BCom 1st Year Environment Industrial Policy and Licensing System Study Material Notes in Hindi
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BCom 1st Year Environment Industrial Policy and Licensing System Study Material Notes in Hindi: Meaning of Industrial Policy Importance of Industrial Policy 1956 Industrial Policy 1991 Industrial Licensing Policy Evaluation of Industrial Policy of India National Manufacturing Policy 2011 Examination Questions Long Answer Questions Short Answer Questions :
BCom 1st Year Business Environment Monetary Fiscal Policy Study Material Notes in Hindi
औद्योगिक नीति एवं लाइसेन्स व्यवस्था
[INDUSTRIAL POLICY AND LICENSING SYSTEM]
औद्योगिक नीति से अर्थ
(MEANING OF INDUSTRIAL POLICY)
औद्योगिक नीति से अर्थ सरकार के उस चिन्तन (Philosophy) से है जिसके अन्तर्गत औद्योगिक विकास का स्वरूप निश्चित किया जाता है तथा जिसको प्राप्त करने के लिए नियम व सिद्धान्तों को लागू किया जाता है। दूसरे शब्दों में, इस प्रकार भी कह सकते हैं कि औद्योगिक नीति से अर्थ सरकार की उस औपचारिक घोषणा से है जिसमें उद्योगों के प्रति अपनायी जाने वाली नीतियों का उल्लेख होता है।
इस नीति में उन सभी सिद्धान्तों, नियमों व रीतियों का विवरण होता है जिन्हें उद्योगों के विकास के लिए अपनाया जाना है। यह नीति विशेष रूप से भावी उद्योगों के विकास, प्रबन्ध व स्थापना से सम्बन्धित होती है। इस नीति को बनाते समय देश का आर्थिक ढाँचा, सामाजिक व्यवस्था, उपलब्ध प्राकृतिक साधन व सरकारी चिन्तन का विशेष रूप से ध्यान रखा जाता है।
Industrial Policy and Licensing
औद्योगिक नीति का महत्व
(IMPORTANCE OF INDUSTRIAL POLICY)
प्रत्येक राष्ट्र के लिए औद्योगिक नीति महत्वपूर्ण होती है क्योंकि (1) वह देश के औद्योगिक विकास को सुनियोजित कर देश व अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करती है; (2) राष्ट्र को मार्गदर्शन व निर्देशन देती है; (3) सरकार को निश्चित कार्यक्रम बनाने में मदद करती है तथा (4) जनसाधारण को अपनी निश्चित जीविका का साधन बनाने में सहायता करती है।
भारत जैसे देशों में तो औद्योगिक नीति अनेक कारणों से महत्वपूर्ण है। यहाँ नियोजित अर्थव्यवस्था के माध्यम से औद्योगिक विकास हो रहा है। देश में प्राकृतिक साधन पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं, लेकिन उनका उचित विदोहन नहीं हो रहा है। यहाँ प्रति व्यक्ति आय कम होने के कारण पूंजी-निर्माण की दर भी कम है तथा उपलब्ध पूंजी सीमित मात्रा में है। अतः यह महत्वपूर्ण है कि औद्योगिक नीति इन बातों में मदद करे। वे क्षेत्र जहाँ व्यक्तिगत उद्यमी पहुंचने में समर्थ नहीं हैं, सार्वजनिक क्षेत्र में रखे जायें और सरकार उनका उत्तरदायित्व अपने ऊपर ले। साथ ही यह भी आवश्यक है कि निजी क्षेत्र पर उचित नियन्त्रण भी होना चाहिए जिससे कि विकास योजनाएँ ठीक प्रकार से चलती रहें तथा अति आवश्यक उद्योगों का विकास सबसे पहले हो सके। यह बात भी औद्योगिक नीति के महत्व को दर्शाती है। घरेलू व विदेशी व्यापार उचित प्रकार से चलें इसके लिए भी औद्योगिक नीति महत्वपूर्ण है।
स्वतन्त्रता–प्राप्ति के पश्चात् अब तक 6 बार औद्योगिक नीतियों की घोषणा हो चुकी है जिन्हें (1) औद्योगिक नीति, 1948; (2) औद्योगिक नीति, 1956; (3) औद्योगिक नीति, 1977; (4) औद्योगिक नीति, 1980: (5) औद्योगिक नीति, 1990 व (6) औद्योगिक नीति, 1991 के नाम से पुकारते हैं। लेकिन यहां केवल औद्योगिक नीति, 1956 तथा वर्तमान औद्योगिक नीति 1991 का विस्तृत विवरण दिया जा रहा है।
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औद्योगिक नीति, 1956
(INDUSTRIAL POLICY, 1956)
भारत की नवीन औद्योगिक नीति 30 अप्रैल 1956 को घोषित की गयी। इस नवीन नीति को घोषित करने के कारणों का उल्लेख करते हुए तत्कालीन प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने संसद रतम काफी विकास तथा परिवर्तन हुए हैं। नवीन संविधान बना है। मौलिक अधिकार एवं राज्य नीति के निदेशक सिद्धान्त घोषित किये गये हैं। इसलिए इस बात की आवश्यकता हाक बातों तथा आदशों को प्रतिबिम्बित करते हुए एक नवीन औद्योगिक नीति घोषित की जाए।”
इस नीति के मुख्य उद्देश्य थे : (1) औद्योगीकरण की गति में तीव्र वृद्धि करना, (2) भारा उधागा का विकास करना, (3) सार्वजनिक क्षेत्र का विस्तार करना. (4) कटीर ग्राम व लघु उद्योगों का विस्तार करना, (5) सन्तुलित औद्योगिक विकास करना, (6) एकाधिकार एवं आर्थिक केन्द्रीकरण को रोकना, (7) आय तथा धन के वितरण की असमानता को कम करना. (8) रोजगार अवसरों में वृद्धि तथा श्रमिकों की काय करन एवं रहने की दशा में सुधार।
इस नीति की मुख्य विशेषताएँ निम्न प्रकार थीं:
(1) उद्योगों का वर्गीकरण इस नीति में उद्योगों को तीन वर्गों में विभाजित किया गया : (i) वर्ग ‘अ’ में 17 उद्योग रखे गये जिनके विकास का पूर्ण उत्तरदायित्व राज्य पर होगा, लेकिन वर्तमान निजी क्षेत्र का इकाइया को विकास करने की छूट दे दी गयी। (ii) द्वितीय वर्ग ‘ब’ में वे 12 उद्योग रखे गये जिनके विकास में सरकार उत्तरोत्तर अधिक भाग लेगी। अतः सरकार इनकी स्थापना स्वयं करेगी. लेकिन निजी क्षेत्र से भी आशा का गयी कि वह भी इसमें योग देगा। (iii) तृतीय वर्ग ‘स’ में शेष उयोगों को रखा गया तथा जिनके विकास व स्थापना का कार्य निजी क्षेत्र पर छोड़ दिया गया, लेकिन सरकार को भी यह अधिकार दिया गया कि वह चाहे तो इस श्रेणी के उद्योगों की भी स्थापना कर सकती है।
(2) लघु एवं कुटीर उद्योगों का विकास—इस नीति में लघु एवं कुटीर उद्योगों को महत्वपूर्ण स्थान प्रदान किया गया तथा यह स्पष्ट रूप से कहा गया कि लघु एवं कुटीर उद्योगों को सरकार प्रोत्साहित करेगी जिसके लिए बड़े पैमाने के उद्योगों का उत्पादन सीमित किया जायेगा। विभेदात्मक कर लगाये जायेंगे व प्रत्यक्ष सहायता दी जायेगी।
(3) क्षेत्रीय असमानताओं को कम करना—सन्तुलित क्षेत्रीय विकास के आदर्श को अपनाया जायेगा जिससे औद्योगीकरण का लाभ पूरी अर्थव्यवस्था को हो सके। पिछड़े क्षेत्रों को पानी, बिजली व परिवहन की सुविधाएँ दी जायेगी।
(4) तकनीकी एवं प्रबन्धकीय सेवाएँ देश में औद्योगिक विकास का कार्यक्रम चलाने में तकनीकी एवं प्रबन्धकीय कर्मचारियों की माँग बढ़ेगी जिसके लिए सरकारी एवं निजी दोनों प्रकार के उद्योगों में प्रशिक्षण सविधाएँ देने की व्यवस्था की जायेगी तथा व्यावसायिक प्रबन्ध प्रशिक्षण सुविधाओं का विश्वविद्यालयों व अन्य संस्थाओं में विस्तार किया जायेगा। देश में प्रबन्धकीय व तकनीकी कैडर (cadre) की स्थापना की जायेगी।
(5) औयोगिक सम्बन्ध एवं श्रम कल्याण औद्योगिक सम्बन्धों को अच्छे बनाये रखने, श्रमिकों को आवश्यक सविधाएँ एवं प्रोत्साहन देने, कार्य-दशाओं में सुधार तथा उत्पादकता बढ़ाने पर भी जोर दिया गया।
(6) विदेशी पंजी सरकार देशी व विदेशी प्रतिष्ठानों में कोई भेदभाव नहीं बरतेगी। लाभ को बाहर ले जाने या पंजी को वापस ले जाने की छूट होगी। यदि राष्ट्रीयकरण किया गया तो उचित और न्यायपर्ण क्षतिपूर्ति दी जायेगी।
(7) निजी एवं सार्वजनिक क्षेत्रों में पारस्परिक सहयोग–इस नीति में यह स्पष्ट किया गया है कि उद्योगों का वर्गीकरण पूर्णतः पृथक्–पृथक् नहीं है। विशेष परिस्थितियों में उपर्युक्त विभाजन में परिवर्तन किया जा सकता है। कछ उद्योगों को दो या दो से अधिक श्रेणियों में रखा जा सकता है। कछ निजी एकादशाँ की वस्तओं का उत्पादन कर सकती है। इसी प्रकार सरकारी क्षेत्र के अधीन भारी उद्योग निजी क्षेत्र पर निर्भर रह सकते हैं।
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औद्योगिक नीति, 1956 की आलोचनात्मक समीक्षा
औद्योगिक नीति, 1956 के बारे में भी मिश्रित प्रतिक्रिया हुई : (i) इसको संविधान के अनुरूप बताया गया, अतः इसको आर्थिक संविधान (Economic Constitution) माना गया। (ii) समाजवादी समाज की स्थापना में एक महत्वपूर्ण कदम बताया गया, क्योंकि इसमें सरकारी क्षेत्र को अधिक व्यापक बनाया गया था।। (iii) पिछली नीति में उद्योगों का वर्गीकरण कट्टर था, लेकिन इसमें लचीलापन था। (iv) राष्ट्रीयकरण न करने के आश्वासन को उचित माना गया। (v) प्रबन्ध एवं तकनीकी सेवाओं की व्यवस्था को समयानुसार बताया। गया। (vi) कुटीर एवं लघु उद्योगों के महत्व को स्वीकार कर बेरोजगारी को दूर करने के लिए इनको उचित बताया गया। (vii) श्रमिकों को सुविधाएँ देने की बात भी समयानुकूल बतायी गयी। ।
लेकिन इस नीति की आलोचना की गयी : (1) सरकारी पूंजीवाद को प्रोत्साहन इस नीति की आलोचना इस आधार पर की गयी कि इनसे सरकारी पूंजीवाद को प्रोत्साहन मिलेगा। (2) निजी क्षेत्र के प्रतिकल निजी क्षेत्र ने इस आधार पर आलोचना की कि इस नीति से 29 (17 + 12) उद्योग निजी क्षेत्र के हाथों से निकल गये और इस प्रकार निजी क्षेत्र का कार्य-क्षेत्र संकुचित हो गया। (3) अस्पष्ट व अनिश्चित—यह नीति अस्पष्ट व अनिश्चित है। इसमें कुछ वाक्यों को जोड़कर उद्योगों का वर्गीकरण निरर्थक कर दिया गया है। (4) सैद्धान्तिक पक्ष को अधिक महत्व इस नीति में व्यावहारिक पहलू की उपेक्षा की गयी है। सैद्धान्तिक दृष्टिकोण को अधिक महत्व दिया गया है। समाजवाद के जोश में वास्तविकता को भुला दिया गया है। (5) कठिन दायित्व सरकारी क्षेत्र का विस्तार करके सरकार के लिए दायित्व की कठिन समस्या उत्पन्न कर दी है जिसको कुशलता से निभाना सरकार के लिए कठिन होगा। (6) औद्योगिक विकास में अस्थिरता औद्योगिक नीति में बार-बार परिवर्तन करना देश के औद्योगिक विकास में अस्थिरता लाता है। किसी व्यक्ति के साहस को ठेस पहुंचती है और यह धारणा बनती है कि सरकार कभी भी कोई नीति घोषित कर उद्योग को ले सकती है।
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औद्योगिक नीति 1991
(INDUSTRIAL POLICY 1991)
भारत में अभी तक 1956 की औद्योगिक नीति लागू थी जिसके अन्तर्गत 1977, 1980 व 1990 में कुछ स्पष्टीकरण किये गये, परन्तु कांग्रेस सरकार ने केन्द्र में सत्ता में आने पर 24 जुलाई, 1991 को बिल्कुल नवीन औयोगिक नीति की संसद में घोषणा की। इस नीति की प्रमुख विशेषताएं या उद्देश्य निम्न प्रकार हैं:
1 उत्पादकता में निरन्तर वृद्धि बनाए रखना, 2. लाभकारी रोजगार के अवसरों का विकास करना, 3. मानव संसाधनों का अधिकतम उपयोग करना, 4. अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धात्मकता को प्राप्त करना, तथा 5. विश्व स्तर पर भारत को एक प्रमुख भागीदार और प्रतियोगी के रूप में स्थापित करना।
इस नीति की मुख्य निम्नलिखित तीन बातें हैं
1 भारतीय उद्योगों को विनियमों (Regulations) से मुक्त करना। 2. बाजार की शक्तियों के अनुरूप उद्योग को पूरी स्वतन्त्रता देना जिससे कि उसमें लोच आ सके। 3. भारतीय उद्योग के विकास में सहायता करना तथा उसमें तीव्रता लाना। इसके लिए नीतिगत व्यवस्था उपलब्ध कराना।
उपर्युक्त उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए सरकार ने कुछ नीतिगत उपाय किए हैं जो निम्न प्रकार हैं
(1) औद्योगिक लाइसेन्स नीति का उदारीकरण—इस समय केवल 5 उद्योगों [(i) एल्कोहल युक्त पेयों का आसवन एवं निर्माण, (ii) तम्बाकू के सिगार, सिगरेट तथा विनिमत तम्बाकू के अन्य विकल्प, (iii) इलेक्ट्रॉनिक, एयरोस्पेस तथा सभी प्रकार के रक्षा उपकरण, (iv) डिटोनेटिंग फ्यूज, सेफ्टी फ्यूज, गन पाउडर, माचिस सहित औद्योगिक विस्फोटक सामग्री, (v) खतरनाक रसायन] के लिए ही लाइसेन्स लेना अनिवार्य है। इसी प्रकार सार्वजनिक क्षेत्र के लिए केवल तीन उद्योग (परमाणु ऊर्जा, खनिज जो परमाणु ऊर्जा में काम आते हैं व रेल परिवहन) ही आरक्षित हैं। वर्तमान में अनिवार्य लाइसेन्स की परिधि में रखे गए उद्योगों की संख्या 4 है तथा सार्वजनिक क्षेत्र के लिए आरक्षित उद्योगों की संख्या 2 है। अल्कोहल युक्त पदार्थों का आसवन एवं निर्माण लाइसेन्स मुक्त है।
वर्तमान में मात्र दो उद्योग ही सार्वजनिक क्षेत्र के लिए आरक्षित रह गए हैं : (i) परमाण ऊर्जा तथा Gi) रेलवे परिचालन (जिसमें से परिचलान एवं अनुरक्षण सम्बन्धी 10 कार्य निजी क्षेत्र के लिए खोल दिए गए हैं।)
(2) ओयोगिक उद्यमी ज्ञापन (आई. ई. एम.) जो उद्योग लाइसेन्स की अनिवार्यता के अधीन नहीं आते। हैं उन्हें औद्योगिक सहायता सचिवालय (एस. आई. ए.) में एक औद्योगिक उद्यमी ज्ञापन (आई. ई. एम.) प्रस्तत करना पड़ता है। इस प्रकार की छूट प्राप्त उद्योगों के लिए कोई औद्योगिक अनुमोदन आवश्यक नहीं। है। 1 जुलाई, 1998 से दायर किए गए औद्योगिक उद्यमी ज्ञापनों में संशोधन करने की भी अनुमति है।
(3) विदेशी पूंजी विनियोग–48 उच्च प्राथमिकता वाले क्षेत्रों में विदेशी पंजी निवेश सीमा को बढ़ाकर। 51% कर दिया गया है। खनन की क्रियाओं से सम्बन्धित 3 उद्योगों में विदेशी पूंजी निवेश सीमा 50% तथा 9 अन्य उद्योगों में विदेशी पूंजी निवेश की सीमा को 74% तक बढ़ा दिया गया है।
(4) विदेशी तकनीक उच्च प्राथमिकता प्राप्त 35 उद्योगों के लिए विदेशी तकनीक के समझौतों के स्वतः अनुमोदन (Automatic Approval) का प्रावधान किया गया है। साथ ही विदेशी मद्रा की मांग न करने वाले अन्य उद्योगों के लिए भी विदेशी तकनीक के समझौतों के स्वतः अनुमोदन की व्यवस्था की गई है।
(5) स्थानीयकरण उद्योग स्थापित करने के लिए स्थान का चयन करने हेत उद्यमी स्वतन्त्र है, परन्तु ऐसे स्थानों के सम्बन्ध में सरकार से औद्योगिक लाइसेन्स प्राप्त करने की आवश्यकता है जो उन शहरों की सीमा के 25 किलोमीटर के अन्दर आते हों, जिनकी जनसंख्या वर्ष 1991 की जनणगना के अनुसार एक मिलियन से अधिक है और जो 24 जुलाई, 1991 से पहले राज्य सरकारों द्वारा विनिर्दिष्ट औद्योगिक क्षेत्रों की सीमा के अन्तर्गत न आते हों। स्थापना स्थल सम्बन्धी प्रतिबन्ध इलेक्टॉनिक्स, कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर और प्रिन्टिंग उद्योगों तथा समय-समय पर अधिसूचित किए जाने वाले अन्य गैर-प्रदूषणकारी उद्योगों पर लागू नहीं होते हैं।
(6) शत–प्रतिशत निर्यातोन्मुखी योजना—इस योजना की प्रमुख विशेषताएं इस प्रकार हैं :
(A) (i) शत–प्रतिशत निर्यातोन्मुखी इकाइयों को अर्थात् शुल्क के बिना मशीनरी, कच्चा माल, पुर्जे, उपभोग्य सामग्री प्राप्त करने की छूट होती है। (ii) लघु क्षेत्र के लिए आरक्षित की गई मदों के विनिर्माण हेतु अलग से औद्योगिक लाइसेन्स लेने की आवश्यकता नहीं है। (iii) निर्यातों के EO.B. माल के 50 प्रतिशत भाग की बिक्री देश के अन्दर की जा सकती है।
(B) इलेक्ट्रोनिक हार्डवेयर टेक्नोलोजी पार्क (E.H.T.P.)/सॉफ्टवेयर टेक्नोलोजी पार्क (S.T.P.) योजना लागू की गई है। इसके अन्तर्गत स्थापित इकाइयों को अपने निविष्टियों (Inputs) को बिना शुल्कों को प्राप्त करने का अधिकार है।
(7) एकाधिकार एवं प्रतिबन्धात्मक व्यापारिक व्यवहार अधिनियम में संशोधन–इस अधिनियम में संशोधन किया जायेगा जिससे कि नयी कम्पनियों को स्थापित करने, एक कम्पनी का दूसरी में विलय करने, दो कम्पनियों का आपसी मिलान, एक कम्पनी द्वारा दूसरी को खरीदने तथा कुछ परिस्थितियों में कम्पनी निदेशकों की नियुक्ति करने के लिए केन्द्र सरकार की पूर्व अनुमति की आवश्यकता नहीं होगी, लेकिन नयी शक्तियों वाले एम. आर. टी. पी. आयोग को अधिकार होगा कि वह एकाधिकार वाली प्रतिबन्धित तथा गैर-वाजिब व्यापारिक गतिविधियों की अपने आप जाँच करे या उपभोक्ताओं की शिकायतों पर जाँच करे। अब एम. आर. टी. पी. कम्पनियों की सम्पत्तियों की कोई अधिकतम सीमा नहीं होगी।
(8) अन्य महत्वपूर्ण सुधार—पूंजीगत वस्तुओं पर उत्पाद शुल्क अधिक युक्ति संगत बनाया गया। पूंजी सम्बन्धी लागतों को कम करने और निवेश को प्रोत्साहित करने के लिए आयात शुल्कों में और अधिक कटौती के प्रावधान किए गए। पूंजी बाजार में विदेशी निवेश स्तरों में वृद्धि के लिए विदेशी संस्थागत निवेशकों (NRIs) के लिए अल्पकालिक पूंजी लाभों पर 30% की रियायती कर की दर आरम्भ की गई। औद्योगिक रूप से पिछड़े हुए राज्यों एवं संघ राज्य के क्षेत्रों में नये उद्योगों के लिए तथा देश के किसी भी क्षेत्र में विद्युत् उत्पादन करने के लिए पांच वर्ष तक कर की छूट लागू की गई। 2 लाख ₹ से अधिक की उधारियों के लिए न्यूनतम ब्याज दर की सीमा को समाप्त कर दिया गया। रुग्ण औद्योगिक इकाइयों में उपचारात्मक उपायों को तेज करने के लिए दिसम्बर 1993 में Sick Industrial Companies Act 1985 में संशोधन किया गया।
नई औद्योगिक नीति, 1991 अब तक अपनायी गयी नीतियों से भिन्न है। पिछली औद्योगिक नीति, 1948 व 1956 का उद्देश्य औद्योगिक विकास तीव्र गति से करना था, परन्तु सातवीं योजना में यह महसूस किया गया कि अब आवश्यकता विदेशी प्रतिस्पर्धा के सामने टिकने व नियन्त्रणों को ढीला करने की है जिससे कि औयोगिक उत्पादन तीव्र गति से सभी दिशाओं में बढ़ सके व निर्यातों में वृद्धि हो सके। इसी पृष्ठभूमि में इस नवीन औद्योगिक नीति की घोषणा की गयी है, परन्तु इसकी आलोचना निम्न आधारों पर की जा रही है :
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(1) विदेशी पूंजी से खतरा विदेशी पूंजी से सबसे बड़ा खतरा देशी उद्योगपतियों को है। यदि वे उनके जायेगा।
(2) भ्रष्टाचार की गंजाइश सरकार ने अभी भी कुछ वस्तुओं के उत्पादन को लाइसेंस मक्त नहीं किया है। इससे प्रतीत होता है कि अभी भी भ्रष्टाचार की गुंजाइश है।
(3) अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के समक्ष आत्म-समर्पण-कुछ लोगों का कहना है कि नई औद्योगिक नीति अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष तथा विश्व बैंक के सामने आत्म-समर्पण है जिसने भारत की आर्थिक स्वायत्तता पर प्रश्न-चिह्न लगा दिया है।
(4) नेहरू–महालनोबिस मॉडल को विदाई-नवीन नीति ने नेहरू-महालनोबिस मॉडल को अलविदा कह दिया है। नवीन नीति से आर्थिक शक्तियों का केन्द्रीकरण होगा तथा उत्पादन की प्राथमिकताएँ बदल सकती है जो समाजवादी समाज के अनुरूप नहीं हो सकती हैं। इससे आर्थिक विषमताएँ बढ़ सकती हैं।
(5) लघु उद्योगों को खतरा बहुराष्ट्रीय निगमों के देश में आने से छोटे-छोटे उद्योगों को खतरा पैदा हो गया है। यह उद्योग उनके सामने अपनी वस्तु की क्वालिटी के सम्बन्ध में पीछे रह जाएंगे।
(6) बेरोजगारी बढ़ने की सम्भावना जब देशी उद्योग बड़े-बड़े बहराष्ट्रीय निगमों के आगे टिक नहीं पायेंगे तो वे अन्त में फेल होकर बन्द हो जाएंगे जिससे बेरोजगारी बढ़ने की सम्भावना है।
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भारत की औद्योगिक नीति का मूल्यांकन
(EVALUATION OF INDUSTRIAL POLICY OF INDIA)
सरकार की औद्योगिक नीति कहाँ तक सफल रही है इस सम्बन्ध में विद्वानों में एक राय नहीं है। कुछ का कहना है कि भारत की औद्योगिक नीति सफल रही है जिसके सन्दर्भ में वे निम्न तर्क प्रस्तुत करते हैं:
(1) औद्योगिक विकास औद्योगिक नीति के अन्तर्गत देश में औद्योगिक विकास हुआ है। नये बड़े व विविध प्रकार के उद्योग स्थापित हुए हैं जिसके फलस्वरूप उत्पादन बढ़ा है और भारत अब औद्योगिक वस्तुओं के आयात के स्थान पर निर्यात करने लगा है।
(2) लघु एवं कुटीर उद्योगों का विकास भारत की औद्योगिक नीति के फलस्वरूप लघु एवं कुटीर उद्योगों का काफी विकास हुआ है और वर्तमान में भारतीय अर्थव्यवस्था में उन्होंने अपना महत्वपूर्ण स्थान बना लिया है।
(3) सार्वजनिक क्षेत्र का विस्तार-1950 के बाद सार्वजनिक क्षेत्र का काफी विस्तार हुआ है। 1960-61 में भारत के केन्द्रीय सरकार के 48 उपक्रम थे जिनमें 953 करोड़ र लगा हुआ था, जबकि 31 मार्च, 2016 तक 320 उपक्रम जिनमें से 244 कार्य कर रहे थे। इन उद्योगों में 11,71,844 करोड़ र विनियोजित था।
(4) क्षेत्रीय असमानताओं में कमी-औद्योगिक नीति के फलस्वरूप क्षेत्रीय असन्तुलन कम करने में मदद मिली है। सार्वजनिक व निजी क्षेत्र के उद्योग उन स्थानों पर स्थापित किये गये हैं, जो औद्योगिक दृष्टि से पिछड़े हुए थे। उदाहरण के लिए, इस्पात के कारखाने राउरकेला, दुर्गापुर व भिलाई में इसी उद्देश्य को लेकर स्थापित किये गये हैं। मशीन टूल्स की पाँच इकाइयाँ पाँच राज्यों में स्थापित की गयी हैं। रासायनिक खाद के लिए भी यही नीति अपनायी गयी है।
(5) विदेशी उपक्रमों की स्थापना भारत में अनेक उपक्रम विदेशियों की सहायता से स्थापित किये गये हैं। 1951 में यहाँ केवल 81 विदेशी उपक्रम थे, लेकिन आज उनकी संख्या 6 हजार के लगभग है। इससे देश के औद्योगिक विकास में सहायता मिली है।।
लेकिन कुछ विद्वानों का कहना है कि औद्योगिक नीति सफल नहीं है और वे इस सम्बन्ध में निम्न तर्क प्रस्तुत करते हैं:
(1) सार्वजनिक क्षेत्र की असफलता भारत में सार्वजनिक क्षेत्र के अकेले केन्द्रीय सरकार के उपक्रमों में खरबों रुपये की पूंजी विनियोजित है, लेकिन वे सामान्य औसत लाभ तक देने में असमर्थ रहे हैं। उनमें प्रशासनिक अकुशलता, भ्रष्टाचार व बेईमानी का बोलबाला है और सरकारी सम्पत्ति व धन का दुरुपयोग हो रहा है।
(2) बड़े घरानों को लाभ इस नीति से बड़े घरानों को लाभ हो रहा है। उनका आर्थिक केन्द्रीकरण बढ़। रहा है। उनकी सम्पत्तियाँ बराबर बढ़ रही हैं। उनके उद्योगों का विकास हो रहा है, जबकि एकाधिकारी व केन्द्रीकरण की प्रवृत्ति के बढ़ने से जनता का शोषण बढ़ रहा है।
(3) विदेशी पूंजी से हानि औद्योगिक नीति में विदेशी पूंजी को आमन्त्रित करने की बात कही गयी है जिससे अनेक उपक्रम विदेशी सहयोग से स्थापित हो गये हैं. लेकिन यह उपक्रम देश के हित में कार्य नहीं। कर रहे हैं। साथ ही करोड़ों रुपये प्रति वर्ष विदेशों को लाभ के रूप में भेजने की अनुमति देनी पड़ती है। जिसका प्रभाव विदेशी मुद्रा कोष पर पड़ता है।
(4) क्षेत्रीय असमानता में कोई खास परिवर्तन न होना औद्योगिक नीति के फलस्वरूप कुछ उद्योग ऐसे स्थानों पर भी स्थापित किये गये हैं जहाँ पहले से कोई उद्योग नहीं थे. लेकिन इससे क्षेत्रीय असमानताओं में कोई महत्वपूर्ण परिवर्तन नहीं आया है।
औयोगिक नीति की उपर्यक्त असफलताएँ केवल आलोचना की दृष्टि से ही की गयी हैं। वास्तविकता यह है । कि इस नीति से देश को लाभ हुआ है। जहाँ तक सार्वजनिक क्षेत्र की असफलता का प्रश्न है, यह तो सरकार की असफलता है। यदि उनको उचित प्रकार से व्यावसायिक नीतियों के अनुसार चलाया जाय तो वे भी लाभदायक फल दे सकते हैं वैसे उनसे सार्वजनिक क्षेत्र का विस्तार तो हआ है और अब निजी क्षेत्र अनेक उद्योगों में एकाधिकारी न होकर प्रतियोगी व पूरक है।
बड़े घरानों के उद्योगों का विस्तार भी उचित ही है। इससे माँग पूरी करने में सहायता मिली है। औद्योगीकरण का विस्तार हुआ है। विदेशी पूंजी ने भी औद्योगीकरण में सहयोग किया है। अतः लाभों का ले जाना भी उचित है।
इस प्रकार औद्योगिक नीति यदि पूर्ण रूप से सफल न रही तो इतना तो अवश्य ही कहा जा सकता है कि यह आंशिक रूप से तो अवश्य ही सफल रही है।
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औद्योगिक लाइसेंसिंग नीति
(INDUSTRIAL LICENSING POLICY)
औद्योगिक लाइसेंसिंग नीति एक प्रकार की वह नीति है जिसमें उद्योगों की स्थापना की अनुमति आज्ञापत्र के आधार पर दी जाती है। सामान्यतया इसमें उद्योगों की क्षमता, स्थापना का स्थान, वस्तु का नाम व किस्म, आदि का विवरण दिया रहता है।
“लाइसेंसिंग नीति के अपनाने का एक उद्देश्य आर्थिक योजनाओं की प्राथमिकताओं के अनुसार निजी औद्योगिक इकाइयों की स्थापना, विस्तार व प्रभुत्व पर सरकारी नियन्त्रण रखना है।” भारत में औद्योगिक लाइसेंसिंग नीति को अपनाने का एक और उद्देश्य है और वह है क्षेत्रीय असमानताएँ कम करना व आर्थिक शक्ति के केन्द्रीकरण व एकाधिकारी प्रवृत्ति को रोकना। संक्षेप में, लाइसेंसिंग नीति अपनाने के मुख्यतया पाँच उद्देश्य हैं : (1) उपलब्ध साधनों का उचित विदोहन करना; (2) औद्योगिक विकास आर्थिक नियोजन की प्राथमिकताओं के अनुरूप करना; (3) औद्योगिक इकाइयों की स्थापना, विस्तार व प्रभुत्व पर सरकारी नियन्त्रण रखना; (4) आर्थिक शक्ति के केन्द्रीकरण व एकाधिकारी प्रवृत्ति को रोकना तथा (5) क्षेत्रीय औद्योगिक असमानताओं को कम करना।
भारत में इस कार्य के लिए मुख्यतया तीन अधिनियम हैं–(1) औद्योगिक (विकास एवं नियमन) अधिनियम (Industries Development and Regulation Act), 1951 व (II) एकाधिकारी एवं प्रतिबन्धात्मक व्यापारिक व्यवहार अधिनियम (Monopolies and Restrictive Trade Practices Act), 1969, एवं (III) विदेशी विनिमय नियमन अधिनियम (FERA) व विदेशी विनिमय प्रवन्ध अधिनियम (FEMA)
(1) औद्योगिक (विकास एवं नियमन) अधिनियम, 1951
औद्योगिक नीति, 1948 को व्यावहारिक रूप देने के लिए 1951 में औद्योगिक (विकास एवं नियमन) अधिनियम पारित किया गया तथा जिसे 8 मई, 1952 से लागू किया गया। इस अधिनियम के मुख्या उद्देश्य इस प्रकार हैं : (1) औद्योगिक विकास का नियमन करना एवं योजना-प्राथमिकताओं तथा तथ्यों के अनुसार साधनों के प्रभाव को मोड देना: (2) एकाधिकार को दूर रखना एवं धन के केन्द्रीकरण को रोकना; (3) वृहत-स्तरीय उद्योगों की अनचित प्रतिस्पर्धा से लघु-स्तरीय उद्योग को संरक्षण देना; (4) नये उद्यमियों को उद्योग स्थापित करने के लिए प्रोत्साहित करना तथा (5) आर्थिक इकाइयों की स्थापना करना एवं आधुनिक विधियों के प्रयोग में तकनीकी एवं आर्थिक सुधार का प्रयल करना।
औयोगिक (विकास एवं नियमन) अधिनियम, 1951 की मुख्य बातों को तीन भागों में विभाजित कर सकते हैं : (1) प्रतिबन्धात्मक,(2) सुधारात्मक व (3) रचनात्मक।
(1) प्रतिबन्धात्मक वर्तमान में केवल 5 उद्योगों के लिए ही यह प्रतिबन्ध लागू है। इन उद्योगों को बिना। केन्द्रीय सरकार से लाइसेंस प्राप्त किये स्थापित नहीं किया जा सकता है और न वर्तमान इकाइयों द्वारा अपना। विस्तार किया जा सकता है।
(2) सुधारात्मक इस अधिनियम की तीन बातें सुधारात्मक मानी जा सकती हैं : (i) केन्द्रीय सरकार को किसी भी उद्योग की जाँच करने का अधिकार है, जबकि उत्पादन कम हो रहा है, वस्तु की क्वालिटी गिर रही है, वस्तुओं के मूल्य बढ़ रहे हैं या राष्ट्रीय साधन की रक्षा की आवश्यकता है। (ii) यदि किसी औद्योगिक इकाई का प्रबन्ध सन्तोषजनक नहीं है या वह इकाई सरकारी आदेशों व निर्देशों का पालन करती है तो सरकार ऐसी इकाई का नियन्त्रण एवं प्रबन्ध 17 वर्षों तक के लिए अपने हाथ में ले सकती है। पहले प्रबन्ध 5 वर्ष के लिए लिया जायेगा जिसमें प्रति दो वर्ष के लिए वृद्धि की जायगी। इसके लिए संसद की स्वीकृति लेना आवश्यक होगा। (iii) केन्द्रीय सरकार को यह अधिकार दिया गया है कि वह वस्तुओं के उचित वितरण एवं मूल्यों को उचित-स्तर पर बनाये रखने के लिए उनकी बिक्री को नियमित एवं निर्गमित कर सकती है।
(3) रचनात्मक इस अधिनियम में उद्योगों के विकास के लिए यह व्यवस्था की गयी है कि (i) केन्द्रीय परामर्श समिति (Central Advisory Council) का गठन किया जायेगा। (ii) विकास परिषदें स्थापित की जायेंगी। (iii) औद्योगिक पैनल्स बनाये जायेंगे। (iv) औद्योगिक आँकड़े एकत्रित किये जायेंगे।
इस अधिनियम के अन्तर्गत प्राप्त अधिकारों का उपयोग करते हुए केन्द्रीय सरकार ने इस समय कई इकाइयों का नियन्त्रण एवं प्रबन्ध अपने हाथ में ले रखा है।
इस अधिनियम के अन्तर्गत (i) केन्द्रीय सलाहकार परिषद् बनायी गयी है जिसका कार्य तथ्यों एवं आँकड़ों का संकलन करना है। इसमें उद्योग, श्रमिक व उपभोक्ता सभी का प्रतिनिधित्व है। (ii) इस परिषद ने एक पुनरावलोकन उप-समिति बना रखी है जिसका कार्य लाइसेंसों के बारे में आवश्यक तथ्यों का पर्यवेक्षण करना है। (iii) केन्द्रीय सलाहकार परिषद् ने ही एक स्थायी समिति बना रखी है जिसके 16 सदस्य हैं। इसका कार्य किसी उद्योग की स्थिति का पुनरावलोकन करना है। (iv) अब तक 24 उद्योगों के लिए विकास परिषदें बनायी गयी हैं। (v) औद्योगिक पैनल भी बनाये गये हैं जिनका काम उद्योग की विभिन्न समस्याओं का अध्ययन करना है। यह औद्योगिक पैनल उन्हीं के बारे में बनाये जाते हैं जिनके लिए विकास परिषदें नहीं हैं।
औद्योगिक (बिकास एवं नियमन) अधिनियम, 1951 के अन्तर्गत जो लाइसेंसिंग देने की प्रणाली अपनायी गयी उसकी देश में कटु आलोचना की गयी और यह बताया गया कि लाइसेंसिंग प्रणालियाँ दोषपूर्ण हैं जिसके कारण पक्षपात व भ्रष्टाचार को प्रोत्साहन मिलता है। एकाधिकार जाँच आयोग, 1965 ने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि “इस नीति ने बड़े उद्योगों को लाभ पहुँचाया है।” अत: 1966 में डॉ. आर. के. हजारी की अध्यक्षता में लाइसेंसिंग प्रणाली की जाँच के लिए एक समिति बनायी गयी जिसने अपनी रिपोर्ट 1967 में दी जिसमें कहा गया कि बिड़ला समूह को उदारतापूर्वक लाइसेंस दिये गये। इस रिपोर्ट से प्रभावित होकर 1967 में ही केन्द्रीय सरकार ने औयोगिक लाइसेंसिंग नीति जाँच समिति नियुक्त की जिसके अध्यक्ष एस. दत्त थे। इस समिति ने अपनी रिपोर्ट 1969 में सरकार को दी जिसमें कहा गया कि इस नीति से लाभ विशाल औद्योगिक प्रतिष्ठानों को ही हुआ है तथा इसमें कुछ क्षेत्रों में एकाधिकार को प्रोत्साहन मिला है।
अतः हजारी समिति एवं दत्त समिति के प्रतिवेदनों के आधार पर 18 फरवरी, 1970 को नवीन लाइसेंसिंग नीति की घोषणा की गयी। इस नीति के प्रमुख उद्देश्य (Main Objectives) इस प्रकार थे : (1) नवीन उद्यमियों एवं साहसियों को औद्योगिक क्षेत्र में प्रवेश के लिए प्रोत्साहित करना; (2) बड़े व्यावसायिक गृहों के हाथों में आर्थिक सत्ता के विकेन्द्रीकरण पर रोक लगाना; (3) सार्वजनिक क्षेत्र का विकास करना एवं उसका महत्व बढ़ाना; (4) लाइसेंसिंग नीति की जटिल प्रक्रिया को सरल बनाना; (5) लघु उद्योग क्षेत्र के विकास के लिए समस्त सुविधाओं की पूर्ति करना।
इसके बाद समय-समय पर औद्योगिक लाइसेंसिंग नीति बदलती रही है। उद्योगों की संख्या जिनके लिए बाडमेंस लेना आवश्यक था, घटती गयी है। वर्तमान में केवल 4 उद्योगों के लिए ही लाइसेंस लेना आवश्यक है। वे हैं–सिगरेट, खतरनाक रासायनिक उत्पाद, ऐरोस्पेश, औद्योगिक विस्फोटक।
अब विदेशी कम्पनियाँ भी उद्योग स्थापित कर सकती हैं। पूँजी में उनका हिस्सा 51 से 100 प्रतिशत। तक जैसा कि सरकार द्वारा निर्देशित हो सकता है।