BCom 1st Year Inflation Accounting Study Material Notes In Hindi

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सीo सीoo पद्धति के गुण  (Merits of CCA Method)

सी०सी०ए० पद्धति को विश्व भर के लेखापालों ने संतोषजनक पाया है। इस पद्धति के निम्न गण हैं

1 .इस पद्धति से तैयार किये गये वित्तीय विवरण ऐतिहासिक लेखा-विधि की तुलना अधिक अर्थपूर्ण और प्रकट करने वाले होते हैं। इससे व्यवसाय के प्रबन्धन में कुशलता आती है।

2 .परिचालन लाभ और धारण लाभ के बीच स्पष्ट भेद कर दिये जाने के कारण इस पद्धति से व्यवसाय की परिचालन कुशलता का सही माप सम्भव है।

3 .चालू लागत पर ह्रास के आयोजन के कारण स्फीति काल में यह पद्धति लाभों को अधिक दिखलाने से रोकती है। साथ ही इससे सम्पत्तियों के प्रतिस्थापन के लिये पर्याप्त कोश उपलब्ध होते हैं।

4 .यह पद्धति मूल्य स्तरों में वृद्धि के कारण व्यवसाय की शुद्ध मौद्रिक कार्यशील पूँजी की बड़ी आवश्यकता को स्पष्ट करती है और इसका लाभों पर प्रभाव को दर्शाती है।

5. अंशधारियों को उपलब्ध चालू लागत लाभ की गणना से संचालकों को कोषों को रोकने और लाभांश नीति बनाने में सहायता मिलती है।

6 .इस तकनीकी को पुस्तपालन प्रणाली में सम्मिलित किया जा सकता है और वित्तीय विवरणों को नियमित रूप से सी०सी०ए० पद्धति से तैयार किया जा सकता है।

सी०सी०ए० पद्धति की सीमायें व कठिनाइयाँ (Limitations and Difficulties of CCA Method)

Table of Contents

 1 .यह हास की पिछली कमी के लिये समुचित प्रावधान नहीं करती (It does not provide adequately for backlog depreciation)-इस पद्धति के अन्तर्गत ह्रास की पिछली कमी के लिये “चालू लागत लेखा-विधि संचय’ (CCA Reserve) को चार्ज किया जाता है जो कि एक पूँजीगत संचय होता है। यदि इसे लाभांश के लिये उपलब्ध आगम संचय से चार्ज किया जाय तो प्रबन्ध को इस सीमा तक लाभों के वितवरण से रोका जा सकेगा जिसे कि सम्पत्ति के प्रतिस्थापना के लिये। प्रयोग किया जा सकेगा।

2 .नई प्रकार की सम्पत्ति के प्रतिस्थापन के लिये कोषों के प्रावधान में असफल (It fails to provide funds for deplacement of new types of assets)-सी०सी०ए० पद्धति के अन्तर्गत विद्यमान सम्पत्तियों के चालू मूल्य के आधार पर ह्रास का प्रावधान किया जाता है। इस प्रकार संकलित कोष एक सुधरी हुई बड़ी सम्पत्ति के प्रतिस्थापन के लिये अपर्याप्त हो सकते हैं।

 3 .अपर्याप्त दन्तिकरण समायोजन (Inadequate gearing adjustment)-इस पद्धति के अन्तर्गत स्थायी सम्पत्तियों आर स्कन्ध के मूल्य के लिये कोई दन्तिकरण समायोजन न किया जाना अनुचित है क्योंकि इन सम्पत्तियों की वित्त-व्यवस्था अंशत: ऋणों से ही की जाती है।

4 .मूल्यांकन प्रक्रिया में व्यक्तिपरकता (Subjectivity in valuation process)-वास्तविक सम्पत्तियों का व्यवसाय कालय मूल्य निश्चित करना बहुत कठिन है। इसके अतिरिक्त इस प्रक्रिया में व्यक्तिपरकता का तत्व रहता है। कम्पनियों में इन सम्पत्तियों का मूल्यांकन सामान्यतया प्रबन्धकों व संचालकों के विवेक से किया जाता है।

5 .मौद्रिक मदों पर बढ़ोत्तरी या हानि की उपेक्षा (Ignoration of grains or losses on monetary items)-यह पद्धति फर्म के मौद्रिक मदों पर क्रय शक्ति में बढ़ोत्तरी व हानियों की उपेक्षा करती है। बदलते मूल्य स्तरों के समय अधिकतर मौद्रिक प्रकृति की सम्पत्तियों और दायित्वों वाली कम्पनी के लिये इसकी गुणना बहुत महत्त्वपूर्ण होती है। _

 6 .अवसाद काल में कम उपयोगी (Less useful in recession)-सी०सी०ए० पद्धति स्फीतिकारी दशाओं में बहुत उपयोगी है किन्तु अवसादकाल में यह पद्धति इतनी उपयोगी नहीं होती है।

सी०सी०ए० पद्धति की उपर्युक्त सीमाओं के कारण ही आजकल लेखापाल मूल्य स्तर में परिवर्तन की दशाओं में वित्तीय लेखा-विधि की समस्याओं से निपटने के लिये कुछ नई और अधिक व्यावहारिक पद्धतियाँ पर विचार कर रहे हैं।

मूल्य स्तर परिवर्तनों के लेखाकरण के गुण या लाभ

(Merits or Advantages of Accounting for Price Level Changes)

(1) आर्थिक चिट्ठे में स्थायी सम्पत्तियों व दायित्वों को उनके चालू मूल्य पर प्रदर्शित करने से व्यवसाय का आर्थिक चिट्ठा संस्था की वित्तीय स्थिति का सही एवं सच्चा चित्र प्रस्तुत करता है। इसी तरह स्थायी सम्पत्तियों के चालू मूल्यों पर ह्रास की गणना व उपभक्त स्कन्ध को उसकी चालू लागत पर चार्ज करने के कारण इसमें लाभ हानि खाता वर्ष पर संचालन में उचित व वास्तविक लाभ को प्रदर्शित करता है जो कि ‘आर्थिक लाभ’ के समान होता है। लेखा-लाभ के आर्थिक लाभ के समान रहने पर ही व्यवसाय की पँजी को अक्षुण्ण बनाये रखा जा सकता है।

(2) यह प्रणाली भिन्न तिथियों पर स्थापित दो संयंत्रों की लाभप्रदता की सही तुलना में सहायक होती है क्योंकि इसमें यह तुलना दोनों संयत्रों के चालू मूल्यों के आधार पर की जायेगी।

(3) सम्पत्तियों के पुनर्मूल्यन से व्यवसाय में विनियोग का सही मूल्य ज्ञात हो जाता है तथा इसके आधार पर ‘प्रयक्त पंजी पर पत्याय’ की गणना अधिक सही व शुद्ध होती है। व्यवसाय स्वामियों, लेनदारों व प्रबन्ध सभी के लिये यह प्रत्याय ही अधिक उपयोगी। होती है।

(4) मूल्य-स्तर में वृद्धि के काल में लेखाकरण की इस्तर में वद्धि के काल में लेखाकरण की इस विधि के अन्तर्गत ज्ञात की गई लाभ की मात्रा उस लाभ से कम होने की है जो कि ऐतिहासिक लागत पर ह्रास काटने से निकाला गया होता है। इस प्रकार इस विधि के प्रयोग से श्रम संघ सामान्य जनता के लाभों के सम्बन्ध में गुमराह नहीं होते। इससे उनके अपने-अपने दावों के निबटारे में अधिक कर्मचारी अंशधारी व सामान्य जनता के लाभों के सम्बन्ध में गमग परेशानी नही आती। साथ ही इससे आय-कर का भार कम हो जाता है।

(5) बहत पहले की क्रय का गइ सम्पत्तिया का मूल लागत के आधार पर दिखलाना लखा-वाध का अनुरूपता का अवधारणा (Matching Concept) के विरुद्ध । की अन्य मदों को चालू मूल्य पर दिखलाना लेखा-विधि की अन होगा।

(6) प्रतिस्थापन लागत के आधार पर ह्रास की गणना किये जाने से इस विधि के अन्तर्गत स्थायी सम्पत्तियों के प्रयोग योग्य न रहने पर उनका सरलतापूर्वक प्रतिस्थापन किया जा सकता है।

(7) इस विधि के अन्तर्गत प्रकाशित खातों में स्थायी सम्पत्तियों के चालू मूल्य दिखलाने से संस्था में ‘स्वामियों की समता (Owners’ Equity) का उचित मूल्य निर्धारित किया जा सकता है। इससे व्यावसायिक निर्णयन में शुद्धता लायी जा सकती है। इसके अतिरिक्त चालू मूल्यों पर तैयार किये गये वित्तीय विवरणों से ज्ञात किये गये अनुपात प्रबन्ध को अधिक विश्वसनीय और अर्थपूर्ण सूचना प्रदान करते हैं।

(8) इस विधि के प्रयोग से संचालन को प्रभावित करने वाले वास्तविक कारकों का खातों में समावेश हो जाता है। इससे व्यावहारिक लेखे प्रावैगिक रहते हैं और उनमें मूल्य-स्तर के परिवर्तनों को समायोजित किया जा सकता है।

BCom 1st Year Inflation Accounting Study Material Notes In Hindi

मूल्य स्तर के परिवर्तनों के लेखाकरण के दोष

(Demerties of Accounting for Price Level Changes)

(1) लेखापालों का मत है कि ह्रास स्थायी सम्पत्तियों की लागत में स्वाभाविक कमी को दर्शाता है, अत: ह्रास प्रभार मूल लागत की पुनप्ति (recovery) का प्रतीक होता है इसलिये सम्पत्ति की मूल लागत पर ह्रास की गणना करना की तर्कयुक्त है। यद्यपि आलोचकों का यह तर्क काफी वजनदार है किन्तु सम्पत्ति की प्रतिस्थापन की समस्या को भुला देना उचित प्रतीत नहीं होता है।

(2) आलोचकों का तर्क है कि सम्पत्ति के प्रतिस्थापन के समय उसी प्रकार की सम्पत्ति नहीं संस्थापित की जा सकती है। वस्तुत: तकनीकी विकास, उत्पादन में परिवर्तन, संस्था के आकार में परिवर्तन आदि के कारण बहुधा भिन्न संयंत्रों व अन्य सम्पत्तियों की आवश्यकता होती है। इस स्थिति में सम्पत्ति के पुनर्मूल्यन का कोई महत्त्व नहीं रह जाता है। यह तर्क कुछ सीमत तक सही है। किन्तु पुनर्मूल्यन का उद्देश्य तो संस्था की पूँजी के अक्षुण्ण बनाये रखना होता है। पूँजी के अक्षण्ण रखने का आशय व्यवसाय की समस्त सम्पत्ति की कुल क्रय-शक्ति से होता है, न कि किसी एक सम्पत्ति की क्रय-शक्ति से। अत: किसी एक सम्पत्ति की क्रय-शक्ति में परिवर्तन आ जाने का समस्त सम्पत्तियों की कुल क्रय-शक्ति पर प्रभाव बहुत नगण्य हो जाता है।

(3) सम्पत्ति की प्रतिस्थापन लागत का कार्य बहुत ही अस्पष्ट है तथा इसका सही अनुमान सम्भव नही है। लेखापालों में तो इस बात पर भी मतभेद है कि चालू वर्ष को आधार माना जाय अथवा प्रतिस्थापना के वर्ष को। दूसरे विकल्प में अनिश्चितता की मात्रा बढ़ जाती है तथा पहले विकल्प में आयोजित ह्रास की राशि सम्पत्ति के प्रतिस्थापना की वा अधिक हो सकती है।

(4) इसके आधार पर ज्ञात किया गया लाभ, हास प्रभार व सम्पत्तियों का मूल्य आय-कर अधिकारियों को स्वीकार नहीं होता। अतः यह गणना व्यर्थ है किन्तु यह तर्क ठीक नहीं क्योकि खातों के निर्माण का प्रमुख उद्देश्य स्कन्ध को व्यवसाय की स्थिति व लाभप्रदता के सम्बन्ध में सही जानकारी देना होता है। आय-कर के लिये आय का निर्धारण तो एक सहायक उद्देश्य ही होता है।

(5) इस विधि के प्रयोग से मूल्य वृद्धि के काल में संस्था के लाभ की मात्रा कम हो जती है, कम आय-कर दिया जाता है तथा इससे मुद्रा स्फीति की प्रवृत्ति और भी तेज हो जाती है। यद्यपि आलोचकों का यह तर्क सही है किन्तु न्यायोचत यही होगा कि संस्था वास्तविक रूप से कमाये गये लाभों पर ही आय-कर दे। ऐतिहासिक लागत पर आकलित लाभ पर कर देने का अर्थ होगा कि संस्था पूँजीगत सम्पत्तियों पर भी आय-कर देने को बाध्य हो रही है। वस्तुतः पूँजीगत आय पर पूँजी कर लगना चाहिये न कि आय-कर।

(6) यह विधि अधिक खचीली व श्रम साध्य है। इसके प्रयोग से लेखा-विधि में अत्यधिक जटिलतायें आ जाती हैं। अत: यह विधि वांछनीय नहीं। यह तर्क सही तो है किन्तु लेखा-विधि में मशीनों के प्रयोग से यह कार्य सरलातपूर्वक निष्पादित किया जाता है।

(7) कुछ लोगों का विचार है कि इसके अन्तर्गत पूरक विवरणों के तैयार करने से जनता में भ्रम फैलेगा और सामान्य स्वीकृत सिद्धान्तों से तैयार किये गये लेखों के प्रति जनता का विश्वास उठ जायेगा।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि इस विधि के प्रयोग में अनेक समस्यायें व कठिनाईयाँ हैं किन्तु प्रबन्ध लेखापाल का यह । कर्तव्य हो जाता है कि वह मूल्य-स्तर में परिवर्तनों का लाभ व विनियोजित पूँजी पर पड़ने वाले प्रभावों को खातों में अवश्य दर्शाये । अन्यथा संस्था की क्रियाओं में हित रखने वाले विभिन्न पक्ष उनकी स्थिति व लाभप्रदता के सम्बन्ध में भ्रामक निष्कर्ष निकालेगे।

chetansati

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