BCom 1st Year Environment International Monetary Fund Study Material notes in Hindi

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BCom 1st Year Environment International Monetary Fund Study Material notes in Hindi

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BCom 1st Year Environment International Monetary Fund Study Material notes in Hindi : Objects of International Monetary Fund  Membership of The LMF Financial Resources of The IMF  Par Values Determination And Change Functions of IMF Advantages of the IMF Progress of Working or Achievements of IMF Disadvantages of IMF and India Examination Questions Long Answer Questions Short Answer Questions :

International Monetary Fund
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BCom 1st Year Environment International Monetary Fund Study Material notes in Hindi

अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष

[INTERNATIONAL MONETARY FUND]

अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष की स्थापना बीसवीं सदी के प्रारम्भ से अन्तर्राष्ट्रीय मौद्रिक व्यवस्था के कई अवतार हुए हैं। विस्तृत अर्थ में, यह व्यवस्था स्वर्णमान जिसका अन्त 1914 में हुआ, की स्थिर विनिमय दर प्रणाली को छोड़कर 1914-45 के मध्य स्वर्णमान में पुनः लौटते हुए तैरती विनिमय दरों के युग में प्रवेश कर गई जहां कोई स्थायी विश्वव्यापी व्यवस्था नहीं थी। 1945 में ब्रेटनवुड्स की सोना-डॉलर से बंधी विनिमय दर प्रणाली की स्थापना हुई जो 1973 तक चली। 1973 से जो अन्तर्राष्ट्रीय मौद्रिक व्यवस्था लागू है उसे संचालित तैरती व्यवस्था (Managed floating system) कहा जाता है। अभी किसी मुद्रा का विनिमय मूल्य डॉलर येन/ड्यूटसमार्क ट्रोयका (dollar/yen/Deutschmark troicka) द्वारा निर्धारित होता है। (ट्रोयका रूसी भाषा एक शब्द है जिसका अर्थ होता है तीन घोड़ों से चलने वाली गाड़ी।)

संयुक्त राष्ट्रों का मौद्रिक एवं वित्तीय सम्मेलन (United Nations Monetary and Financial Conference) 22 जुलाई, 1944 में ब्रेटनवुड्स (Bretton Woods), अमरीका में हुआ। इसमें 44 देशों ने भाग लिया। इसी सम्मेलन में अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष तथा अन्तर्राष्ट्रीय पुनर्निर्माण एवं विकास बैंक की स्थापना का निर्णय लिया गया। मुद्राकोष की स्थापना 27 दिसम्बर, 1945 में हुई, किन्तु इसने 1 मार्च, 1947 से अपना कार्य आरम्भ किया।

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अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के उद्देश्य

(OBJECTS OF INTERNATIONAL MONETARY FUND)

मुद्रा-कोष के समझौता-पत्र के अनुसार इसके निम्नलिखित उद्देश्य हैं :

(1) अन्तर्राष्ट्रीय मौद्रिक सहयोग की स्थापना (Creation of International Monetary Co-operation)—मुद्रा-कोष का प्रथम उद्देश्य सदस्य देशों में मुद्रा नीति सम्बन्धी सहयोग स्थापित करना है। इसके लिए कोष द्वारा विशेषज्ञों का एक दल रखा जाता है जो अन्तर्राष्ट्रीय मौद्रिक समस्याओं के समाधान के लिए समय-समय पर सुझाव देता है।

(2) सन्तुलित अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार को बढ़ावा (Promotion of Balanced Growth of International Trade) द्वितीय युद्धकाल में सब देशों द्वारा आयात-निर्यात पर प्रतिबन्ध लगा दिए गए थे। अनेक आर्थिक एवं राजनीतिक कारणों से भी अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार की मात्रा में बहुत कमी हो गई। कोष के अनुसार मुद्रा-कोष का कोई भी सदस्य कोष की अनुमति लिए बिना अन्तर्राष्ट्रीय लेन-देन अथवा भुगतानों पर कोई बन्धन नहीं लगा सकता। इस प्रकार अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का उद्देश्य अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का सन्तुलित विकास करना है।

(3) विनिमय स्थायित्व (Exchange Stability)-मुद्रा कोष का तीसरा उद्देश्य विनिमय दरों में स्थायित्व लाना है। सदस्य बनने के समय ही प्रत्येक देश की विनिमय दर SDR में निर्धारित कर दी जाती है (15 अगस्त, 1971 से पूर्व प्रत्येक सदस्य देश की मुद्रा की विनिमय-दर स्वर्ण और डालर में निर्धारित की जाती थी) और प्रत्येक सदस्य उस दर को बनाए रखने की चेष्टा करता है। यदि किसी देश की विनिमय-दर गिरने की आशंका उत्पन्न हो जाती है तो मुद्रा-कोष न केवल उसे उचित सलाह द्वारा स्थिति को संभालने में मदद करता है बल्कि उसे आवश्यक मुद्रा उधार भी देता है।

(4) बहुमुखा मुगतान (Multilateral Payments)–अन्तर्राष्ट्रीय मद्रा कोष का उद्देश्य विनिमय नियन्त्रणों को धीरे-धीरे हटवाकर बहुमुखी भुगतान व्यवस्था लागू करना है।

(5) आर्थिक सहायता (Financial Assistance) अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष सदस्य देशों के प्रतिकूल भुगतान सन्तुलन को ठीक करने के लिए आर्थिक सहयोग प्रदान करता है। यह सहयोग अल्पकालीन ऋण देकर (जो किसी भी मुद्रा में प्राप्त किए जा सकते हैं) किया जाता है जिससे सम्बन्धित देशों को न केवल आर्थिक सहायता ही मिलती है बल्कि आर्थिक व्यवस्था ठीक करने के लिए परामर्श एवं तकनीकी सहायता भी मिलती है। इस प्रकार अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का उद्देश्य सदस्य देशों के प्रतिकल भगतान सन्तलन को ठीक करने के लिए आर्थिक सहायता प्रदान करना है।

(6) असन्तुलन की अवधि तथा मात्रा (Duration and Degree of Disequilibrium)-कुछ देशों की आधारभूत अर्थव्यवस्था तो दृढ़ होती है, परन्तु विशेष कारणों से उनका भुगतान सन्तुलन बिगड़ जाता है। यह सन्तुलन न तो तत्काल ठीक करना उचित ही है न सम्भव ही। अतः मुद्रा कोष समुचित सहायता द्वारा इसे शीघ्रातिशीघ्र ठीक करने का प्रयत्न करता है। उसके प्रयत्नों से सन्तुलन की अवधि और मात्रा में कमी हो जाती है जिससे उस देश की आर्थिक स्थिति पर बहुत भार नहीं पड़ने पाता। इस प्रकार अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का उद्देश्य सदस्य देशों के प्रतिकूल भुगतान सन्तुलन की अवधि एवं सम्बद्ध घाटे के परिणाम को न्यूनतम करने का प्रयास करना है।

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अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष की सदस्यता

(MEMBERSHIP OF THE I.M.F.)

मुद्रा कोष की सदस्यता कोई भी देश प्राप्त कर सकता है, परन्तु सदस्य देश को इसके समझौता-पत्र की सब धाराओं का पालन करने का वचन देना पड़ता है। जो देश कोष का सदस्य न रहना चाहे वह सूचना मात्र से ऐसा कर सकता है। यदि कोई सदस्य मद्रा-कोष के समझौता-पत्र की किसी धारा की अवहेलना करता है तो उसे सदस्यता से पृथक् किया जा सकता है। 1 मार्च, 1947 को अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के केवल 40 सदस्य थे जिनकी संख्या वर्तमान में बढ़कर 189 हो गई है।

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अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के आर्थिक साधन

(FINANCIAL RESOURCES OF THE I.M.F.)

अभ्यंश एवं उनका निर्धारण (Quotas and their Fixation) मुद्राकोष का सदस्य बनने से पूर्व प्रत्येक देश का अभ्यंश निश्चित कर दिया जाता है। यदि कोई देश अपने अभ्यंश में परिवर्तन करना चाहे तो मुद्रा कोष उस पर विचार कर सकता है। परन्तु, जब तक कुल मत शक्ति का 80 प्रतिशत पक्ष में न हो, अभ्यंश में परिवर्तन नहीं किया जा सकता। किसी देश का अभ्यंश उसकी सहमति बिना बदलने की व्यवस्था नहीं है।

प्रारम्भ में मुद्रा कोष के साधन 1,000 करोड़ डालर निश्चित किए गए थे तथा यह व्यवस्था की गई थी कि प्रत्येक देश अपने अभ्यंश का कम से कम 25% अथवा अपने देश की कुल स्वर्ण एवं डालर निधि दोनों का 10% (दोनों में जो भी कम हो) स्वर्ण में देगा, किन्तु 1976 से मुद्रा-कोष में स्वर्ण जमा करने की प्रणाली समाप्त कर दी गई और यह प्रावधान रखा गया कि सदस्य देश अपने अभ्यंश का 75% अपनी मुद्रा में तथा शेष 25% किसी भी कोष मुद्रा (Reserve Currency) में जमा करवा सकता है।

वर्तमान में अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के सदस्य देशों के कोटा का निर्धारण एक फॉर्मूला द्वारा किया जाता है, जो इस प्रकार है :

सकल घरेलू उत्पाद का औसत भारांकन                                                  50.0%

अर्थव्यवस्था का खुलापन                                                                       30.0%

आर्थिकपरिवर्तनशीलता                                                                          15.0%

अन्तर्राष्ट्रीय रिजर्व                                                                                15.0%

सकल घरेलू उत्पाद का मापन 60% भारांकन के साथ बाजार विनिमय दर पर तथा 40% भारांकन के साथ क्रय शक्ति समता द्वारा किया जाता है।

अभ्यंशों में परिवर्तन

(Change in Quotas)

अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के अभ्यंशों के सम्बन्ध में हर पांचवें वर्ष पुनर्विचार होता है और आवश्यकता होने पर उनमें परिवर्तन कर दिया जाता है।

189 सदस्यीय अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने सदस्य देशों के कोटे की 14वीं सामान्य पुनरीक्षण समीक्षा लाग करने की घोषणा 27 जनवरी, 2016 को की थी। इस कोटा सुधार के लागू होने से आई. एम. एफ. का स्वयं का पूंजी आधार 477 अरब एस. डी. आर. (लगभग 657 अरब डॉलर) हो गया है तथा साथ ही कोटों का पुनर्वितरण इस प्रकार हो गया है, जिससे 6% से कुछ अधिक कोटा उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं व अन्य विकासशील देशों के पक्ष में हस्तान्तरित हुआ है। इससे भारत, चीन, रूस अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के 10 बड़े कोटे वाले देशों में शामिल हो गए हैं। कोटों के सापेक्षिक वृद्धि के फलस्वरूप इन देशों के मताधिकार में भी वृद्धि हो गई है। कोटे के इस पुनरीक्षण के साथ आई.एम. एफ. में भारत का कोटा बढ़कर 2.7 प्रतिशत तथा उसका मताधिकार 2.6 प्रतिशत हो गया है। कोष के बड़े कोटा धारकों में भारत का स्थान अभी तक 11वां था, जो बढ़कर 8वां हो गया है।

14वीं कोटा समीक्षा के तहत स्वीकार किए गए एक अन्य सुधार के अन्तर्गत कोष के निदेशक मण्डल के सभी सदस्य अब चुनाव द्वारा ही चुने जाएंगे तथा पांच बड़े कोटा धारकों द्वारा एक-एक निदेशक के मनोनयन की व्यवस्था अब समाप्त हो गई है।

अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष में (2 फरवरी, 2017) सर्वाधिक कोटा वाले 10 देशों का कोटा निम्नवत है :

 

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समता दरें : निर्धारण एवं परिवर्तन

(PAR VALUES : DETERMINATION AND CHANGE)

प्रारम्भ में अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा-कोष द्वारा सभी सदस्य देशों की मुद्राओं के मूल्य स्वर्ण तथा डॉलर में निर्धारित किए गए थे। जब कोई देश मुद्रा कोष का सदस्य बनता था, उसकी मुद्रा का मूल्य स्वर्ण तथा डॉलर में निर्धारित किया जाता था। यह निर्धारण सदस्य देश की सहमति से होता था। एक बार दर निर्धारित होने के बाद प्रत्येक सदस्य देश से यह आशा की जाती थी कि वह अपनी समता दर एक निर्धारित प्रतिशत से अधिक बढ़ने या गिरने नहीं देगा।

दिसम्बर सन् 1971 के स्मिथसोनियन (Smithsonion) समझौते के अन्तर्गत, सदस्य देशों द्वारा विनिमय की आधारभूत दरें निश्चित कर ली गईं, जिनमें 2.25% तक का परिवर्तन किसी भी समय किया जाना कोष को स्वीकार होगा। परिवर्तन सीमा बढ़ाने के बावजूद विनिमय दरों को स्थिर रखना सम्भव नहीं हुआ और एक समय ऐसा भी आया कि सभी प्रमुख देशों ने समता दरों के स्थान पर स्वतन्त्र दरों (floating rates) कीव्यवस्था को अपना लिया।

वर्तमान में प्रत्येक देश की मुद्रा की इकाई का मूल्य SDR में निश्चित किया जाता है। विभिन्न देशों की मुद्राओं की पारस्परिक विनिमय दरें अब बाजार में मांगपूर्ति के अनुसार घटबढ़ सकती हैं। इस प्रकार अब मुद्राकोष द्वारा आरम्भ की गई समता दरों की प्रणाली का अन्त हो गया है।

SDR-नई हिसाबी मुद्रा (SDR-New Account Money)

दिसम्बर 1971 तक अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की हिसाबी मुद्रा अमरीकन डॉलर थी। मुद्रा कोष के समस्त अभ्यंशों (Quotas) तथा सभी प्रदत्त ऋण राशियों को डॉलर के रूप में व्यक्त किया जाता था।

दिसम्बर 1971 में विशेष आहरण अधिकार (Special Drawing Rights-SDR) मुद्रा कोष की नई मुद्रा बन गई और कोष के समस्त लेन-देन इस नई मुद्रा SDR में व्यक्त किये जाने लगे। अन्तर्राष्ट्रीय मौद्रिक क्षेत्र SDR स्वर्ण मुद्रा की भूमिका निभाता है—इसी कारण इसे कागजी स्वर्ण (Paper Gold) के नाम से भी जाना जाता है।

1971 म अपनाई गई इस नई मुद्रा SDR का मूल्य 1 अमरीकी डॉलर माना गया, किन्तु अन्तराष्ट्रीय बाजार में डॉलर का मूल्य घट जाने के कारण अप्रैल 1995 के अन्त में 1 SDR = 1.585 डॉलर हो गया। वर्तमान में (12 जनवरी, 2017 को) में एक SDR का मूल्य 1.3527 डॉलर है।

1 जनवरी, 1981 से अपनाई गई पद्धति में SDR का मूल्य पांच बड़े निर्यातक देशों की मुद्राओं की पिटारी (Basket of Currencies) के आधार पर निर्धारित किया जाता है।

1 अक्टूबर, 2016 से चीन की मुद्रा रेन मिन्बी को बास्केट में शामिल करने के पश्चात् एस. डी. आर. के मूल्य निर्धारण में पांच मुद्राओं का भार निम्नवत था

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अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के कार्य

(FUNCTIONS OF I.M.F.)

अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए मुद्रा-कोष निम्नांकित कार्य सम्पादित करता है :

(1) आर्थिक सहायता प्रदान करना (Giving of Economic Aid)—मुद्राकोष का मुख्य उद्देश्य समस्त देशों के भुगतान असन्तुलन को सन्तुलित करने में सहायता करना है। जब किसी देश का व्यापार अथवा भुगतान सन्तुलन विपक्ष में होता है तो मुद्रा-कोष द्वारा कुछ समय के लिए आवश्यक मुद्रा की व्यवस्था कर दी जाती है।

वर्तमान में सभी सदस्य देशों की मुद्राएं स्वतन्त्र हैं और उनकी विनिमय दरों में बाजार भाव के अनुसार उतार-चढ़ाव हो रहे हैं। मुद्राकोष जितनी सहायता देता है वह सम्बन्धित देश के केन्द्रीय बैंक के माध्यम से ही देता है। किसी सदस्य देश द्वारा मांगे जाने पर उस देश की मुद्रा अथवा स्वर्ण के रहते मुद्राकोष सदस्य देश की मुद्रा की पूर्ति करता है। ऐसे ऋण की तीन सीमाएं होती हैं—(i) मांगी गई मुद्रा का प्रयोग चालू भुगतान के लिए हो, (ii) मुद्रा कोष ने मांगी गई मुद्रा को दुर्लभ घोषित न किया हो, एवं (iii) जो सदस्य देश अपनी मुद्रा देकर अन्य देश की मुद्रा खरीद रहा है, उससे सदस्य देश के अभ्यंश में एक वर्ष की अवधि तक 25% से अधिक की वृद्धि नहीं होगी। यदि कोई देश बड़े पैमाने पर अन्य देश की मुद्रा खरीदता है तो इसके लिए वह सीमा है कि वह अपनी अभ्यंश के 200 प्रतिशत से अधिक मूल्य का विदेशी विनिमय मुद्रा-कोष से नहीं खरीद सकता। प्रायः अभ्यंश के 50% कोष एक वर्ष में उधार दिए जाते हैं तथा संकटकालीन स्थिति में अभ्यंश के शत-प्रतिशत ऋण की भी व्यवस्था की जाती है।

मुद्राकोष की तुलना दमकल से (I. M. F. like a Fire Brigade)-मुद्रा-कोष केवल अस्थाई असन्तुलन को ठीक करने के लिए रकम देता है, अतः सहायता की अवधि अधिक से अधिक 3 से 5 वर्ष तक होती है। मुद्रा कोष के भूतपूर्व प्रबन्ध निदेशक पेर जेकोबसन के शब्दों में, “मुद्रा-कोष आग बुझाने वाले इंजन की तरह है जिसका प्रयोग केवल संकट-काल में किया जाना चाहिए।” वास्तव में जब किसी देश के विनिमय-कोष समाप्त हो जायं या किसी अस्थायी कठिनाई के कारण वह विदेशी भुगतान करने में असमर्थ हो तब उसे मुद्रा-कोष से सहायता मांगनी चाहिए, क्योंकि मुद्रा-कोष एक गतिशील कोष है (The I.M.F. is a revolving fund) और इसकी पूंजी एक जगह अटका कर नहीं रखी जा सकती। मुद्राकोष की सहायता वास्तव में अवसर प्रदान करने के लिए है जिसके सहारे से देशों को अपनी व्यापारिक स्थिति सुधारने का समय मिल जाता है।

मुद्रा कोष निम्न रूपों में आर्थिक सहायता देता है :

(i) संकटकालीन सहायता (Emergency Help)—जिस देश में राजनीतिक अथवा आर्थिक संकट के कारण स्थिति बिगड़ जाती है उसे सुधारने के लिए मुद्रा-कोष अल्पकालीन सहायता दे देता है। ।

(ii) सामयिक विनिमय कठिनाई (Seasonal Exchange Difficulty) जिन देशों की अर्थयवस्थ विदेशी व्यापार पर ही निर्भर है और उनके निर्यात. वर्ष के कुछ महीनों में ही होते हैं, उन्हें भी मुद्रा-कोषआर्थिक सहायता देता है।

(iii) चालू भुगतान का सन्तुलन (Balancing Payment on Current Account) कुछ देशों में आर्थिक । नियोजन के कारण भुगतान में प्रतिकूलता रहती है, उसे ठीक करने के लिए भी मुद्रा-कोष से सहायता मिल जाती है।

(iv) स्थायित्व ऋण (Stabilisation Loans) –जो देश आर्थिक स्थिति की दुर्बलता के कारण अपनी विनिमय दर स्थिर रखने में कठिनाई का अनुभव करते हैं उन देशों को भी मुद्रा-कोष आर्थिक एवं तकनीकी सहायता देता है।

(2) ऋण तथा ऋण बचन (Loans and Stand-by Agreement)-ऋण तथा ऋण वचन की क्रियाएं अल्पकालीन अन्तर्राष्ट्रीय साख के अन्तर्गत आती है। सदस्य देशों की भुगतान सन्तुलन की प्रतिकलता ठीक करने के लिए मुद्रा कोष दो प्रकार से अल्पकालीन अन्तर्राष्ट्रीय साख की व्यवस्था करता है। मुद्रा-कोष एक तो अपने सदस्यों को प्रत्यक्ष रूप में विदेशी मुद्रा बेचता है, दूसरे उनको आवश्यकता पड़ने पर विदेशी मुद्रा बेचने का वचन देता है। मुद्रा बेचने के वचन की अवधि प्रायः एक वर्ष की होती है, परन्तु उसमें पारस्परिक समझौते द्वारा वृद्धि की जा सकती है। यह सहायता सम्बन्धित देश के केन्द्रीय बैंक के माध्यम से दी जाती है। इस व्यवस्था के अन्तर्गत सदस्य देश को वह अधिकार देता है कि वह निश्चित अवधि के भीतर आवश्यकता बतलाकर कोष से विदेशी विनिमय प्राप्त कर सकता है।

(3) प्राविधिक सहायता (Technical Assistance) कोष द्वारा वाशिंगटन स्थित प्रधान कार्यालय तथा अन्य देशों में अपने प्रतिनिधि भेजकर आर्थिक नीतियों के सम्बन्ध में सहायता देने की व्यवस्था की जाती है। यह सहायता सामान्य भगतान सन्तुलन की समस्या से लेकर आर्थिक एवं वित्तीय क्षेत्र की किसी भी विशेष समस्या के बारे में हो सकती है। कोष के विशेषज्ञों द्वारा कई देशों को मुद्रा, कर, विनिमय तथा विकास नीतियों के सम्बन्ध में सहायता दी गई है। कुछ देशों के केन्द्रीय बैंकों की स्थापना तथा उनके विभिन्न विभागों की व्यवस्था मद्रा-कोष के सहयोग से की जा सकी है। इन कार्यों के लिए मुद्रा-कोष के विशेषज्ञों को एक सप्ताह से लेकर एक वर्ष तक सम्बन्धित देशों में रहना पड़ा है। अफ्रीका के कुछ ऐसे देशों में भी, जो मुद्रा-कोष के सदस्य नहीं हैं, केन्द्रीय बैंकों को मुद्रा तथा बैंक नीति निर्माण करने में सहयोग दिया गया है।

(4) प्रशिक्षण कार्यक्रम (Training Programmes) सन् 1951 से मुद्रा कोष सदस्य देशों के प्रतिनिधियों को प्रशिक्षण देने की व्यवस्था कर रहा है। प्रशिक्षण कार्यक्रमों में अन्तर्राष्ट्रीय भुगतान, आर्थिक विकास और वित्तीय व्यवस्था तथा अंक-संकलन और विश्लेषण से सम्बन्धित प्रशिक्षण दिया जाता है। प्रशिक्षण अवधि प्राय:6 से 12 मास तक होती है। प्रशिक्षण प्रायः केन्द्रीय बैंकों तथा सरकार के वित्त विभाग के उच्च पदाधिकारियों के लिए होते हैं और उनमें मौखिक भाषणों तथा वाद-विवादों के अतिरिक्त समुचित मात्रा में व्यावहारिक प्रशिक्षण दिया जाता है।

कोष प्रशिक्षणालय (I.M.E. Training Institute)-कोष की प्रशिक्षण क्रियाओं का विस्तार एवं विकास करने के लिए मई 1963 में एक प्रशिक्षणालय स्थापित किया गया। यह विभिन्न भाषाओं में वित्तीय नीति विश्लेषण सम्बन्धी प्रशिक्षण कार्यक्रम संचालित करता है।

(5) पर्यावरण के प्रति जागरूकता (The Fund and the Environment)—यह मुद्रा कोष का नवीनतम कार्य है कि उसने आर्थिक नीतियों के पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभाव पर ध्यान देना प्रारम्भ किया है। इसे दृष्टि में रखकर कोष ने 1991 में महत्वपूर्ण निर्देश जारी किए एवं ऐसे कार्यों के लिए ऋण देने से इन्कार किया जाने लगा जिनका पर्यावरण पर दुष्प्रभाव पड़ता है। इस सम्बन्ध में कोष ने अन्य अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं से भी सम्पर्क स्थापित किया है जो पर्यावरण के क्षेत्र में शोध कर रही है।

(6) विश्व बैंक से सहयोग स्थापित करना (Fund-Bank Collaboration)-मुद्रा-कोष एवं विश्व बैंक दोनों ही आर्थिक विकास एवं स्थिरता (stability) बढ़ाने हेतु प्रयास करते हैं। यद्यपि दोनों के चार्टर के अनुसार उनकी स्थिति भिन्न है, किन्तु दोनों एक-दूसरे के सहयोग से कार्य करते हैं। मुद्रा कोष ऐसे कार्यों के दुहराव से बचने का प्रयास करता है जो विश्व बैंक द्वारा किए जाते हैं। इस सम्बन्ध में दोनों संस्थाओं ने 1986 से निदेशक सिद्धान्त बनाए हैं जिसकी समय-समय पर समीक्षा की जाती है।

मुद्रा कोष अन्य सभी अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों से सहयोग रखता है और इसके प्रतिनिधि उनकी वार्षिक सभाओं में भाग लेते रहते हैं जिससे कोष संसार में होने वाले सब आर्थिक परिवर्तनों के सम्पर्क में रहता है।

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(7) विदेशी विनिमय नियन्त्रण सम्बन्धी सलाह (Advice on Exchange Controls) मुद्रा-काष आधकारियों द्वारा विकासशील देशों को विदेशी विनिमय सम्बन्धी उचित सलाह देने की व्यवस्था है। विदेशी विनिमय सम्बन्धी सलाह देते समय प्राय: मुद्रा तथा वित्त नीतियों सम्बन्धी विचार-विमर्श होता है और उनमें सुधार करने का अवसर मिलता है।

(8) संरचनात्मक समायोजन सुविधा (Structural Adjustment Facility) अल्प आय वाले सदस्य का रियायती दर पर अतिरिक्त भुगतान सन्तलन सविधा प्रदान करने की दृष्टि से मुद्रा कोष ने मार्च 1986 सरचनात्मक समायोजन सुविधा स्थापित की। दिसम्बर 1987 में इस सुविधा का विस्तार किया गया और गरीब देशो को 6 बिलियन SDR के तुल्य रियायती सहायता प्रदान करने का प्रावधान रखा गया। इस सहायता का उद्दश्य इन देशों की भुगतान सन्तुलन की स्थिति में सुधार कर उनमें विकास की गति तेज करना है।

(9) मुद्रा कोष की रिपोर्ट के प्रकाशन (The Publications of I.M.E. Report) अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा-कोष द्वारा अपनी वार्षिक रिपोर्ट, विदेशी विनिमय नियन्त्रण सम्बन्धी वार्षिक रिपोर्ट, भुगतान सन्तुलन (वार्षिक), अन्तर्राष्ट्रीय वित्त समंक (मासिक), व्यापार की दिशा (मासिक), वित्त एवं विकास (त्रैमासिक) तथा अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय समाचार सर्वेक्षण (साप्ताहिक) प्रकाशित किए जाते हैं जिनमें विद्यार्थियों, अध्यापकों तथा शोधकर्ताओं एवं सरकारी कार्यालयों के लिए अत्यन्त मूल्यवान सामग्री मिलती है। मुद्रा-कोष के स्टाफ पेपर्स में अत्यन्त उच्चस्तरीय लेख प्रकाशित होते हैं।

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अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के कार्यों की प्रगति

अथवा

उसकी उपलब्धियां एवं सफलताएं

(PROGRESS OF WORKING OR ACHIEVEMENTS OF I.M.F.)

अपनी स्थापना काल से लेकर मुद्रा कोष ने विभिन्न क्षेत्रों में अपने कार्यों में उल्लेखनीय प्रगति की है जिसे हम उसकी सफलताएं अथवा उपलब्धियां कह सकते हैं। इनका संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार है :

(1) सदस्य संख्या में वृद्धि (Increase in the Membership)- मुद्रा कोष की सदस्य संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। 1 मार्च, 1947 को मुद्रा कोष के केवल 40 सदस्य थे। यह संख्या वर्तमान में बढ़कर 189 हो गई है।

(2) कोष की तरलता एवं ऋण लेना (Fund Liquidity and Borrowing)–कोष के तरल संसाधनों में प्रयोज्य मुद्राओं (Usable Currencies) तथाSDR का समावेश होता है जिन्हें सामान्य संसाधन लेखे में रखा जाता है। कोष का सबसे बड़ा संसाधन प्रयोज्य मुद्राएं हैं तथा उन्हीं देशों की मुद्राओं को इसमें शामिल किया जाता है जिनकी भुगतान सन्तुलन एवं रिजर्व की स्थिति मजबूत होती है। इन मुद्राओं को कार्यात्मक बजट (Operational Budget) में शामिल किया जाता है। कोष ने अपने संसाधनों की पूर्ति करने एवं सदस्य देशों के क्रय की वित्तीय व्यवस्था करने हेतु अधिकृत स्रोतों से ऋण लिया है। इस दिशा में कोष ने सराहनीय भूमिका निभाई है।

(3) ऋण बचन एवं विस्तारित सुविधा (Stand-by and Extended Arrangements) कोष द्वारा विकासशील देशों को 21 ऋण वचन अथवा वक्त जरूरत सुविधा प्रदान की जाती है। इसके अन्तर्गत सदस्य देश को एक निश्चित अवधि के लिए एक निश्चित राशि तक मुद्रा कोष से वक्त जरूरत ऋण मिल सकता है। उक्त 21 समझौतों के अन्तर्गत 5.6 बिलियन SDR देने का प्रावधान किया गया। भारत, ब्राजील, अर्जेन्टीना आदि देशों के साथ ऐसे समझौते किये गये हैं।

(4) ढांचागत समायोजन सुविधा एवं विस्तारित ढांचागत समायोजन सुविधा (Structural Adjustment Facility & Extended Structural Adjustment Facility-SAF and ESAF) इस सुविधा के अन्तर्गत अल्प आय वाले सदस्य देशों को रियायती दर पर ऋण सुविधा प्रदान की जाती है जो मार्च 1986 में प्रारम्भ की गई। दिसम्बर 1987 में इस सुविधा का विस्तार किया गया और गरीब देशों को 6 बिलियन SDR के तुल्य रियायती सहायता प्रदान करने का प्रावधान रखा गया। इस सहायता का उद्देश्य भुगतान सन्तुलन की स्थिति में सुधार कर पिछड़े देशों में विकास की गति तेज करना है। इन दोनों सुविधाओं के अन्तर्गत ऋण कोष के विशेष भुगतान लेखा (Special Disbursement Account) में से दिया जाता है तथा वर्तमान में इस पर ब्याज की। दर 0.5 प्रतिशत वार्षिक है।

(5) सदस्यों को वित्तीय सुविधा की वृद्धि (Increase in Financial Support) नब्बे के दशक के आरम्भ । में कोष द्वारा सदस्य देशों की सहायता में वृद्धि की गई जिसके दो प्रमुख कारण थे—प्रथम, तीन बड़े ऋण लेने वाले देशों (अर्जेण्टाइना, ब्राजील, भारत) द्वारा कोष की आर्थिक एवं ढांचागत सुविधा के अन्तर्गत ऋण लिया जाना जिसकी राशि 6.1 बिलियन SDR थी। दूसरे, खाड़ी संकट के कारण तेल की कीमतों में भारी वृद्धि जिसके कारण कई देशों ने क्षतिपूरक एवं आकस्मिक वित्तीय सुविधा के अन्तर्गत ऋण लिया।

(6) विश्व व्यापार में सहायता (Assistance in World Trade System) अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के क्षेत्र में सन्तुलित व्यापार का विकास करना कोष का एक प्रमुख उद्देश्य है। इसके लिए कोष, व्यापार एवं भुगतानों के नियन्त्रणों को दूर करता है। समझौता पत्र की धारा IV में व्यापार के क्षेत्र में सुधारों का प्रावधान है। धारा VIII में यह भी प्रावधान है कि कोष का कोई सदस्य चालू अन्तर्राष्ट्रीय भुगतान पर किसी भी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं लगाएगा। उदार व्यापार नीतियों को बढ़ाने की दृष्टि से कोष ने क्षेत्रीय एकीकरण (Regional Integration) बढ़ाने पर भी जोर दिया है तथा व्यापार के क्षेत्र से सम्बन्धित संस्थाओं से सम्पर्क स्थापित किया है जिनमें विश्व बैंक, आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन (OECD) प्रमुख हैं। कोष समय-समय पर अपनी उन नीतियों की समीक्षा भी करता है जो विश्व व्यापार से सम्बन्धित होती हैं। यह कोष की नीतियों का ही परिणाम है कि कई विकासशील देशों ने व्यापार के क्षेत्र में संरक्षण की नीति को सीमित कर दिया है तथा प्रशुल्क की दरों को भी घटा दिया है।

(7) तकनीकी सहायता एवं प्रशिक्षण (Technical Assistance and Training) कोष की सदस्यता बढ़ने एवं सदस्य देशों द्वारा बाजार अर्थव्यवस्था का स्वरूप अपनाए जाने के कारण तकनीकी सहायता एवं प्रशिक्षण की मांग में विस्तार हुआ है। कोष की तकनीकी सहायता, सदस्य देशों को अपने आर्थिक एवं सामाजिक ढांचे में सुधार में सहायक होती है। अपने प्रशिक्षण कार्यक्रम में कोष सरकारी अधिकारियों को मेक्रो आर्थिक प्रबन्ध, केन्द्रीय बैंकिंग विकास, कर प्रणाली एवं कर प्रशासन में सुधार, सांख्यिकी आंकड़ों में सुधार, इत्यादि विषयों का समावेश करता है। वियना (ऑस्ट्रिया) में एक नया क्षेत्रीय प्रशिक्षण केन्द्र स्थापित करने में कोष, पांच अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं को सहयोग कर रहा है जो अर्थव्यवस्थाएं बाजार-आधारित अर्थव्यवस्था में परिवर्तित हो रही हैं, उनमें तकनीकी सहायता की अधिक मांग है; जैसे पूर्वी यूरोप के देश एवं पूर्व सोवियत संघ के राज्य। तकनीकी सहायता देने की दृष्टि से न केवल कोष के विभिन्न विभागों में सहयोग बढ़ा है वरन कोष विभिन्न बहुपक्षीय संस्थानों के साथ भी सहयोग कर रहा है जैसे विश्व बैंक, संयुक्त राष्ट्र संघ विकास कार्यक्रम, यूरोपीय समुदाय (European Community), यूरोपियन पुनर्निर्माण एवं विकास बैंक, इत्यादि।

कोष, तकनीकी सहायता के लिए संसाधन दो स्रोतों से प्राप्त करता है—प्रथम, संयुक्त राष्ट्र संघ विकास कार्यक्रम की एक एजेंसी की तरह मुद्रा कोष 1989 के समझौते के अन्तर्गत कार्य करता है, एवं द्वितीय, तकनीकी सहायता लेखा जिसकी वित्तीय व्यवस्था जापान करता है तथा इसकी स्थापना मार्च 1990 में की गई थी।

अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के विभिन्न विभाग प्रशिक्षण कार्यक्रम का आयोजन करते हैं जैसे केन्द्रीय बैंकिंग विभाग, राजस्व अथवा राजकोषीय मामलों का विभाग, कानूनी विभाग, सांख्यिकी विभाग, इत्यादि।

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अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के लाभ

(ADVANTAGES OF THE I.M.F.)

अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से आर्थिक जगत को निम्नलिखित लाभ हुए हैं :

(1) भुगतान सन्तुलन में सहायक (Helpful in Balance of Payments) मुद्रा कोष का मुख्य लाभ यह रहा है कि इसकी सहायता से संसार के विभिन्न देशों के भुगतान में उत्पन्न अस्थाई असन्तुलन दूर करने में सहायता मिली है। वास्तव में, योजनाबद्ध आर्थिक विकास के दबाव के कारण अथवा राजनीतिक एवं आर्थिक संकटों के कारण अनेक देशों को कोष की सहायता लेनी पड़ी है। यह एक महत्वपूर्ण बात है कि जिन देशों ने मुद्रा-कोष की सहायता ली है उनमें भारत, इण्डोनेशिया, घाना, पाकिस्तान तथा अर्जेण्टाइना सरीखे विकासशील देशों के अतिरिक्त अमरीका, ब्रिटेन, फ्रांस, जापान सरीखे विकसित देश भी सम्मिलित हैं। यदि मुद्रा कोष नहीं होता तो धनिक देशों को सहायता कहां से मिलती? ..

(2) राजनीतिक दबाव से मुक्ति (Free from Political Pressure) किसी देश के ऋण लेने में प्रायः यह खतरा रहता है कि ऋण देने वाला देश ऋण लेने वाले पर कुछ राजनीतिक दबाव डालेगा या ऐसी अन्य शर्ते रखेगा जो ऋण लेने वाले देश की आन्तरिक नीति पर प्रभाव डालें। मुद्रा कोष से ऋण प्राप्त करने में इस प्रकार की कोई आशंका नहीं है, अतः विकासशील देश—जो राजनीतिक एवं आर्थिक दृष्टि से पिछड़े हुए हैं—मुद्रा-कोष से निःसंकोच उधार ले सकते हैं।

(3) विदेशी भुगतान करने में सहायक (Easy Foreign Payments)-स्वर्णमान की समाप्ति के बाद अब आधुनिक युग में स्वर्णमान की स्थापना करना असम्भव है। अतः विदेशी भगतान की समस्या उत्पन्न होना स्वाभाविक था । अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष विश्व के प्रमुख देशों की मुद्राओं का भण्डार है, अतः उसके माध्यम से किसी भी देश की मुद्रा में भुगतान करना बहुत सरल हो गया है। इस प्रकार विदेशी भुगतान की समस्या काफी हद तक हल हो गई है।

(4) अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक सम्बन्ध (International Economic Relations) मुद्रा कोष ने संसार के । महत्वपूर्ण राष्ट्रों के लिए एक साझा मंच प्रदान कर दिया है जिसके तत्वावधान में विकसित एवं विकासशील देश एकत्र होकर पारस्परिक समस्याओं पर विचार करते हैं। इस विचार का एक महत्वपूर्ण लाभ यह हुआ है कि संसार की मौद्रिक एवं वित्तीय समस्याओं पर बहुत गम्भीर अध्ययन हुए हैं और उनके समाधान भी मिले हैं। मुद्रा कोष की ‘कागजी स्वर्ण’ (Paper gold) की योजना जिसके अन्तर्गत वह सदस्य देशों को विशेष रकमें निकालने के। अधिकार (Special Drawing Right) प्रदान करता है, विश्व के मौद्रिक वातावरण में एक क्रान्तिकारी घटना है।

(5) विनिमय दरें (Exchange Rates) मुद्राकोष का एक महत्वपूर्ण लाभ यह हुआ है कि विश्व के सभी महत्वपूर्ण देशों की पारस्परिक विनिमय-दरों का निर्धारण हो गया है। इतना ही नहीं, मुद्रा कोष सभी देशों की विनिमय-दर कितनी होनी चाहिए, इस सम्बन्ध में सलाह भी देता है। इस प्रकार मुद्रा-कोष मुद्राओं की विदेशी विनिमय-दरें उचित स्तर पर बनाए रखने में सहायक है।

(6) संकट का साथी (A Friend in Need)—स्वर्णमान की यह आलोचना की गई थी कि वह केवल ‘सुख का साथी’ है किन्तु मुद्रा कोष की स्थिति सर्वथा विपरीत है क्योंकि वह ‘दुख का साथी’ (Afriend in need) है। जब किसी देश के सामने आर्थिक संकट उपस्थित होता है, मुद्रा कोष उदारतापूर्वक उसकी सहायता करने का प्रयत्न करता है।

(7) प्राविधिक ज्ञान का विस्तार (Spread of Technical Knowledge) अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष का प्रशिक्षण संस्थान तथा उसकी केन्द्रीय बैंकिंग एवं कर सम्बन्धी सेवा द्वारा विकासशील देश के व्यक्तियों को मौद्रिक, वित्तीय, कर सम्बन्धी तथा अन्य आर्थिक समस्याओं के अध्ययन का अवसर मिलता है जिससे इन देशों को अपनी समस्याओं का समाधान करने में सहायता मिलती है।

इस प्रकार अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष एक ओर तो मौद्रिक एवं वित्तीय बाधाओं के लिए प्रकाशस्तम्भ का काम करता है, दूसरी ओर वह संसार की आर्थिक मशीन के लिए वित्तीय तेल का प्रबन्ध करता है।

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अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के दोष

(DISADVANTAGES OF I.M.F.)

अन्तर्राष्ट्रीय दायित्वों का निर्वहन करते हुए भी मुद्राकोष के साथ कुछ आलोचनात्मक बिन्दु भी जुड़े हैं। जिनमें प्रमुख हैं :

(1) धनिकों का क्लब (Rich Countries’ Club) अफ्रीका के नवोदित राष्टों ने मद्रा-कोष को धनिकों का क्लब कहा है, जो केवल अमरीका, ब्रिटेन तथा अन्य धनी राज्यों की इच्छानुसार कार्य करता है और उसके समर्थकों को ही आर्थिक सहायता देता है। यह आलोचना कोष के प्रारम्भिक वर्षों में भले ही सही हो, परन्तु अब सही नहीं कही जा सकती क्योंकि गत वर्षों में कोष ने प्रायः अविकसित देशों को ऋण देने में तत्परता दिखाई है। कोष की सदस्यता में भी अब अविकसित देशों का बहुमत है अतः कोष विकासशील देशों की अवहेलना नहीं कर सकता।

(2) सदस्य देशों के अभ्यंशों का आधार वैज्ञानिक नहीं-कोष द्वारा स्वर्ण और डॉलर निधि के आधार पर सदस्य देशों के अभ्यंश निर्धारित किए गए जो एक उचित आधार नहीं था। वास्तव में विनिमय की आवश्यकता तथा भुगतान सन्तुलन की प्रतिकूलता को देखते हुए देशों के अभ्यंश निश्चित किए जाते थे।

(3) दीर्घकालीन ऋण सुविधाओं का अभाव-मुद्रा-कोष मुख्यतः अल्पकालीन ऋण सुविधा प्रदान करता है, जबकि अधिकांश विकासशील देशों की आवश्यकता दीर्घकालीन ऋणों की है। किन्तु, अब कोष ने दीर्घकालीन सहायता देना आरम्भ कर दिया है।

(4) भेदभावपूर्ण नीति—सदस्य देशों को ऋण प्रदान करने में कोष की नीति भेदभावपूर्ण रही है। कुछ विकसित देशों ने मुद्रा कोष के नियमों की अवहेलना की है पर मुद्रा कोष ने इसके विरोध में कोई कार्यवाही नहीं की है।

(5) व्यापार प्रतिबन्धों को हटाने में असफलमुद्रा कोष का यह महत्वपूर्ण उद्देश्य है कि विश्व व्यापार का सन्तुलित विकास हो सके। इसके लिए आवश्यक है कि अनावश्यक व्यापारिक क्रियाओं पर प्रतिबन्ध लगाए जाएं। किन्त, कई विकसित देशों ने संरक्षणवादी नीति अपना ली है जिससे विकासशील देशों के निर्यात पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। किन्तु, मुद्रा कोष इन प्रतिबन्धों को हटाने में सफल नहीं हो सका है।

(6) तरलता की समस्या का समाधान नहीं यद्यपि मद्रा-कोष ने SDR के माध्यम से अन्तराष्ट्रीय तरलता। बढ़ाने का प्रयास किया है फिर भी तरलता की समस्या हल नहीं हो सकी है।

(7) पर्यावरण उद्देश्यों की अवहेलना पर्यावरण संरक्षण की विश्व प्रमख संस्था विश्व वन्य जीव कोष ने। मुद्रा-कोष पर गरीब देशों की परियोजनाओं में पर्यावरण संरक्षण के सिद्धान्तों के उल्लंघन का आरोप लगाया है। पूर्व के वर्षों के लिए यह आलोचना तो उचित है, किन्तु पिछले एक-दो वर्षों से कोष ने ऐसी नीतियों का अनुमोदन करना बन्द कर दिया है जिससे पर्यावरण पर दूषित प्रभाव पड़े। मुद्रा-कोष के कार्यों में इसे स्पष्ट किया गया है।

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मुद्राकोष और भारत

(I.M.F. AND INDIA)

प्रबन्धक मण्डल की सदस्यता (Membership of the Board of Executive Directors)

भारत उन प्रारम्भिक 44 देशों में से एक है जिन्होंने ब्रेटनवुइस सम्मेलन में भाग लिया। शुरू में भारत उन पांच देशों में एक था जिनके अभ्यंश सबसे अधिक थे। अतः भारत को मुद्रा-कोष के संचालक मण्डल में स्थाई स्थान दिया गया था। किन्तु, 1970 के बाद अन्य देशों का कोटा अधिक हो जाने के कारण संचालक मण्डल में भारत की स्थाई सदस्यता समाप्त हो गई है।

भारत का प्रारम्भिक अभ्यंश 400 मिलियन डालर था जो क्रमश: बढ़ते हए 1976 में 1.145 मिलियन SDR तथा 1984 में 2,208 मिलियन SDR तथा नवम्बर 1992 में 3.055.5 मिलियन SDR हो गया। 11वीं कोटा समीक्षा के बाद भारत का अभ्यंश बढ़कर 4,158.2 मिलियन SDR हो गया। 14वीं समीक्षा के पश्चात 2 फरवरी, 2017 में भारत का कोटा 13,114.4 मिलियन SDR हो गया तथा कुल कोटा राशि में भारत का अंश 2.76% तथा उसका मताधिकार 2.6% हो गया है।

भारत द्वारा मुद्रा कोष से लिये गये ऋण

भुगतान शेष की कठिनाइयों को दूर करने के लिए भारत ने मुद्रा कोष से समय-समय पर ऋण लिए हैं। 1948-49 में भारत ने मुद्रा-कोष से 100 मिलियन डॉलर का ऋण लिया। 1956-57 तक इसे वापस कर दिया। द्वितीय योजना के दौरान 1957 में भारत ने कोष से 200 मिलियन डालर के ऋण का समझौता किया ताकि वह विकास कार्यों के कारण भुगतान शेष में होने वाले अस्थायी घाटा का वित्त पोषण कर सके। इस रकम में से अभी 63 मिलियन डॉलर वापस करना बचा हुआ ही था कि 1961 में कोष से 250 मिलियन डॉलर के अतिरिक्त ऋण लेने का समझौता किया। यह सहायता अत्यन्त मूल्यवान साबित हुई, क्योंकि भारत का विदेशी विनिमय भण्डार उस समय खतरनाक ढंग से कम हो गया था। 1965-66 में भारतीय विदेशी विनिमय भण्डार एक बार फिर अत्यन्त कम हो गया। कोष ने इस समय भारत को फिर 300 मिलियन डॉलर का ऋण देकर उसे संकट से उबारा।

जुलाई 1975 में कोप ने तेल सुविधा (Oil Facility) के अन्तर्गत 210.3 मिलियन SDR का ऋण दिया। 1976 में भी इसी सुविधा के अन्तर्गत 200 मिलियन SDR एक अन्य ऋण दिया और 1977 में भी इतनी ही रकम प्रदान की।

1981 में भारत ने मुद्रा-कोष से 5,000 मिलियन SDR का विशाल ऋण लिया ताकि वह भुगतान शेष की समस्या का समाधान कर सके। यह समस्या मुख्य रूप से तेल आयात के कारण उत्पन्न हुई थी जब तेल निर्यातक देशों ने 1973-74 के बाद दूसरी बार 1974 में पेट्रोलियम की कीमत में भारी वृद्धि कर दी (1973-74 में चार गुना तथा 1979 में दुगना)। मुद्रा-कोष द्वारा किसी एक देश को दिया गया यह सबसे बड़ा ऋण था। इस रकम का केवल 3,900 मिलियन SDR भारत ने उपयोग किया तथा 1,100 मिलियन SDR को वापस लौटा दिया।

1988-89 में भारतीय भुगतान शेष एक बार फिर दबाव में आ गया। इस वर्ष विदेशी चालू खाते में 8 बिलियन डालर का घाटा हो गया। फलतः भारतीय विदेशी विनिमय भण्डार काफी कम हो गया। 1990-91 में स्थिति और भी खराब हो गई, क्योंकि बाह्य वाणिज्य बैंकों ने ऋण देना बन्द कर दिया तथा अनिवासी भारतीयों ने अपनी जमा से निकालना शुरू कर दिया। इन परिस्थितियों में भारत एक बार फिर मुद्रा कोष के पास गया तथा 1.2 बिलियन डालर का ऋण लिया। ऋण की स्वीकृति निम्न शर्तो पर दी गई: ।

(i) रुपए का 22 प्रतिशत अवमूल्यन;

(ii) आयात शुल्क में भारी कटौती;

(iii) उत्पाद शुल्क में वृद्धि तथा

(iv) लोक व्यय में कटौती।

व्यावसायिक पर्यावरण

1990 के दशक में विस्तारित कोष सुविधा, ऋण-वचन (stand-by) साख प्रवन्ध तथा क्षतिपुरक एवं आकस्मिक वित्त सुविधा के अन्तर्गत भारत ने मुद्रा-कोष से जो ऋण लिया उसका ब्यौरा इस प्रकार है:

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भारत जो अभी तक अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से अपनी आवश्यकतानुसार समय-समय पर ऋण लेता रहा है, अब इसके वित्त पोषक राष्ट्रों में सम्मिलित हो गया है। अन्य शब्दों में, अब भारत इस बहुपक्षीय संस्था को ऋण उपलब्ध कराने लगा है। भारत को मुद्रा-कोष से लाभ (Advantages to India from Membership of the Fund)

भारत को मुद्रा कोष से अनेक लाभ हुए हैं जिनमें मुख्य निम्नलिखित हैं :

(1) विश्व बैंक की सदस्यता (Membership of the IBRD)- मुद्रा कोष की सदस्यता के फलस्वरूप भारत विश्व बैंक का सदस्य बन सका है जिससे भारत को आर्थिक विकास के लिए सर्वाधिक सहायता मिली है।

(2) संकट में सहायक (Helpful in Time of Difficulty)—भारत को अपने भुगतान असन्तुलन को दूर करने में मद्रा-कोष से यथासमय सहायता मिली है। प्रथम, द्वितीय व तृतीय योजनाओं के अन्तिम वर्षों में प्रायः भारत को विदेशी विनिमय संकट का सामना करना पड़ा और मुद्रा-कोष ने उस समय उदारतापूर्वक सहायता दी। 1965 में पाकिस्तानी आक्रमण के फलस्वरूप जब आर्थिक कठिनाइयां उत्पन्न हुईं, मुद्रा-कोष ने तत्काल भारत को 20 करोड़ डॉलर का ऋण देना स्वीकार किया। 1966, 1974, 1975 तथा1982 में भी आर्थिक संकट का निवारण करने के लिए मुद्रा-कोष से विदेशी मुद्रा मिल गई।

(3) अन्तर्राष्ट्रीय विनिमय मान (International Exchange Standard) मुद्रा-कोष की सदस्यता के फलस्वरूप भारत की मुद्रा का सम्बन्ध संसार की सभी महत्वपूर्ण मुद्राओं से जुड़ गया है। फलस्वरूप भारत को दो लाभ हए हैं : (क) भारत किसी भी देश में सरलता से भुगतान कर सकता है। (ख) भारत स्टर्लिंग के गठबन्धन से मुक्त हो गया है।

(4) विशेषज्ञों से परामर्श (Advisory Help) सदस्यता के फलस्वरूप अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा-कोष के विशेषज्ञ भारत को समय-समय पर भुगतान सन्तुलन के सम्बन्ध में उचित सलाह देते रहते हैं। इस सलाह के आधार पर भारत को आर्थिक सहायता भी प्राप्त हो रही है।

(5) नीतिनिर्धारण में हाथ (Determination of Policies)-भारत प्रारम्भ से ही मुद्रा-कोष के कार्यकारी संचालक मण्डल का स्थाई सदस्य रहा है। इसके फलस्वरूप भारत अपनी तथा अन्य विकासशील देशों की समस्याओं को प्रभावशाली रूप से प्रस्तुत कर रहा है।

(6) अन्तर्राष्ट्रीय प्रभाव में वृद्धिमुद्रा कोष का सदस्य बनने के बाद भारत के अन्तर्राष्ट्रीय प्रभाव में वद्धि हई है तथा अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर भारत की बात पर ध्यान दिया जाता है। भारत की अन्तर्राष्ट्रीय पर्यावरण कोष स्थापित करने की सलाह पर मुद्रा-कोष एवं विश्व बैंक ने अपनी सहमति व्यक्त की है।

(7) आर्थिक सुधारों एवं उदारीकरण नाति में सहायता-1991 के उत्तरार्ध में जब भारत संकट के दौर से। गजा रहा था अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा-काषन भारत का आथक सुधारा तथा उदारीकरण की नीति को सफल बनाने के 131 मार्च, 2000 के बाद भारत ने मुद्रा कोष से कोई ऋण नहीं लिया है। लिए अक्टूबर 1991 से जुलाई 1993 के बीच उद्यत ऋण व्यवस्था (Stand-by Arrangement) के अन्तर्गत 2.2 अरब डॉलर का ऋण स्वीकृत किया। इस राशि में से 1.14 अरब डॉलर का ऋण चुका दिया गया है जो भारत के बढ़ते हुए विदेशी मुद्रा-कोष के कारण सम्भव हुआ है।

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प्रश्न

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

1 अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के क्या उद्देश्य हैं ? इसके कार्यों की विवेचना कीजिए।

2. अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के कार्यों की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।

3. अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के क्या उद्देश्य हैं? यह कहां तक सफल रहा है? अथवा मुद्रा कोष अपने उद्देश्यों में कहां तक सफल हुआ है ? आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।

4. अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के उद्देश्य बतलाइए। भारत को मुद्रा कोष की सहायता से कहां तक लाभ हुआ है? स्पष्ट कीजिए।

लघु उत्तरीय प्रश्न

1 अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के उद्देश्यों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।

2. अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के कार्यों का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।

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