BCom 3rd Year Auditing Internal Control & Internal Check Study Material Notes in Hindi

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 Internal Control & Internal
Internal Control & Internal

BCom 3rd Year Audit Types Classification Study Material Notes in Hindi

आन्तरिक नियन्त्रण एवं आन्तरिक निरीक्षण

[INTERNAL CONTROL AND INTERNAL CHECK]

“आन्तरिक नियन्त्रण का अर्थ केवल आन्तरिक निरीक्षण तथा आन्तरिक अंकेक्षण ही नहीं है वरन् वित्तीय या अन्य कैसे भी नियन्त्रणों की पूरी प्रणाली है जो प्रबन्ध के द्वारा कम्पनी के कार्य-कलाप को सुचारू रूप से चलाने के लिए, सम्पत्तियों की सुरक्षा के लिए और यथासम्भव उसके लेखों को विश्वासपूर्ण तथा सही बनाने के लिए प्रयोग किये जाते हैं।”

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आन्तरिक नियन्त्रण

 (INTERNAL CONTROL)

कैसा भी नियन्त्रण चाहे वह आर्थिक (financial) हो, अथवा संस्था के प्रबन्ध से सम्बन्धित हो या किसी अन्य प्रकार का हो, आन्तरिक नियन्त्रण कहलाता है। आन्तरिक नियन्त्रण का प्रयोग विस्तृत अर्थ में किया जाता है और इसके अन्तर्गत, आन्तरिक अंकेक्षण, आन्तरिक निरीक्षण आदि सभी प्रकार के नियन्त्रण आते  हैं ।

AA6 के अनुसार आन्तरिक नियन्त्रण निम्न प्रकार से प्रदर्शित किया जा सकता है :

“संस्था की वह योजना एवं विधि व कार्य प्रणाली जो किसी संस्था के प्रबन्ध द्वारा अपनायी जाती है ताकि प्रबन्ध के उद्देश्यों की प्राप्ति की जा सके और यह सुनिश्चित किया जा सके कि व्यवसाय नियमित एवं प्रभावी रूप से चलाया जा रहा है जिसमें यह सम्बद्धता हो कि प्रबन्ध की नीतियों का पालन, सम्पत्तियों सुरक्षा, टि एवं कपटों की रोकथाम एवं उनको पकड़ना, वित्तीय लेखों की पूर्णता एवं शद्धता व विश्वसनीय वित्तीय सचनाओं को समय पर तैयार किया जा रहा है। आन्तरिक नियन्त्रण की पद्धति उन तथ्यों से भी आगे है जिनका प्रत्यक्ष सम्बन्ध लेखांकन पद्धति के कार्यों से है। आन्तरिक अंकेक्षण का कार्य आन्तरिक नियन्त्रण का एक पृथक् अंग है जिसका उद्देश्य यह निर्धारण करना है कि अन्य आन्तरिक नियन्त्रण सुचारु रूप से बनाए गए हैं व उनका संचालन उचित प्रकार से किया जा रहा है।”

आन्तरिक नियन्त्रण के अन्तर्गत केवल लेखांकन क्रियाओं के नियन्त्रण को शामिल नहीं किया जाता अपितु इसके अन्तर्गत प्रशासनिक क्रियाओं पर नियन्त्रण भी शामिल है। लेखांकन नियन्त्रण पद्धति के अन्तर्गत. व्यवहारों से सम्बन्धित अधिकार एवं स्वीकृति के दायित्व का निर्धारण करना, लेखांकन के कर्तव्य का निर्धारण कार्य विभाजन द्वारा करना, रिपोर्ट बनाए जाने का दायित्व निर्धारण करना, सम्पत्ति की सुरक्षा, उन पर भौतिक नियन्त्रण एवं आन्तरिक अंकेक्षण कराना शामिल है

प्रशासनिक नियन्त्रण के अन्तर्गत, संस्था की क्रियाओं की योजना का निर्माण (formulation of plan), संचालन कुशलता को बढ़ाए जाने सम्बन्धी समस्त पद्धति एवं कार्यविधि का मूल्यांकन, प्रबन्धकीय नीतियों का निर्माण एवं उनका क्रियान्वयन आदि शामिल हैं।

अतः सभी प्रकार के नियन्त्रण जो किसी व्यापारिक संस्था में व्यक्तिगत खाताबहियों (personal ledgers) के सम्बन्ध में सम्पूर्ण खातों (total accounts) के रखने, रोकड-प्राप्तियों की जांच करने के लिए, यन्त्रों के प्रयोग और मजदूरी का लेखा करने के लिए समय का लेखा करने वाली घड़ियों (time recording clocks) आदि में प्रयोग के लिए अपनाये जाते हैं,  आन्तरिक नियन्त्रण के अन्तर्गत आ जाते है।

इतना अवश्य है कि आन्तरिक नियन्त्रण से अंकेक्षण का कार्य पर्याप्त मात्रा में सुलभ हो जाता है। नियन्त्रण की उचित प्रणाली से वह नैत्यक जांच का आश्रय ले सकता है। जहां आन्तरिक निरीक्षण की सुव्यवस्थित प्रणाली त्रुटियों तथा कपटों के सभी मार्गों का नियन्त्रण कर सकती है, वहां आन्तरिक अंकेक्षण (internal audit) के प्रयोग से अंकेक्षक को नैत्यक जाँच (routine checking) के कार्य से काफी छुटकारा मिल जाता है।

आन्तरिक नियन्त्रण के सत्यापन में निम्न बातें सम्मिलित हैं :

(1) हिसाब-किताब सम्बन्धी प्रक्रिया (routine) का अध्ययन जिसके अन्तर्गत वे कमजोरियां देखनी होंगी जिनमें गडबड की सम्भावना हो सकती है।

(2) विभिन्न अधिकारियों को दिये गये वित्तीय अधिकार एवं उन परिस्थितियों का अध्ययन जिनमें उनका प्रयोग हो सकता है।

(3) विभिन्न वित्तीय एवं हिसाब-किताब से सम्बन्धित कार्यों पर निरीक्षण की सीमा का अध्ययन ।

(4) क्या रोकड़ आदि के गबन को रोकने के लिए किन्हीं विशेष यन्त्रों या उपायों का प्रयोग किया गया है?

(5) क्या कोई ऐसी जांच की व्यवस्था का प्रयोग किया जा रहा है जिससे हिसाब-किताब की प्रणाली एवं प्रक्रिया की सफलता की माप हो सके?

यद्यपि अंकेक्षक को किसी विशेष नियन्त्रण की व्यवस्था पर बल देने की आवश्यकता नहीं है फिर भी नियन्त्रणों की अच्छी व्यवस्था के होने पर उसका कार्य सरलता एवं कुशलता से पूरा हो सकता है। अंकेक्षक व्यवहार में सम्पूर्ण बातों की जांच नहीं करता, तो भी उस व्यवस्था की छानबीन अवश्य करनी चाहिए जो रोकड़ के नियन्त्रण, क्रय व विक्रय के सम्बन्ध में स्टॉक रखने तथा सम्पत्तियों की सुरक्षा के नियन्त्रण के लिए अपनायी गयी है। _

वास्तविकता यह है आन्तरिक नियन्त्रण की सुव्यवस्थित पद्धति के होने पर अंकेक्षक कछ मदों व खातों की सावधानीपूर्वक जाँच करने के पश्चात् ही अपनी रिपोर्ट देने की स्थिति में हो सकता है।

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आन्तरिक नियन्त्रण पद्धति के उद्देश्य

(OBJECTS OF INTERNAL CONTROL SYSTEM)

आन्तरिक नियन्त्रण पद्धति की स्थापना का दायित्व संस्था के प्रबन्धन का होता है। इस कारण आन्तरिक नियन्त्रण पद्धति के उद्देश्यों का निर्धारण भी प्रबन्धन द्वारा विशिष्ट आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर किया जाता है। ये आवश्यकताएं व्यवसाय की प्रकृति, क्रियाओं की मात्रा, व्यवसाय के स्वरूप पर निर्भर करती हा पारस्थतियां कोई भी हों. आन्तरिक नियन्त्रण पद्धति के मुख्य उद्देश्य निम्न हैं :

(अ) प्रबन्ध द्वारा स्थापित नीतियों एवं विधियों का पालन  (Adherence of Policies and Methods laid down by Management)  व्यवसाय के प्रबन्धकों द्वारा विभिन्न व्यावसायिक क्रियाओं के सफल संचालन

एव क्रियान्वयन के लिए विभिन्न नीतियों एवं विधियों का निर्माण किया जाता है। आन्तरिक नियन्त्रण पद्धात का मुख्य उद्देश्य है कि वह इस बात को सुनिश्चित करे कि इन नीतियों एवं विधियों का पालन। व्यावसायिक क्रियाओं में किया जा रहा है। उदाहरणार्थ व्यवसाय की वित्त व्यवस्था के सम्बन्ध में यह नाति। हो सकती है कि रोकड़िया प्रत्येक दिन प्राप्त रोकड व्यय की गई रोकड की एक रिपोर्ट प्रति दिन तयार कर आन्तरिक नियन्त्रण एवं आन्तरिक निरीक्षण वित्त अधिकारी के समक्ष प्रस्तुत करेगा ताकि रोकड पर नियन्त्रण किया जा सके व रोकड़ के गबन को रोका जा सके।

(ब) सपत्तिया का सुरक्षा (Security of Assets) व्यवसाय की सम्पत्तियों का गबन, खो जाना, खराब होना या दुर्घटनाओं के द्वारा क्षति होने का भय सदैव बना रहता है। अतः यह नितान्त आवश्यक है कि व्यवसाय की विभिन्न सम्पत्तियों की आर्थिक एवं भौतिक सरक्षा के लिए नीतियों एवं विधियों की स्थापना की जाए। इस उद्देश्य हेतु सम्पत्तियों के मूल्यांकन सम्बन्धी नीति. सामयिक भौतिक निरीक्षण व्यवस्था, लेखांकन नीति, हास नीति आदि की संरचना की जाए।

(स) त्रुटि एवं कपट का पता लगाना एवं रोकना (Prevention and Detection of Errors and Frauds) आन्तरिक नियन्त्रण पद्धति का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य टियों एवं कपट का पता लगाना हा नही है अपितु उनके रोकथाम के उपाय भी करना है। विभिन्न आर्थिक एवं भौतिक क्रियाओं के पूर्ण सम्पादन की व्यवस्था की संरचना इस प्रकार की जानी चाहिए जिससे त्रटियों की सम्भावना क्षीण हो जाए एवं कपट का सम्भावना नहीं रहे। उदाहरणार्थ-क्रय क्रिया के सम्बन्ध में ऐसी व्यवस्था हो कि क्रय के आदेश, माल का प्राप्त होना एवं उनका निरीक्षण, भुगतान की स्वीकृति व भुगतान करने का दायित्व अलग-अलग व्यक्तियों में विभाजित हो। इस प्रकार एक का कार्य दूसरे द्वारा स्वतः जांच लिया जाएगा एवं त्रुटि व कपट की सम्भावना कम हो जाएगी।

(द) लेखों की शुद्धता एवं पूर्णता एवं आवश्यक सूचनाओं का समय पर संवहन (Accuracy and Completeness of Accounting and Communication of Informations प्रबन्धकों द्वारा व्यवसाय की क्रियाओं के सफल संचालन के लिए अनेक निर्णय लेने पड़ते हैं। इन निर्णयों का आधार व्यावसायिक सूचनाएं होती हैं। अतः इन सूचनाओं के सम्प्रेषण से पूर्व यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि जो सूचनाएं प्रदत्त की जा रही हैं वे पूर्ण एवं सत्य हैं। अन्यथा इन सूचनाओं के आधार पर लिए गए निर्णय व्यर्थ हो सकते हैं। अतः सूचनाओं को प्रदान करने के लिए आंकड़ों एवं समंकों की पूर्णता, शुद्धता एवं समय पर सूचना सम्प्रेषित तभी सम्भव है जब इस सम्बन्ध में कुशल आन्तरिक नियन्त्रण व्यवस्था संस्था में विद्यमान है।

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आन्तरिक नियन्त्रण के स्वरूप

(FORMS OF INTERNAL CONTROL)

व्यापारिक संस्था के प्रबन्ध का कार्य है कि वह किस प्रकार अपनी संस्था के कार्य का विभाजन करता है तथा प्रत्येक कार्य के सम्बन्ध में कितना नियन्त्रण लगाता है। यह नियोजन प्रबन्ध-वर्ग का कार्य है। जहां तक अंकेक्षक का इससे सम्बन्ध है वह आन्तरिक नियन्त्रण की विद्यमान प्रणाली का अध्ययन करने के पश्चात ही अपना कार्यक्रम तैयार करता है तथा कार्य-पद्धति की रूपरेखा बनाता है। आन्तरिक नियन्त्रण के स्वरूप निम्न हो सकते हैं :

1 रोकड़ नियन्त्रण (Cash Control),

2. सामान्य वित्तीय नियन्त्रण (General Financial Control

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आन्तरिक नियन्त्रण के आधारभूत सिद्धान्त

(FUNDAMENTAL PRINCIPLES OF INTERNAL AUDITING)

लेखा नियन्त्रण को प्रभावशाली बनाने के लिए दो आधारभूत सिद्धान्त महत्वपूर्ण हैं :

(1) एक, सम्पत्ति के वास्तविक प्रयोग करने का कार्य (Physical handling) उस सम्पत्ति के लेखा करने के कार्य से पृथक कर देना चाहिए।

(2) कर्मचारियों में कार्य का बंटवारा इस प्रकार कर देना चाहिए कि एक व्यक्ति के द्वारा किये गये कार्य के परिणाम की जांच दूसरे के कार्य के परिणाम से की जा सके।

स्पष्टतः आन्तरिक नियन्त्रण एक ऐसी व्यवस्था है जिसके द्वारा किसी व्यापारिक संस्था के कार्य की प्रक्रिया नियन्त्रित, कुशल तथा उपयोगी बन सकती है।

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आन्तरिक नियन्त्रण के स्वरूप

(FORMS OF INTERNAL CONTROL)

यह किसी व्यापारिक संस्था के प्रबन्ध का कार्य है कि वह किस प्रकार अपनी संस्था के कार्य का विभाजन करता है तथा प्रत्येक कार्य के सम्बन्ध में कितना नियन्त्रण लगाता है। यह नियोजन प्रबन्ध-वर्ग का कार्य है। जहाँ तक अंकेक्षक का इससे सम्बन्ध है वह आन्तरिक नियन्त्रण की प्रचलित प्रणाली का अध्ययन करने के पश्चात् ही अपना कार्यक्रम तैयार करता है तथा कार्य-पद्धति की रूपरेखा बनाता है। आन्तरिक नियन्त्रण के स्वरूप निम्न हो सकते हैं :

1. रोकड़ नियन्त्रण (Cash Control),

2. सामान्य वित्तीय नियन्त्रण (General Financial Control),

3. कर्मचारियों के वेतन सम्बन्धी नियन्त्रण (Control in regard to Employees’ Remuneration),

4. व्यापारिक लेन-देनों से सम्बन्धित नियन्त्रण (Control for Trade Transactions),

5. स्टॉक के सम्बन्ध में नियन्त्रण (Control for Stock Maintenance),

6. स्थायी सम्पत्तियों के सम्बन्ध में नियन्त्रण (Control in regard to Fixed Assets),

7. विनियोग सम्बन्धी नियन्त्रण (Control in regard to Investment)

8. दायित्वों पर नियन्त्रण (Control over Liabilities)

9. व्ययों पर नियन्त्रण (Control over Expenses)

10. लेनदारों व देनदारों पर नियन्त्रण (Control over Creditors and Debtors)

1 रोकड़ नियन्त्रण रोकड़ से सम्बन्धित मोटे तौर पर तीन कार्य हैं—(i) रोकड़ प्राप्त करना, (ii) रोकड़ का भुगतान करना, तथा (iii) रोकड़ शेष रखना। तीनों ही बड़े महत्वपूर्ण कार्य हैं जिनके सम्बन्ध में स्पष्ट आदेश लिखित रूप से उन कर्मचारियों को देने चाहिए जो इसमें व्यवहार करते हैं। प्रत्येक के उत्तरदायित्व के सही एवं सुनिश्चित विभाजन से कार्य सुचारु रूप से चलता है तथा टकराव की गुंजाइश नहीं रहती है। रोकड़ का गबन दो या अधिक कर्मचारियों के तालमेल से ही सम्भव हो सकता है। अतः कार्य के विभाजन एवं नियोजन के समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए।

2. सामान्य वित्तीय नियन्त्रण—सामान्य वित्तीय नियन्त्रण के अन्तर्गत हिसाब-किताब रखने की पद्धति अपनाने, पर्याप्त पर्यवेक्षण (Supervision) जिससे सूचना का संवहन बड़े अधिकारियों तक सुविधापूर्वक हो सके, लेखों के रखने की पर्याप्त व्यवस्था, कर्मचारियों के सम्बन्ध में कुशल नियन्त्रण तथा कर्मचारियों के पारस्परिक सम्बन्ध अच्छे बनाने के कार्य सम्मिलित हैं।

3. कर्मचारियों के वेतन सम्बन्धी नियन्त्रण-कर्मचारियों के वेतन तथा मजदूरों की मजदूरी के सम्बन्ध में कुछ कमजोरियां रह जाती हैं तथा अच्छी व्यवस्था के न होने पर रोकड़ का गबन सुलभ हो जाता है। इस कार्य के सम्बन्ध में सुलझे हुए नियम तथा कुशल पद्धति के लागू करने की आवश्यकता है। वेतन तथा मजदूरी या मजदूरी में वृद्धि या कटौती के सम्बन्ध में विशिष्ट आदेशों का पालन किया जाना चाहिए। वैसे पेशगी-भुगतान के लिए उचित अधिकार (authorisation) प्राप्त करने की आवश्यकता होती है।

4. व्यापारिक लेन-देनों से सम्बन्धित नियन्त्रण इस कार्य में क्रय विक्रय आदि से सम्बन्धित कार्य सम्मिलित है। क्रय तथा विक्रय के लिए उचित एवं प्रभावशाली नियम बनाये जाने चाहिए, ताकि सामान का गबन रोका। जा सके। क्रय वापसी तथा विक्रय के लिए भी उचित व्यवस्था की जानी चाहिए।

5. स्टॉक के सम्बन्ध में नियन्त्रण-स्टॉक में कच्चा माल, अर्द्ध-निर्मित माल तथा पक्का माल सम्मिलित होते हैं। इसके सम्बन्ध में नियन्त्रण प्रत्येक व्यापारिक संस्था में भिन्न होता है। माल की प्राप्ति निर्गमन तथा शेष माल की सुरक्षा के सम्बन्ध में उचित नियन्त्रण की व्यवस्था होनी चाहिए।

6 स्थायी सम्पत्तियों के सम्बन्ध में नियन्त्रण स्थायी सम्पत्तियों की प्राप्ति में किया गया व्यय पंजीगत होता है। इसके कारण पूंजीगत व्यय का पर्याप्त महत्व होता है। इन सम्पत्तियों की प्राप्ति में धोखा-धडी हो सकती है। इन सम्पत्तियों के प्राप्त करने के अधिकार की सुपुर्दगी, उचित लेखा रखना, ह्रास की यथोचित व्यवस्था करना, आदि कछ ऐसे कार्य हैं जिनके लिए सुव्यवस्थित नियन्त्रण रखना आवश्यक है।

7. विनियोग सम्बन्धी नियन्त्रण विनियोगों पर नियन्त्रण रखने के लिए विशेष व्यवस्था की जानी चाहिए। अतः आन्तरिक नियन्त्रण के लिए लिखित आदेश दिये जाने चाहिए तथा उसका पालन कठोरतापूर्वक किया। जाना चाहिए। समय-समय पर विनियोग सम्बन्धी लेखों की जांच भी करते रहने से अनियमितताएं प्रकाश में। लायी जा सकती हैं।

8. दायित्वों पर नियन्त्रण (Control over Liabilities) संस्था प्रायः दीर्घकालीन ऋण व अल्पकालीन ऋण से धन एकत्रित करती है। अल्पकालीन ऋणों की अपेक्षा दीर्घकालीन ऋणों पर नियन्त्रण रखना अत्यन्त आवश्यक है। अल्पकालीन ऋणों पर नियन्त्रण की आवश्यकता है पर दीर्घकालीन ऋण के मुकाबले कम है। दीर्घकालीन ऋणों के सम्बन्ध में ऋण की मात्रा, ऋण की अवधि, ऋण प्राप्त करने के अधिकार, ऋणके रूप में रखी जाने वाली बन्धक सम्पत्ति या जमानत, ऋण की सीमा, आदि पर अवश्य ध्यान देना चाहिए।

9. व्ययों पर नियन्त्रण (Control over Expenses) व्यवसाय के व्ययों पर भी नियन्त्रण रखना आवश्यक है। व्ययों की संस्तुति की जांच की जानी चाहिए। व्ययों का पूंजीगत व आयगत व्ययों में उचित भेद किया जाना चाहिए। अदत्त एवं पूर्वदत्त व्ययों पर नियन्त्रण रखा जाना चाहिए अन्यथा गबन की सम्भावना रहती है।

10 लेनदारों व देनदारों पर नियन्त्रण Control over Creditors and Debtors) लेनदारा व दनदारा को किया गया भुगतान, प्राप्त भुगतान, छूट की मात्रा पर नियन्त्रण रखना आवश्यक है अन्यथा गबन की सम्भावना रहती है।

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आन्तरिक नियन्त्रण और अंकेक्षक

(INTERNAL CONTROL AND AUDITOR)

अंकेक्षक को आन्तरिक नियन्त्रण की प्रणाली के कार्यान्वयन की भली प्रकार जांच करनी चाहिए। ऐसी जांच करते समय उसको निम्न बातों की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए :

1 अंकेक्षक को निर्माणी, व्यापारिक एवं प्रशासकीय प्रक्रियाओं का अध्ययन करना चाहिए। उसको माल व सामग्री तथा रोकड़ के आने तथा बाहर भेजने के कार्यों के स्वभाव का भली प्रकार अध्ययन करना चाहिए।

2. उसको पुस्तपालन व लेखाकर्म की पद्धति का अध्ययन करना चाहिए। इस सन्दर्भ में रोकड़, सामग्री तथा अन्य सम्पत्ति की संस्था में प्राप्ति की व्यवस्था की जांच करनी चाहिए। वैसे ही रोकड़ के भुगतान की ओर भी विशेष ध्यान देना चाहिए कि बिना किसी सामान या सज्जा की प्राप्ति के यह भुगतान कर तो नहीं दिया गया है। उसी प्रकार वस्तु या सेवा बिना भुगतान प्राप्त किये तो किसी को नहीं दी गयी है।

3. पुस्तकों की प्रविष्टियों के सन्दर्भ में भी आन्तरिक नियन्त्रण की व्यवस्था की जांच करनी चाहिए। विभिन्न व्यक्तियों या संस्थाओं के शेषों का सकल खातों (Total Accounts) से मिलान कर लेना चाहिए।

4. लेखों की प्रतिनिधि मदों (Representative Items) के चुनाव के द्वारा आन्तरिक नियन्त्रण की प्रणाली की जांच करनी चाहिए।

5. प्रक्रियात्मक परीक्षण (Procedural Tests) के प्रयोग में अशुद्धियों के कारणों तथा स्वभाव का भी पता कर लेना चाहिए। यह देखना आवश्यक है कि खाते कहाँ तक व्यापार की सही तथा ठीक स्थिति के परिचायक हैं

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आन्तरिक निरीक्षण का अर्थ

(MEANING OF INTERNAL CHECK)

व्यापारिक संस्थाओं में हिसाब-किताब का कार्य विभिन्न कर्मचारियों में उनकी योग्यतानसार बांटा जाता है। एक व्यक्ति पुस्तक में प्रविष्टियां करता है, दूसरा खतौनी करता है, तीसरा रोकड़ का लेन-देन, चौथा पक्की रोकड बही में इसके लिखने का कार्य करता है। इसी प्रकार एक अन्य व्यक्ति खातों में खतियाने के लिए। नियुक्त किया जाता है। जिस प्रकार क्रय पुस्तक के लिखने और खतौनी का कार्य एक ही व्यक्ति को नहीं दिया जाता है, उसी प्रकार रोकड़ के लेन-देन का कार्य, पक्की रोकड बही में लिखने और खतौनी करने के कार्यों को एक ही कर्मचारी के सुपुर्द नहीं किया जाता है। ।

यही आन्तरिक निरीक्षण (internal check) की व्यवस्था है जो श्रम विभाजन के सिद्धान्त पर आधारित है। यह सुनिश्चित है कि यदि यह व्यवस्था सन्तोषजनक होगी तो त्रटियों एवं कपटों के होने के साथ-साथ संस्था को श्रम विभाजन तथा विशिष्टीकरण से होने वाले लाभ प्राप्त हो सकते हैं।

इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउण्टेण्ट्स ऑफ इंग्लैण्ड व वेल्स ने आन्तरिक निरीक्षण का वर्णन निम्न प्रकार किया है:

“प्रतिदिन के व्यवहारों पर निरीक्षण जो दैनिक पद्धति के रूप में सतत क्रियान्वित रहता है जिसके अन्तर्गत एक व्यक्ति का कार्य अन्य व्यक्ति द्वारा स्वतन्त्रतापूर्वक जांच लिया जाता है या किसी अन्य कार्य का पूरक होता है जिसका उद्देश्य अशुद्धियों एवं कपटों की रोकथाम या उनका शीघ्र पता लगाना है।” आन्तरिक निरीक्षण, आन्तरिक नियन्त्रण का ही एक भाग होता है। लेखांकन के क्षेत्र में आन्तरिक निरीक्षण निहित है व्यवस्थित बही-खाता प्रणाली व कर्मचारी के कार्यों की ऐसी व्यवस्था जिसमें कोई एक व्यक्ति किसी व्यवहार से सम्बन्धित समस्त पहलुओं को स्वयं न लिख पाए।

एक अच्छी आन्तरिक निरीक्षण प्रणाली के आवश्यक तत्व निम्न हैं:

(i) दिन-प्रतिदिन के होने वाले व्यवहारों पर निरीक्षण होना।

(ii) दैनिक कार्यप्रणाली का अंग होने के कारण यह सतत रूप से लागू रहना चाहिए।

(iii) किसी एक व्यक्ति का कार्य स्वतन्त्र रूप से जांच लिया जाए या किसी अन्य कार्य के लिए वह पूरक कार्य बनाया जाए।

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आन्तरिक निरीक्षण की परिभाषाएं

(DEFINITIONS OF INTERNAL CHECK)

विभिन्न विद्वानों द्वारा आन्तरिक निरीक्षण की परिभाषाएं नीचे दी गयी हैं :

(1) स्पाइसर एवं पैगलर—“आन्तरिक निरीक्षण कर्मचारियों के कर्तव्यों की ऐसी व्यवस्था है जिससे एक ही व्यक्ति किसी लेन-देन से सम्बन्धित सभी कार्यों को न लिख सके, जिससे दो या अधिक व्यक्ति के बिना मिले हुए कपट न हो सके और साथ ही त्रुटियों की सम्भावना न्यूनतम हो जाए।”

(2) डी पौला—“आन्तरिक निरीक्षण व्यवहार में चालू आन्तरिक अंकेक्षण है जो कर्मचारियों द्वारा स्वतः ही किया जाता है ताकि प्रत्येक व्यक्ति का कार्य स्वतन्त्र रूप से दूसरों के द्वारा जांचा जा सके।

(3) डिक्सी“आन्तरिक निरीक्षण हिसाब-किताब की पद्धति का वह प्रबन्ध है जिससे त्रुटियां तथा कपट अपने आप रुक जाते हैं अथवा पुस्तपालन (book-keeping) के संचालन से स्वतः ही पकड़ में आ जाते

(4) डी. आर. डावर—“आन्तरिक निरीक्षण एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें कर्मचारियों को कुछ निश्चित सूचनाएं कार्य के सम्बन्ध में दी जाती हैं जिससे कि उनके कार्य का सत्यापन और नियन्त्रण होता रहे और शुद्ध लेखों के रखने का अन्तिम उद्देश्य भी पूरा हो सके।

उपर्युक्त परिभाषाओं से निष्कर्ष यह निकलता है कि :

आन्तरिक निरीक्षण (1) किसी संस्था के कर्मचारियों के कार्यों की वह व्यवस्था है, जिसमें (2) सभी कर्तव्या। तथा दायित्वों का विभाजन ठीक प्रकार से हो जाए, जिसमें (3) कोई एक कर्मचारी किसी लेन-देन के लेखे को प्रारम्भ से अन्त तक अकेला न कर सके, और (4) साथ ही एक कर्मचारी का कार्य स्वतन्त्र रूप से दूसरे के। द्वारा जांचा जा सके।

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आन्तरिक निरीक्षण की विशेषताएं या लक्षण

(CHARACTERISTICS OR FEATURES OF INTERNAL CHECK)

(i) कार्यों का विभाजन (Divisions of Work) आन्तरिक निरीक्षण प्रणाली के अन्तर्गत लेखांकन के सम्पूर्ण कार्यों को विभिन्न भागों में बांट दिया जाता है। प्रत्येक कर्मचारी को उसकी रुचिनुसार कार्य को सौंप दिया जाता है जिसे पूर्ण करना उसका दायित्व होता है।

(ii) कार्य की स्वतन्त्र जांच (Independent Checking of Work) आन्तरिक निरीक्षण प्रणाली के अन्तर्गत कार्यों का विभाजन इस प्रकार किया जाता है कि एक कर्मचारी द्वारा किये गये कार्य की जांच स्वतन्त्र रूप से किसी दूसरे कर्मचारी द्वारा स्वतः ही हो जाती है।

(iii) कार्यों व कर्मचारियों में परिवर्तन (Change in Work and Employees) आन्तरिक निरीक्षण प्रणाली के अन्तर्गत कर्मचारियों को दिया गया कार्य समय समय पर बदल दिया जाता है। एक कर्मचारी को दिया गया कार्य कुछ समय उपरान्त किसी अन्य कर्मचारी को सौंपा जाता है। इस कारण कर्मचारियों में काम के प्रति नीरसता नहीं रहती व छल-कपट की सम्भावना भी कम हो जाती है। इससे कर्मचारियों की क्षमता में भी बढ़ावा होता है।

(iv) अधिकार एवं उत्तरदायित्व का निर्धारण (Fixation of Authority and Responsibility) कार्यो का विभाजन हो जाने से प्रत्येक कर्मचारी को अपने द्वारा निष्पादन किए जाने वाले कार्य की सूचना प्राप्त हो जाती है। कार्यों के विभाजन से प्रत्येक कर्मचारी के उत्तरदायित्व का निर्धारण हो जाता है। कार्य को पूर्ण करने के लिए उसे अधिकार भी प्राप्त होते हैं। इस प्रकार कर्मचारी अपने कार्यों को समय पर करने के लिए, किसी भूल या त्रुटि आदि के लिए उत्तरदायी ठहराया जा सकता है।

(v) छल-कपट व गबन में कमी (Reduction in Errors-Mistakes and Frauds) आन्तरिक निरीक्षण प्रणाली में चूंकि एक कर्मचारी के कार्य की जांच अन्य कर्मचारियों द्वारा हो जाती है, इस कारण छल-कपट व गबन की सम्भावना कम हो जाती है।

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आन्तरिक निरीक्षण के उद्देश्य

(OBJECTS OF INTERNAL CHECK)

(अ) अशुद्धियों एवं छल-कपट पर रोक (Prevention of Errors and Frauds)—प्रत्येक कर्मचारी द्वारा किया गया कार्य अन्य कर्मचारियों द्वारा स्वतः ही जांच लिया जाता है, अतः इस प्रभावी जांच प्रक्रिया के द्वारा कर्मचारियों की लापरवाही पर नियन्त्रण एवं कार्य के प्रति ईमानदारी रहती है जिससे अशुद्धियों एवं कपट में पर्याप्त कमी हो जाती है।

(ब) कार्य का विभाजन (Division of Work)-कर्मचारियों की योग्यता, अनुभव, प्रशिक्षण एवं विशिष्टता के आधार पर कार्य का विभाजन करने से कर्मचारियों की कार्यकुशलता में वृद्धि होती है। कर्मचारियों के मध्य कार्य परिवर्तन करने से कर्मचारियों को समस्त कार्य का ज्ञान होता है जिससे उनके ज्ञान में वृद्धि होती है।

(स) उत्तरदायित्व का निर्धारण (Determination of Responsibilities) सम्पूर्ण कार्य को छोटे-छोटे भागों में विभाजित कर दिए जाने से प्रत्येक कर्मचारी के उत्तरदायित्व का निर्धारण हो जाता है। उत्तरदायित्व के निर्धारण से प्रत्येक कर्मचारी को अपने कार्य के क्षेत्र के बारे में स्पष्ट जानकारी हो जाती है, अतः वह अपने कार्य को लग्नपूर्वक करता है।

(द) अशुद्धियों व कपट का शीघ्र ज्ञान (Early Detection of Errors and Frauds) -एक कर्मचारा का कार्य दूसरे कर्मचारी द्वारा स्वतन्त्रतापूर्वक करने के कारण, किसी भी कर्मचारी द्वारा किए गए कपट या अशुद्धियों का ज्ञान तुरन्त हो जाता है और उन अशद्धियों से होने वाले भावी नुकसान या क्षति को रोका जा सकता है।

(य) अन्तिम खातों का शीघ्र निर्माण (Early Preparation of Final Accounts) आन्तरिक निरीक्षण की व्यवस्था अपनाए जाने से लेखांकन आंकड़ों में शुद्धता, वैधता एवं पूर्णता रहती है। इस कारण अन्तिम खाते सुगमता तथा शीघ्रता से बनाए जा सकते हैं।

(र) लेखा पुस्तकों की विश्वसनीयता (Reliability of Books of Accounts)—आन्तरिक निरीक्षण पद्धति के प्रचलन के कारण पुस्तकों एवं लेखों की विश्वसनीयता बनी रहती है एवं कोई भी पक्षकार उनके आधार पर विभिन्न निर्णय ले सकता है।

(ल) नैतिक प्रभाव (Moral Check) आन्तरिक निरीक्षण की प्रभावी पद्धति से कर्मचारियों पर नैतिक दबाव रहता है। वे अपने कार्य को प्रभावी ढंग से एवं समय पर पूर्ण करते हैं क्योंकि उनके कार्य की पूर्णता पर ही अगला कर्मचारी अपना कार्य प्रारम्भ कर पाता है।

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आन्तरिक निरीक्षण के मूल सिद्धान्त

(BASIC PRINCIPLES OF INTERNAL AUDITING)

(क) सामान्य(1) सभी कर्मचारियों में कार्य का वितरण इस प्रकार होना चाहिए कि उनके कर्तव्य, दायित्व तथा अधिकार स्पष्ट और सुनिश्चित हो जायें ताकि आपसी हस्तक्षेप की गुंजाइश न रह सके।

(2) कार्य विभाजन इस प्रकार करना चाहिए कि एक ही कर्मचारी किसी लेन-देन को शुरू से अन्त तक अकेला न लिख सके। _

(3) यथासम्भव एक कर्मचारी को एक ही प्रकार का कार्य दिया जाए। यह कार्य की कुशलता तथा विशिष्टीकरण की दृष्टि से अधिक महत्वपूर्ण प्रतीत होता है।

(4) किसी एक कर्मचारी को कई वर्षों तक एक ही कार्य पर नहीं लगाना चाहिए। कार्य में परिवर्तन करना आवश्यक है, किन्तु कार्य परिवर्तन कर्मचारियों को पहले से सूचित किये बिना यकायक किया जाए।

(5) आन्तरिक नियन्त्रण की व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए कि एक कर्मचारी का कार्य स्वतः ही यन्त्रवत् दूसरे द्वारा जांचा जा सके।

(6) कार्य विभाजन इस प्रकार से होना चाहिए कि संस्था के व्यय में भी वृद्धि न हो

(7) किसी व्यक्ति विशेष पर आवश्यकता से अधिक विश्वास नहीं करना चाहिए।

(8) स्वकीय सन्तुलन प्रणाली (Self-balancing System) का प्रयोग होना चाहिए। इसकी कार्य-व्यवस्था का उत्तरदायित्व किसी उत्तरदायी अधिकारी के हाथ में होना चाहिए।

(9) लेखा करने में श्रम बचत यन्त्रों (cash register, calculating machine, time recording machine etc.) का प्रयोग होना चाहिए।

(10) पत्रों, प्रमाणकों आदि के फाइल करने की एक व्यवस्थित प्रणाली होनी चाहिए। (ख) विशेष कार्यों से सम्बन्धित :

(11) डाक खोलने का कार्य एक उत्तरदायी कर्मचारी को सौंपना चाहिए। सभी आवश्यक पत्र, रजिस्ट्री तथा मनीआर्डर आदि रजिस्टर में सही प्रकार से चढ़ाने के पश्चात सम्बन्धित व्यक्तियों को सौंपने चाहिए।

(12) रोकड़ जो प्राप्त हो उसी दिन बैंक में जमा कर देनी चाहिए।

(13) रोकड, प्रतिभूतियों तथा चैक इत्यादि का कार्य करने वाले कर्मचारियों को आवश्यक रूप से छुट्टी पर जाने देना चाहिए। यह इसलिए आवश्यक है कि उनकी छट्टी के समय में उनके द्वारा किये गये छल-कपट का पता सुविधा के साथ चल सकता है।

(14) माल मंगाने, प्राप्त करने तथा भिन्न-भिन्न विभागों को भेजने की सारी व्यवस्था होनी चाहिए। बिना आज्ञा के किसी को सामान ले जाने की अनुमति नहीं होनी चाहिए।

(15) अप्राप्य ऋण (bad debts), छूट (allowances), वापसी (returns) आदि के कार्य पर विशेष नियन्त्रण होना चाहिए। इस सम्बन्ध में कठोर नियम होने चाहिए।

(16) लेनदारों तथा देनदारों से पत्र-व्यवहार करने या बातें करने के लिए उत्तरदायी व्यक्ति होने चाहिए।

(17) आवश्यक कार्यों जैसे मजदूरी का भुगतान, स्टॉक का मूल्यांकन, बिक्री इत्यादि कार्यों पर उचित नियन्त्रण रखना चाहिए।

आन्तरिक नियन्त्रण एवं आन्तरिक निरीक्षण

Internal Control & Internal Check

आन्तरिक निरीक्षण से लाभ

(ADVANTAGES OF INTERNAL CHECK)

(क) व्यापार के लिए (For Business)

(1) दायित्वों का निर्धारण कार्य के विभाजन द्वारा प्रत्येक कर्मचारी के दायित्व तथा अधिकार निर्धारित हो जाते हैं।

(2) अशुद्धियों तथा कपट का शीघ्र पता लगना आन्तरिक निरीक्षण की अच्छी व्यवस्था द्वारा अशुद्धियों या कपट के पता लगाने में सहायता मिलती है। क्योंकि किसी एक व्यक्ति का किया गया कार्य दूसरे व्यक्ति द्वारा स्वतः जांच लिया जाता है।

(3) अशुद्धियों व कपट की सम्भावना में कमी भविष्य में अशद्धियां तथा कपट होने की सम्भावनाएं भी कम हो जाती हैं।

(4) कार्य कुशलता में वृद्धि आन्तरिक निरीक्षण की प्रणाली से व्यवसाय के कार्य की कुशलता में वृद्धि होती है क्योंकि कर्मचारी अपने कर्तव्य का पालन बडी सतर्कता. सावधानी और शीघ्रता से करते हैं।

(5) अन्तिम खातों का शीघ्र निर्माण—अच्छे कार्य से यह लाभ होता है कि अन्तिम खाते शीघ्र तथा सुगमता से तैयार हो सकते हैं।

(6) नैतिक प्रभाव आन्तरिक निरीक्षण की प्रणाली से कर्मचारियों पर एक प्रकार का नैतिक प्रभाव पड़ता है और यह कहना अत्युक्ति न होगी कि इस अवस्था में श्रम-विभाजन तथा विशिष्टीकरण के बहुत से लाभ प्राप्त हो सकते हैं।

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(ख) अंकेक्षक के लिए (For Auditor)

(1) अंकेक्षक के दृष्टिकोण से सबसे बड़ा लाभ यह है कि जिन संस्थानों में आन्तरिक निरीक्षण की व्यवस्था सन्तोषजनक होती है, उसमें अंकेक्षक को प्रत्येक प्रविष्टि या लेखे को जांचने की आवश्यकता नहीं होती है और वह काफी हद तक इस प्रणाली पर विश्वास कर सकता है।

(2) आन्तरिक निरीक्षण से परीक्षण जांच सुलभ हो जाती है। अंकेक्षक आन्तरिक निरीक्षण की कमियां देखकर परीक्षण जांच का आश्रय ले सकता है और उसे केवल सन्देहात्मक परिस्थितियों में ही छानबीन की आवश्यकता होती है। इस प्रकार अंकेक्षक अपना कार्य कम समय में कर सकता है।

(ग) स्वामी के लिए (For Owner)

(1) संस्था का स्वामी हिसाब-किताब की शुद्धता पर विश्वास कर सकता है।

(2) कर्मचारियों की कार्यकुशलता की वृद्धि होने से उसे आर्थिक लाभ भी होते हैं। व्यय में कमी, सन्तुष्ट श्रम तथा लागत में कमी इसके प्रमुख लाभ है।

आन्तरिक निरीक्षण की हानियां

(DISADVANTAGES OF INTERNAL CHECK)

इस व्यवस्था की हानियां निम्न प्रकार हैं :

(1) अशद्धि का भय संस्था के कर्मचारी कुछ उतावले हो जाते हैं। वे कार्य शीघ्रता से समाप्त करना चाहते हैं जिस कारण अशुद्धि की सम्भावना रहती है।

(2) लापरवाही का भय जिम्मेदार तथा वरिष्ठ कर्मचारियों के लापरवाह होने का भय रहता है क्योंकि वे समझते हैं कि आन्तरिक निरीक्षण संस्था में प्रचलित है जिससे अशुद्धि एवं कपट की सम्भावना नहीं है और संस्था का कार्य ठीक चल रहा है।

(3) अधिक व्यय समय-समय पर कर्मचारियों के स्थान में परिवर्तन करने से या अनिवार्य छुट्टी की व्यवस्था से संस्था का व्यय भी अधिक हो सकता है। ___

(4) कर्मचारियों में संघर्ष यदि आन्तरिक निरीक्षण की व्यवस्था भली प्रकार संगठित न की जाए तो कर्मचारियों में आपसी संघर्ष और उनके कार्यों में अड़चनें पैदा हो सकती हैं।

(5) अंकेक्षक के लिए कठिनाई स्वयं अंकेक्षक के कार्य में पर्याप्त सतर्कता नहीं रह पाती। यदि आन्तरिक निरीक्षण में कमियां होती हैं और इसकी प्रणाली दोषपूर्ण होती है, तो अंकेक्षण भी शुद्ध नहीं हो पाता है।

(6) नीरसता एक ही प्रकार का कार्य लगातार करने से कर्मचारियों में कार्य के प्रति नीरसता आ जाती है।

इन हानियों से बचने का केवल यह उपाय है कि संस्था के अधिकारियों को इस प्रणाली का प्रयोग बड़ी सतर्कता तथा बुद्धिमानी से करना चाहिए। यह सर्वमान्य बात है कि यह प्रणाली अत्यन्त ही महत्वपूर्ण है। इसके बिना संस्था का प्रबन्ध नहीं चल सकता। अतः इसके लिए आन्तरिक निरीक्षण की एक आदर्श प्रणाली की आवश्यकता है।

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आन्तरिक निरीक्षण व्यवस्था के बनाने में विचार देने योग्य कुछ सामान्य बातें

(GENERAL CONSIDERATIONS IN FRAMING A SYSTEM OF INTERNAL CHECK)

(1) किसी भी अकेले व्यक्ति पर व्यवसाय के किसी महत्वपूर्ण पहलू पर स्वतन्त्र नियन्त्रण नहीं होना चाहिए। प्रत्येक कर्मचारी के व्यवहार (dealings) व कार्य सामान्य दशाओं में अन्य व्यक्ति के निरीक्षण में आने चाहिए।

 (2) स्टाफ के सदस्यों के कार्यों में बिना पूर्व सूचना के परिवर्तन किया जाना चाहिए ताकि कोई भी व्यक्ति किसी कार्य को लम्बे समय तक नहीं कर सके।

(3) स्टाफ के प्रत्येक सदस्य को वर्ष में एक बार छुट्टी पर जाने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए। ऐसा अनुभव किया गया है कि कर्मचारियों द्वारा किए गए कपट या गबन के कार्यों का खुलासा उनके छुट्टी जाने पर हो जाता है।

(4) वे व्यक्ति जिनके ऊपर सम्पत्ति की भौतिक सुरक्षा का दायित्व है उन्हें लेखा पुस्तकों के अवलोकन का अधिकार नहीं होना चाहिए।

(5) सम्पत्तियों के प्रत्येक वर्ग के लिए लेखांकन नियन्त्रण होना चाहिए। इसके अतिरिक्त इनकी एक निश्चित समय पर जांच की जानी चाहिए ताकि उनकी भौतिक स्थिति का ज्ञान हो सके।

(6) रोकड़ के गबन या अन्य प्रकार की हानियों के रोकथाम के लिए यन्त्रों का प्रयोग होना चाहिए।

(7) वर्ष के अन्त में स्टाफ का मूल्यांकन करने के लिए व्यावसायिक गतिविधियों का अगर सम्भव हो तो निलम्बन करना चाहिए।

(8) वित्तीय व प्रशासनिक शक्तियों को विवेकपूर्ण रूप से विभिन्न कर्मचारियों के मध्य बांटा जाना चाहिए और किस प्रकार से इनका प्रयोग किया जा रहा है उसका निरीक्षण समय-समय पर किया जाना चाहिए।

(9) विभिन्न विभागों के लेखों का सत्यापन एवं परीक्षण के लिए समयबद्ध प्रक्रिया का निर्धारण किया जाना चाहिए ताकि उनके सही होने की पुष्टि की जा सके।

(10) लेखांकन कार्य-प्रणाली का समय-समय पर निरीक्षण किया जाना चाहिए क्योंकि एक उचित व सावधानीपूर्वक बनायी गयी कार्य-प्रणाली कुछ समय पश्चात् अप्रभावी हो सकती है।

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आन्तरिक निरीक्षण तथा अंकेक्षक

(INTERNAL AUDITING AND AUDITOR)

जहां तक अंकेक्षक का सम्बन्ध है, यह बात सत्य है आन्तरिक निरीक्षण की व्यवस्थित प्रणाली उसके कार्य को सुगम तथा सरल बना सकती है, परन्तु यदि अव्यवस्थित पद्धति हुई तो उसको धोखा हो सकता है।। उससे निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखकर आन्तरिक निरीक्षण की पद्धति की जांच करनी चाहिए

(1) सबसे पहले अपने नियोक्ता से एक लिखित विवरण प्राप्त करना चाहिए जिससे संस्था में प्रचलित। आन्तरिक निरीक्षण की प्रणाली की जानकारी मिल सके।

(2) आन्तरिक निरीक्षण के मूल सिद्धान्तों के अनुरूप संस्था में अपनायी गयी व्यवस्था है अथवा नहीं, यह भली प्रकार देख लेना चाहिए।

 (3) यह देखना चाहिए कि संस्था के स्वभाव एवं आकार के अनसार कहां तक यह प्रणाली आदर्श तथा। व्यवस्थित हो सकती है।

(4) इस प्रणाली में त्रुटियों तथा कपट के होने की कितनी और कहाँ तक गुंजाइश है।

अतः अंकेक्षक को यदि आन्तरिक निरीक्षण प्रणाली की सत्यता पर विश्वास हो जाए तो उसे अपने

कार्य में पर्याप्त सहायता मिल सकती है।

परन्तु यदि आन्तरिक निरीक्षण की प्रणाली दोषपूर्ण है और उसमें कछ कमजोरियां हैं, तो अंकेक्षक के ऊपर बड़ा उत्तरदायित्व पड़ जाता है। इसके लिए बड़ी सतर्कता से कार्य करना होगा तथा गहन जांच करनी होगी।

क्या आन्तरिक निरीक्षण की प्रणाली सन्तोषजनक होने से अंकेक्षक अपने उत्तरदायित्व से मुक्त हो सकता है ? सीधा उत्तर है—कदापि नहीं। हां, इतना अवश्य है कि उसे कुछ सहायता अवश्य मिल सकता है और उसका कार्य सरलता से पूर्ण हो सकता है। इसके विपरीत, यदि प्रणाली दोषपूर्ण है, तो उसका कार्य कठिन हो जायेगा। हर हालत में जिम्मेदारी अंकेक्षक की ही है। कार्य चाहे सरल हो अथवा कठिन, अन्तिम जिम्मेदारी पूर्णतः अंकेक्षक पर है। वह ऐसा कहकर अपने दायित्व से मुक्त नहीं हो सकता कि आन्तरिक निरीक्षण की व्यवस्था अच्छी होने के कारण उसने अमक कार्य नहीं किया। अतएव आन्तरिक निरीक्षण उसके कार्य में सहायक अवश्य है पर यह कभी उसे उत्तरदायित्व से मुक्त करने का साधन नहीं है।

आन्तरिक निरीक्षण की प्रणाली का स्वरूप-एक सुसंगठित व्यापार में भिन्न-भिन्न लेन-देनों के लिए आन्तरिक निरीक्षण की एक अच्छी प्रणाली क्या हो सकती है, इसका उल्लेख नीचे किया गया है :

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नकद बिक्री का आन्तरिक निरीक्षण

(INTERNAL AUDITING OF CASH SALES)

बड़ी-बड़ी संस्थाओं में जहाँ दैनिक नकद बिक्री के लेन-देन या व्यवहार (Transactions) अधिक मात्रा में होते हैं, वहां गड़बड़ी तथा छल-कपट के अवसर बहुत होते हैं। एक अंकेक्षक चाहे जितनी भी जांच करे, परन्तु इस गड़बड़ी को तब तक नहीं रोक सकता जब तक नकद बिक्री के सम्बन्ध में व्यवस्थित आन्तरिक निरीक्षण प्रणाली न हो। नकद बिक्री तीन प्रकार से की जा सकती है : .

(1) दुकान पर बिक्री,

(2) एजेण्टों द्वारा बिक्री, और

(3) डाक द्वारा बिक्री

(4) नकद प्राप्ति।

(1) दुकान पर बिक्री (Sales at the Counter)—साधारणतया बड़ी-बड़ी दुकानों में Cash Register आदि का प्रयोग भी लाभदायक सिद्ध हुआ है। बिक्री के नियन्त्रण के लिए आवश्यक कार्य-विधि निम्न प्रकार

(अ) विक्रेता (Salesman) का कार्य बिक्री करना होता है। उसकी पहचान के लिए विशेष अंक या अक्षर निर्धारित किया जाता है।

(आ) प्रत्येक विक्रेता को एक रसीद बही दी जाती है जिस पर उसका परिचय अंक भी छाप दिया जाता है और ये बहियां विभिन्न विभागों के लिए भिन्न-भिन्न रंगों में बनायी जाती हैं।

(इ) विक्रेता ग्राहक को सामान बेचता है और रसीद (Cash memo) लिख देता है. जिसकी तीन प्रतिलिपियां तैयार की जाती हैं।

(ई) रसीद लिखने के पश्चात विक्रेता उसे एक अन्य कर्मचारी को जांच के लिए दे देता है जो जांच करने के पश्चात् अपने हस्ताक्षर कर देता है।

(उ) अब रसीद की इन प्रतिलिपियों में से दो ग्राहक को दी जाती हैं और एक अपने पास रहती है।। ग्राहक से यह कह दिया जाता है कि वह रोकड़िये को जिसका बैठने का स्थान द्वार के निकट होता है, रसीद की राशि का भुगतान कर दे।

(ऊ) ग्राहक रोकड़िया को अपना भुगतान करता है तथा दोनों प्रतिलिपियों को दे देता है। रोकड़िया भुगतान प्राप्त करके रसीद की एक प्रतिलिपि पर मुहर लगाकर ग्राहक को वापस कर देता है और दूसरी अपनी फाइल में रख लेता है।

(ए) अब ग्राहक एक अलग कर्मचारी के पास जाता है जो द्वार पर बैठा होता है और जिसके पास सामान एक अन्य विभाग (Delivery Department) से ठीक प्रकार बंधकर आ जाता है। ग्राहक इस कर्मचारी को रसीद दिखाकर और सामान प्राप्त करके चला जाता है।

प्रतिदिन इस प्रकार के लेन-देन होते हैं। दिन के अन्त में विक्रेता तथा रोकड़िया दोनों अपना हिसाब तैयार करते हैं। रोकडिया अपनी फाइल की रसीद की प्रतिलिपियों के आधार पर एक विवरण-पत्र (Summary) तैयार करता है। इसकी जांच के लिए अन्य कर्मचारी होता है, जिसका रोकड़ से कोई सम्बन्ध नहीं होता है। रोकड़ खजाने या बैंक में भेज दी जाती है और विवरण पत्र लेखा विभाग (Accounts Department) में।

उधर जैसे ही विक्रेता अपना विवरण-पत्र (Salesman’s Summary or Abstract) तैयार करता है और प्रतिदिन उसे रोकड़िया की तरह बिक्री-लेखा विभाग में भेज देता है। साथ ही वह बिक्री-विभाग की रसीदें सामग्री विभाग (Stores Department) में भेज देता है, जहाँ इस बात का हिसाब-किताब रखा जाता है कि दिने में बिक्री कितनी की गयी है।

अन्त में, लेखा विभाग विक्रेता तथा रोकड़िया द्वारा भेजे हुए विवरण-पत्रों की जाँच करता है और बिक्री का लेखा रोकड़ पुस्तक में कर दिया जाता है।

(2) एजेण्टों द्वारा (Sales by Travelling Agents)—किसी-किसी संस्था में बिक्री करने के लिए या पुराना बकाया ऋण वसूल करने के लिए एजेण्ट नियुक्त किये जाते हैं। इन एजेण्टों के पास संस्था के परिचय-पत्र (Identification letters) तथा नियमावली भी अवश्य होनी चाहिए। ये पुराने ग्राहकों से बकाया धन वसूल करते हैं और नये ग्राहकों से पेशगी प्राप्त करते हैं। एजेण्टों पर नियन्त्रण रखने के लिए नीचे लिखी विधि अपनायी जाती है :

(अ) रोकड़ प्राप्त करते ही भुगतान करने वालों को कच्ची रसीद दे देनी चाहिए। साथ ही यह भी स्पष्ट बता देना चाहिए कि पक्की रसीद उन्हें संस्था से सीधे प्राप्त होगी।

(आ) यह भी बताने की आवश्यकता है कि यदि पक्की अधिकृत रसीद संस्था से प्राप्त न हो तो इसके लिए संस्था से पत्र-व्यवहार करना चाहिए।

(इ) इन एजेण्टों को सम्पूर्ण प्राप्त रकम प्रधान कार्यालय भेजने का आदेश होना चाहिए। साथ ही यह भी स्पष्ट निर्देश होना चाहिए कि इस राशि में से वे व्यय के लिए अपने पास रकम न रखें। कमीशन आदि के लिए सीधे प्रधान कार्यालय से भुगतान प्राप्त कर लेना चाहिए।

(ई) पुराने देनदारों तथा ग्राहकों के पास कार्यालय से समय-समय पर विवरण-पत्र भेजने की व्यवस्था होनी चाहिए, ताकि उन्हें अपने-अपने खातों के विषय में स्मरण-पत्र मिलते रहें।

(उ) एजेण्टों व विक्रेताओं को भी समय-समय पर प्रधान कार्यालय से पत्र-व्यवहार करते रहना चाहिए। और भुगतान न करने वाले ग्राहकों की सूची भेजते रहना चाहिए।

(ऊ) यथासम्भव आवश्यकतानुसार इन एजेण्टों व विक्रेताओं का स्थान परिवर्तन भी करते रहना चाहिए। कार्यकुशलता की दृष्टि से यह भी उचित है और ऐसा करने से छल-कपट का पता चलता है।

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(3) डाक द्वारा बिक्री (Postal Sales)

(अ) अलग से डाक की बिक्री (V.P.P. or Value Payable Post) का लेखा रखना चाहिए और इस कार्य के लिए अलग से रजिस्टर बनाना चाहिए जिसमें डाक से प्राप्त । रकम का लेखा होना चाहिए।

(आ) वी.पी.पी. रजिस्टर में वापस आये माल का लेखा रखना चाहिए।

(द) दैनिक रोकड़ जो प्राप्त होती है, रोकड़ पुस्तक में चढ़ानी चाहिए और वी.पी.पी. रजिस्टर में विभिन्न ग्राहकों से प्राप्त रकम का पूरा विवरण देना चाहिए।

(ई) उत्तरदायी कमच नादायी कर्मचारियों को सतर्कता से इस रजिस्टर की जाँच करनी चाहिए और जिस माल का हया हो उसे अच्छी प्रकार से देखना चाहिए। इस सम्बन्ध में रोकड़-पुस्तक तथा प्राप्त आदेशों (orders) की जाँच करनी चाहिए।

(4) नकद प्राप्ति (Cash Receipts)

(1) रोकड़ की प्राप्ति से सम्बन्धित कार्य करने के लिए अलग कर्मचारी होना चाहिए। जैसे ही रोकड़ प्राप्त हो. वैसे ही कच्ची रोकड़-बही में उसका लेखा कर लेना चाहिए। उनको अपने पास अधिक समय तक रोकड़ रखने, उसमें से कुछ व्यय करने या रोजनामचा या खाताबही में लेखा करने का अधिकार नहीं होना चाहिए।

(2) यदि डाक द्वारा रोकड़, चैक, हुण्डी, ड्राफ्ट, आदि प्राप्त किये जाते हों, तो इनके प्राप्त करने तथा लेखा करने का कार्य एक जिम्मेदार व्यक्ति को देना चाहिए। यह भी आवश्यक है कि वह साख-पत्रों को उसकी प्राप्ति के तुरन्त पश्चात् रेखांकित (not negotiable) कर दे और अपनी डायरी में लिखने के पश्चात इन्हें खजांची के सुपुर्द करे।

(3) एक दिन में जितनी रोकड़ की प्राप्ति हो उसे उसी दिन बैंक में जमा कर देना चाहिए। समय-समय पर बैंक समाधान विवरण बनाना आवश्यक है, जिससे रोकड़ का मिलान हो सके।

(4) बैंक में जमा करते समय जमा-पत्र (Pay-in-Slip) का वह भाग जो बैंक के पास रह जाता है, रोकडिया को भरना चाहिए और दूसरा भाग जो प्रतिपर्ण (counterfoil) कहलाता है और संस्था के पास रहता है, उस कर्मचारी द्वारा भरा जाना चाहिए जो प्राप्ति की रसीदें लिखता है।

(5) बैंक में रोकड़ या साख-पत्र ले जाने का कार्य भी एक अन्य कर्मचारी के सुपुर्द करना चाहिए।

(6) जो रसीदें संस्था की ओर से नकद प्राप्तियों के लिए दी जाती हैं, वे विशेष प्रकार की होनी चाहिए और उन पर क्रम संख्या लिखी होनी चाहिए। प्राप्ति की रसीद ऐसे व्यक्ति द्वारा लिखी होनी चाहिए जिसका कच्ची रोकड-बही या डायरी लिखने से कोई सम्बन्ध न हो। उसके पास ऐसी रसीदों का प्रतिपर्ण सुरक्षित रहना चाहिए।

(7) जिन व्यक्तियों या संस्थाओं से रोकड़ की प्राप्ति हो, उनको सलाह देनी चाहिए कि वे अपने भुगतान के लिए रसीद प्राप्त करें। वे संस्था की छपी हुई रसीद (जिन पर एक उच्च अधिकारी के हस्ताक्षर हों) को ही अधिकृत रसीद समझें। उनको यह भी आदेश दे देना चाहिए कि वे चैक भेजते समय उसे रेखांकित अवश्य कर दें।

(8) रसीद लिखते समय यदि कोई गड़बड़ी हो जाने से वह बेकार हो जाती है, तो उसे फाड़ना नहीं चाहिए बल्कि उसे रद्द कर देना चाहिए। यदि लिखने के पश्चात् रसीद में कुछ परिवर्तन किया गया हो, तो उसमें उपयुक्त स्थान पर किसी उच्च अधिकारी के हस्ताक्षर अवश्य होने चाहिए।

(9) रोकड़ पुस्तक (Cash Book) लिखते समय रसीद का नम्बर भी लिख देना चाहिए। इससे भविष्य में जांच के समय बड़ी सुविधा मिलती है।

(10) प्रयोग में न आने वाली रसीदों को सुरक्षित रखने की व्यवस्था होनी चाहिए।

(11) नकद बिक्री का लेखा करने तथा जांच करने के लिए आन्तरिक निरीक्षण की व्यवस्था होनी चाहिए।

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मजदूरी का आन्तरिक निरीक्षण

(INTERNAL AUDITING OF WAGES)

जिन संस्थाओं में मजदूरों की संख्या अधिक होती है, वहां उनकी मजदूरी के भुगतान के सम्बन्ध में छल-कपट की सम्भावना अधिक रहती है। यहां अंकेक्षक को यह देखना चाहिए कि क्या आन्तरिक निरीक्षण की व्यवस्था ऐसी है जिसमें छल-कपट को रोका जा सकता है। मजदूरी के सम्बन्ध में प्रायः निम्न प्रकार के छल-कपट होने की सम्भावना है :

(i) समय के आधार पर लेखे असत्य एवं अपूर्ण हो अर्थात् श्रमिक जितने दिन काम करता है उससे

अधिक दिनों का भुगतान कर दिया जाए।

(ii) कार्यानुसार हिसाब (Piece-rate) भी अधूरे व असत्य रखे जाएं और जिसमें जो कार्य नहीं किया

गया उसका भी भुगतान कर दिया जाए।

(iii) मजदूरी तालिका का योग अधिक दिखाकर आधिक्य राशि का गबन कर लिया जाय।

(iv) मजदूरी तालिका में झूठे नाम (Dummy names) दिखाकर मजदूरी को हड़प लिया जाए।

(v) न मांगी गई (Unclaimed) मजदूरी का भी गबन किया जा सकता है।

अतएव यह आवश्यक है कि मजदूरी के लिए उचित आन्तरिक निरीक्षण की प्रणाली होनी चाहिए ताकि धोखा तथा छल-कपट की गुंजाइश न हो सके। मजदूरी के सम्बन्ध में आन्तरिक निरीक्षण प्रणाली को निम्न तीन भागों में बांटकर अध्ययन किया जा सकता है :

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1 मजदूरी का लेखा करना (Maintenance of Wage Records)

(अ) समय के आधार पर लेखा (Time Records) समय के आधार पर मजदूरी का लेखा करने के लिए कुछ आवश्यक नियम निम्नांकित हैं :

(1) एक उत्तरदायी कर्मचारी के नियन्त्रण में भली प्रकार संगठित मजदूरी विभाग होना चाहिए और रोकड़ के लेन-देन से उसका सम्बन्ध नहीं होना चाहिए।

(2) प्रत्येक मजदूर का हिसाब रखने के लिए कार्डों का प्रयोग करना चाहिए, जिनमें उसकी आय रोजगार की शर्तों, पिछले नियोक्ता का नाम, आदि बातों का उल्लेख होना चाहिए।

(3) मजदूरी की दर तथा आवश्यक परिवर्तन सदैव लिखित होने चाहिए तथा विधिपूर्वक अधिकृत होने चाहिए।

(4) समय का लेखा करने के लिए भिन्न-भिन्न विधियों का प्रयोग हो सकता है।

(क) घड़ी का प्रयोग (Time Recording Clock) मजदूर जब कारखाने में घुसते हैं तो प्रवेश के समय अपने कार्ड पर घड़ी से समय छपवा लेते हैं और जब कारखाने से काम समाप्त करके बाहर जाते हैं, तो कार्ड पर जाने का समय छपवा लेते हैं।

(ख) टोकन (token) का उपयोग : द्वार पर लटकाये हुए बोर्ड पर प्रत्येक मजदूर आते समय अपना नम्बर वाला टोकन टांग देता है और समय-लेखक (Time-keeper) इन टोकनों की सहायता से प्रत्येक मजदूर के आने का लेखा एक अलग पुस्तक में कर लेता है।

(ग) उपस्थिति-कार्डों का प्रयोग : इन कार्डों पर नाम, संख्या, विभाग, मजदूरी की दर, आदि बातें लिखी होती हैं। कारखाने में प्रवेश करते समय मजदूर अपने-अपने कार्डों को बॉक्स में डाल देते हैं और समय-लेखक उपस्थिति पुस्तक (Attendance Register) में उपस्थिति भर लेता है।

यह भी आवश्यक है कि फोरमैन (foreman) भी प्रत्येक मजदूर के समय का लेखा अपने-अपने कार्य के स्थान पर करते रहें। अन्त में फोरमैन की तालिका तथा उपस्थिति-पुस्तक का मिलान करके त्रुटियों को दूर किया जा सकता है।

(ब) कार्यानुसार लेखा (Piece-Work Record) यदि मजदूरी का भुगतान समय के आधार पर न करके कार्य के अनुसार किया जाता है, तो मजदूरों के कार्य का लेखा किया जाता है। प्रत्येक मजदूर को कार्ड दे दिया जाता है, जिसे कार्य-कार्ड (Job Card or Piece-worker’s Card) कहते हैं। जब मजदूर कोई कार्य करता है, तो उसका लेखा इस कार्ड पर कर दिया जाता है। इसके पश्चात् कार्य की जाँच करने वाला निरीक्षक (viewer) कार्ड पर अपने हस्ताक्षर कर देता है। इन कार्डों के साथ-साथ किन्हीं-किन्हीं संस्थाओं में एक अलग रजिस्टर भी बनाया जाता है जिसमें प्रत्येक मजदूर के कार्य का लेखा रखा जा सकता है। (स) अधिसमय का लेखा (Overtime Record) किसी भी मजदूर को एक उच्च अधिकारी की स्वीकृति के बिना अधिसमय कार्य करने की आज्ञा नहीं मिलनी चाहिए। इसके लिए प्रत्येक मजदूर को एक अधिसमय-पत्र (Overtime slip) दिया जाता है जिस पर मजदूर का नाम, विभाग, कार्य, आदि का विवरण लिखा रहता है। जब मजदूर अधिसमय-कार्य पूर्ण कर ले, तो उसका लेखा अधिसमय-पत्र पर कर देना चाहिए और विभाग के अधिकारी के हस्ताक्षर ले लेने चाहिए। यह पत्र पूर्ण होने पर मजदूरी विभाग में भेज दिया जाता है।

() बाहर जाने की अनुमति कभी-कभी छुट्टी से पहले किसी मजदूर को कारखाने से बाहर जाने की

होती है। फोरमैन या मैनेजर को विशेष कार्य के लिए ही ऐसी अनुमति देनी चाहिए। ध्यान रहे, पाटा निर्धारित समय से अधिक बाहर रहता है तो उसकी मजदूरी कट जाती है।

बाहर जाने के लिए अनुमति-पत्र (Pass-out-Slip) की दो प्रतियां तैयार करनी चाहिए—एक समय मोटार पर बैठा रहता है और दूसरी स्वयं फोरमैन के लिए, जिसे बाद में मजदरी-विभाग में भेज देना चाहिए। अनुमति-पत्र में स्पष्ट कर देना चाहिए कि मजदर संस्था के कार्य से या निजी कार्य से बाहर। गया है। अनुमति-पत्र (Pass-out-Slip) की सहायता से मजदूरी-तालिका तैयार की जाती है।

2 मजदूरी तालिका का बनाना (Preparation of Wage Sheet)

दूसरा महत्वपूर्ण कार्य मजदूरी तालिका का तैयार करना है। मजदूरी-तालिका तैयार करने के लिए उपस्थिति-पुस्तक(Attendance Register), मजदूरी के कार्ड, कार्य-कार्ड (Job Cards or Piece-worker’s Cards), कार्यानुसार लेखा का रजिस्टर (Piece-work Register), अधिसमय-पत्र (Overtime Slips) आर बाहर जाने के अनुमति-पत्र (Pass-out-Slips) से सहायता ली जाती है। फोरमैन का विवरण भी उपस्थिति की जांच करने में सहायता देता है।

मजदूरी-तालिका (wage sheet) तैयार करने के कार्य को साधारणतया चार भागों में विभाजित करना चाहिए और मजदूरी विभाग (wage office) के कई कर्मचारियों को यह कार्य पूरा करना चाहिए ताकि उसमें त्रुटियां और कपट की गुंजाइश न रह सके। ये चार भाग निम्न हैं :

(1) उपस्थिति पुस्तक, कार्य-कार्ड, अधिसमय-पत्र इत्यादि लेखों की जांच फोरमैन से प्राप्त विवरण-पत्र से करना, जिससे त्रुटियां निकल सकें।

(2) मजदूरों के नाम, मजदूरी की दर, उपस्थिति का समय (घण्टों में), कर, किराया, बीमा या जुर्माना आदि के लिए कटौती का लेखा करना।

(3) मजदूरी तालिका का जोड़ लगाना और कटौती घटाने के पश्चात् मजदूरी की शुद्ध रकम (net amount) निकालना जो प्रत्येक मजदूर को देय है।

अन्य क्लर्क का कार्य

(4) उपर्युक्त कार्य की पूर्ण जाँच करना।

(5) प्रत्येक क्लर्क को, जो मजदूरी-तालिका के तैयार करने का कार्य करता है, अपने हस्ताक्षर करने चाहिए।

(6) अन्त में, इस पूरे लेखे के ऊपर मैनेजर, साझेदार या संचालक के हस्ताक्षर होने चाहिए।

(7) इसी प्रकार का कार्य ‘कार्य के अनुसार देय मजदूरी’ के सम्बन्ध में करना चाहिए।

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3 मजदूरी का भुगतान (Payment of Wages)

मजदरी तालिका के तैयार हो जाने के पश्चात् मजदूरी की शुद्ध रकम के जोड़ के लिए एक अलग चैक लिखना चाहिए। आवश्यक रकम प्राप्त करने के पश्चात् भुगतान के समय निम्नांकित सावधानियां रखनी चाहिए :

(1) मजदूरी का भुगतान उन कर्मचारियों द्वारा नहीं होना चाहिए जिनका सम्बन्ध किसी भी प्रकार मजदूरी-तालिका के तैयार करने से है।

(2) प्रत्येक मजदूर को उसकी मजदूरी की रकम एक लिफाफे में रखकर देनी चाहिए।

(3) मजदूरी भुगतान के समय स्वयं मजदूर को उपस्थित होना चाहिए।

(4) फोरमैन की उपस्थिति में उसके साथ काम करने वाले प्रत्येक मजदूर को भुगतान होना चाहिए, ताकि भुगतान ठीक व्यक्ति को मिल सके।

(5) अनुपस्थित मजदूरों के भुगतान के लिए विशेष व्यवस्था होनी चाहिए और अधिकृत एवं लिखित-पत्र क बिना कभी भी भुगतान नहीं करना चाहिए।

(6) मजदरों की संख्या अधिक होने के कारण मजदूरी बांटते समय उनके हस्ताक्षर लेना कठिन होता है। अतः मजदूरी के भगतान को प्रमाणित करने के लिए मजदूरी-तालिका पर फोरमैन, मजदूरी विभाग के अध्यक्ष और मजदूरी बाँटने वाले अधिकारी के हस्ताक्षर आवश्यक हैं।

(7) यदि आकस्मिक मजदूर (casual labour) भी काम पर आते हैं, तो ऐसी मजदूरी का भुगतान प्रातदिन किया जाना चाहिए। ऐसे मजदूरों की अलग सूची होनी चाहिए जिसकी जांच उच्च अधिकारी द्वारा की जानी चाहिए।

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क्रय और आन्तरिक निरीक्षण

(PURCHASE AND INTERNAL CHECK)

प्रत्येक संस्था में सामान की खरीद करने के लिए एक अलग विभाग बनाया जाता है। इस विभाग की कार्यकुशलता इस बात पर आधारित है कि न्यूनतम मूल्य पर सबसे अच्छा माल प्राप्त किया जा सके। इस विभाग क लिए सबसे सस्ता तथा बढ़िया’ (cheapest and the best) का सिद्धान्त अनुकरणीय होता है। नियन्त्रण की दृष्टि से क्रय-विक्रय का कार्य कई भागों में विभाजित कर देना चाहिए और सभी कार्यों के लिए अलग-अलग व्यक्तियों को जिम्मेदार बना देना चाहिए। उदाहरण के लिए, क्रय के पूर्ण कार्य को पांच भागों में बांटना न्यायसंगत प्रतीत होता है :

(1) माल की आवश्यकता का अनुमान करना

(2) माल के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न व्यापारियों से माल की दर एवं अन्य शर्तों के विषय में पूछताछ  करना;

(3) माल का आदेश (order) देना;

(4) माल प्राप्त करना, उसकी गणना तथा जांच करना; तथा

(5) बीजक की जांच करना, फाइल करना तथा भुगतान सम्बन्धी कागज तैयार करना ।

(1) माल की आवश्यकता का अनुमान करना—यह पहला आवश्यक कार्य है। संस्था के सभी विभागों को छपी हुई मांग-बही (Requisition Book) देनी चाहिए। जिस विभाग को माल की आवश्यकता है, उसके विभागीय अध्यक्ष को माल की आवश्यकताओं के लिए मांग-पत्र में विभाग का नाम, माल की तादाद, अनुमानित मूल्य, सुपुर्दगी का समय (time of delivery) तथा अन्य विवरण भरकर भेजना चाहिए। सभी विभागों से इन मांग-पत्रों के प्राप्त होने के पश्चात् क्रय-विभाग अनुमान कर लेता है कि संस्था को कितने माल की आवश्यकता है।

(2) माल के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न व्यापारियों से पूछताछ करना—माल की कीमत, खरीद सम्बन्धी शर्ते तथा बातों के विषय में जानकारी करना भी क्रय-विभाग का कार्य होता है। यह तय करना होता है कि माल किस व्यापारी से अच्छा तथा उचित दामों में मिल सकता है।

(3) माल का आदेश देना इस प्रकार जब सभी बातों से क्रय-विभाग सन्तुष्ट हो जाता है तो आदेश पुस्तिका (Order Book) में उस व्यापारी के नाम आदेश (order) लिखा जाता है। इसकी साधारण रूप से तीन प्रतियां तैयार की जाती हैं। एक माल भेजने वाले व्यापारी के लिए, दूसरी सामग्री भण्डार (store) के लिए और तीसरी स्वयं क्रय-विभाग के लिए। यह आवश्यक है कि आदेश पर एक उच्च अधिकारी हस्ताक्षर करे। आदेश-पत्र पर लिखी हुई क्रम-संख्या को मांग-पत्र (Requisition Slip) पर और मांग-पत्र के नम्बर को आदेश-पत्र पर लिख देना चाहिए। इसके पश्चात् मांग-पत्र को क्रय-विभाग में यथास्थान फाइल कर देना चाहिए।

(4) माल प्राप्त करना, उसकी गणना तथा जांच करना—माल आने पर यदि द्वार पर आगमन-पुस्तक (Inward Register) रखने की व्यवस्था है, तो उस पुस्तक में सबसे पहले माल प्राप्ति का लेखा करना चाहिए। इस प्राप्त माल। की जांच भण्डार गृह में बड़ी सावधानी से होनी चाहिए। सही जांच करने के उपरान्त भण्डारक एक माल-प्राप्ति-पत्र । (Goods Received Note) तैयार करता है और फिर इसे क्रय-विभाग में भेज देता है।

(5) बीजक की जांच करना, फाइल करना और भुगतान सम्बन्धी कागज तैयार करना क्रय-विभाग में । (i) मांग-पत्र (Requisition Slip), (ii) आदेश (Order), (iii) माल प्राप्ति-पत्र (Goods Received Note), | और (iv) बीजक (Invoice), इन चार पत्रों के प्राप्त करने के पश्चात् इनकी एक-दूसरे से जांच करनी चाहिए। एक कर्मचारी को उन्हें भली प्रकार देखने के पश्चात अपने हस्ताक्षर कर देने चाहिए। बीजक का नम्बर व तारीख, आदेश (order) पत्र और आदेश का नम्बर व तारीख बीजक पर लिख देना चाहिए। इस प्रकार । मांग-पत्र. आदेश तथा माल-प्राप्ति व बीजक की जांच हो जाती है। साथ ही बीजक पर उच्च अधिकारी के। हस्ताक्षर होने चाहिए। जांच होने के पश्चात् बीजक को लेखा विभाग (Accounts Department) में भेज । देना चाहिए जहां पर उसके भुगतान की व्यवस्था की जा सके। भुगतान के पश्चात् बीजक फाइल कर देने चाहिए।

लेखा विभाग में ही बीजक के आधार पर क्रय-पस्तक में तत्सम्बन्धी लेखा कर देना चाहिए। या माल में कोई खराबी हो तो बीजक पास नहीं करना चाहिए। यह क्रय-विभाग का कार्य है कि वह विक्री साल की खराबी के सम्बन्ध में बातचीत करे और आवश्यक पत्र-व्यवहार करे।

क्रय के लिए एक व्यवस्थित आन्तरिक निरीक्षण की प्रणाली का उद्देश्य निम्नांकित त्रुटियो तथा कप को रोकना होता है :

(1) झूठा क्रय क्रय-पुस्तक में लिखना ताकि संस्था के भुगतान की रकम लेकर हड़पी जा सके।

(2) एक ही बीजक दो बार लिखना ताकि दोबारा भगतान कराया जा सके;

(3) लाभ को अधिक दिखाने की दृष्टि से क्रय किये माल की प्रविष्टि न करना;

(4) जो माल अभी प्राप्त नहीं हुआ है, उसका क्रय के रूप में लेखा करना ताकि लाभ कम दिखाया जा सके।

क्रय-वापसी और आन्तरिक निरीक्षण

(PURCHASES RETURN AND INTERNAL CHECK)

(1) क्रय-वापसी के सम्बन्ध में एक उचित आन्तरिक निरीक्षण की प्रणाली होनी चाहिए ताकि सम्पूर्ण क्रय-वापसी के लिए पूर्ण क्रेडिट प्राप्त हो सके।

(2) क्रय-वापसी के लिए सामग्री-भण्डार विभाग को एक विवरण-पत्र तैयार करना चाहिए जिसमें वापस होने वाले माल का पूर्ण विवरण दिया जा सके।

(3) क्रय-विभाग को इस विवरण-पत्र की जांच करनी चाहिए और माल की वापसी सम्बन्धी सलाह देने के लिए एक सलाह-पत्र (advice note) तैयार करके लेखा विभाग को देना चाहिए।

(4) लेखा विभाग को इस सलाह-पत्र की जांच बीजक से करनी चाहिए तथा पूर्ण जांच के पश्चात् क्रय वापसी पुस्तक में प्रविष्टि करनी चाहिए।

(5) जब माल बाहर भेजा जाए, तो द्वार पर रखी हुई माल-बाहरी-पुस्तक (Goods Outward Book) में इसका लेखा करना चाहिए।

(6) प्रत्येक क्रय-वापसी के लिए आवश्यक क्रेडिट अवश्य मिलना चाहिए। अतः यदि इस माल से सम्बन्धित बीजक का भगतान नहीं किया गया है, तो सलाह-पत्र (advice note) में बीजक के साथ नत्थी कर देना चाहिए ताकि भुगतान के समय वापस माल के लिए आवश्यक कटौती की जा सके।

यदि बीजक का भगतान हो चुका है, तो लेनदार से एक क्रेडिट-नोट प्राप्त करना चाहिए और इसे उन बीजकों के साथ नत्थी कर देना चाहिए जिनका भुगतान नहीं हुआ है ताकि अपने भुगतान में से कटौती की जा सके। ऐसे कागज अलग फाइल में रखने चाहिए।

ध्यान रहे कि यदि आन्तरिक निरीक्षण की प्रणाली व्यवस्थित नहीं है तो क्रय वापसी के लिए प्राप्त क्रेडिट नोट को दबाया जा सकता है और उतनी रकम कर्मचारियों द्वारा विक्रेता को भेजी जाने वाली रकम में से काट करके हडपी जा सकती है. क्योंकि विक्रेता को क्रय-वापसी की रकम घटाकर ही शेष रकम भेजी जाती

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उधार बिक्री और आन्तरिक निरीक्षण

(CREDIT SALES AND INTERNAL CHECK)

नकद बिक्री के लिए आन्तरिक निरीक्षण की व्यवस्था का अध्ययन पूर्व में किया जा चुका है। जहां तक उधार बिक्री का सम्बन्ध है. आदेश (order) प्राप्त होने से लेकर बीजक ग्राहक के पास भेजने तक सारी व्यवस्था पूर्ण रूप से नियमित होनी चाहिए। यह सभी कार्य विक्रय विभाग (Sales Department) को करना होता है। आदेश प्राप्त होने पर माल उचित मात्रा में ठीक प्रकार से बन्द करके ग्राहक के पास भेजना उचित मूल्यांकन करके बीजक बनाना. विक्रय का हिसाब रखना तथा सभी प्रकार से ग्राहक को सन्तुष्ट करने का काय विक्रय विभाग का होता है। आन्तरिक निरीक्षण की व्यवस्थित प्रणाली के अनुसार इस सम्पर्ण कार विक्रय विभाग के सहायक विभागों में विभाजित किया जाता है।

(1) आदेश (Order) सबसे पहले विक्रय विभाग में प्राप्त होता है। आदेश के प्राप्त होते ही उसका सम्पूर्ण विवरण जैसे तारीख, माल की मात्रा, ग्राहक का नाम, प्राप्ति समय, आदि सभी बातों को आदेश-प्राप्ति-पुस्तक (Order Received Book) में लिख देना चाहिए और प्राप्ति के अनुसार आदेश पर नम्बर डाल देना चाहिए। इसके पश्चात् इस आदेश को या इसकी प्रतिलिपि को प्रेषण विभाग (Despatch Department) में भेज देना चाहिए।

(2) प्रेषक विभाग का कार्य यह है कि माल आदेश के अनसार गिनकर तथा सावधानीपूर्वक संभालकर बन्द कर दे। माल नमूने के अनुसार होना चाहिए।

(3) साथ ही आदेश या उसकी प्रतिलिपि गणना विभाग (Counting House) में भेज देनी चाहिए। गणना विभाग का कार्य माल को गिनकर उसकी जांच करके बीजक तैयार करना होता है। बीजक एक कर्मचारी तैयार करता है और दूसरा उच्च अधिकारी बीजक की जांच करके उस पर हस्ताक्षर करता है।

(4) बीजक की तीन प्रतिलिपियां तैयार की जाएं। पहली व दूसरी प्रतिलिपि ग्राहक के पास भेजनी। चाहिए। ग्राहक को माल प्राप्त हो जाने के पश्चात अपने हस्ताक्षर करके दूसरी प्रतिलिपि वापस भेज देनी चाहिए। एक प्रकार से यह दूसरी प्रतिलिपि सुपुर्दगी नोट (delivery note) का कार्य करती है। तीसरी प्रतिलिपि भली प्रकार से अपने पास फाइल कर लेनी चाहिए।

(5) प्रेषक विभाग जब माल भेज देता है तो रेलवे रसीद (railway receipt) या जहाजी रसीद (bill of lading) को लेखा-विभाग (Accounts Department) में भेज देना चाहिए। इस विभाग में इसे बीजक के साथ ग्राहक से पास भेज देना चाहिए।

(6) जब सामान संस्था से बाहर भेजा जाता है तो द्वार पर माल-बाहरी पुस्तक (Goods Outward Book) में इस माल का लेखा कर देना चाहिए। समय-समय पर इस पुस्तक का बीजक-बही से मिलान करना चाहिए।

(7) समय-समय पर किसी उच्च अधिकारी द्वारा आदेश प्राप्ति पुस्तक (Order Received Book), बीजक-बही तथा माल पुस्तक की जांच की जानी चाहिए।

लेखा विभाग में बीजक की प्रतिलिपियों की सहायता से विक्रय पुस्तक में प्रविष्टि करनी चाहिए।

बिक्री के सम्बन्ध में दो प्रकार की गड़बड़ी हो सकती है—

(1) विक्रय-पुस्तक में बिक्री न लिखी जाए, और

(2) विक्रय-पुस्तक में बिक्री बढ़ाकर लिखी जाए, इसके निम्न तरीके हो सकते हैं :

(क) झूठी बिक्री लिखना;

(ख) स्वीकृति पर या वी.पी.पी. के द्वारा या चालान पर भेजे (on consignment) हुए माल को जिसे ग्राहक ने स्वीकार नहीं किया है, और जो बिका भी नहीं है वास्तविक बिक्री की तरह दिखाना:

(ग) स्थायी सम्पत्ति (fixed assets) की बिक्री को माल की बिक्री दिखाना:

(घ) अगले वर्ष की बिक्री इस वर्ष में दिखाना तथा

(ङ) चालान वाले माल की बिक्री (sales of consignment inward) को वास्तविक बिक्री दिखाना।

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विक्रय-वापसी और आन्तरिक निरीक्षण

(SALES RETURN AND INTERNAL CHECK)

(1) माल के वापस आने पर उसका लेखा माल-भीतरी-पुस्तक (Goods Inwards Book) में करना चाहिए।

(2) का ग्राहक के वापस माल का विवरण-पत्र प्राप्त होने पर उसकी एक प्रतिलिपि प्रेषक विभाग (Despatch Department) में भेजनी चाहिए। इस विभाग में माल की जांच होने के पश्चात सभी कागज लेखा विभाग को भेज देने चाहिए।

(3) फिर लेखा विभाग को इन कागजों के प्राप्त होने पर क्रेडिट नोट तैयार करना चाहिए और इसे गाहक के पास भेजना चाहिए। इस क्रेडिट नोट पर उच्च अधिकारी के हस्ताक्षर होना अत्यन्त आता है।

(4) वापस माल का लखा विक्रय-वापसी-पस्तक (Salee Returne Roमें क्रेडिट नाटकाप्रति की सहायता से कर देना चाहिए और क्रेडिट नोट का नम्बर तथा तारीख इस पुस्तक में अवश्य लि चाहिए।

ऐसी व्यवस्था का मुख्य उद्देश्य उस छल-कपट को रोकना होता है, जो झूठी माल-वापसी दिखाकर उसकी कीमत के बराबर रकम का गबन करने से हो सकता है।

सामग्री और आन्तरिक निरीक्षण

(MATERIALS AND INTERNAL CHECK)

सामग्री को प्राप्त करना, उसे सुरक्षित रखना तथा भिन्न-भिन्न विभागों में इसका वितरण करना इत्यादि सभा काय सामग्रा विभाग (Stores Department) को करने होते हैं। यदि सामग्री विभाग का कार्य भली प्रकार नियन्त्रित नहीं होता है, तो सामान की चोरी बड़ी आसानी से हो जाती है। माल का गबन भी रोकड़ की तरह ही अधिक हानिकारक है और इसे रोकने के लिए एक व्यवस्थित आन्तरिक निरीक्षण की प्रणाली की आवश्यकता है। सामग्री विभाग की आन्तरिक निरीक्षण की व्यवस्था को हम चार भागों में बांटकर अध्ययन कर सकते हैं:

(1) माल प्राप्त करना (Receipt of Stores);

(2) माल को सुरक्षित रखना (Preservation of Stores);

(3) माल का निर्गमन (Issue of Stores); तथा

(4) माल का लेखा करना (Recording of Stores)|

1. माल प्राप्त करना जब क्रय विभाग से माल सामग्री भण्डार (Stores Department) में प्राप्त होता है, तो प्राप्त करने वाले कर्मचारी को माल प्राप्ति पत्र (Goods Received Note) तैयार करना चाहिए। माल प्राप्ति पत्र की तीन प्रतियां तैयार करनी चाहिए जिनमें से एक क्रय-विभाग के लिए, दूसरी सामग्री विभाग के लेखापाल (accountant) के लिए और तीसरी स्वयं अपने विभाग में उपयोग के लिए। माल-प्राप्ति पत्रों में माल के प्रबन्ध का सभी प्रकार का विवरण होना चाहिए। प्राप्ति की तारीख, भेजने वाले का नाम, माल की मात्रा. आदि सभी बातें लिखनी चाहिए। इन पत्रों को नम्बर डालकर फाइल करना चाहिए। सामान की पूर्ण जांच करनी चाहिए और यदि कोई अन्तर दिखायी पड़े, तो इसकी सूचना क्रय-विभाग को देनी चाहिए।

2. माल को सरक्षित रखना माल जब तक वितरित न किया जाए, भली प्रकार से भण्डार में सरक्षित रखना चाहिए। इसके लिए निम्न बातों को ध्यान में रखना चाहिए :

(1) प्रत्येक माल के वर्ग के लिए एक निश्चित स्थान होना चाहिए। इसके लिए अलमारी, उसके छोटे या बड़े खाने या अन्य कोई स्थान वस्तु के आकार के अनुसार निर्धारित कर देना चाहिए।

(2) साथ ही प्रत्येक सामान का नम्बर भी होना चाहिए। इस चिह्न के होने से सामान के स्थान का पता आसानी से लगाया जा सकता है।

(3) सामान के स्थान पर विशेष प्रकार के कार्यों का प्रयोग होना चाहिए। इन काडों को बिन-कार्ड (bin-cards) कहते हैं। बिन-कार्डों में तीन खाने अलग-अलग होने चाहिए जिनमें प्राप्ति (received), निर्गमित (issued) तथा शेष (balance) के लिए स्थान होना चाहिए। बिन-कार्डों के होने से इस बात का पता लगता रहता है कि भण्डार में कौन-सा माल कितनी मात्रा में हैं। इन बिन कार्डों को माल के ऊपर टांगना चाहिए।

(4) माल की गणना समय-समय पर उच्च अधिकारी के द्वारा होनी चाहिए। सामान का मिलान बिन-कार्ड तथा सामग्री खाताबही (Store Ledger) से करना चाहिए।

(5) यह भी आवश्यक हो जाता है कि वर्ष भर बीच-बीच में माल की गणना का कार्य पूर्ण नियन्त्रण में किया जाये।

3. माल का निर्गमन भण्डार-गृह के माल के वितरण के लिए उचित व्यवस्था होनी चाहिए। अनही व्यवस्था के लिए अग्रांकित बातों को ध्यान में रखना चाहिए:

(1) जब तक किसी विभाग के अध्यक्ष से अधिकत-मांग-पत्र (requisition slip) प्राप्त न हा, तब तक माल का निर्गमन नहीं करना चाहिए। इस मांग-पत्र में माल का नाम, मात्रा, नम्बर, मांगने वाल विभाग का नाम, तारीख इत्यादि सभी बातें स्पष्टतया लिखी होनी चाहिए और मांग-पत्र पर विभागाध्यक्ष के हस्ताक्षर होने चाहिए।

(2) सामान देने के पश्चात् इस मांग-पत्र को सामग्री भण्डार-गृह के लेखापाल (accountant) के पास भेज देना चाहिए जिससे निर्गमन के लिए आवश्यक हिसाब-किताब लिखा जा सके। फिर उसे लागत खाते के लेखापाल के पास भेज देना चाहिए जहां पर वस्तु का लागत सम्बन्धी लेखा किया जा सके।

(3) मांग-पत्र विभिन्न विभागों के लिए भिन्न-भिन्न रंगों के होने चाहिए।

(4) भण्डार-गृह से माल के निर्गमन का अधिकार कुछ विशेष कर्मचारियों को ही देना चाहिए ताकि किसी गड़बड़ी के समय इनको जिम्मेदार ठहराया जा सके।

(5) सामग्री अधिकारी (store officer) के बैठने का स्थान द्वार के निकट होना चाहिए जिससे सारा निर्गमन उनकी देख-रेख में किया जा सके।

(6) भण्डार-गृह से सामान बाहर जाने के लिए आज्ञापत्रों (permits) का प्रयोग होना चाहिए। प्रत्येक आज्ञापत्र का विवरण द्वार पर रखी गयी पुस्तक (gate book) में होना चाहिए।

(7) यदि कोई विभाग माल वापस करता है, तो माल-वापसी-पत्र (Stores Returned Note) की दो प्रतियां तैयार करनी चाहिए। सामान की प्राप्ति होने पर द्वार की पुस्तक (gate book) में माल वापस होने का लेखा होना चाहिए। माल वापसी-पत्र से माल का मिलान करने के पश्चात् एक प्रति भण्डार गृह एकाउण्टेण्ट के पास और दूसरी प्रति माल वापस करने वाले विभाग को भेज देनी चाहिए।

(8) बिन-कार्ड में वापस माल का लेखा कर देना चाहिए।

4. माल का लेखा करना—(1) सामग्री का लेखा करने का कार्य भण्डार गृह से अलग लेखा विभाग (Accounts Department) में होना चाहिए। भण्डार-गृह में ही लेखा-व्यवस्था के होने से गडबडी होने की सम्भावना रहती है और शान्तिपूर्ण कार्य नहीं हो पाता है।

(2) लेखा करने के लिए दो साधन हो सकते हैं। जहां पर सामग्री विभिन्न प्रकार की नहीं होती है, वहां खाताबहियों (ledgers) का प्रयोग होना चाहिए। परन्तु यदि सामग्री कई प्रकार की हो तो कार्डों का प्रयोग करना चाहिए। इन सामग्री कार्की (Stores Record Cards) पर सामान का नाम, नम्बर, रखने के स्थान का विवरण, मात्रा व मूल्य आदि सभी बातों का उल्लेख होना चाहिए।

(3) सामग्री कार्ड (Stores Record Cards) प्रत्येक प्रकार की सामग्री के लिए भिन्न-भिन्न होने चाहिए।

(4) सामग्री लेखापाल (Stores Accountant) को माल प्राप्ति-पत्र (Goods Received Note), मांग-पत्र (Requisition Slip), माल वापसी-पत्र (Goods Returned Note), आदि की सहायता से सामग्री-कार्डी (Stores Record Cards) में लेखा करना चाहिए।

(5) समय-समय पर दो स्वतन्त्र लेखों अर्थात बिन कार्ड और सामग्री-कार्डो का मिलान करते रहना चाहिए।

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आन्तरिक अंकेक्षण

(INTERNAL AUDIT)

आन्तरिक अंकेक्षण का अर्थ (Meaning of Internal Audit)

आन्तरिक अंकेक्षण का अर्थ ऐसे अंकेक्षण से है जिसके अन्तर्गत लेखा पुस्तकों की जांच संस्था के ही। ‘कर्मचारियों द्वारा करायी जाती है। यह अंकेक्षण संस्था के आकार पर निर्भर करता है। इसका मुख्य उद्देश्य कर्मचारियों की कार्यकुशलता को बढ़ाना तथा अशुद्धियों व छल-कपट की सम्भावना में कमी करना है। इन। अंकेक्षकों की नियुक्ति संस्था के प्रबन्धकों द्वारा की जाती है। प्रायः इस अंकेक्षण का प्रयोग बडी-बडी कम्पनियो द्वारा किया जाता है।

आन्तरिक अंकेक्षण की परिभाषाएं (Definitions of Internal Audit)

1 प्रो. मिग्स के शब्दों में, “संस्था के कशल प्रशासन के लिए उच्चस्तरीय प्रबन्धको की सहायता समय से संस्था के कर्मचारियों के द्वारा खातों एवं वित्तीय तथा परिचालन सम्बन्धी क्रियाआ का व्यवस्थित एवं मूल्यांकन आन्तरिक अंकेक्षण कहलाता है।”

2. इन्सटीट्यूट आँफ इण्टरनल आडिटर्स, न्यूयार्क के अनुसार, “आन्तरिक अंकेक्षण प्रबन्ध की सहायता के लिए संस्था के अन्दर खातों की समीक्षा तथा वित्तीय एवं परिचालन सम्बन्धी क्रियाओं का स्वतन्त्र मूल्याकन का कार्य है। यह एक प्रबन्धकीय नियन्त्रण है जो दसरे नियन्त्रणों की प्रभावशीलता का माप एवं मूल्याकन का द्वारा कार्यशील होता है।”

उपर्युक्त परिभाषाओं में निम्न तत्व हैं :

(i) यह प्रबन्ध नियन्त्रण की एक विधि है।

(ii) इसके द्वारा नियन्त्रण के दूसरे तरीकों का मल्यांकन तथा उनकी समीक्षा की जाती है।

(iii) इसका उद्देश्य उच्चस्तरीय प्रबन्ध नियन्त्रण में सहायता पहुंचाना तथा सम्पत्तियों को सुरक्षित रखना

(iv) मूल्यांकन एवं समीक्षा का कार्य संस्था में कर्मचारियों द्वारा किया जाता है।

आन्तरिक अंकेक्षण के उद्देश्य (Objectives of Internal Audit)

आन्तरिक अंकेक्षण के मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित हैं :

1 लेन-देनों की जांच (Verification of the Transactions) आन्तरिक अंकेक्षण व्यावसायिक लेन-देनों की जांच करता है जिससे ये संस्था की सही स्थिति प्रदर्शित करने की स्थिति में होते हैं। लेन-देनों की जांच करते समय निम्नलिखित बातों पर विशेष रूप से ध्यान देना चाहिए:

(i) प्रत्येक लेन-देन की स्वीकृति किसी अधिकत व्यक्ति से होनी चाहिए।

(ii) प्रत्येक लेन-देन गणितीय व लेखांकन दृष्टिकोण से शुद्ध होना चाहिए।

(iii) प्रत्येक लेन-देन की पूर्ण जांच होनी चाहिए ताकि अशुद्धियों व छल-कपट की सम्भावना नहीं रह पाए।

2. लेन-देनों का परीक्षण (Examination of the Transactions)-आन्तरिक अंकेक्षण का उद्देश्य लेन-देनों की शुद्धता को जानना है तत्पश्चात् इसकी सूचना प्रबन्धकों को देना है जिससे भविष्य में व्यवसाय की भावी नीतियों व योजनाओं को तय किया जा सके जिससे संस्था के लाभ को अधिकतम किया जा सके। इस प्रकार आन्तरिक अंकेक्षण लेन-देनों का मूल्यांकन कर संस्था की भावी नीति निर्धारण में सहायक होता है।

3. व्यवसाय की सम्पत्तियों की सुरक्षा (Protection of Business Assets)—सम्पत्ति की सुरक्षा से आशय उसके सही एवं कुशल प्रयोग से तथा प्रयोग की निर्धारित प्रक्रिया की कमियों की जांच एवं उनमें सुधार के उपाय से है। इन पर उचित ह्रास की व्यवस्था तथा इनकी पुनस्थापना (Replacement) की समुचित व्यवस्था भी सम्पत्तियों की सुरक्षा के अन्तर्गत आते हैं।

4. सुझाव देना (Providing Suggestions)—आन्तरिक निरीक्षण का उद्देश्य केवल अशुद्धियों व छल-कपट का पता लगाने तक ही सीमित नहीं है बल्कि संस्था की सम्पूर्ण संचालन व्यवस्था का विश्लेषण कर उनकी कमियों को प्रकाश में लाना तथा प्रबन्ध को उन त्रुटियों को दूर करने हेतु सुझाव देना भी आवश्यक है जिससे कि व्यवसाय को सचारु रूप से सफलतापूर्वक संचालित किया जा सके। आन्तरिक

अंकेक्षण के लाभ (Advantages of Internal Audit)

आन्तरिक अंकेक्षण के मुख्य लाभ निम्नांकित हैं :

1 छल-कपट पर रोक (Prevention of Frauds)-आन्तरिक अंकेक्षण के अन्तर्गत लेखा-पुस्तकों की लगातार जांच के कारण कर्मचारीगण छल-कपट करने में सफल नहीं हो पाते हैं। उनके मन में सदैव यह भय बना रहता है कि यदि वे छल-कपट करते हैं तो अंकेक्षक ढूंढ़ ही लेगा, जिसके लिए वे उत्तरदायी होंगे। अतः आन्तरिक अंकेक्षण से छल-कपट पर रोक लग जाती है।

2. नीति-निर्धारण में सहायक (Helpful in the Determination of Policies) आन्तरिक अंकेक्षण के द्वारा प्रबन्धकों को भावी नीतियों के निर्धारण में काफी सहायता मिलती है। आन्तरिक अंकेक्षण से संस्था की चालू नीतियों व योजनाओं का विश्लेषण हो जाता है और उसमें पायी जाने वाली कमियों को दूर करने के सम्बन्ध में आन्तरिक अंकेक्षण प्रबन्धक को सहायता प्रदान करता है।

3. सम्पत्तियों की सुरक्षा (Protection of Assets) सम्पत्तियों की सुरक्षा का अभिप्राय सम्पत्ति के उचित प्रयोग, प्रतिस्थापन, समुचित हास की व्यवस्था, व्यावसायिक कार्यों के लिए ही प्रयोग, अधिकृत व्यक्तियों के निरीक्षण में रखा जाना, आदि से है। इस सम्बन्ध में आन्तरिक अंकेक्षण से काफी मदद मिलती है। आन्तरिक अंकेक्षण के द्वारा अंकेक्षक संस्था की सम्पत्ति की वास्तविक स्थिति का अध्ययन कर अपना प्रतिवेदन दे सकता है और सम्पत्तियों के सम्बन्ध में सुधार के सुझाव प्रस्तुत कर सकता है।

4. व्यावसायिक खातों व विवरणों का मूल्यांकन (Appraisal of Business Accounts and Statements) यहां व्यावसायिक खातों का तात्पर्य व्यापार व लाभ-हानि खातों से तथा विवरण का तात्पर्य संस्था के चिट्टे से है। व्यापार व लाभ-हानि खातों से संस्था की लाभार्जन क्षमता प्रदर्शित होती है तथा चिटटे से आर्थिक स्थिति। अतः ये खाते व विवरण सही-सही तैयार किए गए हैं अथवा नहीं इसका प्रमाण आन्तरिक अंकेक्षक इनका विश्लेषण कर बता सकता है।

6. संचालन व्यवस्था की जानकारी (Knowledge of Operational System) आन्तरिक अंकेक्षण के द्वारा व्यवसाय की संचालन प्रणाली एवं क्रियाओं का भी विश्लेषण किया जाता है। व्यवसाय की संचालन क्रियाओं एवं प्रणाली में पायी जाने वाली कमियों का अध्ययन कर उनके सम्बन्ध में आवश्यक सुझाव अंकेक्षक द्वारा प्रस्तुत किया जा सकता है।

7. प्रमापों का निर्धारण (Determination of Standards)—आन्तरिक अंकेक्षण के द्वारा व्यवसाय में सम्पन्न किए जाने वाले विभिन्न कार्यों की सूचना प्राप्त हो जाती है। इन सूचनाओं की प्राप्ति से कार्यों के प्रमाप का निर्धारण किया जा सकता है। इन प्रमापों की किए गए वास्तविक कार्य से तुलना कर कार्यक्षमता का विश्लेषण किया जा सकता है।

आन्तरिक अंकेक्षण के दोष (Disadvantages of Internal Audit)

आन्तरिक अंकेक्षण के मुख्य दोष निम्नलिखित हैं :

1 अंकेक्षक का प्रबन्धकों व कर्मचारियों से अत्यधिक सम्पर्क (Excess Contact of Auditor with Management and Staff)—आन्तरिक अंकेक्षण में चूंकि अंकेक्षक संस्था में ही सदैव रहता है और चूंकि वह कम्पनी का कर्मचारी भी है अतः प्रबन्धक एवं कर्मचारी अंकेक्षक के अत्यधिक निकट सम्पर्क में आकर व अनुचित दबाव व प्रलोभन देकर व्यवसाय के लाभों में परिवर्तन करने के लिए प्रेरित कर सकते हैं और संस्था की सम्पत्ति व धन का निजी हितों की पूर्ति में प्रयोग कर सकते हैं।

2. अधिक अपव्यय (Excess Expense)–आन्तरिक अंकेक्षण प्रणाली को सुचारू रूप से कार्यरत करने के लिए संस्था के ऊपर अतिरिक्त आर्थिक भार पड़ता है।

3. अनुत्पादक कार्य (Unproductive Work)—आन्तरिक अंकेक्षक चूंकि संस्था का कर्मचारी होता है। जिसकी सफलता उसकी कार्यशैली, अनुभव व योग्यता पर निर्भर रहती है। अतः अयोग्य व्यक्ति को आन्तरिक अंकेक्षक के रूप में नियुक्त किए जाने पर उसका कार्य अनुत्पादक साबित हो सकता है।

आन्तरिक निरीक्षण और आन्तरिक अंकेक्षण

आन्तरिक निरीक्षण तथा आन्तरिक अंकेक्षण में काफी अन्तर है और इन्हें एक समझना भारी भूल है।। आन्तरिक अंकेक्षण हिसाब-किताब के लेखों की जांच को कहते हैं। आन्तरिक निरीक्षण में लेखा करने का कार्य । तथा उनकी स्वतन्त्र रूप से जांच दोनों कार्य साथ-साथ होते हैं। इनमें निम्न आधार पर अन्तर किया जा सकता है।

प्रश्न

1 आन्तरिक निरीक्षण किसे कहते हैं? अंकेक्षक इस पर किस सीमा तक निर्भर रह सकता है? उदाहरण सहित समझाइए।

What is meant by Internal Check? To what extent is an auditor entitled to rely on this? Explain with examples.

2. आन्तरिक निरीक्षण पद्धति से आप क्या समझते हैं ? इस विषय में अंकेक्षक की क्या स्थिति है ?

What do you understand by the term ‘Internal Check Method’ ? What is the Situation of auditor in this regard ?

3. आन्तरिक निरीक्षण एवं आन्तरिक अंकेक्षण में अन्तर स्पष्ट कीजिए। किसी व्यापार की रोकड़ बिक्री से सम्बन्धित आन्तरिक निरीक्षण व्यवस्था किस प्रकार करेंगे ? संक्षेप में बताइए।

Explain clearly the difference between ‘Internal Check’ and ‘Internal Audit’. How would you decide a system of Internal Check with regard to cash sales? Explain briefly.

4. ‘आन्तरिक निरीक्षण’ का क्या अर्थ है ? आन्तरिक रोकथाम की कुशल व्यवस्था के मुख्य लक्षण क्या हैं और एक अंकेक्षक की इस व्यवस्था में क्या स्थिति है?

What is the meaning of Internal Check? What are the mean features for efficient internal central and what are the position of auditor in this system.

5. आन्तरिक नियन्त्रण से आप क्या समझते हैं ? किसी उत्पादन करने वाली संस्था के लिए उपयुक्त मजदूरी भुगतान आन्तरिक निरीक्षण व्यवस्था बताइए।

What do you mean by Internal Control ? Explain an appropriate internal audit system for manufacturing organisation in respect to wage payment system.

6. निम्नलिखित को समझाइए :

(अ) आन्तरिक अंकेक्षण आन्तरिक निरीक्षण को स्थानापन्न नहीं कर सकता।

(ब) आन्तरिक अंकेक्षण वैधानिक अंकेक्षण का स्थान ग्रहण नहीं कर सकता है।

(स) वार्षिक अंकेक्षण और आन्तरिक अंकेक्षण में अन्तर।

Explain the following:

(a) Internal audit cannot replace internal check.

(b) Internal audit is no substitute for statutory audit.

(c) Difference between annual audit and internal audit.

7. एक बड़ी व्यापार संस्था में जहां रोकड़ से अधिकांश बिक्री होती है, आन्तरिक निरीक्षण की प्रणाली का उल्लेख कीजिए।

Explain the internal control system in an organization where most of sale made in cash.

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

1 आन्तरिक निरीक्षण का प्रमुख उद्देश्य होता है :

(अ) त्रुटियों व छल-कपट का पता चलाना

(ब) खातों की जांच करना

(स) संस्था के कार्यों का कर्मचारियों में विभाजन करना

(द) सम्पत्तियों का सत्यापन करना

2. भुगतान का सर्वोत्तम माध्यम है :

(अ) नकद

(ब) चैक

(स) बिल

(द) इनमें से कोई नहीं

3. निम्न में से कौन-सी पद्धति मजदूरी के लेखे के लिए उपयुक्त है?

(अ) मजदूरी रजिस्टर

(ब) मजदूरी तालिका

(स) मजदूरी कार्ड

(द) इनमें से कोई नहीं

4. क्रय का सर्वमान्य सिद्धान्त क्या है?

(अ) सबसे अच्छा माल

(ब) सबसे सस्ता माल

(स) सबसे अच्छा व सस्ता

(द) इनमें से कोई नहीं

 

chetansati

Admin

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