BCom 2nd Year Principles Business Management Departmentalization Study Material Notes in Hindi

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BCom 2nd Year Principles Business Management Departmentalization Study Material Notes in Hindi

BCom 2nd Year Principles Business Management Departmentalization Study Material Notes in Hindi: Need and Importance of Departmentation Principles of Departmentation Factors to Be kept in Mind While Departmentation Bases types Methods or System of Departmentation Assignment of Activities Merits and Demerits Departmentation Important Questions Long Answer Question Short Answer Question Objective Question (Most important Notes for BCom 2nd Year Students )

Departmentalization Study Material Notes
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BCom 2nd Year Centralization Decentralization Study Material Notes in Hindi

विभागीकरण

[Departmentation]

विभागीकरण का आशय एवं परिभाषाएँ (Meaning and Definitions of Departmentation)-विभागीकरण संगठनात्मक संरचना के समतलीय आयाम से सम्बन्धित है। विभागीकरण का आशय किसी व्यावसायिक उपक्रम को विभिन्न विभागों व उप-विभागों में बाँटना होता है। किसी क्रियाशील संगठन का छोटी, लोचपूर्ण, स्वतन्त्र एवं सुविधाजनक इकाइयों में विभाजन ही विभागीकरण कहलाता है। उदाहरण के लिए, एक व्यावसायिक प्रतिष्ठान को हम क्रय विभाग, उत्पादन विभाग, वित्त विभाग, सेविवर्गीय विभाग, विक्रय विभाग आदि में विभागीकृत कर सकते हैं। व्यवसाय के स्वभाव एवं आकार को ध्यान में रखते हुए, यदि विभागीय प्रबन्धक चाहे तो कार्यकशलता बढ़ाने हेत वह अपने विभाग को समान प्रकार की क्रियाओं के आधार पर अनेक उप-विभागों में भी बाँट सकता है। जैसे—विक्रय विभाग को प्रबन्धक विज्ञापन विभाग, ग्राहक सेवा विभाग, विपणन अनुसन्धान विभाग, निर्यात सम्वर्द्धन विभाग आदि उप-विभागों में विभाजित कर सकता है।

कुण्ट्ज एवं डोनेल के अनुसार, “विभागीकरण एक विशाल कार्यात्मक संगठन को छोटी-छोटी एवं लोचपूर्ण प्रशासकीय इकाइयों में बाँटने की एक प्रक्रिया है 1 पीअर्स एवं राबिन्सन के शब्दों में, “विभागीकरण कछ संगठनात्मक कार्यों को पूरा करने हेतु कृत्यों, प्रक्रियाओं और संसाधनों का तार्किक इकाइयों में समूहीकरण है।’ विलियम एफ० ग्लूक के अनुसार, “सम्पूर्ण उपक्रम के कार्यों को विभाजित करने अथवा कृत्यों के समूह को स्थापित करने के तरीके को ही विभागीकरण कहते हैं।” इस प्रकार स्पष्ट है कि विभागीकरण किसी बड़े संगठन को छोटी-छोटी स्वतन्त्र एवं लोचदार इकाइयों में बाँटने की प्रक्रिया है।

विभागीकरण के प्रमख लक्षण निम्नलिखित हैं

1 यह संगठन को छोटी-छोटी इकाइयों में विभाजित करता है।

2. इसमें व्यक्ति और क्रिया दोनों का समूहीकरण किया जाता है।

3. प्रत्येक इकाई अथवा विभाग अपनी क्रियाओं में लगभग स्वतन्त्र होता है।

4. इसका उद्देश्य विशिष्टीकरण के लाभों की प्राप्ति और कार्यकुशलता में वृद्धि करना होता है।

5. विभागों का नामकरण यूनिट, शाखा, डिवीजन, ब्यूरो, डिपार्टमेण्ट, कार्यालय आदि हो सकता है।

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विभागीकरण की आवश्यकता महत्त्व

(NEED AND IMPORTANCE OF DEPARTMENTATION)

विभागीकरण की आवश्यकता निम्नांकित कारणों से होती है

1 किसी एक अधिशासी की शारीरिक एवं मानसिक कार्यक्षमता प्रतिष्ठान के कार्य की तुलना में सीमित होने के कारण विभागीकरण करना जरूरी होता है। ।

2. श्रम विभाजन एवं विशिष्टीकरण के प्रयोग विभागीकरण द्वारा ही सम्भव होते हैं।

3. प्रबन्धकों के विकास हेतु भी विभागीकरण आवश्यक होता है।

4. विभागीकरण कुशल निष्पादन, समन्वय, सन्देशवाहन, निर्देशन एवं नियन्त्रण की सुविधा हेतु आवश्यक होता है।

5. अधिकार भारार्पण एवं विकेन्द्रीकरण हेतु विभागीकरण आवश्यक होता है।

6. स्वायत्तता की भावना के कारण निर्णयों की गुणवत्ता विभागीकरण से बढ़ती है।

7. विभागीकरण से प्रबन्धकों के कार्यों का मूल्यांकन करना सरल हो जाता है।

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विभागीकरण के सिद्धान्त

(PRINCIPLES OF DEPARTMENTATION)

अथवा

विभागीकरण करते समय ध्यान देने योग्य तत्त्व

(FACTORS TO BE KEPT IN MIND WHILE DEPARTMENTATION)


किसी उपक्रम में विभागों का सजन करते समय निम्नलिखित सिद्धान्तों व तत्त्वों को ध्यान में रखना चाहिए

1 विशिष्टीकरण (Specialisation)-विभागीकरण और विशिष्टीकरण एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। विभागीकरण चाहे किसी भी आधार पर क्यों न हो, उसमें विशिष्टीकरण का गण अवश्य होना चाहिए। विशिष्टीकरण का अभिप्राय है कि जो व्यक्ति जिस पद के लिए विशेष निपुण हो उसे वही कार्य सौंपा जाए, तभी उसकी स्वाभाविक प्रतिभा का निखार हो सकेगा। यह निखार लाने का कार्य विभागीकरण में प्रमुख तत्त्व होता है।

2. समन्वय (Co-ordination)-विभागीकरण के समय ध्यानान्तर्गत रखना चाहिए कि विविध क्रियाओं और विभागों में परस्पर समन्वय बना रहे। इसके लिए आवश्यक है कि अन्तर्सम्बन्धित कार्य तथा समान उद्देश्य वाली क्रियाओं को जहाँ तक सम्भव हो, एक ही विभाग में रखने का प्रयत्न करना चाहिए।

3. सरल नियन्त्रण (Easy Control)-विभागीकरण वही श्रेष्ठ है जो नियन्त्रण व्यवस्था को सुदृढ़, परन्तु सरल बनाता हो। न केवल विभागीय नियन्त्रण अपितु समन्वित नियन्त्रण व्यवस्था विभागीकरण से सुधरनी चाहिए। वास्तव में विभागीकरण से नियन्त्रण में सरलता और जटिलता में से कुछ भी हो सकता है। अत: नियन्त्रण को सरल और सम्भव बनाने हेतु विभिन्न क्रियाओं का विभागों में स्पष्ट वर्गीकरण होना चाहिए, स्वतन्त्र जाँच और निरीक्षण की व्यवस्था होनी चाहिए और विभिन्न विभागों में स्पष्ट विभाजन रेखा होनी चाहिए, ताकि उत्तरदायी व्यक्ति का सरलता से पता लगाया जा सके।

4. मितव्ययिता (Economy)-संगठन में जितने अधिक विभाग बनाये जायेंगे उतना ही प्रशासनिक व्यय बढ़ता है। अत: नये विभाग आवश्यकता से अधिक नहीं बनाये जाने चाहिएँ। नये विभाग की स्थापना उसी समय की जानी चाहिए, जबकि उससे मिलने वाला लाभ उस पर किये जाने वाले व्यय से अधिक हो।

5. स्थानीय परिस्थितियों पर पर्याप्त ध्यान (Full Recognition of Local Conditions)-विभागीकरण करते समय यथासम्भव स्थानीय परिस्थितियों पर पर्याप्त ध्यान देना चाहिए। उदाहरण के लिए, उपलब्ध कर्मचारियों के समायोजन से ही नये विभाग बनने चाहिएँ अन्यथा बाहर से नियुक्तियाँ करने की दशा में स्थानीय कर्मचारियों का मनोबल गिरेगा।

6. अन्य तत्त्व (Other Factors)-(i) मानवीय तथा सामाजिक पहलू, (ii) महत्वपूर्ण कार्यों पर विशेष ध्यान देने की व्यवस्था, (iii) किसी क्रिया को उसी विभाग में रखा जाये जहाँ पर कि उसकी सबसे अधिक आवश्यकता महसूस होती हो, और (iv) तकनीकी पहल।

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विभागीकरण के आधार, प्रकार, विधियाँ अथवा पद्धतियाँ

(BASES, TYPES, METHODS OR SYSTEMS OF DEPARTMENTATION)

किसी उपक्रम में विभागीकरण निम्नलिखित आधारों में से किसी एक या अधिक तरीके से किया जा सकता है

1 कार्यानुसार विभागीकरण (Departmentation by Functions)-कार्यानुसार । विभागीकरण सर्वाधिक महत्वपूर्ण और लोकप्रिय है जिसको प्रारम्भ करने का श्रेय श्री ओलिवर औल्डन को है। इसमें विभाग मूल कार्यों के आधार पर बनाए जाते हैं; जैसे- क्रय विभाग, उत्पादन विभाग, विपणन विभाग, वित्त विभा आदि। इन विभागों की संख्या उपक्रम की क्रियाओं पर निभर करती है। जैसे-जैसे उपक्रम की क्रियाएँ बढ़ती जाती हैं, वैसे-वैसे विभागों की संख्या बढ़ती जाती है। बाद में विद्यमान विभागों को उप-विभागों में विभक्त किया जा सकता है। जैसे—विपणन वि विज्ञापन, विक्रय तथा विक्रय अनुसन्धान में उप-विभाजित किया जा सकता है। कार्यानुसार विभागीकरण को निम्नांकित चित्र से स्पष्ट किया गया है

गुण-(1) समान क्रियाओं के विशिष्ट विभाग में समाहित होने से विशिष्टीकरण और कुशलता को प्रोत्साहन मिलता है। (2) इसके द्वारा मानवीय संसाधन का श्रेष्ठतम उपयोग किया जा सकता है। (3) यह मितव्ययी, तर्कसम्मत तथा समयोचित पद्धति है। (4) यह पद्धति विभागीय स्तर पर समन्वय को सम्भव और सुगम बनाती है। (5) इसमें अनुसंधान और विकास कार्य को प्रोत्साहन मिलता है। (6) इसमें आदेश एवं निर्देश की एकता बनी रहती है। (7) यह प्रभावशाली नियन्त्रण स्थापित करने में सहयोग प्रदान करता है। (8) इससे नियुक्तिकरण और प्रशिक्षण में सहायता मिलती है। (9) यह सबसे सरल पद्धति है। (10) यह एक लोचशील पद्धति है।

दोष-(1) इसमें केन्द्रीकरण के दोष उत्पन्न हो जाते हैं। (2) निर्णयन में विलम्ब होता है, क्योंकि विभागीय समन्वय में शिथिलता रहती है। (3) इसमें नियन्त्रण का अभाव रहता है। (4) इसमें पदोन्नति के सीमित अवसर ही कर्मचारियों को उपलब्ध होते हैं। (5) यह पद्धति छोटे उपक्रमों के लिए तो उपयुक्त है, परन्तु बड़े उपक्रम में एक व्यक्ति के लिए इतना अधिक उत्तरदायित्व ग्रहण करना मुश्किल हो जाता है। (6) इसका उपयोगिता क्षेत्र सीमित है, क्योंकि जिन संस्थानों में विविध उत्पादों का निर्माण होता है वहाँ यह पद्धति अनुपयुक्त रहती है। (7) विभिन्न प्रकार की उत्पाद रेखाओं का उपयोग असन्तोषजनक रहता है।

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2. उत्पादानुसार विभागीकरण (Departmentation by Products)-विभागीकरण की इस पद्धति के अन्तर्गत किसी उपक्रम में विभागों की स्थापना उसके द्वारा निर्मित विभिन्न उत्पादों के आधार पर की जाती है। जिन बड़े उपक्रमों में विभिन्न उत्पादों/वस्तुओं/सेवाओं का उत्पादन होता है उनमें प्रत्येक वस्तु या निकट-सम्बन्धित वस्तु के लिए एक स्वतन्त्र विभाग की स्थापना कर दी जाती है जो उपक्रम की सम्पूर्ण संरचना के अन्तर्गत कार्य करती है। इस प्रकार के विभागीकरण में एक उत्पाद से सम्बन्धित सभी कार्यों जैसे-उत्पादन, वित्त. विक्रय, क्रय आदि के लिए एक अधिकारी उत्तरदायी होता है और उसे उन सभी क्रियाओं के बारे में विस्तृत अधिकार प्राप्त होते हैं। यह उत्पादानुसार विभागीकरण संगठन संरचना के द्वितीय स्तर (Second Tier) पर ही किया जाता है। पहले सम्पूर्ण उपक्रम के लिए कार्यानसार विभागीकरण होता है और ये विभाग, केन्द्रीय कार्यानुसार विभाग होते हैं। फिर उत्पाद के आधार पर उपक्रम को विभाजित करके प्रत्येक उत्पाद के लिए एक अधिकारी नियुक्त किया जाता है। वास्तव में, यह एक अतिरिक्त स्तर होता है जिसके अन्तर्गत फिर वही मूल केन्द्रीय विभाग कार्यानुसार खोले जाते हैं। इसे अग्रांकित रेखाचित्र के द्वारा स्पष्ट किया गया।

गुण-(1) इसमें विशिष्टीकरण और तकनीकी कुशलता का अनुकूलतम उपयोग होता है। (2) इस पद्धति में समन्वय एवं नियन्त्रण में आसानी रहती है। (3) इसमें उत्तरदायित्व का निर्धारण सुगमता से हो सकता है। (4) इसके अन्तर्गत प्रबन्धकीय विकास सरलता से किया जा सकता है। (5) एक ही वस्तु पर समस्त ध्यान केन्द्रित होने से कार्य-विस्तार में सुविधा होती है। (6) यह पद्धति बड़े आकार की संस्थाओं के लिए अधिक उपयुक्त रहती है। (7) इसमें उपक्रम को बदलते वातावरण में अधिक लोचशीलता और अनुकूलता को अपनाने में सुविधा रहती है। (8) इसमें वित्त और औद्योगिक सम्बन्ध के मामलों में केन्द्रित नियन्त्रण से आसानी रहती है।

दोष-(1) इसमें प्रबन्धकीय लागतों में वृद्धि होती है। (2) यह केवल बड़े उपक्रमों के लिए उपयुक्त है, लघु उपक्रमों के लिए नहीं। (3) इसमें प्रत्येक स्तर पर सेवा व कार्यों की दोबारगी निहित होती है। (4) इस पद्धति में उच्च प्रशासनिक स्तर पर नियन्त्रण मुश्किल होता है, क्योंकि प्रत्येक उत्पाद संभाग के प्रबन्धक अधिकाधिक स्वायत्तता चाहते हैं। (5) इसमें प्रयत्नों व सामाग्रियों का पूर्ण उपयोग नहीं हो पाता है।

III. क्षेत्रानुसार विभागीकरण (Departmentation by Regions)-इस पद्धति में विभागों का निर्माण भौगोलिक क्षेत्र के अनुसार किया जाता है। बड़े आकार की. संस्थाओं, जिनका राष्ट्रव्यापी कारोबार होता है, के लिए प्रशासनिक सुविधा की दृष्टि से क्षेत्रीय इकाइयों में विभाजन उचित रहता है। उदाहरण के लिए भारतीय रेलवे, बीमा और बैंकिंग कम्पनियाँ ऐसा विभागीकरण सम्पूर्ण क्षेत्र को छोटे-छोटे भौगोलिक क्षेत्र में विभक्त करके करती हैं। क्षेत्रानुसार विभागीकरण का प्रदर्शन निम्न रेखाचित्र द्वारा किया गया है

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गुण-(1) व्यावसायिक कार्यों के सम्पादन में स्थानीय कुशलताओं और सुविधाओं का लाभ मिलता है। (2) ग्राहकों के निकट विभागीय कार्यालय खुलने से आक्रामक विपणन सम्भव हो सकता है। (3) विविध किस्म की लागत; जैसे वायु-प्रेषण व्यय, सुपुर्दगी व्यय तथा विक्रेताओं के यात्रा व्यय। कम हो जाते हैं। (4) क्षेत्रीय लोगों का सहयोग व सहानुभूति प्राप्त करके व्यवसाय का विकास एवं विस्तार सम्भव होता है। (5) बड़े आकार की इकाइयों, जिनका राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय बाजार हो, के लिए उपयुक्त रहती हैं। (6) प्रबन्धकीय कायों में सगमता रहती है। (7) कर्मचारियों के प्रशिक्षण का उपयुक्त व्यवस्था की जा सकती है। (8) क्षेत्रीय ग्राहकों की ओर विशेष ध्यान दिया जा सक विभागीकरण की यह विधि क्षेत्रीय प्रबन्धकों को समान अधिकार एवं उत्तरदायित्व प्रदान करती है, अत: इसमें भौगोलिक आधार पर समन्वय में सुधार होता है। (10) यह निर्णयन में स्थानीय सहभागिता को प्रोत्साहित कर सकता है।

दोष-(1) क्षेत्रीय स्तर पर प्रशासनिक व्वयस्था करने के कारण लागत अधिक आती है। (2) यह छोटे उपक्रमों के लिए उपयुक्त नहीं है। (3) निर्माणी संस्थाओं के अतिरिक्त अन्य इकाइयों में इसका उपयोग नहीं किया जा सकता है।

3. क्षैत्रानुसार विभागीकरण (Departmentation by Customers)-विभागीकरण की इस विधि के अन्तर्गत उपक्रम में विभागीकरण ग्राहकों के अनसार किया जाता है। इस प्रकार का विभागीकरण विक्रय कार्य में अधिकतर पाया जाता है; जैसे-साइकिल बेचने वाली संस्था; बच्चों, पुरुषों, स्त्रियों के साइकिल वाले विभाग में विभाजन कर सकती है। बड़ा होटल अपने यहाँ सामिष भोजन, निरामिष भोजन, विभाग बना करके विभागीकरण कर सकता है। बड़ा पुस्तक विक्रेता अपने यहाँ निम्नांकित प्रकार का संगठन रेखाचित्र अपना सकता है

गुण-(1) ग्राहकों के स्वभाव के अनुसार उनकी रुचि व सुख-सुविधा का ध्यान किया जाता है। (2) विशिष्ट योग्यता व विस्तृत ज्ञान का पूर्ण उपयोग किया जा सकता है। (3) इसमें विभिन्न वर्ग के ग्राहक शीघ्रातिशीघ्र आकर्षित होते हैं। (4) यह बड़े उत्पादकों के लिए उपयुक्त पद्धति है।

दोष-(1) विभिन्न विभागों के समन्वय में कठिनाई होती है। (2) यह भी सम्भव है कि अत्यधिक तेजी या मन्दी के समय किसी विशिष्ट ग्राहक का समूह पूर्णतः लुप्त हो जाए। (3) इसमें संचालन लागत अधिक आती है। (4) इसकी उपयोगिता विक्रय विभाग तक ही सीमित है। (5) छोटी संस्थाओं के लिए यह विधि अनुपयुक्त होती है।

4. समयानुसार विभागीकरण (Departmentation by Time)-जब उपक्रम में अनेक पालियों (Shifts) में कार्य चलता है, तो समयानुसार विभागीकरण किया जा सकता है। प्राय: रेलवे, होटलों, लोकोपयोगी संस्थाओं, शैक्षणिक संस्थाओं में समयानुसार विभागीकरण किया जाता है। इसके लिए आवश्यक है कि कार्यकर्ताओं एवं अधिकारियों के बीच सुदृढ़ सम्बन्ध हों और प्रत्येक पाली सभी दृष्टि से पूर्ण हो। इसका प्रदर्शन निम्नांकित चित्र द्वारा किया गया है

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गुण-(1) इसमें समय का अधिकतम उपयोग करना सम्भव है। (2) उपक्रम के साधनों का कुशलतापूर्वक उपयोग किया जा सकता है। (3) यह आर्थिक प्रगति में योगदान देकर लाभदायकता आर कुशलता बढ़ाता है। (4) तकनीकी विकास सम्भव होता है।

दोष-(1) यह खर्चीली पद्धति है। (2) इसमें समन्वय स्थापित करना कठिन होता है। (3) इसमें विविध प्रबन्धकीय समस्याएँ पनपती हैं।

5. प्रक्रियानसार विभागीकरण (Departmentation by Process)-कुछ वस्तुएं अपनी पूर्ण निर्मित अवस्था में आने के लिए विभिन्न प्रक्रियाओं से होकर गुजरती हैं। जब निर्माण क्रियाओं को उन्हीं प्रक्रियाओं के अनुसार पृथक्-पृथक् विभागों में विभक्त कर दिया जाता है, तो यह प्रक्रियानुसार विभागीकरण कहलाता है। उदाहरण के लिए, कपड़ा निर्माण करने वाली संस्था कपास। की ओटाई, सूत की कताई, बुनाई, रंगाई और छपाई विभाग में विभाजन कर सकती है। इसका प्रदर्शन निम्नांकित चित्र द्वारा किया गया है

गुण-(1) उत्पादन की विभिन्न प्रक्रियाओं पर अधिकाधिक ध्यान दिया जा सकता है। (2) इससे विशिष्टीकरण प्रोत्साहित होता है। (3) इसमें क्रियाओं को सूक्ष्मता से पूरा किया जा सकता है। (4) मशीन व साज-सज्जा में विविध प्रकार की बचतें होती हैं। (5) यह एक वैज्ञानिक विधि है जिसमें साधनों के समुचित उपयोग से लागत नियन्त्रण सम्भव होता है।

दोष-(1) समन्वय की समस्या उत्पन्न होती है। (2) छोटी इकाइयों के लिए यह अनुपयुक्त है। (3) इसमें बहुत अधिक पूँजी की आवश्यकता कुशल संचालन हेतु पड़ती है। (4) निर्माणी संस्थाओं के अतिरिक्त अन्य इकाइयों में इसका उपयोग नहीं किया जा सकता है। (5) प्रक्रिया विभागों पर लाभ उत्तरदायित्व सौंपना सम्भव नहीं होता है।

VII. संख्यात्मक विभागीकरण (Departmentation by Numbers)-इस पद्धति के अन्तर्गत कार्यरत कर्मचारियों को नियत संख्या के समूहों; जैसे-10, 15, 20, 25 अथवा 30 में विभाजित कर दिया जाता है। यह विधि उस समय उत्तम मानी जाती है, जबकि उपक्रम में मशीनों की तुलना में जन-शक्ति पर अधिक बल दिया जाता है। संख्यात्मक विभागीकरण की विधि प्राचीन काल से ही कबीलों और सेनाओं के कार्य में प्रयुक्त हो रही है। यह विधि संस्था के सदस्यों की संख्या बढ़ाने, धन एकत्रित करने, घर-घर जाकर प्रचार करने व विक्रय करने के लिए उपयुक्त है, परन्तु आधुनिक युग में वृहद उपक्रमों में यन्त्रों एवं विशिष्ट योग्यताओं की प्रधानता के कारण इस विधि की लोकप्रियता कम है। आजकल इसका मात्र कार्यकारी-दल तथा सेना के कार्यों तक सीमित प्रयोग हो रहा है।

VIII. मिश्रित विभागीकरण (Composite Departmentation)-विभागीकरण स्वयं में कोई साध्य न होकर उपक्रम के लक्ष्यों की प्राप्ति का एक साधन मात्र होता है। उपरोक्त विभागीकरण की पद्धतियाँ कुछ विशेष दशाओं के लिए अधिक उपयुक्त रहती हैं और उनके अपने गुण और दोष। हैं। अत: कोई भी एक पद्धति उपक्रम के सभी स्तरों के लिए उचित नहीं रहती है। उपक्रम की विभिन्न प्रक्रियाओं, स्तरों, क्षेत्रों पर विविध विभागीकरण के आधार अपनाए जाते हैं जिससे कि विभागीकरण में मितव्ययिता, सुविधा, समन्वय, नियन्त्रण, सन्देशवाहन आदि उद्देश्यों की पूर्ति हो सके। उदाहरणार्थ, एक बड़े उपक्रम में उच्च स्तर पर मुख्यालयों के लिए कार्यानुसार विभागीकरण हो सकता है, कार्य-निष्पादन के स्तर पर उत्पादानुसार विभागीकरण हो सकता है और विक्रय का विभागीकरण। क्षेत्रानुसार हो सकता है, यह मिश्रित विभागीकरण कहलाता है।

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विभागीकरण के गुण एवं दोष

MERITS AND DEMERITS OF DEPARTMENTATION)

गुण1. विभागीकरण करने से उपक्रम की क्रियाओं पर प्रभावी नियन्त्रण सम्भव होता है।

2. विभागीकरण में कर्मचारियों के अधिकार व दायित्वों का स्पष्ट विभाजन तथा व्याख्या की जाती है जिससे उत्तरदायित्व निर्धारण सुनिश्चित होता है।

3. प्रत्येक विभाग तथा उसके कर्मचारियों के कार्यों का मूल्यांकन करना सरल हो जाता है।।

4. विभागीय बजट सरलतापूर्वक तैयार और क्रियान्वित किये जा सकते हैं।

5. विभागीय प्रबन्धकों के द्वारा स्वतन्त्र रूप से निर्णयन के कारण योग्यता में वृद्धि होता हा

6. प्रत्येक विभाग के लिए आवश्यक कर्मचारियों, पदों तथा अन्य बातें सरलतापूर्वक ज्ञात का जा सकती हैं।

7. विभागीकरण से विकेन्द्रीकरण के सभी लाभ प्राप्त होते हैं।

8. अधिकारों के उचित भारार्पण से अधिकारों का दरुपयोग और दायित्वों के खिसकाने की प्रवृत्ति पर रोक लगती है।

दोष1. विभिन्न विभागों के लिए योग्य कर्मचारियों एवं अधिकारियों का चयन करना एक जटिल समस्या बन जाती है।

2. पृथक्-पृथक् विभाग होने के कारण प्रबन्धकीय प्रशिक्षण की व्यवस्था मश्किल होती है।

3. विभागीय प्रबन्धक केवल अपने विभागीय मामलों में दक्ष होते हैं, अतः अन्य विभागों में आकस्मिक स्थानान्तरण जोखिमपूर्ण होता है।

4. प्रत्येक विभाग अपने कार्य में इतना अधिक व्यस्त एवं केन्द्रित हो जाता है कि अन्य विभागों से समन्वय स्थापित करने में बड़ी कठिनाई होती है।

5. यह एक खर्चीली व्यवस्था है।

6. यह छोटे उपक्रमों के लिए अनुपयोगी होती है, क्योंकि वे संगठन संरचना पर अधिक व्यय करने की स्थिति में नहीं होते हैं।

7. विभागीकरण से विभिन्न क्रियाओं में इतना विकेन्द्रीकरण हो जाता है कि नीतियों में विभिन्नता आ जाती है।

8. विभागीय कर्मचारियों का दृष्टिकोण संकुचित हो जाता है।

क्रियाओं का आबंटन

(ASSIGNMENT OF ACTIVITIES)

आशयप्रबन्धक के लिए अपने अधीनस्थों के मध्य निश्चित कार्य आबंटित करना एक प्रमुख उत्तरदायित्व है। वास्तव में सैद्धान्तिक आधार पर क्रियाओं का वर्गीकरण कार्य, उत्पाद. प्रक्रिया, क्षेत्र, ग्राहक, संख्या आदि के आधार पर किया जाता रहा है, परन्तु व्यवहार में इससे नियन्त्रण और समन्वय सम्भव नहीं हो पाता है। प्रबन्धक को उत्पाद के स्वभाव, संगठन संरचना, लागत, सुविधा, समन्वय की सुविधा, अधिकारी की रुचि, प्लाण्ट अभिन्यास आदि को ध्यान में रखते हुए एक वर्ग की कुछ क्रियाओं को दूसरे वर्ग में जोड़कर या दूसरे वर्ग की क्रियाओं को पहले में जोड़कर समायोजन करना आवश्यक होता है। क्रियाओं का विविध कनिष्ठों में उचित प्रकार से आबंटन कार्य-सम्पादन हेतु अपरिहार्य होता है।

विचारणीय घटकव्यवहार में क्रियाओं के आबंटन के समय निम्न घटकों पर विशेष ध्यान रखना चाहिए

1 रुचि और ज्ञानउसी अधिकारी और कर्मचारी को वह कार्य विशेष दिया जाना चाहिए जिसमें उनकी रुचि और विशेष योग्यता हो। उदाहरण के लिए, अध्यापन हेतु विभागाध्यक्ष को प्रबन्ध अध्यापन की रुचि रखने वाले अध्यापक को लेखांकन पढ़ाने को देना अतार्किक कहा जायेगा।

2. पर्यवेक्षण की सुविधाक्रियाओं के आबंटन में पर्यवेक्षण की सुविधा को भी ध्यान में रखना चाहिए। किसी भी अधिकारी की अधीनस्थ कर्मचारयों के कार्य के निरीक्षण करने की सीमित क्षमता होती है। अत: पर्यवेक्षण की सुविधा के लिए क्रियाओं का आबंटन करते समय अधीनस्थ की निर्देशन क्षमता, प्रशिक्षण अनुभव, उपलब्ध समय आदि का ध्यान रखना चाहिए।

3. ध्यानाकर्षण और प्रतियोगिता का स्वभाव-यदि कोई अधिकारी उदासीन, अकुशल, अनुभवहीन होने के कारण कार्य ठीक प्रकार से निष्पादित न कर पाता हो, तो वह कार्य दूसरे सक्रिय अधिकारी को हस्तान्तरित करना ठीक रहता है। कभी-कभी दो अधिकारियों में रुचि और कुशलता उत्पन्न करने के क्रियाओं का आबंटन इस प्रकार से किया जाता है कि स्वतन्त्र प्रतियोगिता का सृजन हो सके।

4.निरीक्षण का पृथकत्वक्रियाओं के आबंटन में ध्यान रखना चाहिए कि जिस अधिकारी या विभाग को कार्य निष्पादन की जिम्मेदारी हो उसे क्रिया के निरीक्षण से अलग रखना चाहिए।

5. समन्वयक्रियाओं के आबंटन में आवश्यक है कि गतिविधियों का दोहरापन या छट। जाना न हो करके आपस में समन्वय, सहयोग, सुसंगति आदि बनी रहे।

6. नीति नियन्त्रणक्रियाओं के आबंटन में नियन्त्रण कार्य उसे ही दिया जाना चाहिए जो। कि उसका सही अर्थ समझ करके क्रियान्वित करे।।

7. घनिष्ठताउसी कर्मचारी को वह कार्य दिया जाना चाहिए जो कि पहले से कार्य के स्वभाव से घनिष्ठ रूप से जुड़ा रहा हो।

परीक्षा हेतु सम्भावित महत्त्वपूर्ण प्रश्न

(Expected Important Questions for Examination)

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

(Long Answer Questions)

प्रश्न 1. विभागीकरण से आप क्या समझते हैं ? विभागीकरण के विभिन्न प्रारूपों की, उनके सापेक्षिक गुण-दोष बताते हुए व्याख्या कीजिये।

What do you understand by departmentation ? Discuss various forms of departmentation along with their relative merits and demerits.

प्रश्न 2. संगठन के विभागीकरण के कौन-कौन से आधार हैं ? प्रत्येक के लाभ-दोषों का वर्णन कीजिये।

What are the bases of departmentation ? Describe the advantages and defects of each.

लघु उत्तरीय प्रश्न

(Short Answer Questions)

प्रश्न 1. विभागीकरण करते समय किन-किन तत्वों पर ध्यान दिया जाना चाहिये।

What factors should be taken into account while making departmentation ?

प्रश्न 2. विभागीकरण के प्रमुख आधारों की व्याख्या कीजिये।

Explain important bases of depatmentation.

प्रश्न 3. विभागीकरण से आप क्या समझते हैं ?

What do you mean by departmentation ?

प्रश्न 4. प्रक्रिया विभागीकरण को समझाइये।

Discuss process departmentation.

प्रश्न 5. विभागीकरण की आवश्यकता एवं महत्व को समझाइये।

Explain the need and importance of departmentation.

प्रश्न 6. क्रियाओं के आबंटन के समय किन घटकों पर विशेष ध्यान देना चाहिये?

Which factors should be considered while assigning activities?

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

(Objective Type Questions)

1 बताइये कि निम्नलिखित वक्तव्य ‘सही हैं या ‘गलत’

State whether the following statements are ‘True’ or ‘False’ –

(i) विभागीकरण बड़े उद्योगों के लिये उपयुक्त है।

Departmentation is suitable for large enterprises.

(ii) विभागीकरण विकेन्द्रीयकरण को प्रोत्साहित करता है।

Departmentation promotes decentralisation.

(iii) विभागीकरण अधीनस्थों की कुशलता में वृद्धि करता है।

Decentralisation increases the efficiency of subordinates.

उत्तर-(i) सही (ii) सही (iii) सही।

2. सही उत्तर चुनिये (Select the correct answer)

(i) विभागीकरण उपयुक्त है (Departmentation is suitable for) :

(अ) लघु उद्योगों के लिये (For small industries)

(ब) बडे उद्योगों के लिये (For large industries)

(स) कुटीर उद्योगों के लिये (For cottage industries)

(द) सभी प्रकार के उद्योगों के लिये (For all types of industries)

(ii) विभागीकरण का कर्मचारियों पर प्रभाव पड़ता है

(The effect of Departmentation on workers is :

(अ) कुशलता में वृद्धि (Increase in efficiency)

(ब) लापरवाही में वृद्धि (Increase in negligence)

(स) अकुशलता में वृद्धि (Increase in inefficiency)

(द) नैतिक पतन (Moral Decay)

उत्तर-(i) (ब) (ii) (अ)

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chetansati

Admin

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