(ii) ह्रास की गणना (Calculation of Depreciation)
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प्रत्येक स्थायी सम्पत्ति का एक आर्थिक कार्यकाल होता है जिसके बीतने पर उस सम्पत्ति को हटाकर उसके स्थान पर नयी सम्पत्ति लानी पड़ती है। नयी सम्पत्ति के लिये बहुत बड़ी मात्रा में धन की आवश्यकता होती है। ह्रास आयोजन का उद्देश्य इस पुनर्स्थापन के लिये आवश्यक कोषों की व्यवस्था करना होता है। ह्रास-आयोजन से संस्था के लाभ कम हो जाते हैं तथा इस राशि की सीमा तक ये लाभ लाभांश के रूप में बँटने से बच जाते हैं। चूँकि ह्रास एक गैर-रोकड़ व्यय होता है, अत: ह्रास के आयोजन से इस सीमा तक संस्था में प्रति वर्ष कोष निर्मित होते जाते हैं। किसी संस्था में आयोजित वार्षिक ह्रास की राशि को या तो संस्था में लगाया जा है या कहीं संस्था के बाहर विनियोजित किया जा सकता है। दोनों ही स्थितियों में हास का आयोजन पुरानी सम्पत्ति के प्रतिस्थापन के लिये कोष प्रदान करता है। यदि ह्रास की राशि को प्रतिवर्ष विनियोजित किया जाता है तो सम्पत्ति के जीवन काल के अन्त में इन विनियोगों को बेचकर नयीं सम्पत्ति के लिये आवश्यक कोष प्राप्त कर लिये जाते हैं और यदि इसे व्यवसाय में ही रहने दिया जाता है तो इससे संस्था की कार्यशील पूँजी बढ़ेगी जिसमें से नयी सम्पत्ति के लिये आवश्यक कोष प्राप्त किये जाते हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि लाभों से स्थायी सम्पत्तियों के लिये ह्रास का आयोजन उनके प्रतिस्थापन के लिये कोष प्रदान करता है।
लेखा विधि का परम्परागत राति के अनुसार ह्रास का आयोजन सम्पत्ति की मल लागत (Original Cost) तथा एतिहासिक लागत (Historical Cost) के आधार पर किया जाता है। इसमें लेखों की सरलता, निश्चितता व कर्मविषयता (Objectivity) के साथ-साथ व्याख्या की एकरूपता (uniformity of interpretation), मुद्रा अवधारण (Money Concept) के अनुकूल, कानूनी मान्यता, न्यायालयों के इसके पक्ष में निर्णय जैसे गुण भी हैं। लेकिन यह व्यवस्था तभी तक ही उपयुक्त रहती है जब तक । मूल्य स्तर में कोई महत्त्वपूर्ण परिवर्तन न हों। 1930 की विश्व को चकाचौंध कर देने वाली भयंकर विश्वव्यापी मंदी तथा द्वितीय
विश्व के पश्चात् मूल्यों में हो रही लगातार वृद्धि से मूल्य-स्तर में स्थिरता की बात अब केवल कल्पना मात्र ही रह गयी है। मूल्य-स्तर में परिवर्तन की दशा में सम्पत्ति की मुल लागत के आधार पर ह्रास का आयोजन सम्पत्ति के मौद्रिक मूल्य में कमी को भले। ही पूरा कर ले, यह उसके भौतिक मूल्य में कमी के बराबर नहीं हो सकता। मूल्यों में कमी, की दशा में ह्रास का आयोजन सम्पत्ति के भौतिक मूल्य में कमी से अधिक होगा किन्तु मूल्यों में वृद्धि की दशा में यह इसमें कम रहेगा। इस प्रकार मूल्य स्तर की वृद्धि की दशा में सम्पत्ति की मूल लागत के आधार पर ह्रास के आयोजन के निम्न दोष होंगे —-
(1) वित्तीय स्थिति का अवास्तविक प्रदर्शन मूल्य वृद्धि के काल में चिट्टे में ऐतिहासिक लागत के आधार पर दिखलायी गई स्थायी सम्पत्तियाँ व स्कन्ध अपने चालू मूल्य से काफी कम राशि पर दिखलाये गये होते हैं। ऐसे चिट्ठे में व्यवसाय की वित्तीय स्थिति का सही प्रदर्शन नहीं हो पाता है।
(2) पूँजी को अछूती बनाये रखना सम्भव नहीं इस प्रकार के आयोजन से संस्था की पूँजी को अछूती (intact) नहीं बनाये रखा जा सकता। इसके लिये सम्पत्ति का मौद्रिक पक्ष न लेकर भौतिक पक्ष लेना चाहिये अर्थात् ह्रास का आयोजन सम्पत्ति के भौतिक क्षय (Physical Diminution) को पूरा करने के लिये पर्याप्त होना चाहिये। मूल्य-स्तर में वृद्धि के काल में लाभ-हानि खाते पर हास का भार कम पड़ता है जिसके कारण व्यवसाय के लाभ वास्तविक लाभों से अधिक दिखलाये जाते हैं। यदि सभी लाभों को अशंधारियों में लाभांश के रुपर में बांट दिया जाता है तो कम आयोजित ह्रास की मात्रा तक लाभांश का यह वितरण संस्था की पँजी में से ही होगा।
(3) अधिक आय कर—मूल्य वृद्धि के काल में लाभ-हानि खाते द्वारा व्यवसाय के लाभ वास्तविक लाभों से अधिक दिखलाये जाने के कारण संस्था को सरकार को अधिक आय कर देना होगा तथा उसके कर्मचारी भी वेतन वृद्धि अधिक बोनस आदि की माँग कर सकते हैं।
(4) सम्पत्ति के प्रतिस्थापन में कठिनाई–मूल्य वृद्धि के काल में सम्पत्ति के जीवन काल की समाप्ति पर उसका पुनर्स्थापन नहीं किया जा सकता क्योंकि मूल्य वृद्धि से सम्पत्ति के प्रतिस्थापन की लागत तो बढ़ जाती है लेकिन संकलित ह्रास (Accumulated Depreciation) अथवा सिंकिंग फंड की राशि सम्पत्ति की प्रतिस्थापन लागत के बराबर नहीं हो पाती। चूंकि मूल्य वृद्धि काल में सम्पत्ति की प्रतिस्थापन लागत उसकी मूल लागत से अधिक हो जाती है, अत: सम्पत्ति पर संकलित ह्रास अथवा सिंकिंग फंड की राशि उसकी प्रतिस्थापन लागत से कम ही रहेगी। यदि व्यवसाय के सामूचे लाभ, लाभांश के रूप में वितरित कर दिए जाते हैं तो सम्पत्ति के जीवन काल की समाप्ति पर उसके प्रतिस्थापन के लिये वित्तीय कठिनाइयाँ आ सकती हैं। यदि प्रतिस्थापन लागत और आयोजित ह्रास के अन्तर को लाभों से पूरा किया जाता है तो प्रति ₹ 1 के अर्थ-प्रबन्धन के लिये संस्था को ₹ 2 कमाने होंगे, यदि कम्पनी आय-कर की दर 50% हो।
(5) अनुरूपता की अवधारणा के प्रतिकूल-इस प्रकार से ह्रास का आयोजन अनुरूपता की अवधारणा (Matching Concept) के भी प्रतिकूल है। इस अवधारणा के अनुसार एक विशेष प्रकार के समस्त खर्चे उस समय विशेष की आय के अनुरूप होने चाहिये। चूँकि लाभ-हानि खाते की लगभग सभी मदें चालू मुद्रा मूल्य पर आधारित होती हैं, अत: ह्रास की राशि को मुद्रा का पुराने मूल्य पर दिखलाना उचित नही है।
(6) लेखों की तुल्यता का अभाव-मल्य परिवर्तन के काल में मल लागत के आधार पर ह्रास के आयोजन से संस्था क लाभों की तुलना उसके अपने भूतकालीन लाभों से अथवा दूसरी संस्थाओं के भूतकालीन लाभों से नहीं की जा सकती, यदि इनमें एक जैसी ही स्थायी सम्पत्तियां विभिन्न तिथियों पर क्रय की गयी हैं। उदाहरण के लिये एक संस्था ने 2010 में एक मशीन ₹20,000 का कय की। वहीं मशीन 2018 में ₹40,000 में क्रय की जाती है। यदि मल लागत का 100% प्रतिवर्ष हास काटा जाता है ता पुराना मशीन पर ₹2000 तथा नयी मशीन पर ₹4,000 वार्षिक का हास काटा जायेगा यद्यपि दोनों ही मशीन एक जैसी हैं। इससे सस्था। के 2018 वर्ष के परिणामों की तुलना उसके भूतकालीन अंकों से नहीं की जा सकती।
(7) समुचित लाभों से वंचित रह जाना-मूल्य स्तर में वृद्धि के काल में इस व्यवस्था से वस्तु उत्पादन की लागत कम आयेगी। यदि संस्था में वस्तु की उत्पादन लागत का उसके विक्रय मूल्य निर्धारण का आधार बनाया जाता है तो व्यवसाय समुचित लाभों से वंचित रह जायेगा।