BCom 3rd Year Auditing Investigation Study Material notes in Hindi

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BCom 3rd Year Auditing Investigation Study Material notes in Hindi:  Meaning of Investigation Definition of Investigation Main Characteristics of Investigation Difference Between Auditing and Investigation Scope of Investigation  Qualification Of investigation Kinds of Investigation  Objects of Investigation  On Purchase of Business by individual powers of Inspectors Investigation by the owner of the business ( Most important for BCom 3rd Students) :

Investigation Study Material notes
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BCom 3rd Year Auditing Alteration Share Capital Study material notes in hindi

अनुसन्धान

[INVESTIGATION]

अनुसन्धान का अर्थ

(MEANING OF INVESTIGATION)

किसी उद्देश्य के लिए किसी संस्था के खातों की परीक्षा करना अनुसन्धान कहलाता है। अनुसन्धान का क्षेत्र विस्तृत है, क्योंकि उसके लिए चिट्टे एवं लाभ-हानि खाते का सत्यापन करने के अतिरिक्त अन्य कई महत्वपूर्ण सूचनाओं की जांच की जाती है। अनुसन्धान एक प्रकार का अंकेक्षण है, जो किसी विशिष्ट उद्देश्य के लिए किया जाता है। अनुसन्धान का कार्य सरल भी नहीं है, अतः अनुसन्धानकर्ता चतुर, बुद्धिमान, कठिन कार्यकर्ता, योग्य एवं पर्याप्त शिक्षित व्यक्ति होना चाहिए।

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अनुसन्धान की परिभाषाएं

(DEFINITION OF INVESTIGATION)

(1) स्पाइसर एवं पैगलर के अनुसार, “किसी विशेष उद्देश्य के लिए खातों तथा लेखों की जांच को अनुसन्धान कहते हैं।”

(2) बाटलीबॉय के अनुसार, “किसी व्यापार के गत कई वर्षों के लाभ या हानि की जांच करना ही अनसन्धान कहलाता है, ताकि यह ज्ञात हो सके कि व्यापार की कमाने की सामान्य क्षमता क्या है तथा इन्हें कमाने के लिए कितनी औसत कार्यशील पूंजी की आवश्यकता है, अथवा एक विशिष्ट उद्देश्य के लिए व्यापार की सही आर्थिक स्थिति कैसी है।”

(3) डिक्सी के अनुसार, “किसी विशिष्ट उद्देश्य के लिए खाता-बहियों के लेखों की जांच को अनसन्धान को यह वास्तव में ऐसा अंकेक्षण है जिसका क्षेत्र उस विशिष्ट उद्देश्य की आवश्यकताओं के अनुसार कराया अधिक किया जा सकता है। इसका उद्देश्य इस प्रकार से उन वास्तविकताओं को प्रकाशित व प्रकट करना है जिससे कि वे व्यक्ति या संस्थाएं जिनके लिए यह किया गया है, निष्कर्ष निकाल सकें तथा निर्णय लेने की स्थिति में हो सकें।

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अनुसन्धान की प्रमुख विशेषताएं

(MAIN CHARACTERISTICS OF INVESTIGATION)

1 अनुसन्धान एक विशेष पूर्व निर्धारित उद्देश्य के प्रति निर्दिष्ट होता है।

2. अनुसन्धान को प्रारम्भ करते समय सन्देह को आधार बनाया जाता है।

3. अनुसन्धान के कार्यक्षेत्र को आवश्यकतानुसार संकुचित एवं विस्तृत किया जा सकता है।।

4. अनुसन्धान में निर्धारित उद्देश्य के अतिरिक्त महत्वपूर्ण तथ्यों का भी निरीक्षण किया जाता

5. अनुसन्धानकर्ता को अनुसन्धान के पश्चात् निष्कर्षों के सन्दर्भ में एक वृहत प्रतिवेदन देना होता

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अंकेक्षण एवं अनुसन्धान में अन्तर

(DIFFERENCE BETWEEN AUDITING AND INVESTIGATION)

कभी-कभी विद्यार्थी यह गलत धारणा बना लेते हैं कि अंकेक्षण तथा अनुसन्धान एक ही हैं। अनसन्धान किसी व्यापारिक संस्था की आर्थिक स्थिति के वास्तविक स्वरूप को मालूम करने के लिए किया जाता है। इसका उद्देश्य प्रायः संस्था की लाभोपार्जन शक्ति का पता लगाना तथा छल-कपट की छानबीन करना है। अंकेक्षण और अनुसन्धान में निम्न मुख्य अन्तर हैं : आधार अंकेक्षण

अनुसन्धान करते समय ध्यान देने योग्य बातें

(POINTS TO BE REMEMBERED WHILE INVESTIGATION)

अनुसन्धान करते समय अनुसन्धानकर्ता को निम्नांकित बातों का ध्यान रखना चाहिए:

(1) उद्देश्य अनुसन्धानकर्ता को अनुसन्धान के क्षेत्र. उद्देश्य एवं सीमाओं की जानकारी भली-भाति कर लेनी चाहिए। उसको यथासम्भव इस सम्बन्ध में लिखित निर्देश प्राप्त कर लेने चाहिए। ।

(2) प्रसंविदा अनुसन्धानकर्ता और नियोक्ता के मध्य लिखित प्रसंविदा किया जाना चाहिए जो कि दोनों के हित में होगा। इससे उत्तरदायित्व निर्धारण में सहायता मिलती है। ।

(3) व्यापार की प्रकृति अनुसन्धान की प्रक्रिया के निर्धारण से पूर्व अनुसन्धानकर्ता को व्यापार के स्वभाव, कार्य एवं कार्य-पद्धति तथा नियम-उपनियमों से भली प्रकार जानकारी प्राप्त करनी चाहिए।

(4) अनुसन्धान की प्रकृति यदि अनुसन्धान अंकेक्षित हिसाब-किताब का किया जा रहा है, तो अनुसन्धानकर्ता का कार्य सुलभ हो सकता है। पर यह नहीं भूलना चाहिए कि उसका दायित्व किसी भा प्रकार। कम नहीं होता है।

(5) सहायक प्रपत्र-अनुसन्धान के उद्देश्य को ध्यान में रखते हए उनको उन सभी पत्रों, संलेखों तथा प्रपत्रों को प्राप्त करना चाहिए जिनका प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उसके कार्य से सम्बन्ध है।

(6) कार्य निष्पादन–अनुसन्धानकर्ताओं को अपने दायित्व के अनुरूप संस्था के अधिकारियों, कर्मचारियों तथा प्रबन्धकों के सम्बन्ध में जानकारी कर लेनी चाहिए। इनका व्यावहारिक तथा पुराना रिकॉर्ड उसको कार्य में सहायता दे सकता है।

(7) विशेषज्ञों की सलाह–अनुसन्धान की प्रक्रिया में आवश्यकतानुसार विशेषज्ञों की सहायता प्राप्त कर लेनी चाहिए। कुछ जटिल व्यवसायिक पहलुओं पर ऐसा करना अनिवार्य हो जाता है। उदाहरण : सम्पत्तियों का मूल्यांकन एवं विशेष कानूनी मामले।

(8) सावधानी अनुसन्धान के अन्तर्गत उसको सावधानी तथा दक्षता का पूर्ण परिचय देना चाहिए।

(9) गोपनीयता–अनुसन्धान करते समय अपने कार्य तथा पद्धति सम्बन्धी बातों को गोपनीय रखने की आवश्यकता है। सन्देहास्पद स्थिति को बनाने का उसे प्रयास नहीं करना चाहिए।

(10) प्रतिवेदन अन्त में उसको अपनी रिपोर्ट स्पष्ट, सही तथा तथ्यों सहित तैयार करनी चाहिए। रिपोर्ट तैयार करने में उसको निर्भीक होना चाहिए और किसी भी प्रकार के दबाव से प्रभावित नहीं होना चाहिए।

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अनुसन्धान का क्षेत्र

(SCOPE OF INVESTIGATION)

अनुसन्धान का क्षेत्र अंकेक्षण के क्षेत्र से भिन्न होता है। यह स्थिति के अनुसार अपेक्षाकृत संकचित अथवा व्यापक हो सकता है। अनुसन्धान की प्रक्रिया कुछ दशाओं में व्यावसायिक संस्था की पुस्तकों की जांच के अतिरिक्त भी हो सकती है। इसके अन्तर्गत तकनीकी एवं वित्तीय मामले भी शामिल किए जा सकते हैं। एक अंकेक्षक अनसन्धान के द्वारा अपने निष्कर्षों तथा उनके कारणों के मध्य उचित सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयास करता है। इस प्रकार, अनुसन्धान एक सघन जांच प्रक्रिया है जो अंकेक्षक को वास्तविक तथ्यों का उनके कारणों की सहायता से विश्लेषण करने में सहायक होती है।

जब कीसी व्यक्ति को किसी व्यापार का अनुसन्धानकर्ता नियुक्त किया जाता है, तो उसे अपने नियोक्ता से उसके उद्देश्य एवं क्षेत्र के विषय में स्पष्ट आदेश लेने चाहिए। अगर उसके कार्य पर कोई परिसीमाएं लगा। गयी हैं तो उनको लिखित ले लेना चाहिए क्योंकि उसका क्षेत्र स्वयं उनके ऊपर ही निर्भर रहता है।

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नुसन्धानकर्ता की योग्यताएं

(QUALIFICATIONS OF INVESTIGATOR)

अनुसन्धानकर्ता की निम्न योग्यताएं होनी चाहिए :

वह चार्टर्ड एकाउण्टैण्ट हो। (ii) केवल अधिक अनुभव वाला व्यक्ति ही चार्टर्ड एकाउण्टैण्ट हो। i) उसको लेखाविधियों का पूर्ण ज्ञान होना चाहिए। (iv) साथ ही व्यवसाय व व्यापारों के विभिन्न स्वरूपों व उनके स्वभाव की उसको पूर्ण जानकारी होनी चाहिए। (v) वह किसी के प्रभाव में कार्य करने वाला व्यक्ति नहीं होना चाहिए। (vi) उसको निष्पक्ष, ईमानदार व स्पष्ट वक्ता होना चाहिए।

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अनुसन्धान करने में आवश्यक सावधानियां

(SPECIAL PRECAUTIONS WHILE AUDITING)

(1) सर्वप्रथम उस उद्देश्य की जानकारी करनी चाहिए जिसके लिए अनुसन्धान किया जा रहा है।

(2) वह अवधि जो अनुसन्धान के अन्तर्गत आयेगी।
(3) अनुसन्धान का क्षेत्र।

(4) अनुसन्धान करने वाले को अनुसन्धान के अन्तर्गत आने वाले वर्षों के हिसाब-किताब या खाता विवरणों को ठीक व सही मानना चाहिए या नहीं, यह तय करना भी परमावश्यक है।

(5) विशेषज्ञों की सलाह।

इस सम्बन्ध में निम्न मुकदमों में दिये गये निर्णय उल्लेखनीय है : Short & Crompton vs. Crackett (1908) के मामले में यह निर्णय दिया गया था कि अनुसन्धान करने वालों को यह मानकर चलना चाहिए कि हिसाब-किताब ठीक है। एक अन्य मामले Mead vs. Ball Baker & Co. (1911) में यह निर्णय दिया गया कि अनुसन्धानकर्ता को स्टॉक-सूची की त्रुटियों तथा दायित्वों को भूल जाने की जांच करने की आवश्यकता न थी।

कोल्मर बनाम मीरेट, सन एण्ड स्ट्रेट (Colmer vs. Meerrett, Son & Stret, 1914) में यह स्पष्ट रूप से कहा गया था कि यदि अनुसन्धानकर्ता अपने कार्य में सावधानी तथा सतर्कता नहीं बरतता जितनी उसके लिए व्यावसायिक दृष्टि से आवश्यक है, तो वह लापरवाही के लिए उत्तरदायी होगा और उसे क्षतिपूर्ति करनी होगी। उसी प्रकार रेगिना बनाम वेक एण्ड स्टोन (Regina vs. Wake & Stone, 1954) के मामले में अंकेक्षक को स्टॉक व अर्द्ध निर्मित माल के अशुद्ध मूल्यांकन तथा लापरवाही के लिए उत्तरदायी ठहराया गया और उसको 200 पौण्ड जुर्माना या 6 माह के कारावास के दण्ड का भागी होना पड़ा।

इन निर्णयों से स्पष्ट है कि अनुसन्धान करने वालों की पुस्तकों को ठीक मानकर चलना चाहिए। फिर भी यह अच्छा है कि उनको अपने नियोक्ता से यह बात प्रारम्भ में पूछताछ कर लेनी चाहिए कि खाता-विवरणों (Statement of Accounts) को ठीक मानकर चलना चाहिए अथवा उसकी फिर से जांच करनी चाहिए। कभी-कभी उसे अपने कार्य को पूरा करने के लिए अनुसन्धान के क्षेत्र का विस्तार करने की आवश्यकता होती है, जिसे वह नियोक्ता की अनुमति के बिना नहीं कर सकता है। यदि नियोक्ता अनुमति न दे तो अनुसन्धानकर्ता को अपने परिणामों के सम्बन्ध में यह स्पष्ट लिख देना चाहिए कि वे सीमित हैं जिसका कारण किन्हीं विशेष बातों या सम्बन्धित व्यापार की जांच करने की अनुमति का न मिलना है।

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अनुसन्धान के उद्देश्य

(OBJECTS OF INVESTIGATION)

अनुसन्धान निम्न उद्देश्यों की पूर्ति हेतु किया जाता है :

(1) व्यवसाय के क्रय करने हेतु यदि कोई व्यक्ति, संस्था या कम्पनी किसी चलते हए व्यवसाय को करा करना चाहती है तो वह उस व्यवसाय की सम्पत्तियों एवं दायित्वों के मूल्यांकन के लिए. उनकी भौतिक रुप से उपलब्भता के लिए व्यापार के भविष्य की लार्भाजन क्षमता निर्धारित करने के लिए व्यवसाय का उचित क्रय मूल्य निर्धारण करने के लिए अनुसन्धान का कार्य कराया जाता है।

(2) साझेदरा संस्था में नये साझेदार के प्रवेश पर-जब कोई व्यक्ति किसी अन्य साझेदारी व्यवसाय में साझेदार बनने की इच्छा रखता है तो वह व्यक्ति उस संस्था का अनसन्धान का यवसाय की अर्जन शक्ति. आर्थिक स्थिति, ख्याति के मूल्य निधारण एवं अन्य साझेदारों के स्वभाव. आदि के सम्बन्ध में अनुसन्धान करा सकता है।

(3) कपट का पता लगाने हेतु अनुसन्धान प्रायः प्रबन्धको द्वारा लेखा-पुस्तकों में की गई गडबडी के। पता लगाने के लिए भी किया जा सकता है। प्रबन्धको द्वारा कपट बहुत सुनियोजित रूप से किये जाते हैं।

जिनको अंकेक्षक अंकेक्षण के द्वारा नहीं पर द्वारा नहा पता लगा सकता. अतः इस हेत कपट का पता लगाने में अनुसन्धान का कार्य किया जाता है।

(4) क्षतिपूर्ति की रकम के निर्धारण करने हेत अनसन्धान बीमा कम्पनियों द्वारा व्यवसाय का समद्री दुर्घटना या अन्य प्रकार के बीमाओं से होने वाली हानियों की क्षतिपर्ति के दावों के निधारण हतु। अनुसन्धान कराया जाता है।

(5) कम्पनी अधिनियम के प्रावधानों के अन्तर्गत कम्पनी अधिनियम के विभिन्न प्रावधानों का पूति हतु। भी अनुसन्धान कराया जाता है। कम्पनी के समापन पर कम्पनी का समापक (Liquidator) कम्पना का सम्पत्तियों एवं दायित्वों की वास्तविक स्थिति, उनके उचित मूल्यांकन के लिए अनुसन्धान कराता है।_

(6) व्यवसायों का एकीकरण करने पर वर्तमान समय में व्यवसायों का एकीकरण या संविलयन (Amalgamation & Absorption) या आधुनिक वाणिज्य की भाषा में कहें तो Merger & Acquisition के लिए व्यवसायों की लाभार्जन शक्ति, आन्तरिक स्थिति. क्रय मूल्य के निर्धारण हेतु अनुसन्धान आवश्यक

(7) विनियोग हेतु अनुसन्धान—जब कोई वित्तीय संस्था या बैंक या कोई अन्य कम्पनी अपने धन का विनियोग किसी अन्य उद्योग या व्यवसाय में करती है तो विनियोगकर्ता अपने धन की सुरक्षा हेतु उस व्यवसाय की प्रत्याय दर (rate of return), लाभार्जन शक्ति, प्रबन्ध स्तर, व्यवसाय की प्रकृति व उसके विकास के अवसर, वित्तीय स्थिति, आदि की जांच हेतु अनुसन्धान कराता है।

(8) अंशों के मूल्यांकन हेतु कभी-कभी वित्तीय संस्थाएं या विनियोगी संस्थाएं अन्य संस्थाओं के अंशों को क्रय करने हेतु अंशों का मूल्यांकन करने हेतु भी अनसन्धान कराती हैं। अंशों का मूल्यांकन विभिन्न पद्धतियों का प्रयोग कर किया जाता है।

(9)न्य उद्देश्य हेतु निम्न अन्य उद्देश्यों हेतु अनुसन्धान कराया जा सकता है : (i) निस्तारक द्वारा सम्पत्ति एवं दायित्वों का मूल्यांकन (ii) नीतियों एवं योजनाओं की सफलता की जांच हेतु अनुसन्धान आदि।

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अनुसन्धान के प्रकार

(KINDS OF INVESTIGATION)

अनसुन्धान किसी विशेष कार्य को पूर्ण करने के लिए किया जाता है। ऐसे कार्य जिनके लिए प्रायः अनुसन्धान कराया जाता है उन्हें निम्न प्रकार वर्गीकृत किया जा सकता है अर्थात् भिन्न व्यक्तियों द्वारा अपने विशिष्ट उद्देश्यों की पूर्ति हेतु अनुसन्धान कराया जाता है।

(I) किसी व्यक्ति द्वारा व्यवसाय के क्रय करने पर अनुसन्धान

(ON PURCHASE OF BUSINESS BY AN INDIVIDUAL)

एक व्यक्ति जो किसी व्यापार को खरीदना चाहता है, यह जानना चाहता है कि जिस व्यापार को वह खरीद रहा है उसके लिए उचित मूल्य मांगा गया है या नहीं, उसके सम्पत्ति एवं दायित्व चिट्ठे में ठीक प्रकार से दिखाये गये हैं या नहीं, इस विषय में उस व्यापार से लाभ होने की आशा है या नहीं। अतः अनुसंधानकर्ता को निम्न बातों की जांच सावधानीपूर्वक करनी चाहिए:

(अ) उपार्जन-शक्ति की जांच (Earning Capacity)—एक अनुसन्धानकर्ता के लिए उस व्यापार की उपार्जन-शक्ति की जांच करना अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि उससे उस कम्पनी की सम्पत्तियों का वास्तविक मूल्य मालूम पड़ता है।

व्यापार की उपार्जन-शक्ति का पता लगाने के लिए अनुसन्धानकर्ता को उस व्यापार के पिछले कई वर्षों बानि खाते की जांच करनी चाहिए जिससे बिक्री, कुल लाभ एवं शुद्ध लाभ का सही-सही ज्ञान हो कई वर्षों के लाभ-हानि खातों की प्रत्येक मद की रकम का प्रतिशत दिखाते हुए लाभ-हानि खाता अगर उसमें कोई महत्वपूर्ण परिवर्तन हो तो उसकी जांच करनी चाहिए। उसे यह भी देखना कहीं कत्रिम तरीके से लाभ को बढ़ाकर तो नहीं दिखाया गया है। यह लाभ बिक्री को अधिक सीट को कम दिखाकर, व्ययों को घटाकर, लाभगत व्ययों को पूंजीगत दिखाकर, स्टॉक का मूल्य बढ़ाकर, हास के लिए उचित प्रबन्ध न करके, आदि-आदि तरीकों से बढ़ाकर दिखाया जा सकता है। इसके लिए अत्यन्त सावधानी बरतनी चाहिए। उसे भविष्य में लगाये जाने वाले सरकारी प्रतिबन्धों की ओर भी संकेत करना चाहिए।

(ब) सम्पत्ति एवं दायित्व (Assets and Liabilities) क्रय की जाने वाली सम्पत्तियों एवं दायित्वों का मूल्यांकन अत्यन्त सावधानी से करना चाहिए। स्थायी सम्पत्तियों का मूल्यांकन एक स्वतन्त्र मूल्य-निर्धारक को करना चाहिए और उनमें से उचित हास को घटा देना चाहिए। अन्य सम्पत्तियों; जैसे-स्टॉक, ऋण, आदि का मूल्याकन भी उचित आधार पर किया जाना चाहिए, देनदारों एवं लेनदारों का मूल्यांकन बहत सावधानी से करना चाहिए। व्यापार क्रय करने वाले को बहुधा उनको नहीं देखना चाहिए और उनका भुगतान एवं वसूली विक्रेता की ओर से करनी चाहिए।

(स) ख्याति (Goodwill) ख्याति की रकम का मूल्यांकन व्यापार के लाभ, स्वामी का व्यक्तिगत एवं अन्य विशेष बातों को ध्यान से देखकर करना चाहिए। यदि उसका मूल्य पिछले वर्षों के लाभ के आधार पर निर्धारित किया गया है. तो ऐसे लाभों को उचित समायोजनाओं के बाद निकालना चाहिए। अगर ख्याति बिक्री पर आधारित है. तो बिक्री की जांच अत्यन्त सावधानीपूर्वक करनी चाहिए। अगर वह व्यापार की स्थिति पर निर्भर है, तो देखना चाहिए कि क्रेता उस जगह पर कब तक व्यापार करेगा।

(द) सामान्य बातें (General Points)–अनुसन्धानकर्ता को उपर्युक्त बातों के अतिरिक्त निम्नलिखित बातों की जांच करनी चाहिए :

(i) व्यापार पर सरकार का संरक्षण तो नहीं है। अगर है, तो वह कब तक रहेगा।

(ii) व्यापार विक्रेता के विशेष गुणों के परिणामस्वरूप तो नहीं चल रहा है।

(iii) उस व्यापार में काम करने वाले कर्मचारी इस व्यापार में काम करेंगे, अथवा नहीं।

(iv) अगर व्यापार चलाने में किसी विशेष ज्ञान की आवश्यकता है, तो यह देखना चाहिए कि ज्ञान क्रेता में है, या नहीं।

(v) अन्तिम स्टॉक की दशा एवं मूल्य को भली-भांति जांचना चाहिए।

(vi) व्यापार द्वारा प्राप्त एवं दत्त साख (credit) की शर्ते क्या हैं? साख की शर्ते व्यवसाय की कार्यशील पूंजी की मात्रा एवं ख्याति को भी प्रभावित करती हैं।

(vii) अनुसन्धानकर्ता को ग्राहकों का स्वभाव एवं प्रतियोगिता की सम्भावना का भी निरीक्षण करना चाहिए।

(II) एक नयी कम्पनी द्वारा किसी विद्यमान कम्पनी के क्रय करने पर

इस सम्बन्ध में अनुसन्धानकर्ता को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि नयी कम्पनी व्यापार शुरू करने जा रही है। वह उसका अनुसन्धान इसलिए कराती है जिससे लाभ की सत्यता की जांच कराके उन व्यक्तियो को विश्वास दिला सके जो उसी नयी कम्पनी के अंश खरीदने के लिए तैयार हो जायेंगे। अतः यहां पर अनुसन्धान का कार्य अत्यन्त कठिन हो जाता है। उसे व्यापार के खातों की जांच कराने के लिए निम्न बातो का ध्यान रखना चाहिए:

(i) पिछले वर्षों में लाभ-हानि खातों को एक तालिका के रूप में प्रकट करके उनकी एक-दूसरे से तुलना। करनी चाहिए। इसके लिए प्रत्येक मद का प्रतिशत निकालकर उसकी तुलना करनी चाहिए। अगर किन्हा कत्रिम तरीकों का प्रयोग लाभ बढ़ाने में किया गया है, तो अनुसन्धानकर्ता को उसका भी ध्यान रखना चाहिए।

(ii) अनुसन्धानकर्ता की रिपोर्ट में वे सब बातें निहित हों जो भविष्य में लाभ पैदा करने की शक्ति पर प्रभाव डालती हों।

उस कम्पनी के सही लाभ को निकालने के लिए यह आवश्यक है कि समायोजनाओं को ध्यान। किसी व्यापार की लाभ पैदा करने की शक्ति का ज्ञान निम्न समायोजनाओं के बाद हो सकता है।

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लाभ में जोड़ी जाने वाली मदें

(1) साझेदारी की पूंजी और उनके चालू खातों का व्यय;

(2) पूंजीगत हानियां;

(3) किराये पर ली इमारत का किराया:

(4) बैंक आदि से लिये गये ऋण पर ब्याज;

(5) पूंजीगत व्यय जो लाभगत व्यय में लिखा गया हो;

(6) आवश्यकता से अधिक अप्राप्य ऋण एवं संदिग्ध ऋण का संचय;

(7) असाधारण हानियां; और

(8) क्रय पर न मिलने वाली कटौती।

लाभ में से घटायी जाने वाली मदें

(1) पूंजीगत लाभ

(2) ऐसे लाभ जो व्यापार की साधारण स्थिति में प्राप्त नहीं होते हैं;

(3) ऐसे व्यय जो कम्पनी क्रय करने के बाद किये जायेंगे और

(4) उन विनियोगों की आय जो क्रय की जाने वाली कम्पनी द्वारा नहीं ली जाएगी।

अन्त में, अनुसन्धानकर्ता को अपनी रिपोर्ट स्पष्ट रूप से देनी चाहिए। उसे खरीदी जाने वाली कम्पनी के लाभों के बारे में स्पष्ट राय देनी चाहिए। इसके अतिरिक्त, जो भी प्रमाण-पत्र रिपोर्ट के साथ नत्थी किये गये हैं, वे भी सत्य होने चाहिए।

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(III) व्यक्ति द्वारा साझेदारी संस्था में नये साझेदार के रूप में प्रवेश करने पर

जब कोई व्यक्ति किसी साझेदारी संस्था में प्रवेश करना चाहता है, तो सर्वप्रथम वह उस संस्था की स्थिति को जानना चाहता है। अतः अनुसन्धानकर्ता को निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिए :

(i) इस बात की जानकारी प्राप्त करना कि फर्म नये साझेदार को क्यों लेना चाहती है। कई बार फर्म में वित्त की कमी के कारण किसी व्यक्ति को साझेदार बना लिया जाता है।

(ii) अगर नया साझेदार किसी मृतक या अलग किये जा रहे साझेदार की जगह लिये जा रहा है तो देखना चाहिए कि उस साझेदार की अनुपस्थिति से संस्था को कितनी हानि होगी और नया साझेदार उसे कहां तक पूरा कर सकता है।

(iii) नये साझेदार द्वारा लायी गयी पूंजी किस प्रकार प्रयोग में लायी जाएगी, उससे पुराने ऋणों का भुगतान किया जाना है या उसे कार्यशील पूंजी के रूप में लगाकर व्यापार की उपार्जन शक्ति बढ़ानी है। अगर व्यापार विस्तार में पूंजी लगायी जानी है तो देखना चाहिए कि नये साझेदार द्वारा लगायी गयी पूंजी कहां तक पर्याप्त है।

(iv) साझेदारों की पूंजी का उनके लाभ के अनुपात से मिलान करना चाहिए।

(v) अगर संस्था आर्थिक संकट में है तो उसे देखना चाहिए कि पुराने प्रसंग से नये साझेदार को हानि नहीं होगी।

(vi) चिट्ठे की जांच भली-भांति करनी चाहिए एवं यह देखना चाहिए कि सम्पत्तियों एवं दायित्वों का मूल्यांकन उचित ढंग से किया गया है या नहीं।

(vii) साझेदारों के समझौते की उचित रूप से जांच करनी चाहिए।

(viii) साझेदारों को व्यापार में प्रवेश करते समय कुछ रकम ख्याति के रूप में देनी पड़ती है। अत: । ना चाहिए कि ख्याति उचित है या नहीं और उसको निकालने के लिए कौन-सा तरीका अपनाया गया है।

(ix) उसे फर्म की उपार्जन-शक्ति का भी ठीक-ठीक हिसाब लगा लेना चाहिए जिससे साझेदारों के भविष्य के लाभ के बारे में ज्ञान हो सके।

(x) साझेदारी के व्यापार में किसी कार्यकुशलता की तो आवश्यकता नहीं है और यदि है तो नया साझेदार उसे कहां तक पूरा कर सकता है।

उपर्युक्त बातों का निरीक्षण करने के पश्चात् अनुसन्धानकर्ता को अपने नियोक्ता को स्पष्ट रिपोर्ट देनी चाहिए।

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(IV) ऋणदाता द्वारा अनुसन्धान

अनुसन्धानकर्ता को एक ऋणदाता की ओर से जब किसी संस्था का अनुसन्धान करना हो तो उसे निम्नांकित बातों की जांच करनी चाहिए :

(i) व्यापार के स्वभाव के बारे में सब सूचनाएं प्राप्त करनी चाहिए एवं उसके प्रबन्धक के अनभव एवं योग्यता को ज्ञात करना चाहिए।

(ii) उस संस्था की उपार्जन-शक्ति का पता लगाने के लिए उसके पिछले वर्षों के लाभ-हानि खातों की भली-भांति जांच करनी चाहिए।

(iii) अनुसन्धान की तिथि को व्यापार का चिट्ठा बनाकर उस व्यापार की आर्थिक स्थिति को ज्ञात करना चाहिए और यह देखना चाहिए कि ऋण की सुरक्षा के लिए क्या-क्या सम्पत्तियां व्यापार में लगी हुई हैं।

(iv) चालू ऋणों का व्यापार की तरल सम्पत्तियों से मिलान करना चाहिए।

(v) ऋणों की रकम और उनकी गिरवी में दी हुई सम्पत्तियों का मूल्य आंककर यह मालूम करना चाहिए कि क्या-क्या सम्पत्तियां नियोक्ता को ऋण की गिरवीं के रूप में दी जाती हैं।

(vi) लेनदारों का भुगतान ठीक समय पर किया जा रहा है, या नहीं।

(vii) ऋण व्यापार के किस कार्य के लिए लिया जा रहा है। अगर वह व्यापार के विस्तार के लिए लिया जा रहा है, तो व्यापार के विस्तार की कहां तक सम्भावना है।

(viii) ऋण लेने वाली संस्था की बनी हुई वस्तुओं व कच्चे माल के स्टॉक की स्थिति क्या है।

(ix) संस्था के विनियोगों की भली-भांति जांच करनी चाहिए और देखना चाहिए कि उनसे प्राप्त होने वाली आय कितनी है।

(x) संस्था के प्राप्य बिल एवं देय बिलों की जांच करनी चाहिए।

(xi) यह देखना चाहिए कि क्या ऋण किसी अन्य पक्ष से मांगा गया है। अगर मांगा गया है, तो उसने किन कारणों से ऋण देने से इन्कार कर दिया है। तत्पश्चात् अनुसन्धानकर्ता को अपनी रिपोर्ट देनी चाहिए।

(V) विनियोगकर्ता की ओर से अनुसन्धान

जब कोई व्यक्ति अपना रुपया किसी व्यापार में विनियोग करना चाहता है तो वह उस व्यापार के स्वभाव के बारे में पूर्णतः जानकार होना चाहेगा जिससे उसे यह ज्ञान हो जाए कि उसे विनियोग से लाभ होगा या नहीं। अतः अनुसन्धानकर्ता को जांच के समय निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए:

(i) अगर विनियोजक अपनी राशि किसी फर्म में विनियोग कर रहा है तो विनियोजक एवं उस फर्म के मध्य हुए प्रसंविदों की जांच करनी चाहिए और देखना चाहिए कि उनमें लिखी गयी शर्ते विनियोजक के हित में हैं या नहीं।

(ii) अगर अनुसन्धानकर्ता को कुछ ऐसी बातों का ज्ञान होता है जो विनियोजक के हित में नहीं हैं तो उसे विनियोजक को उनके बारे में सूचित कर देना चाहिए।

(iii) यदि रकम कम्पनी के अंशों या ऋणपत्रों में लगायी जा रही है, तो भिन्न प्रकार के अंशधारियों के अधिकारों को देखने के लिए स्मारक-पत्र एवं अन्तर्नियमों की जांच करनी चाहिए।

(iv) कम्पनी की उपार्जन-शक्ति एवं आर्थिक स्थिति की जांच करने के लिए कम्पनी के लाभ-हानि खाते एवं चिट्ठे की पूर्णतः जांच करनी चाहिए।

(v) कम्पनी की कार्यशील पूंजी का भी पूरा-पूरा ज्ञान प्राप्त करना चाहिए जिससे पता लग सके कि विनियोग सुरक्षित हैं, या नहीं।

(VI) सरकार द्वारा अनुसन्धान

कम्पनी अधिनियम 2013 की धारा 210-216 में कम्पनियों के अनुसन्धान के बारे में कहा गया है। अतः इन धाराओं के अन्तर्गत कम्पनी का अनुसन्धान किया जाना है तो सरकार उचित अधिकारी को किसी भी कम्पनी का निरीक्षक नियुक्त कर सकती है। धारा 210 के अन्तर्गत सरकार किसी कम्पनी का अनुसन्धान निम्न दशाओं में करा सकती है:

(अ) एक अंश-पूंजी वाली कम्पनी के अगर 200 अंशधारी या वे व्यक्ति जो इस कम्पनी में कम-से-कम 1/10 वोटिंग का अधिकार रखते हैं, उस कम्पनी के प्रबन्ध के बारे में प्रार्थना-पत्र दें।

(ब) एक बिना अंश-पूंजी वाली कम्पनी के कुल सदस्यों में से अगर कम-से-कम 1/5 सदस्य प्रार्थना-पत्र द।।

कम्पनी लॉ बोर्ड सम्बन्धित पक्षों को सुनने का अवसर देने के उपरान्त यह आदेश घोषित कर सकता है कि कम्पनी के कार्यकलाप का अनसन्धान किसी निरीक्षक या निरीक्षकों के द्वारा कराया जाये तथा इस घोषणा के उपरान्त केन्द्रीय सरकार एक या अधिक सक्षम व्यक्ति को निरीक्षक नियुक्त कर सकती है तथा उस प्रकार रिपोर्ट देने को कह सकती है जिस प्रकार केन्द्रीय सरकार निर्देशित करती है।

(स) किसी भी कम्पनी की दशा में निम्नांकित दशाओं में रजिस्ट्रार की रिपोर्ट पर :

(क) यदि रजिस्ट्रार द्वारा मांगी गयी सूचनाएं व स्पष्टीकरण कम्पनी द्वारा निर्धारित समय में नहीं प्रस्तुत किये जाते अथवा अधूरे व गलत तथ्य प्रस्तुत किये जाते हैं।

(ख) यदि कोई धनदाता, लेनदार या अन्य व्यक्ति रजिस्ट्रार के सामने तथ्य रखकर यह प्रमाणित कर देता है कि कम्पनी का कार्य कपट रूप से तथा/अथवा गैर कानूनी तरीके से चलाया जा रहा है, तो रजिस्ट्रार कम्पनी को अपनी स्थिति स्पष्ट करने का अवसर देता है और यदि इस स्पष्टीकरण से रजिस्ट्रार को सन्तोष प्राप्त नहीं होता है, तो रजिस्ट्रार केन्द्रीय सरकार को अनुसन्धान के लिए आवेदन दे सकता है।

(द) अगर केन्द्रीय सरकार यह समझती है कि  (i) कम्पनी का प्रबन्ध कपटीय तरीकों पर चल रहा है, या (ii) कम्पनी किसी अवैधानिक उद्देश्य से स्थापित हुई है या (iii) इस कम्पनी के प्रवर्तकों पर कपट या अन्य किसी प्रकार दोषारोपण है, आदि, तो केन्द्रीय सरकार उसका अनुसन्धान करा सकती है।

सदस्यों का आवेदन प्रमाण सहित होना (Application of members supported by evidence) धारा 214 के अन्तर्गत यह व्यवस्था है कि धारा 210 के अनुसार सदस्यों द्वारा किये जाने वाला आवेदन-पत्र प्रमाणों सहित होना चाहिए ताकि कम्पनी लॉ बोर्ड यह समझ सके कि आवेदकों का अनुसन्धान के लिए आवेदन-पत्र देना उचित है। _

निरीक्षकों की नियुक्ति करने से पहले केन्द्रीय सरकार आवेदकों से अनुसन्धान के व्ययों के लिए जमानत ले लेगी।

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अन्य दशाओं में कम्पनी का अनुसन्धान  (Investigation of Company’s affairs in other Cases)–धारा 213 के अनुसार—

(अ) यदि विशेष प्रस्ताव द्वारा या न्यायालय के आदेश द्वारा कम्पनी घोषित करती है कि कम्पनी के कार्यों का अनुसन्धान केन्द्रीय सरकार के द्वारा नियुक्त अंकेक्षकों द्वारा होना चाहिए तो केन्द्रीय सरकार एक या एक से अधिक निरीक्षक ऐसा करने के लिए नियुक्त कर सकती है।

(ब) यदि केन्द्रीय सरकार के विचार में—(i) कम्पनी का व्यवसाय उसके लेनदारों, सदस्यों या अन्य व्यक्तियों को धोखा देने के लिए चलाया जा रहा है अथवा कपटपूर्ण व गैर-कानूनी ढंग से चलाया जा रहा है; या

(ii) कम्पनी के निर्माण या प्रबन्ध से सम्बन्धित व्यक्ति कपट, कर्तव्य-भंग या दुर्व्यवहार के लिए कम्पनी या उसके किसी सदस्य के प्रति दोषी हो; या

(iii) कम्पनी के सदस्यों को वे सब सूचनाएं न दी गयी हों जो उन्हें दी जानी चाहिए थीं. प्रबन्ध संचालक. अन्य संचालक या प्रबन्धक को दिये जाने वाले कमीशन की सूचना सहित ; तो केन्द्रीय सरकार कम्पनी के अनुसन्धान के लिए एक या एक से अधिक निरीक्षक नियुक्त कर सकती है।

निरीक्षकों की नियुक्ति

केवल व्यक्ति ही निरीक्षक बन सकता है—कम्पनी अधिनियम की धारा 238 के अनुसार कोई भी कम्पनी या संघ निरीक्षक की तरह नियुक्त नहीं हो सकता है अर्थात् व्यक्ति (individual) ही निरीक्षक के रूप में। नियुक्त किये जा सकते हैं।

निरीक्षकों के अधिकार

(POWERS OF INSPECTORS)

धारा 210 व 213 के अन्तर्गत नियक्त किये गये निरीक्षक यदि यह समझते हैं कि कम्पनी का अनुसन्धान करने के लिए कुछ अन्य व्यक्तियों एवं संस्थाओं का भी अनुसन्धान करना आवश्यक है तो वे ऐसा कर सकते हैं। और वे इन संस्थाओं के अनुसन्धान के सम्बन्ध में भी रिपोर्ट देंगे। यहां अन्य व्यक्तियों या संस्थाओं से आशय निम्न

(अ) ऐसी कम्पनी जो अनुसन्धान किये जाने वाली कम्पनी की सहायक या सूत्रधारी कम्पनी हो या रही। हो।

(ब) ऐसी कम्पनी जो ऐसे प्रबन्धक या प्रबन्ध संचालक के द्वारा प्रबन्धित की जाती हो या की गयी हो जो अनुसन्धान की जाने वाली कम्पनी का सम्बन्धित समय पर प्रबन्धक या प्रबन्ध संचालक हो या रहा हो। ऐसी कम्पनी अनुसन्धान किये जाने वाली कम्पनी द्वारा प्रबन्धित होती हो या किसी भी समय प्रबन्धित की गयी हो या जिसके संचालक अनुसन्धान किये जाने वाली कम्पनी के द्वारा मनोनीत किये गये हैं या उसके संचालकों के निर्देश पर कार्य करते हों।

(स) कोई भी ऐसा व्यक्ति जो कम्पनी का प्रबन्ध संचालक या प्रबन्धक हो या रहा हो, अथवा इनमें किसी का एसोसिएट रहा हो। धारा 219 के अनुसार इस धारा में यह भी व्यवस्था है कि निरीक्षक केन्द्रीय सरकार की अनुमति के बिना अपने अधिकारों का प्रयोग नहीं करेगा। परन्तु केन्द्रीय सरकार अनुमति देने से पूर्व कम्पनी या व्यक्ति को उचित अवसर प्रदान करती है कि वह अपना स्पष्टीकरण दे।

प्रपत्रों व प्रमाणों का देना (Production of Documents and Evidences) कम्पनी के सभी अधिकारियों, कर्मचारियों और एजेण्टों का यह कर्तव्य होता है कि वे निरीक्षक के सामने या ऐसे व्यक्ति के सामने, जो केन्द्रीय सरकार की पूर्व अनुमति लेकर अधिकृत किया गया हो, कम्पनी के सब प्रपत्र तथा पुस्तकें प्रस्तुत करें और उसे अनुसन्धान के सम्बन्ध में वह सभी सहायता दें जिसे देने के लिए वे योग्य हों।

केन्द्रीय सरकार की पूर्व अनुमति लेकर निरीक्षक किसी भी समामेलित संस्था को ऐसी सूचना या पुस्तकें या प्रपत्र देने के लिए बाध्य कर सकता है जिसकी आवश्यकता वह अपने अनुसन्धान कार्य के लिए समझता है।

इन प्रपत्रों व पुस्तकों को निरीक्षक अपने पास 6 महीने तक रख सकता है। इसके पश्चात् उन्हें सम्बन्धित व्यक्ति या संस्था को लौटा देगा। आवश्यकतानुसार वह इन्हें फिर मांग सकता है।

कम्पनी के किसी अधिकारी, कर्मचारी या एजेण्ट की जांच निरीक्षक शपथ पर कर सकता है और अन्य व्यक्तियों की शपथ पर जांच केन्द्रीय सरकार की आज्ञा लेकर कर सकता है और इनमें से किसी भी व्यक्ति को व्यक्तिगत रूप से अपने समक्ष उपस्थित होने की आज्ञा दे सकता है।

यदि कोई अधिकारी या कर्मचारी या एजेण्ट इन व्यवस्थाओं के पालन न करने का दोषी होता है, तो वह 6 माह तक के कारावास या 20,000 ₹ तक के जुर्माने या दोनों से दण्डित किया जा सकता है। इसके अलावा गलती के लिए प्रतिदिन के लिए 2,000 ₹ तक जुर्माना और लगाया जा सकता है।

यदि केन्द्रीय सरकार चाहे तो निरीक्षक अनुसन्धान समाप्त होने से पहले अन्तरिम रिपोर्ट (Interim Report) प्रस्तत कर देता है। अनुसन्धान पूर्ण होने पर वह अन्तरिम रिपोर्ट प्रस्तुत करता है। केन्द्रीय सरकार इस रिपोर्ट की एक प्रतिलिपि कम्पनी के रजिस्टर्ड कार्यालय को भेज देती है। केन्द्रीय सरकार यदि उचित समझे तो रिपोर्ट की एक प्रतिलिपि कम्पनी के किसी सदस्य को निर्धारित शुल्क के भुगतान करने पर दे सकती है।

यदि रिपोर्ट के आधार पर केन्द्रीय सरकार कम्पनी का समापन उचित समझती है तो वह किसी भी व्यक्तिको न्यायालय में इसके समापन के लिए पिटीशन दाखिल करने की, धारा 241 तथा 242 के अन्तर्गत आवेदन-पत्र देने की या दोनों की आज्ञा दे सकती है।

यदि केन्द्रीय सरकार चाहे तो कम्पनी के प्रवर्तक, निर्माण या प्रबन्ध में कपट आदि के कारण हुई हानियों की पूर्ति के लिए वाद प्रस्तुत कर सकती है।

(i) कम्पनी की पुस्तके कम्पनी अधिनियम, 2013 के अनुसार रखी हैं या नहीं।

(ii) कम्पनी के संचालक या प्रबन्ध संचालक कम्पनी के धन का प्रत्यक्ष रूप से गलत प्रयोग तो नहीं कर रहे हैं।

(iii) कम्पनी के लाभ और दिये गये वास्तविक लाभांशों की तुलना करनी चाहिए।

(iv) कम्पनी की पूंजी, विनियोगों, ऋणपत्रों, आदि की उचित जांच करनी चाहिए। विनियोगों से प्राप्त आय आदि की उचित जांच करनी चाहिए।

(v) कम्पनी के अधिकारी अपने अधिकारों का अनुचित प्रयोग तो नहीं कर रहे हैं।

(vi) कम्पनी के संचित कोष (Reserve Fund) की पिछली वर्ष के कोष से तुलना करनी चाहिए। अगर गुप्त संचय कम्पनी में रखा गया है तो उसकी सूक्ष्म जांच करनी चाहिए।

(vii) ऐसी कम्पनियों के साथ किये गये प्रसंविदों की जिनमें कम्पनी के संचालक संचालकों का हित हो, जांच की जानी चाहिए।

(viii) संचालक/संचालकों को दिये गये ऋण तथा/अथवा अग्रिम कम्पनी के अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार हैं अथवा नहीं।

(ix) संचालकों को दिया गया पारिश्रमिक कम्पनी अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार है अथवा नहीं। पारिश्रमिक की रकम को कम्पनी के लाभ-हानि खाते में यथास्थान दिया गया है अथवा नहीं।

(x) सहायक कम्पनियों के साथ किये गये लेन-देनों की विशेष जांच करनी चाहिए।

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chetansati

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