधिक होती है कि प्रत्येक फर्म के कार्य दूसरी फर्म पर किसी प्रकार का प्रभाव नहीं रखते।” इस प्रकार इसकी प्रमुख विशेषतायें निम्नलिखित हैं :

(1) विक्रेता और क्रेताओं का अधिक संख्या में होना।

(2) स्वतन्त्र निर्णय प्रक्रिया।

(3) समरूप वस्तु अर्थात् वस्तु-विभेद की पूर्ण अनुपस्थिति।

(4) उद्योग में फर्मों का स्वतन्त्र प्रवेश एवं बहिर्गमन। कि स्पष्ट है कि उपराक्त दशार्य पूर्ण प्रतियोगिता की प्रथम चार दशायें ही हैं: पूर्ण

अन्य दशायें विशुद्ध प्रतियोगिता में नहीं शामिल होतीं। दूसरे शब्दों में, इसमें पूर्ण प्रतियोगिता में मूल्य और उत्पादन के निर्णय क्रेताओं और विक्रेताओं को बाजार में वस्तु की माँग व पूर्ति का ज्ञान नहीं होता, रीति-रिवाज, गटबन्दी. सार्वजनिक नियंत्रण आदि के कारण क्रेता और विक्रेताओं और उत्पादन के साधनामा गतिशीलता का अभाव हो सकता है तथा इसमें परिवहन लागतें भी हो सकती हैं। इसके बावजूद दोनों में कोई आधारभूत अन्तर नहीं है। अन्तर केवल मात्रा (degree) का है।

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पूर्ण प्रतियोगिता का वास्तविक जीवन में अस्तित्व

(Existence of Perfect Competition in Real Life)

प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों ने पूर्ण प्रतियोगिता को एक व्यावहारिक तथ्य माना था और उसके आधार पर उन्होंने मूल्य निर्धारण की समस्या का हल निकाला। परन्तु आधुनिक अर्थशास्त्रियों का मत है कि पूर्ण प्रतियोगिता एक कोरी कल्पना है। यह वास्तविक जीवन में नहीं पायी जाती क्योंकि इसके लिये जिन दशाओं की आवश्यकता होती है वे वास्तविक जीवन में नहीं पायी जाती हैं। 1) सभी वस्तुओं के सम्बन्ध में क्रेताओं और विक्रेताओं की संख्या अधिक नहीं होती। बहुत सी वस्तुओं के केवल कुछ ही उत्पादक या विक्रेता होते हैं और वे वस्तु के मूल्य को प्रभावित करते हैं। इसी प्रकार बहुत-सी वस्तुओं के क्रेता बहुत बड़े और प्रभावशाली होते हैं। जो कि अपनी क्रयों से मूल्य को प्रभावित करते हैं। (2) वस्तु के विक्रय मूल्य के सम्बन्ध में विक्रेताओं में समझौते हो जाते हैं। (3) वास्तविक जीवन में विभिन्न विक्रेताओं की वस्तुएँ मिलती-जुलती तो होती हैं किन्तु समरूप नहीं होती। (4) उद्योग में फर्मों के प्रवेश व बहिर्गन पर बहुत-सी प्रभावशाली बाधायें रहती हैं। (5) सामान्यतया सभी क्रेताओं और विक्रेताओं को बाजार का पूर्ण ज्ञान नहीं होता। (6) वास्तविक जीवन में क्रेताओं और उत्पत्ति के साधनों में पूर्ण गतिशीलता देखने को नहीं मिलती। (7) बहुत-सी वस्तुओं के मूल्य निर्धारण में सरकार हस्तक्षेप भी करती है। इन आधारों पर यह कहा जाता है कि पूर्ण प्रतियोगिता केवल एक भ्रम है। किन्तु यहाँ एक प्रश्न यह उठता है कि ऐसा होने पर भी इसका अध्ययन क्यों किया जाता है। वास्तव में इसका अध्ययन निम्न कारणों से उचित तथा आवश्यक है :

(1) वास्तविकता के ज्ञान की क्रमिक सीढ़ी : यद्यपि वास्तविक जीवन में पूर्ण प्रतियोगिता नहीं पायी जाती है किन्तु वास्तविक स्थिति को समझना एक अत्यन्त जटिल कार्य होता है। अतः वास्तविकता से कुछ दूर हटकर सरल स्थितियों से (पूर्ण प्रतियोगिता से) आरम्भ करते हैं तथा धीरे-धीरे नये-नये तत्वों तथा जटिल स्थितियों का समावेश करते जाते हैं। इस प्रकार पूर्ण प्रतियोगिता का अध्ययन अर्थव्यवस्था की जटिलताओं को समझने के लिये अत्यन्त आवश्यक है।

(2) आदर्श अर्थव्यवस्था का दिशा बोध : पूर्ण प्रतियोगिता का अध्ययन हमें एक ऐसी आदर्श अर्थव्यवस्था का ज्ञान कराता है जो कि सम्पूर्ण समाज के लिये अधिकतम लाभप्रद हो।

(3) व्यवसायियों का पूर्ण प्रतियोगिता से दूर हटने के कारण का स्पष्टीकरण : चूंकि पूर्ण प्रतियोगिता में उत्पादकों या विक्रेताओं को केवल सामान्य लाभ ही प्राप्त होता है, अतः ये लोग पूर्ण प्रतियोगिता से हटते या बचते हैं। ऐसा करके ही वे अतिरिक्त लाभ अर्जित कर पाते हैं।

(4) अपूर्ण प्रतियोगिता का विश्लेषणात्मक अध्ययन सम्भव होना : वास्तविक जीवन में अपूर्ण या एकाधिकारी प्रतियोगिता पायी जाती है जो कि पूर्ण प्रतियोगिता और एकाधिकार का मिश्रण होती है। अतः स्पष्ट है कि इस वास्तविक स्थिति को समझने के लिये पूर्ण प्रतियोगिता का अध्ययन आवश्यक हो जाता है।

इसके अतिरिक्त, अपूर्ण प्रतियोगिता में लगभग उन्हीं आधारभूत विश्लेषणात्मक यंत्रों का प्रयोग किया जाता है जिनका प्रयोग पूर्ण प्रतियोगिता में किया जाता है। अतः पूर्ण प्रतियोगिता से प्राप्त अन्दृष्टियों (insights) का प्रयोग वास्तविक जगत की स्थितियों को समझने हेतु आवश्यक

(5) अपूर्णता का ज्ञान : पूर्ण प्रतियोगिता की वास्तविक जगत की स्थितियों से तुलना करके हम यह ज्ञात कर सकते हैं कि इनमें कितनी अपूर्णता है। इस प्रकार यह वास्तविक बाजारों की अपूर्णता के अध्ययन के लिये एक मापदण्ड का कार्य करती है।

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पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत मूल्य का निर्धारण

(Price Determination Under Perfect Competition)

पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत वस्तु का मूल्य समूचे उद्योग की कुल माँग और कुल पूर्ति द्वारा निर्धारित होता है। किसी एक अकेले क्रेता या विक्रेता के क्रय-विक्रय का वस्तु के मूल्य पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। उद्योग की प्रत्येक फर्म इस मूल्य को दिया हुआ मानकर अपने उत्पादन की मात्रा इस प्रकार समायोजित करती है कि उसकी सीमान्त लागत और सीमान्त आगम बराबर हो जायें। अतः स्पष्ट है कि पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत मूल्य का सम्बन्ध किसी फर्म विशेष से नहीं होता वरन् सम्पूर्ण उद्योग से होता है तथा वस्तु का मूल्य उस बिन्दु पर निर्धारित होता है जिस पर उद्योग की वस्तु की कुल मॉग और कुल पूर्ति बराबर हों।

उद्योग माँग (Industry Demand) : वस्तु Y की माँग उपभोक्ता या क्रेता द्वारा की जाती है। प्रत्येक क्रेता की एक ‘माँग अनुसूची’ होती है जो कि विभिन्न मूल्यों पर उसके द्वारा क्रय की जाने वाली वस्तु की मात्राओं को बतलाती है। बाजार में समस्त क्रेताओं की व्यक्तिगत माँग अनुसूचियों को जोड़ देने से ‘बाजार या उद्योग की माँग अनुसूची’ प्राप्त हो जाती है जो कि यह बतलाती है कि विभिन्न मूल्यों पर बाजार में वस्तु की कितनी-कितनी मात्रायें मांगी जाती हैं। उद्योग की मात्रा माँग अनुसूची से उद्योग के माँग वक्र की रचना की जाती है तथा यह वक्र बायें से दायें नीचे की ओर गिरता है जैसा कि चित्र 2.1 में दर्शाया गया है। इसका आशय यह होता है कि जैसे-जैसे कीमत गिरती है, बाजार में वस्तु की माँग बढ़ती जाती है।

उद्योग पूर्ति (Indusrty Supply) : वस्तु की पूर्ति उद्योग के अन्तर्गत फर्मों द्वारा की जाती है। प्रत्येक विक्रेता फर्म की एक ‘पूर्ति अनुसूची’ होती है जो कि विभिन्न मूल्यों पर उसके द्वारा बेचे जाने वाली वस्तु की मात्राओं को बतलाती Y है। बाजार में समस्त फर्मों की व्यक्तिगत पूर्ति अनुसूचियों को जोड़ देने से ‘बाजार या उद्योग की पूर्ति अनुसूची’ प्राप्त हो जाती है जो कि विभिन्न मूल्यों पर उद्योग (समस्त फर्मों) द्वारा बाजार में विक्रय र के लिये प्रस्तुत वस्तुओं की मात्राओं को बतलाती है। उद्योग की पूर्ति अनुसूची से उद्योग के पूर्ति वक्र की रचना की जाती है। यह वक्र बायें से दायें ऊपर की ओर चढ़ता है जैसा कि चित्र 2.2 में दर्शाया गया है। इसका आशय यह हुआ कि जैसे-जैसे कीमत बढ़ती मात्रा जाती है, बाजार में वस्तु की पूर्ति बढ़ती जाती है।

मूल्य निर्धारण (Price Determination) : बाजार में वस्तु का मूल्य उस बिन्दु पर निश्चित होता है जिस पर उद्योग की कुल माँग और कुल पूर्ति बराबर हों। इसे ‘साम्य मूल्य’ प्रतियोगिता में मूल्य और उत्पादन के निर्णय कहते हैं। उदाहरण के लिये मान लीजिये कि किसी समय चीनी उद्योग की माँग और पूर्ति की स्थिति इस प्रकार है: मूल्य प्रति किलो कुल माँग ।

जैसा कि उपरोक्त तालिका से स्पष्ट है कि चीनी का मूल्य 5 रु० प्रति किलोग्राम होने पर इसकी माँग और पूर्ति दोनों 6,000 किलोग्राम होती हैं। अतः बाजार में साम्य-मूल्य 5 रु० प्रति किलोग्राम निश्चित होगा। ध्यान रहे कि अस्थायी रूप से मूल्य साम्य बिन्दु से अधिक या कम हो सकता है किन्तु इसकी प्रवृत्ति सदैव  साम्य-मूल्य की ओर जाने की रहती है। उपरोक्त तालिका अंकों की सहायता से साम्य मूल्य साम्य मूल्य का निर्धारण रेखाचित्र 2.3 पर दिखलाया गया है। चित्र में माँग और पूर्ति की अतिरिक्त माँग \D रेखाएँ एक दूसरे को E बिन्दु पर काटती हैं।

Economics Price Output Decisions

मूल्य निर्धारण में समय तत्व का महत्व (Role of Time Element in the Determination of Price) : मूल्य निर्धारण में समय तत्व की औपचारिक स्वीकृति डॉ० मार्शल ने दी। उन्होंने समय को तीन अवधियों में विभाजित किया। (1) बाजार काल, (2) अल्पकाल, (3) दीर्घकाल।

बाजार काल में मूल्य निर्धारण : इस अवधि में वस्तु की पूर्ति पूर्णतया बेलोच होती है और वस्तु के मौजूदा स्टॉक तक ही सीमित होती है। बाजार मूल्य किसी समय के माँग और पूर्ति के अस्थायी साम्य द्वारा निर्धारित होता है। नाशवान वस्तु की दशा में माँग शक्ति की भूमिका बलवती रहती है अर्थात् माँग बढ़ने पर मूल्य बढ़ जाता है तथा माँग घटने पर मूल्य घट जाता है, जैसा कि चित्र 2.4 में दर्शाया गया है। चित्र में OQ नाशवान मात्रा वस्तुओं का स्टॉक तथा MPS बाजार काल पूर्ति रेखा है। माना कि मूल माँग रेखा DD है। इस पर माँग और पूर्ति का साम्य E बिन्दु पर होता है और साम्य मूल्य OP है। यदि माँग DD से बढ़कर DD, हो जाती है तो साम्य मूल्य बढ़कर OP, हो जाता है और जब माँग DD से घटकर D,D, हो जाती है तो साम्य मूल्य घटकर OP, हो जाता है। किन्तु साम्य मूल्य घटकर कभी भी आरक्षित मूल्य P. से नीचे नहीं जा सकेगा क्योंकि इस स्थिति में विक्रेता वस्तु को बाजार में न भेजकर या तो उसका स्वयं उपभोग करना पसंद करेगा अथवा उसे नष्ट कर देगा।

यदि वस्तु टिकाऊ है तो बाजार काल में उसकी पूर्ति घटायी तो जा सकती है किन्तु बढ़ायी नहीं जा सकती। टिकाऊ वस्तुओं की यह विशेषता ही इनका न्यूनतम मूल्य (या आरक्षित मूल्य) स्थापित करती है जिससे कम बाजार मूल्य की स्थिति में उत्पादक अपने समस्त माल को रोक लेते हैं। मूल्य के बढ़ने पर वे वस्तु की पूर्ति बढ़ाते जाते हैं तथा मूल्य के एक सीमा (चित्र में OP.) से ऊँचा Mआरक्षित मूल्य हो जाने पर वे समस्त स्टॉक को बेचने के लिये तैयार हो जाते हैं। इसीलिये ऐसी मात्रा वस्तुओं का पूर्ति वक्र एक बिन्दु तक ऊपर की ओर चढ़ता है और इसके बाद वह एक खड़ी रेखा के रूप में हो जाता है जैसा कि चित्र 2.5 में MPS पूर्ति रेखा द्वारा दर्शाया गया है

चित्र में DD माँग रेखा पर माँग और पूर्ति के सन्तुलन द्वारा स्थापित मूल्य OP. है तथा सन्तुलन की मात्रा OQ है। इस स्थिति में उत्पादक अपने समस्त स्टॉक OQ से OQ, मात्रा विक्रय के लिये प्रस्तुत करेगा तथा QQ मात्रा का स्टॉक कर लेगा। माँग के बढ़कर D.D, हो जाने पर वह OP, मूल्य पर अपना समस्त स्टॉक बेचने के लिये तैयार हो जायेगा। किन्तु माँग के गिरकर DD, हो जाने पर वह OP, मूल्य पर केवल OQ, मात्रा को ही बेचेगा तथा Q.0 मात्रा का स्टॉक कर लेगा। मूल्य के आरक्षित मूल्य OM से नीचा हो जाने पर वह अपना सारा माल स्टॉक कर लेगा व कुछ भी बेचने को तैयार नहीं होगा।

अल्पकाल में मूल्य निर्धारण : अल्पकाल में समयाभाव के कारण वस्तु की पूर्ति को विद्यमान परिवर्तनशील साधनों की क्षमता की सीमा तक ही घटाया या बढ़ाया जा सकता है। इसीलिये इस काल में मूल्य पर वस्तु की पूर्ति की अपेक्षा माँग का अधिक प्रभाव रहता है। चँकि प्रत्येक फर्म का पूर्ति वक्र उसकी सीमान्त लागत की प्रकृति के अनुसार बायें से दायें ऊपर की ओर उठ जाता है, अतः उद्योग का अल्पकालीन पूर्ति वक्र सदैव दायीं ओर ऊपर उठेगा। इसका आशय यह है कि जैसे-जैसे कीमत बढ़ती जाती है, उद्योग की विभिन्न फो टायर की पर्ति में वृद्धि की जाती है। किन्तु अल्पकाल में यह वृद्धि परिवर्तनशील साधनों की क्षमता द्वारा सीमित रहती है। इसलिये उद्योग की कुल माँग और कुल पूर्ति के साम्य के आधार पर निर्धारित वस्त के मूल्य और उद्योग की फर्मों की औसत लागत में अन्तर आ जाता है जिसके अलपकाल में एक फर्म को अधि-सामान्य लाभ, सामान्य लाभ या हानि प्राप्त हो सकती है। इसे पृष्ठ C21 पर दिये चित्र 2.6 पर दर्शाया गया है:

जैसा कि चित्र 2.6 से स्ष्ट है कि अल्पकाल में किसी समय पर उद्योग की कल माँग और कल पूर्ति का सन्तुलन बिन्दु पर होता है। अतः वस्तु का सन्तुलन मूल्य OP होगा तथा  सन्तुलन की मात्रा OQ होगी। उद्योग की प्रत्येक फर्म इस OP मूल्य को एक दिया हुआ । मानकर (अपने लाभों को अधिकतम या हानि को न्यूनतम करने के लिये) उतना उत्पादन

करेगी जिस पर उसकी सीमान्त लागत और सीमान्त आगम या औसत आगम बराबर हों। चित्र में फर्म का यह सन्तुलन S बिन्दु पर होता है। अतः फर्म के सन्तुलन की मात्रा OQ, होगी। फर्म के लाभ-हानि की स्थिति ज्ञात करने के लिये उसके औसत आगम और औसत लागत का अन्तर देखा जाता है। चित्र में यदि फर्म के अल्पकालीन औसत लागत वक्र की स्थिति SACहै तो साम्यावस्था में फर्म को OQ, मात्रा पर DS प्रति इकाई की हानि होगी तथा OQA मात्रा की बिक्री पर कुल हानि DS और OQ, का गुणनफल अर्थात् आयत TPDS के क्षेत्रफल के बराबर होगी। यदि फर्म के अल्पकालीन औसत लागत वक्र की स्थिति SAC, है तो साम्यावस्था में फर्म को सामान्य या शून्य लाभ प्राप्त होगा क्योंकि सन्तुलन बिन्दु S पर वस्तु की औसत लागत और औसत आगम एक समान हैं। इसी तरह यदि फर्म के औसत लागत वक्र की स्थिति SAC; है तो साम्यावस्था में फर्म को BS प्रति इकाई का अधि-सामान्य लाभ प्राप्त होगा और OQ, मात्रा के लिये फर्म को PSUB आयत के क्षेत्रफल के बराबर लाभ प्राप्त होगा।

दीर्घकाल में मूल्य निर्धारण : दीर्घकाल में इतना समय रहता है कि वस्तु की पूर्ति को परिवर्तित करके पूर्णतया माँग के अनुरूप किया जा सकता है। अतः दीर्घकाल में वस्तु के मूल्य निर्धारण में माँग की अपेक्षा पूर्ति अधिक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। इस काल में वस्तु का मूल्य उस बिन्दु पर निर्धारित होता है जिस पर उद्योग की समस्त फर्मों की दीर्घकालीन औसत लागतें उनके औसत आगमों के समान हों। यह एक उद्योग के पूर्ण साम्य की स्थिति होती है। इस स्थिति में प्रत्येक फर्म की औसत लागत और औसत आगम के समान होने के। कारण उन्हें केवल सामान्य लाभ ही प्राप्त होता है।

पृष्ठ C21 पर दिये चित्र 2.7 में उद्योग की दीर्घकालीन कुल मांग और कल पति के साम्य द्वारा निर्धारित मूल्य OP है। उद्योग की सभी फम इस मूल्य को दिया हुआ मानकर अपने उत्पादन का समायोजन करेंगी। चित्र में एक प्रतिनिधि फर्म का यह समायोजन E बिन्दु पर होता है। इस बिन्दु पर स्थित उत्पादन-मात्रा OQ के लिये फर्म की दीर्घकालीन सीमान्त लागत (LMC) और सीमान्त आगम (MR) एक समान हैं। इसके अतिरिक्त चँकि फर्म का सन्तुलन बिन्दु उसके दीर्घकालीन औसत लागत (LAC) वक्र के निम्नतम बिन्दु पर स्थित है, अतः OQ, उत्पादन-मात्रा के लिये फर्म की औसत लागत और औसत आगम बराबर होंगे, अर्थात इस स्थिति में फर्म को केवल सामान्य लाभ ही प्राप्त होगा जिसके परिणामस्वरूप उद्योग में न तो किसी नयी फर्म का प्रवेश ही होगा और न बहिर्गमन। यह उद्योग के पूर्ण साम्य की स्थिति होती है।

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फर्म का साम्य (Firm’s Equilibrium)

एक फर्म के साम्य का आशय उस स्थिति से होता है जिसमें कि वह अपने उत्पादन की मात्रा में परिवर्तन नहीं चाहती क्योंकि उत्पादन के इस स्तर पर उसका लाभ अधिकतम होता है। इस अधिकतम लाभ की स्थिति अर्थात फर्म के साम्य की स्थिति को ज्ञात करने की दो रीतियाँ हैं : (1) कुल आगम और कुल लागत रेखाओं की रीति और (2) सीमान्त और औसत रेखाओं की रीति।

(1) कुल आगम और कुल लागत रेखाओं की रीति : कुल आगम और कुल लागत का अन्तर कुल लाभ होता है तथा जिस उत्पादन-स्तर पर यह अन्तर अधिकतम हो, वही अधिकतम लाभ या फर्म के साम्य का बिन्दु होता है। इस रीति के सम-विच्छेद बिन्दु कुल लागत वक्र कुल आगम वक्र अनुसार फर्म के साम्य की स्थिति ज्ञात करने के लिए पहले कुल अधिकतम कुल आगम वक्र और कुल लागत वक्र लाभ खींचे जाते हैं और फिर इनके बीच अधिकतम खड़ी दूरी ज्ञात की जाती है। इस अधिकतम खड़ी दूरी पर स्थित उत्पादन-मात्रा पर ही साम्य बिन्दु फर्म का साम्य होता है। ध्यान रहे कि कुल आगम और कुल लागत मात्रा रेखाओं के बीच अधिकतम खड़ी दरी उस उत्पादन क्षेत्र में ही देखी जाती है जिसमें कि कुल आगम वक्र कुल लागत वक्र के ऊपर रहता है। यह क्षेत्र ही लाभ का क्षेत्र होता है। चित्र 2.8 में कुल आगम वक्र और कुल लागत वक्र के बीच अधिकतम खड़ी दूरी को → के निशान से स्पष्ट किया गया है और इस पर स्थित उत्पादन की मात्रा OQ पर फर्म साम्य की स्थिति में होगी।

यह एक अच्छी रीति नहीं मानी जाती है क्योंकि प्रथम तो कुल आगम और कुल लागत के बीच अधिकतम खड़ी दूरी मालूम करना सरल नहीं है तथा दूसरे, इस रीति में चित्र देखकर एक दृष्टि से वस्तु का प्रति इकाई मूल्य नहीं ज्ञात किया जा सकता है।

(2) सीमान्त और औसत रेखाओं की रीति : कुल आगम और कुल लागत की रीति के भदे और जटिल होने के कारण आधुनिक अर्थशास्त्री साम्य के विश्लेषण में सीमान्त और औसत रेखाओं की रीति का प्रयोग करते हैं। इस रीति के अनसार फर्म के साम्य के लिया। निम्न दो शर्ते पूरी करना आवश्यक है:

(a) साम्यावस्था में सीमान्त आगम (MR) और सीमान्त लागत (MC) समान होते हैं : फर्म साम्य की स्थिति में तब होती है जबकि उसके लाभ अधिकतम हों तथा फर्म के लाभ अधिकतम तब होंगे जबकि सीमान्त लागत (MC) सीमान्त आगम (MR) के समान हो जाय। यदि सीमान्त आगम सीमान्त लागत से अधिक है (जैसा कि चित्र 2.9 में बिन्दु A के आगे है) तो फर्म अपने न्यूनतम हानि का अधिकतम लाभ उत्पादन को बढ़ायेगी क्योंकि इससे उसका कुल लाभ बढ़ेगा। का बिन्दु उत्पादन में यह वृद्धि तब तक उत्पादन का संकुचन की जायेगी जब तक कि सीमान्त लागत सीमान्त आगम एलान क्षेत्र के बराबर न आ जाये। चित्र उत्पादन का विस्तार 2.9 से स्पष्ट है कि उत्पादन साम्य की मात्रा का विस्तार B बिन्दु तक किया जायेगा।

 वस्तुतः जिस उत्पादन स्तर पर सीमान्त लागत, उत्पादन की मात्रा सीमान्त आगम के बराबर आ जाती है वही फर्म के अधिकतम लाभ (अर्थात् फर्म के साम्य) का बिन्दु होता है। चित्र में ऐसा OQ उत्पादन मात्रा पर होता है। अतः 00 मात्रा फर्म के साम्य या अधिकतम लाभ का उत्पादन स्तर कहलायेगा। इसी तरह यदि फर्म की सीमान्त लागत, सीमान्त आगम से अधिक है जैसा कि चित्र में B बिन्दु के पश्चात् है तो वह अपने उत्पादन को तब तक घटाती जायेगी जब तक कि सीमान्त लागत घटकर सीमान्त आगम के बराबर न आ जाये। चित्र में उत्पादन का यह घटना या संकुचन

(b) साम्यावस्था से पूर्व सीमान्त लागत (MC) सीमान्त आगम (MR) से कम रहे। चित्र में MC वक्र MR वक्र को नीचे से काटना चाहिए : फर्म के साम्य की दूसरी शर्त यह है कि सीमान्त लागत वक्र सीमान्त आगम वक्र को नीचे से काटना चाहिये। चित्र 2.9 में सीमान्त लागत वक्र, सीमान्त आगम रेखा को A तथा B दो बिन्दुओं पर काट रहा है किन्तु बिन्दु A फर्म के साम्य का बिन्दु नहीं होता है। क्योंकि इस बिन्दु पर सीमान्त लागत वक्र, सीमान्त आगम वक्र को ऊपर से काट रहा है। वस्तुतः यह बिन्दु फर्म की ‘न्यूनतम हानि का बिन्दु’ होता है। इस बिन्दु से पूर्व के उत्पादन पर सीमान्त लागत, सीमान्त आगम से अधिक होती है, अतः इस बिन्दु से पूर्व के उत्पादन पर फर्म को हानि होती है तथा इस बिन्दु पर उत्पादन की इकाई पर फर्म को न तो लाभ होता है और न हानि। वस्तुतः फर्म को लाभ तो इस बिन्दु के बाद के उत्पादन पर ही होता है क्योंकि यहाँ से सीमान्त आगम, सीमान्त लागत से अधिक होता है तथा फर्म का अधिकतम लाभ B बिन्दु पर होगा जहाँ पर सीमान्त लागत वक्र सीमान्त आगम रेखा को नीचे से काटता है। B बिन्दु के। पश्चात् उत्पादन में विस्तार किये जाने पर फर्म को इस अतिरिक्त उत्पादन-मात्रा पर हानि होगी जो उसके कुल लाभ को घटायेगी।

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पूर्ण प्रतियोगिता में एक फर्म का साम्य

(Firm’s Equilibrium in Perfect Competition)

एक व्यावसायिक फर्म का उद्देश्य अपने लाभों को अधिकतम करना होता हा पूर्ण प्रतियोगिता में एक फर्म मूल्य निर्धारक न होकर ‘मल्य ग्रहण करने वाली’ होती है। वस्तु का

प्रधान म उसका कुल मांग और कल पूर्ति की शक्तियों के साम्य द्वारा निधारित होता है तथा उद्योग की प्रत्येक फर्म इस प्रकार निर्धारित मल्य को दिया हुआ मानकर उसके अनुसार अपने उत्पादन की मात्रा को समायोजित करके अपने साम्य की स्थिति अर्थात् अधिकतम लाभ या न्यूनतम हानि की स्थिति को प्राप्त करती है। पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत एक फर्म के उत्पाद की माँग पूर्णतया लोचदार होती है अर्थात् उद्योग के साम्य द्वारा निर्धारित मूल्य से थोड़े नीचे मूल्य पर वह अपना सारा माल बेच सकती है तथा इससे ऊँचे मूल्य पर कुछ भी नहीं। एक फर्म उद्योग द्वारा निर्धारित मूल्य से नीचे मूल्य पर अपना माल नहीं बेचती क्योंकि इस मूल्य पर ही वह चाहे जितना माल बेच सकती है। पूर्ण प्राजोगिता में एक फर्म के उत्पादन का समायोजन उस बिन्दु पर होता है जिस पर उसकी (1) सीमान्त लागत – सीमान्त आगम (2) सीमान्त लागत वक्र सीमान्त आगम वक्र को नीचे से काटे। पूर्ण प्रतियोगिता में एक फर्म के साम्य का अध्ययन दो कालों में किया जाता है : अल्पकाल व दीर्घकाल।

अल्पकाल में फर्म का साम्य : चूँकि अल्पकाल में इतना समय नहीं होता कि उद्योग की फर्म अपनी वस्तु की पूर्ति में परिवर्तन लाकर उसे पूर्णतया मांग के अनुरूप कर सके, अतः इस काल में वस्तु के मूल्य या औसत आगम (AR) और फर्मों की औसत लागत (AC) में अन्तर आ जाता है। यही कारण है कि इस काल में एक फर्म को अधि-सामान्य लाभ, सामान्य लाभ या शून्य लाभ और हानि कोई भी हो सकता है।

(1) अधिसामान्य लाभ की स्थिति : यह तब होती है जबकि AR, AC से अधिक हो। नीचे दिये चित्र 2.10 में माना कि उद्योग में कुल माँग और कुल पूर्ति द्वारा निर्धारित मूल्य OP है। इस मूल्य पर फर्म के मूल्य अथवा औसत आगम और सीमान्त आगम की स्थिति PS पड़ी रेखा द्वारा प्रदर्शित की गई है। चित्र में फर्म का सन्तुलन A बिन्दु पर होता है

जहाँ पर MR = MCT इस बिन्दु से X-अक्ष पर डाला गया AO लम्ब फर्म द्वारा उत्पादित की जान। वाली OQ मात्रा को बतलाता है। इस OQ मात्रा के लिये चित्र में फर्म की औसत लागत BQ है तथा औसत आगम AQ है। अतः इस मात्रा के लिये A और BO का अन्तर AB फर्म। का प्रति इकाई लाभ होगा तथा फर्म का कुल लाभ AB और OQ का गुणनफल (अर्थात् PACB आयत के क्षेत्रफल के बराबर) होगा।

(2) सामान्य लाभ या शून्य लाभ की स्थिति : कोई भी फर्म सामान्य लाभ या शून्य लाभ उस समय कमाती है जबकि AR रेखा AC रेखा के निम्नतम बिन्द पर स्पर्श करे। उपरोक्त चित्र 2.10 में यदि अल्पकाल में उद्योग की वस्तु की मांग DD से घटकर DD हो जाती है। तो उद्योग का सन्तुलन E, बिन्दु पर होगा तथा मूल्य OP, होगा। इस मूल्य परिवर्तन के कारण फर्म की औसत आगम और सीमान्त आगम रेखा की स्थिति PS से हटकर PT हो जायेगी। नवीन मुल्य रेखा को MC वक्र नीचे से ऊपर की ओर E बिन्द पर काटता है। इस बिन्दु पर MR = MC। अतः E बिन्दु फर्म के साम्य का बिन्दु हुआ। इस बिन्दु पर AR रेखा AC रेखा को उसके निम्नतम बिन्दु पर स्पर्श करती है, अर्थात् इस बिन्दु पर AR और AC दोनों बराबर (EQ) हैं। AR और AC के बराबर होने के कारण फर्म को केवल सामान्य लाभ या शून्य लाभ ही प्राप्त होगा।

(3) हानि की स्थिति : उपरोक्त चित्र 2.10 में यदि अल्पकाल में उद्योग की वस्तु की माँग घटकर D,D, हो जाती है तो उद्योग का सन्तुलन E, बिन्दु पर होगा तथा मूल्य OP, होगा। इस मूल्य परिवर्तन के कारण फर्म की औसत आगम और सीमान्त आगम रेखा की स्थिति P.U हो जायेगी। इस नयी मूल्य रेखा को MC वक्र नीचे से ऊपर की ओर F बिन्द पर काटता है। इस बिन्दु पर MR = MC | अतः F बिन्दु फर्म के साम्य का बिन्दु हुआ। इस बिन्दु से डाला गया FQ, लम्ब फर्म द्वारा उत्पादित की जाने वाली OQ, मात्रा को प्रदर्शित करता है। इस मात्रा के लिए फर्म की औसत लागत DQ, है जबकि औसत आगम FQ, है। अतः DQ, और FQ, का अन्तर अर्थात् DF फर्म की प्रति इकाई हानि होगी तथा फर्म की कुल हानि DF और OQ, का गुणनफल (अर्थात् CDP,F आयत के क्षेत्रफल के बराबर होगा।

यहाँ पर एक प्रश्न यह उठता है क्या फर्म हानि होने पर भी उत्पादन जारी रखेगी ? इस प्रश्न के उत्तर के लिये हमें फर्म की औसत परिवर्तनशील लागत (AVC) रेखा की सहायता लेनी होगी। अल्पकाल में हानि की स्थिति में कोई फर्म तब तक उत्पादन जारी रखेगी जब तक कि वस्तु का मूल्य उसकी औसत परिवर्तनशील लागत को पूरा करता है और यदि मूल्य इससे भी कम हो जाता है तो फर्म उत्पादन बन्द कर देगी। चित्र 2.10 में यदि AR रेखा की स्थिति P.V हो जाती है तो फर्म का साम्य G बिन्दु पर होगा। AR रेखा AVC रेखा के निम्नतम बिन्दु को इसी बिन्दु पर स्पर्श करती है। अतः OP3 मूल्य वस्तु के मूल्यों में गिरावट की वह सीमा होगी जिससे कम मूल्य हो जाने पर फर्म अल्पकाल में भी उत्पादन बन्द कर देगी। चित्र में G बिन्दु फर्म के ‘उत्पादन बन्द होने का बिन्दु’ (Shut Down Point) है तथा OP, ‘उत्पादन बन्द होने का मूल्य’ कहलायेगा। इस बिन्दु पर स्थित उत्पादन की मात्रा OQ. ‘अल्पकाल में न्यूनतम उत्पादन-मात्रा’ को बताती है।

चूंकि MC वक्र फर्म का पूर्ति वक्र होता है तथा AVC वक्र के निम्नतम बिन्दु (अर्थात G बिन्दु) से नीचे फर्म उत्पादन बन्द कर देती है, अतः चित्र 2.10 में G बिन्दु से नीचे MC वक्र को एक टूटा हुआ वक्र प्रदर्शित किया गया है जिसका अर्थ है कि G बिन्दु के नीचे वस्तु की कोई पूर्ति नहीं होगी।

दीर्घकाल में फर्म का साम्य : दीर्घकाल में इतना समय होता है कि वस्तु की पूर्ति को घटा-बढ़ाकर पूर्णतया माँग के अनुरूप किया जा सकता है। अतः दीर्घकाल में फर्म को न तो अधि-सामान्य लाभ ही प्राप्त होता है और न हानि ही होती है वरन केवल सामान्य लाभ ही प्राप्त होता है जो कि उत्पादन लागत में सम्मिलित होता है। दीर्धकाल में यदि फर्म को अधि-सामान्य लाभ प्राप्त होता है (अर्थात वस्तु का मूल्य उसकी औसत लागत से अधिक है) तो लाभ से आकर्षित होकर नयी फमें उद्योग में प्रवेश करेंगी जिससे वस्तु की पूर्ति बढ़ेगी तथा वस्तु का मूल्य घटकर उसकी औसत लागत के बराबर आ जायेगा। इसी प्रकार यदि दीर्घकाल में फर्म को हानि होती है (अर्थात वस्त की औसत लागत उसके मूल्य से अधिक है) तो कुछ अकुशल फर्म उद्योग को छोड़ जायेंगी जिसके फलस्वरूप वस्तु की पूर्ति घटेगी तथा मूल्य बढ़कर आसत लागत के बराबर आ जायेगा। अतः स्पष्ट है कि दीर्घकाल में AR = AC होता है। इसके अतिरिक्त फर्म के साम्य के लिए उसकी सीमान्त लागत और सीमान्त आगम बराबर होते। हैं। अतः दीर्घकाल में एक फर्म के साम्य के लिये निम्न दो शर्ते पूरी होनी चाहिये :

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(1) MR = MC और (2)AR = AC

यदि पहली शर्त पूरी नहीं होती तो फर्म स्वयं अपने उत्पादन की मात्रा में परिवर्तन करेगी और यदि दूसरी शर्त की पूर्ति नहीं होती तो फर्मों के आगमन व बहिर्गमन के कारण मूल्य में परिवर्तन होगा। चूँकि पूर्ण प्रतियोगिता में AR = MR, इसलिये दीर्घकाल में फर्म के साम्य की स्थिति में AR, MR, MC और AC चारों बराबर होते हैं।

चित्र 2.11 में LAC तथा LMC क्रमशः दीर्घकालीन औसत लागत वक्र और दीर्घकालीन सीमान्त लागत वक्र हैं। शून्य लाभ बिन्दु LMC LMC वक्र AR रेखा को नीचे से ऊपर को ओर E बिन्दु पर काटता है। इसके अतिरिक्त इस बिन्दु पर AR रेखा LAC वक्र को उसके निम्नतम बिन्दु E पर स्पर्श कर रही है। अतः इस बिन्दु पर AR = AC। इस प्रकार E बिन्दु वस्तु की मात्रा फर्म के दीर्घकालीन साम्य का बिन्दु हुआ क्योंकि इस बिन्दु पर फर्म के दीर्घकालीन साम्य की दोहरी शतें MR = MC और AR = AC पूरी हो रही हैं।

पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत साम्यावस्था में एक फर्म ‘न्यूनतम लागत फर्म’ (minimum cost firm) होती है क्योंकि इसमें AR रेखा के एक पड़ी रेखा होने के कारण यह LAC रेखा को उसके निम्नतम बिन्दु पर ही स्पर्श करेगी अर्थात् इसमें वस्तु का मूल्य (AR) फर्म की न्यनतम औसत लागत के बराबर होता है। अतः स्पष्ट है कि इसमें एक फर्म न्यूनतम लागत फर्म होगी।

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फर्म को हानि की स्थिति में चालू रखना

(To operate a firm at a loss)

यदि वस्तु का बाजार मूल्य उसकी औसत लागत को नहीं पूरा करता है तो इस स्थिति में फर्म को हानि होती है। इस स्थिति में फर्म के लिये अल्पकाल के लिये हानि पर कार्य चालू पूर्ण प्रतियोगिता में मूल्य और उत्पादन के निर्णय रखना भी लाभप्रद माना जा सकता है। ऐसा क्यों होता है ? इस प्रश्न का उत्तर देने का हम लागत तत्वा पर ध्यान देना होगा। वस्तु की कल लागत के दो भाग होते हैं। स्थिर लागत। और परिवर्तनीय लागत। अल्पकाल में फर्म संयंत्र एवं मशीनरी जैसी स्थिर साज-सज्जा को उत्पादन से हटाने में असमर्थ होती है। अतः यदि फर्म कछ समय के लिये उत्पादन कार्य बदा कर दे तो उसके स्थिर व्यय तो बने रहेंगे और इस प्रकार इस काल में फर्म की कुल हानि उसकी स्थिर लागत के बराबर होगी। अब यदि फर्म अपना कार्य चालू रखकर इस हानि का। कम कर सके तो उसके लिये कार्य चालू रखना उचित ही होगा। वस्ततः ऐसी स्थिति में फर्म का उद्देश्य इस अल्पकालीन हानि को न्यूनतम करना होता है किन्तु यह तभी सम्भव है जबकि वस्तु का बाजार मूल्य उसकी परिवर्तनशील लागत से अधिक हो जिससे कि वह बाजार मूल्य के परिवर्तनशील व्ययों पर आधिक्य (अर्थात् अंशदान) की राशि से स्थिर व्ययों के कुछ भाग को पूरा (अर्थात् हानि को कम कर सके। इस तरह फर्म को चालू रखने में उसकी कूल हानि उसे बन्द करने की तुलना में कुछ कम अवश्य होगी। निष्कर्ष रूप में, एक फर्म के लिए अल्पकाल में तब तक उत्पादन कार्य चालू रखना लाभप्रद रहता है जब तक कि बाजार मूल्य इसकी परिवर्तनशील लागत को पूरा करता है। लेकिन यदि बाजार मूल्य घटकर इसकी परिवर्तनशील लागत से भी कम हो जाय तो ऐसी स्थिति में फर्म के लिये उत्पादन कार्य बन्द कर देना लाभप्रद होगा क्योंकि इस स्थिति में कार्य चालू रखने से हानि बन्द करने की तुलना से अधिक होगी।

उदाहरण : माना कि किसी उद्योग में वस्तु का प्रचलित बाजार मूल्य 60 रु० प्रति इकाई है। एक फर्म की परिवर्तनशील लागत 50 रु० प्रति इकाई है तथा स्थिर व्यय 500 रु० प्रति माह है। फर्म का औसत उत्पादन 40 इकाई प्रति माह है। इस स्थिति में फर्म को 40 इकाइयों के 60 रु० प्रति इकाई की दर से बेचने पर कुल 2,400 रु० प्राप्त होंगे जबकि इन 40 इकाइयों की औसत चल लागत 2,000 रु० होगी। इस प्रकार 2,400 रु० की विक्रय राशि से 2,000 रु० के परिवर्तनशील व्यय पूरा कर लेने के पश्चात् फर्म के पास 400 रु० बचेगे जो कि 500 रु० की स्थिर लागत को पूरा करने के काम में आयेंगे। दूसरे शब्दों में, यदि फर्म उत्पादन कार्य चालू रखती है तो उसे (500-400) 100 रु० प्रति माह की हानि होगी किन्तु यदि फर्म को अल्पकाल के लिए बन्द किया जाता है तो इससे उसे स्थिर व्यय वहन करने होंगे जिससे उसकी हानि 500 रु प्रति माह होगी। इस स्थिति में फर्म को अपना उत्पादन कार्य चालू रखना ही अधिक लाभप्रद होगा। मान लीजिये कि यदि वस्तु का बाजार मूल्य गिरकर 50 रु० प्रति इकाई हो जाता है तो इस स्थिति में फर्म को चालू रखने और बन्द करने दोनों ही स्थितियों में 500 रु० प्रति माह की हानि होगी। यहाँ पर फर्म उदासीनता की स्थिति में होगी क्योंकि उसे व्यापार चालू रखने अथवा बन्द करने पर हानि एक समान ही होती है। यह मूल्य ही फर्म के उत्पादन बन्द करने का विन्दु कहलाता है। यदि मूल्य 50 रु० से भी नीचे जाता है। तो उस स्थिति में फर्म को अल्पकाल के लिये बन्द करना ही उचित होगा।

रेखाचित्र पर स्पष्टीकरण : अल्पकाल में हानि की स्थिति में उत्पादन चालू रखने अथवा बन्द करने की स्थितियों को पृष्ठ C28 पर दिये रेखाचित्र 2.12 पर स्पष्ट किया गया है। इस रखाचित्र में ON मूल्य पर MC वक्र MR वक्र को R बिन्दु पर काटता है, अतः यही फर्म क सन्तुलन की स्थिति हुई। इस बिन्द पर AC. AR से अधिक है, अतः फर्म को OQ मात्रा क लिए प्रति इकाई PR की हानि होगी और कुल हानि MNPR आयत के क्षेत्रफल के बराबर। होगी। लेकिन इस स्थिति में फर्म अपना उत्पादन कार्य चालू रखेगी क्योंकि ON (अथवा RQ) मूल्य कम से कम UQ औसत परिवर्तनशील लागत (AVC) को पूरा करके स्थिर लागत के एक अंश RU को भी पूरा करता है। अल्पकाल में मूल्य द्वारा पूरी की गई कुल स्थिर लागत को MNPR आयत द्वारा प्रदर्शित किया गया है। इस प्रकार अल्पकाल में फर्म उत्पादन EN कार्य जारी रखकर समूची स्थिर लागत को तो नहीं, किन्तु इसके एक भाग को तो पूरा कर सकेगी।

यदि बाजार मूल्य गिरकर हो जाता है तो फर्म का सन्तुलन S बिन्दु पर होगा तथा सन्तुलन उपज OQ, होगी। इस मूल्य पर AR, AVC के बराबर है और फर्म को BS प्रति इकाई की हानि होगी तथा कुल हानि की मात्रा आयत ABTS के क्षेत्रफल के बराबर होगी। इस मूल्य पर फर्म उदासीनता की स्थिति में होगी क्योंकि इस मूल्य पर उत्पादन चालू रखने अथवा न रखने पर हानि की मात्रा समान रहेगी। इस मूल्य को ‘उत्पादन बन्दी का मूल्य’ कहते हैं।

किन्तु यदि वस्तु का बाजार मूल्य इतना गिर जाता है कि वह उसकी परिवर्तनशील लागत को भी न पूरा कर सके तो उस स्थिति में फर्म को पूर्णतया बन्द कर देने के अलावा और कोई रास्ता नहीं रह जाता। उदाहरण के लिये मूल्य OW हो जाता है तो फर्म का संतुलन D बिन्दु पर होगा तथा सन्तुलन उपज OQ, होगी। इस स्थिति में वह उत्पादन बन्द कर देगी क्योंकि यहाँ पर DQ, मूल्य फर्म की CQ, औसत परिवर्तनशील लागत को भी नहीं पूरा कर पाता है। इस स्थिति में उत्पादन कार्य चालू रखने पर फर्म को कुल स्थिर लागतों के अलावा CD प्रति इकाई परिवर्तनशील व्यय की हानि और उठानी पड़ेगी।

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पूर्ण प्रतियोगिता में क्या कोई एक सौदा वस्तु की कीमत को प्रभावित कर सकता है?

(Can a transaction influence the price of a commodity in perfect competition ?)

पूर्ण प्रतियोगिता बाजार की वह स्थिति होती है जिसमें बाजार में क्रेता और विक्रेता बहुत बड़ी संख्या में होते हैं और जो किसी समय पर बाजार का पूर्ण ज्ञान रखते हुये, किसी भी प्रकार के बनावटी बन्धनों के बिना, किसी समरूप वस्तु के क्रय-विक्रय में लगे होते हैं।

पूर्ण प्रतियोगिता में मूल्य का निर्धारण बाजार में वस्तु की कुल माँग और कुल पूर्ति की शक्तियों के सापेक्षिक प्रभाव के द्वारा होता है। इस पर किसी एक क्रेता या विक्रेता के व्यक्तिगत व्यवहारों (अर्थात् क्रय-विक्रय) का कोई प्रभाव नहीं पड़ता । इसका प्रमुख कारण यह है कि इसमें बाजार में क्रेताओं और विक्रेताओं की संख्या बहुत अधिक होती है और वे बहुत छोटे-छोटे होते हैं। अतः इसमें प्रत्येक विक्रेता वस्तु की कुल पूर्ति का इतना थोड़ा भाग उत्पादित करता है कि वह अपने उत्पादन में कमी या वृद्धि करके प्रचलित बाजार मूल्य को नहीं प्रभावित कर सकता है। इसी तरह प्रत्येक क्रेता कुल बाजार माँग का एक छोटा सा भाग ही क्रय करता पूर्ण प्रतियोगिता में मूल्य और उत्पादन के निर्णय है,

अतः वह अपने क्रय की मात्रा में कमी या वृद्धि करके बाजार मूल्य को नहीं प्रभावित कर सकता है। वस्तुतः इसमें कोई एक विक्रेता प्रचलित बाजार मल्य पर जितनी चाहे उतनी वस्तुए बेच सकता है। अतः इसमें प्रत्येक क्रेता और विक्रेता को प्रचलित बाजार मूल्य पर ही अपन क्रय-विक्रयों को समायोजित करना होता है। वे व्यक्तिगत रूप से बाजार मूल्य को नहीं प्रभावित कर सकते। किन्तु ध्यान रहे कि एक स्पर्धात्मक उद्योग में समस्त विक्रेता एक समूह के रूप में बाजार मूल्य को प्रभावित कर सकते हैं। वे अपने संयुक्त निर्णय द्वारा वस्तु की कुल पूति म परिवर्तन लाकर बाजार मूल्य को प्रभावित कर सकते हैं। इसी तरह यदि समस्त क्रेता मिल जाय। तो वे वस्तु की कुल माँग में परिवर्तन लाकर बाजार मूल्य को अवश्य प्रभावित कर सकेंगे। किन्तु ध्यान रहे कि इस स्थिति को पूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति नहीं कहा जा सकता है क्योंकि इसके लिये एक आवश्यक शर्त यह होती है कि क्रेता और विक्रेताओं में कोई गुप्त समझौता या सन्धि नहीं होनी चाहिये।

उपर्युक्त के अतिरिक्त पूर्ण प्रतियोगिता में वस्तु के समरूप होने, फर्मों के स्वतन्त्र प्रवेश और बहिर्गमन, क्रेता ओर विक्रेताओं को बाजार का पूर्ण ज्ञान और उनमें पूर्ण गतिशीलता, उत्पादन साधनों की पूर्ण गतिशीलता तथा परिवहन लागतों के न होने के कारण भी बाजार में वस्तु का एक मूल्य रहता है तथा कोई एक व्यक्तिगत क्रेता या विक्रेता अपने व्यवहार से प्रचलित बाजार मूल्य को नहीं प्रभावित कर सकता है।

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पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत एक उद्योग का साम्य

(Industry’s Equilibrium in Perfect Competition)

उद्योग का आशय : श्रीमती जॉन रॉबिन्सन के शब्दों में, “एक उद्योग किसी एकाकी वस्तु का उत्पादन करने वाले फर्मों का कोई समूह है।’ एक ही प्रकार की वस्तु के उत्पादन में लगी फर्मों के समूह को हम एक उद्योग कहते हैं। “पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत” सैम्युलसन के शब्दों में, “बहुत सी प्रतिस्पर्धी फर्मों के समूह को उद्योग कहते हैं।” अतः एक उद्योग ऐसी फर्मों का समूह है जो कि एकरूप वस्तु का उत्पादन करती हैं।

उद्योग के साम्य का आशय : प्रो० बोल्डिंग के अनुसार, “एक उद्योग साम्य की स्थिति में उस समय कहा जाता है जबकि उसके विस्तार या संकुचन की कोई प्रवृत्ति नहीं होती।” दूसरे शब्दों में, एक उद्योग संतुलन की स्थिति में तब होता है जबकि इसका कुल उत्पादन न तो घट रहा हो और न बढ़ रहा हो, वरन् स्थिर हो। उद्योग के कुल उत्पादन के स्थिर रहने की स्थिति तब ही आ सकती है जबकि उद्योग द्वारा उत्पादित वस्तु की कुल पूर्ति इसकी कुल माँग के बराबर हो। उद्योग की कुल माँग और कुल पूर्ति के साम्य द्वारा निर्धारित मूल्य साम्य मूल्य कहलाता है तथा उद्योग की प्रत्येक फर्म इसी मूल्य पर ही अपना माल बेचती है। इसीलिये फर्म की मूल्य रेखा (या औसत आगम रेखा) X-अक्ष के समानान्तर एक पड़ी रेखा होती है।

एक उद्योग का अल्पकालीन साम्य : जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है कि एक उद्योग साम्य की स्थिति में उस समय होता है जबकि उसके उत्पादन की मात्रा स्थिर हो जाती है। चूंकि एक उद्योग का कुल उत्पादन उसके अन्तर्गत सभी फर्मों के उत्पादनों का योग होता है, अतः एक उद्योग का उत्पादन तभी स्थिर हो सकता है जबकि इसके अन्तर्गत के सभी फर्मों का उत्पादन स्थिर हो जाता है तथा अल्पकाल में सभी फर्मों का उत्पादन स्थिर तब होता है जबकि सभी फर्म अल्पकालीन साम्यावस्था में हों, अर्थात प्रत्येक फर्म की सीमान्त लागत उसके सीमान्त आगम के बराबर हो। सारांश में, उद्योग की सभी फर्मों के साम्य की स्थिति में होने पर ही एक उद्योग अल्पकालीन साम्य की स्थिति में हो सकता है। प्रो० वाटसन के शब्दों में, “एक उद्योग अल्पकाल में उस समय साम्य की स्थिति में होता है जबकि उद्योग का उत्पादन (Output) स्थिर हो जाता है, उत्पादन के विस्तार या इसके संकुचन के लिये कोई भी शक्ति क्रियाशाल नहीं रहती। यदि सभी फर्मे साम्य में हों तो उद्योग भी साम्य में होता है

चूंकि अल्पकाल में एक फर्म के औसत आगम (AR) और औसत लागत (AC) में अन्तर हो सकता है, अतः अल्पकाल में एक फर्म को अधि-सामान्य लाभ, सामान्य या शून्य लाभ अथवा हानि हो सकती है। अतः उद्योग के अल्पकालीन साम्य के साथ अधि-सामान्य लाभ अथवा हानि का सह-अस्तित्व हो सकता है। यदि उद्योग की सभी फर्मों को केवल सामान्य लाभ ही प्राप्त होता है तो उद्योग पूर्ण सन्तुलन की स्थिति में होता है किन्तु अल्पकाल में यह स्थिति केवल संयोगवश ही हो सकती है।

उद्योग के साम्य की स्थिति में उद्योग की कुल माँग और कुल पूर्ति बराबर होती हैं किन्तु समयाभाव के कारण अल्पकाल में केवल ‘परिवर्तनशील साधनों’ को परिवर्तित करके पूर्ति को माँग के बराबर किया जाता है।

अल्पकाल में उद्योग का माँग वक्र : यह वक्र बाजार में उपभोक्ताओं के अल्पकालीन व्यक्तिगत माँग वक्रों का क्षैतिज योग (Horizontal sum) होता है। यह वक्र यह प्रदर्शित करता है कि विभिन्न मूल्य पर सभी उपभोक्ता वस्तु की कितनी-कितनी मात्राएँ खरीदना चाहते हैं। यह वक्र बायें से दायीं ओर नीचे गिरता है। इसका आशय यह होता है कि जैसे-जैसे कीमत गिरती है, बाजार में उद्योग की वस्तु की मांग बढ़ती है।

अल्पकाल में उद्योग का पूर्ति वक्र: यह वक्र उद्योग की समस्त फर्मों के व्यक्तिगत पूर्ति वक्रों का क्षैतिज योग होता है। यह वक्र यह प्रदर्शित करता है कि विभिन्न मूल्यों पर सभी फर्मे कितनी-कितनी मात्राएँ बेचने को तैयार हैं। अल्पकाल में प्रत्येक फर्म का पूर्ति वक्र उसकी सीमान्त, लागत की प्रकृति के अनुसार बायें से दायें ऊपर की ओर जाता है। अतः उद्योग का अल्पकालीन पूर्ति वक्र सदैव दायीं ओर ऊपर उठेगा। इसका आशय यह होता है कि जैसे-जैसे कीमत बढ़ती है, उद्योग द्वारा वस्तु की पूर्ति में भी वृद्धि की जाती है किन्तु अल्पकाल में समयाभाव के कारण यह वृद्धि परिवर्तनशील साधनों की क्षमता द्वारा सीमित रहती है। अल्पकाल में एक उद्योग के साम्य को पृष्ठ C31 पर दिये चित्र 2.13 में प्रदर्शित किया गया है।

इस चित्र से स्पष्ट है कि उद्योग का माँग वक्र DD और पूर्ति वक्र SS एक दूसरे को E बिन्दु पर काटते हैं। अतः E बिन्दु उद्योग के साम्य को बतलाता है क्योंकि इस बिन्दु पर उद्योग का कुल मांग और कूल पूर्ति दोनों एक दूसरे के बराबर हैं। ध्यान रहे कि उद्योग के अल्पकालीन साम्य के लिये उद्योग की सभी फर्मों का अल्पकालीन साम्यावस्था में होना (अर्थात प्रत्येक फर्म की सीमान्त लागत का उसके सीमान्त आगम के बराबर होना) आवश्यक होता है। फमक अल्पकालीन साम्य की स्थिति में उसे अतिरिक्त लाभ, सामान्य लाभ या हानि हो सकती है। चित्र 2.13 में उद्योग के साम्य के अन्तर्गत एक प्रतिनिधि फर्म की स्थिति को दिखाया गया है। इसम फमS बिन्दु पर साम्य की स्थिति में है क्योंकि इस बिन्दु पर MR EMCI इस है क्योंकि एकाधिकार के अन्तर्गत नई फर्मों के प्रवेश की सम्भावना नहीं होती। अतः दीर्घकाल। में एकाधिकारी निश्चित रूप से लाभ ही कमाता है। उसके लाभ की मात्रा (0 वस्तु को माग की लोच तथा (ii) दीर्घकालीन औसत लागत के व्यवहार पर निर्भर करती है। यदि मांग लोचदार है तो वह नीचा मूल्य निर्धारित करके बिक्री की मात्रा बढ़ाकर अपना कुल लाभ अधिकतम कर सकता है।

चूँकि दीर्घकाल में एकाधिकारी उद्योग के विस्तार या संकुचन की पूर्ण सम्भावनायें रहती हैं, अतः इस काल में वस्तु की औसत लागत प्रभावित होगी तथा औसत लागत का व्यवहार उत्पत्ति के नियमों द्वारा निर्धारित होता है। किन्तु इन नियमों की क्रियाशीलता से मूल्य निर्धारण के सिद्धान्त में कोई मौलिक अन्तर नहीं आता। प्रत्येक स्थिति में एकाधिकारी का प्रयत्न अपने कुल एकाधिकारी लाभ को अधिकतम करने का रहेगा और ऐसा करने के लिये वह अपने उत्पादन में तब तक विस्तार करता जायेगा जब तक कि सीमान्त लागत सीमान्त आगम के बराबर न आ जाय। ऐसा अधिक उत्पादन पर होगा या कम उत्पादन पर, यह क्रियाशील उत्पत्ति नियम पर निर्भर करता है। यदि उसके उद्योग में लागत हास नियम क्रियाशील हो रहा है तो वह कम मूल्य रख कर अधिक मात्रा में उत्पादन का प्रयास करेगा। लागत वृद्धि नियम के अन्तर्गत वह ऊँची कीमत निर्धारित करके उत्पादन की मात्रा कम रखेगा.। लागत समता नियम की दशा में लागतों का मूल्य निर्धारण पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इसे नीचे दिये चित्र 3.3 में स्पष्ट किया गया है। (अ) लागत वृद्धि नियम (ब) लागत हास नियम (स) लागत समता नियम

उपरोक्त चित्र के तीनों भागों (अ, ब, स) में आगम वक्रों (MR और AR) को गिरते हुए दिखाया गया है किन्तु लागत वृद्धि नियम, लागत हास नियम तथा लागत समता नियम के क्रियाशील होने के कारण चित्र के (अ), (ब) और (स) भागों में लागत वक्रों (LAC और LMC) को कमशः ऊपर उठते हुए, नीचे गिरते हुए तथा क्षैतिज दिखाया गया है। चित्र के (अ) और (ब) भागों में LMC वक्र MR वक्र को E बिन्दु पर काटता है तथा (स) भाग में D बिन्दु पर काटता है। तीनों भागों में एकाधिकारी का साम्य वस्तु की 0Q मात्रा तथा BQ मूल्य पर होता है तथा सभी स्थितियों में उसका लाभ आयत ABCD के क्षेत्रफल के बराबर । होगा। अतः स्पष्ट है कि दीर्घकाल में सभी स्थितियों में एकाधिकारी को लाभ प्राप्त होता है

Economics Price Output Decisions

पूर्ण अथवा विशुद्ध प्रतियोगिता और एकाधिकार में अन्तर

(Difference between Perfect or Pure Competition and Monopoly)

(1) दोनों की दशाओं में अन्तर : पूर्ण प्रतियोगिता और एकाधिकार की दशायें एक दूसरे के विपरीत हैं। वस्तुतः पूर्ण प्रतियोगिता में प्रतियोगिता पूर्ण होती है जबकि एकाधिकार में प्रतियोगिता का अभाव पाया जाता है क्योंकि () पूर्ण प्रतियोगिता में वस्तु के बहुत से विक्रेता होते हैं और उनमें से किसी का भी बाजार की पूर्ति पर प्रभावपूर्ण नियन्त्रण नहीं होता जबकि एकाधिकार में वस्तु का केवल एक विक्रेता होता है और उसका वस्तु की पूर्ति पर पूर्ण नियन्त्रण होता है, (ii) पूर्ण प्रतियोगिता में नयी फर्मों के प्रवेश की स्वतन्त्रता रहती है जबकि एकाधिकार में नयी फर्मों के प्रवेश पर प्रभावपूर्ण बाधायें रहती हैं, (iii) पूर्ण प्रतियोगिता में विभिन्न फमों का वस्तुर्य समरूप होने के कारण पूर्ण स्थानापन्न होती हैं जबकि एकाधिकार में एकाधिकारी की वस्तु की कोई निकट स्थानापन्न वस्त ही नहीं होती, (iv) पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत फर्म ‘मूल्य ग्रहण करने वाली’ होती है जबकि एकाधिकारी फर्म ‘मूल्य निर्धारक’ होती है, (v) पूर्ण प्रतियोगिता में किसी विशेष समय पर बाजार में वस्तु का केवल एक मूल्य ही प्रचलित होता है। जबकि एकाधिकार में एकाधिकारी ग्राहकों के विभिन्न वर्गों में माँग की लोच की विभिन्नता के आधार पर ‘मूल्य विभेद’ कर सकता है।

(2) ‘फर्मऔर उद्योगमें अन्तर : पूर्ण प्रतियोगिता में ‘फर्म’ और ‘उद्योग’ पृथक-पृथक होते हैं जबकि एकाधिकार में ये एक ही होते हैं।

(3) माँग वक्र (या औसत आगम वक्र) की स्थिति में अन्तर : पूर्ण प्रतियोगिता में एक फर्म के लिए वस्तु की माँग ‘पूर्णतया लोचदार’ होती है। इसीलिये एक प्रतियोगी फर्म का माँग वक्र (या औसत आगम वक्र) X-अक्ष के समानान्तर एक पड़ी रेखा के रूप में होता है। इसके विपरीत एकाधिकार में वस्तु की माँग ‘कम लोचदार’ होती है। अतः एकाधिकारी फर्म का माँग वक्र (या औसत आगम वक्र) बायें से दायें नीचे की ओर ढालू होता है।

(4) सीमान्त और औसत आगम में अन्तर : पूर्ण प्रतियोगिता में सीमान्त आगम (MR) और औसत आगम (AR) बराबर होते हैं, अतः इसमें MR और AR वक्र एक ही होते हैं जबकि एकाधिकार में सीमान्त आगम औसत आगम से कम होता है। इसलिए इसमें MR वक्र AR वक्र के नीचे रहता है।

(5) मूल्य और उत्पादन की स्थितियों में अन्तर : पूर्ण प्रतियोगिता और एकाधिकार दोनों में ही फर्म का साम्य उस बिन्दु पर होता है जहाँ सीमान्त आगम (MR) और सीमान्त लागत (MC) एक दूसरे के बराबर हों। इस समानता के बावजूद दोनों के मूल्य और उत्पादन के निर्धारण में निम्न अन्तर पाया जाता है :

() मूल्य में अन्तर : चूँकि पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत AR = MR तथा साम्य की स्थिति में MR = MC होता है, अतः इसमें AR = MC। दूसरी ओर एकाधिकार में चूँकि AR, MR से अधिक होता है तथा साम्य की स्थिति में MR = MC, अतः इसमें AR >MCनिष्कर्ष रूप में पूर्ण प्रतियोगिता में मूल्य सीमान्त लागत के बराबर होता है जबकि एकाधिकार में मूल्य सामान्यतया सीमान्त लागत से अधिक होता है। अतः एकाधिकारी मूल्य प्रतियोगी मूल्य से सामान्यतया ऊँचा रहता है।

(ब) फर्म के आकार या उत्पादन में अन्तर : पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत दीर्घकालीन साम्यावस्था में प्रतिस्पर्धी फर्मे अनुकूलतम आकार की होती हैं और वे अपनी पूर्ण क्षमता तक उत्पादन करती हैं। दूसरी ओर एकाधिकार के अन्तर्गत दीर्घकाल में एकाधिकारी फर्म अनुकूलतम से कम आकार की होती है और वह अपनी पूर्ण क्षमता से कम उत्पादन करती है। संक्षेप में, एकाधिकार में पूर्ण प्रतियोगिता की तलना में कम उत्पादन होता है। एकाधिकारी मूल्य के प्रतियोगी मूल्य से अधिक होने तथा एकाधिकारी उत्पादन के प्रतियोगी उत्पादन से कम होने के परिणामस्वरूप -एकाधिकार में उपभोक्ता की बचत में हानि होती है।

(6) सामान्त लागत (MC) वक्र के सीमान्त आगम (MR) वक्र के काटने में अन्तर: पूर्ण प्रतियोगिता में MC वक्र MR वक्र को केवल नीचे से ही काट सकता है परन्तु पापकार म यह ऊपर नीचे या समानान्तर अवस्था में भी काट सकता है। दूसरे शब्दाम, एकाधिकारा फर्म सभी प्रकार के MC वक्रों के साथ सन्तुलनावस्था को प्राप्त हो सकती है – चाहे वह ऊपर उठ रहा हो, नीचे गिर रहा हो अथवा स्थिर रह रहा हो जबकि एक स्पधी फम ता कवल ऊपर उठते हए MC वक्र के साथ ही सन्तलनावस्था को प्राप्त हो सकती है।

(7) लाभ की स्थिति में अन्तर : ल्पकाल में दोनों में ही लाभ, सामान्य लाभ तथा हान, ताना हा स्थितियां सम्भव हैं. यद्यपि एकाधिकार में सामान्य लाभ या हानि का प्रवात्त बहत कम रहती है किन्तु दीर्घकाल में एक स्पर्धात्मक फर्म को केवल सामान्य लाभ ही प्राप्त होता है। जबकि एकाधिकारी फर्म को निश्चय ही लाभ प्राप्त होता है।

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क्या एकाधिकारी मूल्य सदैव प्रतिस्पर्धात्मक मूल्य से अधिक होता है ?

(Is monopoly price always higher than competitive price ?)

लोगों की सामान्य धारणा यह होती है कि एकाधिकारी मूल्य प्रतिस्पर्धात्मक मूल्य से अधिक होता है। सैद्धान्तिक दृष्टिकोण से भी यह सच ही है। इसका कारण यह है कि पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत मूल्य निर्धारण उद्योग की कुल माँग और कल पूर्ति के साम्य के द्वारा होता है तथा किसी भी फर्म का वस्तु की पूर्ति पर पूर्ण अधिकार नहीं होता है। प्रत्येक प्रतिस्पर्धी फर्म उद्योग द्वारा निर्धारित मूल्य को दिया हुआ मानकर अपनी उत्पादन-मात्रा इस प्रकार समायोजित करती है कि उसकी सीमान्त लागत इस मूल्य के बराबर हो जाय। इस प्रकार पूर्ण प्रतियोगिता में मूल्य की प्रवृत्ति सीमान्त लागत के बराबर रहने (अर्थात् AR or Price = MC) की होती है। इसके विपरीत एकाधिकारी का अपनी वस्तु की पूर्ति पर पूर्ण अधिकार होता है, अतः वह अपने लाभों को अधिकतम करने के लिये ऐसा मूल्य निर्धारित करता है जो प्रायः सीमान्त लागत से अधिक होता है क्योंकि AR> MR तथा MR = MC, अतः AR >MC। इसके अतिरिक्त दीर्घकाल में पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत AR = AC के होता है लेकिन एकाधिकार के अन्तर्गत AR>ACT अतः स्पष्ट है कि एकाधिकारी मूल्य स्पर्धात्मक मूल्य से ऊँचा होता है।

एकाधिकारी मूल्य वस्तु की लागत से कितना अधिक होगा, यह बात वस्तु की माँग की लोच’ तथा औसत लागत के व्यवहार पर निर्भर करती है किन्तु ध्यान रहे कि यह मूल्य प्रतिस्पर्धात्मक मूल्य से ऊँचा नहीं हो सकता क्योंकि (1) सम्भावित प्रतियोगिता का भय, (2) विदेशी प्रतियोगिता का भय, (3) स्थानापन्नों के आविष्कार का भय, (4) माँग में कमी का भय, (5) सरकारी हस्तक्षेप का भय और (6) उपभोक्ताओं द्वारा बहिष्कार का भय ऐसे तत्व हैं जो कि एकाधिकारी को मनमाना मूल्य निर्धारित करने से रोकते हैं।

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यह आवश्यक नहीं है कि एकाधिकारी मूल्य सदैव ही प्रतिस्पर्धात्मक मूल्य से अधिक ही हो। निम्न दशाओं में यह इससे कम भी हो सकता है :

(1) यदि वस्तु की माँग लोचदार हो और एकाधिकारी उत्पत्ति वृद्धि नियम (या लागत हास नियम) के अन्तर्गत उत्पादन कर रहा हो अर्थात् उसकी AC और MC रेखायें तेजी से नीचे की ओर गिर रही हों तो वह नीचा मूल्य रखकर अधिक मात्रा में वस्तुयें बेचकर अपने कुल लाभों को अधिकतम करना चाहेगा।

(2) यदि किसी क्षेत्र में एकाधिकारी बड़े पैमाने के उत्पादन की बचतों के प्राप्त करने के परिणामस्वरूप एकाधिकार की स्थिति प्राप्त करता है तो उसके उत्पादन व्यय (औसत लागत) और विक्रय व्यय के कम होने के कारण वह स्पर्धात्मक दशाओं की अपेक्षा नीचा मूल्य निर्धारित करेगा।उपर्युक्त दशाओं के बावजूद कुल मिलाकर एकाधिकारी मूल्य की प्रवृत्ति स्वय अधिक रहने की होती है।

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एकाधिकारी लाभ और माँग की लोच का सम्बन्ध (Relationship between a Monopolist’s Profit and Elasticity of Demand)

चूंकि एकाधिकारी अपने क्षेत्र में अकेला विक्रेता होता है, अतः उसका वस्तु की पूर्ति पर पूर्ण नियन्त्रण होता है। किन्त ध्यान रहे कि उसका वस्त की पर्ति और उसके मूल्य दोनों पर एक साथ नियन्त्रण नहीं हो सकता। वह इनमें से किसी एक को ही निर्धारित कर सकता है। यदि वह वस्तु का मूल्य निर्धारित करता है तो इस मुल्य पर ग्राहकों की मांग के अनुसार हा वस्तु की पूर्ति करनी होगी। यदि वह पर्ति की मात्रा निर्धारित करता है तो इस पूर्ति की मात्रा को बेचने के लिये माँग के अनुसार ही मूल्य निर्धारित करना होगा। अतः स्पष्ट है कि वह इन दोनों में से किसी एक को ही निर्धारित कर सकता है, दोनों को नहीं। प्रायः वह मूल्य को निश्चित करता है और उसके अनुसार वस्तु की पूर्ति को समायोजित करता है। यही उसके लिये अधिक लाभदायक होता है। उसका उद्देश्य अपने ‘शुद्ध एकाधिकारी लाभ’ को अधिकतम करना होता है। शुद्ध एकाधिकारी लाभ का आशय प्रति इकाई लाभ से नहीं होता वरन् इसका आशय कुल लाभ से होता है। अपने इस उद्देश्य को पूरा करने के लिये उसे वस्तु की माँग की लोच पर ध्यान देना चाहिये।

साधारणतया वस्तु की माँग जितनी अधिक बेलोचदार होती है, एकाधिकारी की स्थिति उतनी ही अधिक सुदृढ़ होती है और वह उतना ही अधिक एकाधिकारी लाभ प्राप्त करता है। इसके विपरीत वस्तु की मॉग जितनी अधिक लोचदार होती है, उसकी स्थिति उतनी ही अधिक कमजोर होती है तथा उसे उतना ही कम एकाधिकारी लाभ प्राप्त होता है।

अतः अपने लाभों को अधिकतम करने के लिये वह बेलोचदार माँग की दशा में वस्तु का ऊँचा मूल्य निर्धारित करता है क्योंकि वह जानता है कि मूल्य के अधिक होने का वस्तु की माँग पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता है। किन्तु ध्यान रहे कि इस स्थिति में भी मूल्य वृद्धि की एक सीमा होती है जिससे अधिक मूल्य बढ़ाये जाने पर उपभोक्ता वस्तु का उपभोग बहुत कम कर सकता है अथवा पूर्णतया त्याग सकता है। ऐसी स्थिति में बाजार में उसकी वस्तु की माँग बहुत घट जाती है। इस स्थिति में उसका प्रति इकाई लाभ भले ही अधिक रहे किन्तु उसका कुल लाभ अवश्य ही कम हो जायेगा। अतः बेलोचदार माँग वाली वस्तुओं की दशा में भी एक सीमा के पश्चात् मूल्य वृद्धि लाभप्रद नहीं रहती।

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वस्तु की माँग अत्यधिक लोचदार होने की दशा में एक एकाधिकारी को अपने कुल लाभ अधिकतम करने के लिये वस्तु का मूल्य अपेक्षाकृत कुछ नीचा ही रखना चाहिये क्योंकि ऐसी मूल्य नीति अपनाने पर उसके विक्रय की मात्रा में बहुत तेजी से वृद्धि होती है जिसके फलस्वरूप उसका प्रति इकाई लाभ कम रहते हुये भी कुल लाभ बढ़ जाता है।

वस्तु की माँग कम लोचदार होने की दशा में वह वस्तु का मूल्य अपनी इच्छानुसार बढ़ा सकता है। इसका उसके विक्रय की राशि पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता क्योंकि इस स्थिति में उपभोक्ताओं द्वारा उस वस्तु पर किया जाने वाला व्यय सदा स्थिर रहता है। इस दशा में एकाधिकारी मूल्य निर्धारण प्रमुखतया उसकी फर्म में क्रियाशील उत्पत्ति के नियम के आधार पर होता है। लागत वृद्धि नियम के लागू होने पर वह मूल्य कुछ ऊँचा रखेगा तथा लागत हास नियम के लागू होने पर वह अपेक्षाकृत नीचा मूला रखेगा।

ध्यान रहे कि अल्पकाल की तुलना दीर्घकाल में वस्तु की मांग की मूल्य-लोच बहुत अधिक होती है। एक चतुर एकाधिकारी को अपनी मूल्य नीति निर्धारित करते समय इस तथ्य वस्तु के उपभोग की आका योग करने लगते हैं कर देते हैं, पूर्णतया त्याग देते हैं एकाधिकार में मूल्य और उत्पादन के निर्णय धना चाहिये। यदि एकाधिकारी लगातार मल्य वद्धि की नीति अपनाता जाता है ता उपभोक्ता धीर-धीरे उस वस्तु का उपभोग कम कर देते हैं, पूर्णतया त्याग दत । उसक कसा स्थानापन्न का योग करने लगते हैं और कालान्तर में उनमें एकाधिकारी का उस वस्तु क उपभोग की आदत समाप्त हो जाती है तथा उसका विक्रय सदा-सदा के लिये कम हा जाता है। दूसरी ओर लम्बे काल तक मल्यों को नीचे स्तर पर रखने से वस्त के उपभाग म स्थायी वृद्धि होती है क्योंकि नीचे मूल्य पर पराने उपभोक्ता उस वस्त का पहले से अधिक उपभोग करने लगते हैं तथा धीरे-धीरे कुछ नये लोग भी उस वस्तु के उपभोग के आदी हो जाते हैं और इस प्रकार वस्तु की माँग स्थायी रूप से बढ़ जाती है।

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एकाधिकारी मूल्य नीति को प्रभावित करने वाले दीर्घकालीन तत्व (Long-term factors affecting the price policy of a monopolist)

एकाधिकारी का उद्देश्य अपने ‘शुद्ध एकाधिकारी लाभ’ को अधिकतम करना होता है। अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये उसे अपनी मूल्य नीति निर्धारित करते समय निम्न तत्वों पर विशेष ध्यान देना चाहिये :

(1) वस्तु की माँग की लोच (Elasticity of demand of the commodity) : इसकी व्याख्या पूर्व की जा चुकी है।

(2) कार्यशील उत्पत्ति नियम (Applicable law of returns) : दीर्घकाल में एकाधिकारी उद्योग के विस्तार व संकुचन की पूर्ण सम्भावनायें रहती हैं, अतः इस काल में वस्तु की औसत लागत में अन्तर आ सकता है तथा यह उस उद्योग में क्रियाशील उत्पत्ति के नियम से प्रभावित होती है। अतः उसे मूल्य निर्धारित करते समय उद्योग में क्रियाशील उत्पत्ति नियम पर भी ध्यान देना चाहिये। यदि उद्योग में उत्पत्ति हास नियम (अथवा लागत वृद्धि नियम) क्रियाशील है तो उसे वस्तु की पूर्ति को नियन्त्रित करके ऊँचा मूल्य निर्धारित करना चाहिये क्योंकि उत्पादन की मात्रा कम रखने पर उसकी प्रति इकाई उत्पादन लागत कम आयेगी। इसके विपरीत यदि वस्तु का उत्पादन उत्पत्ति वृद्धि नियम (अथवा लागत हास नियम) के अन्तर्गत हो रहा है तो उसे नीचा मूल्य रखकर अधिक से अधिक वस्तुओं के विक्रय का प्रयत्न करना चाहिये क्योंकि वस्तु के उत्पादन की मात्रा के बढ़ाने पर प्रत्येक अगली इकाई की लागत घटती जाती है और इस प्रकार उसकी औसत लागत भी कम होती जाती है। इस स्थिति में उसका प्रति इकाई लाभ भले ही कुछ कम हो जाये किन्तु कुल लाभ बढ़ जायेगा। उत्पत्ति समता नियम (अथवा लागत स्थिरता नियम) लागू होने की दशा में उसका निर्णय प्रमुखतया माँग की लोच से प्रभावित होगा।

(3) नयी फर्मों से सम्भावी प्रतियोगिता (Possible Competition from new • firms) : यदि एकाधिकारी को अपने उद्योग में नयी फर्मों के प्रवेश की सम्भावनाएँ नहीं हैं तो वह ऊँचे मूल्य की नीति का अनुसरण कर सकता है किन्तु यदि उसके उद्योग में नयी फर्मों का प्रवेश कठिन न हो तो ऊँचे मूल्य निर्धारण से उस उद्योग में नयी फर्मों के प्रवेश, अतः प्रतियोगिता की सम्भावनायें अधिक हो जाती हैं। इस स्थिति में उसे नीचा मूल्य रखकर भावी प्रतियोगियों को उद्योग में प्रवेश के लिये हतोत्साहित करना चाहिये।

(4) स्थानापन्न वस्तुओं की उपलब्धता और उनके मूल्य (Availability and price of substitutes) : एक एकाधिकारी को अपनी वस्तु के विद्यमान तथा सम्भावी स्थानापन्न वस्तुओं के मूल्यों, उनकी पूर्ति, उन पर नियन्त्रण की सम्भावना आदि बातों पर भी ध्यान देना याहिये। निकट स्थानापन्नों की पर्याप्त मात्रा तथा कम मूल्य पर उपलब्धता की दशा में उसे अपनी वस्तु का मूल्य नीचा ही रखना चाहिये जिससे उपभोक्ता उसकी वस्तु के स्थानापन्नों की ओर आकर्षित न हों। इसके विपरीत स्थिति में वह ऊँचा मूल्य निर्धारण की नीति अपना सकता है।

(5) जनमत (Public Opinion) : एकाधिकारी को जनमत की अवहेलना नहीं करनी चाहिये। अतः मूल्यों में वृद्धि करते समय उसे जनता के विरोध, उपभोक्ताओं द्वारा वस्तु के बहिष्कार, सरकारी हस्तक्षेप आदि की सम्भावनाओं पर उचित ध्यान देना चाहिये। एक प्रजातान्त्रिक व समाजवादी देश में इस तत्व का महत्व और भी अधिक बढ़ जाता है।

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सैद्धान्तिक प्रश्न

(Theoretical Questions)

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

(Long Answer Questions)

1 एकाधिकार क्या है ? एकाधिकार को उत्पन्न करने वाले कारकों को बतलाइये। एकाधिकारी शक्ति को सीमित करने वाले तत्वों का विवेचन करो।

What is ‘Monopoly’ ? State the factors which give rise to monopoly. Describe the factors limiting the monopoly power.

2. एकाधिकार अमिश्रित वरदान नहीं है।” स्पष्ट कीजिये।

“Monopoly is not an unmixed blessing.” Explain !

3. एकाधिकार की परिभाषा दीजिये तथा समझाइये कि एकाधिकारी दशाओं के अन्तर्गत मूल्य कैसे निर्धारित होता है।

Define Monopoly and explain how price is determined under monopoly conditions.

4. एक एकाधिकारी फर्म किस प्रकार अपना उत्पादन व मूल्य निर्धारित करती है ?

How does a monopolist firm determine its price and output?

5. आप एकाधिकार और अल्पाधिकार से क्या समझते हैं ? एकाधिकार में मूल्य निर्धारण कैसे होता है ?

What do you mean by Monopoly and Oligopoly? How is price determined in monopoly?

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6. एकाधिकार क्या है ? अल्पकाल और दीर्घकाल में एक एकाधिकारी कीमत और उत्पादन का निर्धारण किस प्रकार करता है ?

What is ‘Monopoly? How is price and output determined by a monopolist in the short-term and long-term?

7. एकाधिकार क्या है ? एकाधिकार के अन्तर्गत कीमत कैसे निर्धारित होती है ? क्या एकाधिकारी कीमत हमेशा प्रतियोगी कीमत से ऊँची होती है ?

What is ‘Monopoly’ ? How is price determined under monopoly? Is monopoly price always higher than competitive price?

8. एकाधिकार’ तथा ‘पूर्ण स्पर्धा’ में भेद बताइये। क्या एकाधिकारिक कीमत प्रतिस्पर्धात्मक कीमत से सदैव ऊँची होती है ?

Distinguish between ‘Monopoly’ and ‘Perfect Competition.’ Is monopoly price always higher than competitive price?

9. एकाधिकारी के लाभ और मांग की लोच के सम्बन्ध को समझाइये।

Examine the relation between a monopolist’s profit and elasticity of demand.

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chetansati

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