BCom 1st Year Environment International trade study material Notes in Hindi

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BCom 1st Year Environment International trade study material Notes in Hindi

Table of Contents

BCom 1st Year Environment International trade study material Notes in Hindi: Trends in world trade Composition of Indian Imports Trends in Indian Imports Since 1990 Indians Services Imports  Value of Indian Imports Direction of Indian Imports Trends in Indian Exports since 1990 Examinations Questions Long Answer Questions Short Answer Questions:

 trade study material Notes
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BCom 1st Year Environment Trends Industries Study Material Notes in Hindi

अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार

[INTERNATIONAL TRADE)

विश्व व्यापार की प्रवृत्ति

(TRENDS IN WORLD TRADE)

द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के विकास को तीन चरणों में विभाजित किया जा सकता है, यथा :

 (i) प्रथम चरण : 1950 से 1980,

(ii) द्वितीय चरण : 1980 से सितम्बर 2007 तक,

(iii) तृतीय चरण : सितम्बर 2008 से प्रारंभ मन्दी से आज तक।

1950-80 की अवधि में विश्व व्यापार का पुनरुज्जीवन हुआ, विशेषकर औद्योगिक देशों के मध्य। ऐसा दो कारणों से हो सका—युद्ध में ध्वस्त अर्थव्यवस्था के पुनर्निर्माण तथा परिवहन लागत में हास। दो विश्व युद्धों के मध्य औद्योगिक देशों ने अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार पर टैरिफ तथा गैर-टैरिफ प्रतिबन्ध लगा दिए थे। GATT व्यवस्था के अन्तर्गत बहुपक्षीय व्यापार के विस्तार के साथ-साथ व्यापार पर लगे उपर्युक्त प्रतिबन्धों को समाप्त कर दिया गया। इसने भी विश्व व्यापार के विस्तार में सहायता पहुंचाई। 1950 के दशक के उत्तरार्द्ध से चालू लेखा लेन-देन में

औद्योगिक देशों ने करेंसी की परिवर्तनीयता शुरू कर दी। इसने भी विश्व व्यापार के विकास में सहायता पहुंचाई। इसने व्यापार एकीकरण (trade integration) को भी प्रोत्साहित किया।

विश्व व्यापार एकीकरण का दूसरा चरण 1970 के दशक के उत्तर पक्ष से शुरू हुआ जब पूर्वी एशिया के देशों ने निर्यातोन्मुख विकास का मार्ग अपनाया। इस प्रयास को 1980 तथा 1990 के दशकों में उस समय बल मिला जब विकासशील देशों ने खुलेपन की मात्रा में वृद्धि की। इसी अवधि में संसाधनों के आदर्श आवण्टन, आधुनिक तकनीकी के अनुप्रेषण (infusion), पैमाने की बचत को प्रोत्साहित करने, उपभोक्ता के अतिरेक को उपलब्ध कराने तथा अनुत्पादक आर्थिक क्रियाओं को कम कराने के उद्देश्य से बाह्योन्मुख (outward oriented) नीतियों को अपनाया गया। 1970 के दशक में लैटिन अमरीका ने ऋण के पुनर्वित्त हेतु अन्तर्राष्ट्रीय पूंजी बाजारों में प्रवेश पाने के लिए खुलेपन की नीति को अपनाया। इसके विपरीत भारत इस अवधि में खुलेपन की नीति का पूरा लाभ नहीं उठा सका। 1970 के दशक में भारत ने निर्यात प्रोत्साहन के लिए कुछ कदम उठाए, लेकिन भारतीय उद्योगों को संरक्षण मिलना जारी रहा। 1980 के दशक के उत्तर चरण में व्यापार में खुलेपन के चिह्न स्पष्ट हो रहे थे, फिर भी 1990 के दशक में ही भारत में सही अर्थ में व्यापार उदारवाद को अपनाया गया।

पहले विकसित देशों में और फिर विकासशील देशों में व्यापार के खुलेपन की लहर पर लहर आई। इस कारण विश्व व्यापार की विशेषताओं में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। विगत वर्षों में निम्नलिखित महत्वपूर्ण संरचनात्मक परिवर्तन ध्यान योग्य हैं।

Environment International trade

विश्व पण्य व्यापार का मूल्य वर्ष 2008 में 16 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर था जो तेजी से कम होकर वर्ष 2009 में 12.4 टिलियन अमेरिकी डॉलर रह गया। इसके उपरांत इसमें कुछ सुधार हुआ और यह 2010 में बढ़कर 15.1 टिलियन अमेरिकी डॉलर, 2011 में 18.26 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर हो गया। इस तरह विश्व व्यापार के परिमाण (माल एवं सेवाएं) की वृद्धि जो वर्ष 2011 में 6.01 प्रतिशत तक बढ़ गई थी वह पुनः 2012 में घटकर 2.08% रह गयी। वर्ष 2013 में यह वृद्धि दर 3.0% हो गयी। विश्व व्यापार की दर में यह वृद्धि दर 2014 में 4.3% वर्ष । 2010 में 2.4% तथा 2017 में 3.6% तक हो जाने का अनुमान लगाया गया है।

विश्व निर्यात व्यापार परिदृश्य पर यदि ध्यान दिया जाय तो वह स्पष्ट होता है कि विकसित अर्थव्यवस्थाओं के निर्यात व्यापार में वर्ष 2010 में 12.2%, वर्ष 2011 में 5.6%, वर्ष 2012 में 2.1%, वर्ष 2013 में 2.3%. 2014 में 4.2%, 2016 में 2.2%, 2017 में 3.8% तथा 2018 में 3.6% की वृद्धि हुई, जबकि उभरती और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में यह वृद्धि दर अपेक्षाकृत अधिक रही। इन देशों के माल एवं सेवाएं की वृद्धि दर वर्ष 2010 में 13.8%, 2011 में 6.6%, वर्ष 2012 में 4.2%, 2013 में 4.4% तथा 2014 में 5.0%, 2016 में 2.5%, 2017 में 4.8% तथा 2018 में 4.5% रही।

विश्व आयात व्यापार में भी उन्नत अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में उभरती और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में अधिक वृद्धि हुई है। विकसित अर्थव्यवस्थाओं के आयात में वृद्धि वर्ष 2010, 2011, 2012, 2013, 2014, 2016, 2017 तथा 2018 में क्रमशः 11.5%, 4.6%, 1.1%, 1.4%, 3.5%, 2.7%,4.0% तथा 3.8% रही। इन्हीं वर्षों में उभरती और विकासशील अर्थव्यवस्था में आयात की वृद्धि दर क्रमशः 13.8%, 6.6%, 5.8%, 5.6%, 5.2%, 2%, 4.4% तथा 4.9% रही। इस तरह उन्नत देशों की अपेक्षा उभरती और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के विदेशी व्यापार में वृद्धि की प्रवृति परिलक्षित होती है।

भारत का माल व्यापार वर्ष प्रति वर्ष बढ़ता जा रहा है। वैश्विक निर्यात एवं आयात में भारत का हिस्सा वर्ष 2000 में क्रमश: 0.7% तथा0.8% से बढ़कर वर्ष 2016 में क्रमशः 1.7% तथ 2.5% हो गया। विश्व के शीर्ष निर्यातकों एवं आयातकों में भारत की रैंकिंग विश्व व्यापार संगठन के अनुसार निर्यात में वर्ष 2000 की 31वीं रैंक से सुधरकर वर्ष 2015 में 19वीं रैंक तथा उन्हीं वर्षों में आयात में 26वीं रैंक से सुधरकर 13वीं रैंक हो गयी।

Environment International trade

भारतीय आयात की प्रवृत्ति : 1990 के दशक से

(TRENDS IN INDIAN IMPORTS : SINCE 1990’s)

विदेशी व्यापार के दो अंग होते हैं, यथा—आयात एवं निर्यात । नए-नए उद्योगों की स्थापना के लिए शुरू में पूंजीगत वस्तुएं, जैसे मशीनरी तथा कच्ची सामग्री की आवश्यकता होती है। प्रारम्भिक चरण में इन वस्तुओं का उत्पादन देश के अन्दर नहीं होता है, इसलिए इनका आयात विदेशों से करना होता है। इन्हें विकास आयात (developmental imports) कहा जाता है। इस्पात कारखाने, पन-बिजली प्लाण्ट, आदि की स्थापना के पश्चात इनके उपयोग के लिए कच्ची सामग्री तथा मध्यवर्ती वस्तुओं की जरूरत होती है। संस्थापित उत्पादन क्षमता के उपयोग के लिए जिन वस्तुओं का आयात किया जाता है उन्हें रखरखाव आयात (maintenance imports) कहा जाता है।

औद्योगीकरण की प्रक्रिया में उपभोक्ता वस्तुओं का अभाव हो सकता है। इसलिए खाद्यान्न जैसी उपभोक्ता वस्तुओं का आयात भी किया जाता है। भारत को ऐसा करना पड़ा है।

योजना प्रारम्भ करने के समय भारतीय आयात निर्यात से अधिक था। इसके तीन कारण थे—(i) युद्धकाल में राशनिंग तथा प्रतिबन्धों के कारण लोग अपनी मांग पूरी नहीं कर पाए जिसे वे युद्ध के पश्चात् पूरा करने लगे, (ii) देश के विभाजन के परिणामस्वरूप खाद्यान्न तथा जूट एवं कपास की कमी, तथा (iii) पन-बिजली परियोजनाओं के लिए मशीनरी का आयात।

औद्योगीकरण की नीति को द्वितीय योजना से अपनाया गया। इससे कल-पुर्जे, कच्ची सामग्री, तकनीकी ज्ञान, आदि के आयात की आवश्यकता और बढ़ गई। इनके अतिरिक्त अनेक वर्षों तक खाद्यान्नों का आयात करना पड़ा। इस मामले में देश हरित क्रान्ति के बाद ही आत्मनिर्भर हो सका अर्थात् 1970 के दशक के उत्तरार्द्ध से, और भी अन्य कारण थे जिससे भारतीय आयात निर्यात से अधिक बना रहा।

अन्य कारण इस प्रकार थे:

  • मुद्रा स्फीति पर अंकुश रखने के लिए खाने के तेल, सीमेण्ट, जैसी कुछ वस्तुओं का बड़ी मात्रा में आयात।
  • निर्यात प्रोत्साहन हेतु उदार आयात नीति जिसके अन्तर्गत आवश्यक वस्तुओं के साथ-साथ टी. वी. (TV) जैसी अनावश्यक वस्तुओं का आयात किया जाना।
  • 1973 से पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में वृद्धि के कारण इनके आयात मूल्य में अत्यधिक वृद्धि। ..
  • 1985-86, विशेषकर नब्बे के दशक से भूमण्डलीकरण तथा उदारवादी नीति को अपनाने के कारणआयात नियन्त्रण की समाप्ति।
  • 1991 से सरकार ने आयात पर से परिमाणात्मक प्रतिबन्ध एकतरफा हटाना शुरू किये। इसने भी आयात में वृद्धि की।

2002-05 की अवधि में भारतीय आयात में 28.8 प्रतिशत की वृद्धि हई। 2004-05 में यह वृद्धि 39.7 प्रतिशत थी, जो 1980-81 से 2004-05 तक यह सर्वाधिक वार्षिक वृद्धि दर थी। लेकिन 2005-06 से वार्षिक वृद्धि दर में हास देखा जा सकता है ; 2005-06 में 33.6 प्रतिशत, 2006-07 में 24.5 प्रतिशत, किन्तु 2007-08 में थोड़ी वृद्धि-29.0 प्रतिशत। 2007-08 में वृद्धि का प्रमुख कारण रहा था तेल आयात, पूंजी वस्तु आयात तथा सोना और चांदी आयात में अधिक वृद्धि।

2008 तथा 2009 के वर्ष वैश्विक व्यापार (global trade) के लिए हंगामा पूर्ण रहे। 2007 में अमरीका में सब प्राइम (Sub-prime) संकट की सुगबुगाहट महसूस की गयी। सितम्बर 2009 तक वैश्विक वित्तीय संकट के रूप में फैल गया, जिससे वैश्विक मन्दी का सृजन हुआ। इसका प्रभाव वैश्विक व्यापार (global trade) पर पड़ा। परिणामस्वरूप विश्व व्यापार, जिसमें 2007 में 7.3 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी, 2008 में केवल 2.8 प्रतिशत ही बढ़ सका। सितम्बर 2008 से इसमें लगातार ह्रास होने लगा। 2009-10 में भारतीय आयात की वृद्धि ऋणात्मक (-) 5.0 प्रतिशत थी। तेल तथा गैर-तेल दोनों प्रकार के आयात तथा सोना एवं चाँदी के आयात में हास के कारण यह स्थिति आयी। लेकिन 2010-11 में इस स्थिति में काफी सुधार हुआ है। वर्ष 2010-11 में भारत को आयात व्यापार में 28.2 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई। भारत का आयात वर्ष 2011-12 में 39.3% वृद्धि दर से घटकर 2012-13 में 13.8% की वृद्धि दर पर आ गया। वर्ष 2013-14 में इसमें 1.7% की वृद्धि हुई। वर्ष 2014-15 के लिए आयात में 0.8% की वृद्धि हुई जबकि वर्ष 2015-16 में इसमें (-) 9.0 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई। वर्ष 2016-17 में इसमें 3.5% की वृद्धि हुई।

Environment International trade

भारतीय आयात की रचना

(COMPOSITION OF INDIAN IMPORTS)

भारतीय अर्थव्यवस्था के खुलेपन के समय से इसके आयात की रचना में परिवर्तन हुए हैं। उदारीकरण नीति को अपनाने के कारण आयात का सह्य (tolerance) स्तर बढ़ गया है। इस स्तर को बढ़ाने में विदेशी मुद्रा भंडार में वृद्धि ने भी सहयोग किया है। फलतः कुण्ठित आर्थिक विकास ने कुण्ठा को तोड़कर तेज गति से प्रगति की है। आयात प्रतिस्थापन की नीति को त्यागने तथा निर्यात-प्रोत्साहन की नीति को अपनाने के कारण आवश्यक तथा अन्य आयातों के मध्य का अन्तर धीरे-धीरे समाप्त हो गया। वस्तु-आधारित विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि पेट्रोलियम आज भी भारतीय आयात का एक प्रमुख घटक है। 1990-91 में कुल आयात में इसका हिस्सा 45.1 प्रतिशत था जो 1995-96 तथा 2002-03 में क्रमश: 39.0 प्रतिशत तथा 39.3 प्रतिशत रहा। 2008-09 में यह 33.4 प्रतिशत था,जबकि 2010-11 में 28.7%, 2011-12 में 31.7%, 2012-13 में 33.4%. 2013-14 में 36,6%, 2014-15 में 34.8%, 2015-16 में 25.4% तथा 2016-17 में 26.7% रहा। ।

1990 के दशक से पूंजी वस्तुओं तथा मध्यवर्ती उत्पाद का आयात निर्यात-प्रोत्साहन की नीति के अन्तर्गत एक महत्त्वपूर्ण घटक के रूप में उभरा है। 1990-91 में कुल आयात में पूंजी वस्तुओं के आयात का हिस्सा 24.2 प्रतिशत था जो 1995-96 में 28.1 प्रतिशत हो गया, किन्तु 2002-03 में घटकर 20.8 प्रतिशत पर आ गया। तत्पश्चात इसमें और कमी आयी और 2008-09 में यह घटकर 15.5 प्रतिशत तथा 2010-11 में 13.4 प्रतिशत। वर्ष 2011-12 में इसका हिस्सा 13.3%, 2012-13 में 12.8%, 2013-14 में 12.1%. 2014-15 में 11.7%, 2015-16 में 13%, 2016-17 में 13.6% रहा। यह देश के औद्योगीकरण की दिशा में तेजी से बढ़ते कदम की निशानी है।

उपर्युक्त महत्त्वपूर्ण घटकों को छोड़कर हमारे आयात की अन्य वस्तुएं निम्न हैं :

  • खाद्यान्न, दलहन, खाने के तेल आदि;
  • उर्वरक
  • रसायन;
  • इलेक्ट्रोनिक्स वस्तुएं:
  • कच्ची सामग्री, जैसे, काजू, रबर, रेशे (fibres), कच्चा ऊन, कच्ची रुई, कच्चा जूट, आदि;
  • दवायें;
  • कागज; .
  • लोहा तथा इस्पात;
  • अलौह धातुएं तथा
  • सोना और चांदी। भारत के आयात तीन वर्गों में बांटा जा सकता है। इन तीनों वर्गों में शामिल घटक इस प्रकार हैं :

(1) पूंजी वस्तुएं पूंजी उपकरण तथा औद्योगिक वस्तुएं।

(2) मध्यवर्ती वस्तुएं-उद्योग के लिए प्राथमिक खाद्यान्न एवं पेय द्वारा संसाधित (processed) खाद्यान्न एवं पेय, प्राथमिक (primary) औद्योगिक आपूर्ति, ईंधन एवं प्रज्वलक, मशीनरी पुर्जे तथा परिवहन पुर्जे।

(3) उपभोग की वस्तुएं-परिवार के लिए खाद्यान्न एवं पेय, परिवार के लिए संसाधित खाद्यान्न एवं पेय, गैर औद्योगिक परिवहन, टिकाऊ उपभोक्ता वस्तुएं, अर्द्ध-टिकाऊ उपभोक्ता वस्तुएं, गैर-टिकाऊ उपभोक्ता वस्तुएं।

(4) अन्य वस्तुएं

भारत के कुल आयात में प्रमुख मदों का हिस्सा इस प्रकार है :

Environment International trade

सेवाओं का आयात

(INDIA’S SERVICES IMPORTS)

हाल के वर्षों में भारत में वाणिज्यिक सेवाओं के आयात का महत्त्व काफी बढ़ गया है। ऐसे आयात के प्रमुख घटक हैं—यात्रा (Travel), परिवहन, बीमा, सॉफ्टवेयर सेवाएं, गैर-सॉफ्टवेयर सेवाएं (व्यावसायिक सेवा, वित्तीय सेवा तथा संचार सेवा)। 2009-10 में कुल सेवा आयात 60 बिलियन डॉलर तथा वर्ष 2011-12 में 78.2 विलियन डालर का हुआ। 2000-01 से 2006-07 के मध्य सेवा आयात की वृद्धि दर 20.4 प्रतिशत थी। वैश्विक आर्थिक मन्दी के कारण 2007-08 में इसकी वृद्धि दर घटकर 16.2 प्रतिशत तथा 2008-09 में 1.1 प्रतिशत पर आ गई। 2009-10 वृद्धि दर ऋणात्मक होकर – 4.6 प्रतिशत पर आ गई। वर्ष 2012-13 में सेवा व्यापार में 3.2 की वृद्धि हुई जबकि 2013-14 में यह 2.8 प्रतिशत कम हो गया। व्यावसायिक सेवाएं सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण आयात सेवाएं हैं। इसके बाद दूसरे स्थान पर परिवहन सेवायें तथा तीसरे स्थान पर यात्रा है। 2013-14 में इन तीनों वर्गों की वृद्धि दर घट गई। लेकिन, बीमा, वित्तीय तथा संचार सेवाओं की वृद्धि इस अवधि में भी धनात्मक (positive) रही।

वैश्विक आर्थिक संकट की पृष्ठभूमि में सेवा आयात पर पड़ने वाले प्रभावों के आलोक में सरकार ने कई नीतिगत कदम उठाए जिनका संबंध विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (FDI), टारिफ तथा कर, साख तथा वित्त तथा अन्य क्षेत्रों (विशेष आर्थिक जोन (SEZ), स्वास्थ्य, शिक्षा, आदि) से है। केन्द्रीय बजट तथा विदेशी व्यापार नीति के माध्यम से ये कदम उठाए गए।

भारतीय आयात की दिशा

(DIRECTION OF INDIAN IMPORTS)

भारत के विश्व के सभी प्रमुख गुटों एवं सभी भौगोलिक क्षेत्रों से व्यापारिक सम्बन्ध है। भारत के कुल आयात का क्षेत्र तथा उप-क्षेत्रवार दिशा को निम्न सारणी द्वारा देखा जा सकता है :

भारत के आयात व्यापार की दिशा (वर्ष 2016-17)

Environment International trade

इस तरह भारत ने वर्ष 2016-17 में सबसे अधिक आयात (60.0%) एशियाई देशों से किया। इसके बाद यूरोप (16%), अमेरिका (12.1%) से आयात किया गया। भारत के कुल आयात में चीन का हिस्सा (15.9%), सऊदी अरब का हिस्सा (5.20%) तथा कुवैत का हिस्सा (1.2%) तथा संयुक्त अरब अमीरात का हिस्सा (5.6%) रहा। पेट्रोलियम पदार्थों के भारी मात्रा में आयात के कारण देश के कुल आयात में पश्चिमी एशियाई देशों का हिस्सा (20.9%) रहा।

भारतीय आयात का मूल्य

(VALUE OF INDIA’S IMPORTS)

भारतीय आयात संबंधी आंकड़े रुपये तथा अमरीकी डॉलर दोनों के रूप में प्रस्तुत किये जाते हैं। आर्थिक सर्वेक्षण 2014-15 के अनुसार भारतीय आयात का मूल्य 1950-51 में 608 करोड़ र था। यह 1960-61 में बढ़कर 1,122 करोड़ र, 1970-71 में 1,634 करोड़ र, 1980-81 में 12,549 करोड़ र, 1990-91 में 43,198 करोड़ र, 2000-01 में 2,30,873 करोड़ र, 2010-11 में 16,83,467 करोड़ ₹, 2011-12 में 23.45,463 करोड़ र, 2013-14 में 27,15,434 करोड़ र, 2014-15 में 27,37,087 करोड़ र, 2015-16 में 24.90.298 करोड़ ₹ तथा 2016-17 में 25,77,666 करोड़ ₹ हो गया।

अमरीकी डॉलर के रूप में भारतीय आयात 1950-51 में 1,273 मिलियन डॉलर था। क्रमशः बढ़ते हुए 1980-81 में यह 15.869 मिलियन डॉलर, 1990-91 में 24,075 मिलियन डॉलर, 2000-01 में 49975 मिलियन डॉलर, 2010-11 में 3,69,769 मिलियन डॉलर, 2011-12 में 4,89,319 मिलियन डॉलर, 2013-14 में 4,50,200 मिलियन डॉलर, 2014-15 में 4,48,033 मिलियन डॉलर, 2015-16 में 3,81,007 मिलियन डॉलर तथा 2016-17 में 3,84,356 मिलियन डॉलर हो गया।

रुपए के रूप में भारतीय आयात में 1950-51 तथा 1980-81 के मध्य 20 गुना से अधिक वृद्धि हुई। इन तीन दशकों की तुलना में 1980-81 तथा 1990-91 के बीच यह वृद्धि लगभग 3.5 गुना रही है। वर्ष 1990-91 से 2016-17 के बीच आयात में लगभग 60 गुना वृद्धि हुई। 1991 से प्रारंभ आर्थिक सुधारों के परिणामस्वरूप भारतीय वार्षिक आर्थिक वृद्धि दर के औसतन 8-9 प्रतिशत होने के कारण अधिक गति से आयात में वृद्धि हुई। है। आज भारत चीन के बाद, सबसे अधिक तेज गति से आर्थिक वृद्धि करता हुआ विश्व का दूसरा देश। इस कारण, जसा ऊपर बताया गया. भारतीय आय की रचना में भी परिवर्तन हो गया है और मध्यवती वस्तुएं। आयात का सबसे बड़ा हिस्सा बन गई हैं।

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भारतीय निर्यात की प्रवृत्ति : 1990 के दशक से

(TRENDS IN INDIAN EXPORTS : SINCE 1990’s)

योजनाओं के अन्तर्गत भारत ने जब तीव्रगति से आर्थिक विकास की प्रक्रिया शुरू की तब उसका निर्यात मुख्य रूप से कच्ची सामग्री तथा असंसाधित (unprocessed) वस्तुओं एवं खनिजों का था। ज्यों-ज्यों आर्थिक विकास की गति तेज होती गई तथा देश में एक मजबूत औद्योगिक आधार कायम होने लगा, हमारे निर्यात की संरचना में भी परिवर्तन होने लगा तथा निर्मित वस्तुओं का निर्यात बढ़ने लगा, किन्तु ऐसा योजना प्रारम्भ होने के 15 वर्षों के बाद से ही सम्भव हो सका। इसके प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं:

  • भारत का निर्यात मुख्य रूप से चाय, कपास, रुई से बनी निर्मित वस्तुओं का था जिनकी मांग विश्व बाजार में बेलोचदार थी।
  • भारत में कीमतों में वृद्धि तथा निर्यात वस्तुओं की ऊंची उत्पादन लागत के कारण ये विश्व बाजार में स्पर्धा नहीं कर सकती थीं।
  • 1966 में रुपए का अवमूल्यन (devaluation) किया गया। इसके बाद ही हमारे निर्यात को कीमत के मामले में लाभ मिलना शुरू हुआ।

इसी अवधि में भारत सरकार ने समाजवादी देशों के साथ कई द्विपक्षीय समझौते किए जिससे हमारे निर्यात को प्रोत्साहन मिला। साथ ही सरकार ने निर्यात प्रोत्साहन के लिए कई प्रकार की राजकोषीय एवं नकद प्रेरणाएं प्रदान की। सरकार ने निर्यात को बढ़ावा देने के लिए कई निर्यात प्रोत्साहन परिषदों की स्थापना भी की। इन उपायों का परिणाम यह हुआ कि 1970 के दशक में हमारे निर्यात में तेजी से वृद्धि हुई। फिर भी निर्यात आयात से पीछे ही रहे।

भारत ने आयात प्रतिस्थापन पर आधारित औद्योगीकरण की रणनीति को अपनाया जिसमें निर्यात को महत्व नहीं दिया गया तथा उसे किनारे पर अवशेष क्षेत्र (residual sector) के रूप में धकेल दिया गया। इस नीति ने हमारी निर्यात सम्भावनाओं का सही आकलन नहीं किया, लेकिन धीरे-धीरे इस निर्यात विरोधी नीति को ठीक करने की आवश्यकता का अनुभव किया जाने लगा तथा 1970 के दशक में निर्यात प्रोत्साहन के लिए कई उपाय किए गए, जैसे—निर्यात प्रेरणा (export incentives) तथा निर्यात सेवाएं (export services), किन्तु संरक्षणात्मक कोटा लगभग ज्यों का त्यों बना रहा तथा घरेलू उद्योगों को आयात की स्पर्धा से बचाना जारी रहा। 1980 के दशक के शुरुआती वर्षों में विदेशी व्यापार की प्रचुर विवेचना हुई जिसमें अधिकतम ध्यान निर्यात प्रतिस्पर्धा पर दिया गया। धीरे-धीरे यह अधिक स्पष्ट होता गया कि निर्यात के लिए उत्पादन को घरेलू बाजार के लिए उत्पादन से अलग नहीं किया जा सकता तथा व्यापार नीति का घरेलू औद्योगीकरण के साथ एकीकरण करना। होगा। 1980 के दशक के प्रारम्भ से ही लाइसेन्सिंग तथा अत्यधिक नियन्त्रित व्यापार नीति के स्थान पर खलेपन । को अपनाया जाने लगा। इस दशक के अन्त की ओर इस प्रक्रिया में और तेजी आई। व्यापार क्षेत्र की दिशा तय करने के लिए 1985 में तीन वर्षीय निर्यात-आयात नीति को अपनाया गया। इस नीति की प्रमुख बात यह थी कि पंजी वस्तुओं, कच्ची सामग्री तथा पुजों को बाहर से मंगाना आसान कर दिया गया, क्योंकि ऐसा समझा। गया कि तकनीकी उन्नयन करके लागत को कम करने तथा गुणवत्ता में सुधार के लिए यह प्रेरणा प्रदान करने का कार्य कर सकता है। इन उपायों के बावजूद 1980 के दशक में लाइसेन्सिंग व्यवस्था व्यापक रूप में बनी रही।

  • उच्च दर पर टारिफ के द्वारा अर्थव्यवस्था को बाह्य प्रतियोगिता से अलग-थलग रखा गया तथा
  • प्रतिबन्धात्मक औद्योगिक एवं विदेशी निवेश की नीतियों ने विकास को बाधित किया।

1990 के दशक में उदारवादी व्यापार व्यवस्था स्थापित की गई। यह पहले की नियन्त्रित व्यवस्था से पलटना था। उस समय देश के समक्ष मुख्य चुनौती समष्टि आर्थिक सन्तुलन को स्थापित करना था। इसके साथ दीर्घकालीन व्यापार नीति भी अपनाई गई। ऐसा माना गया कि अर्थव्यवस्था की उत्पादकता तथा कार्यसक्षमता में सधार के लिए व्यापार नीति, विनिमय दर नीति तथा औद्योगिक नीति को एक एकीकृत नीति का हिस्सा होना होगा। नई व्यापार नीति के निम्न घटक थे:

(i) 1991 में रुपए का अवमूल्यन;

(ii) 1993 में बाजार निर्धारित विनिमय दर व्यवस्था अर्थात् व्यापार लेखा तथा चालू लेखा में रुपए की परिवर्तनीयता (convertibility);

(iii) आयात तथा निर्यात की एक लघु ऋणात्मक सूची:

(iv) नामित (nominal) टैरिफ स्तर को कम करना;

(v) आयात पर से परिमाणात्मक प्रतिबन्ध को हटाना :

(vi) आयात लाइसेन्स को क्रमशः समाप्त करना; तथा

(vii) निर्यात प्रेरणा व्यवस्था में परिवर्तन—प्रत्यक्ष सब्सिडी के स्थान पर परोक्ष निर्यात प्रोत्साहन उपाय।

Environment International trade

1990 के दशक के शुरू में जिस बहुभुजीय रणनीति को अपनाया गया उसका अपेक्षित प्रभाव अर्थव्यवस्था पर पड़ा तथा स्थिर एवं उच्च दर पर आर्थिक विकास का काल प्रारम्भ हुआ। निर्यात में लगातार वृद्धि तथा पूंजी के अन्तर प्रवाह में उफान ने आयात के उदारीकरण तथा इस पर से परिमाणात्मक रोक को हटाने में सहायता दी। विनिमय दर की स्थिरता के कारण भारतीय निर्यात की स्पर्धात्मकता कायम रह सकी। साथ ही, इससे सस्ते आयात को रोका भी जा सका अन्यथा संरक्षण की मांग जोर पकडती तथा उदारवादी प्रक्रिया को धीमी कर देती। इसी समय पूर्वी यूरोप में बाजार हमारे हाथ से निकाल गए, लेकिन एशिया के नए उभरते बाजार तथा पेट्रोल निर्यातक देशों के संगठन (OPEs) के बाजार में प्रवेश करने में हमें सफलता मिली।

भारत के निर्यात को चार वर्गों में बांटा गया है, यथा (i) कृषि एवं सम्बद्ध वस्तुएं जैसे-चाय, कॉफी, तम्बाकू, काजू, मसाले, चीनी, कच्चा कपास, मछली, मांस, वनस्पति तेल, फल, सब्जी तथा दालें, (ii) कच्ची धातु तथा खनिज, (iii) निर्मित वस्तुएं, जैसे—सूती कपड़े, बने-बनाए पोशाक, पटसन से निर्मित वस्तुएं, चमड़ा तथा जूते, हस्तकला की वस्तुएं, बहुमूल्य पत्थर, रसायन, इंजीनियरिंग वस्तुएं तथा इस्पात, एवं (iv) खनिज ईधन तथा स्नेहक (lubricants)

उपर्युक्त निर्यात को दो वर्गों में बांटा जा सकता है—(क) पारम्परिक वस्तुएं (Traditional exports), जैसे—पटसन तथा पटसन से निर्मित वस्तुएं, कपास तथा कपास से बनी वस्तुएं, चाय, तिलहन, चमड़े आदि, तथा (ख) गैर-पारम्परिक वस्तुएं (Non-traditional items) जैसे—इंजीनियरिंग वस्तुएं, हस्तकला की वस्तुएं, मोती (pearl), बहुमूल्य पत्थर, जेवर एवं जवाहरात, लोहा एवं इस्पात, रसायन, बने बनाए पोशाक, चीनी, मछली, काजू, कॉफी, आदि।

भारतीय निर्यात जो 1980-81 में सिर्फ 6,711 करोड़ ₹ का था, 1990-91 में 32,553 करोड़ र. 1995-96 में 1,06,353 करोड़ र तथा 2000-01 में 2.03,571 करोड़ पर पहुंचा। 2010-11 में 11,36,964 करोड ₹ 2011-12 में 14,65,959 करोड़ र, 2013-14 में 19,05,011 करोड़ र, 2014-15 में 18,96,348 करोड़ र, 2015-16 में 17,16,378 करोड़र तथा2016-17 में 18,49,429 करोड़र हो गया। अमरीकी डॉलर के रूप में हमारे निर्यात 2000-01 में 44.07 बिलियन के थे, 2010-11 में यह 251.13 बिलियन डॉलर, 2013-14 में 314.4 बिलियन डॉलर तथा 2014-15 में 310.34 बिलियन डॉलर, 2015-16 में 262.3 बिलियन डॉलर तथा 2016-17 में 275.85 बिलियन डॉलर हो गये।

निर्यात की रचना (composition) में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं। प्राइमरी उत्पाद का हिस्सा 1990-91 में कल निर्यात में 23.8 प्रतिशत था। 2003-04 में यह घटकर 15.5 प्रतिशत, 2013-14 में 13.7 प्रतिशत तथा 2014-15 में 12.7 प्रतिशत, 2015-16 में 12.6% तथा 2016-17 में 12.3% रह गया। इसी अवधि में निर्मित वस्तुओं का हिस्सा जो 1990-91 में 71.6 प्रतिशत था, 2000-01 में बढ़कर 78.7 प्रतिशत हो गया। किन्त. 2007-08 में घटकर 64.1 प्रतिशत पर आ गया। 2013-14 में 63.5 प्रतिशत, 2014-15 में 66.7 प्रतिशत, 2015-16 में 73.5% तथा 2016-17 में 73.6% पर आ गया। पेट्रोलियम पदार्थों का निर्यात जो 2000-01 में मात्र 4.3 प्रतिशत था, 2013-14 में बढ़कर 20.6 प्रतिशत तथा 2014-15 में यह 18.6 प्रतिशत 2015-16 में 11.9% तथा 2016-17 में 11.8% हो गया।

भारतीय निर्यात में होने वाले संरचनात्मक परिवर्तन भारत के निर्यात को प्रभावित करने वाली मांग पैटर्न । तथा पर्ति कारकों पर प्रकाश डालते हैं। इससे यह भी जानकारी मिलती है कि किस प्रकार देश के उत्पादन का ढांचा, संस्थाएं तथा नीतियों में प्रतिक्रिया होती है। भारतीय नियति का मूल्य विश्व निर्यात का लगभग 1.7% है। फिर भी आज निर्यात लाभ प्राप्त करने वाले शीर्ष 15 देशों में एक भारत था। भारतीय निर्यात की सफलता-असफलता की जानकारी विश्व निर्यात में सिर्फ भारतीय निर्यात के अंश से नहीं मिल सकती है। हमें निर्यात की संरचना, रचना में बदलाव तथा स्पर्धात्मकता को भी देखना होगा। भारतीय माल के निर्यात  (merchandise export) में विनिर्मित वस्तुओं की प्रमुखता है जो 1990 के दशक में इसके कुल निर्यात का तीन-चौथाई था। जिन प्रमुख निर्मित वस्तुओं का निर्यात होता है वे रसायन एवं सम्बद्ध उत्पाद, इंजीनियरिंग वस्तुएं, बने बनाए पोशाक, कपड़े के लिए धागे, कपड़े, रत्न एवं आभूषण हैं। प्राइमरी उत्पाद का हिस्सा घटता जा रहा है, विशेषकर 1990 के दशक से, जबकि पेट्रोलियम उत्पादों के निर्यात में 2000-01 से नाटकीय वृद्धि हुई है। 2008-09 से भारतीय निर्यात पर अमरीकी तथा वैश्विक मन्दी का असर पड़ना शुरू हो गया। 2009-10 के प्रथम अर्द्ध में वैश्विक मन्दी अपने चरम पर थी। फलतः इस अवधि में भारतीय निर्यात की वार्षिक वृद्धि दर ऋणात्मक हो गई। निर्मित वस्तुओं के उपवर्ग में कपड़ा निर्यात में कम ह्रास हुआ। रत्न तथा आभूषण एवं रसायन और संबद्ध वस्तुओं पर अधिक प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। लेकिन सबसे अधिक प्रतिकूल प्रभाव इंजीनियरिंग वस्तुओं के निर्यात पर पड़ा। हस्तकला की वस्तुओं तथा कारपेट का निर्यात भी काफी प्रभावित हुआ। अगस्त, 2010 से विदेशी बाजार में मांग की स्थिति में सुधार हुआ है। इससे भारतीय निर्यात की स्थिति में सुधार नजर आ रहा है।

विश्व बैंक की अद्यतन “डूइंग बिजनेस रिपोर्ट-2018′ में भारत ने अपने पूर्ववर्ती 130 रैंक से 30 पायदान की छलांग लगाते हुए 100वें रैक पर आ गई है। कई महत्वपूर्ण क्षेत्रों में भारत को श्रेष्ठता प्राप्त है। निम्न पर ध्यान दें जिनका सम्बन्ध वर्ष 2002 से है :

  • विदेशी तकनीकी लाइसेन्स प्रदान करने में भारत प्रथम था;
  • वैज्ञानिकों एवं इंजीनियरों की उपलब्धता में दूसरा;
  • साख प्रवेश (access to credit) में पांचवां;
  • स्थानीय स्पर्धा की सघनता (intensity) में सातवां तथा
  • ब्याज दर के विस्तार (spread) में ग्यारहवां

UNCTAD द्वारा विश्व व्यापार प्रतिस्पर्धा का जो आकलन निर्यात बाजार के हिस्से में वृद्धि करने वाले 20 शीर्ष देश का किया उसमें :

  • कुल निर्यात में भारत का स्थान 14वां था;
  • संसाधन पर आधारित विनिर्माण में 5वां;
  • निम्न तकनीकी विनिर्माण में 9वां; तथा
  • मध्यम-तकनीकी विनिर्माण में 17वां

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भारत के निर्यात व्यापार की दिशा वर्ष 2016-17 में भारत के कुल निर्यात में यूरोपीय संघ के देशों का हिस्सा 17.1% रहा। इसमें यू. के. का हिस्सा 3.1%, नीदरलैण्ड का हिस्सा 1.8% तथा जर्मनी का हिस्सा 2.6% शामिल है। भारत के कुल निर्यात व्यापार में अफ्रीका का हिस्सा 8.4% है जिसमें दक्षिण अफ्रीका का हिस्सा 1.3% है। भारत के निर्यात व्यापार में संयुक्त राज्य अमेरिका का हिस्सा 15.3% तथा कनाडा का हिस्सा 0.7% है। भारत के कुल निर्यात का लगभग आधा भाग (49.9%) एशियाई देशों को होता है। इसमें सिंगापुर का हिस्सा 3.5%, वियतनाम का हिस्सा 2.5%, इंडोनेशिया का हिस्सा 1.3%, संयुक्त अरब अमीरात का हिस्सा 11.3%, सऊदी अरब का हिस्सा 1.9%, ओमान का हिस्सा 1% तथा इजरायल का हिस्सा 1.1% शामिल है। इसके अतिरिक्त भारत के निर्यात व्यापार में चीन का हिस्सा 3.7%, हांगकांग का हिस्सा 5.1%, जापान का हिस्सा 1.4%, श्रीलंका का हिस्सा 1.4% तथा बांग्लादेश का हिस्सा भारत के निर्यात व्यापार में 2.5% है। भारत के । निर्यात व्यापार में सी.आई.एस. तथा बाल्टिक देशों का हिस्सा मात्र 1.0% है।

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भारत का सेवा व्यापार

स्वतंत्रता प्राप्ति के प्रथम 30 वर्षों में उच्च शिक्षा के विकास पर अत्यधिक बल दिया गया। दूसरी ओर, सकल घरेलू उत्पाद (GDP) की वार्षिक वृद्धि दर अति धीमी रही। फलतः उच्च शिक्षा प्राप्त लोगों की आपूर्ति घरेलू रोजगार सृजन की तुलना में काफी अधिक हो गयी। इस शिक्षित मानव शक्ति का एक भाग रोजगार पाने के लिए पश्चिम की ओर चला गया। इसने आई टी (IT) तथा इन्टरनेट से जडे उच्च टेक्नोलॉजी वाले उद्योग में अपने को जोड़ लिया। आगे चलकर, घरेलू साहसी ने ऐसी मानव शक्ति के स्टॉक में काफी वृद्धि की। 1990 के दशक में इस स्टॉक का गैर-निवासी भारतीय मानव शक्ति से सम्पर्क होने के पश्चात IT निर्यात में काफी वृद्धि हुई। इसलिए भारत के कुल निर्यात में सेवा निर्यात का भाग बढ़ने लगा।

भारत विश्व भर में वर्ष 2016 (WTO 2017) में 3.4 प्रतिशत हिस्से के साथ वाणिज्यिक सेवाओं का आठवां सबसे बड़ा निर्यातक देश रहा है, जो भारत के पण्य निर्यात के 1.7 प्रतिशत हिस्से से दोगुना है। इसके अतिरिक्त, भारत के निर्यातों में सेवा क्षेत्र की बढ़ती महत्ता को दर्शाते हुए सेवा निर्यात और पण्य निर्यात का अनुपात 2000-01 में 35.8% से बढ़कर 2016-17 में 58.2 प्रतिशत हो गया है, जबकि भारत के सेवा निर्यातों ने 2006-07 से 2016-17 के दौरान 8.3 प्रतिशत सी ए जी आर दर्ज की थी, 2015-16 में इसने (-)2.4 प्रतिशत की नकारात्मक वृद्धि दर्ज की थी। 2016-17 में 5.7 प्रतिशत की वृद्धि + दर के साथ सेवा क्षेत्र की निर्यात वृद्धि सकारात्मक वृद्धि में बदल गई। यात्रा और सॉफ्टवेयर सेवाओं जैसे—कतिपय प्रमुख क्षेत्रों में कारोबार के साथ अप्रैल-सितम्बर 2017-18 के दौरान सेवा निर्यात ने 16.2% की वृद्धि दर्ज की थी। विदेशी पर्यटकों के आगमन में उल्लेखनीय वृद्धि के साथ यात्रा प्राप्तियों में विगत वर्ष की तदनुरूप अवधि में 7.6 प्रतिशत की वृद्धि की तुलना में 2017-18 की पहली छमाही में 27.7 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई। पारम्परिक सेवाओं के कीमत दबावों और चुनौतीपूर्ण कारोबार के वैश्विक माहौल का सामना करने के बावजूद घरेलू सॉफ्टवेयर कम्पनियों, सॉफ्टवेयर सेवा निर्यातों में 2.3% तक की वृद्धि हुई, जो पिछली अवधि की तुलना में मामूली-सा सुधार है।

भारत की प्रमुख सेवाओं का व्यापार निष्पादन

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अप्रैल-सितम्बर 2017-18 में भारत के सेवा आयात में 17.4 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई, चूंकि यातायात क्षत्र के भुगतानों में 15% तक, यात्रा में 12.0% तथा व्यवसाय सेवा भुगतानों में 11.3 प्रतिशत तक वृद्धि हो। गई। व्यवसाय सेवा भगतानों में मख्य रूप से अनुसंधान और विकास सेवाओं, व्यवसाय एवं प्रबन्धन सम्बन्धी परामर्शी सेवाओं तथा अन्य व्यावसायिक सेवाओं के लिए उच्चतर भुगतानों के लिए थी। यद्यपि सॉफ्टवेयर सेवा आयातों का हिस्सा केवल 4.3% था तथा इसकी वृद्धि लगभग 47.6 प्रतिशत थी।

वर्ष 2015-16 तथा 2016-17 में आयातों की तुलना में सेवा निर्यातों में कम वृद्धि से निवल सेवा प्राप्तियों में गिरावट आई। अप्रैल-सितम्बर 2017-18 के दौरान निवल सेवा प्राप्तियों में 14.6 प्रतिशत तक बढ़ोतरी हुई। निष्कर्ष

1990 के दशक में उदारीकरण पर केन्द्रित जिस आर्थिक सुधार प्रक्रिया को प्रारम्भ किया गया उसके परिणामस्वरूप भारतीय अर्थव्यवस्था का शेष विश्व के साथ अधिकाधिक एकीकरण हो रहा है। इसलिए भारत के विदेशी व्यापार की वृद्धि दर बाह्य कारकों पर अधिक निर्भर करने लगी है, जैसे विश्व व्यापार की वृद्धि (विशेषकर व्यापार साझेदारों के विदेशी व्यापार की वृद्धि), अन्तर्राष्ट्रीय कीमतों में परिवर्तन तथा प्रतिद्वन्द्वी देशों के विकास पर। विनिमय दर तथा डॉलर रुपया विनिमय दर में परिवर्तनों का भी प्रभाव पड़ता है। यद्यपि 1990 के दशक के प्रारम्भ से ही भारतीय टैरिफ के स्तर में काफी कमी आई है, फिर भी उभरती बाजार अर्थव्यवस्था की तुलना में यह बहुत ऊंचा है। अब इस बात को अधिक अच्छी तरह समझा जाने लगा है कि टैरिफ दरों की रचना सरल, पारदर्शी, स्थिर तथा अन्तर्राष्ट्रीय सर्वोत्तम प्रथा के अनुकूल होनी चाहिए। दसवीं योजना का कहना है कि अर्थव्यवस्था की बाह्य उन्मुखता को प्रोत्साहित करने का सर्वाधिक प्रभावी तरीका यह है कि आयात पर टॉरिफ की दर को घटाया जाए ताकि हमारी नीतियों एवं मानसिकता में जो निर्यात विरोधी पूर्वाग्रह (bias) है उसे ठीक किया जा सके। यह याद रखना चाहिए कि टैरिफ शुल्क की दरों में कमी होने से वापसी (refund) की आवश्यकता भी घटेगी। इससे लेन-देन लागत (transaction cost) में कमी आएगी।

विश्व व्यापार की रचना में जो परिवर्तन हुए हैं उनके कारण यह व्यापार अब उच्च तकनीकी प्रधान उत्पाद की ओर मुड़ गया है। लेकिन 1990 के दशक के मध्य तक भारतीय निर्यात की रचना प्रायः अपरिवर्तित ही रही। लेकिन हाल ही से हमारे निर्यात में उच्च तकनीकी उत्पाद की मात्रा बढ़ रही है। हमारी विनिर्मित वस्तुओं का निर्यात श्रम तथा प्राकृतिक संसाधनों पर आधारित है जिसमें निम्न टेक्नोलॉजी का उपयोग होता है। इसलिए विकसित बाजार अर्थव्यवस्था में हमारे निर्यात में वृद्धि की काफी सम्भावना है। लेकिन उच्च टेक्नोलॉजी के अधिक उपयोग की भी आवश्यकता है।

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प्रश्न

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

1 भारतीय आयात तथा निर्यात की संरचना में होने वाले परिवर्तनों की विवेचना करें।

2. भारतीय आयात एवं निर्यात की प्रवृत्ति की विवेचना करें।

3. ग्यारहवीं योजना की भारतीय विदेश व्यापार नीति की विवेचना करें।

4. भारत के आयात-निर्यात के परिमाण एवं दिशा पर प्रकाश डालिए।

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लघु उत्तरीय प्रश्न

1 भारतीय निर्यात की प्रवृत्ति का उल्लेख करें।

2. भारतीय आयात में होने वाले परिवर्तनों को दर्शायें।

3. दसवीं योजना की विदेशी व्यापार नीति पर प्रकाश डालें।

4.1990 के दशक से भारतीय सेवा निर्यात में तीव्र गति से होने वाली वृद्धि की व्याख्या करें।

5. भारत के आयात व्यापार की दिशा की विवेचना कीजिए।

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