BCom 1st Year Environment Structure Indian Industries Study Material Notes in Hindi
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BCom 1st Year Environment Structure Indian Industries Study Material Notes in Hindi: Performance of The Industrial Sector Examinations Questions Long Answer Questions Most Important Notes for BCom 1st Year Examinations :
BCom 1st Year Business Environment Price Study Material Notes in Hindi
भारतीय उद्योगों की संरचना
[STRUCTURE OF INDIAN INDUSTRIES]
जगदीश भगवती एवं पद्मा देसाई का कहना है कि उन्नीसवीं सदी के पूर्व भारत एक महान औद्योगिक देश था। (India was a great manufacturing country) 1947 में भारत के विषय में ऐसा नहीं कहा जा सकता था। प्रथम विश्वयुद्ध (1914-18) के दौरान तथा उसके उपरान्त कई उपभोक्ता वस्तुओं के उद्योगों की स्थापना हुई। इनमें प्रमुख थे सूती वस्त्र उद्योग, जूट उद्योग, चीनी उद्योग, साबुन, दियासलाई, कागज तथा सिलाई मशीन उद्योग, आदि। औद्योगिक उत्पादन में कुछ विविधता तथा परिष्कृतता (diversification and sophistication) भी आई तथा कुछ मध्यवर्ती पूंजी वस्तु उद्योगों की स्थापना हुई, जैसे—इस्पात, सीमेण्ट, मूल रसायन, धातु, इंजीनियरिंग तथा जहाज निर्माण।
आधुनिक तकनीक के उपयोग द्वारा लघुस्तरीय तथा हस्तशिल्प उद्योगों का भी विकास हुआ। वस्तुतः बड़े उद्योगों की तुलना में लघुस्तरीय उद्योगों का योगदान राष्ट्रीय उत्पाद में अधिक रहा। ओटॅनी (cottongin), चावल, तेल, आटा मिल, कपास एवं जूट की गांठ, खाण्डसारी, आदि लघु उद्योगों में महत्वपूर्ण थे। कुल औद्योगिक इकाइयों में इनका हिस्सा 95.3 प्रतिशत था एवं कुल रोजगार में इनका योगदान 43 प्रतिशत था। इस औद्योगीकरण के बावजूद रोजगार की रचना में अवनति ही हुई कुल रोजगार में औद्योगिक क्षेत्र का हिस्सा 1901 में 10.6 प्रतिशत से घटकर 1951 में 9.1 प्रतिशत हो गया।
द्वितीय विश्वयुद्ध तक भारतीय अर्थव्यवस्था निर्यातोन्मुख थी। आयात की तुलना में निर्यात का अधिक होना जरूरी था, ताकि भारतीय उद्योगों में लगी विदेशी पूंजी पर लाभ को विदेशों में भेजा जा सके। इसलिए इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं कि स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् की औद्योगिक नीति में निर्यात विरोधी तत्व देखे जा सकते हैं। स्वतन्त्रता के पूर्व की निर्यातोन्मुख नीति से लोगों के आर्थिक कल्याण में वृद्धि नहीं हो सकी। वस्तुतः भारत सस्ते कच्चे माल का निर्यात करता था तथा बदले में यह निर्मित वस्तुओं का ऊंची कीमत पर आयात करता था। ऐसी नीति (निर्यात विरोधी) को अन्य विकासशील देशों ने भी अपनाया, किन्तु भारतीय त्रासदी यह रही कि 1960 के दशक में विश्व व्यापार में भारी वृद्धि के बावजूद भी हमारी नीति बदली नहीं, जबकि अन्य विकासशील देशों ने ऐसा किया।
संरचनात्मक परिवर्तन
अध्याय 3 की तालिका 3.1 में दिखाया गया कि 1950-51 में समग्र घरेलू उत्पाद में उद्योगों का हिस्सा 10.65 प्रतिशत था, जो 1960-61 में 13.18 प्रतिशत, 1970-71 में 15.46 प्रतिशत, 1980-81 में 17.45 प्रतिशत, 1990-91 में 19.80 प्रतिशत तथा 1995-96 में 21.24 प्रतिशत हो गया। उसके बाद के वर्षों में यह हिस्सा 2000-01 में 19.99 प्रतिशत, 2007-08 में 28.70 प्रतिशत, वर्ष 2012-13 में 27.30 प्रतिशत तथा 2013-14 में 24.80 प्रतिशत रहा। 2017-18 में देश के सकल जी.बी.ए में उद्योग क्षेत्र का हिस्सा 27.8% रहा।
इन 67 वर्षों में उद्योगों की संरचना में भी अत्यधिक परिवर्तन हुए हैं। स्वतन्त्रता के समय समग्र औद्योगिक उत्पादन में उपभोक्ता वस्तुओं के उद्योगों का हिस्सा लगभग आधा था—1951 में 47.6 प्रतिशत। मध्यवर्ती वस्तुओं का हिस्सा 1951 में 29.0 प्रतिशत था और यह दूसरे स्थान पर था। आधारभूत वस्तुओं के उद्योग का तीसरा स्थान था। GDP में इसका योगदान 19.8 प्रतिशत था। पूंजीगत वस्तुओं के उद्योगों का योगदान केवल 3.5 प्रतिशत था। तालिका 12.1 में इन्हें प्रस्तुत किया गया है।
Environment Structure Indian Industries
तालिका 12.1 से स्पष्ट है कि पिछले लगभग 6 दशकों में समग्र औद्योगिक उत्पादन में उपभोक्ता वस्तओं का हिस्सा 1980 के दशक तक घटता गया। उसके पश्चात् यह हिस्सा बढ़ने लगा तथा 2005-06 में 46.3 प्रतिशत पर पहुंच गया, अर्थात् लगभग 1950-51 की स्थिति के नजदीक। इस वृद्धि में उपभोक्ता की टिकाऊ एवं गैर-टिकाऊ वस्तुओं दोनों का योगदान रहा है। उपभोक्ता गैर-टिकाऊ वस्तुओं के योगदान में वृद्धि मुख्य रूप से पेय, तम्बाकू एवं तम्बाकू उत्पाद, टेक्सटाइल पदार्थ, दूध पावडर, चोकलेट तथा चीनी की मिठाइयों, चीनी,सल्फा दवाओं, बाल में लगाने के तेल, आदि के कारण हुई। उपभोक्ता टिकाऊ वस्तु, जैसे—रेफ्रीजरेटर, एयर कंडीशनर, मोटरगाड़ियों, मोटरसाइकिल, स्कूटर, आदि का हिस्सा 1990 के दशक से बढ़ना शुरू किया और 1993-94 में 5.4 प्रतिशत से बढ़कर 2005-06 में 14.9 प्रतिशत पर पहुंच गया। किन्तु, उपभोक्ता गैर-टिकाऊ वस्तुओं की तुलना में उपभोक्ता टिकाऊ वस्तुओं का हिस्सा हमेशा ही कम रहा है।
पूंजी वस्तुओं के उत्पादन में भी तेजी आयी है। इस वर्ग में टेक्सटाइल मशीनरी, जहाज निर्माण एवं मरम्मत, प्रयोगशाला-संबंधी तथा वैज्ञानिक यंत्र, लोकोमोटिव, मशीनी यंत्र, डम्पर, बॉयलर तथा ऊर्जा वितरण-संबंधी ट्रांसफार्मर, आदि शामिल हैं। इन वस्तुओं के उत्पादन में वृद्धि का यह अर्थ है कि औद्योगिक क्षमता में वृद्धि हो रही है। मध्यवर्ती वस्तुओं के उत्पादन में वृद्धि थोड़ी धीमी गति से हुई है।
2007-08 में पूंजी वस्तुओं तथा मध्यवर्ती वस्तुओं के उत्पादन में सापेक्ष वृद्धि हुई, जबकि आधारभूत वस्तुओं तथा उपभोक्ता टिकाऊ वस्तुओं के उत्पादन में गिरावट आयी। 2007-08 के विषय में यह भी जानना जरूरी है कि औद्योगिक उत्पादन में चक्रीय गिरावट (cyclical slowdown) इसी वर्ष शुरू हुई और यह 2008-09 में बनी रही। किन्तु, 2009-10 में पुनरुत्थान की प्रक्रिया शुरू हो गई जो अब भी बनी हुई है।
विगत वर्षों में देश के औद्योगिक उत्पादन के ढांचागत विकास के प्रतिमान में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं। उपयोग-आधारित विभिन्न क्षेत्रों की विकास दर को तालिका 12.1 में प्रदर्शित किया गया है।
तालिका 12.2: औद्योगिक विकास का क्षेत्रवार प्रतिमान
Environment Structure Indian Industries
उपयोग आधारित वस्तुओं के वर्गीकरण के आधार पर परिवृद्धि दर देखा जाए तो स्पष्ट होता है कि उपभोक्ता टिकाऊ वस्तुओं की वृद्धि दर में वर्ष 2010-11 तक तेजी रही। इसके उपरान्त इसकी वृद्धि दर में गिरावट आई और वर्ष 2012-13 में इसकी विकास दर 2.0 प्रतिशत पर रही तथा 2013-14 में – 2.8 पर ऋणात्मक हो गयी। इसके बाद इसमें सुधार हुआ और यह 2015-16 में 3.4% हो गयी तथा 2016-17 में पुनः कम होकर 2.9% तक पहुंच गई। उपभोक्ता गैर-टिकाऊ वस्तुओं के उत्पादन की वृद्धि दर में उतार-चढ़ाव बना रहा। पूंजीगत वस्तुओं के उत्पादन की वृद्धि दर वर्ष 2003-04 से 2010-11 तक तेज रही, परन्तु 2011-12 के पश्चात् 2013-14 तक इसकी वृद्धि की दर ऋणात्मक हो गयी। वर्ष 2014-15, 2015-16 तथा 2016-17 में इसकी विकास दर क्रमशः 4.8%. 3.0% तथा 3.2% रही। वर्ष 2016-17 में सभी वस्तुओं की विकास दर 4.6% रही।
औद्योगीकरण की इस प्रक्रिया में भारतीय उद्योगों की संरचना में निम्न परिवर्तन भी ध्यान योग्य हैं :
(1) औद्योगिक संरचना में काफी विविधता (diversification) आ गयी है और इसका सम्बन्ध उपभोक्ता, मध्यवती तथा पूंजी वस्तु सभी प्रकार के उद्योगों से है। इसका प्रभाव भारत के विदेशी व्यापार की रचना पर पड़ा है। भारतीय आयात में निर्मित वस्तुओं का हिस्सा लगातार घटता चला गया है तथा निर्यात में इनका हिस्सा, खासकर इन्जीनियरिंग वस्तुओं का, बढ़ता चला गया है।
(2) भारत प्रायः सभी उपभोक्ता वस्तुओं के उत्पादन में आत्मनिर्भर हो गया है :
(i) पूंजी वस्तुओं का विकास प्रभावशाली रहा है। 1959 में उत्पादक पूंजी में आधारभूत तथा पूंजी वस्तु क्षेत्र का हिस्सा 50 प्रतिशत था। 1991-92 में यह हिस्सा बढ़कर 79 प्रतिशत हो गया। पूंजीगत वस्तुओं के उत्पादन की वृद्धि दर 2010-11 में 14.75% स्तर पर पहुंच गयी इसके उपरान्त इसकी विकास दर में गिरावट दर्ज की गई।
(ii) खनन एवं मेटालर्जिकल, रसायन तथा पेट्रो-केमिकल, उर्वरक, परिवहन आदि उद्योगों में प्रभावशाली उत्पादन क्षमता का निर्माण हुआ है।
(iii) रिसर्च तथा विकास (R and D), कन्सलटेन्सी (Consultancy) तथा इन्जीनियरिंग डिजाइन सेवा, परियोजना प्रबन्धन सेवा तथा नवप्रवर्तन (innovation) क्षमता में भी महत्वपूर्ण विकास हुआ है।
(3) प्रभावी मांग की रचना का प्रभाव भी औद्योगिक विकास की रचना पर पड़ा है। चूंकि आय का वितरण अत्यधिक असमान है, इसलिए इसका प्रभाव प्रभावी मांग की रचना पर भी असमान है। इस रचना का यह परिणाम हुआ है कि संसाधनों का एक बड़ा भाग धनी वर्गों की आवश्यकता की वस्तुओं, जैसे, मोटर गाड़ियां, एयर कण्डिशनर, विशाल भवनों, उच्च श्रेणी के यात्रियों की यात्रा सुविधा में वृद्धि, टेलीफोन सेवा आदि के निर्माण पर खर्च होता है। ऐसी वस्तुओं का बाजार सीमित होता है। इसका यह अर्थ है कि उद्योगों का भावी विकास इस संकीर्ण एवं सीमित बाजार से प्रभावित होगा। दूसरी ओर आम जनता की जरूरत की चीजों के उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। इसलिए के. एन. राज का कहना है कि औद्योगिक विकास की गति को बनाए रखने के लिए विलास तथा अर्द्ध-विलास की वस्तुओं के उत्पादन में ही वृद्धि करनी होगी।
(4) भारतीय औद्योगीकरण के पैटर्न की एक और विशेषता है सार्वजनिक क्षेत्र का विस्तार। 1997-98 में इस क्षेत्र में कुल कारखानों का मात्र 7 प्रतिशत था। निजी क्षेत्र के 1,23,106 कारखानों की तुलना में सार्वजनिक क्षेत्र में मात्र 9,516 कारखाने थे। कम संख्या में कारखानों के बावजूद निजी क्षेत्र में 56 प्रतिशत के मुकाबले सार्वजनिक क्षेत्र में 32 प्रतिशत पूंजी लगी थी, लेकिन अब सार्वजनिक क्षेत्र का महत्व घट रहा है।
वर्तमान (2015-16) में केन्द्र सरकार के उपक्रमों की कुल संख्या 320 है। जिसमें से 244 कार्यशील है। इन उद्योगों में विनियोजित 11,71,844 करोड़ र थी।
(5) उद्योगों के वार्षिक सर्वेक्षण के अनुसार वर्ष 2014-15 में देश में कुल 2,30,430 फैक्टरियां कार्यरत थीं जिसमें 35,13,96,431 करोड़ र की पूंजी निवेश की गयी थी। इनमें काम में लगे लोगों की संख्या 107.5 लाख थी। इन फैक्टरियों में वर्ष 2014-15 में 68,86,334.6 करोड़ ₹ का उत्पादन हुआ।
औद्योगिक क्षेत्र का निष्पादन
(PERFORMANCE OF THE INDUSTRIAL SECTOR)
प्रथम तीन योजनाओं में औद्योगिक विकास की दर काफी अच्छी रही : प्रथम योजना-7.3 प्रतिशत वार्षिक, द्वितीय योजना-6.6 प्रतिशत वार्षिक तथा तीसरी योजना-9.0 प्रतिशत वार्षिक। इसके बाद औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि दर घटने लगी। 1970-71 से 1979-80 की अवधि में वार्षिक वृद्धि दर मात्र 4.6 प्रतिशत थी। लेकिन 1980-81 तथा 1989-90 के मध्य इसमें तेजी आयी तथा यह दर 6.6 प्रतिशत हो। गई। सातवीं योजना (1985-90) काल में यह बढ़कर 8.5 प्रतिशत हो गई। 1950-51 से 1989-90 के 40 वर्षों की अवधि में पंजीकृत विनिर्माण उद्योगों की औसत विकास दर 5.85 प्रतिशत थी, जबकि अपंजीकृत विनिर्माण उद्योगों की औसत वार्षिक विकास दर 4.33 प्रतिशत रही। दोनों को मिलाकर 5.15 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि दर प्राप्त होती है। 1980 के दशक में यह दर 6.77 प्रतिशत रही थी। किन्तु 1990 के दशक से इस दर में गिरावट आयी। 1992-93 में यह घटकर मात्र 2.3 प्रतिशत रह गई। अगले वर्षों में इसमें वृद्धि हुई तथा 1995-96 में यह बढ़कर 13.0 प्रतिशत हो गई। उसके बाद यह दर लगातार घटती गई। 1998-99 में यह 4.1 प्रतिशत रही। लेकिन 2000-01 में यह बढ़कर 5.0 प्रतिशत तथा 2001-02 में पुनः घटकर 2.71 प्रतिशत रह गई। 2002-03 में सुधार हुआ और यह बढ़कर 5.7 प्रतिशत हो गई। पुनः 2003-04 में यह बढ़कर 6.9 प्रतिशत हो गई।
ग्यारहवीं योजना (Vol. III, p. 139) के अनुसार दसवीं योजना (2002-07) में औद्योगिक वृद्धि की दर का लक्ष्य 10 प्रतिशत प्रति वर्ष था। यह लक्ष्य पूरा नहीं हो सका केवल योजना के अन्तिम वर्ष अर्थात 2006-07 को छोड़कर जब यह 11.6 प्रतिशत रहा। नौवीं योजना (1997-2002) में औद्योगिक वृद्धि की औसत वार्षिक दर मात्र 4.5 प्रतिशत थी, जबकि दसवीं योजना में यह बढ़कर 8.0 प्रतिशत हो गई। लेकिन इस योजना में विनिर्माण क्षेत्र की औसत वार्षिक वृद्धि दर 12.3 प्रतिशत थी। इसी उपक्षेत्र की वद्धि दर में तेजी के कारण औद्योगिक वृद्धि दर में तेजी आयी। विनिर्माण क्षेत्र की वृद्धि दर में तेजी का कारण था घरेलू तथा अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में मांग में वृद्धि। लेकिन 1991-92 से औद्योगिक तथा राजकोषीय नीति में जो परिवर्तन किए गए, उनका भी संचयी प्रभाव इस वृद्धि पर पड़ा। व्यापार पर बाह्य प्रतिबन्ध में कमी होने के कारण जिस स्पर्धात्मक वातावरण का सृजन हुआ उसका भी प्रभाव पड़ा। नौवीं योजना में निर्मित वस्तुओं के निर्यात की औसत वार्षिक दर 6.3 प्रतिशत थी। दसवीं योजना में यह बढ़कर 19 प्रतिशत हो गई। इन अनुकूल कारकों के आधार पर ग्यारहवीं योजना (2007-12) में औद्योगिक वृद्धि की औसत वृद्धि दर को 9.8 प्रतिशत होने का अनुमान किया गया। राष्ट्रीय विनिर्माण प्रतिस्पर्धा परिषद् (National Manufacturing Competitiveness Council NMCC) के अनुसार यह वार्षिक वृद्धि दर 12-14 प्रतिशत हो सकती है। किन्तु, जैसा ऊपर बताया गया, 2007 से जो वैश्विक वित्तीय संकट तथा आर्थिक मन्दी का दौर चला उसने भारत को भी चपेट में ले लिया। वर्ष 2008-09 के पश्चात औद्योगिक क्षेत्र जिसमें विनिर्माण, खनन, विद्युत । तथा निर्माण शामिल हैं, ने तीन वर्ष तक आश्चर्यजनक पुनरुद्धार तथा विकास दिखाया, परन्तु आपूर्ति पक्ष एवं मांग पक्ष के मिले-जुले असर के कारण इसने अपनी गति खो दी। वर्ष 2009-10 तथ 2010-11 में। 9.2% की वृद्धि तक सुधरने के बाद यह वर्ष 2011-12 में 3.5% तथा 2012-13 में यह 3.1% पर आ गई।
औद्योगिक उत्पादन की यह वृद्धि दर 2015-16, 2016-17 तथा 2017-18 में क्रमश: 8.8% 5.6% तथा। 5.8% रही।
विनिर्माण क्षेत्र, जो उद्योग में सबसे प्रधान क्षेत्र है, ने भी 2009-10 तथा 2010-11 में क्रमशः 11.3% तथा 9.3% की तुलना में 2011-12 में 2.7% तथा 2012-13 में 1.3% तक गिरावट दर्शायी है। इस क्षेत्र की वृद्धि दर 2015-16, 2016-17 तथा 2017-18 में क्रमश: 10.8%.7.9% तथ 7.9% रही। बिजली क्षेत्र में वृद्धि संयत रही है। खनन क्षेत्र में वृद्धि वर्ष 2011-12 में (-1.97%) तथा 2012-13 में (-2.2%)। नकारात्मक रही। वर्ष 2013-14 में औद्योगिक विकास और अधिक मंदा हो गया और इसमें केवल 0.4% । की वृद्धि हुई। वर्ष 2013-14 में विनिर्माण क्षेत्र की वृद्धि दर – 1.6%, खनन क्षेत्र की वृद्धि दर – 1.4% । तथा विद्युत क्षेत्र की वृद्धि दर 5.9% रही। वर्ष 2011-12 श्रृंखला के आधार पर वर्ष 2012-13 में औद्योगिक विकास दर 4.5% रही। इसमें विनिर्माण, खनन तथा विद्युत् क्षेत्र की वृद्धि दर क्रमशः 2.5%, 5.4% व 4.8% रही। वर्ष 2014-15 में औद्योगिक विकास 5.9% (2011-12 श्रृंखला) आंकी गई है। इसमें विनिर्माण क्षेत्र की वृद्धि दर 4.5%, खनन क्षेत्र की वृद्धि दर 2.3% तथा विद्युत् क्षेत्र की वृद्धि दर 9.6% आंकी गई है।
वर्ष 2017-18 के अनुमान में औद्योगिक क्षेत्र की विकास दर 5.8% है। जिसमें विनिर्माण क्षेत्र की वृद्धि दर 7.0%, खनन क्षेत्र की वृद्धि दर 5.5% तथा विद्युत् सहित अन्य उपयोगिताओं की विकास दर 7.6 प्रतिशत रहने की संभावना है।
इस तरह स्पष्ट है कि देश के औद्योगिक विकास की बहाली में लम्बा समय लगेगा तथा उच्च विकास स्तर तक पहुंचने के लिए कड़ी पहले करनी पड़ेगी।
प्रश्न
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
1 स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भारतीय औद्योगिक संरचना में होने वाले परिवर्तनों की विवेचना करें।
2. पिछले साठ वर्षों के औद्योगिक विकास का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत करें।
लघु उत्तरीय प्रश्न
1 वैश्विक आर्थिक मन्दी के भारतीय उद्योगों पर पड़ने वाले प्रभावों की विवेचना करें।