BCom 2nd Year Entrepreneur Leadership Planning Ability Study Material notes In Hindi

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BCom 2nd Year Entrepreneur Leadership Planning Ability Study Material notes In Hindi

Table of Contents

BCom 2nd Year Entrepreneur Leadership Planning Ability Study Material notes In Hindi: Meaning  and Definition of Leadership Ability Characteristics of Leadership Importance of Leadership Functions of Leadership Ability of Risk Taking Decision Making Ability Meaning  of Decision Making  Concept of Decision Making  Elements of Criteria of  Factors of Decision Making  :

Leadership Planning Ability
Leadership Planning Ability

BCom 3rd Year Corporate Accounting Underwriting Study Material Notes in Hindi

उधमी में नेतृत्व क्षमता , जोखिम , वहन निर्णयन एवं नियोजन की योग्यता

(Leadership, Risk Taking, Decision-Making, and Planning Ability of A Entrepreneur)

शीर्षक

  • नेतृत्व क्षमता का अर्थ एवं परिभाषा (Meaning and Definition of Leadership Ability)
  • नेतृत्व की विशेषताएँ (Characteristics of Leadership)
  • नेतृत्व का महत्व (Importance of Leadership)
  • नेतृत्व के कार्य (Functions of Leadership) > नेतृत्व सम्बन्धी गुण (Leadership Qualities)
  • जोखिम वहन की क्षमता (Ability of Risk Taking)
  • निर्णयन क्षमता (Decision-making Ability)
  • निर्णयन का अर्थ (Meaning of Decision-making)
  • निर्णयन की परिभाषाएँ (Definitions of Decision-making)
  • निर्णयन के लक्षण अथवा विशेषताएँ (Characteristics of Decision-making)
  • निर्णयन की अवधारणा (Concept of Decision-making)
  • निर्णयन की प्रकृति (Nature of Decision-making)
  • निर्णयन के तत्त्व अथवा आधार अथवा घटक (Elements of Criteria or Factors of Decision making)
  • निर्णयन का महत्त्व अथवा महत्ता (Importance of Significance of Decision-making)
  • सही निर्णय पर पहुँचने की विधि (Procedure of arriving at Correct Decision)
  • व्यावसायिक नियोजन (Business Planning)
  • नियोजन का अर्थ एवं परिभाषा (Meaning and Definition of Planning)
  • नियोजन के लक्षण अथवा विशेषताएँ (Characteristics of Planning)
  • नियोजन के उद्देश्य (Objects of Planning)
  • नियोजन की प्रकृति (Nature of Planning)
  • नियोजन का महत्त्व अथवा लाभ (Importance or Advantages of Planning)

Leadership Planning Ability

उद्यमी में नेतृत्व क्षमता होने से कर्मचारियों को प्रेरणा एवं निर्देशन मिलता रहता है। नेता मूल रूप में उद्यमी होता है जिसमें समस्याओं के समाधान के लिए नेतृत्व के गुण विद्यमान होते हैं। प्रवर्तन से लेकर व्यवसाय के संचालन तक उद्यमी को एक सफल नेतृत्वकर्ता के रूप में अपनी भूमिका का निर्वाह करना होता है। प्रत्येक संस्था में कर्मचारियों को कार्य हेतु अभिप्रेरित करने के लिए जिन साधनों का प्रयोग किया जाता है, उनमें से नेतृत्व (Leading or Leadership) भी एक प्रमुख साधन एवं तकनीक । है। प्रबन्ध जगत् में नेतृत्व का अपना ही विशेष स्थान है। एक संस्था की सफलता या असफलता काफी हद तक नेतृत्व की किस्म पर निर्भर करती है। यदि कर्मचारियों की क्रियाओं का सही ढंग से संचालन किया गया और उनका प्रभावी ढंग से मार्गदर्शन किया गया है तो कोई भी कारण ऐसा नहीं होगा जिसकी वजह से संस्था को असफलता का सामना करना पड़े। पीटर एफ. डकर । (Peter F.Drucker) के अनुसार, “प्रबन्धक किसी व्यावसायिक उपक्रम का प्रमुख एवं दुर्लभ प्रसाधन है। अधिकांश प्रतिष्ठानों के असफल होने का प्रमुख कारण अकशल नेतत्व ही है।” ग्लोवर भी कहते हैं कि “अधिकांश व्यावसायिक प्रतिष्ठानों के असफल होने में अकुशल नेतृत्व जितना उत्तरदायी है उतना कोई अन्य कारक नहीं है।” अतः स्पष्ट है कि प्रभावशाली नेतृत्व एक उपक्रम। की सफलता तथा विकास का मूलाधार है।

Leadership Planning Ability

नेतृत्व क्षमता का अर्थ एवं परिभाषा

(Meaning and Definition of Leadership Ability).

नेता मूल रूप में उद्यमी होता है जिसमें समस्याओं के समाधान नेतृत्व के गुण होते हैं। पीटर एफ. ड्रकर नेतृत्व को मानवीय लक्षण मानते हैं जो मानवीय नजर को ऊँचा उठाता है; मानवीय निष्पादन के प्रमाण को बढ़ाता है एवं मानवीय व्यक्तित्व । को सामान्य सीमाओं से ऊपर उठाता है। किसी व्यक्ति के नेतृत्व की स्थिति केवल मानव से सम्बन्धित होती है, वस्तुओं से नहीं। कोई भी संगठन कितना ही सम्पूर्ण अथवा सुसज्जित क्यों न हो, नेतृत्व को प्रतिस्थापित नहीं कर सकता और न ही अधिशासियों को आवश्यक प्रेरणा ही दे सकता है। अनेक ऐसे उदाहरण हैं जिनमें किसी व्यावसायिक उपक्रम के संगठन के नेतृत्व में परिवर्तन करके उसे डूबने से बचाया गया है। यह बात भी ठीक है कि नेतृत्व की आवश्यकता संगठन में प्रत्येक स्तर पर होती है। वास्तव में एक कुशल नेतृत्व किसी व्यावसायिक अथवा औद्योगिक उपक्रम को अन्धेरे से उजाले में ले जाता है एवं पग-पग पर उठने वाली कठिनाइयों पर विजय पाते हुए उसे प्रगति के मार्ग पर ले जाता है। यही कारण है कून्टज एवं ओ’ डोनेल नेतृत्व को एक अतिरिक्त उत्तेजना के रूप में मानते हैं, जो कर्मचारियों की सामान्य काम करने की गति में कुछ अधिक वृद्धि करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इनके अनुसार एक कर्मचारी सामान्यतया अपनी कार्य करने की क्षमता के 60% तक ही कार्य करता है, उसकी शेष 40% क्षमता का उपयोग करने के लिये नेतृत्व की आवश्यकता रहती है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है, कि “नेतृत्व विद्यमान परिस्थितियों में निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु एक व्यक्ति द्वारा अन्य व्यक्तियों अथवा उसके समूह की क्रियाओं को प्रभावित करने एवं उनका मार्गदर्शन करने की प्रक्रिया है।”

Leadership Planning Ability

नेतृत्व की परिभाषायें (Definitions of Leadership)

सामान्य शब्दों में नेतृत्व से तात्पर्य किसी व्यक्ति विशेष के उस गुण से है जिसके माध्यम से वह अन्य व्यक्तियों, अधीनस्थों’ का मार्ग प्रदर्शन करता है। इस प्रकार नेतृत्व का अर्थ एक व्यक्ति द्वारा अन्य व्यक्तियों की क्रियाओं का इस प्रकार निर्देशन। करना है कि निर्धारित लक्ष्यों की पूर्ति सरलता से हो जाए। नेतृत्व की प्रमुख परिभाषाएँ इस प्रकार हैं

1.सामाजिक विज्ञान शब्दकोष (Encyclopaedia of Social Science) के अनुसार, “नेतृत्व से आशय किसा। व्यक्ति एवं समूह के मध्य ऐसे सम्बन्ध हैं जिससे कि सामान्य हित के लिए दोनों परस्पर मिल जाते हैं और अनुयायियों का समूह। उस एक व्यक्ति के निर्देशानुसार ही कार्य करता है।”

2.जार्ज आर. टैरी (George R. Terry) के अनुसार, “नेतृत्व व्यक्तियों को पारस्परिक उद्देश्यों के लिए स्वैच्छिका प्रयत्न करने हेतु प्रभावित करने की योग्यता है।”

3.कन्टज एवं ओडोनेल (Koontzand O’Donell) के अनुसार, “किसी लक्ष्य की प्राप्ति हेत सम्प्रेषण के माध्यम । दारा व्यक्तियों को प्रभावित कर सकने की योग्यता नेतृत्व कहलाती है।”

4. चेस्टर आई. बर्नाड (Chester I. Barnard) के अनुसार, “नेतृत्व से आशय व्यक्ति के व्यवहार के उस गुण से है जिसके द्वारा वह अन्य व्यक्तियों या उनकी क्रियाओं को संगठित प्रयास में मार्गदर्शन करता है।”1

5. हॉज एवं जॉनसन (Hodge and Johnson) के अनुसार, “नेतृत्व मुख्य रूप से औपचारिक एवं अनौपचारिक परिस्थितियों में अन्य व्यक्तियों के व्यवहार और अभिव्यक्तियों के रूप देने की योग्यता है।”

6.फ्रैंकलिन जी. मूरे (Franklin G. Moore) के अनुसार, “नेतृत्व अनुयायियों को नेता की इच्छानुसार क्रियायें करने लिए तैयार करने की योग्यता है।”

7.लिविंगस्टन (Livingston) के अनुसार, “नेतृत्व अन्य व्यक्तियों में किसी सामान्य उद्देश्य को अनुसरण करने की इच्छा को जाग्रत करने की योग्यता है।”

8. ओर्डवे टीड (Ordway Tead) के अनुसार, “नेतृत्व गुणों का वह संयोजन है जिसके होने से कोई भी अन्य से कुछ कराने के योग्य होता है, क्योंकि मुख्यतः उसके प्रभाव द्वारा वे ऐसा करने को तत्पर हो जाते है।”

सारांश रूप में नेतृत्व वहशक्ति है जिसके द्वारा अधीनस्थों या कर्मचारियों के एक समूह से वांछित कार्य स्वेच्छापूर्ण तथा बिना दबाव से कराये जाते हैं।

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नेतृत्व की विशेषताएँ

(Characteristics of Leadership) ,

नेतृत्व की परिभाषाओं के अध्ययन के उपरांत इसकी निम्न विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं

1 अन्य व्यक्तियों द्वारा अनुसरण करना (Following by others) अनुयायियों के अभाव में नेतृत्व की कल्पना ही नहीं की जा सकती है। अतः सफल नेतृत्व के लिए यह जरूरी है कि नेता के निर्देशानुसार चलने वाले लोगों की संख्या पर्याप्त हो, तभी तृतीय पक्ष नेता को मान्यता देगा। जितने अधिक अनुयायी होंगे उतना ही कुशल नेतृत्व समझा जायेगा।

2. नेता का स्वयं क्रियाशील होना (Leader himself should be active)–नेतृत्व की दूसरी महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि नेता को स्वयं कार्यशील होना चाहिए। सफल नेतृत्व के लिए केवल यह आवश्यक नहीं है कि नेता का अनुसरण करने वाले लोगों की संख्या अत्याधिक है, वरन् आवश्यकता तो इस बात की है कि नेता स्वयं संस्था के नियत उद्देश्यों की पूर्ति के लिए निरन्तर प्रयास करता रहे। उसे केवल उपदेशक ही नहीं, वरन् एक कर्मठ कार्यकर्ता भी होना चाहिए।

3. परिस्थितियों का ध्यान रखना (Due regard of circumstances) नेतत्व बहत कछ परिस्थितियों पर भी निर्भर करता है। यह हो सकता है कि एक व्यक्ति अमुक परिस्थिति (जैसे युद्ध अवधि) में तो सफल नेतृत्व प्रदान करे, किन्तु परिवर्तित परिस्थितियों (जैसे शान्तिकाल अथवा मन्दी की अवधि) में उसमें यह क्षमता न रहे।

4.आत्मबोध अथवा स्वयं के गुण-दोषों की जानकारी (Knowledge about the plus and the minus of the self) नेता को स्वयं के विषय में कोई भ्रान्ति नहीं होनी चाहिए। उसे अपने गण-दोषों का सही-सही ज्ञान होना चाहिए।

5. हितों की परस्पर एकता (Unity of interests)—जार्ज आर. टैरी (George R. Terry) के शब्दों में, “सफल नेतृत्व की एक विशेषता है कि नेता तथा उसके अनुयायियों के हित परस्पर एक श्रृंखला में बंधे रहने चाहिए, अन्यथा हितों में विरोध होने से रस्साकसी की आशंका रहती है एवं नेतृत्व भी दुर्बल तथा प्रभावहीन हो जाता है।”

6. श्रेष्ठ आचरण (Exemplary conduct)—बिना श्रेष्ठ नैतिक स्तर के कोई भी व्यक्ति कुशल नेता नहीं बन सकता है। सभी अनुयायी यह आशा करते हैं कि उनका नेता निज का उदाहरण प्रस्तत करेगा। वे यह चाहते हैं कि उनका नेता केवल ‘लीडर’ ही नहीं वरन् एक ऐसा आदर्श व्यक्ति हो जो विविध गुणों की खान हो तथा जिसके चरित्र व आचरण का विश्वासपात्र हो सकता है। एक सफल नेता का निर्धारण इस बात से होता है कि वह क्या है, कौन से कार्य करता है तथा किस प्रकार आचरण है ? __

7. यथार्थवादी दृष्टिकोण (Realistic view)–नेता का मानवीय आचरण के प्रति यथार्थवादी दृष्टिकोण होना। चाहिए।

8.नेतत्व एकगतिशील प्रक्रिया है (Leadership isadynamic process) नेतृत्व की प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है। केवल परिवर्तन के समय ही नहीं वरन बाद में भी इसकी आवश्यकता पड़ती है कुशल नेता (प्रबन्धक) नवीन तकनीकों को अपनाते हैं तथा उनके सम्बन्ध में अधीनस्थों को आवश्यक सूचना, प्रशिक्षण व निर्देशन देते रहते हैं। इस प्रकार जब तक संगठन चलता रहता है, तब तक नेतृत्व की आवश्यकता रहती है।

9.नेतृत्व अनुसरणकर्ताओं का आचरण भी प्रतिबिम्बित करता है (Leadership reflects the conduct of followers also)—व्यापक दृष्टि के अन्तर्गत नेता के गुणों तथा उसकी विशेषताओं का ही समावेश नहीं होता, वरन इसमें (नेतृत्व में) अनुसरणकर्ताओं के चरित्र व आचरण, उसकी आवश्यकताएं तथा व्यक्तिगत विशेषताएं एवं समस्त संगठन का आधारभूत उद्देश्य, परम्पराएं तथा निष्पादित कार्य की प्रकृति भी प्रतिबिम्बित होती है। किसी संस्था के सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक लक्षण का अनुमान भी उसके नेतृत्व से लगाया जा सकता है।

10. सभी क्षेत्रों में नेतृत्व की आवश्यकता होती है (Leadership is required in all spheres)भी क्षेत्रों में नेतृत्व की जरूरत होती है। इसका क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है। सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, वाणिज्यिक, धार्मिक आदि सभी प्रकार की क्रियाओं के कुशल संचालन के लिए सफल नेतृत्व किसी व्यक्ति की साख या ख्याति से भिन्न है। एक प्रसिद्ध डॉक्टर या वकील वह है जो अपने विशेष कार्यक्षेत्र में अन्य सब लोगों से बढ़कर हो लेकिन वह मनुष्यों का नेता नहीं है। नेतृत्व करना वाक्यांश के दो अर्थ हैं प्रथम अर्थ है सबसे आगे रहना, सबसे अधिक प्रगति करना, सब में चमकना और दूसरा अर्थ है अन्य लोगों का मार्गदर्शन करना, शासन करना, आदेश देना। प्रस्तुत विषय की सीमा में नेतुत्व का आशय इस दूसरे अर्थ से ही है।

11. पक्षीय सम्बन्ध (Two way relationship) नेतृत्व नेता तथा अनुयायियों के बीच पारस्परिक सम्बन्धों पर निर्भर करता है। नेता न केवल अपने अनुयायियों को प्रभावित करता है बल्कि उनके कार्यों से स्वयं भी प्रभावित होता है।

इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि “नेतृत्व किसी व्यक्ति विशेष का वह गुण या योग्यता है जिसके द्वारा वह अपने अनुयायियों का निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु मार्ग-दर्शन करता है एवं उन्हें एक निश्चित ढंग से कार्य करने के लिए उचित एवं नीति द्वारा प्रेरित करता है।

Leadership Planning Ability

नेतृत्व का महत्त्व

(Importance of Leadership)

प्रत्येक संगठन में जहाँ निर्धारित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए एक से अधिक व्यक्ति कार्य करते हैं, वहाँ नेतृत्व की आवश्यकता एवं महत्त्व को भुलाया नहीं जा सकता। आज की परिवर्तित परिस्थितियों में चाहे संगठन धार्मिक हो, सामाजिक हो, आर्थिक हो, राजनीतिक हो या व्यावसयिक हो प्रत्येक में नेतृत्व का विशेष महत्त्व है । योग्य एवं अनुभवी नेताओं ने ही विश्व के इतिहास का बनाया है। इतिहास के पृष्ठ उलटने से विदित होता है कि नेपोलियन बोनापार्ट (Napoleon Bonapart), विन्स्टन चर्चिल (Winston Churchil), जॉर्ज वाशिंगटन (George Washington) और महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) आदि नेताओं ने अपने कुशल नेतृत्व द्वारा जनता का मार्गदर्शन किया। मार्च 1977 में हमारे देश में हए सत्ता के परिवर्तन में भी स्व. श्री जयप्रकाश नारायण का नेतृत्व विश्वविख्यात रहा है, इस प्रकार यह स्पष्ट है कि निर्धारित उद्देश्यों की पूर्ति हेतु समूह को अभिप्ररित एवं निर्देशित करने के लिए नेता का होना परम आवश्यक है।

प्रबन्ध जगत् में नेतृत्व एक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। एक संस्था की सफलता या असफलता बहुत हद तक नेतत्व की किस्म पर निर्भर करती है। यदि कर्मचारियों की क्रियाओं का सही ढंग से संचालन किया गया और उनका प्रभावी ढंग से मार्गदर्शन किया गया तो संस्था सफलता सुनिश्चित है । पीटर एफ.डूकर (Peter F. Drucker) का मानना है कि अधिकाश। व्यावसायिक संगठनों के असफल होने का प्रमुख कारण अकुशल नेतृत्व ही है।” जॉन जी. ग्लोवर (John G. Glover) के। अनसार, “अधिकांश व्यावसायिक प्रतिष्ठानों के असफल होने में अकुशल नेतृत्व जितना उत्तरदायी है उतना कोई अन्य कारण उत्तरदायी नहीं है।” नेतृत्व का महत्त्व इसलिए भी अधिक है कि यह संगठनात्मक व्यवहार का एक महत्त्वपूर्ण सुधारक है। अतः यह ठीक ही कहा गया है कि अभी तक इसके स्थानापन्न (Substitue) का विकास नहीं हुआ है। नेतृत्व की आवश्यकता एवं महत्त्व को हम इस प्रकार और अधिक स्पष्ट कर सकते हैं

1.सामूहिक क्रियाओं का संचालन करने हेतु (To organise group activities) नेतृत्व की आवश्यकता के महत्त्व के पक्ष में सबसे प्रबल तर्क यह प्रस्तुत किया जाता है कि जहाँ भी निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति एक से अधिक व्यक्तियों द्वारा की जाएगी, वहाँ नेतृत्व की आवश्यकता होगी। लक्ष्यों की पूर्ति हेतु की जाने वाली विभिन्न क्रियाओं को एक सूत्र में पिरोने का कार्य नेता ही करता है। यदि नेता द्वारा समूह की क्रियाओं का संचालन न किया जाये तो समूह अव्यवस्थित हो जाता है। अव्यवस्थित समह के सदस्यों द्वारा की गई क्रियाएं सामूहिक उद्देश्यों की पूर्ति में सफल नहीं होती। अतः सामूहिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए सामहिक क्रियाओं के कुशल संचालन हेतु नेतृत्व का अत्यधिक महत्त्व है।

2. सहयोग प्राप्त करने हेतु (To obtain co-operation) किसी ने ठीक ही कहा है कि सहयोग प्राप्त करने की आधारशिला भी नेतृत्व ही है। संस्था के निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए कर्मचारियों का हार्दिक सहयोग अति आवश्यक है। इसके अभाव में कर्मचारियों में मनमुटाव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है और वे छोटी-छोटी बातों पर आपस में लड़ने लग जाते हैं, फलतः औद्योगिक अशान्ति फैलने लग जाती है। कुशल नेता ही विभिन्न साधनों के माध्यम से अपने सहयोगियों एवं अनुयायियों का सहयोग प्राप्त कर सकता है। एक नेता अपने मैत्रीपूर्ण व्यवहार, प्रभावी सम्प्रेषण व्यवस्था, कार्य की मान्यता, शिकायतों का शीघ्र समाधान और आदर्श आचरण द्वारा अधीनस्थों का हार्दिक एवं स्वैच्छिक सहयोग प्राप्त करने में असफल होता है।

3. अधिकारी वर्ग को सुविधा प्रदान करने हेत (Toprovide facilities to the authorities) उपर्युक्त विवेचन से यह नहीं समझ लेना चाहिए के नेतृत्व की आवश्यकता केवल कार्यकारी वर्ग को ही होती है। अधिकारी वर्ग को आवश्यक सुविधा प्रदान करने हेतु भी नेतृत्व की आवश्यकता होती है। नेतृत्व अधिकारी-वर्ग को ऐसी सुविधा प्रदान करता है जिससे संस्था का कार्य बिना किसी बाधा के निर्बाध गति से चलता रहता है। नेता में कुशल संचालन के सभी गुण होने के कारण अनुयायियों में परिश्रम करने की भावना जाग्रत हो जाती है। जिससे संस्था के कार्य संचालन में कोई बाधा नहीं आती। इस प्रकार नेतृत्व कार्य संचालन में आने वाली बाधाओं को दूर करके अधिकारी वर्ग की सुविधा प्रदान करता है।

4. अभिप्रेरणा का स्रोत (Source of motivation) नेतृत्व वह प्रेरक शक्ति है जो समूह के सभी लोगों का संस्था के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए प्रेरणा प्रदान करती है। प्रबन्ध वास्तव में अन्य लोगों से काम लेने की कला है और बिना कुशल नेतृत्व के यह सम्भव नहीं होता।

5.औपचारिक तथा अनौपचारिक संगठन में एकीकरण (Integration between formal and informal organisation) एक सुयोग्य नेतृत्व संस्था के औपचारिक संगठन तथा कर्मचारियों के अनौपचारिक संगठन के बीच समन्वय स्थापित करके उन्हें रचनात्मक सहयोग की ओर प्रेरित करता है और इस प्रकार संस्था और कर्मचारियों के बीच हित-एकता (Community of interests) कायम करने में मदद देता है

6. प्रबन्धक को सामाजिक प्रक्रिया के रूप में परिवर्तित करने हेतु (To Change management into a social process)—कुशल नेतृत्व के द्वारा प्रबन्ध एक सामाजिक प्रक्रिया के रूप में परिवर्तित हो जाता है। प्रबन्ध वास्तव में अन्य व्यक्तियों के साथ मिलकर कार्य करने और कराने की युक्ति ही है। अत: एक कुशल नेता ही एक कुशल प्रबन्धक हो सकता है। प्रबन्धक अपने मार्गदर्शन और सहयोग से ही कर्मचारियों को निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति की ओर अग्रसर करते हैं। इस अतिरिक्त प्रबन्ध के प्रत्येक स्तर पर भी नेतृत्व की आवश्यकता होती है। कुशल नेतृत्व से जब कर्मचारी अपने व्यक्तिगत हितों का बलिदान करके संस्था के हितों की रक्षा करने को तत्पर हो जाते हैं तो प्रबन्धक भी कर्मचारियों को आवश्यक सुविधाएँ प्रदान करने के लिए सहर्ष तैयार हो जाते हैं।

7. व्यवसाय की सफलता हेतु (To attain success)—इसमें कोई सन्देह नहीं है कि नेतृत्व की किस्म ही सामान्यतः एवं व्यावसायिक उपक्रम की सफलता और असफलता को निश्चित करती है। पीटर एफ.डकर (Peter F. Drucker) के अनुसार, “व्यावसायिक नेता किसी उपक्रम के आधारभूत और दुर्लभ प्रसाधन हैं। अनेक व्यावसायिक उपक्रमों की असफलता का मुख्य कारण अप्रभावी नेतृत्व ही है।” इस प्रकार ग्लोवर (Glover) ने भी अनेक व्यावसायिक प्रतिष्ठानों की असफलता का। मुख्य कारण अकशल नेतृत्व को ही माना है। अत: स्पष्ट है कि व्यवसाय की सफलता के लिए कशल नेतत्व की अति आवश्यकता है।

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नेतृत्व के कार्य

(Functions of Leadership)

किसी व्यावसायिक संगठन में नेता के कार्यों के विषय में डालनई मैकफरलैण्ड (Dalton E. McFarland) | लिखा है कि औद्योगिक नेता से अग्रलिखित कार्यों की आशा की जाती है।

(i) नीति तथा कार्यविधि निर्धारण करना;

(ii) समूह के लिए लक्ष्यों का निर्धारण करना तथा योजना बनाना;

(iii) अपने अनुसरणकर्ताओं के लिए प्रसाधन (resource) होना;

(iv) सक्षम कार्यकर्ताओं का एक समूह तैयार करना तथा उसको सदैव बनाये रखना;

(v) अपने अधीनस्थ लोगों का मार्गदर्शन करना; तथा

(iv) कुल निष्पादित कार्य के प्रकाश में लोगों के आचरण का मूल्यांकन करना।

किसी भी संगठन को कार्यक्षम बनाने के लिए एक नेता कई प्रकार के कार्य करता है। इन कार्यों को हम मूल रूप से निम्नलिखित भागों में बाँट सकते हैं

1 कार्यवाही का मार्गदर्शन तथा समारम्भ करना (To guide and initiate action) सर्वप्रथम, एक नेता अपने अधीनस्थों को आदेश व निर्देश देकर संगठन के कार्य का समारम्भ है, उन्हें अपना-अपना काम पूर्ण कुशलता से कर पाने के लिए आवश्यक मार्गदर्शन (Guidance) तथा अभिप्रेरणा (Motivation) प्रदान करता है और अपनी योग्यता, पहल तथा सत्यनिष्ठता से उनका सहयोग प्राप्त करता है। साथ ही, वह संस्था के उद्देश्यों को परिभाषित (Interpretation of objectives) करता है और उसके अनुसार अपने अधीनस्थों के प्रयासों को दिशा-निर्देश (direction) प्रदान करता है।

2. संगठन में अधीनस्थों के सहयोग को उच्च स्तर पर कायम रखना (To maintain Co-operation of the followers at a high level) नेता का मुख्य दायित्व अपने अधीनस्थों को इस प्रकार प्रेरित करना है कि वे संस्था के उद्देश्यों की पूर्ति में अपना अधिकतम योगदान दें। लेकिन इसके लिए कई बातें आवश्यक हैं। सर्वप्रथम, एक नेता को अपने अधीनस्थों की भावनाओं व समस्याओं को सतर्कता से समझाना चाहिए और प्रबन्ध संचालन के कार्य में उनके सुझाव तथा परामर्श का सम्मान करना चाहिए। द्वितीय, उसे अपने अधीनस्थों की व्यक्तिगत व पारिवारिक आकस्मिक कठिनाइयों में सहानुभूति व शुभेच्छा (Sympathy and goodwill) का परिचय देना चाहिए, योग्य कर्मचारियों की पदोन्नति व वेतन वृद्धि करनी चाहिए तथा सबके साथ महत्त्वपूर्ण व्यवहार करना चाहिए। अन्त में संस्था की कुशलता को कायम रखने के लिए उसे संगठन में अनुशासन (discipline) कायम रखना चाहिए और नियमों व नीतियों का उल्लंघन करने वाले सदस्यों के विरुद्ध आवश्यक कार्यवाही करनी चाहिए।

3. अधीनस्थों तथा संस्था के बीच एवं स्वयं अधीनस्थों के बीच मध्यस्थता करना (To mediate between the organisation and subordinates and between subordinates)—प्रत्येक अधीनस्थों का संस्था में, अपने हितों और अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कार्य करता है। इसी प्रकार प्रत्येक संस्था इन अधीनस्थों का सहयोग स्वयं अपने उद्देश्यों की पूर्ति करने के लिए प्राप्त करती है। नेता का कर्त्तव्य है कि वह अधीनस्थों और संस्था के हितों में एकीकरण पैदा करे तथा उनके बीच विरोधाभास होने पर मध्यस्थता करे जिससे सहयोग के वातावरण को बनाया व कायम रखा जा सके, स्वयं अधीनस्थों के बीच मतभेद होने पर भी नेता उसे दूर करने का प्रयास करता है जिससे सहयोग की भावना को ठेस न आये। अधीनस्थों और संस्था के हितों में एकीकरण होने से निष्ठा और प्रेरणा को प्रोत्साहन मिलता है।

4. अनुशासन कायम रखना (Establish discipline) अनुशासन वह शक्ति है जो किसी व्यक्ति या समूह को नियम, नियन्त्रण एवं कार्यविधियों का, जो किसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए आवश्यक समझी जाती है, पालन करने के लिए प्रेरित करती है। वह शक्ति है या शक्ति का भय है जो व्यक्तियों और समूहों को सामूहिक लक्ष्यों को नष्ट करने वाले कार्य-कलापों को दूर रखता है। दण्ड व प्रतिबन्ध लगाकर भी सामूहिक नियमों का उल्लंघन रोका जा सकता है। एक नेता को चाहिए कि एक-सा व्यवहार रखे, तभी वह अनुशासन की तकनीक का प्रयोग करने में सफल होगा। जब अधीन कर्मचारी सही हो तो उसकी प्रशंसा करनी चाहिए और जब तक वह त्रुटि न करे उसे दण्ड नहीं देना चाहिए।

5. समन्वय एवं निर्देश (Co-ordination and Direction)—वांछित कार्य करने के लिए एक सफल नेता को चाहिए कि वह अपने सहकार्यनेताओं के कार्य-कलापों का आदेशों एवं निर्देशों द्वारा समन्वय करे। ये आदेश निश्चित, स्पष्ट एवं लचीले होने चाहिए। निश्चित आदेश का आशय यह है कि निर्देश एक मौखिक आदेश के रूप में उच्चाधिकारी द्वारा न दिया जाये. वरन वह उस सम्वादवाहन व्यवस्था का एक अग होना चाहिए जो नियोजित लक्ष्यों की पर्ति के लिए स्थापित हो गयी है। ‘कर्मयत आदेश’ से तात्पर्य उस निर्देश से है, जो विभिन्न क्रियाओं को क्रमबद्ध कर देता है और यह निर्दिष्ट करता है। कि कौन-सी क्रिया की जायेगी। ‘लचीला आदेश’ वह है जिसमें आदेशित व्यक्ति सौंपे गए कार्य को करने की विधि गाय

औरोसा करने से पर्व-निर्धारित साधनों की सहायता करता है। ‘स्पष्ट आदेश’ वह है जिसमें नेता लक्ष्य निर्धारित कर देता है तथा विस्तत बातें कार्यकत्ता के विकल्प कर छोड़ दा जाती है। आदेशों का पालन तभी हो सकता है जब से प्राप्त हो जाएं और समझ भी लिए जाएं। यदि उचित परिणाम प्राप्त करने हैं, तो प्राप्तकर्ता को यह मालूम होना चाहिए कि उससे क्या आशा की जाती है, वह केसे कार्य करेगा, कार्य कब तक समाप्त कर लेगा आदि। ऐसे आदेश नहीं दिये जाएं जो पूरे नहीं किया जा सकें।

6. आचरण का प्रतिनिधित्व करना (To represent the enterprise) एक नेता निश्चित रूप से उपक्रम का प्रतिनिधित्व करता है क्योंकि वह संस्था की नीतियों तथा उद्देश्यों को बाहरी व्यक्तियों तथा कर्मचारियों को सूचित करता है।

7. उपक्रम का प्रशासन करना (To administer the organisation) एक नेता उपक्रम का प्रशासन भी करता है क्योंकि वह आवश्यक आदेशों को सम्बन्धित सहयोगियों तक पहुँचाता है।

8. संगठन को संस्थागत अस्तित्व को कायम रखना (To maintain the institutional integrity of the organisation) एक नेता का यह दायित्व है कि वह संस्था के संस्थागत अस्तित्व को कायम रखे ताकि बाहरी दबाव या आन्तरिक उथल-पुथल इसमें किसी प्रकार की रुकावट न पैदा कर सके।

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नेतृत्व सम्बन्धी गुण

(Leaderships Qualities)

पीटर एफ. कर (Peter F. Drucker) एवं जॉन जी. ग्लोवर (John G. Glover) आदि विद्वानों का मानना है कि किसी व्यावसायिक प्रतिष्ठान की सफलता या असफलता नेतृत्व की किस्म पर निर्भर करती है। अतः प्रभावी नेतृत्व ही व्यवसाय की सफलता की कामना को पूरा करने में समर्थ हो सकता है। इसलिए एक नेता में अनेक गुणों का होना आवश्यक है। विभिन्न विद्वानों के अनुसार नेता में निम्नलिखित गुण होने चाहिए ।

जार्ज आर. टैरी (George R. Terry) के अनुसार एक नेता में निम्नलिखित गुणों का होना आवश्यक है।

1 शक्ति (Energy),

2. भावात्मक स्थायित्वता (Emotional Stability),

3. मानवीय सम्बन्धों का ज्ञान (Knowledge of Human Relations),

4. व्यक्तिगत अभिप्रेरणा (Personal Motivation),

5. सम्प्रेषण कौशल (Communicative Skill),

6. शिक्षण योग्यता (Teaching Ability),

7. सामाजिक कौशल (Social Skill), एवं

8. तकनीकी सामर्थ्य (Technical Competence)

Leadership Planning Ability

हेनरी फेयोल (Henry Fayol) के अनुसार एक नेता में निम्नलिखित गुण होने चाहिए

1 स्वास्थ्य एवं शारीरिक क्षमता (Health and Physical Fitness),

2.योग्यता एवं मानसिक सन्तुलन (Intelligence and Mental Vigor),

3. नैतिक गुण  (Moral Qualities),

4. ज्ञान (Knowledge), एवं

5. प्रबन्धकीय योग्यता (Managerial Ability)।

सी. एल. उर्विक (C. L. Urwick) ने एक नेता में निम्नलिखित गुणों का होना आवश्यक माना है

1 साहस (Courage),

2. इच्छा शक्ति (Will Power),

3. मस्तिष्क की लोचशीलता (Flexibility of mind),

4. ज्ञान (Knowledge), एवं

5. चारित्रिक बल (Integrity)

चेस्टर आई. बनार्ड (Chester I. Barnard) के अनसार एक नेता में निम्नलिखित गुण हान चाहिए।

1 निर्णायकता (Decisiveness),

2. उत्तरदायित्व (Responsibility),

3. अनुभूति (Persuasiveness),

4. बौद्धिक क्षमता (Intellectual Capacity),

5. स्फूर्ति एवं सहनशीलता (Vitality and Endurance),

6. सामाजिक चेतना (Social Consciousness), एवं

7. अच्छा व्यक्तित्व (Good Personality)

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ओर्डवे टीड (Ordway Tead) के अनुसार नेता में निम्नलिखित गुण होने चाहिए

1 शारीरिक एवं स्नायविक शक्ति (Physical and Nervous energy),

2. उद्देश्य एवं निर्देशन की भावना (Sense of Purpose and Direction),

3. उत्साह (Enthusiasm),

4. मैत्रीभाव एवं स्नेह (Friendliness and Affection),

5. तकनीकी कुशलता (Technical Mastery),

6. बौद्धिक ज्ञान (Intellectual Knowledge),

7. चारित्रिक बल (Integrity), एवं

8. शिक्षण चातुर्य (Teaching Skill)

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नेता के गुणों के सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों के विचारों का अध्ययन करने के पश्चात् हम कह सकते हैं कि नेता में निम्नलिखित गुणों का होना आवश्यक है

1 निर्णायकता (Decisiveness) यह गुण नेता के निर्णय करने की क्षमता से सम्बन्ध रखता है। इसके कारण सही समय पर सही कार्य होना सम्भव होता है। निर्णय की असफलता नैतिक साहस को दुर्बल कर देती है और कभी-कभी तो यह संस्था की कुशलता को बहुत अधिक हानि पहुँचाती है।

2. उत्तरदायित्व (Responsibility)-बर्नार्ड के मतानुसार, “उत्तरदायित्व का तात्पर्य उस भावनात्मक परिस्थिति से है जो एक व्यक्ति को, जबकि वह अपने किसी नैतिक कर्त्तव्य को पूरा नहीं करे, तीव्र असन्तोष देती है।” चूँकि नेता ऐसे सब असन्तोषों से बचना चाहेगा, इसलिए उसका व्यवहार स्थायी होता है और उसके अनुसरणकर्ताओं द्वारा अनुमान किया जा सकता है। यह नेतृत्व का एक महत्त्वपूर्ण गुण है।

3. योग्यता एवं तकनीकी सामर्थ्य (Intelligence and technical competence) एक नेता में उसके अनुयायियों से अधिक योग्यता एवं तकनीकी सामर्थ्य होनी चाहिए। योग्य नेता जहाँ एक ओर संगठन में उत्पन्न समस्याओं को समझकर उपयुक्त हल प्रस्तुत कर सकता है, वहीं दूसरी ओर अनुयायियों का अच्छा मार्गदर्शन भी कर सकता है। इसके अतिरिक्त नेता प्रबन्धकीय कार्य जैसे नियोजन, संगठन, समन्वय, अभिप्रेरणा एवं नियन्त्रण आदि के निष्पादन में भी योग्य होना चाहिए। नेता में पर्याप्त तकनीकी सामर्थ्य भी होनी चाहिए। उसे तकनीकी, आर्थिक, वैधानिक, वित्तीय सभी का पर्याप्त ज्ञान होना चाहिए।

4. स्फूर्ति एवं सहिष्णुता (Vitality and endurance) एक कुशल नेता में स्फूर्ति एवं सहिष्णुता का होना अति आवश्यक है। स्फूर्ति से आशय चैतन्य या सजगता से है। सहिष्णुता या सहनशीलता से आशय संकटकालीन परिस्थितियों में धैर्य से काम करने से है। एक नेता को सदैव भावी परिस्थितियों से सजग रहना चाहिए और आपत्तियों एवं कठिनाइयों में अपना धैर्य नहीं खोना चाहिए। सजग एवं धैर्यवान नेता ही समस्याओं पर निरन्तर विचार कर सकता है. उनका प्रभावी समाधान ढंढ सकता है और अनुयायियों का उचित मार्गदर्शन कर सकता है।

5. आत्म-विश्वास (Self-confidence)—एक कुशल नेता में आत्म-विश्वास अवश्य होना चाहिए। यह आत्म-विश्वास अय तथ्यों के अतिरिक्त आत्म-ज्ञान (Self-knowledge) पर आधारित होना चाहिए। एक नेता जिसमें आत्म-विश्वास होता विश्वास जीतने में भी सफल होता है। एल. एफ. उर्विक (L. F.urwick) के अनुसार, “अनुयायियों का वाराप्त करने के लिए नेता में आत्म-विश्वास होना चाहिए।” अत: यह ठीक ही कहा गया है कि जिस व्यक्ति में स्वयं आत्म-विश्वास नहीं होता वह दूसरों का विश्वास भी नहीं जीत सकता।

6. अनुभूति (Persuaniveness) यह एक नेता का महत्त्वपूर्ण गुण है। इस गुण के अभाव में अन्य सब गण प्रभावहीन हो जाते हैं। बर्नार्ड का कहना है कि “अनुभूति क अन्तगत अन्य लोगों के दृष्टिकोण हितों तथा परिस्थितियों को समझाना होता है

7. साहस (Courage) उर्विक (Urwick) ने एक नेता में जिन गुणों का होना आवश्यक माना है उसमें ‘साहस’ सबसे महत्त्वपूर्ण है। इसके अनुसार एक नेता में जिन क्रियाओं को वह सही मानता है, उन्हें करने का नैतिक साहस होना चाहिए। और निर्णय लेने एवं उन्हें लागू करने में दृढ़ता होनी चाहिए। साहसी नेता ही सत्यता के पथ से विचलित नहीं होता और अपने चापलस अनुयायियों के चंगुल में नहीं फंसता। साहसी नेता के अनुयायी भी उसका अनुसरण करके निडरता से अपनी क्रियाओं का निष्पादन करते हैं। अत: नेता में नैतिक साहस का होना आवश्यक है।

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8. सम्प्रेषण की योग्यता (Ability to communicate) एक नेता का मुख्य कार्य अपने अनुयायियों एवं दूसरे व्यक्तियों को सूचनाओं, आदेशों, विचारों आदि का सम्प्रेषण करना होता है। अत: उसमें अनुयायियों को मुख्यतया निर्देश देना और सामान्य जनता को आवश्यक सूचनाएं प्रदान करने की योग्यता होनी चाहिए। नेता द्वारा अनुयायियों को निर्देशन देना ही। पर्याप्त नहीं, इन निर्देशों का अनुयायियों द्वारा उनका पालन दोनों ही नेता की सम्प्रेषण-योग्यता में सम्मिलित हैं।

9. उत्तेजित करने की योग्यता (Ability to inspire)—एक नेता में अपने अनुयायियों को कार्य हेतु उत्तेजित करने की योग्यता होनी चाहिए। योग्य एवं अनुभवी नेता निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु अनुयायियों की रुचियों, विचारों, भावनाओं, आवश्यकताओं आदि का अध्ययन करके और अनुयायियों को आवश्यक मार्गदर्शन प्रदान करके कार्य हेतु प्रेरित कर सकता है। इस प्रकार जो नेता अनुयायियों पर प्रभाव रखता है, वह अनुयायियों को उत्तेजित करने में सफल होता है।

10. मानसिक क्षमता (Mental capacity)—एक कुशल नेता में विकसित मानसिक क्षमता का होना आवश्यक है। आज विश्व के सभी देशों में सामाजिक, आर्थिक परिवर्तन तीव्र गति से हो रहे हैं। अतः नेता का मस्तिष्क इतना लोचशील एवं सक्षम होना चाहिए कि वह परिवर्तित परिस्थितियों के अनुसार अपने विचारों में परिवर्तन कर ले। ऐसा नेता कभी भी सफल सिद्ध नहीं होता जो लकीर का फकीर होता है, मानसिक दृष्टि से विकसित एवं खुले विचार रखने वाला नेता ही द्वेष रहित परिवर्तित परिस्थितियों के अनुकूल सभी को स्वीकार योग्य निर्णय ले सकता है।

11. अन्य गुण (Other aualities)_उपर्यक्त के अतिरिक्त एक सफल नेता के अन्य गण भी निम्नलिखित हैं। (i) सम्मान, (ii) हास्य, (iii) अन्य लोगों के लिए स्नेह, (iv) प्रयत्नशीलता, (v) रुचि, (vi) प्रभावशीलता, (vii) पहलपन, . (viii) संगठन दक्षता, (ix) लोगों को समझने की शक्ति, (x) स्वामिभक्ति, (xi) वैयक्तिक चाल-चलन, (xii) सिखाने की योग्यता, एवं (xiii) शुभचिन्तक, (xiv) चातुर्य इत्यादि।

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जोखिम वहन की क्षमता

(Ability of Risk Taking)

उद्यमी का जन्म ही जोखिमों में होता है, वह जीवनभर जोखिमें उठाता रहता है और अन्त में जोखिमों में ही उसकी मृत्यु हो जाती है। व्यवसाय तथा जोखिम इन दोनों का चोली-दामन का सम्बन्ध है। जोखिमों के बिना व्यवसाय की कल्पना करना लगभग असम्भव है। वास्तव में सन्तुलित व व्यावहारिक जोखिमों को वहन करना ही उद्यमी होने का लक्षण है। उद्यमिता पर आधारित व्यवसाय में जोखिम का स्थान महत्त्वपूर्ण है। हरबिनसन (Harbinson) के अनुसार, “नेतृत्व अथवा उद्यमी का कार्य जोखिम वहन करना है। जोखिम के बिना व्यवसाय की कल्पना तक नहीं की जा सकती।” वास्तव में जोखिम वहन करना नेतृत्व अथवा उद्यमी की प्रमुख विशेषता है जो उसको प्रबन्धक से पृथक् करती है। यदि गौर से सोचा जाये तो नेता अथवा उद्यमी एक प्रबन्धक ही है, परन्त नेता अथवा उद्यमी जोखिम वहन करता है, जबकि प्रबन्धक जोखिमों से सर्वथा मक्त है। यदि एक व्यक्ति जोखिम वहन नहीं करता तो उसे नेता अथवा उद्यमी नहीं कहा जा सकता। व्यवसाय में पग-पग पर ज्ञात व अज्ञात जोखिमें उठानी पड़ती हैं। जैसे उत्पादों की बिक्री, माँग उपकरणों एवं मशीनों की कार्य दक्षता, कच्चे माल की आपूर्ति तथा क्रयमूल्य एवं अन्य लागतो के बारे में उद्यमी कभी पूरी तरह निश्चिन्त नहीं हो सकता। ऐसी स्थिति में उसे कछ अनिश्चितता के अन्तर्गत निर्णय लेना पड़ता है। अत: उसे जोखिम उठाने का कौशल एवं क्षमता का विकास करना होगा। इसके लिए उसे समझना होगा कि वह न तो ऐसे परम्परागत कार्यक्षेत्रों में कार्य करता है जिनमें आवश्यक ज्ञान एवं कौशल के सभी आयाम पर्णत: नियन्त्रित एवं निश्चित हों और न उसे जुए (Gamble) के समान पूर्णतः अनियन्त्रित व अनिश्चित आयामों के कार्य क्षेत्र में कार्य करना होगा। उद्यमी की स्थिति इन दो सीमान्तों के बीच में होती है जिसे हम सामान्य रूप से सामान्य तथा अनमानित जोखिम कहते हैं एवं जिसमें कुछ अपना। प्रयास (Efforts) तथा कुछ संयोगिकता अथवा सम्भावना (Chanea) निहित होती है। उद्यमी को जोखिम उठाने की क्षमता व कौशल का अर्जन करना आवश्यक होता है।

व्यावसायिक जोखिम का अर्थ (Meaning of Business Risk)-भविष्य अनिश्चित है इसलिए भविष्य के विषय में की गई भविष्यवाणी पूर्णरूपेण या आंशिक रूप से सत्य भी हो सकती है और नहीं भी हो सकती है। सभी व्यावसायिक क्रियाएँ भविष्य के लिए की जाती हैं इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि व्यावसायिक घटनाओं के सम्बन्ध में हमारे सभी अनुमान पूर्णरूपेण या आंशिक रूप से सत्य ही निकलेंगे। व्यवसाय में जो माल अवश्य ही बिक जाएगा, वह बिक भी सकता है और नहीं भी बिक सकता। इसी प्रकार जो अच्छे कर्मचारी हमारे यहाँ काम कर रहे हैं उनके विषय में भी कुछ नहीं कहा जा सकता। कि वे काम करते ही रहेंगे अथवा किसी दूसरे व्यवसाय में चले जायेंगे और आज जो कच्चे माल का कोटा हमें मिल रहा है, हो सकता है कि सरकार की नीति में परिवर्तन के कारण वह कल भी मिलेगा अथवा नहीं मिलेगा। अत: व्यावसायिक क्रियाएँ। अनिश्चित हैं इसलिए उनसे होने वाला लाभ भी अनिश्चित है। व्यवसाय में लाभ की अनिश्चितता (Uncertainty of profit or chance of loss) ही व्यावसायिक जोखिम है। व्यावसायिक जोखिम का एक पहलू यह भी हो सकता है कि उसे लाभ के स्थान पर हानि हो जाए। प्रसिद्ध विद्वान व्हीलर (Wheeler) के अनुसार, “जोखिम हानि का अवसर है अत: यह किसी प्रतिकूल भावी घटना के घटित होने की संभावना है।”1

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व्यावसायिक जोखिमों की प्रकृति (Nature of Business Risk)—व्यावसायिक जोखिमों की प्रकृति के सम्बन्ध में निम्नलिखित बातों का उल्लेख करना आवश्यक है

(1) जोखिम अनिश्चितताओं के कारण (Fundamental cause of risk are uncertainties) सभी व्यावसायिक जोखिम मानवीय अनिश्चितताओं, व्यावसायिक अनिश्चितताओं अथवा प्राकृतिक अनिश्चितताओं के कारण उत्पन्न होते हैं। चोरी, हड़ताल एवं दुर्घटना मानवीय अनिश्चिततायें हैं, उत्पादन के क्षेत्र में परिवर्तन, वितरण के क्षेत्र में परिवर्तन, मूल्यों में उतार-चढ़ाव, माँग के विषय में गलत अनुमान और सहकारी नीतियों में आमूल-चूल परिवर्तन आदि व्यावसायिक अनिश्चितताएँ हैं, और महामारी, भूकम्प, सूखा, हिमपात आदि जलवृष्टि प्राकृतिक अनिश्चितताएँ हैं।

(2) जोखिम से बचाव नहीं (Risk is Unavoidable) व्यवसाय में कोई भी व्यक्ति जोखिम उठाने से नहीं बच सकता। व्यावसायिक जोखिम को केवल कम कर सकता है उन्हें किसी प्रकार पूर्ण रूप से समाप्त नहीं कर सकता। भविष्य अनिश्चित है और सभी व्यावसायिक क्रियाएँ भविष्य के लिए की जाती हैं इसलिए कोई भी व्यवसायी जोखिम उठाने से नहीं बच सकता।

(3) जोखिम की मात्रा व्यवसाय के आधार पर निर्भर (Degree of risk varies with the size of the firm) जोखिम की मात्रा व्यवसाय के आधार पर निर्भर है, अत: व्यवसाय जितना छोटा होगा उसमें जोखिम उतनी ही कम होती है और व्यवसाय जितना बड़ा होता है उसमें जोखिम उतना ही अधिक होता है।

(4) व्यवसायकी प्रकृति पर जोखिमकी मात्रा निर्भर (Risk changes according to nature of business)जिन वस्तओं की माँग निश्चित होती है उन वस्तुओं में कोई जोखिम नहीं होता, जैसे नमक, दियासिलाई। लेकिन फैशनेबिल वस्तुओं के व्यवसाय में जोखिम अधिक होती है, क्योंकि फैशनेबिल वस्तुओं के फैशन समय-समय पर बदलते रहते हैं जैसे डिस्को कपड़ा, डिस्को वस्त्र आदि।

(5) समय के अनुसार जोखिम की मात्रा में परिवर्तन (Degree of risk changes according to time)व्यावसायिक जोखिम की मात्रा इस बात पर निर्भर है कि किसी विशेष समय पर उत्पादित माल की माँग और पूर्ति में क्या सम्बन्ध होगा? किसी समय जितने अधिक दंगे-फसाद होते हैं उस समय जोखिम की मात्रा भी अधिक होती है। युद्ध के समय अत्यधिक व्यावसायिक जोखिम होती है क्योंकि सरकारी नीतियों में परिवर्तन होने के कारण व्यवसाय में अनश्चितता होती है।

(6) व्यवसाय में जोखिम उठाने का प्रतिफल लाभ (Profit is the reward for risk taking)-व्यवसाय में जोखिम उठाने के बदले जो व्यवसायी को मिलता है वह उसका लाभ होता है, जिन व्यवसायों में जोखिम नहीं होता उसस। लाभ भी नहीं होता (No risk no gain) और जिन व्यवसायों में जितना अधिक जोखिम होता है उनमें उतना ही अधिक लाभ होता है।

(7) जोखिम को कम करना लेकिन जोखिम का बढ़ जाना (Wants to avoid risk but he creates risk कभी-कभी व्यवसायी जोखिम कम करने के लिये कोई विशेष कार्य करता है लेकिन उसके अपने कार्य के कारण जोखिम घटने के बजाय बढ़ जाता है। जैसे एक व्यवसायी ने अपनी हानि को कम करने के लिये चना खरीदा इस आशा से कि इसके मूल्य बढ़ेगे और अपनी हानि को कम कर लेगा, परन्त उसके भी मूल्य कम हो गए इस प्रकार उसका जोखिम आर बढ़ जाता है।

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(8) एकाधिकार की मात्रा के अनसार जोखिम में परिवर्तन (Risk changes according to the degree of monopoly)-जिस व्यवसाय में एकाधिकार की मात्रा जितनी अधिक होती है उस व्यवसाय में जोखिम का मात्रा उतना ही कम होती है जैसे—हरियाणा रोडवेज की बस।

व्यावसायिक जोखिमों के कारण (Causes of Business Risk) व्यावसायिक जोखिम अनेक कारणों से उत्पन्न होते हैं जिनकी विस्तृत सूची तैयार करना वास्तव में एक कठिन कार्य है लेकिन फिर भी अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से व्यावसायिक जोखिम के कारणों को निम्नलिखित भागों में बाँटा जा सकता है।

1 प्राकृतिक कारण

2. मानवीय कारण

3. आर्थिक कारण

4. भौतिक कारण

5. सरकारी कारण

6. विविध कारण

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(1) प्राकृतिक कारण (Natural causes)—इसके अन्तर्गत वे कारण आते हैं जिन पर मनुष्य का कोई अधिकार नहीं होता और जिनका होना उनके द्वारा नहीं रोका जा सकता। प्रायः इसमें ऐसे कारण आते हैं जिनका होना निश्चित नहीं होता और जिनके विषय में निश्चित भविष्यवाणी भी नहीं की जा सकती; जैसे आग लगना, समुद्री तूफान, बाढ़ आना, भूचाल आना आदि। अध्ययन की सुविधा के लिए इन्हें निम्न प्रकार से बाँटा जा सकता है।

(अ) मौसमी परिवर्तन (Seasonal change)—मौसमी परिवर्तनों का कृषि के साथ-साथ उद्योग-धन्धों पर भी प्रभाव पड़ता है। इसमें आंधी-तूफान, बाढ़-सूखा, आग, हिमपात आदि उल्लेखनीय हैं। मौसमी परिवर्तन से जल विद्युत् योजनाएँ अस्त-व्यस्त हो जाती हैं जिससे किसी भी समय बिजली संकट उत्पन्न होने की आशंका बनी रहती है।

(ब) भूगर्भ में होने वाले परिवर्तन (Geological change)-भूगर्भ में होने वाले परिवर्तन मनुष्य के लिए अभिशाप सिद्ध होते हैं, जैसे भूकम्प का आना। भूकम्प के एक झटके से बड़ी-से-बड़ी आलीशान इमारत गिरकर मिट्टी में मिल सकती है।

(स) अन्य प्राकृतिक प्रकोप (Other natural calamities)—इसमें टिड्डी दल द्वारा फसल को नष्ट करना, बिजली गिरना, वायुमण्डल में दूषित गैस फैल जाना आदि प्रकोप शामिल किये जाते हैं।

(2) मानवीय कारण (Human causes)—व्यावसायिक जोखिम के कारणों में मानवीय कारण अधिक महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं। इनमें उन सभी कारणों की गणना की जाती है, जो मनुष्य की बेईमानी, दुर्भावना, असावधानी, उतावलेपन और नासमझी के कारण होते हैं। मानवीय जोखिमों की रोकथाम, मनुष्य, समाज और व्यवसायी सबके लिए हितकारी मानी जाती है जिसे सदविश्वास, प्राप्त सूचनाओं, संयम और पूर्ण सतर्कता के साथ व्यवहार करके रोका जा सकता है अथवा कुछ कम किया जा सकता है। इसमें निम्नलिखित जोखिम उल्लेखनीय हैं

(अ) मनुष्यकृत कारण (Man-made causes)—जब मानवीय दुर्भावनाओं के आधार पर दंगे हो जाते हैं जिनसे लूटमार और आगजनी हो जाती है अथवा ‘पंजाब बन्द’ या ‘हरियाणा बन्द’ हो जाता है तब व्यावसायिक जोखिम उत्पन्न हो जाता है।

(बो कर्मचारी एवं ग्राहकों की बेईमानी (Dishonesty by emplovee and customers)-जब व्यवसाया के अपने ही कर्मचारी माल की चोरी करने लगें या रोकड़ और माल की हेराफेरी करने लगे अथवा जब उसके ग्राहक माल खरीदकर माल का मल्य चकाने में असमर्थ हो जाएँ या भुगतान करने से इन्कार कर दें. तब व्यावसायिक जोखिम उत्पन्न हो जाती है।

(स) हड़ताल और तालाबन्दी (Strike and Lock-out) जब व्यवसाय के मालिक पूर्ण सोच-विचार कर कोई ऐसा निर्णय ले लेते हैं जिसका कि श्रमिक वर्ग पर प्रभाव पड़ता है तब व्यवसाय में हडताल या तालाबन्दी के कारण व्यावसायिक जोखिम उत्पन्न हो जाती है।

(द) असावधानी के कारण जोखिम (Risk due to care lessnacc) व्यवसाय में कर्मचारियों को असावधानी के कारण भी व्यावसायिक जोखिम उत्पन्न हो जाती है। जैसे लापरवाही से बीडी-सिगरेट फेंकने से गोदाम या कारखान लग जाना। व्यवसायी द्वारा बिना सोचे-समझे अपने माल की माँग का अनुमान लगाना आदि।

(3) आर्थिक कारण (Economic causes) किसी वस्तु के बाजार में होने वाले परिवर्तनों के कारण ये जोखिम होते हैं

(अ) समय सम्बन्धी जोखिम (Time risk) समय एक दिन का भी हो सकता है, महीने तथा एक वर्ष का भी हो। सकता है। इसमें निम्नलिखित जोखिम आते हैं

(i) माँग में परिवर्तन (Change in demand) किसी वस्तु की माँग में परिवर्तन हो जाने से अर्थात् माँग समाप्त हो जाने अथवा कम हो जाने से भी व्यावसायिक जोखिम उत्पन्न हो जाती है। जैसे, 10 + 2 शिक्षा प्रणाली के लाग होने से प्रेप क्लास या हायर सैकेण्डरी की पुस्तकों की माँग का समाप्त हो जाना।

(ii) मूल्यों में उतार-चढ़ाव (Price fluctuations)—मूल्यों में एकदम उतार-चढ़ाव हो जाने से माल के विक्रय मूल्य बदल जाते हैं, स्टॉक के मूल्य बदल जाते हैं और योजनाएँ भी बदल जाती हैं जिससे व्यावसायिक जोखिम उत्पन्न हो जाते हैं।

(iii) प्रतियोगिता की प्रकृति (Nature of competition)—प्रतियोगिता के कारण व्यावसायिक जोखिम उत्पन्न हो जाते हैं। अगर दूसरा व्यवसायी अपनी वस्तु की कीमत कम कर देता है तो इस व्यवसायी को भी अपनी वस्त बेचने के लिए उसका मूल्य कम करना होगा।

(ब) स्थान जोखिम (Place risk)—व्यवसायी एक स्थान से माल क्रय करके उस स्थान पर माल को बेचना चाहता है जहाँ उसके माल का मूल्य उसे अधिक मिल सकता हो, लेकिन यदि वहाँ पहले ही दूसरे व्यापारियों का पर्याप्त मात्रा में माल पहुँच चुका है तो उसे अधिक मूल्य नहीं मिल सकेगा। इस प्रकार वह अपने माल का अधिक मूल्य प्राप्त नहीं कर सकेगा।

(स) प्रतियोगियों के कार्य (Activities of competitors) कभी-कभी प्रतियोगियों द्वारा किए जाने वाले कार्यों से भी व्यावसायिक जोखिम उत्पन्न हो जाती है; जैसे प्रतियोगियों द्वारा माल की किस्म में सुधार करना, मूल्य घटा देना या माल के पैकिंग की विधि में सुधार करना या आकर्षक बनाना आदि। जैसे डालडा वनस्पति वालों ने ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए अपने डिब्बे पर लक्ष्मी गणेश चित्र अंकित किया तो रथ वनस्पति वालों ने प्लास्टिक की पैकिंग का नया रूप दिया। पहले व्यापारी ने अपने माल पर 10% की छूट की घोषणा की और दूसरे व्यापारी ने अपने माल पर 15% की। इन सब कारणों के कारण व्यावसायिक जोखिम उत्पन्न होती है।

(4) भौतिक कारण (Physical causes)—इसमें उन सभी प्राकृतिक, तकनीकी और यान्त्रिक कारणों की गणना की जाती है जिनसे व्यावसायिक सम्पत्ति, मशीन या माल को हानि से जोखिम की सम्भावना हो जाती है। जैसे

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(अ) प्राकृतिक कारण (Natural causes)—इसमें माल, मशीन अथवा सम्पत्ति के अपने प्राकृतिक दोष के कारण होने वाली हानि के कारण उत्पन्न जोखिम आते हैं। जैसे नाशवान वस्तुओं का समय व्यतीत होने के साथ-साथ सड़ जाना या गल जाना, मशीनों की टूट-फूट एवं घिसावट इत्यादि।

(ब) तकनीकी कारण (Technical causes) आधुनिक युग मशीन का युग है क्योंकि आजकल अच्छे उत्पादन और अच्छी मशीनरी का बोलबाला है। जब किसी तकनीकी परिवर्तन के कारण से नयी मशीन पुरानी मशीन को चलन से बाहर कर देती है तब व्यावसायिक जोखिम उत्पन्न हो जाती है।

(स) यान्त्रिक दोष (Mechanical defect)-मशीन अथवा यन्त्रों की रचना के दोषों के कारण भी कुछ व्यावसायिक जोखिम उत्पन्न हो जाते हैं; जैसे बॉयलर में विस्फोट हो जाना जिसका कि उदाहरण भोपाल गैस काण्ड है, अथवा चलती मशीन में किसी कर्मचारी का हाथ या पैर चले जाने के कारण हाथ-पैर कट जाना आदि।

(द) अन्य कारण (Other causes)-इस जोखिम के अन्तर्गत तरल पदार्थों का वाष्पीकरण होने के कारण उनकी मात्रा में कमी आ जाना अथवा कुछ पदार्थों का धूप में पड़े रहने के कारण वजन कम हो जाना अथवा सामान्य छीजन जाने के कारण आदि।

(5) सरकारी नीति (Government policy)-सरकारी नीति में परिवर्तन होने के कारण व्यावसायिक जोखिम उत्पन्न हो सकते हैं। आज आपके पास निर्यात-लाइसेस है और आप पर्याप्त लाभ कमाते हैं लेकिन यह सम्भव है कि कल सरकार अपना कर दे अथवा जिन देशों में आप के माल की खपत है, वहाँ की सरकार आयात पर प्रतिबन्ध लगा दे। यदि सरकार नीति निर्धारित कर दे कि सभी दुकानों पर एक जैसी सजावट की जाएगी तो इससे भी व्यापारियों को अतिरिक्त व्यय और यदि कोई ऐसा व्यक्ति उद्योगमन्त्री बन जाए जो वर्तमान औद्योगिक नीति के विरुद्ध हो तो इसमें भी व्यावसायिक जोखिम उत्पन्न हो सकता है।

(6) वविध कारण (Miscellaneous causes) इस जोखिम के अन्तर्गत वे सभी जोखिम आ जाते हैं जोकि उपर्यक्त जोखिमों के अन्तर्गत नहीं आते हैं। जैसे अकशल व्यावसायिक प्रबन्ध के कारण जोखिम का उत्पन्न होना। क्योंकि अकुशल व्यावसायिक प्रबन्धक अपने व्यवसाय का ठीक प्रकार से न तो नियोजन ही कर पाते हैं और न नियन्त्रण ही कर पाते हैं।

उपर्युक्त विश्लेषण के आधार पर यह कहा जा सकता है कि उद्यमी को व्यवसाय में विभिन्न प्रकार के जोखिमों को सहन करना पड़ता है। इसलिए यह कहा जाता है कि जोखिम उद्यमी का एक ऐसा गण है जो उसे अन्य व्यक्तियों से अलग करता है।

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निर्णयन क्षमता

(Decision-making Ability)

व्यावसायिक क्रियाओं को सुचारु रूप से संचालन करने हेतु समय-समय पर आवश्यक निर्णय लेना भी नेतृत्व/उद्यमी का आवश्यक कार्य है। यदि उचित समय पर उचित निर्णय नहीं लिये जाते तो व्यवसाय को हानि उठानी पड़ सकती है। नेतृत्व/उद्यमी द्वारा उचित समय पर लिया गया उचित निर्णय व्यवसाय को आगे बढ़ाने में सहायक होता है।

आर. एस. डावर (R.S. Davar) के अनुसार, “एक उद्यमी का जीवन एक सतत् निर्णयन प्रक्रिया है, जबकि विख्यात प्रबन्ध विशेषज्ञ पीटर एफ. ड्रकर (Peter F. Drucker) का कहना है कि “एक नेतृत्व/उद्यमी जो भी क्रिया करता है, वह निर्णयन के द्वारा करता है।” उद्यमी को किसी समस्या के समाधान हेत एवं उसकी पुनरावृत्ति को रोकने हेतु किसी निर्णय पर पहुंचने से पूर्व विभिन्न वैकल्पिक समाधानों को ढूँढ़ना होता है। तत्पश्चात वैकल्पिक समाधानों में से सर्वश्रेष्ठ का चुनाव करना होता है जो निर्णयन कहलाता है।

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निर्णयन का अर्थ

(Meaning of Decision-making)

विभिन्न वैकल्पिक समाधानों में से सर्वश्रेष्ठ का चुनाव करना निर्णयन कहलाता है। निर्णयन की प्रक्रिया का अन्तिम परिणाम निर्णय है। वेब्स्टर (Webster) शब्दकोश के अनुसार, “निर्णय लेने से आशय अपने मस्तिष्क में किसी सम्मति अथवा कार्यवाही करने के तरीके के निर्धारण से लगाया जाता है।” नेतृत्व/उद्यमी को प्रतिदिन अनेक कार्य करने पड़ते है। प्रत्येक कार्य को करने के लिये वैकल्पिक तरीके हो सकते है। इनमें से कौन-सा तरीका सर्वोत्तम है, इसका चयन किया जाना ही निर्णयन है। पीटर एफ.ड़कर के अनुसार, “निर्णय विभिन्न विकल्पों के मध्य चयन है।” किसी भी व्यवसाय अथवा उद्यम में प्रारम्भ से लेकर अन्त तक अनेक निर्णय लेने पड़ते हैं। यही कारण है कि कुछ विद्वानों ने नेतृत्व/ उद्यमिता / प्रबन्ध को निर्णय लेने की प्रक्रिया कहकर परिभाषित किया है। डॉ. आर. एस. डावर (R.S.Daver) के अनुसार, “एक प्रबन्धक/ उद्यमी का जीवन एक सतत निर्णयन प्रक्रिया है।” निर्णयन की प्रक्रिया का अन्तिम परिणाम निर्णय है। निर्णयन निर्णय तक पहुँचाने की प्रक्रिया है। इस तरह वैकल्पिक कार्य पथों में से सचेतन रूप से चुने गये कार्यपथ को निर्णय कहते हैं।

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निर्णयन की परिभाषाएँ

(Definition of Decision-making)

विभिन्न विद्वानों ने निर्णयन की विभिन्न परिभाषाएँ दी हैं, उनमें से कुछ प्रमुख विद्वानों द्वारा दी गई परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं

(1) कण्टज एवं ओडोनेल के अनुसार, “किसी क्रिया को करने हेत विभिन्न विकल्पों में से किसी एक का वास्तविक रूप में चयन किया जाना ही निर्णय लेना है।”

(2) जॉर्ज आर. टैरी के अनुसार, “निर्णयन किसी कसौटी पर आधारित दो या दो से अधिक सम्भावित विकल्पों में से किसी एक का चयन है।”

 (3) जी.एल. एस. शेकल के अनुसार, “निर्णय लेना रचनात्मक मानसिक क्रिया का वह केन्द्र-बिन्द होता है जहाँ ज्ञान, विचार, भावना तथा कल्पना कार्यपूर्ति के लिए संयुक्त हो जाते हैं।”

(4) ऐलन के अनुसार, “निर्णयन वह कार्य है जिसे एक प्रबन्धक किसी निष्कर्ष एवं निर्णय पर पहुँचने के लिए करता है।”

(5) डी.ई. मैकफारलैण्ड के अनुसार, “निर्णयन चुनने की एक क्रिया है जिसके द्वारा अधिशासी एक दी हुई परिस्थिति में क्या किया जाना चाहिए, इस सम्बन्ध में निष्कर्ष पर पहुँचता है। निर्णय किसी व्यवहार का प्रतिनिधित्व करता है जिसका चयन अनेक सम्भव विकल्पों में से किया जाता है।”

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(6) हरबर्ट साइमन के अनुसार, “निर्णय लेने में तीन प्रमुख अवस्थाएँ सम्मिलित हैं-(अ) निर्णय लेने के अवसरों का पता लगाना, (ब) कार्य करने के सम्भावित क्रमों का पता लगाना, तथा (स) कार्य करने के क्रमों का चयन करना।”

(7) श्री आर. एस. डावर के शब्दों में, “निर्णयन एक ऐसा चयन है जोकि दो या दो से अधिक सम्भावी विकल्पों में से किसी एक व्यावहारिक विकल्प पर आधारित होता है। निर्णय लेने का अर्थ है ‘काट देना’ अथवा व्यावहारिक रूप में किसी निष्कर्ष पर पहुँचना है।”

(8) अर्नेस्ट डेल के अनुसार, “प्रबन्धकीय निर्णयों से आशय उन निर्णयों से है जोकि सदैव सही प्रबन्धकीय क्रियाओं, जैसे-नियोजन, संगठन, कर्मचारियों की भर्ती, निर्देशन, नियन्त्रण, नव-प्रवर्तन (Innovation) तथा प्रतिनिधित्व के दौरान लिये जाते हैं।”

निष्कर्ष (Conclusion)….निर्णय लेने की उपर्युक्त परिभाषाओं का अध्ययन करने के उपरान्त इसकी संक्षेप में परिभाषा निम्न शब्दों में दी जा सकती है.-“निर्णय लेना किसी कार्य को करने के विभिन्न सम्भावित विकल्पों से से किसी एक सर्वश्रेष्ठ विकल्प का चयन करना है।”

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निर्णयन के लक्षण अथवा विशेषताएँ

(Characteristics of Decision-making)

निर्णयन का अर्थ तथा उसकी परिभषा देने के उपरान्त यह कहा जा सकता है कि निर्णयन की प्रमुख विशेषतायें अथवा लक्षण इस प्रकार हैं—(1) निर्णय लेते समय हमारे सामने अनेक सम्भावित विकल्प होते हैं। उनमे से सर्वश्रेष्ठ विकल्प का चयन ही निर्णय लिया जाना है। (2) निर्णय लेना अन्तिम प्रक्रिया है क्योंकि तर्कपूर्ण विचार-विनिमय के उपरान्त ही निर्णय लिये जाते हैं। (3) यह आवश्यक नहीं कि कि लिया जाने वाला निर्णय सदैव धनात्मक (Positive) ही हो अर्थात् लिया जाने वाला निर्णय ऋणात्मक (Negative) भी हो सकता है। हम तय न करने के लिए भी निर्णय ले सकते हैं। (4) निर्णय में विवेकशीलता का होना आवश्यक है। (5) निर्णय स्वयं में एक लक्ष्य नहीं है अपितु लक्ष्य तक पहुँचने का एक साधन है। (6) प्रत्येक निर्णय में वचनबद्धता (Commitment) निहित होती है। (7) निर्णय में मूल्यांकन करने का लक्षण भी विद्यमान रहता है। यह कार्य अधिशासी द्वारा किया जाता है।। निर्णय का मूल्यांकन दो बार किया जाता है—(अ) विभिन्न विकल्पों का मूल्यांकन करके सर्वश्रेष्ठ विकल्प का चयन करना, तथा (ब) निर्णय के परिणामों का मूल्यांकन करना। (8) यदि आवश्यक हो तो निर्णय लेने से पूर्व किसी विशेषज्ञ से आवश्यक परामर्श भी लिया जा सकता है। (9) निर्णयन एक मानवीय एवं बौद्धिक क्रिया है। (10) निर्णय सम्बन्धित अधिकारी द्वारा अथवा इस कार्य के लिए नियुक्त समिति द्वारा लिये जा सकते हैं। (11) निर्णय लेते समय दृढ़ता (Firmness) की आवश्यकता होती है। (12) निर्णय वास्तविक स्थिति के समरूप होते हैं। (13) निर्णय उद्देश्य युक्त हैं अर्थात् निर्णय न किसी-न-किसी उद्देश्य अथवा उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये जाते हैं। (14) निर्णयों में समय तत्त्व का विशेष महत्त्व रहता है।

निर्णयन की अवधारणा

(Concept of Decision-making)

निर्णय लेना किसी भी प्रबन्धक का प्राथमिक कार्य है। निर्णयन की प्रमुख अवधारणाएँ निम्नलिखित हैं

(1) निरन्तरता की प्रक्रिया की अवधारणा (Continuity process concept) निरन्तरता की प्रक्रिया को अवधारणा के अनुसार निर्णय लेने का कार्य निरन्तर चलता रहता है। एक समस्या का समाधान होता है तो तुरन्त दूसरी समस्या उत्पन्न हो जाती है। इस प्रकार घटनाओं का यह क्रम निरन्तर चलता रहता है और उसी के अनुरूप निर्णयन का कार्य भी निरन्तर चलता रहता है।

(2) उद्देश्यात्मक अवधारणा (Objective concept)—इस अवधारणा के अनुसार निर्णय लेने का कोई निश्चित उद्देश्य होता है। उक्त उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए निर्णय लिया जाता है। यह आवश्यक नहीं कि लिया जाने वाला निर्णय सदैव धनात्मक ही हो अपितु लिया जाने वाला निर्णय नकारात्मक (Negative) भी हो सकता है।

(3) चयन अवधारणा (Selection concept) मेक्फारलेण्ड, कण्ट्ज एवं ओ’ डोनैल तथा डावर आदि अनुसार निर्णयन की अवधारणा एक चयन अवधारणा है जिसमें विभिन्न विकल्पों में से किसी एक विकल्प का चयन करना पड़ता है, ताकि प्रस्तुत समस्या का समाधान हो जाये।।

 (4) चेतन मानवीय प्रक्रिया अवधारणा (Conscious human process concept) निर्णयन एक चेतन मानवीय प्रक्रिया अवधारणा है जिसके अन्तर्गत चेतन मानव अर्थात् प्रबन्धक द्वारा निर्णय लिया जाता है। यह निर्णय तथ्यों तथा मूल्यों पर आधारित होते हैं।

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(5) मानसिक प्रक्रिया अवधारणा (Mental process concept)-जी. एल, एस. शेकल के अनुसार, “निर्णय लेना एक मानसिक प्रक्रिया है जिसमें मस्तिष्क का इस्तेमाल करके विवेकपूर्ण निर्णय लिया जाता है।”

(6) सर्वव्यापकता की अवधारणा (Universality concept)-इस अवधारणा के अनुसार प्रत्येक प्रबन्धक को निर्णय लेना पड़ता है चाहे वह उच्च प्रबन्ध श्रेणी का हो या परिचालन प्रबन्ध श्रेणी का। इतना अवश्य है कि प्रत्येक श्रेणी के प्रबन्धक के निर्णय की प्रकृति भिन्न प्रकार की हो सकती है। निर्णयन की सर्वव्यापकता के कारण ही कई विद्वान निर्णयन एवं प्रबन्ध को समानार्थक (Synonymous) मानते हैं।

(7) समस्या समाधान अवधारणा (Problem solving concept) निर्णयन की इस अवधारणा के अनसार प्रत्येक निर्णय किसी निश्चित समस्या के समाधान लिए ही लिया जाता है। यदि कोई समस्या ही नहीं है तो निर्णयन का प्रश्न ही नहीं उठता।

(8) वचनबद्धता की अवधारणा (Commitment concept)—वचनबद्धता की अवधारणा के अनुसार प्रत्येक निर्णय . में वचनबद्धता निहित होती है। निर्णय लेने के पश्चात् निर्णय लेने वाला वचनबद्ध हो जाता है जिसे पूरा करने के लिए वह बाध्य है।

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निर्णयन की प्रकृति

(Nature of Decision-making)

जैसा कि पहले बताया जा चुका है, निर्णय लेने से आश्य निर्धारित लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उपलब्ध विकल्पों में से सर्वश्रेष्ठ विकल्प का चयन करने से है। निर्णयन प्रायः किसी नीति, नियम, आदेश अथवा निर्देश के रूप में व्यक्त होता है। कभी-कभी यह किसी समस्या पर विचार-विमर्श स्थगित करने, “विलम्ब से निर्णय लेने अथवा निर्णय न लेने के रूप में भी व्यक्त हो सकता है।” श्री. पी. एफ. ड्रकर के अनुसार, “किसी निर्णय की प्रकृति के निर्धारण के सम्बन्ध में निम्न चार आधारभूत बातें ध्यान देने योग्य हैं- (अ) फलदेयता की मात्रा, (ब) उसका अन्य कार्यों, क्षेत्रों अथवा व्यवसाय पर प्रभाव, (स) उनमें प्रवेश करने वाले गणात्मक घटकों की संख्या, तथा (द) सामयिक रूप में होने वाला है अथवा कभी-कभी होने वाला है अथवा समान रूप में होने वाला है।”

प्रत्येक निर्णय की प्रकृति में निम्नलिखित बातों का समावेश होता है

(1) निरन्तरता की प्रक्रिया (The process of continuity)—प्रत्येक निर्णय भूत, वर्तमान एवं भावी घटनाओं से किसी-न-किसी रूप में अवश्य प्रभावित होता है। भूतकाल में किसी समस्या का उदय होता है, वर्तमान काल में उक्त समस्या के समाधान हेतु वैकल्पिक विधियों पर विचार किया जाता है और सर्वोत्तम का चयन किया जाता है तथा भविष्य में उक्त सर्वोत्तम (निर्णय) को कार्यान्वित किया जाता है  इस प्रकार घटनाओं का यह चक्र निरन्तर चलता है। यही नहीं, एक निर्णय अन्य नवीन निर्णयों को जन्म देता है।

(2) मल्यांकन (Evaluation)–निर्णय लेने की प्रत्येक प्रक्रिया में मूल्यांकन करना नितान्त आवश्यक होता है। इसका कारण यह है कि (i) इसमें दो या दो से अधिक विकल्पों में से सर्वश्रेष्ठ विकल्प का चयन करना पड़ता है, तथा (ii) निर्णय के परिणाम का मूल्यांकन करके अपेक्षित परिणामों से उसकी तुलना की जाती है।

(3) वचनबद्धता (Commitment) निर्णय लेने के उपरान्त निर्णयकर्ता वचनबद्ध हो जाता है। अपने निर्णय के अनुसार ही उसे समस्त नियोजन का कार्य सम्पन्न करना पड़ता है तथा समस्त व्यावसायिक क्रियाएँ भी उसी के अनरूप सम्पन्न की जाती हैं संस्था में उसकी स्थिति तथा कार्य-कुशलता सम्बन्धी ख्याति उसके द्वारा लिये गये निर्णय की सफलता तथा विफलता के अनुसार बन अथवा बिगड़ सकती है। उदाहरण के लिए, केवल नकद माल के विक्रय के सम्बन्ध में लिया गया निर्णय समूचे विक्रय संगठन, उत्पादन, क्रय, बजट आदि अनेक क्षेत्रों की क्रियाओं को प्रभावित करता है।

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(4) विवेकपूर्णता (Rationality) निर्णय लेने की प्रक्रिया एक मानसिक प्रकिया है। विभिन्न विकल्पों में से कौन-सा विकल्प सर्वश्रेष्ठ है, इसका चयन करना एक विवेकपूर्ण कार्य है जिसे केवल मनष्य ही सम्पन्न कर सकता है क्योंकि वह एक विवेकशील प्राणी है, अत: मानवीय निर्णय विवेक पर आधारित होने चाहिए। (स्मरण रहे किविवेकपर्ण निर्णय से आशय शत-प्रतिशत विशद्ध निर्णय से कदापि नहीं है अपितु ज्ञात तथ्यों के प्रकाश में सर्वोत्तम निर्णय से है।

(5) नये निर्णय का जन्म (Birth of new decision)_अनेक से होते हैं जिनके कारण कभा-कभा नये निर्णय भी लेने पड़ते हैं। (ध्यान रहे कि नये निर्णय का उद्देश्य केवल पहले लिये गये निर्णय का काममा व्यावहारिक रूप प्रदान करना होता है।)

(6) निर्णयन का नियोजन का भाग होना (Decision-making a part of planning)-नियोजन में निर्णयन नियोजन की प्रक्रिया निहित होती है, अतः निर्णयन नियोजन का एक महत्त्वपूर्ण भाग है। न्यूमैन तथा समर के अनुसार, “निर्णय नियोजन का एक महत्त्वपूर्ण भाग है जिसे हम नियोजन का पर्यायवाची कहेंगे।”

(7) प्रबन्ध का प्राथमिक कार्य होना (Primary function of management)–निर्णयन प्रबन्धक का प्राथमिक कार्य है जिस पर उसकी सफलता अथवा असफलता निर्भर करती है। यह प्रबन्ध की कुशलता का मापदण्ड है।

(8) ‘निर्णयननिर्णय से भिन्न होना (Decision-making is defferent from decision) निर्णयन’ निर्णय से भिन्न है। ‘निर्णयन’ निर्णय लेने की प्रक्रिया है, जबकि निर्णय इस प्रक्रिया का अन्तिम परिणाम है।

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निर्णयन के तत्त्व अथवा आधार अथवा घटक

(Elements or Criteria or Factors of Decision-making)

निर्णयन के प्रमुख तत्त्व अथवा आधार निम्नलिखित हैं

(1) वैधानिक तत्त्व (Legal element) यदि लिया गया निर्णय वैधानिक दृष्टि से सही न उतरता हो तो वह व्यर्थ हो जाता है और इस प्रकार उसका कोई भी महत्त्व नहीं रह जाता। अत: लिया गया निर्णय वैधानिक आधार पर खरा उतरना चाहिए। अन्यथा कोई भी व्यक्ति उसे चुनौती दे देगा एवं मानने से इन्कार कर देगा।

(2) परिस्थिति तत्त्व (Conditional element) निर्णय सदैव परिस्थितियों के आधार पर लिये जाते हैं। अलग-अलग मामलों की अलग-अलग परिस्थितियाँ होती हैं जिन पर अच्छी तरह से विचार करने के पश्चात् ही निर्णय लिये जाने चाहिए। अतः प्रत्येक निर्णय में परिस्थिति तत्त्व.का होना परम आवश्यक है।

(3) नैतिक तत्त्व (Moral element)-एक विद्वान् के शब्दों में, “एक नैतिक दृष्टि से गलत निर्णय न तो सामाजिक दृष्टि से उचित है और न आर्थिक दृष्टि से।” अतः निर्णय लेते समय नैतिक तत्त्व को भी ध्यान में रखना चाहिए।

(4) सामाजिक तत्त्व (Social element) निर्णय समाज में रहने वाले व्यक्तियों के लिए लिये जाते हैं। अत: प्रत्येक निर्णय में समाजिक तत्त्व निहित होना चाहिए अर्थात् निर्णय सामाजिक तत्त्व को ध्यान में रखकर लिया जाना चाहिए।

(5) आर्थिक तत्त्व (Economic element) लगभग सभी मामलों में आर्थिक तत्त्व निहित होते हैं, फिर व्यवसाय विशुद्ध आर्थिक क्रिया ही तो है। अत: प्रत्येक निर्णय आर्थिक दृष्टि से उचित होना चाहिए।

(6) समय तत्त्व (Time element)—यह कहावत है कि “न्याय देने में विलम्ब करना एक प्रकार से न्याय देने से इन्कार करना है।” (Justice delayed isjustive denied) विलम्ब प्रत्येक निर्णय का सबसे भयंकर शत्रु है। अत: निर्णय सदैव यथा-समय लिये जाने चाहिए, तभी उसकी उपयोगिता रहेगी।

(7) स्वीकृति तत्त्व (Acceptance element)—सही निर्णय वह है जो सम्बन्धित पक्षकारों को स्वीकार हो। यह निर्णय की सही कसौटी भी है। अतः निर्णय में स्वीकृति तत्त्व का होना आवश्यक है। इसलिए निर्णयन में उन लोगों को भी भागीदारी । दी जानी चाहिए जिन पर इन्हें लागू करना है।

(8) उद्देश्य तत्त्व (Objective element) निर्णय सदैव किसी-न-किसी उद्देश्य को लेकर किये जाते हैं। निर्णय के द्वारा निर्धारित उद्देश्य अथवा उद्देश्यों की पूर्ति होना आवश्यक है। अत: निर्णय लेते समय उद्देश्य तत्त्व को भी ध्यान में रखना चाहिए।

(9) पूर्णता का तत्त्व (Element of completeness) कोई भी निर्णय जो अधरा हो. महत्त्वहीन कहलाता है। अतः । प्रत्येक निर्णय पूर्ण होना चाहिए। इसके लिए निर्णय में पूर्णता का तत्त्व होना आवश्यक है।

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(10) भागीदारी तत्त्व (Participating element)–निर्णयन का एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व यह है कि उपक्रम में काय, करने वाले कर्मचारियों को भी निर्णयन प्रक्रिया में भागीदार बनाना चाहिए विभिन्न प्रकार की समितियों का गठन करके अथवा बालन मण्डल में कर्मचारियों के प्रतिनिधि की नियुक्ति करके कर्मचारियों को निर्णय प्रक्रिया में भागीदार बनाया जा सकता है कि कर्मचारियों की सलाह से निर्णय लेने से उनमें उपक्रम के प्रति अपनत्व की भावना विकसित होती है तथा वे निर्णयों को अधिक तत्परता से लागू करके का प्रयास करते हैं।

(11) मनविज्ञानिक जानिक तत्त्व (Psychological element) उपक्रम में लिये जाने वाले सभी प्रकार के निर्णयों पर संस्था के व्यक्तिगत एवं सामूहिक मनोविज्ञान का भी प्रभाव पड़ता है। संस्था के कार्य करने वाले व्यक्तियों के उपक्रम की प्रतिष्ठा आदि बातें निर्णय को प्रभावित करती हैं। के पद, गौरव, आर्थिक सुरक्षा, उपक्रम का प्रतिष्ठा आदि बातें निर्णय को प्रभावित करती हैं ।

(12) अधिकार तत्त्व (Element of authority) यदि निर्णय लेने वाले को निर्णय लेने का अधिकार ही न हो तो फिर उस निर्णय का कोई औचित्य नहीं रह जाता है। अतः निर्णय लेने वाले को निर्णय लेने से सम्बन्धित सभी अधिकार प्रदान। कर दिये जाने चाहिएं। इस दृष्टि से निर्णयन में अधिकार तत्त्व का भी महत्व होना आवश्यक है।

(13) व्यावहारिकता का तत्त्व (Element of practicability) एक अच्छे निर्णय के लिए यह भी आवश्यक है कि वह व्यावहारिक हो अर्थात् उसे सरलता से लागू किया जा सकता हो। कभी-कभी अच्छे से अच्छा निर्णय केवल इसलिए असफल हो जाता है क्योंकि व्यावहारिक दृष्टि से उसे लागू करना या तो असम्भव अथवा अत्यधिक कठिन हो जाता है। अतः निर्णयन , व्यावहारिकता का तत्त्व होना भी आवश्यक है।

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