BCom 2nd Year Federal Finance India Study Material Notes in Hindi

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BCom 2nd Year Federal Finance India Study Material Notes in Hindi

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BCom 2nd Year Federal Finance India Study Material Notes in Hindi: Meaning and Definition of Federal Government Characteristics of Federal Government  Meaning of Federal Finance Principles of Federal Finance Allocation of Financial Resources between Central and State Government Principles of Financial Adjustment Assignment Method Suggestions for Improvement Finance Commissions Twelfth Fiance Commission Thirteen Finance Commission :

 India Study Material Notes
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BCom 2nd Year Public Finance Effects Taxation Study Material Notes in Hindi

भारत में संघीय वित्त व्यवस्था

(Federal Finance in India)

“आर्थिक साधनों का विभाजन लोचपूर्ण व्यवस्था के रूप में होना चाहिए, क्योंकि कोई भी योजना, चाहे वह कितनी भी अच्छी क्यों न हो, आने वाले प्रत्येक समय के लिए उपयुक्त नहीं हो सकती। अतः विभाजन की योजना में इस प्रकार के परिवर्तनों के लिए पर्याप्त प्रबन्ध होना चाहिए जो राष्ट्रीय हित के लिए आवश्यक हों।” -आर० एम० भार्गव

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संघीय शासन का अर्थ एवं परिभाषा

(Meaning and Definition of Federal Government)

संघीय शासन का अर्थ (Meaning of Federal Government)-शासन व्यवस्था दो प्रकार की होती है-(1) एकाकी शासन-प्रणाली (Unitary Government) तथा (2) संघात्मक शासन-प्रणाली (Federal Government)| एकाकी शासन-प्रणाली में देश में केवल एक ही सरकार होती है अर्थात सम्पूर्ण शासन-व्यवस्था केन्द्रीय सरकार के हाथों में होती है। संघात्मक शासनप्रणाली में एक से अधिक (प्रायः तीनों) सरकारें होती हैं। संघात्मक शासन-प्रणाली में केन्द्रीय सरकार के अतिरिक्त राज्य सरकारें और स्थानीय सरकारें भी होती हैं। विभिन्न प्रान्तों की राज्य सरकारों को अपने-अपने राज्य की सीमा के अन्दर इच्छानुसार शासन करने की स्वतन्त्रता होती है, परन्तु कुछ विषयों में वे केन्द्रीय सरकार से सम्बन्धित होती हैं।

संघीय शासन की परिभाषा (Definition)-राबर्ट गैरन के अनुसार, “संघ एक प्रकार की सरकार है जिसमें सर्वोच्च सत्ता या राजनैतिक शक्ति का विभाजन केन्द्रीय तथा स्थानीय सरकारों में इस प्रकार होता है जिससे कि प्रत्येक राज्य अपने क्षेत्र में दूसरों से स्वतन्त्र रहता है।

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संघीय शासन की विशेषताएँ

(Characteristics of Federal Government)

(i) इसके अन्तर्गत केन्द्र व अन्य राज्य सरकारों के कार्यक्षेत्र एवं अधिकारों की स्पष्ट व्याख्या । रहती है।

(ii) इसके अन्तर्गत केन्द्रीय संविधान में सर्वोच्च सत्ता निहित रहती है। केन्द्र, राज्य अथवा स्थानीय सरकारों के बीच उत्पन्न किसी समस्या का समाधान संविधान के द्वारा किया जाता है।

(iii) राज्य सरकारों को शासन सम्बन्धी स्वतन्त्रता रहती है, परन्तु यह स्वतन्त्रता केन्द्रीय सरकार के अधीन रहती है।

(iv) कोई भी राज्य स्वेच्छा से अपने आप को केन्द्र से पृथक् नहीं कर सकता।

(v) देश के सभी नागरिकों के अधिकार समान रहते हैं।

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संघीय वित्तव्यवस्था का अर्थ

(Meaning of Federal Finance)

संघीय वित्त-व्यवस्था से आशय उस व्यवस्था से है जिसके अन्तर्गत आय तथा व्यय की सम्पूर्ण  मदों को केन्द्रीय या संघ सरकार, राज्य सरकारों तथा स्थानीय निकायों (Local bodies) के बीच बाँट दिया जाता है। इस व्यवस्था के अन्तर्गत तीनों इकाइयों को अपने-अपने क्षेत्र में आय प्राप्त करने और व्यय करने की पूर्ण स्वतन्त्रता होती है। डॉ० आर० एम० भार्गव के अनुसार, “संघीय वित्त से आशय केन्द्र तथा राज्य सरकारों के वित्तीय सम्बन्धों तथा उन दोनों के बीच समन्वय से लगाया जाता है।

संघीय वित्त की समस्याएँ  (Problems of Federal Finance)

1 कार्यों के अनुरूप वित्तीय साधनों का होना-केन्द्र और राज्य सरकारों के कार्य अलग-अलग होते हैं। अतः संघीय वित्त की पहली समस्या यह है कि दोनों प्रकार की सरकारों के बीच आय के साधनों का वितरण किस आधार पर किया जाये जिससे कि वे अपने कार्यों को भली प्रकार सम्पन्न कर सकें।

2. बदलती हुई परिस्थितियों के अनुसार साधनों का समायोजन-संघीय वित्त की दूसरी समस्या यह है कि बदलती हुई परिस्थितियों के अनुसार केन्द्र व राज्य के बीच साधनों का पुनर्वितरण तथा समायोजन किस प्रकार किया जाये।

3. सापेक्षिक साधन की आवश्यकता की समस्या-कुछ राज्य, दूसरे राज्यों की तुलना में निर्धन, कम विकसित अथवा पिछड़े हए होते हैं। अतः संघीय वित्त की तीसरी समस्या यह है कि किस आधार पर पिछड़े व अविकसित राज्यों को अधिक वित्तीय स्रोत अथवा अनुदान उपलब्ध कराये जाएँ।

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संघीय वित्त के सिद्धान्त

(Principles of Federal Finance)

केन्द्रीय सरकार, राज्य व स्थानीय सरकारों के बीच वित्तीय स्रोतों के बँटवारे के सम्बन्ध में कुछ सिद्धान्त प्रतिपादित किये गए हैं, जो निम्नलिखित हैं

1 स्वतन्त्रता का सिद्धान्त (Principle of Independence)-संघीय शासन-प्रणाली में प्रत्येक इकाई को आन्तरिक वित्तीय मामलों में पूर्ण स्वतन्त्रता होनी चाहिये। केन्द्रीय सरकार, राज्य सरकारों तथा स्थानीय सरकारों के आय के स्रोत पृथक-पृथक होने चाहिएँ तथा उन्हें अपने-अपने क्षेत्र में कर लगाने तथा ऋण लेने की स्वतन्त्रता होनी चाहिये। स्वतन्त्रता से यह भी तात्पर्य है कि केन्द्र और राज्य अपने द्वारा एकत्र आय को अपनी इच्छानुसार व्यय करने में भी पूर्ण स्वतन्त्र होने चाहिएँ। अन्य शब्दों में राज्य अपने राज्य की वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये आत्म-निर्भर होना चाहिये।

भारतवर्ष में संविधान द्वारा केन्द्र तथा राज्यों के बीच कार्यों का विभाजन तथा आय-व्यय की मदों का भी बंटवारा किया गया है। कुछ कर केन्द्रीय सरकार द्वारा लगाये जाते हैं। जैसे—आय-कर, पूँजी-कर, जबकि कुछ कर राज्य सरकारों द्वारा लगाये जाते हैं। जैसे—बिक्री कर, मालगुजारी आदि। परन्तु यह बँटवारा न्यायोचित नहीं किया गया है, क्योंकि केन्द्रीय सरकार के आय के मद लोचदार तथा राज्य सरकारों के आय के मद बेलोचदार हैं, अतः राज्य सरकारों को आर्थिक दृष्टि से कमजोर बनाया गया है। उनके व्यय के मद बराबर बढ़ते जा रहे हैं और उन्हें अपने दायित्वों को पूरा करने के लिए केन्द्र से आर्थिक सहायता और अनुदान की मांग करनी पड़ती है।

व्यवहार में पूर्ण स्वतन्त्रता सम्भव न होना-व्यवहार में पूर्ण स्वतन्त्रता सम्भव नहीं होती और राज्य सरकारों को संघ सरकार पर आश्रित रहना पड़ता है। इसके निम्नलिखित कारण हैं

(i) सभी महत्वपूर्ण एवं लोचपूर्ण आय के स्रोत केन्द्रीय सरकार के अधीन रहते हैं।

(ii) कुछ आय के ऐसे स्रोतों को संघ सरकार अपने अधिकार में रख लेती है जिनकी आय का एक निश्चित प्रतिशत भाग राज्य को दे दिया जाता है। उदाहरण के लिए, भारत में आय-कर, निगम-कर ऐसे ही आय स्रोत हैं।

(iii) केन्द्रीय सरकार राज्यों को समय-समय पर आवश्यकतानुसार अनुदान भी देती है।

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2. एकरूपता का सिद्धान्त (Principle of Uniformity)-एकरूपता शब्द के दो अर्थ लगाये जाते हैं प्रथम, तो यह कि केन्द्र सरकार जब राज्य सरकारों को अनुदान दे तो उस सम्बन्ध में एकरूपता की नीति का पालन करे। दूसरे, यह कि राज्य सरकारों को चाहिये कि वे संघ सरकार को समानता के आधार पर अपना-अपना अंशदान दें। अन्य शब्दों में, संघ सरकार को करों का भार सभी राज्यों पर समान रूप से डालना चाहिये अर्थात उनको दी जाने वाली राहतों या कटौतियों में कोई भेदभाव नहीं करना चाहिये, ताकि सभी राज्य समान रूप से वित्तीय भार को वहन कर सकें।

परन्तु व्यवहार में इस प्रकार की समानता लाना सम्भव नहीं होता, क्योंकि प्रत्येक राज्य के साधन तथा व्यय अलग-अलग होते हैं। दूसरे, सभी राज्यों की जनसंख्या तथा आर्थिक स्थिति भी समान नहीं तीसरे, आर्थिक दृष्टि से कुछ राज्य विकसित होते हैं, कुछ विकासशील तथा कुछ अविकसित होते. हैं। चौथे, विभिन्न राज्यों के निवासियों की कर-दान क्षमता अलग-अलग होती है। उदाहरण के लिए, असम राज्य, उत्तर-प्रदेश के समान केन्द्रीय सरकार को अंशदान नहीं दे सकता।

3. पर्याप्तता एवं लोच का सिद्धान्त (Principle of Adequacy and Elasticity)-पयाप्तता से आशय यह है कि प्रत्येक सरकार के अधिकार में इतने वित्तीय स्रोत हों कि वे न केवल अपनी वर्तमान की आवश्यकताओं, वरन भविष्य में उत्पन्न होने वाली आवश्यकताओं को भी पूरी कर सकें। सरजॉन लाथम फोरमर के अनुसार, “यदि एक संघीय व्यवस्था पूर्ण स्वतन्त्रता के साथ जीवित रहना चाहती है तो राज्यों के पास इतने साधन होने चाहिएँ जो उसके उत्तरदायित्वों को पूरा करने के लिये पर्याप्त हों।”

पर्याप्तता के साथ-साथ वित्तीय साधन लोचपूर्ण भी होने चाहिएँ अर्थात भविष्य में आवश्यकताओं में वृद्धि के साथ-साथ उन साधनों से अधिक आय प्राप्त की जा सके। डॉ० भार्गव (R.N. Bhargava) के अनुसार, “आर्थिक साधनों का विभाजन लोचपूर्ण व्यवस्था के रूप में होना चाहिये, क्योंकि कोई भी योजना, चाहे वह कितनी भी अच्छी क्यों हो, आने वाले प्रत्येक समय के लिये उपयुक्त नहीं हो सकती। अतः विभाजन की योजना में इस प्रकार के परिवर्तनों के लिये प्रबन्ध होना चाहिये जो राष्ट्रीय हित के लिए आवश्यक हों।

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व्यवहार में स्थिति इस सिद्धान्त के विपरीत पाई जाती है। राज्य सरकारों को व्यय के ऐसे मद दिये जाते हैं जिन पर व्यय की मात्रा प्रतिवर्ष बढ़ती जाती है, किन्तु उस अनुपात में आय की मात्रा नहीं बढ़ती। उदाहरण के लिये, भारतवर्ष में राज्य सरकारों का शिक्षा, स्वास्थ्य, पलिस तथा न्याय आदि पर व्यय निरन्तर बढ़ता जा रहा है, परन्तु आय के स्रोतों से आवश्यक मात्रा में आय प्राप्त नहीं होती। इसके विपरीत, केन्द्रीय सरकार के साधन लोचदार हैं जिनसे आवश्यकता पड़ने पर अधिक मात्रा में आय प्राप्त की जा सकती है।

विभिन्न राज्यों के बीच आय के साधनों का विभाजन करने में निम्न बातों पर ध्यान देना चाहिये-(i) विभिन्न सरकारों को (केन्द्रीय, राज्य व स्थानीय सरकारों) को अपना व्यय चलाने के लिए आय के ऐसे साधन दिये जाएँ कि वर्तमान आवश्यकताओं की पूर्ति के पश्चात् भविष्य के लिये कुछ बचाकर रख सकें। (ii) वित्तीय ढाँचा ऐसा होना चाहिये कि आवश्यकता पड़ने पर साधनों का पुनर्वितरण किया जा सके।

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4. प्रसासन की कुशलता का सिद्धान्त (Principle of Administrative Efficiency)प्रशासनिक कुशलता से आशय यह है कि वित्तीय प्रशासन ऐसा होना चाहिये जिसमें करदाताओं का हित सुरक्षित रहे, कर-वंचन की सम्भावना न हो, करों का दोहराव न हो, करारोपण का व्यापार तथा उद्योग पर बुरा प्रभाव न पड़े तथा करों को वसूल करने की व्यवस्था प्रभावशाली एवं मितव्ययी हो।

प्रो० अदारकर (Prof. Adarkar) ने प्रशासकीय मितव्ययिता के सिद्धान्त को अधिक महत्व दिया है, जबकि डॉ० भार्गव (Dr. Bhargava) ने इसी सिद्धान्त को कार्यकुशलता का सिद्धान्त कहा है। प्रो० सैलिगमैन (Prof. Seligman) के अनुसार, “चाहे कोई भी योजना कितनी ही ठीक प्रकार से क्यों बनाई जाये या न्याय के अमूर्त सिद्धान्तों से कितना ही मेल क्यों खाती हो, यदि वह प्रणाली प्रशासनिक दृष्टि से कार्यकुशल नहीं है तो वह अवश्य ही असफल सिद्ध होगी।

संघीय शासन में प्रशासनिक कुशलता एवं मितव्ययिता प्राप्त करने में निम्न बाधाएँ आती हैं

(i) विभिन्न सरकारों के बीच कार्यों एवं वित्तीय साधनों का स्पष्ट व उचित वितरण न होना।

(ii) करारोपण के नियम तथा सिद्धान्तों में एकरूपता का अभाव।

(iii) केन्द्र राज्यों के बीच परस्पर सहयोग न पाया जाना।

प्रशासन की कुशलता के लिये यह आवश्यक है कि एक राज्य में जो कर लगाये जाएँ उनका प्रभाव अन्य राज्यों की जनता पर न पड़े। दूसरे, जो कर अन्तर्राज्य क्षेत्र के हों उनको केन्द्रीय सरकार लगाये तथा राज्य या स्थानीय महत्व के करों की व्यवस्था राज्य सरकार करे। इसी आधार पर भारत में आय-कर, उत्पादन-कर तथा सीमा-कर लगाने का अधिकार केन्द्रीय सरकार को दिया गया है, जबकि बिक्री-कर, मनोरंजन-कर, मालगुजारी आदि कर लगाने का अधिकार राज्यों को है।

5. हस्तान्तरण का सिद्धान्त (Principle of Transference)-संघीय वित्त-व्यवस्था को सफल बनाने के लिये डॉ० बी० आर० मिश्रा इस सिद्धान्त के पालन करने पर बल देते हैं। उनके अनुसार, “संघ तथा राज्य सरकारों में साधनों का आदर्श विभाजन विभिन्न राज्यों में रह रहे व्यक्तियों के राष्ट्रीय न्यूनतम सिद्धान्त के अनुसार होना चाहिये। संघीय राज्य में यह कार्य धनी क्षेत्रों में निर्धन क्षेत्रों को वित्तीय साधनों के अन्तरण द्वारा किया जा सकता है।संघ के विभिन्न राज्यों में अनेक असमानताएँ पाई जाती हैं। जैसेभौगोलिक स्थिति की भिन्नता, आर्थिक स्थिति की भिन्नता आदि। अन्य शब्दों में कुछ राज्य धनी होते हैं, कुछ निर्धन होते हैं, कुछ राज्य विकसित होते हैं और कुछ अविकसित होते हैं।

अतः केन्द्रीय सरकार का यह कर्त्तव्य है कि वह धनी राज्यों से अधिक कर लेकर वित्तीय साधनों का अन्तरण निर्धन राज्यों की ओर करे। दूसरे, निर्धन राज्यों को अपेक्षाकृत अधिक अनुदान दे। इससे प्रत्येक राज्य के व्यक्ति अपना जीवन एक न्यूनतम स्तर पर बिताने में समर्थ हो सकेंगे। हमारे देश में इसको करने के लिए वित्त आयोग नियुक्त करने की व्यवस्था है।

परन्तु इस सिद्धान्त के पालन करने में एक व्यावहारिक कठिनाई यह आती है कि प्रान्तीय भावना से वशीभूत होकर धनी राज्यों के नेतागण इस अन्तरण का कड़ा विरोध करते हैं जो राष्ट्रीय हित में उचित नहीं है।

6. संघीय नियन्त्रण तथा निरीक्षण का सिद्धान्त (Principle of Federal Control and Supervision)-देश की एकता को बनाये रखने के लिये यह आवश्यक है कि केन्द्रीय एवं राज्य सरकारें राजस्व के समान सिद्धान्तों का पालन करें तथा इसकी देखभाल एवं नियन्त्रण का कार्य केन्द्रीय सरकार को सौंपा जाये। केन्द्र एक ऐसी राजकोषीय नीति बनाये जिसका वह स्वयं भी तथा सभी राज्य पालन करें। इसके साथ यह भी व्यवस्था की जाये कि जो राज्य इस राजकोषीय नीति का उल्लंघन करें उनके विरुद्ध उचित कार्यवाही हो।

केन्द्रीय सरकार को यह भी देखना चाहिये कि वह जो अनुदान या आर्थिक सहायता, जिस कार्य के लिए राज्यों को देती है, उनका प्रयोग उसी कार्य में किया जाये अन्यथा राज्य द्वारा इस अनुदान तथा सहायता का दुरुपयोग किया जा सकता है।

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7. समन्वय का सिद्धान्त (Principle of Co-ordination)-पाल स्टुडैन्क के अनुसार, “संघ तथा राज्यों में समन्वय का सिद्धान्त केवल कर लगाने तक ही सीमित नहीं रहना चाहिये, वरन् संघ तथा राज्यों के बजट, पूँजीगत व्यय तथा साख सम्बन्धी क्रियाओं में भी समन्वय होना चाहिये तथा समन्वय प्रबन्ध क्रियाओं के साथ भी होना चाहिये।”

8. समानता का सिद्धान्त (Princple of Equity)-एडम स्मिथ (Adam Smith) द्वारा प्रतिपादित करारोपण में समानता के सिद्धान्त को संघीय वित्तव्यवस्था में भी लागू करना चाहिये। केन्द्र राज्यों के बीच करों का वितरण इस प्रकार किया जाये कि दोनों प्रकार के करों का भार प्रत्येक करदाता पर समान रूप से पड़े अर्थात् दोनों प्रकार के करों के कारण प्रत्येक करदाता का सीमान्त त्याग लगभग बराबर हो।

केन्द्रीय तथा राज्य सरकारों के बीच वित्तीय साधनों का विभाजन

(Allocation of Financial Resources between Central and State Governments)

केन्द्रीय सरकार और राज्य सरकारों के बीच कार्य-विभाजन के पश्चात् यह समस्या उत्पन्न होती है कि उन कार्यों को सुचारु रूप से सम्पन्न करने के लिये आय के कौन-से साधन केन्द्रीय सरकार को दिये जाएँ और कौन-से राज्य सरकारों को, इस सम्बन्ध में निम्नलिखित बातें विचारणीय हैं

(i) वित्तीय साधनों का बँटवारा उन्हीं आधारों पर किया जाना चाहिये जिनके अनुसार केन्द्र व राज्यों के बीच कार्यों का विभाजन किया गया है।

(ii) विभिन्न सरकारों के बीच साधनों का आबंटन उनकी वर्तमान तथा भावी आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर किया जाये, ताकि दोनों सरकारें आत्मनिर्भर रहकर अपनी-अपनी आवश्यकताओं को कुशलतापूर्वक पूरा कर सकें।

परन्तु आधुनिक अर्थव्यवस्थाओं की कुछ अपनी-अपनी विशेषताएँ हैं जिनके कारण ऐसा करना सम्भव नहीं है। एक ओर तो ऐसे करों की संख्या तथा महत्ता बढ़ती जा रही है जिन्हें केवल राष्ट्रीय स्तर पर ही कुशलतापूर्वक लगाया जा सकता है। जैसेआय-कर, सीमा-कर तथा उत्पादन-कर आदि। दूसरी ओर राज्यों द्वारा किये जाने वाले कार्यों में निरन्तर वृद्धि होती जा रही है। अतः केन्द्र व राज्य सरकारों के बीच वित्तीय साधनों का समायोजन करना आवश्यक है।

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वित्त समायोजन के प्रमुख नियम/अभिहस्तांकन विधि

(Principles of Financial Adjustment/Assignment Method)

केन्द्रीय सरकार तथा राज्य सरकारों में वित्तीय समायोजन की आवश्यकता होती है। वित्तीय समायोजन के प्रमुख नियम इस प्रकार हैं

(1) करआय का विभाजन (Division of Tax Revenue)-शासन की आय का एक प्रमुख साधारण करारोपण है। केन्द्रीय सरकार कर लगाती है और स्वयं वसूल करती है, परन्तु उससे प्राप्त आय को राज्यों में वितरित कर देती है। इस विधि को अभिहस्तांकन (Assignments) विधि कहते हैं। प्रो० अदारकार (Prof. Adarkar) ने इस सम्बन्ध में निम्न उपाय बताये हैं

(1) केन्द्र सरकार आय-कर का एक निश्चित प्रतिशत अपने पास रखकर शेष राशि को राज्य सरकारों के बीच आनुपातिक रूप में बाँट दे। भारत में आय-कर और उत्पादन-कर से प्राप्त होने वाली। आय को इसी नियम के अनुसार बाँटा जाता है।

(ii) संघ सरकार आय-कर की एक निश्चित धनराशि अपने पास रखकर शेष को राज्य सरकारों में वितरित कर दे।

(iii) संघ सरकार करों को संग्रह करे और सम्पूर्ण प्राप्त राशि राज्य सरकारों को बाँट दे। विभिन्न राज्य सरकारों के बीच करों द्वारा प्राप्त आय का वितरण करने के लिये अनेक आधार हो सकते है। जैसे-राज्य की जनसंख्या, राज्य में संग्रह की गई राशि, राज्य की करदान-क्षमता, राज्य का क्षेत्रफल, राज्य की आर्थिक प्रगति आदि। भारत में आय-कर से प्राप्त की गई धनराशि का विभिन्न राज्यों में वितरण दो आधारों पर किया जाता है-6) राज्य की जनसंख्या तथा (ii) राज्य में संग्रह की गई राशि।।

अभिहस्तांकन विधि की कठिनाइयाँ (Difficulties in Assignments) आय-कर विभाजन की अभिहस्तांकन विधि बड़ी सरल व न्यायसंगत प्रतीत होती है, परन्तु इसमें निम्नलिखित व्यावहारिक कठिनाइयाँ हैं

(1) यदि कर एकत्र करने वाली सरकार को उस कर से प्राप्त आय के उपभोग करने की स्वतन्त्रता नहीं होती, तो वह उसको एकत्र करने में रुचि नहीं लेती।

(ii) यदि कर संग्रह करने वाली सरकार का अंश पहले से ही निश्चित कर दिया जाता है तो कर-संग्रह करने में उसकी रुचि और भी कम हो जाती है।

(iii) विभिन्न राज्य सरकारें अधिकाधिक धन प्राप्त करने के लिये प्रयत्नशील हो जाती हैं जिससे परस्पर मनोमालिन्य बढ़ने की सम्भावना होती है।

भारतवर्ष में हर पाँच वर्ष बाद राष्ट्रपति वित्त आयोग की नियुक्ति करता है। वित्त आयोग केन्द्र और राज्यों के बीच करों से प्राप्त आय के वितरण का आधार निश्चित करता है।

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(2) अनुपूरक अथवा अतिरिक्त कर (Supplementary Taxes)-समायोजन के दूसरे नियम में कर के ऊपर कर लगाया जाता है। इस विधि को अतिरिक्त-कर विधि (Additional Tax Method) अथवा उपकर विधि (Surcharge Tax Method) कहते हैं। इस विधि में केन्द्रीय सरकार जो कर लगाती है उससे प्राप्त आय को वह अपने पास रखती है, परन्तु प्रान्तीय सरकार उस कर पर अतिरिक्त कर लगा देती है अथवा यदि कोई कर राज्य सरकार द्वारा लगाया जाता है तो उस पर केन्द्रीय सरकार अतिरिक्त कर लगा देती है।

अतिरिक्त कर की दूसरी विधि उचित नहीं है, क्योंकि राज्य सरकारें समान दर से करारोपण नहीं करतीं जिस कारण संघ सरकार द्वारा अतिरिक्त करारोपण में एकरूपता नहीं आती। अतिरिक्त करारोपण की प्रथम विधि उत्तम मानी जाती है, क्योंकि इसमें विभिन्न राज्य सरकारें अतिरिक्त करारोपण द्वारा पर्याप्त आय प्राप्त कर सकती हैं। दूसरे, राज्य सरकारें ही इस प्रकार के अतिरिक्त कर-भार को करदाताओं की भुगतान-क्षमता के आधार पर अपने-अपने राज्यों में न्यायपूर्ण ढंग से वितरित कर सकती हैं, तीसरे, केन्द्रीय सरकार के वित्तीय साधन अधिक लोचदार होते हैं।

अनुपूरक करविधि के दोष (Defects of Supplementary Taxes)-(i) करारोपण का भार इतना बढ़ सकता है कि करदाता वहन करने में असमर्थ हों, (ii) कर की दर ऊँची हो जाने पर देश में उत्पादन, वितरण तथा बचत पर बुरा प्रभाव पड़ेगा, (iii) संघ सरकार एवं राज्य सरकारों के बीच संघर्ष की सम्भावना बढ़ जाती है।

(3) संघीय आर्थिक सहायता अथवा अनुदान (Federal Financial Help of Grants or Aid)-संघीय शासन-व्यवस्था में केन्द्रीय सरकार सभी राज्य सरकारों की संरक्षक होती है। अतः। समय-समय पर केन्द्रीय सरकार राज्य सरकारों को आर्थिक सहायता देती रहती है। यह आर्थिक सहायता अनुदान के रूप में होती है। अनुदान शर्त-रहित अथवा शर्त-सहित हो सकता है। दूसरे यह स्थायी अथवा अस्थायी भी हो सकता है। प्रायः पिछड़े राज्यों को इस प्रकार के अनुदान दिये जाते हैं। शर्त-रहित अनुदान सामान्य आर्थिक सहायता के रूप में दिया जाता है। शर्त-सहित अनुदान किसी योजना विशेष की पूर्ति के लिये दिया जाता है। स्थायी अनुदान राज्य सरकारों को उस समय तक दिये जाते हैं जब तक राज्यों की आर्थिक स्थिति सुधर नहीं जाती। अस्थायी अनुदान थोड़े समय के लिये दिये जाते हैं। इनके अतिरिक्त सहयोगिक (Matching) तथा असहयोगिक (Non-matching) अनुदान भी होते हैं। सहयोगिक अनुदान प्रायः विकास कार्यों के लिये दिये जाते हैं। भारतवर्ष में योजना आयोग के समक्ष राज्य सरकारें इस प्रकार के अनुदानों की माँग करती हैं।

संघीय अनुदानों का उद्देश्य (Aims of Federal Grants)-इन अनुदानों का उद्देश्य राज्यों की अपर्याप्त आय के अभाव की पूर्ति करना तथा विभिन्न राज्यों की वित्त-व्यवस्था में सन्तुलन लाना है, परन्तु शर्त-रहित अनुदान में केन्द्र सरकार के समक्ष यह समस्या रहती है कि वह विभिन्न राज्यों का भाग कैसे निर्धारित करें, ताकि राज्यों में आपस में मनमुटाव न हो। इस समस्या के निराकरण के लिये नेहरू और अदारकर रिपोर्ट (Nehru and Adarkar Report) में बताया गया है कि, “अनुदानों को देने में सभी उपयुक्त घटनाओं पर विचार करना चाहिये जिसमें जनसंख्या का आकार, प्राकृतिक सम्पदा, सम्बन्धित क्षेत्र का पिछड़ापन, जनसंख्या का क्षेत्रीय घनत्व, प्रति व्यक्ति आय, राज्य के व्यक्तियों का धन तथा उनकी मौलिक आवश्यकताओं का समावेश हो।

(4) राज्य द्वारा संघ सरकार को अनुदान (States’ Grants to the Centre)-जिस प्रकार केन्द्र सरकार राज्यों को अनुदान देती है उसी प्रकार राज्य सरकारें भी केन्द्रीय सरकार को अनुदान दे सकती हैं। भारतवर्ष में यह विधि 1919 में लागू की गई थी, परन्तु थोड़े समय के बाद ही इस विधि को समाप्त कर दिया गया। यह प्रणाली सबसे पहले संयुक्त राज्य अमेरिका में अपनाई गई थी, परन्तु यह विधि हानिकारक भी है तथा अवांछनीय भी। इसके दोष निम्नलिखित हैं

(i) राज्य के वित्तीय साधन इतने पर्याप्त नहीं होते कि केन्द्र को आर्थिक सहायता दे सके।

(ii) इस विधि में केन्द्रीय सरकार राज्य सरकारों पर निर्भर हो जाती है, परन्तु केन्द्र को आर्थिक दृष्टि से कमजोर रखना उचित नहीं है।

अतः वर्तमान समय में यह विधि किसी भी संघीय शासन-व्यवस्था में प्रचलित नहीं है।

निष्कर्षउपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि संघात्मक वित्त-व्यवस्था में संघ तथा राज्य सरकारों के बीच वित्तीय विभाजन में अनेक कठिनाइयाँ आती हैं, जिन्हें केवल आपसी सहयोग से ही हल किया जा सकता है।

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भारतीय संविधान के अन्तर्गत संघीय वित्त

(Federal Finance under Indian Constitution)

स्वतन्त्र भारत का संविधान 26 जनवरी, 1950 से लागू हुआ। यह संविधान एक संघात्मक शासन विधान है और इसमें अनेक राज्य सम्मिलित हैं। शासन को ठीक प्रकार से चलाने के लिये संघ और राज्यों के अधिकारों का विभाजन तीन सूचियाँ बनाकर किया गया है, जो निम्नति

1 संघीय सची (Union List)-इस सची में 97 विषय दिये गये हैं जिन पर केन्द्रीय सरकार को अधिनियम बनाने का अधिकार है। इस सूची में मुख्य विषय इस प्रकार हैं-सुरक्षा, अणु-शक्ति, विदेशी, मामले, रेल, जलयान व हवाई परिवहन, डाक-तार मुद्रण व सिक्का ढलाई, विदेशी व्यापार, रिजर्व बैंक, अन्य बैंक, बीमा कम्पनी. खनिज आदि। ।

2. राज्य सूची (State List)-इस सूची में 66 विषय दिये गये हैं जिस पर राज्यों को अधिनियम बनाने का अधिकार है। इस सूची के मुख्य विषय इस प्रकार हैं-पुलिस, जेल, न्याय प्रबन्ध, स्थानीय प्रशासन, सार्वजनिक स्वास्थ्य, सड़क परिवहन, पुल निर्माण, कृषि व वन, राज्य के भीतर का व्यापार व उद्योग आदि।

3. समवर्ती सूची (Concurrent List)-इस सची में 47 विषय हैं जिन पर केन्द्र और राज्यों की सरकार दोनों को अधिनियम बनाने का अधिकार है, परन्तु राज्यों की अपेक्षा केन्द्रीय अधिनियम को प्राथमिकता दी जाती है। इस सूची के मुख्य विषय हैं-विवाह और तलाक, खाद्य-सामग्री में मिलावट,आर्थिक और सामाजिक नियोजन, सामाजिक सुरक्षा, मूल्य-नियन्त्रण, बिजली, कारखाने, छापेखाने तथा अखबार आदि।

देश की वित्तीय-व्यवस्था को चलाने के लिये एक वित्तीय-विभाग है जिसका प्रमुख वित्त मन्त्री (Finance Minister) होता है। संविधान की धारा 280 के अनुसार राष्ट्रपति को वित्तीय आयोग (Financial Commission) नियुक्त करने का अधिकार दिया गया है। वित्त आयोग का कार्य देश की वित्त-व्यवस्था में सुधार करने के लिये सुझाव देना है। इस समय तक राष्ट्रपति तेरह वित्त आयोगों की नियुक्ति कर चुके हैं।

संविधान के अन्तर्गत वित्तीय साधनों का वितरण

(Distribution of Financial Resources under the Constitution)

संघीय शासन के अनुरूप भारत की वित्त-व्यवस्था संघीय है। वित्तीय साधनों को भी तीन श्रेणियों में बाँटा गया है। आय के कछ स्रोत केन्द्र को तथा कुछ अन्य स्रोत राज्यों को दिये गये है। कुछ कर एस भी होते हैं जिनको केन्द्र ही लगाता और केन्द्र ही वसूल करता है, परन्तु उनकी कुल आय अथवा उसके कुछ भाग का बँटवारा राज्यों में होता है। यह बँटवारा वित्त आयोग की रिपोर्ट के अनुसार होता है।

भारतीय संविधान द्वारा केन्द्र तथा राज्यों के बीच जो वित्तीय सम्बन्ध स्थापित किये गये हैं उनकी मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

() केन्द्रीय सरकार की आय के साधन (Union Sources of Revenue)-इस श्रेणी के अन्तर्गत आने वाली आय की प्रमुख मदें सातवीं अनुसूची (VII Schedule) के अनुसार हैं। पहली सूची में निम्नलिखित करों को शामिल किया गया है

(i) आय-कर (कृषि-आय को छोड़कर)।

(ii) आयात व निर्यात-कर (सीमा-कर)।

(iii) तम्बाकू तथा अन्य वस्तुओं पर उत्पादन-कर (शराब, अफीम तथा अन्य मादक औषधियों को छोड़कर)

(iv) प्रमण्डल-कर।

(v) कृषि भूमि को छोड़कर व्यक्तियों तथा कम्पनियों की पूँजी व सम्पत्ति कर।

(vi) कषि भमि को छोडकर अन्य सम्पत्तियों पर सम्पदा और उत्तराधिकार कर।

(vii) रेल, समुद्र और वायुमार्गों द्वारा ढोये गये माल और यात्रियों पर चुंगी कर।

(viii) बेचान साध्य प्रलेखों, बीमा-पत्र, अंश हस्तान्तरण, ऋण-पत्र आदि पर मुद्रांक-कर।

(ix) समाचार पत्रों के क्रय-विक्रय तथा उनमें छपे विज्ञापनों पर कर।

(x) अंतर्राज्यीय क्रय-विक्रय पर कर।

(xi) अंश बाजार एवं वायदे के बाजार में किये गये सौदों पर मुद्रांक-कर को छोड़कर अन्य कर।

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() राज्य सरकारों की आय के साधन (State Sources of Revenue)-इस श्रेणी में आने वाली आय की प्रमुख मदें सातवीं अनूसूची (VII Schedule) की दूसरी सूची के अनुसार हैं। राज्य सरकारों की कर सूची इस प्रकार है

(i) भूमि पर लगान।

(ii) कृषि पर आय-कर।

(iii) कृषि भूमि के उत्तराधिकार पर कर।

(vi) कृषि भूमि पर सम्पदा-कर।

(v) भूमि तथा मकानों पर कर।

(vi) खनिज के खनन पर कर।

(vii) राज्यों में निर्मित मादक पदार्थों पर कर।

(viii) विद्युत उत्पाद तथा उपभोग पर कर।

(ix) समाचार-पत्रों को छोड़कर अन्य वस्तुओं के क्रय-विक्रय पर कर।

(x) विज्ञापन पर कर (समाचार-पत्रों के अतिरिक्त)

(xi) अतिरिक्त जल तथा स्थल मार्गों के यात्रियों तथा माल पर कर।

(xii) विभिन्न प्रकार की गाड़ियों पर कर।

(xii) पशुओं तथा नावों पर कर।

(xiv) व्यवसाय पर कर।

(xv) मनोरंजन, शर्त एवं जुएँ पर कर।

(xvi) वित्तीय प्रलेखों को छोड़कर प्रलेखों पर मुद्रांक-कर।

करों को वसूल करने वितरण करने वाले सम्बन्धी नियम

संविधान की धारा 268, 269, 270 तथा 271 आदि में इन नियमों का उल्लेख किया है।

धारा 268-वे कर जो केन्द्रीय सरकार द्वारा समस्त देश में एकरूपता लाने के लिये लगाये जाएँगे, परन्तु राज्यों द्वारा वसूल किये जाएँगे और उनकी पूरी आय भी राज्यों के पास रहेगी विनिमय विपत्र, हण्डी, बीमा पत्र, ऋण-पत्रों आदि पर लगाया गया स्टाम्प-कर तथा चिकित्सा व शृंगार सम्बन्धी वस्तुओं पर उत्पादन-कर आदि।

धारा 269-वे कर जो केन्द्रीय सरकार द्वारा लगाये व वसूल किये जाएँगे, परन्तु उनसे प्राप्त पूरी आय संसद द्वारा बनाये गये नियमों के अनुसार राज्यों में बाँट दी जायेगी: जैसे-

(i) सम्पत्ति के उत्तराधिकारी पर लगाया जाने वाला कर (क्रषि भूमि को) छोड़कर।

(ii) सम्पत्ति पर मृत्यु-कर (कृषि भूमि को छोड़कर)।

(iii) रेल के किराये व भाई पर कर।

(iv) समाचार-पत्रों के क्रय-विक्रय तथा उनमें प्रकाशित होने वाले विज्ञापनों पर कर।

(v) शेयर बाजार के लेन-देन सौदों पर कर।

(vi) रेल, जल व वायु मार्ग द्वारा ले जाये गये माल व यात्रियों पर सीमा कर।

धारा 270-वे कर जो केन्द्र द्वारा लगाये व वसूल किये जाएँगे और जिनका वितरण राज्य और केन्द्र के बीच ऐसे सिद्धान्तों के अनुरूप होगा जो राष्ट्रीय वित्त आयोग की सिफारिश के आधार पर निर्धारित करेंगे; जैसे-आय-कर (प्रमण्डल कर को छोड़कर), संघीय उत्पादन शुल्क (चिकित्सा एवं श्रृंगार सम्बन्धी वस्तुओं को छोड़कर)। (1) संतुलनकारी तत्त्व (Balancing Factors)

1 सहायता अनुदान (Grants-in-aid)-भारत में कुछ राज्य आर्थिक दृष्टि से पिछड़े हुए हैं और उनके विकास के लिये जितने धन की आवश्यकता होती है उतना करों के द्वारा वसूल नहीं हो पाता। अतः केन्द्रीय सरकार उन्हें प्रतिवर्ष कुछ राशि अनुदान (Grant) के रूप में देती है। ये राशियाँ (प्रतिशत) वित्त आयोग की सिफारिश के अनुसार निर्धारित की जाती हैं। संविधान की धारा 282 के अन्तर्गत भी केन्द्र अथवा राज्य सरकारें अनुदान दे सकती हैं। ये अनुदान उन विशेष कार्यों के लिये दिये जा सकते हैं जो केन्द्र अथवा राज्य सरकार के अधिकार क्षेत्र में हैं।

2. अधिभार (Surcharge)-केन्द्रीय सरकार को यह अधिकार है कि वह किसी भी कर पर, जिसकी प्राप्ति राज्यों को होगी, अधिभार लगा सकती है। ऐसे अधिभारों से प्राप्त आय पर केन्द्रीय सरकार का अधिकार होगा।

3. आयकर एवं उत्पादन करों का विभाजन (Division of Income Tax and Excise Duties)-कृषि आयों को छोड़कर अन्य सभी आयों पर लगने वाले करों और संघीय उत्पादन करों से आय को केन्द्र और राज्यों के बीच बाँटने की व्यवस्था है।

4. जूट निर्यात कर के बदले में क्षतिपूर्ति (Grants in-aid in Lieu of Jute Export Duty)-पहले राज्य सरकार जूट और जूट सामग्री पर निर्यात कर लगाया करती थी। अब यह निर्यात कर केन्द्र दारा लगाया जाता है और केन्द्र राज्यों को इसके बदले में क्षतिपूर्ति अनुदान के रूप में देती है।

5. ऋण (Loan)-भारतीय संविधान की धारा 296 (2) के अनुसार भारत सरकार द्वारा किसी भी राज्य सरकार को ऋण की रकम संघनित निधि में से दी जाती है।

यदि राज्य सरकार ने केन्द्रीय सरकार से ऋण ले रखे हैं तो वह भारत सरकार की पूर्व अनुमति लिये बिना बाजार से अथवा अन्यत्र ऋण नहीं ले सकती। राज्य सरकार को नये ऋण लेने की अनुमति देते समय भारत सरकार कुछ शर्ते लगा सकती है।

राज्य सरकारों को प्रायः योजनाओं की पूर्ति के लिये ऋण दिये जाते हैं। ऐसे ऋण अथवा अनुदान प्रायः मासिक किस्तों में दिये जाते हैं।

केन्द्र एवं राज्यों के वित्तीय सम्बन्धों का मूल्यांकन

(Evaluation of the Financial Relations between Centre and States)

भारतीय संविधान में संघ तथा राज्य सरकारों के बीच वित्तीय सम्बन्धों की व्यवस्था व्यापक रूप से की गई है जिसके कारण बहुत से संघर्षों व मनमुटावों से मुक्ति मिल गयी है। दूसरे वित्त आयोग की नियुक्ति के कारण केन्द्र तथा राज्यों के वित्तीय सम्बन्धों में एक मौलिक लोच प्राप्त हुई है। तीसरे, सहायता अनुदान से क्षेत्रीय विषमताएँ कुछ कम हई हैं, परन्तु फिर भी राज्य-संघ वित्तीय सम्बन्धों में केन्द्रीयकरण की प्रवृत्ति दिखाई देती है अर्थात केन्द्र को वित्तीय मामलों में राज्यों से अधिक शक्तिशाली बनाया गया है, जैसा निम्न विवरण से स्पष्ट है

1 केन्द्र पर निर्भरता (Dependence on Centre)-राज्यों के लिए निर्धारित कर कम लोचपूर्ण एवं कम उत्पादक हैं जिसके कारण अधिकांश राज्यों की केन्द्र पर निर्भरता बढ़ती जा रही है। कभी-कभी यह केन्द्र एवं राज्यों के मध्य संघर्ष का कारण भी बन जाता है।

2. दायित्वों का अनुचित विभाजन (Improper Division of Responsibilities)-केन्द्र एवं राज्यों के मध्य दायित्वों का बँटवारा किसी वैज्ञानिक विधि पर आधारित नहीं था। इसलिए अनेक राज्य अधिक केन्द्रीय सहायता प्राप्त करने में सफल रहे।

3. कार्यों का अधिव्यापन (Over Lapping of Functions)-केन्द्रीय सहायता के क्षेत्र में वित्त आयोग एवं योजना आयोग के कार्यों में कुछ अधिव्यापन आ गया है। राजस्व अन्तराल के लिये अनुदान वित्त आयोग द्वारा दिया जाता है, योजना सहायता योजना आयोग द्वारा तथा राहत-सहायता केन्द्र सरकार द्वारा दी जाती है। कभी-कभी योजना आयोग अपने से बाहर के क्षेत्रों में भी हस्तक्षेप कर देता है।

4. केन्द्र द्वारा उपेक्षा (Neglect on the Part of Centre)-वित्त आयोग आय-कर से प्राप्त राजस्व को राज्यों में उसकी राजकोषीय आवश्यकताओं के अनुरूप बाँटता है जिसे मापने का कोई वैज्ञानिक पैमाना नहीं है। राज्य वितरण के इस आधार को तर्क संगत नहीं मानते।

5. केन्द्र द्वारा हस्तक्षेप (Intervention by the Centre)-केन्द्र सशक्त है, जबकि राज्य कमजोर। राज्यीय कार्यों में केन्द्र समय-समय पर हस्तक्षेप करता रहता है। विभिन्न प्रान्तीय विषयों में हस्तक्षेप करके केन्द्र ने प्रान्तीय स्वायत्तता का अपरदन किया है।

6. राज्यों पर अधिक ऋण बोझ (More Debt-burden on States)-राज्य वित्तीय सहायता के लिए प्रायः केन्द्र पर ही निर्भर रहते हैं। अधिकांश सहायता ऋण के रूप में मिलती है न कि अनुदान के रूप में। कार्यों में निरन्तर वृद्धि और साधनों की सीमितता के चलते राज्य ऋण-बोझ से लदे पड़े हैं।

7. आर्थिक पिछड़ेपन को भार (Weightage to Economic backwardness)-सर्वप्रथम छठे वित्त आयोग ने कर-आय हस्तान्तरण के मामले में आर्थिक पिछड़ेपन को महत्व दिया। इसके पूर्व साधन-वितरण में आर्थिक पिछड़ेपन की भागीदारी बिल्कुल नहीं थीं। अब भी इसका प्रतिशत कम है।

8. साधनअन्तराल का अनुमान अवैज्ञानिक (Unscientific Estimation of Resource-gap)आय और व्यय के अनुमानित अन्तर को साधन-अन्तराल कहते हैं। राज्य अधिकांशतः बड़े अनुदानों की प्राप्ति के लिए व्यय का अधिक और कर-आय का कम अनुमान लगाते हैं। इन्हीं आधारों पर वित्त आयोग सहायता अनुदान की सिफारिश करता है। इसे निर्धारित करना एक कठिन कार्य है।

9. स्वेच्छाचारी निर्णय (Arbitrary Decisions)-योजना आयोग द्वारा साधन-हस्तान्तरण की विधि वस्तुनिष्ठ विधि पर आधारित नहीं थी। सभी कुछ इस बात पर निर्भर करता था कि केन्द्र राज्यों के लिए क्या आवश्यक समझता है।

10. बढ़ते क्षेत्रीय असन्तुलन (Increasing Regional Imbalances)-केन्द्रीय साधनों के मनमाने स्थानान्तरण निर्णयों ने क्षेत्रीय असन्तुलनों को बढ़ाया है, प्रति व्यक्ति आय में असमानता बढ़ी है। व्यवहार, में धनी राज्यों ने प्रति व्यक्ति अनुदान की निर्धन राज्यों की तुलना में अधिक राशि प्राप्त की है।

11. निरन्तरता का अभाव (Lack of Consistency) केन्द्र से राज्यों को साधन स्थानान्तरित करने की प्रक्रिया में निरन्तरता का अभाव रहा है, कर-आय वितरण के प्रतिशत में भिन्नता रही है और आर्थिक पिछड़ेपन के तत्त्व को भिन्न-भिन्न भारिता दी गई है।

डी० टी० लकड़वाला (D.T. Lakadwala) ने केन्द्र और राज्यों के मध्य वित्तीय सम्बन्धों के बारे में लिखा है कि “कठिनाई इसलिये उत्पन्न होती है कि राज्यों को जितने कार्य और उत्तरदायित्व सौंपे जाते हैं उनके अनुपात में उन्हें वित्तीय-साधन देने के सिद्धान्त का पालन नहीं किया जाता। परिणामतः राज्यों पर वित्तीय बोझ बढ़ते जा रहे हैं। दूसरी ओर राष्ट्रीय समन्वय के सिद्धान्त के आधार पर आय के अधिकांश प्रगतिशील साधन केन्द्रीय सरकार के पास रह जाते हैं। इन्हीं कारणों से संघीय व्यवस्था में अतिरिक्त वित्तीय-समस्याएँ बढ़ती हैं।”

केन्द्र और राज्यों के वित्तीय सम्बन्धों के विषय में सुधार के सुझाव

(Suggestions for Improvement)

केन्द्र और राज्यों के बीच साधनों के वितरण की व्यवस्था में सुधार लाने तथा राज्यों की आय के साधनों में वृद्धि करने के लिये निम्न सुझाव दिये जा सकते हैं

(1) देश में एक स्थायी वित्त आयोग की नियुक्ति की जाये तथा इसे व्यापक अधिकार प्रदान किये जाएँ। वित्त आयोग की नियुक्ति हर पाँच वर्ष बाद की जाती है।

(2) वित्त-आयोग और योजना-आयोग दोनों के कार्यों में समन्वय स्थापित किया जाये। वित्त-आयोग राज्यों की गैर योजना आवश्यकताओं का अनुमान लगाता है, तथा योजना आयोग योजनागत आवश्यकताओं का। इससे कार्य में दोबारगी होती है।

(3) वित्तीय साधनों के वितरण के आधारों में सुधार होना चाहिये। वर्षों से केन्द्र से राज्यों को दी जाने वाली राशि जनसंख्या अथवा कर-वसूली के आधार पर बाँटी जाती रही है। यह आधार दोषपूर्ण है। कोई ऐसा आधार बनाया जाये जिससे आर्थिक दृष्टि से विपन्न राज्यों को अधिक सहायता मिल सके।

(4) वित्तीय करों में राज्यों को अधिक भाग मिलना चाहिये।

(5) राज्य सरकारों को कृषि-क्षेत्रों पर कर लगाकर अपनी आय में वृद्धि करनी चाहिये।

(6) केन्द्रीय सरकार द्वारा राज्यों को दिये गये ऋणों के भार को कम करना चाहिये। इसके लिये ऋण वापसी की अवधि बढ़ाई जा सकती है अथवा ऋण का एक निश्चित भाग समाप्त किया जा सकता

(7) विभाजन योग्य संग्रह में अधिक करों को लाया जाना चाहिए तथा राज्यों को इसका बड़ा भाग दिया जाना चाहिए।

(8) अनुदानों का विवरण प्रतिबन्ध रहित एवं निष्पक्ष होना चाहिए।

(9) राष्ट्रीय विकास परिषद् को औपचारिक बनाकर, उसका पुनर्गठन किया जाना चाहिए।

(10) वित्त आयोग के कार्यक्षेत्र को विस्तृत किया जाना चाहिए।

वर्तमान समय संकट का काल है। कुछ राज्यों में अलगाव की प्रवृत्ति बढ़ रही है। जनता में असन्तोष बढ़ रहा है। इस स्थिति में यह आवश्यक है कि केन्द्र और राज्यों के बीच स्वस्थ और सहयोगपूर्ण सम्बन्ध हों। अतः उपरोक्त सुझावों पर यथाशीघ्र अमल करने का प्रयास किया जाये।

वित्त आयोग

(Finance Commissions)

संविधान की धारा 280 के अन्तर्गत वित्त आयोग की संस्था को स्थापित करने का प्रावधान है। यह एक अर्द्धन्यायिक संस्था होगी जो केन्द्र तथा राज्यों के वित्तीय सम्बन्धों की समीक्षा करेगी। इस सम्बन्ध में संविधान के अनुच्छेद 280 के अन्तर्गत निम्न प्रावधान हैं

1 राष्ट्रपति एक वित्त आयोग की नियक्ति कर सकता है।

2. राष्ट्रपति प्रत्येक 5 वर्ष बाद या यदि उचित समझे तो उससे पहले भी एक वित्त आयोग की नियुक्ति कर सकता है जिसमें एक अध्यक्ष तथा चार सदस्य होने चाहिए।

वित्त आयोग के कार्य

(Functions of Finance Commission)

वित्त आयोग अनुच्छेद 280 (8) के अनुसार वित्त आयोग के निम्न कार्य हैं

सुझावात्मक कार्य (Suggestive Functions)

1. केन्द्र और प्रान्तों के बीच विभाजन योग्य शुद्ध आय को विभाजित करने सम्बन्धी विधि का सुझाव और उसका आय के भाग के अनुसार निर्धारण।

2. संघ सरकार द्वारा किसी प्रान्त के साथ, अनुच्छेद 178 अथवा अनुच्छेद 306 की (v) धारा के अधीन, पहली अनुसूची के B भाग के अनुसार किये गये किसी समझौते की शर्तों में कोई भी संशोधन अथवा उसे चालू रखना।

3. भारत की संचित निधि से विभिन्न प्रान्तों को दिये जाने वाले सहायता/अनुदान सम्बन्धी नियमों का निर्माण।

4. देश के सुदृढ़ वित्तीय हितों के सम्बन्ध में भारत के राष्ट्रपति द्वारा वित्त आयोग को भेजा गया कोई भी विषय।

सिफारिशें करना (Making Recommendations)

1. केन्द्र एवं प्रान्तों के बीच करों से प्राप्त शुद्ध आय के वितरण सम्बन्धी प्रतिशतता।

2. इस प्रतिशतता में विभिन्न प्रान्तों के भागों का निर्धारण।

3. प्रान्तों के बीच भारत सरकार के संचित कोष में से दिये जाने वाले सहायता अनुदानों को प्रशस्ति करने वाले नियमों का निर्धारण।

4. भाग B के प्रान्तों के साथ आन्तरिक सीमा एवं उत्पादन शुल्क लगाने सम्बन्धी समझौते की शर्तों में संशोधन अथवा चालू रखना।

5. जनजातीय क्षेत्रों में अनुदान।

6. किसी प्रान्त के लिए विशेष अनुदान।

भारत में अब तक कुल 13 वित्त आयोगों की नियुक्ति की जा चुकी है

सारणी

वित्त आयोग नियुक्ति वर्ष समीक्षा काल प्रत्वेदन वर्ष अध्यक्ष का नाम
पहला 1950 1952-57 1951

 

क्षी के सी नियोगी
दूसरा 1956 1957-62 1957

 

क्षी को संस्थानम
तीसरा 1960 1962-66 1961

 

क्षी ए के चन्दा
चौथा 1964 1966-69

 

1965

 

क्षी पी वी राज मन्नार
पाँचवा 1968 1969-74

 

1969

 

क्षी महावीर त्यागी
छठा 1972 1974-79

 

1973

 

क्षी बह्रानन्द रेड्री
सातवाँ 1977 1979-83

 

1978

 

क्षी जो एम शेटल
आठवाँ 1982 1984-89

 

1984

 

क्षी वाई वी चह्राण
नौवाँ 1987 1990-95

 

1990

 

क्षी एन के पी साल्वे
दसवाँ 1992 1995-2000

 

1993

 

क्षी के सी पन्त
ग्यारवाँह 1998 2000-2005

 

2000

 

प्रो ए एम खुसरो
बारवाँह 1902 2005-2010

 

2004

 

डाँ सी रंगराजन
तेरहवाँ 1907 2010-2015

 

2009

 

विजय एल केलकर

 

बारहवाँ वित्त आयोग

(Twelfth Finance Commission)

डॉ० सी रंगराजन की अध्यक्षता में 12वें वित्त आयोग का गठन राष्ट्रपति द्वारा 1 नवम्बर, 2002 को 2005-2010 की अवधि के लिए केन्द्र-राज्य राजकोषीय सम्बन्धों के विभिन्न विशिष्ट पहलुओं पर सिफारिशें देने के लिए किया गया।

आयोग को सन्दर्भित विषय

बारहवें वित्त आयोग से निम्नलिखित विषयों पर अपनी सिफारिशें देने के लिए कहा गया

(1) केन्द्र एवं राज्यों के बीच संघ सरकार के विभाजनीय करों एवं शल्कों की निबल प्राप्तियों के संवितरण और ऐसी आय का राज्यों के बीच वितरण का आधार निर्धारित करना।

(2) भारत की संचित निधि में से राज्यों के राजस्व एवं सविधान के अनुच्छेद-275 के तहत राज्यों को दिए जाने वाले अनुदानों को अधिशासित करने वाले सिद्धान्तों का निर्धारण करना।

(3) पंचायती राज संस्थाओं तथा स्थानीय नगर निकायों के संसाधनों को बढ़ाने के लिए राज्यों की संचित निधियों में वृद्धि करने के लिए आवश्यक उपायों के सम्बन्ध में सिफारिश करना।

(4) केन्द्र एवं राज्यों के वित्तीय संसाधनों की स्थिति की पुनर्परीक्षा करना।

(5) राज्यों के वित्त की पुनर्संरचना हेतु आवश्यक उपाय सुझाना।

(6) राजकोषीय सुधार कार्यक्रम की समीक्षा करना तथा इसमें निहित उद्देश्यों की प्रभावी प्राप्ति हेतु उपाय सुझाना।

बारहवें वित्त आयोग की प्रमुख सिफारिशें

(Main Recommendations of Twelfth Finance Commission)

बारहवें वित्त आयोग की प्रमुख सिफारिशें निम्नलिखित थीं

1 राजकोषीय सुदृढ़ीकरण के लिए केन्द्र सरकार एवं राज्य सरकारों को सम्मिलित रूप से प्रयास करने होंगे। सार्वजनिक एवं उच्चकोटि की सामाजिक वस्तुएँ (Merit Goods) एवं सेवाएँ प्रदान करने के मामले में दोनों स्तरों की सरकारों के दायित्वों के अनुरूप ऊर्ध्वाधर एवं क्षैतिजिक सन्तुलन प्राप्त करने के लिए केन्द्र एवं राज्यों को अपने-अपने राजस्व के आधार के सापेक्ष राजस्व के स्तर को बढ़ाना होगा तथा अनावश्यक व्यय प्रतिबद्धताओं को लेने से बचना होगा।

2. केन्द्र द्वारा विभाजनीय करों की निवल प्राप्तियों का 30.5% राज्यों को हस्तान्तरित किया जाए, वर्तमान में यह अनुपात 29.5% है। आयोग ने केन्द्र से राज्यों को हस्तान्तरित होने वाले कुछ हस्तान्तरणों की दिशामूलक सीमा को 37.5% से बढ़ाकर 38.0% कर दिये जाने का भी सुझाव दिया।

3. आयोग ने राज्यों को हस्तान्तरित किए जाने वाले वित्तीय संसाधनों को विभिन्न राज्यों में बाँटने की जो योजना प्रस्तुत की उसमें निम्नलिखित कारकों के बीच सन्तुलन बनाए रखने का प्रयास किया गया

(i) राजकोषीय क्षमता की कमजोरियाँ (Weaknesses of Fiscal Capacities)

(ii) लागत अपंगताएँ (Cost Disabilities)

(iii) राजकोषीय दक्षता (Fiscal Efficiency)

संसाधन अन्तराल का आँकलन करने के लिए आयोग ने राज्यों के स्वयं के संसाधनों एवं व्ययों का मूल्यांकन करने के लिए आदर्शात्मक दृष्टिकोण को अपनाया है। ऐसा करते हुए आयोग ने शिक्षा एवं स्वास्थ्य को महत्वपूर्ण एवं क्रांतिक मैरिट सेवाएँ माना है। आयोग की दृष्टि में इन सेवाओं को प्रदान करने के मामले में इन्हें सर्वोच्च प्राथमिकता दी जानी चाहिए, ताकि विभिन्न राज्यों में इन सेवाओं को प्रदान करने में आ रही विषमताओं को कम किया जा सके। आयोग ने समानीकरण दृष्टिकोण के ढाँचे के अन्तर्गत सशर्त अनुदान दिये जाने की सिफारिश की है। इसलिए यह आवश्यक है कि राज्यों के संसाधनों के हस्तान्तरण को कर बँटवारे एवं अनुदानों दोनों को साथ मिलाकर देखा जाना चाहिए। तुलनीय प्रति व्यक्ति सकल राज्य घरेलू उत्पाद (वर्ष 1999-2000 से 2001-02 का औसत) तथा आयोग द्वारा सिफारिश किये गए कुल प्रति व्यक्ति हस्तान्तरण (करों का हिस्सा एवं अनुदान) के बीच सह-सम्बन्ध गुणांक (-) 0.89 है (गोआ को छोड़कर सामान्य श्रेणी के राज्यों के लिए), जो हस्तान्तरण के पुनर्वितरण के अभिलक्षण पर बल देता है।

4. बारहवें वित्त आयोग ने सत्ता के विकेन्द्रीकरण की प्रक्रिया को और अधिक मजबूत तथा कारगर बनाने के लिए स्थानीय निकायों को जितनी राशि हस्तान्तरित किए जाने की सिफारिश की है वह विभाजनीय कर राशि का 1.24% तथा केन्द्र की सकल राजस्व प्राप्तियों का 0.9% है।

5. राज्यों की ऋणग्रस्तता दृष्टि से आयोग द्वारा सुझाई गई ऋण राहत योजना के प्रमुख बिन्दु निम्नलिखित हैं

(i) 31 मार्च 2004 तक करार किए गए 31 मार्च, 2005 को बकाया सभी ऋणों को एक साथ मिलाकर उन्हें 20 वर्षीय बराबर-बराबर किस्तों वाले 7.5% ब्याज दर के ऋण में परिवर्तित कर दिया जाए। यह सविधा केवल उन्हीं राज्यों को उसी वर्ष से प्राप्त हो जो राजकोषीय उत्तरदायित्व अधिनियम पारित कर लें।

(ii) राजस्व घाटे में कमी लाने से सम्बद्ध ऋण माफी योजना 2005-06 से 2009-10 तक चलाई जाए।

(iii) यदि कोई राज्य अपना राजस्व घाटा पूरी तरह से समाप्त कर ले तो उस पर केन्द्र का बकाया सारा ऋण माफ कर दिया जाए।

जहाँ तक राज्यों को मिलने वाले कुल कर राजस्व में से विभिन्न राज्यों के व्यक्तिगत हिस्से के निर्धारण का प्रश्न है, आयोग ने राज्य के व्यक्तिगत हिस्से के निर्धारण हेतु जो फार्मूला तैयार किया है उसे राज्य की जनसंख्या को 25% भारांकन, राज्य के क्षेत्रफल को 10%, राज्यों से आय दूरी को 50% भारांकन, कर प्रयासों को 7.5% तथा राजकोषीय अनुशासन को 7.5 प्रतिशत भारांकन दिया गया है।

6. लोक वित्त पुनर्संरचना के सम्बन्ध में वित्त आयोग ने निम्नलिखित सुझाव दिये

(i) 2009-10 के अन्त तक केन्द्र एवं राज्यों को सम्मिलित कर-जी० डी० पी० अनुपात को बढ़ाकर 17.6%, प्राथमिक व्यय-जी० डी० पी० अनुपात को बढ़ाकर 23% तथा पूँजीगत व्यय-जी० डी० पी० अनुपात को बढ़ाकर 7% के स्तर तक लाना।

(ii) ऐतिहासिक विनिमय दरों पर मापित विदेशी ऋण सहित केन्द्र एवं राज्यों का सम्मिलित ऋण-जी० डी० पी० अनुपात 2009-10 के अन्त तक कम-से-कम 75% के स्तर पर लाना।

(iii) दीर्घकाल में केन्द्र एवं राज्यों का अलग-अलग ऋण-जी० डी० पी० अनुपात 28% के आस-पास होना चाहिए।

(iv) केन्द्र एवं राज्यों का राजकोषीय घाटा सकल घरेलू उत्पाद के 3% के स्तर पर लक्षित होना चाहिए।

(v) राजस्व प्राप्तियों के सापेक्ष ब्याज का भुगतान केन्द्र के मामले में वर्ष 2009-10 के अन्त तक 28% तथा राज्यों के मामले में 15% होना चाहिए।

(vi) वर्ष 2008-09 तक सम्मिलित रूप से तथा अलग-अलग केन्द्र एवं राज्यों का राजस्व घाटा सकल घरेलू उत्पाद के शून्य स्तर तक नीचे लाया जाए।

(vii) राज्यों को ऐसी भर्ती एवं मजदूरी नीति अपनानी चाहिए जिससे निवल राजस्व व्यय (ब्याज भगतानों व पेंशन भुगतानों को घटाते हुए) के सापेक्ष कुल वेतन व्यय 35% से अधिक न हो।

(viii) प्रत्येक राज्य राजकोषीय उत्तरदायित्व अधिनियम पारित करें। 7 संघ कर साधनों के वितरण के सम्बन्ध में वित्त आयोग के सझाव निम्नलिखित थे

(i) विभाजनीय केन्द्रीय करों की निवल प्राप्तियों का 30.5% राज्यों को हस्तान्तरित किया जाए। इस उद्देश्य से बिक्रीकर के बदले लगाए गए अतिरिक्त उत्पाद शुल्क की प्राप्तियों को केन्द्रीय करों के सामान्य पूल का हिस्सा माना जाए।

(ii) संविधान के 80 वें संशोधन के अधिसूचित होने के बाद यदि किसी सेवा कर के बारे में कोई कानून पारित किया जाता है तो यह सुनिश्चित कर लिया जाना चाहिए कि ऐसे अधिनियम के तहत राज्य को मिलने वाला राजस्व उस हिस्से से कम नहीं होना चाहिए जो उसे केन्द्रीय पूल में शामिल कर लिए जाने पर प्राप्त होता।

(iii) राज्यों को हस्तान्तरित की जाने वाली दिशामूलक सीमा केन्द्र की सकल राजस्व प्राप्तियों के 38% तक निर्धारित की जा सकती है।

(iv) राज्यों को विभाजित होने वाली केन्द्रीय कर प्राप्तियों में प्रत्येक राज्य का हिस्सा प्रत्येक वर्ष तालिका 14.1 के अनुसार हो

तालिका 16.1-2005-06 से 2009-10 की अवधि में राज्यों को मिलने वाले

कर राजस्व में प्रत्येक राज्य का हिस्सा (प्रतिशत में)

8. स्थानीय निकायों के सम्बन्ध में वित्त आयोग के सुझाव निम्नलिखित थे

(i) 2005-10 की पाँच वर्षों की अवधि में पंचायती राज संस्थाओं को 20,000 करोड़ रुपये तथा स्थानीय नगर निकायों को 5,000 करोड़ रुपये दिए जाएँ।

(ii) स्थानीय नगर निकायों को दी जाने वाली अनदान सहायता का कम-से-कम 50% सार्वजनिक निजी सहयोग से ठोस कचरा प्रबन्धन पर खर्च किया जाए।

(iii) राष्ट्रीय आपदा आकस्मिकता निधि की योजना 500 करोड़ रुपये की धनराशि से वर्तमान स्वरूप के अनुसार ही चालू रखी जाए।

10. राज्यों को अनुदान (Grants-in-aid) के सम्बन्ध में आयोग के सझाव निम्नलिखित थे ।

(i) गैर-विशिष्ट संवर्ग के राज्यों को योजना सहायता के रूप में दी जाने वाली धनराशि में ऋण एवं अनुदान के 70 : 30 अनुपात तथा विशिष्ट संवर्ग के राज्यों में 10 : 90 अनुपात की व्यवस्था को समाप्त कर दिया जाए। केन्द्र केवल राज्यों को अनुदान भर दें।

तालिका 16.2-बारहवें वित्त आयोग की सिफारिशों के आधार पर केन्द्र

से राज्यों को कुल वित्तीय हस्तान्तरण (करोड़ रुपये)

(ii) 15 राज्यों (अरुणाचल प्रदेश, असम, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, केरल, मणिपुर, सालय मिजोरम, नागालेण्ड, उड़ासा, पजाब, सिक्किम, उत्तराखण्ड, त्रिपुरा तथा पश्चिम बंगाल) को। डाँटने के लिए 2005-10 की अवधि में कुल 56,855.87 करोड़ रुपये का अनुदान दिया जाए।

(iii) आठ राज्यों (असम, बिहार, झारखण्ड, मध्य प्रदेश, उड़ीसा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश तथा पश्चिम बंगाल) को शिक्षा क्षेत्रक हेतु 2005-10 की अवधि में कुल 10,171.85 करोड़ रुपये दिये जाएँ। ई राज्य को किसी वर्ष कम-से-कम 20 करोड रुपये अनिवार्यतः प्राप्त हो।

(iv) सात राज्यों (असम, बिहार, झारखण्ड, मध्य प्रदेश, उडीसा, उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड) को स्वास्थ्य क्षेत्रक हेतु 2005-10 की अवधि में कुल 5,887.08 करोड़ रुपये इस प्रकार दिये जाएँ कि प्रत्येक अई राज्य को किसी वर्ष कम-से-कम 10 करोड़ रुपये इस प्रकार दिए जाएँ कि प्रत्येक अर्ह राज्य को किसी वर्ष कम-से-कम 10 करोड़ रुपये अवश्य मिलें।

(v) शिक्षा तथा स्वास्थ्य क्षेत्रक के लिए राज्यों को दिया गया अनुदान उनके स्वयं के द्वारा इन क्षेत्रकों पर खर्च की जारी सामान्य धनराशि से ऊपर है।

(vi) सड़कों एवं पुलों के अनुरक्षण हेतु वर्ष 2006-07 से 2009-10 तक के चार वर्षों में बराबर-बराबर किस्तों में 15,000 करोड़ रुपये राज्यों को अनुदान दिया जाए।

(vii) सार्वजनिक भवनों के रख-रखाव हेतु 1,100 करोड़ रुपये तथा विरासत के रख-रखाव के लिए 625 करोड़ रुपये का अनुदान।

(viii) सार्वजनिक भवनों के रख-रखाव हेतु राज्यों को 5,000 करोड़ रुपये का अनुदान।

(ix) वनों के रख-रखाव हेतु 1,000 करोड़ रुपये का अनुदान।

(x) राज्यों की विशिष्ट आवश्यकताओं हेतु 7,100 करोड़ रुपये का अनुदान।

Federal Finance India Study

11. आयोग ने निम्नलिखित ऋण राहत एवं सुधार उपाय सुझाए

(i) प्रत्येक राज्य अपना राजकोषीय उत्तरदायित्व अधिनियम पारित कर वर्ष 2008-09 के अन्त तक राजस्व घाटे को पूरी तरह से समाप्त करने का लक्ष्य निर्धारित करे।

(ii) ऋण राहत को मानव विकास या निवेश वातावरण में प्राप्त उपलब्धियों से न जोड़ा जाए।

(iii) 31 मार्च, 2004 तक राज्यों के साथ करार किए गए तथा 31 मार्च, 2005 को बकाया केन्द्रीय ऋणों को एक साथ मिलकर 7.5% वार्षिक ब्याज दर के 20 वर्षीय ऋण में परिवर्तित कर दिया जाए। इसकी वूसली 20 बराबर-बराबर किस्तों में हो। यह सुविधा केवल उन्हीं राज्यों को उसी वर्ष से दी जाए जिस वर्ष में वे राजकोषीय उत्तरदायित्व अधिनियम पारित कर लें।

(iv) राजस्व घाटे में कमी किए जाने से सम्बद्ध एक ऋण माफी योजना चलाई जाए इसके तहत वर्ष 2005-06 से 2009-10 की अवधि में जो पुनर्भुगतान देय हो जाएँ उसमें से ठीक उतनी ही राशि माफ की दी जाए जितनी के बराबर राज्य अपने राजस्व घाटे में कमी कर ले।

12. पैट्रोलियम लाभ के सम्बन्ध में आयोग का सुझाव था कि संघ सरकार ‘नई ऊर्जा लाइसेंस नीति’ के अन्तर्गत आबंटित क्षेत्रों में पैट्रोलियम, कच्चे तेल तथा गैस की निकासी से प्राप्त लाभ सम्बन्धित राज्य के साथ 50-50 के अनुपात में बाँटे।

13. वित्त मन्त्रालय के एक विभाग के रूप में वित्त आयोग के लिए स्थायी तौर पर एक सचिवालय का गठन किया जाए। वित्त आयोग सचिवालय का व्यय भारत की संचित निधि पर भारित हो। तेरहवें वित्त आयोग का गठन 2007 तक कर दिया जाए, ताकि उसे निर्धारित अवधि 2011-16 के लिए सिफारिशें देने के लिए पर्याप्त समय मिल जाए।

14. केन्द्र सरकार धीरे-धीरे “Accrual Basis of Accounting” प्रणाली को अपनाए और “राष्ट्रीय लोक वित्त लेखाकार संस्थान” की स्थापना करे।

भारत सरकार ने संसद में पेश रिपोर्ट में ‘बारहवें वित्त आयोग की अधिकांश सिफारिशों को स्वीकार कर लिया है।

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तेरहवाँ वित्त आयोग

(Thirteenth Finance Commission)

केन्द्र और राज्यों के बीच राजस्व के बँटवारे के लिए मानक तय करने के लिए राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने 13 वें वित्त आयोग का गठन नवम्बर 2007 में किया था। पूर्व वित्त सचिव डॉ० विजय एल० केलकर को इस आयोग का अध्यक्ष बनाया गया। आयोग ने 30 दिसम्बर, 2009 को अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति को सौंप दी। तेरहवें वित्त आयोग का समग्र दृष्टिकोण समावेशी एवं हरित संवृद्धि प्रोन्नत। राजकोषीय संघवाद रहा है। ये सिफारिशें 2010-15 के लिये हैं।

13वें वित्त आयोग के अधीन विचार किए गए विषय इस प्रकार हैं

(i) केन्द्र सरकार द्वारा 12वें वित्त आयोग की सिफारिशों के आधार पर शुरू की गई राज्य ऋण समेकन और राहत सुविधा 2005-10 को ध्यान में रखते हुए संघ और राज्यों की वित्तीय स्थिति का अवलोकन करना।

(ii) वर्ष 2008-09 के अन्त में पूरा किये जाने वाले कराधान और गैर कर राजस्व के सम्भावित स्तरों के आधार पर 1 अप्रैल, 2010 को आरम्भ होने वाले 5 वर्षों के लिए केन्द्र और राज्य सरकारों के संसाधनों पर विचार।

(iii) आपदा प्रबन्धन के वित्त पोषण के सन्दर्भ में राष्ट्रीय आपदा आकस्मिक निधि आपदा प्रबन्धन अधिनियम, 2005 में प्रकल्पित निधियों के प्रतिनिर्देश की विद्यमान व्यवस्थाओं का पुनर्विलोकन करना और उसके सन्दर्भ में उपयुक्त सिफारिश।

(iv) सभी राज्यों और संघ में कर-जी० डी० पी० अनुपात के सुधार करने के लिए अतिरिक्त संसाधन जुटाने की क्षमता पर विचार करना।

(v) संघ और राज्यों के राजस्व खातों को अनुकूल करने तथा पूँजी निवेश में अभिवृद्धि करने के उद्देश्य की पूर्ति के लिए दिशा-निर्देश।

(vi) 1 अप्रैल, 2010 से (सम्भावित) लागू होने वाले वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) के प्रभावों का अध्ययन करना।

(vii) सार्वजनिक क्षेत्र की गुणवत्ता में सुधार करने के लिए उपाय सुझाना।

(viii) सतत् विकास, पर्यावरण संरक्षण एवं जलवायु परिवर्तन के प्रबन्धन की आवश्यकता को देखते हुए आधारिक संरचना एवं वृहद् विकास परियोजनाओं के विकास को सुनिश्चित करने के लिए सिफारिशें करना।

आयोग ने ऋण घटाने के एक मध्यकालीन ढाँचे के भीतर राजकोषीय सुदृढ़ीकरण की प्रक्रिया चालू करने पर बल दिया है। तेरहवें वित्त आयोग ने केन्द्र एवं राज्यों के समग्र ऋण-जी०डी०पी० अनुपात में वर्ष 2014-15 तक 2009-10 के 82 प्रतिशत के स्तर को घटाकर 68 प्रतिशत तक लाने का लक्ष्य निर्धारित किया है केवल केन्द्र के ऋण-जी०डी०पी० अनुपात को वर्ष 2014-15 तक 45 प्रतिशत लाना प्रस्तावित है।

तेरहवें वित्त आयोग ने केन्द्र एवं राज्यों दोनों के राजस्व घाटे को शून्य स्तर पर लाकर राजकोषीय सुदृढ़ीकरण केन्द्र एवं राज्य दोनों के लिए कर आदर्शक अनपात अपनाने. समता के सिद्धान्त को न अपना कर समानीकरण पर ध्यान देकर एक समान व्यवहार को महत्व दिया है। तेरहवें वित्त आयोग का मानना है कि राज्यों एवं स्थानीय निकायों के पास करारोपण के एक युक्तिसंगत तुलनात्मक स्तर पर सार्वजनिक सेवाएँ प्रदान करने की राजकोषीय सम्भाव्यता है। यह सिद्धान्त सारे देश के लिए सार्वजनिक सेवाओं में एकरूपता की गारण्टी नहीं देता, लेकिन यह सिद्धान्त ऐसी एकरूपता सुनिश्चित करने के लिए प्रत्येक के अधिकार क्षेत्र में राजकोषीय अपेक्षाओं पर विचार अवश्य करता है।

तेरहवें वित्त आयोग ने वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) को एक महत्वपूर्ण परिवर्तनकारी कर सुधार उपाय बताया है, जो कर राजस्वों की उत्प्लावकता तथा संवृद्धि को बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान देगा। इसके साथ-साथ यह सकरात्मक बाध्यताओं का सृजन भी करेगा। आयोग ने वस्तु एवं सेवा कर को यक्तिसंगत तरीके से लागू किए जाने में निम्नलिखित 6 तत्त्वों को चिन्हित किया है

(1) अभिकल्प;

(2) प्रचलनात्मक रूपात्मकताएँ:

(3) दरों तथा प्रक्रिया विधियों में परिवर्तन के लिए आकस्मिकताओं के साथ केन्द्र तथा राज्यों के । बीच आबद्धकारी करारः

(4) अनुपालन के लिए हतोत्साहनः

(5) कार्यान्वयन अनुसूची; तथा

(6) राज्यों के लिए क्षतिपूर्ति का दावा करने हेतु प्रक्रिया विधि।

आयोग ने वस्तु एवं सेवा कर के क्रियान्वयन के साथ राज्यों को कर राजस्व हानियों की भरपाई के लिए क्षतिपूर्ति हेतु 50,000 करोड़ रुपये की स्वीकृति की सिफारिश की है। आयोग का यह भी आँकलन है कि यदि वस्तु एवं सेवा कर को 1 अप्रैल, 2013 से लगाया जाता है, तो राज्यों के कर राजस्व में होने वाली कमी की भरपाई हेतु उपर्युक्त राशि घटकर 40,000 करोड़ रुपये तथा 1 अप्रैल, 2014 से या उसके बाद लागू करने पर 30,000 करोड़ रुपये रह जाएगी।

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तेरहवें वित्त आयोग की प्रमुख सिफारिशें

(1) विभिन्न केन्द्रीय करों की निबल प्राप्तियों में राज्यों का हिस्सा संचार की अवधि के प्रत्येक वर्ष के लिए 32 प्रतिशत होगा। अब तक यह 30.5 प्रतिशत था।

(2) केन्द्र सरकार के विभिन्न करों की निबल प्राप्तियों में से 32 प्रतिशत प्राप्तियाँ राज्यों को जाएँगी इनमें से प्रत्येक राज्य के हिस्से का निर्धारण उन्हें प्रदत्त भार के अनुसार किया जाएगा। इस आधार पर सेवा कर को छोड़कर अन्य करों की प्राप्तियों में राज्यों का हिस्सा तालिका 16.4 में दर्शाया गया है। ऐसे राज्य जिनका देश के कुल क्षेत्रफल में हिस्सा 2 प्रतिशत या उससे कम है उन्हें 2 प्रतिशत का न्यूनतम अंश समानुदेशित किया गया है। ये राज्य हैं-गोवा, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, केरल, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैण्ड, पंजाब, सिक्किम, त्रिपुरा तथा उत्तराखण्ड अन्य राज्यों के हिस्सों पर कोई ऊपरी सीमा नहीं है।

इस प्रकार तेरहवें वित्त आयोग ने राज्यों के व्यक्तिगत हिस्से के निर्धारण हेतु मानदण्डों में दो महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किये हैं

प्रथम, राजकोषीय क्षमता अन्तर के लिए भार को 50.00 प्रतिशतांक से घटाकर 47.5 प्रतिशतांक कर दिया है। बारहवें वित्त आयोग द्वारा राजकोषीय क्षमता अन्तर के मापन हेतु प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद को आधार बनाया गया था। इस प्रकार प्रतिपत्रित किए जाने पर प्रक्रिया विधि में राज्यों के बीच राजकोषीय क्षमता अन्तर का निर्धारण करने के लिए अन्तर्हित रूप से सकल घरेल उत्पाद के प्रति एक सकल औसत कर का अनुपात प्रयोज्य किया जाता है। तेरहवें वित्त आयोग ने इसके बजाय कर क्षमता को मापने के लिए पृथक औसतों की अनुशंसा की है। एक सामान्य श्रेणी के राज्यों के लिए तथा दसरी विशेष श्रेणी के राज्यों के लिए। ऐसा किये जाने का औचित्य यह है कि दोनों श्रेणियों के बीच, सकल राज्य घरेलू उत्पाद (GSDP) के प्रति अनुप्रयुक्त सकल औसत (अन्तर्हित रूप से) दोनों समूहों के बीच राजकोषीय अन्तर का सही प्रकार अभिग्रहण नहीं करता। ऐसा दो कारणों से होता है

1 सकल राज्य घरेलू उत्पाद का क्षेत्रक संघटक सभी राज्यों में एक जैसा नहीं है तथा प्रत्येक क्षेत्रक अपनी कर योग्यता में एक रूप नहीं है।

2. सकल राज्य घरेलू उत्पाद अनुमान वर्तमान में उपादान लागत पर उपलब्ध हैं तथा उसमें प्रेषण रूप में उपार्जित होने वाली आय जैसी आय शामिल नहीं है। सकल राज्य घरेलू उत्पाद के प्रति कर का अनुप्रस्थ राज्य औसत अनुपात विशेष श्रेणी के राज्यों की तुलना में सामान्य श्रेणी के राज्यों में उच्चतर है, इसलिए दोनों श्रेणियों पर समूह विशिष्ट औसत अनुप्रयुक्त किए जाते हैं।

3. वर्तमान में जम्मू-कश्मीर राज्य में सेवा कर का उदग्रहण नहीं किया जाता, इसलिए सेवा कर को निबल प्राप्तियाँ इस राज्य को समानदेशनीय नहीं हैं। सेवा कर की प्राप्तियों में शेष 27 राज्यों के हिस्से तालिका 14.2 के अनुसार निर्धारित किये गये हैं।

4. केन्द्र अपने सकल कर राजस्व में अपना हिस्सा कम करने के उद्देश्य से उपकरों तथा अधिभारों के उद्ग्रहण की समीक्षा करें।

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5. राजस्व खाते पर राज्यों को समग्र अन्तरणों पर निर्दिष्टात्मक सीमा केन्द्र की सकल राजस्व प्राप्तियों के 39.5 प्रतिशत पर निर्धारित की जाए।

6. मध्यावधिक राजकोषीय योजना एक आशय विवरण के बजाय प्रतिबद्धता का विवरण होना चाहिए।

7. कर, व्यय, सरकारी निजी भागीदारी, देयताओं तथा प्राप्तियों एवं व्यय अनुमानों के अन्तर्हित परिवर्तियों के ब्यौरों सहित बजट/ एमएफटीपी के लिए नाप्रकटन विनिर्दिष्ट किए जाए।

8. वित्तीय विनियमन एवं बजट प्रबन्ध अधिनियम (FRBM Act) में उन प्रघातों के स्वरूप को निर्दिष्ट किया जाना आवश्यक है जिनके लिए उसके तहत् लक्ष्यों में ढील दिया जाना आवश्यक होगा।

9. ऐसी आशा की जाती है कि राज्य वर्ष 2011-12 तक अपने राजकोषीय सुधार मार्ग पर वापस आने में समर्थ हो जाएँगे। इसलिये वे अपने-अपने एफआरबीएम अधिनियमों में यथानुसार संशोधन करें।

10. राज्य सरकारें सामान्य निष्पादन अनुदान के लिए तथा विशेष क्षेत्र निष्पादन अनुदान के उसी दशा में पात्र होंगी जब वे स्थानीय अनुदानों के अर्थ में निहित निर्धारित शर्तों का पालन करती हैं।

11. राष्ट्रीय विपदा आकस्मिकता निधि को राष्ट्रीय आपदा अनुक्रिया निधि में विलयित कर दिया जाए।

12. इसी प्रकार राज्यों की विपदा राहत निधि को सम्बन्धित राज्य की आपदा अनुक्रिया निधि में विलयित कर दिया जाए।

13. आठ राज्यों के लिए पंचवर्षीय अवधि (2010-15) में 51,800 करोड़ रुपये का कुल आयोजन भिन्न राजस्व अनुदान अनुशासित किया गया है। (तालिका 14.5) विशेष श्रेणी के तीन राज्यों, जो आयोजना भिन्न राजस्व घाटे की स्थिति से उबरे हैं, के लिए 15,000 करोड़ रुपये का निष्पादन अनुदान अनुशंसित किया गया है।

14. वर्ष 2011-12 से 2014-15 के चार वर्षों के लिए सड़कों व पुलों के अनुरक्षण अनुदान हेतु 19,330 करोड़ रुपये की राशि की अनुशंसा।

15. प्रारम्भिक शिक्षा के लिए अनुदान राशि 24,068 करोड़ रुपये की अनुशंसा।

16. राज्य विशिष्ट आवश्यकताओं के लिए 27,945 करोड़ रुपये के अनुदान की अनुशंसा।

17. वन, अक्षय ऊर्जा तथा जल क्षेत्र प्रबन्धन अनुदानों के रूप में 5,000 करोड़ रुपये अनुदान की अनुशंसा।

18. राज्यों को सहायता अनुदान के रूप में पंचाट अवधिक के लिए 3.18,581 करोड़ रुपये की कुल राशि अनुशंसित की गई है।

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तालिका 16.6 तेरहवें वित्त आयोग की सिफारिशों से पंचाट अवधि (2010-15) में राज्यों को सहायता अनुदान

इस तरह तेरहवें वित्त आयोग की सिफारिशों से 2010-11 से 2014-15 की पाँच वर्षों की अवधि में राज्यों को केन्द्रीय करों एवं शुल्कों के हिस्से के रूप में कुल 1,24,48,096.0 करोड़ रुपये तथा सहायता अनुदान के रूप में 2,58,581.0 करोड़ रुपये अर्थात् कुल 17,06,677.0 करोड़ रुपये प्राप्त होंगे। तेरहवें वित्त आयोग ने इस बात का विशेष ध्यान रखा है कि यदि किसी राज्य को केन्द्रीय करों एवं शुल्कों में छोटी-सी धनराशि प्राप्त हो रही है, किन्तु पर्यावरण संरक्षण, सामाजिक क्षेत्रक-शिक्षा एवं स्वास्थ्य के विकास तथा सड़कों आदि के अनुसरण से जुड़ी आवश्यकताएँ अधिक हैं तो उसे अनुदान सहायता के रूप में अधिक धनराशि प्राप्त हो जाए। जैसे कि पूर्वोत्तर के राज्य तथा जम्मू-कश्मीर तेरहवें वित्त आयोग की सिफारिशों से महाराष्ट्र, गुजरात, तमिलनाडु, कर्नाटक, हरियाणा तथा पंजाब जैसे विकसित राज्यों को अपेक्षाकृत कम धनराशि प्राप्त हो सकी है, जबकि उत्तर प्रदेश, बिहार तथा राजस्थान जैसे पिछड़े राज्य अधिक धनराशि प्राप्त करने में सफल रहे हैं।

तालिका 16.7 तेरहवें वित्त आयोग की संस्तुतियों पर राज्यों को 2010-15 की अवधि में हस्तान्तरित की जाने वाली धनराशि

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तेरहवें वित्त आयोग ने केन्द्र एवं राज्य सरकारों को अपने राजस्व घाटों सहित सकल राजकोषीय घाटों में कमी लाने के लिए विशिष्ट उपाय अपनाने का एक रोडमैप तैयार किया है। साथ ही इस बात पर भी बल दिया है कि राज्यों की कर राजस्व अर्जन लेने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाया जा सके।

तेरहवें वित्त आयोग ने भारतीय लोकतन्त्र में पंचायती राज संस्थाओं तथा स्थानीय निकायों के महत्व को समझते हुए उनके विकास हेतु पाँच वर्षों की अवधि के लिए 87,519 करोड़ रुपये अन्तरित किये जाने की सिफारिश की है। आयोग ने पर्यावरण संरक्षण से विभिन्न मुद्दों, प्राथमिक शिक्षा के विस्तार, शिशु मृत्युदर में कमी लाने, जल संभरण परियोजनाओं, आपदाओं से जूझने, नागरिकों को विशिष्ट पहचान संख्या आबंटित करने जैसे लोक महत्त्व के मुद्दों पर गम्भीरतापूर्वक विचार किया तथा इनसे सम्बन्धित राज्यों की छोटी-से-छोटी आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए धनराशियाँ आवंटित की। पुलिस व्यवस्था में सुधार तथा पुलिस बलों को आधुनिकीकरण तथा न्याय वितरण व्यवस्था में सुधार जैसे मुद्दे भी आयोग की प्राथमिकताओं में रहे हैं।

राष्ट्रीय राजमार्गों के निर्माण एंव विकास हेतु केन्द्र सरकार राष्ट्रीय राजमार्ग विकास प्राधिकरण के माध्यम से तथा सार्वजनिक निजी सहभागिता से संसाधन उपलब्ध करा रही है, लेकिन राज्यों का सड़क तन्त्र जर्जर हालत में है। अनेक प्रान्तीय मार्गों पर पुराने तथा जर्जर पुलों की मरम्मत और नए पुलों के निर्माण की आवश्यकता है। तेरहवें वित्त आयोग ने इस तथ्य पर गम्भीरतापूर्वक विचार करते हुए सड़कों एवं पुलों के अनुरक्षण हेतु 19,930 करोड़ रुपये दिये जाने की सिफारिश की है।

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परीक्षा हेतु सम्भावित महत्त्वपूर्ण प्रश्न

(Expected Important Questions for Examination)

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न (Long Answer Questions)

प्रश्न 1. संघीय वित्त का क्या अर्थ है ? भारत में संघ तथा राज्यों के वित्तीय सम्बन्धों का विवेचन कीजिये।

What is meant by Federal Finance ? Discuss the finance relation between centre and state.

प्रश्न 2. भारत में राजकीय आय के साधन केन्द्र व राज्य सरकारों के मध्य किस प्रकार विभाजित होते हैं? क्या यह विभाजन सन्तोषप्रद है ?

How financial resources are allocated between Centre and State in India? Is it satisfactory?

प्रश्न 3. भारतीय संविधान में किया गया केन्द्र और राज्यों के बीच साधनों का विभाजन कहाँ तक संघीय वित्त के सिद्धान्तों के अनुरूप है ? पूर्णतः व्याख्या कीजिये।

How far is the division of revenue of resources between the Centre and States in the Indian Constitution in accordance with the principles of Federal Finance ? Discuss fully.

प्रश्न 4. भारत में संघीय वित्त व्यवस्था का आलोचनात्मक मूल्याँकन कीजिये।

Critically examine the Federal Finance System in India.

प्रश्न 5. भारत में संविधान के अन्तर्गत केन्द्रीय तथा राज्य सरकारों के वित्तीय सम्बन्धों पर प्रकाश डालिये। क्या आप इसे सन्तोषजनक मानते हैं ?

Throw light on the present financial relation between the Union and the State Government in India, under the constitution. Do you consider it to be satisfactory ?

प्रश्न 6. वित्तीय समायोजन का क्या अर्थ है ? भारत के सन्दर्भ में इसकी प्रक्रिया स्पष्ट कीजिये।

What is meant by Financial Adjustments ? Explain its procedure in Indian Context.

प्रश्न 7. वित्तीय आयोग से आप क्या समझते हैं ? बारहवें वित्त आयोग की प्रमुख सिफारिशों का लेखा प्रस्तुत कीजिये।

What do you understand by Finance Commission ? Give an account of the main recommendations of the Twelfth Finance Commission.

प्रश्न 8. तेरहवें वित्त आयोग की सिफारिशों का विस्तार से वर्णन कीजिये।

Mention the recommendations of Thirteenth Finance Commission in detail.

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लघु उत्तरीय प्रश्न (Short Answer Questions)

प्रश्न 1. संघीय वित्त से क्या तात्पर्य है ?

What is meant by Federal Finance ?

प्रश्न 2. संघीय वित्त के किन्हीं चार सिद्धान्तों का वर्णन कीजिये।

Explain any four principles of Federal Finance.

प्रश्न 3. वित्त समायोजन के प्रमुख नियम क्या हैं ?

What are the main principles of financial adjustments?

प्रश्न 4. अनुपूरक कर से क्या आशय है ?

What is meant by supplementary tax.

प्रश्न 5. संघीय अनुदानों के प्रमुख उद्देश्य बताइये।

Explain the main aims of federal grants.

प्रश्न 6. केन्द्रीय सरकार की आय के कुछ प्रमुख साधन बताइये।

Mention some main sources of income of the Central Government.

प्रश्न 7. राज्य सरकार की आय के कुछ प्रमुख साधन बताइये।

Mention some main sources of income of the State Government.

प्रश्न 8. सन्तुलनकारी तत्वों से आप क्या समझते हैं ?

What do you understand by balancing factors?

प्रश्न 9. वित्त आयोग के कार्य बताइये।

Mention the functions of the Finance Commission.

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chetansati

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