BCom 1st Year Environment India Economy Nature Structure Features Study Material Notes in hindi

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BCom 1st Year Environment India Economy Nature Structure Features Study Material Notes in hindi

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India Economy Nature Structure
India Economy Nature Structure

BCom 1st Year Miscellaneous Public Distribution System Consumer Protection Act 1986 Study Material Notes in Hindi

भारतीय अर्थव्यवस्था प्रकृति, संरचना एवं विशेषताएं

[INDIAN ECONOMY : NATURE, STRUCTURE AND FEATURES]

क्षेत्रफल की दृष्टि से भारत का विश्व में सातवाँ स्थान है, लेकिन जनसंख्या की दृष्टि से दूसरा स्थान है। यहाँ का कुल क्षेत्रफल 32.87 लाख वर्ग किलोमीटर है जो विश्व के क्षेत्रफल का 2.4 प्रतिशत है। इसकी भू-सीमा 15,200 किलोमीटर व तट सीमा 7,516.6 किलोमीटर है। यहाँ की जनसंख्या 2011 की जनगणना के अनुसार 121.05 करोड़ है। भारत इस समय खाद्यान्न उत्पादन के क्षेत्र में आत्मनिर्भर है। तथा विश्व के औद्योगिक क्षेत्र में दसवां स्थान है। इस देश में अनेक प्रकार की भूमि, खनिज पदार्थ, वनस्पति, कृषि उत्पादन व जलवायु हैं जिनके कारण इसको महाद्वीप का नाम दिया जाता है

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भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रकृति

(NATURE OF INDIAN ECONOMY)

भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रकृति को निम्न प्रकार रखा जा सकता है :

(1) भारतीय अर्थव्यवस्था एक मिश्रित अर्थव्यवस्था है, जिसके विकास में निजी एवं सार्वजनिक दोनों क्षेत्र मिलकर अपनी भूमिका का निर्वहन कर रहे हैं।

(2) भारतीय अर्थव्यवस्था एक प्रगतिशील अर्थव्यवस्था है, जिसमें लोकतांत्रिक व्यवस्था के आधार पर तीव्र एवं तकनीकी आर्थिक प्रगति की ओर बढ़ने का लक्ष्य रखा गया है।

(3) भारतीय अर्थव्यवस्था एक समतावादी अर्थव्यवस्था है, जिसमें देश के प्रत्येक नागरिक को समान अवसर प्रदान करके न्याय के आधार पर समाज की संरचना विकसित करने पर जोर दिया जा रहा है और इसके लिए समाज के गरीब एवं पिछड़े वर्ग के विकास के लिए विशिष्ट सरकारी प्रयासों, नीतियों एवं वित्तीय सहायता पर जोर दिया गया है।

(4) भारतीय अर्थव्यवस्था एक संघीय (Federal) अर्थव्यवस्था है, जिसमें आर्थिक उत्तरदायित्वों.अधिकारों एवं क्षेत्रों को केन्द्र एवं राज्यों के मध्य विभाजित करके उनके मध्य समन्वय बनाये रखने की व्यवस्था की

(5) भारतीय अर्थव्यवस्थाएक विकासशील अर्थव्यवस्था है, जो अर्द्ध-विकसित अर्थव्यवस्था की अवस्था से निकल कर विकसित अर्थव्यवस्था के लक्ष्य की ओर बढ़ रही है।

(6) भारतीय अर्थव्यवस्था एक उभरती (Emerging) अर्थव्यवस्था है, जो रूस, चीन, ब्राजील आदि देशों के साथ मिलाकर विश्व अर्थव्यवस्था एवं राजनीति को प्रभावित करने की क्षमता रखती है। ।

(7) भारतीय अर्थव्यवस्था एक लोचपूर्ण (Resilient) अर्थव्यवस्था है, जिसमें किसी भी संकट के पश्चात पानमत्थान की क्षमता है जिसका स्पष्ट प्रमाण विश्वव्यापी अर्थव्यवस्था में मन्दी के प्रभाव का भारतीय अर्थव्यवस्था द्वारा दृढ़ता के साथ सामना करना है।

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भारतीय अर्थव्यवस्था की संरचना

(STRUCTURE OF INDIAN ECONOMY)

भारतीय अर्थव्यवस्था की संरचना को तीन क्षेत्रों में विभाजित किया जा सकता है।

(i) प्राथमिक क्षेत्र (या कृषि सम्बद्ध क्षेत्र),

(ii) द्वितीयक क्षेत्र (या उद्योग क्षेत्र),

(iii) तृतीयक क्षेत्र (या सेवा क्षेत्र)।

(i) प्राथमिक क्षेत्र (Primary Sector)-इसे ‘कृषि एवं सम्बद्ध क्षेत्र’ भी कहा जाता है। इस क्षेत्र में कृषि, पशुपालन, वानिकी, मछलीपालन एवं खनन को शामिल किया जाता है। इन्हें प्राथमिक क्षेत्र इसलिए कहा जाता है, क्योंकि ये सभी उत्पाद मानव अस्तित्व के लिए आवश्यक हैं और प्रकृति के प्रत्येक सहयोग से संचालित किये जाते हैं।

कृषि एवं सम्बद्ध क्षेत्र भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ तथा विकास की कुंजी है। यह देश की राष्ट्रीय आय का एक बड़ा स्रोत, रोजगार एवं जीवनयापन का प्रमुख साधन, औद्योगिक विकास, वाणिज्य एवं विदेशी व्यापार का आधार है। देश की विभिन्न योजनाओं की सफलता यहां तक कि राजनीतिक स्थायित्व भी कृषि क्षेत्र की प्रगति पर निर्भर करता है।

विकास के सहवर्ती के रूप में, जी.वी.ए. में कृषि एवं सम्बद्ध क्षेत्र का हिस्सा (2011-12 की कीमतों पर) वर्ष 2017-18 में 17.4 प्रतिशत है। देश के कुल रोजगार का 48.9% भाग कृषि एवं सम्बद्ध क्षेत्र में नियोजित है।

पशुधन एवं मत्स्य-पालन कृषि क्षेत्र के महत्वपूर्ण संघटक हैं। बागवानी क्षेत्र का सकल घरेलू उत्पाद को कृषि क्षेत्र के हिस्से में योगदान 30.4%, पशुधन क्षेत्र का योगदान 4.1% तथा मत्स्य पालन का योगदान 4.6% है। देश के कुल निर्यात व्यापार में कृषि एवं सम्बद्ध क्षेत्र का हिस्सा (2016-17) लगभग 12.3% है जबकि देश के आयात व्यापार में इसका हिस्सा 5.6% है।

योजना काल में प्राथमिक क्षेत्र (कृषि एवं सम्बद्ध क्षेत्र) की वृद्धि दर को निम्नवत् प्रदर्शित किया जा सकता है:

योजना काल में कृषि एवं सम्बद्ध क्षेत्र की वृद्धि दर

बारहवीं योजना अवधि के दौरान वर्ष 2012-13, 2013-14, 2014-15, 2015-16 तथा 2016-17 में कषि एवं सम्बद्ध क्षेत्र की विकास दर क्रमशः 1.5%, 5.6%, (-) 10.2%.0.7% तथा 4.9% रही।

उपर्यक्त तालिका से स्पष्ट है कि कृषि एवं सम्बद्ध क्षेत्र की वृद्धि दर में पर्याप्त उच्चावचन रहा है। कृषि एवं सम्बद्ध क्षेत्र की प्रगति के प्रमुख संकेतक निम्नवत् हैं :

कषि क्षेत्र मुख्य संकेतक (2011-12 कीमतों पर प्रतिशत)

(ii) द्वितीयक क्षेत्र (Secondary Sector) इसमें विनिर्माणी उद्योग, निर्माण कार्य, विद्युत्, गैस और जल-आपूर्ति को शामिल किया जाता है। इस क्षेत्र में एक प्रकार के इनपूट को दूसरे प्रकार के इनपुट में अथवा कच्चे माल को तैयार माल के रूप में परिवर्तित किया जाता है। अतः इसे द्वितीयक क्षेत्र कहा जाता है।

द्वितीयक क्षेत्र को औद्योगिक क्षेत्र भी कहा जाता है। किसी देश के तीव्र आर्थिक विकास के लिए उस देश में औद्योगीकरण की प्रगति को तीव्र करना आवश्यक होता है। स्वतंत्रता के पश्चात नियोजित आर्थिक विकास के फलस्वरूप देश ने औद्योगिक विकास में काफी प्रगति की है। आज भारत विश्व के प्रमुख औद्योगिक देशों में से एक है। वर्ष 1950-51 में देश के सकल जी.वी.ए. में उद्योग क्षेत्र का हिस्सा 16.6% था जो क्रमशः बढ़ते हुए वर्तमान (2017-18) में 27.8% हो गया। देश के कल रोजगार में उद्योग क्षेत्र का हिस्सा 24.3% है।

योजनाकाल में देश के औद्योगिक उत्पादन में वृद्धि दर को निम्न तालिका द्वारा दर्शाया जा सकता है:

वर्ष 2011-12 को आधार वर्ष मानते हुए वर्ष 2012-13, 2013-14, 2014-15, 2015-16 तथा 2016-17 में औद्योगिक विकास की दर क्रमशः 2.4%, 4.5%, 5.9%, 8.8% तथा 5.6% रही।

देश में आधारभूत एवं पूंजीगत उद्योगों की स्थापना एवं प्रगति में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है तथा देश के सभी उद्योगों के उत्पादन में वृद्धि हुई है।

देश का औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (आधार वर्ष 2011-12) की विकास दर वर्ष 2015-16 में 3.3.% तथा 2016-17 में 4.6% रही।

(ii) तृतीयक क्षेत्र (Tertiary Sector) इस क्षेत्र में व्यापार, होटल, परिवहन, संचार, वित्तीय संस्थाएं. बीमा, लोक प्रशासन, रक्षा एवं अन्य सेवाओं को शामिल किया जाता है। इस क्षेत्र को ‘सेवा क्षेत्र’ भी कहा जाता है। इस क्षेत्र की सेवाएं प्राथमिक और द्वितीयक क्षेत्र को सहयोग प्रदान करती हैं। अतः इन्हें ततीयक क्षेत्र कहा जाता है।

ततीयक क्षेत्र को सेवा क्षेत्र के रूप में जाना जाता है। सेवा क्षेत्र का सकल घरेलू उत्पाद में योगदान वर्तमान वर्ष 2017-18) में 54.8% है तथा देश के कुल रोजगार में इस क्षेत्र का हिस्सा 26.9% है। सेवा और विगत कछ वर्षों में तीव्र प्रगति की है और अर्थव्यवस्था के सबसे बड़े और उभरते क्षेत्र के रूप में सामने आया है। इसके अतिरिक्त सकल घरेलू उत्पाद में प्रमुख क्षेत्र होने के नाते. सेवा क्षेत्र ने विदेश निवेश प्रवाहों, निर्यातों और रोजगार में काफी योगदान दिया है।

देश के सकल जी.वी.ए. में सेवा क्षेत्र का हिस्सा वर्ष 1999-2000 में 50.0% था, जो बढ़कर 2007-08 में 544%, 2012-13 में 58.8%, 2013-14 में 59.9%, 2014-15 में 50.7% तथा2015-16 में 52.97%, 01-17 में 54.28% तथा 2017-18 में 54.8% हो गया। यह देश के सेवा क्षेत्र में हो रहे तीव्र विकास को प्रकट करता है।

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क्षेत्रीय विकास का अंतर्सम्बन्ध

आर्थिक विकास के इन तीनों क्षेत्रों की स्थिति तथा आर्थिक विकास की अवस्थाओं के मध्य घनिष्ट सम्बन्ध है, जैसा कि निम्न विवरण से स्पष्ट है:

आर्थिक विकास की प्राथमिक अवस्था में प्राथमिक क्षेत्र की विशिष्ट भूमिका होती है। इस अवस्था में प्रति व्यक्ति भोज्य उत्पादों का स्तर काफी नीचा होता है। अतः न्यूनतम भोज्य पदार्थों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अधिकांश जनसंख्या प्राथमिक क्षेत्र में संलग्न होती है। इस अवस्था में आयातों का अधिकांश भुगतान प्राथमिक उत्पादों के निर्यातों से होता है और इस कारण प्राथमिक उत्पादों पर विशेष जोर दिया जाता है। इसके अतिरिक्त गैर-प्राथमिक क्षेत्र में विकास का स्तर नीचा होने के कारण सकल राष्ट्रीय उत्पाद में प्राथमिक क्षेत्र की प्रभुत्वपूर्ण स्थिति होती है।

जैसे-जैसे आर्थिक विकास होता है, कृषि क्षेत्र में उत्पादन एवं उत्पादकता बढ़ने लगती है, जिसके फलस्वरूप कार्यकारी जनसंख्या कृषि क्षेत्र से निर्माणी क्षेत्र की ओर जाने लगती है और निर्माणी क्रियाएं बढ़ने लगती हैं। इसके साथ ही लोगों की आय बढ़ने से निर्माणी क्षेत्र के उत्पादों की मांग में महत्त्वपूर्ण वृद्धि होती है। निर्माणी क्षेत्र की क्रियाओं के बढ़ने से तृतीयक क्षेत्र की क्रियाओं जैसे बैंकिंग, बीमा, परिवहन तथा अन्य सेवाओं की मांग भी क्रमशः बढ़ती जाती है। इस सभी के फलस्वरूप आर्थिक विकास के साथ प्राथमिक क्षेत्र की भूमिका कम होती जाती है तथा द्वितीयक एवं तृतीयक क्षेत्र की भूमिका धीरे-धीरे बढ़ती चली जाती है।

भारत में सकल जी.वी.ए. के सन्दर्भ में उपर्युक्त क्षेत्रों की स्थिति को निम्न तालिका से दर्शाया जा सकता है:

सकल घरेलू उत्पाद में क्षेत्रीय योगदान

उपर्युक्त तालिका के आधार पर देश में क्षेत्रीय विकास एवं उनके सम्बन्धों को निम्न प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है:

(1) प्राथमिक क्षेत्र की भूमिका में सतत गिरावट–सन् 1950-51 में सकल जी.वी.ए. में प्राथमिक क्षेत्र का भाग 53.7% था जो लगातार घटते हुए 2017-18 में 17.4% पर आ गया। इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि जहां 1950-51 में सकल घरेलू उत्पाद का आधे से अधिक प्राथमिक क्षेत्र से आता था, वह 2017-18 में लगभग 1/5 से भी रह गया।

प्राथमिक क्षेत्र के चार मुख्य भाग हैं : कृषि, पशुधन, वानिकी तथा मत्स्यपालन। विगत वर्षों में फिशिंग के भाग में वृद्धि हुई है जबकि कृषि, पशुधन तथा वानिकी के भाग में गिराकर आई है। आर्थिक विकास के साथ इस क्षेत्र के तुलनात्मक भाग में कमी आना स्वाभाविक था, लेकिन जितनी तेजी से कमी आयी है. वह विचारणीय है और कृषि क्षेत्र के तीव्र विकास पर भी ध्यान देना होगा।

(2) द्वितीयक क्षेत्र में सतत वृद्धिद्वितीयक क्षेत्र का भाग 1950-51 में मात्र 14.4% था. जो 2017-18 न हो गया। सकल राष्ट्रीय उत्पाद में 1950-51 में इसका भाग 1/7 था, जो 2017-18 में 1/4 से आधिक हो गया। यहां यह उल्लेखनीय है कि इसके सभी संघटकों अर्थात विनिर्माणी उद्योग, निमाण कार्य, विद्युत्, गैस तथा जल-आपूर्ति क्षेत्र के योगदान में वृद्धि हुई है।

(3) तृतीयक क्षेत्र प्रभुत्वपूर्ण स्थिति में समंकों से स्पष्ट है कि स्थिर मूल्यों के आधार पर 1950-51 में पशकजा.वा.ए. में तृतीयक क्षेत्र का भाग 31.9% था, जो लगातार तेजी से बढ़ते हए 2017-18 में 54.8% हो गया और इस प्रकार प्रभुत्वपूर्ण स्थिति में आ गया है। इसके मुख्य कारण निम्न प्रकार है:

(अ) देश में बैंकिंग और बीमा क्षेत्र का तेजी से विकास हुआ है।

(ब) वाणिज्यिक भवनों एवं आवास भवनों में विनियोग तेजी से बढ़ा है।

(स) सरकारी क्षेत्र में सतत वृद्धि हुई है।

(द) खुदरा व्यापार, होटल एवं रेस्टोरेन्ट व्यवसाय में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है।

(य) परिवहन एवं संचार के क्षेत्र में क्रान्तिकारी विस्तार हुआ है।

तृतीयक क्षेत्र की प्रभूत्त्वपूर्ण स्थिति के कारण देश के आर्थिक विकास को ‘Service-led growth’ का नाम दिया गया है।

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भारतीय अर्थव्यवस्था के लक्षण या विशेषताएँ

(SALIENT FEATURES OR CHARACTERISTICS OF INDIAN ECONOMY)

भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रकृति एवं इसकी प्रमख विशेषताओं का अध्ययन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है:

1 भारतीय अर्थव्यवस्था की परम्परागत विशेषताएँ (अल्प-विकसित अर्थव्यवस्था के रूप में भारतीय अर्थव्यवस्था)

2. भारतीय अर्थव्यवस्था की नवीन विशेषताएं (विकासमान अर्थव्यवस्था के रूप में भारतीय अर्थव्यवस्था)।

3. भारतीय अर्थव्यवस्था की परम्परागत विशेषताएँ (Traditional Features of Indian Economy)

(1) कृषि की प्रधानताभारत की सबसे प्रमुख विशेषता यह है कि यहाँ पर कृषि व्यवसाय की प्रधानता है। 2011-12 में देश के कुल रोजगार में कृषि एवं सम्बद्ध क्षेत्र का हिस्सा 48.9% है जबकि शेष 51.1 प्रतिशत उद्योग व सेवाओं में लगा हुआ है। कृषि व्यवसाय 17.4 प्रतिशत ही राष्ट्रीय आय में अपना योगदान दे पाता है। यहाँ के निर्यात व्यापार में भी कृषि का महत्वपूर्ण स्थान है। लगभग 12.3 प्रतिशत निर्यात प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृषि पदार्थों का ही होता है। कृषि व्यवसाय की प्रधानता इस तथ्य से भी प्रतिबिम्बित होती है कि भारत की अधिकतर जनसंख्या का निवास गाँवों में ही है।

(2) ग्रामीण अर्थव्यवस्था भारतीय अर्थव्यवस्था ग्रामीण है। यहाँ 6.40 लाख गाँव व लगभग 7,933 नगर व शहर हैं। यहाँ की 68.84 प्रतिशत जनसंख्या गाँवों में निवास करती है। इसका अर्थ यह है कि प्रत्येक 10 व्यक्तियों में से 7 गाँवों में रहते हैं। यह प्रतिशत अन्य देशों की तुलना में बहुत ज्यादा है। उदाहरण के लिए, अमरीका की 20, जापान की 34 व आस्ट्रेलिया की 8 प्रतिशत जनसंख्या गाँवों में रहती है।

(3) प्रति व्यक्ति निम्न आय भारतीय अर्थव्यवस्था की तीसरी विशेषता यह है कि यहाँ प्रति व्यक्ति आय (विश्व के कुछ देशों को छोड़कर) बहुत ही निम्न है। विश्व बैंक रिपोर्ट, 2015 के अनुसार वर्ष 2014 में भारत में प्रति व्यक्ति आय 1,596 डॉलर थी, जबकि अमेरिका में यह आय 54,630 डॉलर थी।

भारत में प्रति व्यक्ति आय कम होने से गरीबी व्याप्त है, लेकिन यह गरीबी इससे और भी अधिक है. क्योंकि यहाँ की 40 प्रतिशत जनसंख्या को राष्ट्रीय आय का केवल 19.7 प्रतिशत ही मिल पाता है। यहाँ की 29.5 प्रतिशत (रंगराजन विशेषज्ञ ग्रुप प्रणाली के अनुसार) जनसंख्या गरीबी रेखा से नीचे है, क्योंकि उनको आवश्यक मात्रा में कैलोरीज भी नहीं मिल पाती है।

(4 पूँजी की कमी भारतीय अर्थव्यवस्था की चौथी विशेषता यह है कि यहाँ पँजी की कमी है। इसका मुख्य कारण बचत व विनियोग की निम्न दरें होना है। यहाँ राष्ट्रीय आय और प्रति व्यक्ति आय कम होने के कारण बचत का स्तर निम्न है। पिछले कुछ वर्षों में नियोजन होने के कारण बचत व विनियोग दरों में कछ वद्धि हुई है।

(5) जनसंख्या का अधिक दबाव-भारतीय अर्थव्यवस्था की पाँचवीं विशेषता यह है कि यहाँ जनसंख्या। का भारी दबाव है। इसका अर्थ यह है कि यहां की जनसंख्या अन्य विकसित देशों की तलना में तेजी से बढ़ रहा है। 2011 की जनगणना के अनुसार सम्पूर्ण विश्व की 17.5 प्रतिशत जनसंख्या भारत में निवास करती है, जबकि उसके पास विश्व के कल स्थल क्षेत्र का 2.4 प्रतिशत भाग ही है।

(6) व्यापक बेरोजगारी भारतीय अर्थव्यवस्था की छठवीं विशेषता यह है कि यहाँ व्यापक बेरोजगारी व्याप्त है जिसमें बराबर वृद्धि होती जाती है। वर्तमान में लगभग 4 करोड़ व्यक्ति बेरोजगार है। इस संख्या में प्रति वर्ष 60 लाख व्यक्तियों की और वृद्धि हो जाती है। व्यापक बेरोजगारी के साथ-साथ यहाँ पर अद्ध-रोजगार (Under-employment) भी पाया जाता है। इसका अर्थ यह है कि जो लोग यहाँ पर कार्य कर रहे हैं उनके लिए भी पूरे समय कार्य करने के लिए काम की कमी है।

(7) सम्पन्नता में दरिद्रताभारत में खनिज, वन सम्पदा, जनशक्ति व अन्य साधन पर्याप्त हैं। यहाँ पर कोयला, लोहा, मैंगनीज, बॉक्साइट, आदि पर्याप्त मात्रा में पाया जाता है। अणु शक्ति के लिए आवश्यक सामग्री भी भारत में उपलब्ध है। तेल व गैस के बड़े-बड़े भण्डार हैं एवं अच्छे जंगल हैं जहाँ विभिन्न प्रकार की लकड़ियाँ पायी जाती हैं। भारत में विशाल जनशक्ति के होते हुए भी साधनों व अन्य आवश्यक तत्वों के अभाव में उनका उचित विदोहन नहीं हो पाया है। इसलिए सम्पन्नता में दरिद्रता है।

(8) तकनीकी ज्ञान का निम्न स्तर—यहाँ पर शिक्षा, तकनीकी शिक्षा, अनुसन्धान एवं विकास, आदि की सुविधाओं का बड़ा अभाव है। इन सबका परिणाम यह है कि यहाँ का तकनीकी ज्ञान निम्न स्तर का है। तथा इसी कारण कृषि और उद्योग दोनों ही क्षेत्रों में उत्पादकता का स्तर भी निम्न है।

(9) आर्थिक विषमताभारतीय अर्थव्यवस्था में सम्पत्ति एवं आय के वितरण में काफी असमानता या विषमता है। राष्ट्रीय आय के आंकड़ों के अनुसार वर्तमान मूल्यों पर प्रति व्यक्ति आय में सभी प्रदेशों में समानता नहीं है।

(10) परम्परावादी समाज—भारतीय अर्थव्यवस्था की एक प्रमुख विशेषता यह है कि यहाँ का समाज रूढ़िवादी, भाग्यवादी व परम्परावादी है। यही कारण है कि यहाँ बहुत-सी कुरीतियाँ; जैसे बाल-विवाह, मृत्यु-भोज व अनेक सामाजिक परम्पराएँ पायी जाती हैं जिनमें काफी धन व्यय कर दिया जाता है। यहाँ तक पाया जाता है कि यदि उत्सव करने वाले के पास धन नहीं है तो वह ऋण लेकर उस उत्सव को कराता है। ऐसी परम्पराओं व रीति-रिवाजों के कारण यहाँ का समाज सुखी जीवन व्यतीत नहीं कर पाता है और अपने परिवार का जीवन-स्तर नहीं उठा पाता है। औद्योगिक क्षेत्रों में भी परम्परावादी बातें अपनायी जाती हैं; जैसे भारत में सूती वस्त्र उद्योग के क्षेत्र में लगभग 25 प्रतिशत कारखाने ही स्वचालित (automatic) हैं, जबकि अमरीका व हांगकांग में 100 प्रतिशत कारखाने स्वचालित हैं।

(11) परिवहन संचार साधनों का अभाव—भारत में परिवहन व संचार साधनों का भी अभाव है। यहाँ पर सड़कें कम हैं तथा अधिकांश सड़कें कच्ची हैं। यहाँ पर 1 वर्ग किमी. में 0.7 किलोमीटर सड़कें हैं, जबकि जापान में 4 किलोमीटर व अमरीका में 1.3 किलोमीटर। संचार साधनों का भी यहाँ पर उतना विकास नहीं हो पाया है जितना अन्य देशों में।

(12) आधारभूत संरचना का अभावकिसी देश की प्रगति वहां विकसित आधारभूत संरचना पर निर्भर करती है। आधारभूत संरचना के विकास से तात्पर्य है, ऊर्जा एवं शक्ति, सड़क, रेल, जल एवं वायु परिवहन बैंक, बीमा व वित्तीय संस्थाएं तथा संचार की सुविधाएं आदि का विकास। पर्याप्त आधारभूत संरचना का विकास न होना भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रगति में बाधक है। भारत में अब तक आधारभूत संरचना का जो भी विकास हुआ है उसे पर्याप्त नहीं कहा जा सकता है।

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(II) भारतीय अर्थव्यवस्था की नवीन विशेषताएँ (New Features of Indian Economy)

उपर्युक्त परम्परावादी विशेषताओं से ऐसा आभास होता है कि भारत एक पिछड़ा हुआ राष्ट्र है, लेकिन ऐसी बात नहीं है। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् भारत में नियोजन की पद्धति अपनाने से यहाँ काफी प्रगति हुई है। कषि के क्षेत्र में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए हैं, नये-नये उद्योग स्थापित हुए हैं तथा पराने उद्योगों की कार्य-पद्धति एवं उत्पादन में भी परिवर्तन हुआ है। सामाजिक चिन्तन की राह में परिवर्तन दिखायी देता है। यहाँ की नियोजित अर्थव्यवस्था की सार्वजनिक क्षेत्र में वृद्धि, औद्योगिक विकास, बैकिंग सविधाओं का विकास पति व्यक्ति आय में वृद्धि, बचत एवं पूंजी-निर्माण में वृद्धि व नवीन उद्योगों की स्थापना, आदि नवीन विशेषताएँ हैं, जो अग्र प्रकार हैं :

(1) नियोजित अर्थव्यवस्थाभारत में विकास के लिए नियोजन की नीति अपनायी गयी है। यह नियोजन 1 अप्रल, 1951 से चालू किया गया है। अब तक बारह पंचवर्षीय योजनाएँ तीन वार्षिक योजनाएं और। तीन वर्ष का अन्तरकाल पूरे हो चुके हैं। इस प्रकार यहाँ नियोजन के 66 वर्ष पूरे हो चुके हैं जिससे देश का विकास हुआ है।भारत की 12वीं पंचवर्षीय योजना 31 मार्च, 2017 को पूरी होने के साथ ही देश में पंचवर्षीय योजनाओं की व्यवस्था समाप्त हो चुकी है, इसके स्थान पर नीति आयोग द्वारा 15 वर्षीय इण्डिया विजन प्रस्तुत किया गया है। जिसका उद्देश्य अगले 15 वर्षों में भारतीय अर्थव्यवस्था के आकार में तीन गना तक वृद्धि करना

(2) सार्वजनिक क्षेत्र का विकासयहाँ सार्वजनिक उद्योगों की संख्या में बराबर वृद्धि हो रही है। 1950-51 में भारत में 5 सार्वजनिक उद्योग थे जिनमें 29 करोड़ रु की पूँजी लगी थी, लेकिन वर्तमान (31 मार्च, 2016) में इनकी संख्या 320 थी (जिनमें से 247 उपक्रम कार्यशील थे) व पूँजी निवेश बढ़कर 11,71,844 करोड़ र हो गया है। इन उद्योगों में लोहा एवं इस्पात उद्योग, सीमेण्ट उद्योग, रसायन उद्योग, इंजीनियरिंग उद्योग, कोयला उद्योग व अनेक उपभोक्ता उद्योग शामिल है।

(3) औद्योगिक विकास—यहाँ पर औद्योगिक उत्पादन बढ़ रहा है। प्रथम योजना में 7.3 प्रतिशत, द्वितीय योजना में 6.6 प्रतिशत, तृतीय योजना में 9.0 प्रतिशत, चतुर्थ योजना में 4.7 प्रतिशत, पांचवीं योजना में 5.9 प्रतिशत, छठवीं योजना में 5.8 प्रतिशत. सातवीं योजना में 8.2 प्रतिशत व आठवीं योजना में 7.3 प्रतिशत व नौवीं योजना में 5 प्रतिशत उत्पादन बढ़ा है। दसवीं योजना के दौरान (2002-07) देश में उद्योगों की औसत वृद्धि दर 8.2 प्रतिशत तथा ग्यारहवीं योजना (2007-12) में 6.6 प्रतिशत रही। स्थिर मूल्यों पर (आधार वर्ष 2011-12) उद्योगों में वृद्धि दर वर्ष 2012-13 में 2.4%, 2013-14 में 4.5%, 2014-15 में 5.9%, 2015-16 में 8.8% तथा 2016-17 में 5.6% में रही।

(4) बैंकिंग सुविधाओं का विकास यहाँ पर बैंकिंग सुविधाओं का बराबर विकास हो रहा है। जून 1969 में भारत में व्यापारिक बैंकों की 8,262 शाखाएँ थीं, लेकिन जून 2017 के अन्त में इन शाखाओं की संख्या 1,38,945 हो गई।

(5) प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि–यहाँ पर स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद प्रति व्यक्ति आय बराबर बढ़ रही है। वर्तमान की कीमतों के आधार पर यह 2011-12 में 63,462 ₹ से बढ़कर 2017-18 के अग्रिम अनुमानों के अनुसार 1,11,782 ₹ हो गयी है।

(6) बचत एवं पूँजीनिर्माण दरों में वृद्धि—यहाँ बचतों व पूँजी-निर्माण की दरों में भी बराबर वृद्धि हो रही है। 1950-51 में बचतें सकल घरेलू आय का 9.5 प्रतिशत थीं, जबकि 2015-16 में 32.3 प्रतिशत हो गयीं। इसी प्रकार यहां सकल घरेलू पूंजी निर्माण की दर 1950-51 में 9.3 प्रतिशत थी, जो 2016-17 में बढ़कर 33.3 प्रतिशत हो गयी है।

(7) नवीन उद्योगों की स्थापना नियोजन प्रारम्भ होने से भारत में अनेक नवीन उद्योग स्थापित हो गये हैं जो इस बात का प्रमाण है कि भारत एक विकासशील देश है। उदाहरण के लिए, यहाँ मोटर-गाडियाँ. हवाई जहाज, पनइब्बियाँ व अनेक रसायन बनने लगे हैं जिनका पहले आयात किया जाता था।

(8) विकास के अन्तर्गत संरचनात्मक परिवर्तन योजनाकाल के दौरान हुए सतत प्रयास के फलस्वरूप भारत में कषि, उद्योग एवं सेवा क्षेत्र में संरचनात्मक परिवर्तन परिलक्षित होते हैं। यद्यपि भारत अभी भी एक कषि प्रधान देश बना हुआ है, फिर भी यहां उद्योग एवं सेवा क्षेत्र में भी पर्याप्त विकास हुआ है। देश के सकल व घरेलू उत्पाद में कृषि एवं सम्बद्ध क्षेत्र के भाग में कमी हुई, जबकि विनिर्माण एवं सेवा क्षेत्र के भाग में वृद्धि हुई है।

उल्लेखनीय है कि उत्पादन लागत पर देश के सकल घरेलू उत्पाद में (स्थिर कीमतों) कृषि एवं सम्बद्ध क्षेत्र अर्थात प्राथमिक क्षेत्र का हिस्सा घटता जा रहा है, जबकि उद्योग एवं सेवा क्षेत्र का हिस्सा क्रमशः बढ़ता। जा रहा है। यह देश में होने वाले विकास का प्रतीक है। देश में विकास के अन्तर्गत होने वाला यह संरचनात्मक परिवर्तन नियोजन काल में हुए विकास को प्रतिबिम्बित करता है।

(9) यातायात एवं संचार सुविधाओं का विस्तार देश में यातायात एवं संचार सुविधाओं का पर्याप्त विकास हुआ है। देश में रेलों एवं सड़कों का विशाल नेटवर्क है। रेलगाड़ियों की संख्या एवं गति में सुधार हुआ है। मोटर वाहनों की गुणवत्ता बढ़ी है। हवाई यातायात का विस्तार हुआ है एवं जहाजरानी की क्षमता बढ़ी है। संचार व्यवस्था में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुआ है। उपग्रह के माध्यम से संचार व्यवस्था अधिक मजबूत और विस्तृत हुई है।

(10) सामाजिक सेवाओं का विस्तार—भारत में शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी सामाजिक सेवाओं का पर्याप्त विकास हुआ है। शोध एवं तकनीकी शिक्षा में प्रगति हुई है। साक्षरता का स्तर बढ़ा है। व्यावसायिक शिक्षा एवं प्रौद्योगिकीय शिक्षा के विद्यालयों एवं महाविद्यालयों की संख्या बढ़ी है। अब देश में प्रशिक्षित श्रमिकों, वैज्ञानिकों, तकनीकी विशेषज्ञों, अनुसन्धानकर्ताओं एवं प्रबन्धकों की कमी नहीं है। यहां के विशेषज्ञता प्राप्त लोग विदेशों में भी अपनी सेवाएं उपलब्ध करा रहे हैं।

(11) सामाजिक परिवर्तन देश में हो रहे विकास के फलस्वरूप यहां सामाजिक परिवर्तन की गति तेज हुई है। रूढ़िवादिता, जाति प्रथा, बाल-विवाह तथा छुआछूत जैसी बुराइयां कम हुई हैं। सामाजिक राजनीतिकता तथा आर्थिक क्रियाकलापों में महिलाओं की सहभागिता बढ़ी है। महिलाओं में शिक्षा एवं ज्ञान का स्तर बढ़ा है।

(12) बाजारतन्त्रभारतीय अर्थव्यवस्था में एक मजबूत व्यापार तन्त्र का विकास हुआ है। यहां वस्तुओं के साथ-ही-साथ श्रम एवं पूंजी के संगठित बाजार है। वस्तु बाजार में अधिकांश वस्तुओं की कीमतें मांग एवं पूर्ति की शक्तियों द्वारा निर्धारित होती हैं साथ ही अनिवार्य वस्तुओं के अभाव में उनका वितरण उचित मूल्य की दुकानों के माध्यम से किया जाता है। कृषकों को सुरक्षा प्रदान करने के लिए सरकार द्वारा उनके उत्पादों का न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित किया जाता है।

(13) गरीबी एवं बेरोजगारी दूर करने के उपाय—देश में गरीबी एवं बेरोजगारी दूर करने के लिए विशिष्ट कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। जैसे महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी योजना, स्वर्ण जयन्ती शहरी रोजगार योजना/राष्ट्रीय शहरी आजीविका मिशन, स्वर्ण जयन्ती ग्राम स्वरोजगार योजना (अजीविका), अन्नपूर्णा योजना, अन्त्योदय अन्न योजना, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम, राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार सृजन कार्यक्रम आदि। इससे देश में गरीबी अनुपात घटा है।

(14) भारतीय अर्थव्यवस्था की विश्वव्यापीकरण प्रकृति एवं विशेषताएं भारत की नई आर्थिक नीति में उदारीकरण एवं वैश्वीकरण को प्राथमिकता प्रदान की गई है जिसके फलस्वरूप देश की अर्थव्यवस्था का विश्व की अर्थव्यवस्था से जुड़ाव हुआ है। इसके अन्तर्गत आयात पर से मात्रात्मक प्रतिबन्ध हटाए गए हैं। निर्यात में वृद्धि के प्रयास किए गए हैं। विदेशी पूंजी का अन्तप्रवाह हुआ है। सेवा क्षेत्र, बीमा, बैंकिंग एवं जहाजरानी क्षेत्रों में विदेशी निवेश की छूट प्रदान की गई है तथा रुपए को पूर्ण परिवर्तनीय बनाया गया है। भारतीय अर्थव्यवस्था की निम्नलिखित विशेषताएं उसके वैश्वीकरण के स्वरूप को स्पष्ट करती है।

() इलेक्ट्रॉनिक्स एवं कम्प्यूटर प्रौद्योगिकी का तीव्र विकास–विगत वर्षों में भारत में इलेक्ट्रॉनिक्स और कम्प्यूटर प्रौद्योगिकी का तेजी से विकास हुआ है। देश में कम्प्यूटर के उपकरणों के उत्पादन, उपयोग एवं निर्यात में वृद्धि हुई। इससे देश में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए हैं। देश में करोड़ों लोग इण्टरनेट से जुड़ गए हैं। सूचना प्रौद्योगिकी के विकास से आज आउटसोर्सिंग के लिए भारत अन्य देशों की तुलना में बेहतर सिद्ध हो रहा है।

() ज्ञान अर्थव्यवस्था विगत कुछ वर्षों से देश में ज्ञान के क्षेत्र में महत्वपूर्ण प्रगति हुई है। अब देश वस्त अर्थव्यवस्था के क्षेत्र के निकलकर ज्ञान अर्थव्यवस्था की ओर तेजी से अग्रसर है। अब डेटा बैंक, कम्प्यूटर व इण्टरनेट सेवाएं आदि ज्ञान-क्षेत्र (Knowledge Sector) का प्रमुख अंग बन गई हैं। उद्योगों में ज्ञान (Knowledge) केन्द्रीय पूंजी, लागत केन्द्र तथा उत्पादन का केन्द्रीय संसाधन बन चुका है। अब ज्ञान की भमिका कार्यात्मक तथा उत्पादक दोनों हो गई है। आज ‘ज्ञान समाज’ ने व्यवसाय के लिए नए दायित्व, नए “कार्य, नई चुनौतियों के साथ-साथ नए अवसरों को भी जन्म दिया है।

देश में सेवा उद्योगों के विकास में पर्याप्त प्रगति हुई है । यहां अब आणविक ऊर्जा, कम्प्यूटर प्रणाली. सम्प्रेषण. डेटा प्रोसेसिंग तथा नवीन प्रौद्योगिकी का विकास हो रहा है। इन सबका मुख्य आधार नई विकसित कम्प्यूटर प्रणाली है।

() नवीन प्रौद्योगिकी भारत में नित हो रहे नवीन खोजों से नवीन प्रौद्योगिकी का विकास हो रहा उत्पादन तकनीक में सधार और नए उद्योगों की स्थापना हो रही है। विकास उद्योगों की स्थापना सव्यावसायिक जीवन में गतिशीलता बढ़ गई है तथा प्रबंधकों के समक्ष प्रबन्धन के नए-नए आयाम विकसित हो रहे हैं।

() विदेशी पूंजी का अन्तर्प्रवाह आर्थिक उदारीकरण नीति को अंगीकार करने से देश में विदेशी पूंजी का अन्तप्रवाह बढ़ा है। वर्ष फरवरी 2018 के अन्त में भारत का विदेशी विनिमय कोष 421.915 बिलियन अमरीकी डॉलर था।

विगत वर्षों में भारत के विदेशी ऋण सचकों में सधार हो रहा है। भारत का विदेशी ऋण वर्ष 1994.95 म स. घ. उ. का 30.8 प्रतिशत था जो घटकर 2016-17 में 20.2 प्रतिशत हो गया। विगत वर्षों में भारत के विदेशी व्यापार में पर्याप्त वृद्धि हुई है। विश्वव्यापी निर्यात में भारत का हिस्सा (2016) 1.7 प्रतिशत पर पहुंच गया है।

इस तरह, भारतीय अर्थव्यवस्था का आधार मजबूत है। आज विकसित देश मंदी के दौर से गुजर रहे हैं, परन्तु भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर यथावत बनी हुई है।

भारतीय अर्थव्यवस्था अभी भी यद्यपि पिछड़ी है, परन्तु तीव्र गति से विकासमान और निर्धनता के दुश्चक्र से बाहर है। देश में हुए विकास के फलस्वरूप अर्थव्यवस्था में संस्थागत एवं संरचनात्मक परिवर्तन स्पष्ट दृष्टि गोचर हो रहे हैं। देश में संरचनात्मक सुधार हुए हैं तथा वित्तीय ढांचा मजबूत हुआ है। देश की अर्थव्यवस्था में विकसित बाजार तन्त्र से विश्व की अर्थव्यवस्था से जुड़ाव बढ़ा है। आज भारतीय अर्थव्यवस्था की गणना विश्व की प्रमुख अर्थव्यवस्था में होने लगी है।

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भारत एक धनी देश है, परन्तु यहाँ के निवासी निर्धन हैं

(INDIA IS A RICH COUNTRY INHABITANTS BY POOR)

विदेशी विद्वानों ने भारतीय अर्थव्यवस्था के बारे में अपना मत व्यक्त किया है कि “भारत एक धनी देश है, परन्तु यहाँ के निवासी निर्धन हैं।” वास्तव में, यह विरोधाभास की स्थिति को व्यक्त करता है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि भारत एक धनी देश है। यहाँ प्राकृतिक व अन्य संसाधन पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं। इसलिए इसको सोने की चिड़िया का नाम दिया जाता है, लेकिन निम्न जीवन-स्तर व निर्धनता यह बताते हैं, कि यहाँ के निवासी निर्धन हैं। अतः इस कथन की व्याख्या करने के लिए इसके दो पहलुओं का अध्ययन करना होगा : (I) भारत एक धनी देश है। (II) यहाँ के निवासी निर्धन हैं।

(1) भारत एक धनी देश है (India is a Rich Country)

विश्व के देशों ने भारत को अतीत से ही एक धनी देश माना है। यहाँ संसाधन प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं। इसका क्षेत्रफल व्यापक है। प्राकृतिक स्थिति अच्छी है। यहाँ विभिन्न प्रकार की जलवायु पायी जाती है। वन सम्पदा पर्याप्त मात्रा में है। शक्ति के लिए प्राकृतिक व अन्य संसाधन भी काफी है। इसको ‘उप-महाद्वीप’ के नाम से भी पुकारा जाता है। संक्षेप में, भारत एक धनी देश है इस सन्दर्भ में अग्र तथ्य प्रस्तत कर यह सिद्ध किया जा सकता है कि वास्तव में भारत एक धनी देश है :

भौगोलिक स्थिति भारत की भौगोलिक स्थिति अच्छी है। उत्तर में हिमालय इसका प्रहरी है। परब में बांग्लादेश व म्यांमार हैं। पश्चिम में अरब सागर व दक्षिण में हिन्द महासागर है। यह विश्व का सातवाँ बड़ा देश है जिसका क्षेत्रफल 32.87 लाख वर्ग किलोमीटर है जो विश्व के क्षेत्रफल का 2.4 प्रतिशत है। इसकी उत्तर-दक्षिण तक की लम्बाई 3,214 किलोमीटर व पूर्व से पश्चिम तक की लम्बाई 2.933 किलोमीटर है। भारत हिन्द महासागर पर स्थित होने के कारण सभी अन्तर्राष्ट्रीय व्यापारिक मार्गों से जड़ा हुआ है। वायुमार्गों के सम्बन्ध में भी भारत की स्थिति अच्छी है। इस प्रकार की यह स्थिति अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार तथा आर्थिक विकास के लिए सहायक है।

(2) विभिन्न जलवायुभारत में भिन्न-भिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न प्रकार की जलवाय पायी जाती है। इसलिए मासंडन ने लिखा है कि “विश्व की समस्त जलवायु भारत में मिल जाती है।” इसी बात को एक अन्य विद्वान ब्लैण्ड फोर्ड (Bland Ford) ने इस प्रकार कहा है कि “विश्व के किसी भी देश की जलवायु में इतनी विभिनता नहीं पायी जाती है जितनी कि भारत की जलवायु में।” वैसे यहाँ की जलवाय अर्द्ध-उष्णप्रदेशीय मानी जाती है। दक्षिण भारत में तापमान प्रायः ऊंचा रहता है, अतः वहाँ सर्दी कम पडती है। उत्तरी भारत में तापमान गर्मियों में गर्म व सर्दियों में ठण्डी रहती है। समुद्री किनारे पर बसे क्षेत्रों में जलवायु समशीतोष्ण रहती है। जलवायु की विभिन्नता के कारण यहाँ अनेक प्रकार की वनस्पति, खनिज सम्पदा, कृषि पदार्थ, पशु व जंगल पाये जाते हैं।

(3) वन सम्पदाभारत वन रिपोर्ट 2015 के अनुसार, भारत के कुल क्षेत्रफल के 24.16 प्रतिशत क्षेत्र में वन सम्पदा है। इस वन सम्पदा से अनेक उद्योगों को कच्चा माल मिलता है। जैसे—कागज, दियासलाई फर्नीचर, प्लाईवुड, पेण्ट्स व वार्निश, औषधि, शहद, आदि।

(4) खनिज भण्डारखनिज पदार्थों में भारत बहुत ही धनी है। इस दृष्टि से भारत का अभ्रक में प्रथम व मैंगनीज में तृतीय स्थान है। यहाँ पर लोहे व कोयले के भारी भण्डार हैं। अणु शक्ति बनाने के लिए यूरेनियम व थोरियम यहाँ पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं। यहाँ सोने व चाँदी की खाने हैं। इनके अतिरिक्त, ताँबा, चूना पत्थर, जिप्सम व बॉक्साइट के भी भण्डार यहाँ पर पर्याप्त मात्रा में पाये जाते हैं। इस प्रकार यहाँ खनिज भण्डार पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं।

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(5) उपजाऊ मैदानभारत में कृषि की दृष्टि से विशाल उपजाऊ मैदान हैं, जो नदियों द्वारा बनाये गये हैं। यहाँ अनेक प्रकार की मिट्टियाँ पायी जाती हैं जो भिन्न-भिन्न प्रकार की वस्तुओं को उगाने के लिए सर्वोत्तम हैं; जैसे—पंजाब, हरियाणा, बिहार, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल व असम में दोमट मिट्टी पायी जाती है जो चावल, गेहूँ, गन्ना, तिलहन, कपास, पटसन व तम्बाकू उगाने के लिए अच्छी है। इसी प्रकार भारत में काली मिट्टी पायी जाती है जो चाय और कॉफी उत्पादन के लिए उत्तम है।

(6) जल भण्डारभारत में बारहमासी बहने वाली नदियाँ हैं जिनमें अपार जल है। इस जल को रोककर सिंचाई के काम में लाया जा सकता है तथा विद्युत् उत्पादन किया जा सकता है जिससे उद्योगों को

अधिक विद्युत् देकर औद्योगीकरण को बढ़ावा दिया जा सकता है। भारत में इस सम्बन्ध में कुछ प्रयत्न किये गये हैं जो सराहनीय हैं। इससे कृषि उत्पादन बढ़ा है, विद्युत् उत्पादन बढ़ा है व औद्योगीकरण में सहायता मिली है।

(7) विशाल शक्ति साधनभारत में शक्ति संसाधन; जैसे—कोयला, पेट्रोलियम पदार्थ, गैस, अणु शक्ति, लकड़ी, आदि भी काफी मात्रा में पाये जाते हैं। पेट्रोलियम पदार्थों के लिए यहाँ पुराने स्थानों के अतिरिक्त नये-नये स्थानों की खोज जारी है। कुछ वर्ष पूर्व समुद्र तल के नीचे इसके भण्डार पाये गये हैं जहाँ से अब वाणिज्यिक उत्पादन हो रहा है। अणु शक्ति के लिए भी आवश्यक पदार्थ भारत में उपलब्ध हैं।

(8) प्रचुर पशु धन—भारत में पशु धन भी प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। शायद वह विश्व में सबसे अधिक है।

(9) अपार जन-शक्ति-जन-शक्ति की दृष्टि से भारत का विश्व में चीन के बाद दूसरा स्थान है। वर्तमान में यहाँ की जनसंख्या 133 करोड़ से अधिक है। यदि इस अपार जन-शक्ति को काम में लाया जाय तो देश उन्नति के सर्वोच्च शिखर पर पहुँच सकता है और सारे राष्ट्र का भाग्य ही बदल सकता है।

इस प्रकार उपयुक्त तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि भारत एक धनी देश है

(II) यहाँ के निवासी निर्धन हैं (Inhabitants are Poor)

भारत एक धनी देश है, लेकिन यहाँ के निवासी निर्धन हैं। ऐसा क्यों? इसका एक ही उत्तर है कि हम प्राकतिक व अन्य प्रकृति प्रदत्त संसाधनों का विदोहन उचित प्रकार से नहीं कर पाये हैं। यही कारण है कि यहाँ के निवासी निर्धन हैं। इस सम्बन्ध में निम्न तथ्य प्रस्तुत किये जा सकते हैं :

(1) कृषि की प्रधानता, (2) ग्रामीण अर्थव्यवस्था,(3) जनसंख्या का अधिक दबाव, (4) पूँजी की कमी, प्रति व्यक्ति निम्न आय, (6) व्यापक बेरोजगारी, (7) सम्पन्नता में दरिद्रता. (8) तकनीकी ज्ञान का निम्न स्तर (9) आर्थिक विषमता, (10) परम्परावादी समाज, (11) परिवहन व संचार साधनों का अभाव।

उपर्युक्त तथ्यों के सन्दर्भ में कहा जा सकता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था में 66 वर्षों के नियोजन के बाद भी अभी तक सभी प्राकृतिक संसाधनों का पूर्ण विदोहन सुनिश्चित नहीं किया जा सका है। परिणामस्वरूप भारत आज भी ग्रामीण क्षेत्र की बहुलता वाला तथा नीची प्रति व्यक्ति आय वाला देश बना हुआ है। विकसित देशों की तुलना में भारत आज भी एक निर्धन देश बना हुआ है। यद्यपि आर्थिक नियोजन काल में भारत एक विकासशील देश के रूप में स्थापित हो चुका है। देश में नये-नये उद्योग स्थापित हो रहे हैं। शिक्षा का प्रसार हो रहा है। गाँवों का शहरीकरण किया जा रहा है। प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि हो रही है। जीवन-स्तर बढ़ रहा है। यह सभी बातें इस ओर इंगित करती हैं कि कुछ दशकों के बाद भारत की गिनती एक विकसित देश के रूप में होने लगेगी और यहाँ के निवासी सम्मानजनक आय स्तर के साथ जीवनयापन करने में सफल हो सकेंगे।

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प्रश्न

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

1 भारतीय अर्थव्यवस्था की विशेषताएं लिखिए।

2. भारतीय अर्थव्यवस्था के प्रमुख लक्षणों की व्याख्या कीजिए। क्या भारत विकासोन्मुख देश है?

3. क्या आप भारत को एक विकासशील देश समझते हैं? कारण सहित स्पष्ट कीजिए।

4. भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रमुख विशेषताओं की व्याख्या कीजिए और इसके पिछड़ेपन के कारण बताइए।

5. क्या आप इस विचार से सहमत हैं कि भारत अभी भी अल्प-विकसित देश है? तर्क दीजिए।

लघु उत्तरीय प्रश्न

1 भारत एक धनी देश है, लेकिन यहाँ के निवासी निर्धन हैं।” इस कथन को संक्षेप में समझाइए।

2. भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रकृति को समझाइए।

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