BCom 3rd Year Information Technology Fundamentals of Computers Study Material Notes in Hindi

BCom 3rd Year Information Technology Fundamentals of Computers Study Material Notes in Hindi:  Mechanical Data Processing  Second Generation Computers Fiber Optical Cable ( Most Important Notes For BCom 3rd Year Students )

Fundamentals of Computers Study Material
Fundamentals of Computers Study Material

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कम्प्यूटर के तत्व

[FUNDAMENTALS OF COMPUTERS

डेटा (Data)

किसी भी अपरिपक्व अथवा अव्यवस्थित तथ्यों (Facts) या चिन्हों (Symbols) को डेटा कहा जाता है। उदाहरण के लिए, प्राप्तांकों की सूची, विषय, विद्यार्थी का नाम इत्यादि। डेटा वास्तव में अपरिपक्व जानकारियाँ होती हैं। कम्प्यूटर में सबसे पहले डेटा को प्रविष्ट (Feed) किया जाता है और कम्प्यूटर प्रविष्ट किये गये इन डेटा। को ही विश्लेषित करके परिणाम प्रस्तुत करता है। इसीलिए डेटा को कम्प्यूटर विश्लेषण हेतु आधार तथ्य भी कहा। जाता है पारिभाषिक शब्दों में हम कह सकते हैं कि कम्प्यूटर को दी जाने वाली वे जानकारियाँ, जिनका विश्लेषण करने के उपरान्त कम्प्यूटर परिणाम प्रस्तुत करता है, डेटा कहलाते हैं।

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सूचना (Information)

यह डेटा का प्रोसेस्ड रूप है। डेटा को प्रोसेस करके ही सूचना प्राप्त होती है, जैसे-टाइमटेबल, मेरिट लिस्ट, प्रत्येक छात्र के अंकों का प्रतिशत कक्षा में सर्वोच्च अंक 60 अंक से ज्यादा अंक प्राप्त करने वाले छात्रों की संख्या। डेटा के विश्लेषण के पश्चात् सूचना का प्रारूप तैयार होता है। डेटा के अभाव में सूचना की कल्पना करना भी निरर्थक है। ន कम्प्यूटर द्वारा डेटा के विश्लेषण के उपरान्त प्रस्तुत किये गये परिणाम को सूचना  कहा जा सकता है।

 

अन्तत: डेटा कम्प्यूटर में प्रविष्ट किया जाने वाला कच्चा माल होता है, जबकि सूचना कम्प्यूटर से प्राप्त तैयार माल। इसके साथ-साथ डेटा के आधार पर

निर्णय ले पाना सम्भव नहीं होता है, जबकि डेटा के आधार पर प्राप्त परिणाम पर निर्णय लेकर आसानी से कार्य किया जा सकता है कि किसी विद्यार्थी का नाम, अनुक्रमांक व प्राप्तांक पृथक् रूप में डेटा होते हैं इन सबको व्यवस्थित रूप से रखने के पश्चात् बने प्रारूप, जिसे अंक पत्र कहते हैं को सूचना | कहते हैं।

वास्तव में सूचना तकनीक (Information Technology) कम्प्यूटर टेक्नोलॉजी (Computer Technology) एवं कम्यूनिकेशन टेक्नोलॉजी (Communication Technology) का मिश्रित (संयुक्त) रूप है। यह सूचना तकनीक (Information Technology) का ही वरदान है कि एक व्यक्ति विश्व के किसी एक कोने में रहते हुये विश्व के दूसरे कोने में रह रहे व्यक्ति से कुछ मिनटों के अन्दर कम्यूनिकेट (Communicate) कर सकता है। सूचना तकनीक (Information Technology) के ही कारण आप आन लाइन चैटिंग कर पाते हैं तथा भेजे गये ई-मेल की प्राप्ति (Acknowledgement) कुछ सेकेण्ड के अन्दर प्राप्त कर लेते हैं। घर । पर बैठे-बैठे ट्रेन या एयर लाइंस के टिकट आरक्षित कर घर पर ही प्राप्त कर सकते हैं।

इन्फार्मेशन टेक्नोलॉजी शब्द का व्यापक अर्थ निम्नलिखित है

  1. सूचना/डेटा का वर्णन।
  2. सूचना/डेटा को एकत्र करना।
  3. सूचना/डेटा को प्राप्त करना तथा उन्हें प्रोसेस करना।
  4. इन्फार्मेसन/डेटा संवाद (Communication)

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उपरोक्त कार्यों को त्वरित एवं प्रभावी ढंग से शीघ्रतापूर्वक निष्पादन के लिए कम्प्यूटर का प्रयोग एक यंत्र (Tool) की तरह किया जाता है। इसमें कम्प्यूटर का कार्य अति महत्वपूर्ण होता है।

सूचना की आवश्यकता (Need of Information)

सूचना किसी भी कार्यालय या संगठन में महत्वपूर्ण रोल अदा करती है। सूचना की सहायता से हम अच्छे ढंग से कार्य कर सकते हैं एवं आजकल के प्रतिद्वन्द्वात्मक वातावरण में अपना स्थान बनाये रख सकते हैं। पुराने जमाने में राजा-महाराजा अपने राज्य में सूचनायें एकत्र करने के लिए विभिन्न माध्यमों का सहारा लेते थे। यह सूचना किसी भी प्रकार की हो सकती थी, परन्तु यह क्रमबद्ध ढंग से अर्थपूर्ण रूप में होती थीं।

सूचना के गुण (Qualities of Information)

उपयोगी सूचना के बिना कोई भी निर्णय स्वतंत्र रूप से नहीं ले सकते हैं। सूचना आध्यपरित निर्णयों में सूचना की गुणवत्ता अत्यन्त महत्वपूर्ण होती है। यदि उपयुक्त सूचना सही समय पर नहीं प्राप्त होती है तो उस पर आधारित परिणाम पर इसका दुष्प्रभाव पड़ना अपेक्षित है, जो कि कष्टप्रद अथवा हानिकारक हो सकता है। सूचना में निम्नलिखित गुणों का होना अति आवश्यक है

(1) शुद्धता (Accuracy)-शुद्धता से हमारा अभिप्राय यह है कि सूचना जिस डेटा पर आधारित हो, वह | सटीक एवं शुद्ध हो। शुद्ध सूचना किसी के दबाव में तोड़-मरोड़ कर गलत ढंग से प्रदान नहीं की गई हो। शद्ध सूचना की अपनी निर्णायक भूमिका होती है।

(2) समय से (Timely)-यदि प्राप्तकर्ता को आवश्यकतानुसार समय से सूचना प्राप्त हो जाती है तो वह उचित निर्णय लेने में सहायक होती है। उदाहरण के लिये, समाचार पत्रों में प्रतिदिन स्टॉक एक्सचेंज में शेयरों के भाव में उतार-चढ़ाव, निवेशकों एवं ब्रोकरों को शेयर बेचने खरीदने में सहायक होते हैं।

(3) अर्थपूर्ण (Meaningful)-सूचना अर्थपूर्ण और विषय के अनुरूप ही होनी चाहिए, ताकि वह उपयोगी सिद्ध हो सके।

(4) संक्षिप्तता (Conciseness)-संक्षिप्तता, सूचना का महत्वपूर्ण गुण है। कोई भी सूचना बहुविस्तारित न होकर अनिवार्य रूप से संक्षिप्त ही होनी चाहिए।

(5) उपलब्धता (Availability)-सूचना हमें कम से कम समय (त्वरित रूप में) उपलब्ध रहनी चाहिए। जब भी हमें सूचना के आधार पर कोई निर्णय लेने की आवश्यकता होगी तो यदि वह तुरन्त कम-से-कम समय में उपलब्ध होगी तो उस पर आधारित निर्णय लेने में सुविधा होगी, अन्यथा हमें सूचना प्राप्त होने का ही इन्तजार करना पड़ सकता है।

(6) अनुरूपता (Relevancy)-अनुरूपता का अर्थ है कि यदि कोई सूचना एक छात्र से सम्बन्धित है तो वह दूसरे छात्र के लिए अनुरूप नहीं हो सकती। उसकी सूचना पहले छात्र

(7) पर्याप्तता (Adequacy)-पर्याप्तता सूचना का अन्तिम महत्वपूर्ण गुण है। जो भी सूचना एकत्र की जाये, वह पर्याप्त होनी चाहिए और उस समूह की सभी सूचनायें एक जैसी पर्याप्त होनी चाहिए।

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सूचना का स्तर Level of Information)

सूचना के स्तर से अभिप्राय है कि सूचना किस स्तर की है। सूचना के निम्नलिखित स्तर होते हैं

स्तर 1 की सूचना (Information of level 1)-स्तर 1 की सूचना उच्च स्तरीय (Top Level) के लोगों के लिये होती है, यह सूचना निम्न अथवा मध्यम स्तर के अधिकारी, कर्मचारी या व्यक्तियों के लिये निरर्थक होती है। स्तर 1 की सूचना के आधार पर उच्च स्तर के व्यक्ति, अधिकारी या कर्मचारी कुछ निर्णय विशेष लेने में सक्षम होते हैं। इस स्तर की सूचना के आधार पर ही कुछ प्लानिंग या रणनीति तैयार की जाती है। स्तर 1 की सूचना अत्यन्त महत्वपूर्ण होती है।

स्तर 2 की सूचना (Information of level 2)-स्तर 2 की सचना मध्यम स्तर के अधिकारी, कर्मचारी या व्यक्तियों के लिये होती है। यह स्तर 1 से कम महत्वपूर्ण होती है परन्त स्तर 3 से अधिक महत्व रखती है। इसके आधार पर भी हम भविष्य योजनायें या रणनीति तैयार करते हैं। यह मध्यम स्तर के महत्व वाली सूचना होती है।

 

स्तर 3 की सूचना (Information of level 3)-स्तर 3 की सूचना निम्नतम स्तर की सूचना होती है। इन सूचनाओं को अगले स्तर पर पहुँचाया जाता है। या मूलरूप से जड़ से जुड़ी सूचनायें होती हैं। अथवा सूचनाओं का आधार, स्तर 3 की Processing सूचना ही है, परन्तु इन सूचना के आधार पर ही निर्णय या रणनीति नहीं तैयार की जाती है।

डाटा प्रोसेसिंग (Data Processing) _ डेटा को अथपूर्ण जानकारी में परिवर्तित करने की एक प्रक्रिया को डाटा प्रोसेसिंग कहा जाता है। डाटा प्रोसेसिंग प्रणाली में डाटा इनपुट और सूचनायें आउटपुट होती हैं। डेटा महत्वपूर्ण तो होते हैं, लेकिन इन्हें निर्णय लेने के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता।

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डाटा प्रोसेसिंग का प्रकार (Types Of Data Processing)

डाटा प्रोसेसिंग एक महत्वपूर्ण कार्य है जो डाटा को सार्थक जानकारी में परिवर्तित करता है। इस प्रक्रिया में कई प्रकार के । गणना के कार्य किये जाते हैं। डाटा प्रोसेसिंग के तीन प्रकार हैं।मैनुअल डाटा प्रोसेसिंग

मैकेनिकल डाटा प्रोसेसिंग।

इलेक्ट्रॉनिक डाटा प्रोसेसिंग

मैनुअल डाटा प्रोसेसिंग (Manual Data Processing)

मैनुअल डाटा प्रोसेसिंग में, सब कुछ हाथ से किया जाता है। कई प्रकार की गणना और डेटा को सूचना में परिवर्तित करने की प्रक्रिया का कार्य भी मनुष्य द्वारा किया जाता है। किसी भी स्तर पर मशीन को शामिल नहीं किया जाता है। डाटा प्रोसेसिंग के इस प्रकार के कार्य को कम्प्यूटर और कैल्कुलेटर जैसे अन्य मशीनों के आविष्कार से पहले इस्तेमाल किया गया था। कुछ छोटे संगठनों में अभी भी इस प्रकार के डाटा प्रोसेसिंग का उपयोग किया जा रहा है।

PROCESS SI ESTATE OF INFORMATION

मैकेनिकल डाटा प्रोसेसिंग (Mechanical Data Processing)

यांत्रिक डाटा प्रोसेसिंग में,गणना और प्रसंस्करण का कार्य यांत्रिक मशीनों के द्वारा किया जाता है। यांत्रिक मशीनों के इस्तेमाल से डाटा प्रोसेसिंग आसान और कम समय में होता है। यांत्रिक मशीनों के उपयोग से त्रुटिया की संभावना मैनुअल डाटा प्रोसेसिंग की तलना में कम हो गयी है।

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इलेक्ट्रॉनिक डाटा प्रोसेसिंग (Electronic Data Processing

इलेक्ट्रॉनिक डाटा प्रोसेसिंग में, सभी गणना और प्रसंस्करण का कार्य कम्प्यूटर द्वारा किया जाता है। डेटा कम्प्यटर को दिया जाता है। आवश्यक संसाधन के प्रयोग से कम्प्यूटर पर जो डेटा इनपुट किया जाता है वो आवश्यक सूचनाओं में परिवर्तित हो जाती है। विभन्न प्रकार के सॉफ्टवेयर पैकेज का प्रयोग डाटा प्रोसेसिंग के लिए कम्प्यूटर में इस्तेमाल किया जाता है। इसमें अन्य डेटा प्रसंस्करण तकनीको का तुलना में कहीं अधिक कम समय लगता है।

कलेक्टॉनिक डाटा प्रोसेसिंग के लाभ (Advantages of Electronic Data Processing)

यह और अधिक कुशल है।

इसमें कम समय लगता है।

डेटा की एक बड़ी राशि को आसानी से संशोधित किया जा सकता है।

यह अधिक विश्वसनीय है।

यह अधिक लचीला है और जानकारी के विभिन्न शैलियों में प्रस्तुत किया जा सकता है।

त्रुटियों की संभावना प्रसंस्करण के अन्य तरीकों की तुलना में कम होती है।

नम्बर सिस्टम्स का परिचय (Introduction to Number Systems)

हम अपने दिन-प्रतिदिन के क्रियाकलापों में दशमलव संस्थाओं या दशमलव नम्बर सिस्टम का प्रयोग करते हैं। दशमलव नम्बर सिस्टम में 10 डिजिट होते हैं 0 से 9 तक, लेकिन कम्प्यूटर्स केवल 0 एवं 1 कृमशीन मशीन लैंग्वेज को समझते हैं, लेकिन कम्प्यूटर को प्रोग्राम करने के लिए 0 एवं 1 का प्रयोग अब बीती बात हो गई है। दशमलव नम्बर्स, एल्फाबेट्स एवं विशेष कैरेक्टर्स जैसे+,-,*?/का प्रयोग कम्प्यूटर प्रोग्रामिंग के लिए कर सकते हैं। कम्प्यूटर के अन्दर दशमलव नम्बर्स, एल्फाबेट्स व (विशेष) कैरेक्टर्स को 0 एवं 1′ में बदल दिया जाता है, ताकि कम्प्यूटर यह समझ सके कि क्या करने का निर्देश दे रहे हैं। कम्प्यूटर की वर्किंग समझने के लिए, बाइनरी, ओक्टल एवं हेक्सा डेसीमल नम्बर सिस्टम्स की जानकारी होना आवश्यक है।

दशमलव नम्बर सिस्टम (Decimal Number System)

दशमलव नम्बर सिस्टम में 0 से 9 तक के अंक प्रयोग किये जाते हैं अर्थात

0, 1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8,9

इस प्रकार हमने देखा कि 0 से 9 तक कुल 10 अंक प्रयोग किये गये। इसलिए दशमलव नम्बर सिस्टम का आधार दस होता है। इस नम्बर सिस्टम के अन्तर्गत हम जो भी संख्या लिखते हैं, उसका आधार दस दर्शाते हैं।, जैसे-यहाँ पर 761891 संख्या है और 10 उसका आधार, जो यह दर्शाता है कि यह संख्या डेसीमल नम्बर सिस्टम में है।

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बाइनरी संख्या प्रणाली (Binary Number System)

1 और 0 दो अंकों का प्रयोग किया जाता है तथा इनके कुल अंकों की संख्या 2 होती है। बाइनरी संख्या प्रणाली 1 और 0 के अंकों को बाइनरी अंक या बिट कहते हैं। किसी बाइनरी संख्या का मान दायीं से बायीं के क्रम में उसके स्थानीय मान के आधार पर निकाला जाता है।

Step Binary Number Decimal Number

Step 1 10101, ((1 x 24) + (0x23) + (1×22) + (0 x 21) + (1 x 2′)),

Step 2 10101, (16 + 0 + 4 + 0 + 1).

Step 3 10101, 21.0

आक्टल संख्या प्रणाली (Octal Number System)

आक्टल संख्या प्रणाली में कुल आठ अंक (0, 1, 2, 3, 4, 5, 6, 7) होते हैं इसलिए इस संख्या प्रणाली का आधार 8 होता है। आक्टल संख्या के प्रत्येक अंक का स्थानीय मान इस प्रकार होता है

हेक्साडेसीमल संख्या प्रणाली (Hexsadecimal Number System)

हेक्सा का अर्थ 6 तथा डेसीमल का अर्थ 10 होता है जिसका मतलब हेक्साडेसीमल में 16 अंक आते हैं। इनमें 10 अंक दशमलव अंक प्रणाली के अन्तर्गत 0 से 9 तथा शेष, A से F तक के वर्णमाला के अक्षर होते हैं। A से F, 10 से 15 तक की मात्रा को व्यक्त करते हैं। हेक्साडेसीमल में 16 अंक होने के कारण इसका आधार 16 होता है। इस संख्या प्रणाली में प्रत्येक अंक का स्थानीय मान निम्न होगा।

बाइनरी-दशमलव परिवर्तन (Binary-decimal Conversion)

बाइनरी संख्या को दशमलव संख्या में परिवर्तित करने के लिए बाइनरी संख्या के प्रत्येक अंक को उसके स्थानीय मान से गुणा करके गुणनफलों का योग प्राप्त करते हैं। इस गुणनफल का योग ही उस बाइनरी संख्या की तुल्य दशमलव होगा।

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दशमलव-बाइनरी परिवर्तन (Decimal-binary Conversion) __

दशमलव संख्या को बाइनरी संख्या में परिवर्तित करने के लिए बाइनरी संख्या प्रणाली के आधार 2 का उपयोग करते हैं।

दी गयी दशमलव संख्या में बाइनरी संख्या प्रणाली के आधार 2 का उपयोग करते हैं। ।

भागफल को संख्या के नीचे और शेषफल को दायीं ओर लिखते हैं।

पद 2 में प्राप्त भागफल में पुन: 2 का भाग देकर नये भागफल को पद 2 में प्राप्त भागफल के नीचे और शेषफल की दायीं ओर लिखते हैं।

इस प्रकार पद 1 से 3 तक की क्रिया तब तक दोहराते हैं जब तक कि भागफल का मान शून्य प्राप्त न हो जाए।

प्राप्त 1 और 0 के शेषफलों को नीचे से उपर के क्रम में लिखते हैं। 12510 = ?

आक्टल-दशमलव परिवर्तन (Octal-decimal Conversion)

आक्टल से दशमलव संख्या में परिवर्तन के लिए निम्नलिखित पदों को करते हैं। आक्टल संख्या के प्रत्येक अंक को स्थानीय मान से गुणा करते हैं। तत्पश्चात् सभी गुणनफलों का योग करते हैं जो योग प्राप्त होता है वही इसका दशमलव तुल्य होता है।

724 =          4×8° = 4

2×81 = 16

7×82 = 448

46010

दशमलव-आक्टल परिवर्तन (Decimal-octal Conversion)

दशमलव संख्या को आक्टल में परिवर्तन के लिए आक्टल संख्या के आधार 8 का भाग दी गई दशमलव संख्या में देते हैं निम्नलिखित पदों को ऊपर के क्रम में लिखते हैं। कदम (Step)

दी गई दशमलव संख्या में आक्टल संख्या प्रणाली के आधार 8 का भाग देते हैं।

भागफल को संख्या के नीचे और शेषफल को दायीं ओर लिखते हैं।

प्राप्त भागफल में पुन: 8 का भाग देकर नये भागफल को पिछले भागफल के नीचे और शेषफल को दायीं ओर लिखते हैं।

इसी प्रकार तीन पद तब तक दोहराते रहेंगे जब तक कि भागफल शून्य प्राप्त न हो जाए।

अब प्राप्त शेषफल को नीचे से ऊपर के क्रम में लिखते हैं।

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बाइनरी-आक्टल परिवर्तन (Binary-octal Coversion)

बाइनरी संख्या से आक्टल संख्या में परिवर्तन के लिए दी गइ बाइनरी संख्या के दायीं ओर से तीन तीन बाइनरी अंकों के समूह बनाते हैं। यदि अंतिम समूह में तीन अंक नहीं होते हैं तो 0 लगाकर तीन अंक कर देते हैं। इस प्रकार प्राप्त संख्या ही परिवर्तित आक्टल संख्या होती है। 1011010111, = ?

आक्टल-बाइनरी परिवर्तन (Octual-binary Conversion)

आक्टल संख्या को प्रत्येक अंक की बाइनरी संख्या सारणी में से लिखते हैं। बाइनरी अंकों का समूह ही दी गई आक्टल संख्या का बाइनरी संख्या में परिवर्तित रूप होगा।

हेक्साडेसीमल-दशमलव परिवर्तन (Hexsadecimal-decimal Conversion) ।

हेक्साडेसीमल से दशमलव में सख्या को परिवर्तित करने के लिए हेक्साडेसीमल संख्या के प्रत्येक अंक को उसके स्थानीय मान से गुणा करके, गुणनफलों का योग प्राप्त करते हैं। प्राप्त गुणनफलों का यह योग दी गयी हेक्साडेसीमल संख्या की परिवर्तित संख्या को व्यक्त करता है।

दशमलव-हेक्साडेसीमल परिवर्तन (Decimal-hexsadecimal Conversion)

दशमलव हेक्साडेसीमल परिवर्तन के लिए निम्नलिखित पदों को लिखते हैं।

कदम (Step)

दी गई दशमलव संख्या में हेक्साडेसीमल संख्या प्रणाली के आधार 16 का भाग देते हैं।

प्राप्त भागफल को दशमलव संख्या के नीचे और शेषफल को दायीं ओर लिखते हैं।

प्राप्त भागफल में पुनः 16 का भाग देकर नये भागफल को पिछले भागफल के नीचे और शेषफल का दायीं ओर लिखते हैं।

इसी प्रकार तीन पद तब तक दोहराते रहेंगे जब तक कि भागफल शून्य प्राप्त न हो जाए।

अब प्राप्त शेषफल को नीचे से ऊपर के क्रम में लिखते हैं।

बाइनरी-हेक्साडेसीमल परिवर्तन (Binary-hexsadecimal Conversion) ।

बाइनरी संख्या से हेक्साडेसीमल में परिवर्तन के लिए दी गई बाइनरी संख्या के दायीं ओर से चार-चार बाइनरी अंकों के समूह बनाते हैं। यदि अंतिम समूह में चार अंक नही होते हैं तो 0 लगाकर चार अंक कर देते हैं। इस प्रकार प्राप्त संख्या ही परिवर्तित हेक्साडेसीमल संख्या होती है। 1010111011, = ?16 10

हेक्साडेसीमल-बाइनरी परिवर्तन (Hexsadecimal-binary Conversion)

हेक्साडेसीमल को बाइनरी संख्या में परिवर्तित करने के लिए हेक्साडेसीमल संख्या के बायें से दायें क्रम में प्रत्येक अंक का बाइनरी तुल्य मान सारणी से प्राप्त कर लेंगे। प्राप्त 0 तथा 1 का समूह हेक्साडेसीमल संख्या का परिवर्तित रूप होता है। 10AFic = ?

काम्प्लिमेंन्ट्स (Complements)

कम्प्यूटर में काम्प्लिमेंन्ट्स का प्रयोग घटाव की प्रक्रिया को सम्पन्न कराने में किया जाता है। द्विआधारी संख्या प्रणाली में दो काम्प्लिमेंन्ट्स होते हैं-1’s काम्प्लिमेंन्ट्स तथा 2’s काम्प्लिमेंन्ट्स 1’s काम्प्लिमेंन्ट्स (1’s complements)

किसी संख्या का 1’s काम्प्लिमेंन्ट्स प्राप्त करने के लिए संख्या के प्रत्येक बिट में से 1 घटाते हैं। दूसरे अर्थ में द्विआधारी संख्या का 1’s काम्प्लिमेंन्ट्स प्राप्त करने के लिए उस विशेष संख्या के सभी शून्य को एक तथा सभी एक को शून्य में परिवर्तित करते हैं।

अमेरिकन स्टैंडर्ड कोड फार इन्फॉरर्मेशन इंटरचेंज (ASCII-American Standard Code for Information Interchange)

ASCII में 128 कैरेक्टर के लिए 7 बाइनरी अंकों वाले कोड होते हैं अर्थात् प्रत्येक कैरेक्टर के लिए 7 बाइनरी अंक होते हैं। इस कोड के दो भाग होते हैं। दायीं ओर की चार बिट न्यूमैरिक भाग और बायीं ओर की तीन बिट जोन कहलाती हैं। माइक्रोप्रोसेसर में ASCII कोड का प्रयोग किया जाता है।

प्रत्येक कैरेक्टर -0 से 9 तक के अंक.A-Z.a-2 तक के वर्णमाला अक्षर और चिन्ह +’_ *TRI ‘> इत्यादि की दशमलव संख्या होती है जिसे उस कैरेक्टर का ASCII मान कहते हैं। ये मान 0 से 255 के बीच कुल 256 कैरेक्टर तक होता है।।

एक्सटेन्डेड बाइनरी कोडेड डेसीमल इंटरचेंज कोड (EBCDIC – Extended Binary Coded Decimal Interchange Code)

EBCDIC संकेत एक कैरेक्टर को 8 बाइनरी अंकों में व्यक्त करता है। इसमें सभी कैरेक्टर के कुल 256 विभिन्न संकेत हैं। EBCDIC में दो भाग होते हैं।

न्यूमेरिक भाग – दायीं ओर से 4 बिट

जेन भाग – बायीं ओर से 4 बिट

बाइनरी कोडेड डेसीमल (Binary Coded Decimal)

प्रत्येक दशमलव अंक को 4 बाइनरी अंक में व्यक्त किया जाता है। प्रत्येक दशमलव अंक को 4 बाइनरी अंको से व्यक्त किया जाता है । 0 से 9 तक दशमलव अंकों की बाइनरी संख्याएँ निश्चित की गयी हैं इसमें BCD का अर्थ -ऐसे दशमलव अंक से है जिसको बाइनरी कोड में बदला गया है।

उदाहरणार्थ दशमलव संख्या 1981 को BCD संकेत में निम्न प्रकार व्यक्त करेंगेदशमलव अवस्था

1         9       8         1

BCD अवस्था                      0001       1001    1000      0001

अतः 1981 =                         0001      1001   1000     0001

बिट्स, बाइट एवं वर्ड्स (Bits, Bytes and Words)

एक बिट बाइनरी डिजिट 0 या 1 का संक्षेप है। यह कम्प्यूटर मेमोरी में स्टोरेज की सबसे छोटी बेसिक यूनिट कही गई है जिसमें 0 या 1 की वैल्यू है, जिसे बिट कहा जाता है। बाइट, बिट्स (बाइनरी डिजिट्स) की एक बेसिक गपिंग है जिन्हें कम्प्यूटर एक सिंगल यूनिट के रूप में ऑपरेट करता है। इसमें 8 बिट्स होते हैं और ASCII और EBCDIC कोडिंग सिस्टम्स द्वारा एक कैरेक्टर को रिप्रजेन्ट करने के लिए प्रयोग में लाया जाता है। उदाहरण के लिए, EBCDIC या ASCII-8 कोड्स का प्रयोग करते हुए कम्प्यूटर की प्रत्येक स्टोरेज लोकेशन इलेक्ट्रॉनिक सरकिट इलेमेंन्टस या मैग्नेटिक या ऑप्टीकल मीडिया पोजीशन्स से बने होते हैं जो कम-से-कम 8 बिटस का रिण्जेन्ट कर सकते हैं। इस प्रकार प्रत्येक स्टोरेज लोकेशन एक कैरेक्टर रख सकता है। कम्प्यूटर की प्राइमरी स्टोरेज एवं सेकन्डरी स्टोरेज डिवाइसेज सामान्यतया बाइट्स (bytes) नाम से वर्णित किए जाते हैं। वर्ड, बिट्स की एक पिंग है (सामान्यतया एक बाइट से बड़ा) जो प्राइमरी स्टोरेज एवं ALU एवं कन्ट्रोल यूनिट के रजिस्टर्स से एक यूनिट के रूप में स्थानान्तरित किया जाता है। इस प्रकार, एक कम्प्यूटर जिसमें 32-बिट वर्ड लेन्थ है, 32 बिट्स क्षमता के रजिस्टर्स हो सकते हैं एवं सीपीयू में डेटा एवं इंस्ट्रक्शन्स 32 बिट्स की गुपिंग में ट्रान्सफर कर सकता है। 16.बिट या 8.बिट वर्ड लेंथ में डेटा को कम्प्यूटर से तेज प्रोसेस करना चाहिए।

लॉट्स ऑफ बाइट्स (Lots of Bites)-जब हम बाइट्स के लॉट्स के बारे में बात करते हैं तो प्रिफिक्सेज जैसे किलो, मेगा एवं गीगा में जाते हैं, जैसे किलोबाइट, मेगाबाइट एवं गीगाबाइट (संक्षिप्तीकरण K. M and G, जैसे K बाइट्स, M बाइट्स एवं G बाइट्स) में। निम्न टेबल मल्टीप्लाइर्स प्रदर्शित करती हैनाम संक्षेप

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बूलीयन बीजगणित (Boolean Algebra)

बूलीयन बीजगणित (बूलीयन अल्जब्रा) या बूली का तर्कशास्त्र, तार्किक ऑपरेशन का एक सम्पूर्ण तन्त्र है। इसे सबसे पहले जॉर्ज बूल ने उन्नीसवीं शदी के मध्य में बीजगणितीय तर्क के रूप में प्रस्तुत किया। बहुत दिनों तक इस पर लोगों का ध्यान नहीं गया और इसे महत्व नहीं दिया गया। इसके बहुत दिनों के बाद सन् 1938 में क्लॉड शैनन ने प्रदर्शित किया कि रिले-युक्त परिपथ का कार्य बूली के तर्क पर आधारित है। एक बार जब इसका प्रयोग डिजिटल इलेक्ट्रॉनिक परिपथों के डिजाइन एवं सरलीकरण में होने लगा तो क्रान्ति ही आ गयी। आज बूली का बीजगणित आंकिक इलेक्ट्रॉनिकी का आधार बन गया है तथा इलेक्ट्रॉनिकी, संगणक का हार्डवेयर तथा सॉफ्टवेयर, डेटाबेस, खोजी-यंत्र (सर्च-इंजन) एवं अन्य तार्किक डिजाइनों में अत्यन्त उपयोगी है।

AND संकारक (AND Operator)

बूलियन बीजगणित में दो कथन परिपथ में दो स्विच A और B एक बैटरी और बल्ब से जुड़े हुए हैं तो बल्ब में विद्युत संचरण की निम्न स्थितियाँ संभव हैं

ग्रे कोडं  (Gray Code)

इस गेट से डिजिटल सिस्टम किसी भी सूचना को अथवा डेटा को केवल डिस्क्रीट रूप में ही प्रोसेस का है। डिजिटल सिस्टम में डाटा के प्रयोग होने से पूर्व डाटा डिजिटल रूप में परिवर्तित करना आवश्यक होता । एनालाग डाटा को डिजिटल रूप में बदलने के लिए कनवर्टर का प्रयोग होता है। इसी डाटा को एनालाग डिजिटल रूप में बदलने के लिए जिस कोड का प्रयोग किया जाता है उसे ग्रे कोड कहते हैं। ग्रे कोड से डा. बाइनरी नम्बरों की तुलना में मात्र एक बिट के परिवर्तन पर बदल जाता है  ।

बूलीयन बीजगणित (बूलीयन अल्जब्रा) या बूली का तर्कशास्त्र, तार्किक ऑपरेशन का एक सम्प तन्त्र है। इसे सबसे पहले जॉर्ज बूल ने उन्नीसवीं सदी के मध्य में बीजगणितीय तर्क के रूप में प्रस्तुत किया बहुत दिनों तक इस पर लोगों का ध्यान नहीं गया और इसे महत्व नहीं दिया गया। इसके बहुत दिनों के बाद स 1938 में क्लॉड शैनन ने प्रदर्शित किया कि रिले-युक्त परिपथ का कार्य बूली के तर्क पर आधारित हैं। एक ब जब इसका प्रयोग डिजिटल इलेक्ट्रॉनिक परिपथों के डिजाइन एवं सरलीकरण में होने लगा तो क्रान्ति ही गयी। आज बूली का बीजगणित आंकिक इलेक्ट्रॉनिकी का आधार बन गया है तथा इलेक्ट्रॉनिकी, संगणव का हार्डवेयर तथा सॉफ्टवेयर, डेटाबेस. खोजी-यंत्र (सर्च-इंजन) एवं अन्य तार्किक डिजाइनों में अत्या उपयोगी है।

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कर्नाफ मेप (Karnaugh Map)

एक Kanaugh नक्शा एक सचित्र तरीका है जो किसी समीकरण से अवांछित चर को हटाता है। Karnaugh नक्शा को सच्चाई तालिका की एक विशेष व्यवस्था के रूप में वर्णित किया जा सकता है।

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किसी दो चर समस्या के सामान्य मामले के लिए Karnaugh नक्शे और सच तालिका के बीच व्यवहार को दिखाता है। Karnaugh नक्शा बूलियन अभिव्यक्ति को कम करने का एक सरल तरीका है। Karnaugh नक्शा द्वारा बूलियन अभिव्यक्ति को चार से छह चर तक सरल किया जा सकता है।

कर्नाफ मैप बूलीयन व्यंजकों को सरल करने की लोकप्रिय विधि है। इस तकनीक को टेलिकम्यूनिकेशन अभियंता मोरिस कर्नाफ ने बेल प्रयोगशाला में विकसित किया था। इस विधि में सत्यता सारणी को पंक्तियों व कॉलमों में क्रमश: वर्गों और पंक्तियों से सम्बद्ध वर्गों की संख्या में विभाजित किया जाता है। वर्ग के अन्दर की वैल्य सच तालिका की आउटपट स्तंभ से नकल हो रही है. इसलिए सच तालिका में प्रत्येक पंक्ति के लिए नक्शे में एक वर्ग है । Karnaugh नक्शे के किनारे के आसपास दो इनपुट चर के मान हैं। A शीर्ष के साथ है और B बाएँ की ओर नीचे है।

कम्प्यूटर की पीढ़ियाँ (जेनरेशन) (The Computer Generations)

कम्प्यूटर के इतिहास से अभिप्राय उस विकास-क्रम से है, जो अलग-अलग समय पर गणना करने वाले उपकरणों के रूप में हुआ। पीढ़ी से तात्पर्य उपकरण के विकास की प्रक्रिया में हुए सुधारों से है। इसका प्रयोग कम्प्यूटर तकनीक में निरंतर हो रहे नए परिवर्तनों के सन्दर्भ में भी किया जाता है। कम्प्यूटर की हर नई पीढ़ी के साथ सर्किट छोटा होता गया लेकिन कम्प्यूटर के काम करने की क्षमता बढ़ती ही गई। इस सक्षमीकरण का परिणाम गति, शक्ति और मेमोरी की वृद्धि के रूप में सामने आया। नई खोजों और अनुसंधानों के चलते हुए विकास ने हमारे रहने, कार्य करने और खेलने के तरीकों में भी निरन्तर बदलाव किए। प्रत्येक पीढ़ी के कम्प्यूटरों की अपनी विशेषताएँ और ऐसे तकनीकी परिवर्तन हैं, जिन्होंने कम्प्यूटर के काम करने का तरीका बदल दिया। इसके – परिणामस्वरूप कम्प्यूटर छोटे, सस्ते किन्तु पहले से अधिक क्षमतावान, कार्यदक्ष और विश्वसनीय होते चले गये।

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इनमें ऊष्मा का अत्यधिक उत्सर्जन होता था।

ये कम्प्यूटर विश्वसनीय नहीं थे और डेटा अधिक होने पर इनकी गति धीमी पड़ जाती थी।

डेटा को स्टोर करने के लिए इनमें पंच कार्डों का प्रयोग होता था। प्रोग्रामर मशीन आधारित होते थे।

इन कम्प्यूटरों के बिजली की खपत भी बहुत अधिक होती थी।

द्वितीय पीढ़ी के कम्प्यूटर [Second Generation Computers (1959-1965)]-ट्रांजिस्टर्स (Transistors)-इन कम्प्यूटरों में वैक्यूम ट्यूबों का स्थान ट्रांजिस्टरों और अन्य सॉलिड स्टेट पुर्जी ने ले लिया। इनका सर्किट वैक्यूम ट्यूबों की अपेक्षा छोटा और कम मात्रा में ऊष्मा उत्सर्जित करता था। इसलिए ये गति में तीव्र और विश्वसनीय तो थे ही इनमें बिजली की खपत भी कम होती थी। वैक्यूम ट्यूबों के स्थान पर ट्रांजिस्टरों के प्रयोग के कारण ही इन्हें द्वितीय पीढ़ी का कम्प्यूटर कहा गया। सेमीकण्डक्टर सामग्री से बना ट्रांजिस्टर सिग्नलों का विस्तार करने के साथ सर्किट को खोलने बन्द करने का काम करता है। यूँ तो ट्रांजिस्टर का आविष्कार 1947 में ही हो गया था, लेकिन 50 के दशक के अन्त तक कम्प्यूटरों में इसका व्यापक प्रयोग नहीं हो पाया था। वैक्यूम ट्यूब की तुलना में ट्रांजिस्टर

बेहतर काम करते थे, और यही कारण था कि इस पीढ़ी के कम्प्यूटर अपने पूर्ववर्तियों की तुलना में छोटे, तेज, सस्ते, विश्वसनीय और बिजली की खपत कम करते द्वितीय पीढ़ी के कम्प्यूटर थे। ट्रांजिस्टरों से भी काफी ऊष्मा उत्सर्जित होती थी और इससे कम्प्यूटर को क्षति पहुँचने की सम्भावना बनी रहती थी, लेकिन फिर भी वैक्यूम ट्यूबों की तुलना में ये काफी बेहतर थे। दूसरी पीढ़ी के कम्प्यूटरों इनपुट और आउटपुट के प्रिन्ट आउट लेने के लिए पंच कार्ड ही प्रयुक्त किए जाते थे। इस पीढ़ी के कम्प्यूटरों में क्रिप्टिक बाइनरी मशीनी लैंग्वेज के स्थान पर सांकेतिक या असेम्बली लैंग्वेज का प्रयोग हुआ जिससे प्रोग्रामरों को शब्दों में निर्देश देने की सुविधा हुई। इसी समय में हाई लेवल लैंग्वेज भी विकसित होनी शुरू हुई, इसमें COBOL और FORTRAN के प्रारम्भिक संस्करण थे। दूसरी पीढ़ी के कम्प्यूटरों में निर्देश इसकी मेमोरी में स्टोर होते थे और तकनीक विकास के क्रम में मैग्नेटिक ड्रम ने मैग्नेटिक कोर तकनीक का रूप ले लिया। इस पीढ़ी के प्रारम्भिक कम्प्यूटरों को परमाणु ऊर्जा उद्योगों के लिए विकसित किया गया था।

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दूसरी पीढी के कम्प्यूटरों की सामान्य विशेषताएँ (General Characteristics of Second Generation Computers) –

इनमें डेटा का अनुवाद, प्रोसेस व स्टोर करने की क्षमता थी।

पहली पीढ़ी के कम्प्यूटरों की तुलना में इनका आकार काफी छोटा था।

इनकी मेमोरी 32 बाइट और गति 10 Mbps थी।

अपने पूर्ववर्तियों की तुलना में ये अधिक विश्वसनीय थे।

इनमें ऊष्मा का उत्सर्जन अपेक्षाकृत कम होता था।

डेटा स्टोर करने के लिए इनमें पंच कार्डों का प्रयोग होता था।

पहले की तुलना में इनकी बिजली की खपत भी कम थी।

इनकी निर्माण लागत भी पूर्व की अपेक्षा कम थी।

तृतीय पीढ़ी के कम्प्यूटर [Third Generation Computers (1965-1971)]-इंटीग्रेटिड सर्किट (IC) के विकास ने इस पीढ़ी के कम्प्यूटरों में क्रांतिकारी परिवर्तन ला दिया। ट्रांजिस्टरों का आकार बेहद छोटा हो गया और इन्हें सिलिकन चिप पर लगाया जाने लगा, इन्हें सेमीकंडक्टर की संज्ञा दी गई। इससे कम्प्यूटर की कार्यक्षमता और गति आश्चर्यजनक रूप से बढ़ गई। इस तीसरी पीढ़ी के कम्प्यूटरों में IC का प्रयोग होने लगा। जिसमें एक इलेक्ट्रॉनिक सर्किट के सभी घटक नहीं सी सिलिकन की परत में समा गए एक चौथाई इंच के। आकार वाली इस चिप में लाखों ट्रांजिस्टर समा सकते हैं। इस प्रकार की अनेक चिपों को प्रिंटेड सर्किट बोर्ड पर । लगाया जाता है। ये चिप्स कई प्रकार की होती हैं-उदाहरणार्थ CPU चिप्स (इन्हें माइक्रोप्रोसेसर भी कहते है)

इस पीढ़ी के कम्प्यूटरों में प्रयोगकर्ता और कम्प्यूटर के बीच संवाद कार्य का माध्यम पंच कार्ड और प्रिंट आउट नहीं थे। इनका स्थान कीबोर्ड और मॉनिटर ने ले लिया। इन कम्प्यूटरों में ऑपरेटिंग सिस्टम था, जिसकी सहायता से कम्प्यूटर पर एक ही समय में कई एप्लीकेशन एक मुख्य प्रोग्राम की देखरेख में चलाए जा सकते थे। यह मुख्य प्रोग्राम मेमोरी पर नियन्त्रण रखता था। इस पीढ़ी के कम्प्यूटरों की पहुँच सामान्य लोगों तक हो गई क्योंकि ये आकार में छोटे और दाम में कम थे। तीसरी पीढी के ये कम्प्यटर अपने पूर्ववर्तियों की तुलना में सस्त और विश्वसनीय तो थे ही, साथ ही इनकी गति भी तीव्र थी और इनके साथ मैग्नेटिक डिस्क जैसी युक्तियाँ भी जोड़ी जा सकती थीं। इन कम्प्युटरों का आधार मानकता और ससंगतता (Standardization and Copatability) था। इस पीढ़ी के कम्प्यूटर व्यावसायिक तथा वैज्ञानिक दोनों प्रकार के कार्यों के लिए समान रूप से उपयोगी थे। इस पीढ़ी के कम्प्यूटरों में मल्टी प्रोग्रामिंग भी की जा सकती थी और इसी कारण इनकी कार्यक्षमता में आश्चर्यजनक सुधार आया। एक साथ कई प्रोग्राम चलाने की सुविधा ने टाइम शेयरिंग का सूत्रपात किया, जिसमें एक ही समय में कई लोग कम्प्यूटर का उपयोग कर सकते हैं। ऑपरेटिंग सिस्टमों ने इस मशीन की कार्यक्षमता में क्रांतिकारी बदलाव ला दिया और कहीं से भी डेटा सम्प्रेषण की सुविधा भी हो गई। इन कम्प्यूटरों में COBOL और FORTRAN जैसी हाई लेवल लैंग्वेज भी उपयोग में लाई जासकती थी।

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तीसरी पीढ़ी के कम्प्यूटरों का मुख्य आकर्षण मिनी कम्प्यूटर तृतीय पीढ़ी के कम्प्यूटर का विकास होना है। प्रत्येक पीढी के कम्प्यूटर ने MIS के केन्द्रीकरण और विकेन्द्रीकरण को प्रभावित किया। प्रथम पीढ़ी के कम्प्यूटर आकार में बड़े और दाम में अधिक थे, इसलिए सूचना माध्यमों का केन्द्रीकरण हार्डवेयर अर्थव्यवस्था को लाभ पहुंचाने वाला माना गया। दूसरी पीढ़ी के कम्प्यूटरों के दाम चूँकि कम थे, इसलिए झुकाव विकेन्द्रीकरण हो गया है। तीसरी पीढ़ी के कम्प्यूटरों में यह पुनः केन्द्रीकृत हो गया क्योंकि इन कम्प्यूटरों में संचार क्षमता और कहीं भी बैठकर डेटा सम्प्रेषण की सुविधा थी।

तीसरी पीढ़ी के कम्प्यूटरों की सामान्य विशेषताएँ (General Characteristics of Third Generation Computers)-दूसरी पीढ़ी के कम्प्यूटरों की तुलना में ये ज्यादा शक्तिशाली और आकार में छोटे थे। लाखों ट्रांजिस्टरों को एक छोटी सी IC में समा दिया गया, जो डेटा को स्टोर करती थी। हार्डवेयर और रखरखाव का खर्च भी पूर्व की तुलना में कम हो गया। व्यावसायिक और वैज्ञानिक कार्यों के लिए इनका प्रयोग मुख्यतः होता था। डेटा स्टोर करने के लिए मैग्नेटिक टेप व डिस्क का प्रयोग होने लगा। अपने पूर्ववर्तियों की तुलना में ये कम्प्यूटर अधिक विश्वसनीय थे। इनमें ऊष्मा भी कम उत्सर्जित होती थी। इसी पीढ़ी के कम्प्यूटरों में ऑपरेटिंग सिस्टम की शुरुआत हुई। FORTRAN, COBOL, PASCAL और BASIC जैसी हाई लेवल प्रोग्रामिंग लैग्वेजों का प्रयोग भी इस पीढ़ी के कम्प्यूटरों में हुआ।

चतुर्थ पीढ़ी के कम्प्यूटर [Fourth Generation Computers (1971-1980)] – इस पीढ़ी के कम्प्यूटरों की शुरुआत 1971 में हुई जब नई इलेक्ट्रॉनिक तकनीक से सुसज्जित छोटे और तेजी से काम करने वाले कम्प्यूटर बाजार में आए। इसी पीढ़ी में कई नए प्रकार के टर्मिनल और कम्प्यूटर तक पहुँच के माध्यम भी विकसित हुए। माइक्रोप्रोसेसर के प्रयोग के साथ शुरू हुई यह चौथी पीढ़ी। इसमें एक ही सिलिकन चिप में CPU होता था, जिसमें हजारों IC बने होते थे। पर्सनल कम्प्यूटरों में CPU और माइक्रोप्रोसेसर का एक ही अर्थ है। इस माइक्रोप्रोसेसर को सभी PC और वर्क स्टेशनों का हृदय कहा जा सकता है। यह क्लॉक रेडियो से लेकर माटर। वाहनों के फ्यूज इंजेक्शन सिस्टम जैसे डिजिटल उपकरणों को नियन्त्रित करता है। अग्र तीन विशेषताओं के आधार। पर माइक्रोप्रोसेसरों में अन्तर किया जाता है

इंस्ट्रक्शन सेट (Instruction Set)-निर्देशों का वह समूह जिन्हें माइक्रोप्रोसेसर कार्यान्वित कर सकता है।

बैंडविड्थ (Bandwidth)-एक निर्देश के माध्यम से प्रोसेस की जाने वाली बिट्स।

क्लॉक स्पीड (Clock Speed)-यह मेगाहर्ट्ज (MHz में आंकी जाती है-इससे यह निर्धारित होता है कि प्रति सेकण्ड माइक्रोप्रोसेसर कितने निर्देश कार्यान्वित कर सकता है। वर्ष 1971 में Intel 4004 चिप विकसित हुई जिसमें कम्प्यूटर के सभी घटक CPU से लेकर मेमोरी और इनपुट/आउटपुट कंट्रोल एक ही चिप में समाहित थे।

IBM ने वर्ष 1981 में घरों में उपयोग होने वाला पहला कम्प्यूटर पेश किया और वर्ष 1984 में APPLE ने मैकिनटॉश को बाजार में उतारा । माइक्रोप्रोसेसर से भी कम्प्यूटर की दुनिया से बाहर निकल गए और हमारे दैनिक प्रयोग में आने वाली बहत सी चीजों में इनका उपयोग होने लगा। ये कम्प्यूटर आकार में छोटे परन्तु काम करने में तेज थे। इनमें कई कम्प्यूटरों को आपस में जोड़कर नेटवर्क बनाने की सुविधा ने आगे चलकर इंटरनेट को जन्म दिया। चौथी श्रेणी के इन कम्प्यूटरों के साथ नए माउस, हाथ में पकड़े जा सकने वाली युक्तियाँ और GUI (Graphic User Interface) माइक्रो कम्प्यूटर में वह सभी गण थे,

जो बड़े सिस्टम में होते हैं। तब से माइक्रो कम्प्यूटर के दामों में भी कमी होती गई। कुछ कम्प्यूटर तो 15 हजार रुपये में चतुर्थ पीढ़ी के कम्प्यूटर ही उपलब्ध थे। दाम कम होने के कारण माइक्रोप्रोसेसरों की संख्या बढ़ती गई। माइक्रोकम्प्यूटरों का प्रयोग मुख्यतः औद्योगिक प्रक्रियाओं के स्वचालन में होता है, जहाँ ये निर्माण प्रक्रिया के विभिन्न चरणों पर नजर रखकर उन्हें नियन्त्रित करते हैं। कम दाम और वजन के कारण इन्हें कार्यस्थल पर ले जाने में भी कोई समस्या नहीं आती और इन्हें बड़े सिस्टम के साथ भी जोड़ा जा सकता है। चौथी पीढ़ी के दूसरे दशक (1986-वर्तमान तक) में माइक्रोप्रोसेसरों की गति और मेमोरी की क्षमता आश्चर्यजनक रूप से बढ़ गई। 90 के दशक में मेनफ्रेम CPU की विशेषताएँ माइक्रोप्रोसेसर की संरचना का हिस्सा बन गईं। 1995 में पेंटियम और पावर PC जैसे CPU का जोर रहा।

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चतुर्थ पीढ़ी के कम्प्यूटरों की सामान्य विशेषताएँ (General Characteristics of Fourth Generation Computers)-अपनी पूर्ववर्ती पीढ़ी की तुलना में इनका आकार व दाम-दोनों ही कम थे। प्रोग्रामों और डेटा को स्टोर करने के लिए मुख्य व सहायक स्टोरेज क्षमता भी काफी अधिक थी। ये स्थान भी कम घेरते हैं और इनमें बिजली की खपत व ऊष्मा का उत्सजन भी कम होता है। डेटा प्रोसेसिंग के लिए माइक्रोप्रोसेसरों का उपयोग होता है। कम्प्यूटर के कार्य करने वाला माइक्रोप्रोसेसर एक ही चिप पर होता है। हार्डवेयर समस्याएँ कम आने के कारण ये अधिक विश्वसनीय हैं। प्रोसीजरल ओरिएंटिड लैंग्वेज के स्थान पर ऑब्जेक्ट ओरिएंटिड लैग्वेज जैसी हाई लेवल लैंग्वेज के प्रयोग से सॉफ्टवेयर विकसित करने का काम तेज हो गया। ग्राफिक्स यूजर इंटरफेस ने इस पीढ़ी के कम्प्यूटरों पर काम करना सरल कर दिया। LAN, WAN और MAN ने सूचनाओं व जानकारियों को शेयर करने की सुविधा प्रदान की।

पंचम पीढ़ी के कम्प्यूटर [Fifth Generation Computers (1990 and Beyond)]- इस पीढ़ी के कम्प्यूटर कृत्रिम बुद्धि पर आधारित हैं जो अभी भी विकास के चरण में हैं। लेकिन आवाज की पहचान (Voice Recognition) करने जैसे कुछ एप्लीकेशन चलन में आ चुके हैं। ___ कृत्रिम बुद्धि कम्प्यूटर विज्ञान की एक शाखा है जो कम्प्यूटरों से मनुष्य की भाँति काम लेने की अपेक्षा करती है। कृत्रिम बुद्धि (Artificial Intelligence) की परिकल्पना जॉन मैकार्थी ने वर्ष 1956 में मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में दी थी। कृत्रिम बुद्धि में शामिल है•

गेम खेलना (Games Playing)-शतरंज या चैकर्स जैसे खेलों के लिये कम्प्यूटर को प्रोग्राम करना।

एक्सपर्ट सिस्टम (Expert Systems)-वास्तविक जीवन की परिस्थितियों में निर्णय लेने के लिए कम्प्यूटर को प्रोग्राम करना। उदाहरणार्थ, कुछ एक्सपर्ट सिस्टम लक्षणों के आधार पर चिकित्सक को बीमारी की। पहचान में सहायता करते हैं।

सामान्य भाषा (Natural Language)-मनुष्य की आम बोल-चाल की भाषाओं को समझने के लिए कम्प्यूटर को प्रोग्राम करना।

तटस्थ नेटवर्क (Neutral Networks)-ऐसा सिस्टम जो जानवरों के दिमाग में चल रहे संवेगों को बताने में सक्षम हो।

रोबोटिक्स (Robotics)-अन्य संवेदी प्रोत्साहनों के प्रति देखने, सनने और प्रतिक्रिया करने के लिए कम्प्यूटर को प्रोग्राम करना। पंचम पीढ़ी के कम्प्यूटर वर्तमान में ऐसा कोई कम्प्यटर नहीं है, जो कृत्रिम बुद्धि से पूर्णतः युक्त हो अर्थात् मानवीय संवेगों पर प्रतिक्रिया कर सके। लेकिन गेमिंग के क्षेत्र में इसमें आशातीत सफलता मिली है। आज शतरंज के किसी भी अच्छे प्रोग्राम में दक्ष खिलाड़ी को परास्त करने की क्षमता है। वर्ष 1997 में ‘डीप ब्लू’ नामक IBM के सुपर कम्प्यूटर ने तत्कालीन शतरंज विश्व विजेता गैरी कास्पारोव को पराजित कर दिया था। सामान्य भाषा की प्रोसेसिंग बेहद काम की सिद्ध होगी क्योंकि तब कम्प्यूटर को कार्य करने के लिए किसी विशेष भाषा में निर्देश देने की आवश्यकता नहीं रहेगी। हम सीधे कम्प्यूटर के पास जाकर उससे बात कर सकेंगे।

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कम्प्यूटरों का वर्गीकरण (Classification of Computers)

आइए, अब चर्चा कम्प्यूटर की उन विभिन्न किस्मों की हो जाए, जो हमें आज दिखाई देते हैं। यूँ तो ये कम्प्यूटर पाँचवीं पीढ़ी के ही हैं, लेकिन आकार, क्षमता, मेमोरी और प्रयोग करने वालों की संख्या के आधार पर इन्हें दो श्रेणियों में बाँटा गया है

(1) कार्य करने के सिद्धान्तों के आधार पर,

(2) आकार और डेटा प्रोसेसिंग की क्षमता के आधार पर।

(1) कार्य करने के सिद्धान्तों के आधार पर (On the Basis of Working Principle)-कम्प्यूटर के कार्य करने के सिद्धान्तों के आधार पर इन्हें एनालॉग, डिजिटल और हाइब्रिड नामक तीन वर्गों में बाँटा जा सकता है।

एनालॉग कम्प्यूटर (Analog Computer)-इस प्रकार के कम्प्यूटर सतत भौतिक आभास (Continuous Physical Phenomena) जैसे-इलेक्ट्रिकल, मैकेनिकल या हाइड्रोलिक मात्राओं का प्रयोग करके हल की जाने वाली समस्या का मॉडल बनाते हैं। यह डिजिटल कम्प्यूटर से इस मायने में भिन्न है कि

यह एक साथ कई सांख्यिकीय कार्य कर सकता है। इसके कार्य की एक अन्य विशेषता यह है कि यह गणितीय परिकलन करने के लिए कंटीन्युअस वेरिएबल्स का प्रयोग करता है।

डिजिटल कम्प्यूटर (Digital Computer)-यह कम्प्यूटर गणना और तर्क सम्बन्धी कार्यों को करने के लिए संख्यात्मक किस्मों जैसे-बाइनरी नम्बर सिस्टम, का प्रयोग करता है। डिजिटल कम्प्यूटर डेटा की प्रोसेसिंग अंकीय रूप में करता है और इसके सर्किट सीधे ही जोड़, घटाव, गुणा, भाग, एनालॉग कम्प्यूटर जैसी क्रियाएँ सम्पन्न करते हैं। इस कम्प्यूटर पर जो अंक प्रयोग किए जाते हैं, वे बाइनरी सिस्टम में होते हैं; जैसा बाइनरी संख्याएँ या बिट्स। उदाहरणार्थ-0, 1, 10, 11, 100, 101 इत्यादि 0, 1, 2, 3, 4, 5 के स्थान पर प्रयुक्त होते हैं। कम्प्यूटर के सर्किट में बाइनरी संख्याएँ सरलता से करेंट या वोल्टेज के लिए उपस्थित (1) या अनपस्थित (0) के रूप में अभिव्यक्त की जाती हैं। आठ निरन्तर बिट्स की श्रृंखला 1 बाइट कहलाती है और यह 256 विभिन्न और-ऑफ संयोजनों को बनाती है। इन कम्प्यूटरों का आरक्षण करने, वजानिक अनुसंधानों डेरा प्रोसेसिंग और योमेसिंग के काया डेस्कटॉप पब्लिशिंग (TTPष्टानिक सयाका अन्य प्रकार के कार्यों में होता है।

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हाइब्रिड कम्प्यूटर (Hybrid Computer)

इस प्रकार का कम्प्यूटर इनपुट और आउटपुट का कार्य एनालॉग तथा डिजिटल दोनों प्रकार के सिग्नलों द्वारा करता है। जटिल अनुकरणों को हल करने की कम खर्चीली विधि है हाइब्रिड कम्प्यूटर डिजिटल कम्प्यूटर सिस्टम सेटअप। यह एक डिजिटल कम्प्यूटर है, जो एनालॉग सिग्नलों को डिजिटल सिग्नलों में बदलकर उन्हें डिजिटल रूप में ही प्रोसेस करता है। यह संग्राह्यता एक कन्वर्टर के माध्यम से सम्भव होती है। हाइब्रिड कम्प्यूटर दोनों प्रकार (एनालॉगव डिजिटल) का डेटा ले-दे सकता है। यह निरन्तर भित्र मिलने वाली आउटपुट को अलग-अलग वैल्यूज में डिजिटल प्रोसेसिंग के लिए बदल देता है। इससे मिलने वाले समाधान अपने समकक्ष डिजिटल कम्प्यूटर की तुलना में कम खर्चीले होते हैं। सफल सिस्टम विकसित करने के लिए हाइब्रिड कम्प्यूटरों का होना आवश्यक है। इस प्रकार के कम्प्यूटर का आदर्श उदाहरण है। किसी अस्पताल में रोगी की हदय गति हाइब्रिड कम्प्यूटर मापने वाला कम्प्यूटर। इनका अधिकांश प्रयोग वैज्ञानिक कार्यों तथा उद्योगों में उत्पादन प्रक्रिया को नियन्त्रित करने में होता है।

(2) आकार और डेटा प्रोसेसिंग की क्षमता के आधार पर (On the Basis of Size and Data Processing Power)-कम्प्यूटरों को प्रायः पर्सनल कम्प्यूटर, माइक्रोकम्प्यूटर, मिनी कम्प्यूटर, मेन-फ्रेम कम्प्यूटर और सुपर कम्प्यूटर के वर्गों में बाँटा जाता है। इसके अतिरिक्त सर्वर और वर्क स्टेशन भी कम्प्यूटरों की श्रेणी में आते हैं।

पर्सनल कम्प्यूटर (Personal Computer)-यह एक छोटा कम्प्यूटर होता है, जिसे माइक्रोकम्प्यूटर भी कहते हैं। इसमें CPU के रूप में माइक्रोप्रोसेसर का प्रयोग होता है। इस प्रकार के कम्प्यूटरों का उपयोग 1970 के दशक में प्रारम्भ हुआ। कम्प्यूटर का पूरा सर्किट माइक्रोप्रोसेसर नामक छोटी सी सिलिकन चिप में समा जाने के कारण ये कम्प्यूटर अस्तित्व में आए। माइक्रो प्रोसेसर इलेक्ट्रॉनिक सर्किट का सुक्ष्म रूप है, इसे ‘एक चिप पर कम्प्यूटर’ भी कह सकते हैं। इस चिप में सभी सर्किट आपस में जुड़े होते हैं। चिप का आकार भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है। यह एक इंच के 30 हजारवें भाग जितनी मोटी हो सकती है तो इसका आकार हाथ की अंगुली के नाखून (114 वर्गइंच) या डाक टिकट(1 वर्गइंच) जितना भी होता है। कई बार भूलवश माइक्रोप्रोसेसर और माइक्रोकम्प्यूटर को एक ही समक्ष लिया जाता है. लेकिन माइक्रोप्रोसेसर कम्प्यूटर नहीं है. यह CPU के सर्किट का एक हिस्सा है। इसे एक ही सर्किट बोर्ड पर मेमोरी, इनपुट और आउटपुट चिों के साथ लगाकर माइक्रो कम्प्यूटर का रूप दिया जाता है। इस प्रकार के कम्प्यूटर को माइक्रो’ भी कहते हैं और इसमें एक सिलिकन चिप पर बना प्रोसेसर ROM Read Only Memory) और RAM (Random Access Memory) चिप्स के साथ सर्किट बोर्ड पर लगा होता है। माइक्रोकम्प्यूटर कहें या पर्सनल कम्प्यूटर बात एक ही है। लेकिन जिस पर्सनल कम्प्यूटर को PC कहा जाता है, उसके मायने जरा अलग है। वर्ष 1981 मे IBM ने अपने पहले माइक्रो कम्प्यूटर को IBM PC नाम दिया। इसके बाद कई कम्पनियों ने इसकी नकल करके इसी प्रकार काम करने वाले कम्प्यूटर बाजार में उतारे। इसलिए PC की श्रेणी में IBM और इसके समकक्ष अन्य सभी कम्प्यूटर आ गए। लेकिन एप्पल मैकिनटीशन तो IBM के समान था और न ही इस जैसे अन्य कम्प्यूटरों जैसा। एप्पल माइक्रोकम्प्यूटर की एक अलग श्रेणी है और इन कम्प्यूटरों का प्रयोग मुख्यत: मल्टीमीडिया कार्यों के लिए होता है। प्रारम्भिक माइक्रोकम्प्यूटरों में एक बार में एक ही व्यक्ति काम कर पाता था, लेकिन आज जो माइक्रोकम्प्यूटर उपलब्ध व लोकप्रिय है, उनमें एक साथ कई व्यक्ति काम कर सकते हैं। इस प्रकार के सिस्टम में मेनफ्रेम या मिनी कम्प्यूटर के स्थान शक्तिशाली माइक्रोकम्प्यटर होता है। एक व्यक्ति द्वारा प्रयोग किया जाने वाला पर्सनल कम्प्यूटर भी नेटवर्क के माध्यम से अन्य कम्प्यटरों के साथ जोडा जा सकता है। विकसित हो चुके नेटवर्क में मल्टी-यूजर माइक्रो कम्प्य की महत्वपूर्ण भूमिका है।

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एक माइक्रोकम्प्यूटर में सहायक युक्तियाँ और अन्य जोड़े जा सकने वाले उपकरण निम्न प्रकार हो सकते हैं।

(i) 8, 16 या 32 बिट प्रोसेसर;

(ii) 256 MB की 512 MB तक बढ़ाई जा सकने वाली आन्तरिक मेमोरी:

(iii) स्टोरेज कैसेट, फ्लोपी डिस्क, माइक्रो फ्लोपी डिस्क, माइक्रो ड्राइव, सिलिकन डिस्क या हार्ड डिस्क CD-ROM, DVD, पेन (फ्लैश) ड्राइव आदि;

(iv) की-बोर्ड और स्क्रीन (इनपुट व आउटपुट के लिए);

(v) इंटरफेस (सहायक युक्तियों को जोड़ने के लिए);

(vi) बस (संचार और नियन्त्रण चैनल);

(vii) प्रिंटर और/या प्लॉटर (बहुरंगी टेस्ट और ग्राफिक्स);

(viii) पल्स जेनरेटर (क्लॉक);

(ix) लाइट पेन, माउस, पैडल्स/जॉयस्टिक. मल्टीमीडिया (ग्राफिक्स और गेम्स):

(x) सॉफ्टवेयर (प्रोग्राम्स)।

यूँ तो माइक्रो कम्प्यूटर आज छोटे-से-छोटे व्यवसाय की आवश्यकता बन चुका है, लेकिन इनका मुख्य बाजार घरों में प्रयोग होने वाले पर्सनल कम्प्यूटर हैं। घरों में इस कम्प्यूटर का प्रयोग कई कामों के लिए होता है; जैसे-घरेलू बजट का लेखा-जोखा रखना, व्यंजनों की विधियाँ स्टोर करना और घर के सुरक्षा अलार्म को नियन्त्रित करना आदि। आज एक छोटा माइक्रोकम्प्यूटर सिस्टम 30 हजार रुपये में मिल जाता है। 20 से 40 हजार रुपये में कुछ उन्नत किस्म का 160 GB या अधिक की पर्सनल कम्प्यूटर हार्डडिस्क और 512 MB या अधिक RAM वाला कम्प्यूटर लिया जा सकता है। यदि इसके साथ प्रिंटर भी जोड़ना है और RAM भी अधिक चाहिए तो यह कीमत 35 से 50 हजार के बीच हो सकती है। IBM PC, PS/2 और एप्पल मैकिनटॉश माइक्रोकम्प्यूटर के उदाहरण हैं।

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पर्सनल/माइक्रो कम्प्यूटरों के प्रकार (Types of Personal/Microcomputer)-इस प्रकार के कम्प्यूटरों को आकार और चेसिस/केस के आधार पर वर्गीकृत किया जाता है। चेसिस या केस उसे कहते हैं, जा इलेक्ट्रॉनिक घटकों को संरचनात्मक आधार प्रदान करता है। प्रयोग के आधार पर कई प्रकार के मॉडल बाजार म उपलब्ध हैं-टॉवर टाइप, डेस्कटॉप, नोटबुक, लैपटॉप, पामटॉप, PDA (Personal Digital Assistant) और धीरे-धीरे चलन में आ रहे पॉकेट कम्प्यूटर।

मिनी कम्प्यूटर (Mini Computer)-यह मल्टीयूजर कम्प्यूटरों की एक श्रेणी है, जिसे हम मध्यम रेंज का कह सकते हैं। यह बड़े मल्टी यूजर कम्प्यूटर मेनफ्रेम कम्प्यूटर और छोटे सिंगल यूजर कम्प्यूटर (पर्सनल कम्प्यूटर) के बीच के हैं अर्थात् न बहुत छोटे और न ही बहुत बड़े। इस प्रकार के कम्प्यूटरों का पहले अपना अलग वर्ग था, जिसके ऑपरेटिंग सिस्टम और हार्डवेयर भी अलग थे। वर्तमान में इन्हें मध्यम श्रेणी में गिना जाता है। SPARC. POWER और सन माइक्रो सिस्टम का Itanium आधारित सिस्टम, IBM और HP इसी श्रेणी के कम्प्यूटर हैं।

मेनफ्रेम कम्प्यूटर (Mainframe Computer)-इस प्रकार के कम्प्यूटर बड़े संस्थानों द्वारा जटिल कायों का निष्पादन करने के लिए प्रयुक्त  होते हैं; जैसे-जनगणना, उद्योग व बाजार सांख्यिकी, वित्तीय प्रोसेसिंग इत्यादि। पूर्व में मेनफ्रेम कम्प्यूटर से अभिप्राय बड़ी-बड़ी ऐसी कैबिनेटों से था, जिसमें उस समय के कम्प्यूटरों के CPU और मुख्य मेमोरी होती थी। बाद में ये कम्प्यूटर उच्च स्तरीय शक्तिशाली मशीनों के रूप में पहचाने जाने लगे। ये मिनी कम्प्यूटर से तेज और कीमत में भी अधिक होते हैं। बड़े आकार के ये कम्प्यूटर सभी प्रकार के व्यावसायिक व वैज्ञानिक कार्यों को कर सकते हैं। इनकी गति प्रति सेकण्ड लाखों निर्देशों को प्रोसेस करने की होती है। मेनफ्रेम कम्प्यूटर के साथ कहीं भी मौजूद 1000 तक की संख्या में कम्प्यूटरों को जोड़ा जा सकता है। इन कम्प्यूटरों में विशाल ऑन लाइन सहायक स्टोरेज क्षमता होती है। मैग्नेटिक टेप ड्राइव, हार्ड डिस्क ड्राइव, डिस्प्ले यूनिट, प्लॉटर, प्रिंटर और संचार टर्मिनल जैसे घटकों को मेनफ्रेम कम्प्यूटर के साथ जोड़ा जा सकता है। इनकी कैच (cache) मेमोरी काफी अधिक होती है और यही कारण है कि ये मिनी कम्प्यूटरों की तुलना में तेजी से काम करते हैं। इनमें मल्टी प्रोग्रामिंग और टाइम | शेयरिंग की भी सुविधा होती है। कनफिगुरेशन के आधार पर मेनफ्रेम कम्प्यूटर की कीमत 1 से 5 करोड़ रुपये के बीच हो सकती है। मेनफ्रेम कम्प्यूटर के निर्माताओं के लिए यह आवश्यक है कि एक ही परिवार; श्रेणीबद्ध में छोटे और बहुत बड़े कम्प्यूटर बनाए जाएँ। इस प्रकार बने एक ही परिवार के कम्प्यूटर आपस में सुसंगत (Compatible) होते हैं।

सुपर कम्प्यूटर (Super Computer)-इन कम्प्यूटरों की कीमत बहुत अधिक होती है और ये भारी भरकम अंकीय गणना के कुछ विशिष्ट कार्यों हेतु प्रयोग में लाए जाते हैं। आकार में बड़े और काम करने में तेज इन कम्प्यूटरों का प्रयोग कुछ विशिष्ट क्षेत्रों में ही होता है। अन्य कम्प्यूटरों की तुलना में इनकी प्रोसेसिंग गति भी अधिक होती है और ये मल्टी प्रोसेसिंग तकनीक से भी लैस होते हैं। सैकड़ों माइक्रोप्रोसेसरों को आपस में जोड़कर सुपर कम्प्यूटर बनाया जाता है। रक्षा, मौसम की भविष्यवाणी, बायोमेडिकल शोध, रिमोट सेंसिंग, हवाई जहाज का निर्माण और विज्ञान तथा तकनीकी के अन्य क्षेत्रों में सुपर कम्प्यूटर से काम लिया जाता है। CRAY YMP, CRAY2,NEC SX-3, CRAY XMP और भारत का PARAM सुपर कम्प्यूटर के कुछ उदाहरण हैं। [CRAY, CDC, फुजित्सु] इंटेल कॉरपोरेशन सुपर कम्प्यूटरों के प्रमुख निर्माता हैं। इनके अतिरिक्त लिंकिंग मशीन कॉरपोरेशन, NEC, SGI, हिताची IBM और सन माइक्रोसिस्टम भी सुपर कम्प्यूटर के निर्माता हैं। चिकित्सा के क्षेत्र में वायरसों की संरचना का अध्ययन सुपर कम्प्यूटर पर किया जाता है, जैसे-एड्स के मारक वायरस/वायुयान का डिजाइन तैयार करते समय इसके चारों ओर पड़ने वाले वायदाव का गहन विश्लेषण करना। पड़ता है और यह कार्य सुपर कम्प्यूटर पर ही सम्पन्न होता है। कम्प्यूटरों में सबसे उन्नत श्रेणी के ये सुपर कम्प्यूटर 1960 के दशक में आए। तब इनका उपयोग मौसम की भविष्यवाणी और परिमाण भौतिकी.क्वांटम फिजिक्स के क्षेत्रों में किया जाता था। आज सुपर कम्प्यूटरों का अत्यन्त विकसित और तीव्र रूप देखने को मिलता है। कल के साधारण कम्प्यूटर ही आज के सुपर कम्प्यूटर हैं। आज CRAY, HP, और IBM जैसी स्थापित कम्पनियां सुपर कम्प्यूटरों का निर्माण करती हैं। इन्होंने 1980 के दशक में कई अन्य कम्पनियाँ खरीदकर अपनी क्षमता में वृद्धि की। मई 2010 तक की स्थिति देखें तो CRAY द्वारा निर्मित जगुआर विश्व का सर्वाधिक तेज सुपर कम्प्यूटर था। सामान्यतया सुपर कम्प्यूटर की गति FLOPS (Floating Point Operations Per Second) में आंकी जाती है। FLOPS वैज्ञानिक गणनाओं के कार्य में कम्प्यूटर की कार्यक्षमता की माप इकाई है, जिसमें प्रत्येक गणना कार्य पुराने से अलग होता है। यानी गणना के बिन्दु अस्थिर होते हैं और हर क्षण उनमें परिवर्तन होता रहता है। छोटे कम्प्यूटर के प्रोसेसिंग यूनिट में साधारणत: एक ही प्रोसेसर होता है, जबकि बड़े कम्प्यूटर के प्रोसेसिंग यूनिट में एक से अधिक प्रोसेसर्स हो सकते हैं, जिसमें अलग-अलग दिये गये प्रोसेस एग्जिक्यूट किये जाते हैं।

इनपुट एवं आउटपुट डिवाइसेज के प्रकार (Types of Input & Output Devices)

जब कम्प्यूटर पर कार्य किया जाता है, तो कम्प्यूटर तथा प्रयोगकर्ता में परस्पर सम्पर्क बनाये रखने के लिए इनपुट और आउटपुट डिवाइसेज की आवश्यकता होती है।

इन दोनों ही डिवाइसेज का कम्प्यूटर के गणनात्मक कार्य से कोई सम्बन्ध नहीं होता अपितु इनका कार्य केवल प्रयोगकर्ता के निर्देशों को सीपीयू तक पहुँचाना तथा इसके द्वारा निर्मित परिणाम अर्थात् सूचना को प्रयोगकर्ता तक पहुँचाना मात्र है।

इनपुट डिवाइसेज के प्रकार (Types of Input Devices)

जिन डिवाइसेज का प्रयोग डेटा और निर्देशों को कम्प्यूटर में प्रविष्ट करने के लिए किया जाता है, वे सभी डिवाइसेज आगम अथवा इनपुट डिवाइसेज कहलाती हैं।

यह भी कहा जा सकता है कि मानवीय भाषा में प्रविष्ट किये जा रहे डेटा अथवा प्रोग्राम को कम्प्यूटर के समझने योग्य रूप में परिवर्तित करने के लिए प्रयोग की जाने वाली डिवाइसेज को इनपुट डिवाइसेज कहा जाता है। ये डिवाइसेज अक्षरों, अंकों तथा अन्य विशिष्ट चिन्हों को बायनरी डिजिट अर्थात 0 तथा 1 में परिवर्तित करके। समझने योग्य बनाती है।

इनपुट के लिए सबसे अधिक प्रयुक्त की जाने वाली डिवाइस है-कीबोर्ड मुख्यत: कम्प्यूटर्स में इनपुट के लिए की-बोर्ड का ही प्रयोग किया जाता है, परन्तु कुछ अन्य इनपुट डिवाइसेज भी उपलब्ध रहती है, जो कि निम्नलिखित हैं

  1. माउस (Mouse)
  2. ट्रैकर बॉल (Trackerball)
  3. जॉयस्टिक (Joystick)
  4. हैण्ड-हैल्ड टर्मिनल (Hand held terminal)
  5. माइक्रोफोन (Microphone)

की-बोर्ड (Keyboard)

कम्प्यूटर का की-बोर्ड एक सामान्य टाइपराइटर के की-बोर्ड के समान ही होता है, परन्तु इसमें ‘कीज’ की संख्या अपेक्षाकृत अधिक होती है। कम्प्यूटर के की-बोर्ड के बटन टाइपराइटर में लगे बटन्स की अपेक्षा बहुत आसानी से दब जाते हैं जिससे अधिक समय तक कार्य करने पर भी थकान कम होती है। इसके अतिरिक्त इसमें एक अन्य सुविधा भी होती है, यदि की-बोर्ड किसी ‘की’ को आधे सेकेण्ड से अधिक दबाए रखा जाए, तो वह स्वयं को दोहराने लगती है। यह क्रिया टाइपमैटिक कहलाती है। टाइपमैटिक की दर होती है। उदाहरण के लिए बिन्दुओं से बनी एक लंबी रेखा की-बोर्ड पर लगी बिन्दु वाली कुंजी को केवल दबाए रखकर ही खींची जा सकती है। की-बोर्ड द्वारा प्रविष्ट किये जाने वाले डेटा को की-बोर्ड 0 तथा 1 बिट में परिवर्तित करके दो प्रकार से सीपीयू को श्रेणी अथवा समानान्तर क्रम में प्रेषित कर सकता है। इस आधार पर की-बोर्ड दो प्रकार के होते हैं-सीरियल की-बोर्ड तथा पैरेलल की-बोर्ड।

सीरियल की-बोर्ड (Serial Keyboard)- यह की-बोर्ड प्रविष्ट किये जाने वाले डेटा 0 तथा 1 की बिट्स को एक ही तार द्वारा श्रेणी क्रम को प्रेषित करता है। इस श्रेणी क्रम को कम्प्यूटर में लगाए गए एक कन्वर्टर की सहायता से समानान्तर क्रम में परिवर्तित किया जाता है।

पैरेलल की-बोर्ड (Parallel Keyboard) यह की-बोर्ड प्रविष्ट किये जाने वाले डेटा 0 तथा 1 की बिट्स को पृथक-पृथक तारों की सहायता से एक साथ कम्प्यूटर को प्रेषित करता है। की-बोर्ड में स्थित की-बोर्ड एनकोडर द्वारा दबाई गई ‘कीज’ के अक्षर को 0 तथा 1 की बिट्स से निर्मित कोड में परिवर्तित किया जाता है।

की-बोर्ड को एक केबल द्वारा कम्प्यूटर से जोड़ा जाता है। इस केबल के दूसरे सिरे पर लगा प्लग कम्प्यूटर के पीछे लगे एक सॉकेट में लग जाता है। कम्प्यूटर तथा की-बोर्ड का परस्पर सम्पर्क इसी केबल द्वारा होता है। असुविधाजनक स्थिति में लगे की-बोर्ड पर काम करने से थकावट जल्दी होती है, तथा डेटा प्रविष्ट करने में त्रुटियां होने की सम्भावना भी अधिक होती है। टाइपराइटर की अपेक्षा अनेक प्रकार के कार्य करने के लिए कम्प्य की-बोर्डों में कई अतिरिक्त कीज’ होती हैं।

टाइपराइटर की अपेक्षा अनेक प्रकार के कार्य करने के लिए कम्प्यूटर्स के की-बोर्ड अधिक सुविधा सम्पन्न होते हैं। इसमें भी उसी क्रम से ‘कीज’ लगी होती हैं जिससे कोई भी व्यक्ति उस पर पाठ्य सामग्री टाइप कर सकता है। ये’कीज’ एल्फान्यूमेरिक ‘कीज’ कहलाती हैं। की-बोर्ड पर कोई भी अक्षर टाइप करने पर वह मॉनीटर स्क्रीन पर तत्काल प्रदर्शित होता है ताकि यह ज्ञात हो जाए कि सही टाइप किया है अथवा नहीं।

माउस (Mouse)

इसे माइक्रोमाउस भी कहा जाता है। माउस प्लास्टिक के चूहे के आकार का होता है। पर्सनल कम्प्यूटर के साथ उपयोग में आने वाली माउस में एक ‘बॉल’ लगी होती है। इसमें समकोण पर स्थित अक्ष पर दो चक्के होते हैं। इन चक्कों के चलने पर इनकी अक्ष (Axis) से लगे इलेक्ट्रॉनिक शॉफ्ट इनकोडर से विद्युत स्पंदन (pulses) पैदा होने लगते हैं। माउस को सरकाने पर विद्यत पल्स पैदा होती है। ये स्पंदन कम्प्यूटर की मेमोरी में चले जाते हैं, जहाँ से इन स्पंदनों के अनुसार विजुअल माउस डिस्प्ले यूनिट (स्क्रीन) को निर्देश दिये जाते हैं। इन निर्देशों का पालनस्क्रीन पर कर्सर द्वारा किया जाता है। जैसे-जैसे माउस ड्राइंग के ऊपर घूमता है, वैसे-वैसे स्क्रीन पर कर्सर घूमता जाता है और स्क्रीन पर ड्राइंग बनती चली जाती है। माउस के मुँह पर या साइड में बटन लगे होते हैं, जिनसे कई प्रकार की कमाण्ड्स दी जा सकती हैं।

पहले माउस में केवल दो बटन्स ही होते थे, बाद में इसमें तीन बटन्स का प्रचलन हो गया। इन्टरनेट के विस्तार के साथ ही माउस के बीच वाले बटन का स्थान एक रोलर ने ले लिया। इस रोलर को घुमान से एक्सप्लोरर में विन्डो को ऊपर अथवा नीचे स्क्रॉल किया जा सकता है। इसीलिए इस प्रकार के माउस स्क्रॉल माउस कहलाते हैं। आधुनिक ऑप्टिकल माउस में बॉल एवं रोलर नहीं होते हैं। इसमें लगा सेंसर माउस को किसी भी दिशा में विस्थापित होने को प्रकाश की सहायता से जाँचता है और मॉनीटर स्क्रीन पर माउस प्वाइन्टर को इसी विस्थापन के अनुरूप विस्थापित करता है।

माउस के क्रियाशील होने पर मॉनीटर के पटल पर एक तीर की आकृति का चिन्ह दिखाई देने लगता है, और। जैसे-जैसे माउस को मेज पर सरकाया जाता है, यह तीर का निशान अथवा माउस का कर्सर (cursor) मॉनीटर स्क्रीन पर चलता है। माउस के द्वारा इस तीर के निशान को मॉनीटर स्क्रीन पर कहीं भी ले जाया जा सकता है और क्रिया सम्पन्न करने के लिये माउस के बटन को दबाया जाता है। कई प्रकार के प्रोग्रामों का प्रयोग माउस द्वारा अधिक सुगमता से किया जा सकता है।

माउस के क्रियाशील होने पर मॉनीटर के पटल पर एक तीर की आकृति का चिन्ह दिखाई देने लगता है, और जैसे-जैसे माउस को मेंज पर सरकाया जाता है, यह तीर का निशान अथवा माउस का कर्सर मॉनीटर स्क्रीन पर चलता है। माउस के द्वारा इस तीर के निशान को मॉनीटर स्क्रीन पर कहीं भी ले जाया जा सकता है और क्रिया सम्पन्न करने के लिये माउस के बटन को दबाया जाता है। कई प्रकार के प्रोग्रामों का उपयोग माउस द्वारा अधिक सुगमता से किया जा सकता है।

माउस के उपयोग से अनेक प्रकार के कार्य अत्यन्त सरलता से किये जा सकते हैं। चित्रण अर्थात ग्राफिक्स के कार्यों में तो इनका बहुत ही अधिक उपयोग होता है। वैसे तो माउस में दो या तीन बटन होते हैं, परन्तु बहत से प्रोग्राम केवल बाएं बटन का ही उपयोग करते हैं।

कुछ प्रोग्रामों में काम करते समय माउस के कर्सर की आकृति बदलती है ताकि आपको यह पता चलता रहे कि आप कौन-सा कार्य कर रहे हैं।

माउस के नीचे की छोटी-सी ठोस गेंद हमेशा मेज पर रखे माउस पैड की सतह से सम्पर्क बनाये रखती है। जब माउस को मेज पर सरकाया जाता है तब यह गेंद घूमती है, और उसी के अनुसार कम्प्यूटर को यह पता चलता रहता है कि माउस किस दिशा में कितनी दूर चला है। माउस पैड के स्थान पर पारदर्शी शीशा अथवा किसी भी अपारदर्शी एकसार सतह का प्रयोग किया जा सकता है, परन्तु यदि हम ऑप्टिकल माउस का प्रयोग कर रहे हैं, तो | पारदर्शी शीशे का प्रयोग माउस पैड के स्थान पर नहीं किया जा सकता है। ऑप्टिकल माउस में कोई गेंद नहीं | होती है।

ट्रैकर बॉल (Tracker Bal)

यह प्वॉइन्टिंग डिवाइस उल्टे माउस की तरह होती है, इसमें माउस के ठीक विपरीत बॉल ऊपर की ओर होती है। ट्रैकर बॉल को चारों तरफ घुमा सकते हैं। ट्रैकर बॉल विशेष रूप से बच्चों के लिए बनाई जाती है जिसके द्वारा वे कम्प्यूटर । पर गेम्स खेल सकते हैं। लैपटॉप कम्प्यूटर्स पर ट्रैकर बॉल ही लगी होती है। स्टिक। एक सॉकेट जैसे आधार पर लगी होती है जिसके नीचे प्रिन्टेड सर्किट (परिपथ)। बोर्ड लगा होता है, जो स्टिक की यांत्रिक गतियों को एनालॉग विधि से विद्युतीय। स्पंदन में बदल देता है। ट्रैकर बॉल

जॉयस्टिक (Joystick)

इस डिवाइस का प्रयोग वीडियो गेम्स में होता है। यह हैण्डल अथवा स्टिक न होता है, जिसे उसके नीचे लगे सॉकेट में घुमाया जा सकता है। इसके की दिशा में ही मॉनीटर स्क्रीन पर ऑब्जैक्ट अपने स्थान से विस्थापित होता र वीडियो गेम्स में जॉयस्टिक का प्रयोग किया जाता है। यदि वह वीडियो की में स्थापित है, तो सामान्यतः की-बोर्ड पर स्थित कर्सर मूवमेण्ट ‘कीज’ योग करने से भी वही कार्य होता है, जो कि जॉयस्टिक के हैण्डल को घमाने से होता है।

हैण्ड-हेल्ड टर्मिनल (Hand held Terminal)

यह एक इलेक्ट्रॉनिक यंत्र है, जो सामान्यतः देखने एवं आकार में एक आम कैलकुलेटर की भाँति होता है। इसजॉयस्टिक इनपुट डिवाइस का कहीं भी प्रयोग किया जा सकता है, इसमें संकेतों को ‘कीज’ की सहायता से, लाइट पेन की सहायता से अथवा बार-कोड स्कैनर द्वारा प्रविष्ट कर सकते हैं। आजकल भारत में बसों में टिकट बाँटने और बिजली का बिल, मीटर रीडिंग के समय ही प्रदान करने के लिए हैण्ड-हेल्ड टर्मिनल्स का ही प्रयोग किया जा रहा है। बाद में इनको कम्प्यूटर से सम्बद्ध करके बांटे गए टिकट्स की डिटेल्स और बिजली हैण्ड-हेल्ड टर्मिनल के बिल्स की डिटेल्स को कम्प्यूटर में इनपुट किया जाता है।

माइक्रोफोन (Microphone)

कम्प्यूटर में मल्टीमीडिया की शुरुआत के साथ ही कम्प्यूटर में माइक में बोलकर भी इनपुट किया जा सकता है। माइक का प्रयोग करके ध्वनि को इलेक्ट्रॉनिक संकेतों में परिवर्तित कर दिया जाता है। इन इलेक्ट्रॉनिक संकेतों को कम्प्यूटर बायनरी कोड्स में परिवर्तित कर देता है। कम्प्यूटर पुनः इन बायनरी कोड्स को इलेक्ट्रॉनिक संकेतों में परिवर्तित करके तारों की सहायता से स्पीकर्स को प्रेषित करता है। आजकल अनेक ऐसे सॉफ्टवेयर्स बाजार में उपलब्ध हैं, जिनमें कम्प्यटर प्रयोगकर्ता केवल बोलकर ही टैक्स्ट को टाइप कर सकते हैं।

एमआइसीआर (Magnetic Ink Character Recognition)

MICR एक ऐसी डिवाइस है जो मानव पठनीय अक्षर को पहचान सकता है। इसका प्रयोग चेक के ऊपर मुद्रित हुए अक्षरों को पढ़ने के लिए किया जाता है। रीडर उनके आकार की जाँच करके उन अक्षरों को पढ़ता है। अक्षर एक विशेष फॉन्ट में मद्रित होते हैं। हर अक्षर 7 * 10 मैट्रिक्स के आधार पर बनाई गयी है। MICR का एक चुबकीय हेड होता है जो प्रत्येक अक्षर पर बने चुंबकीय पैटर्न का पता लगाते हैं।

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यह एक प्रकार का डेटा इनपुट का तरीका है जो बैंकों में प्रयोग किया जाता है। बैंक खाता नंबर और अन्य विवरण एक विशेष फॉन्ट में व चुंबकीय स्याही के साथ मुद्रित होते हैं। MICR में लिखे चुंबकीय अक्षरों को बहुत जल्दी और सही ढंग से पढ सकते हैं। इससे चेकों के भुगतान की प्रक्रिया तेज गति से होगी।

ओसीआर (Optical Character Recognition)

ओसीआर हस्तलिखित. टाइप या मद्रित पाठ की स्कैन की गई छवियों का यांत्रिक या इलेक्ट्रॉनिक रूपान्तरण ९ जा कि मशीन एन्कोडेड पाठ में होता है। यह व्यापक रूप से मूल कागज डेटा स्रोत को किसी प्रकार से डेटा प्रविष्टि के रूप में प्रयोग किया जाता है चाहे दस्तावेजों बिक्री प्राप्तियों, मेल,या मुद्रित रिकाड का महा। ओसीआर मद्रित ग्रंथों के डिजिटलीकरण का एक तरीका है जिससे वे इलेक्ट्रॉनिक खाज जा सका आसानी से स्टोर व ऑनलाइन प्रदर्शित किये जा सकते हैं। ओसीआर का प्रयोग पैटने मान्यता, कृत्रिम बुद्धि अनुसधान के क्षेत्र में किया जाता है। यह एक ऐसा इनपट साधन है जो किसी कागज पर बनाप पहचान लेता है।

आउटपुट डिवाइसेज के प्रकार (Types of Output Devices) |

सी.पी.यू. द्वारा निर्मित परिणाम बाइनरी कोट (0 और 1) के रूप में होता है, जिसे सीधे-सीधे नहीं समझा जा सकता। इस परिणाम को मानवीय भाषा में परिवर्तित करने के लिए आउटपुट डिवाइसेज का प्रयोग किया जाता ह। आउटपुट डिवाइसेज कम्प्यूटर द्वारा निर्मित परिणाम को साधारण भाषा में परिवर्तित करके बाहरी वातावरण में प्रयुक्त कर देती है। पारिभाषिक शब्दों में कहा जा सकता है कि वे डिवाइसेज जिनसे कम्प्यूटर से प्राप्त परिणामों को प्रस्तुत किया जाता है. निर्गम अथवा आउटपुट डिवाइसेज कहलाती हैं।

जब आउटपट अक्षरों चिन्हों तथा अंकों के रूप में प्राप्त होता है, तो इस आउटपुट को टैक्स्ट आउटपट कहा। जाता है। चित्रों, फोटोग्राफ अथवा रेखाचित्र के रूप में प्राप्त होने वाला आउटपुट ग्राफिक आउटपुट कहलाता है। ध्वनि के रूप में प्राप्त होने वाले आउटपुट को साउण्ड आउटपुट कहा जाता है। टैक्स्ट तथा ग्राफिक आउटपुट की गुणवत्ता को मापने के लिए रिजॉल्यूशन का प्रयोग किया जाता है। रिजॉल्यूशन का तात्पर्य है आउटपुट की स्पष्टता। प्रमुख आउटपुट डिवाइसेज निम्नलिखित हैं

विजुअल डिस्प्ले यूनिट (Visual Display Unit)

इन आउटपुट डिवाइस को मॉनीटर भी कहा जाता है। देखने में यह टेलीविजन की भाँति होता है परन्तु इनकी बनावट ऐसी होती है कि एक लाइन में 40 अक्षर से अधिक अक्षर होने पर वे अस्पष्ट होने लगते हैं। कम्प्यूटरों के मॉनीटर विशेष प्रकार के बने होते हैं जिनमें एक लाइन में 80 अक्षर भी स्पष्ट प्रदर्शित होते हैं। ये आकार में | टेलीविजन से कुछ छोटे होते हैं क्योंकि कार्य करते समय इन्हें अधिक दूरी पर नहीं रखा जा सकता। टेलीविजन की भाँति मॉनीटर पर भी चमक सन्तुलन और रंग के कन्ट्रोल लगे होते हैं जिससे प्रदर्शन को सही ढंग से नियन्त्रित किया जा सकता है।

कम्प्यूटर व मॉनीटर में सूचना के परस्पर आदान-प्रदान के लिए मॉनीटर में एक कई तारों वाला केबल लगा होता है, जिसके दूसरे सिर पर लगा प्लग कम्प्यूटर की सिस्टम यनिट के पीछे की ओर लगे एक सॉकेट में लगा दिया जाता है। कई सिस्टम यूनिट्स में मॉनीटर को पावर देने के लिए भी पीछे की ओर एक सॉकेट लगा होता है। इस सॉकेट के उपयोग से ये सुविधा रहती है कि केबल सिस्टम यूनिट के पावर स्विच को बन्द करने से मॉनीटर भी स्वतः ही ऑफ हो जाता है। यदि यह सॉकेट उपलब्ध न हो तो मॉनीटर को 230 वोल्ट की पावर सप्लाई अलग से दी जाती है।

मॉनीटर दो प्रकार के होते हैं-मोनोक्रोम अर्थात् एक रंग के, और कलर अर्थात् रंगीन। पाठ्य कार्यों एवं कई प्रकार के चित्र बनाने के लिए मोनोक्रोम मॉनीटरों का ही उपयोग किया जाता है। कुछ समय पहले के मॉनीटर अधर। पर्दे पर हरे रंग के अक्षर प्रदर्शित करते थे, परन्तु अब ‘सॉफ्ट व्हाइट’ अर्थात सौम्य-श्वेत प्रकार के पटलो का। प्रचलन है। इसमें अक्षर तथा चित्र श्याम-श्वेत में ही दिखाए जाते हैं। रंगीन मॉनीटरों में टैक्स्ट अथवा ग्राफिक आउटपुट अपने वास्तविक रंगों में प्रदर्शित होते हैं। इन्टरनेट के विस्तार के कारण वर्तमान समय में रंगीन मानाटर। अधिक प्रचलन में हैं। मॉनीटर के रंगीन होने पर इन्टरनेट से सर्किंग के दौरान वेबसाइट अपने वास्तविक रगा मा मॉनीटर स्क्रीन पर प्रदर्शित होती है।

रिजॉल्यूशन अर्थात् स्क्रीन पर होने वाले प्रदर्शन की स्पष्टता किसी भी डिस्प्ले यनिट का महत्वपूर्ण लक्षण होता है। अधिकांश डिस्प्ले यूनिट्स में स्क्रीन पर प्रदर्शन छोटे-छोटे बिन्दओं के चमकने से होता है। ये छोटे-छा बिन्दु पिक्सल्स (pixcels) कहलाते हैं। डिस्प्ले यूनिट की स्क्रीन पर इकाई क्षेत्रफल में पिक्सल्स की संख्या रिजॉल्यूशन का परिचायक है। स्क्रीन पर जितने अधिक पिक्सल्स होंगे स्क्रीन का रिजॉल्यशन उतना ही आधका होगा और स्क्रीन पर होने वाला प्रदर्शन उतना ही अधिक स्पष्ट होगा। डिस्प्ले यनिट के रिजॉल्यशन को दानव लिए कॉलम्स तथा पंक्तियों में पिक्सल्स की संख्या का प्रयोग किया जाता है।

वीडियो डिस्प्ले यूनिट अर्थात् मॉनीटर में टी.वी. के समरूप कैथोड किरण ट्यूब (CRT) का प्रयोग होता है। यह अपेक्षाकृत सस्ती होती है और उत्तम रंगीन आउटपुट प्रस्तुत करने में सक्षम होती है। अब डिस्ले डिवाइसेज के लिए एक नई तकनीक विकसित की गई है। इसमें आवेशित रसायनों तथा गैसेज को कांच की प्लेट्स के मध्य संयोजित किया जाता है। ये डिस्प्ले डिवाइसेज हल्की तथा विद्युत की कम खपत करने वाली होती हैं। इन डिस्प्ले डिवाइसेज का प्रयोग लैपटॉप कम्प्यूटर्स में किया जाता है तथा इनको फ्लैट-पैनल डिस्प्ले डिवाइस कहा जाता है। इस डिवाइस में प्रदर्शन लिक्विड क्रिस्टल डिस्प्ले (LCD) तकनीक से होता है। फ्लैट-पैनल डिस्प्ले विजुअल डिस्प्ले यूनिट (मॉनीटर) के लिए दो अन्य तकनीक भी विकसित की गई हैं-गैस प्लाज्मा डिस्प्ले तथा इलेक्ट्रॉल्यूमिनेसेन्ट डिस्प्ले तथा यह रिजॉल्यूशन तकनीक की अपेक्षा अधिक अच्छा होता है, परन्तु महंगे होने के कारण अभी इन तकनीकों का प्रचलन नहीं हो पाया है।

प्रिन्टर्स (Printers)

प्रयोगकर्ता कम्प्यूटर से प्राप्त परिणामों को मॉनीटर स्क्रीन पर देख सकता है, परन्तु अनेक कार्य ऐसे होते हैं, जहाँ पर केबल मॉनीटर स्क्रीन पर प्रदर्शन पर्याप्त नहीं होता, उसको कागज पर मुद्रित करने की आवश्यकता होती है और इस कार्य के लिए आउटपुट डिवाइस प्रिन्टर का प्रयोग किया जाता है। कागज पर मुद्रित आउटपुट को हार्ड कॉपी कहा जाता है। प्रिन्टर का कार्य कम्प्यूटर से प्राप्त डिजिटल संकेतों को मानव के समझने योग्य भाषा, संकेतों | तथा चित्रों आदि में परिवर्तित करके हार्ड कॉपी के रूप में कागज पर मुद्रित करना होता है।

प्रिन्टर ऐसी आउटपुट डिवाइस है जो कम्प्यूटर से प्राप्त जानकारी को कागज पर छापती है, परन्तु कम्प्यूटर से जानकारी का आउटपुट बहुत तेजी से मिलता है और प्रिन्टर उतनी तेजी से काम नहीं कर पाता, इसलिए यह – जरूरी हो जाता है कि यह जानकारी प्रिन्टर में कहीं स्टोर की जा सके। इसलिए  प्रिन्टर में भी एक मेमोरी होती है। कम्प्यूटर से प्रिन्टर की इस मेमोरी में जानकारी भेज दी जाती है, जहाँ से जानकारी निकालकर धीरे-धीरे छापी जाती है। यदि कम्प्यूटर से मिलने वाली जानकारी इतनी अधिक हो कि इसे भण्डार में स्टोर न किया जा सके तो इसके लिए एक बफर लगाया जाता है जो एक या दो सैकेण्ड में कम्प्यूटर से सारे डेटा ले लेता है, जहाँ से ये धीरे-धीरे प्रिन्टर में जाते हैं।

प्रिन्टर की प्रिन्टिंग विधियाँ निम्नलिखित हैं

(1) इम्पैक्ट प्रिन्टिंग (Impact Printing)-प्रिन्टिंग की इस विधि में ठोकने की क्रिया द्वारा प्रिन्टिंग की जाती है। इस क्रिया में आवाज भी होती है। ऑफिसों में उपयोग में लाया जाने वाला टाइपराइटर इम्पैक्ट प्रिन्टिंग का एक अच्छा उदाहरण है। कम्प्यूटर्स के साथ प्रयोग किये जाने वाले इम्पैक्ट प्रिन्टर्स में डेजी व्हील प्रिन्टर तथा डॉट मेट्रिक्स प्रिन्टर प्रमुख हैं। इनमें कार्बन पेपर लगाकर एक से अधिक प्रतियाँ भी एक साथ मुद्रित की जा सकती हैं। इम्पैक्ट प्रिन्टिंग का कार्य एक विशेष अवयव, जिसे प्रिन्टहैड कहा जाता है, द्वारा किया जाता है। प्रिन्ट किया जाने वाला कागज अपने स्थान पर स्थिर रहता है और प्रिन्टहैड बाईं व दाईं ओर चलता हुआ छपाई करता जाता है। एक लाइन पूरी होने के बाद प्रिन्टर कागज पर दूसरी लाइन छापना शुरू कर देता है। इस प्रकार सारी सूचनाएँ कागज पर मुद्रित कर दी जाती हैं। कुछ प्रिन्टर्स में प्रिन्टहैड बाएं से दाएं तथा दाएं से बाएं दोनों दिशाओं में प्रिन्टिंग करते समय आधा व गति दो गुनी हो जाती है।

(2) नॉन-इम्पैक्ट प्रिन्टिंग (Non Impact Printing)-नॉन-इम्पैक्ट प्रिन्टर्स में मुद्रण की क्रिया शांत होती है। लेजर प्रिन्टर नॉन-इम्पैक्ट प्रिन्टर का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। इन प्रिन्टर्स में एक बार में एक ही प्रति मुद्रित होती है।

प्रमुख प्रिन्टर्स निम्नलिखित हैं

(1) डेजी व्हील प्रिन्टर्स (Daisy Wheel Printers)-इस प्रिन्टर में एक व्हील या चक्र की सहायता से प्रिन्टिंग होती है। इस छपाई करने वाले चक्र की आकृति एक खिले हुए फूल की तरह होने के कारण इसे डेजी व्हील कहा जाता है। यह प्लास्टिक से बना एक पहिया जैसा होता है। इसमें एक धुरी पर प्लास्टिक से बनी 96 सलाइयाँ होती हैं जिनके बाहरी सिरों पर ठोस अक्षर बने होते हैं। मुद्रण के लिए डेजी व्हील को प्रिन्टहैड में लगा दिया जाता है और यह तेजी से घूमता रहता है। जिस अक्षर को छापना होता है उस अक्षर वाली पंखडी के ठीक स्थिति में आते ही एक विद्युत चलित हथौडा पीछे से उस पर चोट मारता है और वह अक्षर कागज पर छप जाता है। अक्षर छप जाने के बाद प्रिन्टहैड आगे बढ़कर इसी क्रिया से अक्षरों की लाइन छापता चला जाता है। इस प्रकार छपे अक्षर बहत ही सुन्दर एवं स्पष्ट होते हैं, परन्तु इससे कार्य करते समय शोर होता है। इनकी प्रिन्टिंग गति धीमी, लगभग 60 अक्षर प्रति सैकेण्ड होती है। डेजी व्हील प्रिन्टर

(2) लाइन प्रिन्टर्स (Line Printer)-यह भी एक इम्पैक्ट प्रिन्टर है। इस प्रिन्टर द्वारा एक परी लाइन या पंक्ति एक बार में छापी जा सकती है। इनकी स्पीड अपेक्षाकृत काफी तेज, लगभग 20 से 80 लाइन प्रति सैकेण्ड होती है। ड्रम, चेन व बैण्ड लाइन प्रिन्टरों के कुछ उदाहरण हैं। ये एक मिनट में 100 से 150 लाइनें छापते हैं। इन प्रिन्टरों में छपाई की गति कागज के खिसकने की गति पर निर्भर करती है। चेन प्रिन्टर लाइन प्रिन्टर का अच्छा उदाहरण है। इस प्रिन्टर में एक चेन होती है जो दो गियरों के बीच तेजी से घूमती रहती है। इस चेन पर 64 सम्प्रतीकों (चिन्हों) के चार समूह खुदे होते हैं। कम्प्यूटर से आदेश मिलते ही प्रतिघातक अर्थात् आघात करके छापने वाले लीवर द्वारा वार होता है, जिससे एक विशेष अक्षर कागज पर छप जाता है। इसकी गति भी तीव्र होती है। ड्रम प्रिन्टर भी लाइन प्रिन्टर का एक उदाहरण है। इस प्रिन्टर में कैरेक्टर्स को एक बेलनाकार

लाइन प्रिन्टर्स ड्रम की सतह पर उभारा जाता है। इसमें बेलनाकार ड्रम अत्यन्त तीव्र गति से घूमता है। ड्रम तथा कागज के मध्य एक कार्बन की रिबन भी होती है, जिसकी सहायता से कम्प्यूटर से निर्देश प्राप्त होने पर डम से कैरेक्टर्स कागज पर प्रिंट होने लगते हैं।

(3) डॉट मैट्रिक्स प्रिन्टर्स (Dot Matrix Printer)इन प्रिन्टर्स में अक्षरों को छापने के लिए एक बिल्कुल ही भिन्न विधि का प्रयोग किया जाता है। इनमें अलग-अलग अक्षरों के लिए अलग-अलग प्रिन्टहैड नहीं होते। सारे अक्षर एक ही प्रिन्टहैड द्वारा छापे जाते हैं। इसके बारे में विस्तार से जानने से पूर्व बिन्दुओं से बनी । डॉट-मैट्रिक्स के बारे में जानना आवश्यक होगा। डॉट मैट्रिक्स प्रिन्टर भी एक इम्पैक्ट प्रिन्टर ही है, अत: यह प्रिन्टिंग करते समय काफी शोर करता है। परन्तु इसमें प्रिन्टहैड दोनों दिशाओं में चलते हुए डॉट मैट्रिक्स प्रिन्टर प्रिन्टिंग कर सकता है, अत: प्रिन्टिंग में समय कम लगता है। कार्बन पेपर का प्रयोग करके एक से अधिक प्रतियों का एक साथ मुद्रण किया जा सकता है। यह प्रिन्टर पाठ्य तथा चित्र दोनों को एक साथ आसानी से प्रिन्ट कर सकता है।

(4) इंक जेट प्रिन्टर्स (Ink Jet Printer)-ये नॉन-इम्पैक्ट प्रिन्टर होते हैं। इनकी मुद्रण प्रणाली भी डॉट-मैट्रिक्स प्रिन्टर्स की भाँति ही होती है। अन्तर केवल इतना है कि इसमें कागज पर छपने वाले बिन्दु स्याही की बहुत छोटी-छोटी बूंदों द्वारा बनाते हैं। ये बिन्दु डॉट-मैट्रिक्स प्रिन्टरों से बने बिन्दुओं की अपेक्षा बहुत छोटे होते हैं और इसलिए छपे हुए अक्षर बहुत सुन्दर स्पष्ट होते हैं। इस प्रिन्टर में प्रिन्टहैड में बहुत महीन छेदों वाले नॉजल में से स्याही पम्प करके बाहर फेंकी जाती है। जैसे प्रिन्टहैड चलता जाता है, ये स्याही की नहीं-नहीं बूंदें अक्षर बनाती चली जाती हैं। इस क्रिया से सभी प्रकार के कागज और अन्य माध्यमों पर भी मुद्रण किया जा सकता है।

डॉट मैट्रिक्स प्रिन्टर की भाँति इंक जैट प्रिन्टर भी एक-एक लाइन करके ही छपाई करते हैं और इनकी प्रिन्टिंग गति भी लगभग डॉट मैट्रिक्स प्रिन्टर के समान ही होती है, परन्तु इनके छपे अक्षर बहुत स्वच्छ व सदर होते हैं। पाठ्य सामग्री के मुद्रण के लिए तो ये उत्तम हैं परन्तु कुछ मॉडल ग्रॉफिक्स का मुद्रण अधिक स्पष्ट नहीं करते। वर्तमान में रंगीन मुद्रण करने वाले इंक जैट प्रिन्टर भी मिलने लगे हैं जो कागज के अतिरिक्त प्लास्टिक शीटों व अन्य माध्यमों पर भी एक रंग में अथवा अनेक रंगों में मद्रण कर सकते हैं।

5) लेजर प्रिन्टर्स (Laser Printers)-लेजर प्रिन्टर नॉन-इम्पैक्ट प्रिन्टर है, ये प्रिन्टर भी बिन्दुओं द्वारा ही मुद्रण करते हैं, परन्तु ये बिन्दु बहुत छोटे व पास-पास होने से अक्षर अति स्पष्ट होते हैं। सामान्यत: लेजर प्रिन्टर बिन्द छापता है। लेजर प्रिन्टर्स के कार्य करने की विधि मल रूप से दस्तावेजों की प्रतियाँ बनाने वाली मशीनों की तरह ही होती है। अंतर केवल सिलिकॉन के बेलन पर विद्युत चार्ज के रूप में अक्षर बनाने का है। फोटो कॉपी की मशीन में प्रकाश किरणों का प्रयोग होता है और लेजर प्रिन्टर्स में लेजर किरणों का। ये लेजर किरणें सेमीकण्डक्टर से बने लेजर यंत्र से उत्पन्न होती हैं।

ये लेजर किरणें एक दर्पण की सहायता से गुजरती हुई एक अष्टभुजाकार प्रिज्म से गुजरकर सिलीकॉन से बने बेलन पर पड़ती हैं। जहाँ-जहाँ ये लेजर किरणें पड़ती लेजर प्रिन्टर हैं, वहाँ सिलिकॉन के बेलन पर छोटा-सा चार्ज बिन्दु उत्पन्न – हो जाता है। कम्प्यूटर से प्राप्त वैद्युत संकेतों द्वारा लेजर किरण की सहायता से ड्रम पर अक्षर के आकार में चार्ज बिन्दु उत्पन्न किये जाने से अक्षर बन जाते हैं। इस प्रकार इस बेलन की सतह आवेशित हो जाती है। इसकी सतह पर एक खास किस्म का पाउडर डाला जाता है, जिसे टोनर कहते हैं। टोनर के कण केवल उन्हीं स्थानों पर चिपकते हैं, जहाँ पर चार्ज है। इस बेलन को घुमाने से स्याही कागज पर छप जाती है। अब इस कागज को फिक्सिंग यूनिट से गुजारा जाता है। इस यूनिट में कागज को गर्म किया जाता है। इससे टोनर के कण पिघलकर कागज पर चिपक जाते हैं और प्रिन्टिंग स्थाई हो जाती है। टोनर पाउडर जितना अधिक बारीक होगा, प्रिन्टिंग उतनी अधिक स्वच्छ और सुन्दर होगी। लेजर प्रिन्टर्स की प्रिन्टिंग सभी से अच्छी होती है। इस आउटपुट डिवाइस ने प्रिन्टिंग की दुनिया में क्रांति ला दी है।

प्लाटर (Plotter)

प्लाटर प्रिन्टर का एक विकल्प है जिसका उपयोग ग्राफों और डिजाइनों की स्थायी प्रतिलिपि प्राप्त करने के | लिए किया जाता है। प्लाटर सामान्यत: दो प्रकार के होते हैं

(1) ड्रम पेन प्लाटर ( Drum Pen Plotter)-यह एक ऐसा आउटपुट डिवाइस है जिसमें पेन प्रयुक्त होते हैं जो गतिशील होकर कागज की सतह पर आकृति तैयार करते हैं। कागज एक ड्रम पर चढ़ा होता है जो आगे की ओर खिसकता रहता है। प्लाटर एक सम्पूर्ण चित्र को कुछ इंच पर सेकेण्ड की दर से प्लाट करता है।

(2) फ्लेटबेड प्लाटर (Flat Bed Plotter)-इस प्लाटर में कागज को स्थिर अवस्था में एक बेड या ट्रे में रखा जाता है । एक भुजा पर पेन चढ़ा रहता है जो मोटर से कागज पर ऊपर नीचे (Y अक्ष) आर

दायें बायें (X अक्ष) गतिशील होता है। कम्प्यूटर पेन को X-Y अक्ष की प्लाटर

दिशाओं में नियन्त्रित करता है और कागज पर आकति चित्रित हो जाती है।

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