BCom 2nd Year Motivation Concepts Incentives Theories Study Material Notes in Hindi

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BCom 2nd Year Motivation Concepts Incentives Theories Study Material Notes in Hindi 

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BCom 2nd Year Motivation Concepts Incentives Theories Study Material Notes in Hindi: Motivation Concepts Meaning and Definitions of Motivation Nature and Characteristics of Motivation Objectives of Motivation Need and Importance of Motivation Methods and Types of motivation Distinction between positive and Negative Motivation Some Important Examples of Non-Financial Incentives Techniques or methods or  Motivation Essentials of Sound  motivations System Theories of Motivation Comparison and Relation of Mallow and Heisenberg Theories Examination Questions Long And Short Questions ( This Post Is most Important for BCom 2nd year Students ) :

Motivation Concepts Incentives Theories
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BCom 2nd Year Business Management Form Organization Structure Study Material Notes in Hindi

अभिप्रेरण : अवधारणा, प्रेरक एवं सिद्धान्त

[Motivation : Concept, Incentives and Theories]

किसी भी संस्था की सफलता उस संस्था के भौतिक संसाधनों एवं कर्मचारियों के प्रभावी उपयोग पर निर्भर करती है। कर्मचारी एक सक्रिय सजीव साधन है, जबकि भौतिक संसाधन निर्जीव होते हैं। भौतिक संसाधनों (जैसे मशीन) के निर्जीव होने के कारण उनसे हम अपनी इच्छानुसार कार्य करा सकते हैं, परन्तु कर्मचारियों के सक्रिय सजीव साधन होने के कारण बलपूर्वक अपनी इच्छानुसार कार्य नहीं कराया जा सकता। वस्तुत: कर्मचारियों की तुलना मशीन से कभी भी नहीं की जा सकती, क्योंकि मशीन का बटन (Switch) तो जैसे ही On किया जाता है, वैसे ही मशीन कार्य करना प्रारम्भ कर देती है एवं तब तक कार्य करती रहती है जब तक Power की Supply जारी रहती है तथा जैसे ही मशीन के बटन (Switch) को Off कर देते हैं मशीन कार्य करना बन्द कर देती है। स्पष्ट है कि मशीन हमारी इच्छानुसार जब तक हम चाहें कार्य करती है, लेकिन यह बात कर्मचारियों पर लागू नहीं होती, कोई भी प्रबन्ध कर्मचारियों से बलपूर्वक अपनी इच्छानुसार कार्य नहीं करा सकता।

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कार्य करने की क्षमता’ एवं ‘कार्य करने की इच्छा’ दो` अलग-अलग बातें हैं। एक व्यक्ति कितना भी योग्य, अनुभवी और कार्य करने की क्षमता रखता हो, लेकिन यदि उसकी कार्य करने की इच्छा न हो तो उस व्यक्ति की योग्यता, अनुभव एवं कार्य करने की क्षमता का कोई महत्व नहीं होता। धन से किसी व्यक्ति का समय खरीदा जा सकता है, उसकी भौतिक/शारीरिक उपस्थिति निश्चित की जा सकती है, लेकिन उसकी कार्य करने की इच्छा को नहीं खरीदा जा सकता। कार्य करने की इच्छा उत्पन्न करने के लिये उन्हें प्रेरित करना पड़ता है। अभिप्रेरणा एक ऐसी शक्ति है जो व्यक्तियों में कार्य करने की इच्छा उत्पन्न करती है। मनुष्य जो भी कार्य करता है उसके पीछे एक प्रेरक शक्ति होती है। यह प्रेरणा या प्रेरक शक्ति उसकी आवश्यकताओं (Needs) तथा इच्छाओं (Wants) की अभिव्यक्ति है। यह किसी व्यक्ति के व्यवहार को निश्चित करती है और उसे किसी कार्य को करने या न करने के लिये निर्देशित करती है। अभिप्रेरणा की समस्या वास्तव में कर्मचारियों के संगठन सम्बन्धी व्यवहार (Organisational Behaviour) की समस्या है। स्पष्ट है कि किसी संस्था में कार्यरत कर्मचारियों से उनकी कार्यक्षमता के अनुसार कार्य कराने के लिये कर्मचारियों की कार्य करने की इच्छा को प्रभावित करने वाले घटकों एवं सिद्धान्तों की जानकारी किसी प्रबन्धक के लिये परमावश्यक है। प्रस्तुत अध्याय में ‘अभिप्रेरणा’ से सम्बन्धित विभिन्न पहलुओं की विस्तृत विवेचना की जा रही है।

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अभिप्रेरण की अवधारणा

(MOTIVATION CONCEPT)

अभिप्रेरणा की प्रमुख अवधारणाएँ निम्नलिखित हैं

(1) प्रक्रिया अवधारणा (Process Concept)-प्रक्रिया अवधारणा के अनुसार अभिप्रेरण एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है जो कभी समाप्त नहीं होती है। कर्मचारियों से कार्य कराने के लिये उन्हें निरन्तर अभिप्रेरित करना पड़ता है।

(2) मनोवैज्ञानिक अवधारणा (Psychological Concept)-प्रो० मैकफारलैण्ड के अनसार, “अभिप्रेरण की अवधारणा मूलत: मनोवैज्ञानिक है जो मनुष्य को तत्परता एवं रुचि से कार्य करने के लिये अभिप्रेरित करती है।” अभिप्रेरणा मनुष्य के अन्दर से उत्पन्न होती है, बाहर से नहीं।

(3) मानवीय सन्तुष्टि की अवधारणा (Human Satisfaction Concept)-अभिप्रेरण मानवीय सन्तुष्टि का परिणाम है। अभिप्रेरण न तो क्रय की जा सकती है और ना हस्तान्तरित।

(4) वाछित कार्य कराने की अवधारणा (Getting Desired Work Done Concept) – के अनसार, “अभिप्रेरण वांछित कार्य कराने के लिये सही बटन को दबाती है” स्पष्ट है। कि अभिप्रेरण वांछित कार्य कराने की एक तकनीक है।

(5) कार्य करने के लिये प्रेरित करने की अवधारणा (Incentive to Do Work Concept)-अभिप्रेरण की यह अवधारणा प्रत्येक कर्मचारी को अधिकतम कार्य करने के लिये प्रेरित करती है, ताकि निर्धारित उद्देश्य एवं लक्ष्य को प्राप्त किया जा सके।

(6) कार्यात्मक अवधारणा (Functional Concent)-इस अवधारणा के अनुसार अभिप्ररण प्रबन्ध का महत्वपूर्ण कार्य है जिसका निष्पादन प्रत्येक प्रबन्धक को करना होता है। जॉर्ज आर० टैरी के अनुसार, “अभिप्रेरण प्रबन्धकीय कार्य है जो लोगों को प्रोत्साहित करके वांछित दिशा की ओर अग्रसर करता है

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अभिप्रेरण का अर्थ एवं परिभाषाएँ

(MEANING AND DEFINITIONS OF MOTIVATION)

अभिप्रेरण को अंग्रेजी में Motivation कहते हैं। इस शब्द की उत्पत्ति अंग्रेजी के Motive शब्द से हुई है जिसका शाब्दिक अर्थ इच्छा शक्ति को जाग्रत करना है। इस प्रकार अभिप्रेरण से तात्पर्य उस शक्ति से है जो व्यक्तियों में काम करने की इच्छा जाग्रत करती है। सरल शब्दों में, अभिप्रेरण या उत्प्रेरण कर्मचारियों की ‘मनोवैज्ञानिक ऊर्जा’ है जो उन्हें संगठन में योगदान के लिये प्रेरित करती है। वस्तुतः अभिप्रेरण एक चालक-शक्ति (Driving Force) है, जो सम्पूर्ण संगठन को गतिशील करती है।

प्रबन्ध-विज्ञान के विद्वानों ने अभिप्रेरण को व्यक्त करने के लिये अनेक शब्दों का प्रयोग किया है। हैनरी फेयोल, जो प्रबन्ध-विज्ञान के जनक कहलाते हैं, ने प्रबन्ध प्रकार्यों का विवेचन करते समय ‘आदेश’ (Command) शब्द का प्रयोग किया है। कूण्टज तथा ओ’ डोनेल ने अभिप्रेरणा को व्यक्त करने के लिये ‘निर्देशन’ (Direction) शब्द का प्रयोग किया है, परन्तु इनका आशय अभिप्रेरण से

अभिप्रेरण को विभिन्न विद्वानों ने विभिन्न प्रकार से. परिभाषित किया है। अभिप्रेरण की कुछ प्रमुख परिभाषाएँ (Definitions) इस प्रकार हैं

1 कुण्टज तथा डोनेल (Koontz and O’ Donnell) के अनुसार, “लोगों को इच्छित तरीके से कार्य करने के लिये प्रोत्साहित करना ही अभिप्रेरणा देना है।”1

2. स्टेनले वेन्स (Stanley Vance) के अनुसार, “अभिप्रेरण के अन्तर्गत कोई भी ऐसी भावना या इच्छा सम्मिलित होती है जो किसी व्यक्ति की इच्छा को इस प्रकार बना देती है कि वह कार्य करने को प्रेरित हो जाये।”

3. डेल एस० बीच (Dale S. Beach) के अनुसार, “अभिप्रेरण को एक लक्ष्य या पारितोषिक प्राप्त करने की शक्ति के विस्तार की इच्छा के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।

4.विलियम जी० स्कॉट (William G. Scott) के अनुसार, “अभिप्रेरण व्यक्तियों को इच्छित लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु कार्य करने के लिये प्रेरित करने की एक प्रक्रिया है।”

5. माइकल जे० जुसियस (Michael J. Jucius) के अनुसार, “अभिप्रेरण स्वयं को या किसी अन्य व्यक्ति को इच्छित कार्य करने हेतु प्रोत्साहित करने की क्रिया है अथवा एक वांछित प्रतिक्रिया प्राप्त करने के लिये सही बटन दबाना है।

6. मक्फारलैण्ड (McFarlandi) के अनुसार, “अभिप्रेरणा वह विधि है जिसके द्वारा संवेग, , इच्छाए, आकांक्षाएँ, प्रयास अथवा आवश्यकताएँ मानव आचरण को निर्देशित, नियन्त्रित एवं स्पष्ट करती हैं।”

निष्कर्षउपरोक्त परिभाषाओं का अध्ययन करने के उपरान्त हम यह कह सकते हैं कि आभप्ररण वह मनोवैज्ञानिक उत्तेजना है जो व्यक्तियों/कर्मचारियों को कार्य करने के लिए प्रोत्साहित करती है, कार्य पर बनाए रखती है और उन्हें अधिकतम सन्तुष्टि प्रदान करती है।

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अभिप्रेरण की प्रकृति एवं विशेषताएँ

(NATURE AND CHARACTERISTICS OF MOTIVATION)

1 एक प्रक्रिया (A Process)-अभिप्रेरणा एक प्रक्रिया है जो व्यक्तियों को निश्चित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये प्रेरित अथवा प्रोत्साहित करती है। यह मानवीय व्यवहार को जाग्रत करने (Arousing), बनाये रखने (Sustaining) एवं वांछित दिशाओं में अग्रसर करने की प्रक्रिया है।

2. सतत् प्रक्रिया (Continuous Process)-भिप्रेरण एक सतत् प्रक्रिया है सदैव चलती रहती है। जब तक संस्था अस्तित्व में रहती है तब तक उसमें कार्यरत व्यक्तियों से कार्य करवाने के लिये उन्हें सदैव एवं निरन्तर अभिप्रेरित करना ही पड़ता है।

3. जटिल एवं गतिशील प्रक्रिया (Complex and Dynamic Process)-अभिप्रेरण को जटिल प्रक्रिया इसलिये कहा जाता है, क्योंकि किसी भी व्यक्ति की इच्छाएँ एवं प्रेरणाएँ अनेक होती हैं और उन्हें समझना अत्यन्त कठिन है। प्रेरणा को जाग्रत करने के लिये विभिन्न प्रलोभन उपलब्ध हैं और अभिप्रेरणा की कोई एक आदर्श विधि नहीं है। यह एक गतिशील प्रक्रिया भी है, क्योंकि व्यक्तियों/कर्मचारियों की आवश्यकताओं व व्यवहारों में निरन्तर परिवर्तन होते रहने के कारण प्रबन्ध को भी अपनी अभिप्रेरणा विधियों व योजना में परिवर्तन करना

4. चक्रीय प्रक्रिया (Circular Process)-अभिप्रेरणा एक चक्रीय प्रक्रिया है, क्योंकि यह आवश्यकता के अनुभव से प्रारम्भ होती है और नई आवश्यकता के जन्म पर खत्म होती है।

5. मनोवैज्ञानिक धारणा (Psychological Concept)-अभिप्रेरणा एक मनोवैज्ञानिक अवधारणा है, क्योंकि इसका सम्बन्ध मनुष्य के मन, उसके मस्तिष्क एवं उसकी सोच से होता है। दूसरे शब्दों में, अभिप्रेरण का सम्बन्ध उन आवश्यकताओं से है जो मनुष्य के चेतन अथवा अर्द्ध-चेतन मस्तिष्क (Sub-conscious Mind) में विद्यमान रहती हैं। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार व्यक्ति का व्यवहार उसके मन (Mind) एवं उसमें होने वाली अनुभूतियों से निर्मित होता है।

6. विभिन्न प्रकार (Different Types)-अभिप्रेरण कई प्रकार का होता है। जैसे—धनात्मक एवं ऋणात्मक, वित्तीय एवं अवित्तीय, व्यक्तिगत एवं सामूहिक आदि। इन विभिन्न प्रकार के अभिप्रेरण की तकनीकें एवं प्रक्रिया भी भिन्न-भिन्न होती हैं। संस्था के सदस्यों की प्रकृति, कार्य, लक्ष्य व संगठनात्मक परिस्थितियों पर विचार करते हुए विभिन्न प्रकार के अभिप्रेरण का प्रयोग किया जा सकता है।

7. अभिप्रेरण मानवीय सन्तुष्टि का कारण एवं परिणाम दोनों है (Causes and Effect of Satisfaction, Both)-अभिप्रेरणा देना वास्तव में मानवीय आवश्यकताओं की सन्तुष्टि करना है। मानव की आर्थिक, सामाजिक एवं मानसिक कई आवश्यकताएँ होती हैं। उन आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए प्रबन्धक अभिप्रेरण का प्रयोग करते हैं। अत: अभिप्रेरण मानवीय सन्तुष्टि का कारण है। । परन्तु आवश्यकताओं की सन्तुष्टि से मानव में पुनः अधिक कार्य करने की इच्छा जाग्रत होती है,

अतः इस स्थिति में अभिप्रेरण सन्तुष्टि का परिणाम भी है। स्पष्ट है कि अभिप्रेरण, मानवीय सन्तष्टि को प्रेरित करने का कारण एवं उसका परिणाम दोनों है।

8. सम्पूर्ण व्यक्ति अभिप्रेरित होता है, कि उसका कोई एक भाग (The Whole and not part of Man is Motivated)-प्रत्येक मनुष्य एक सम्पूर्ण इकाई के रूप में होता है और उसके शरीर के किसी भी भाग को उससे अलग नहीं किया जा सकता है। अतः मनष्य सम्पर्ण रूप से भिप्रारत होता है, उसके शरीर के एक भाग को अलग से अभिप्रेरित नहीं किया जा सकता हा सग निर्धारित लक्ष्या का प्राप्ति हेतु मानवीय आवश्यकताओं के अनरूप सम्पर्ण व्यक्ति को आभप्रारत करने की आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिए, यदि संजय को भूख लगी है तो यह कहा जायेगा कि संजय को भोजन की आवश्यकता है न कि संजय के पेट को भोजन की आवश्यकता है।

9. उद्दीपन कार्य (Arousal Function)-अभिप्रेरण एक उद्दीपन कार्य है, जो मनुष्य को निष्क्रिय शक्तियों को उत्तेजित करता है। इसमें विभिन्न उद्दीपकों (Stimulants) को निर्धारित करके उन्हें प्रयुक्त किया जाता है, ताकि मानवीय व्यवहार को वांछित दशा में निर्देशित किया जा सके।

10. अभिप्रेरणा एवं मनोबल एक दूसरे से भिन्न हैं-कई बार यह भ्रम हो जाता है कि अभिप्रेरणा तथा मनोबल एक ही हैं और ये दोनों शब्द पर्यायवाची हैं, किन्तु ऐसा नहीं है। इन दोनों शब्दों में अन्तर है। अभिप्रेरणा कार्य के प्रति प्रेरित करने की प्रक्रिया है, जबकि मनोबल कार्य करने की इच्छा है।

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11. अन्य लक्षणअभिप्रेरण के कुछ अन्य लक्षण निम्न हैं

(i) अभिप्रेरण केवल तकनीक नहीं है, यह तकनीक से बहुत कुछ अधिक है।

(Motivation is more than mere techniques.)

(ii) अभिप्रेरण अवबोध तथा ज्ञान प्राप्ति (Learning) की भाँति एक ‘परिकल्पित रचना’

(Hypothetical Construct) है। यह एक मानसिक संरचना है। वास्तव में, अभिप्रेरण को माइक्रोस्कोप से देखा या पृथक् नहीं किया जा सकता है। अभिप्रेरण के केवल व्यवहारात्मक प्रकटीकरण को ही देखा जा सकता है।

(iii) अभिप्रेरण आवश्यकताओं तथा इच्छाओं पर आधारित जीवन का एक ढंग एवं दर्शन

(iv) अभिप्रेरण का सम्बन्ध मानवीय व्यवहार के “क्यों” (“Why”of human behaviour) से है।

(v) अभिप्रेरण मानवीय सहज-वृत्ति नहीं. वरन् वातावरण में सीखा हुआ एक प्रत्युत्तर (a learnt response) है।

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अभिप्रेरण के उद्देश्य

(OBJECTS OF MOTIVATION)

सामान्यत: अभिप्रेरण के निम्नलिखित उद्देश्य होते हैं

1 संगठनात्मक लक्ष्यों को प्राप्त करना।

2. संस्था में कर्मचारियों का स्वैच्छिक सहयोग करना।

3. कर्मचारियों के मनोबल में वृद्धि करना।

4. उच्च मानवीय सम्बन्धों की स्थापना करना।

5. कर्मचारियों की कार्यकुशलता में वृद्धि करना।

6. कर्मचारियों का आत्म-विकास करना।

7. बाहा नियन्त्रण के स्थान पर आत्म नियन्त्रण को प्रोत्साहित करना।

8. कर्मचारियों के मध्य पारस्परिक सहयोग की भावना का विकास करना।

9. कर्मचारियों की आर्थिक, सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं की पूर्ति करना।

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अभिप्रेरण की आवश्यकता एवं महत्त्व

(NEED AND IMPORTANCE OF MOTIVATION)

परम्परागत प्रबन्ध में कर्मचारियों की इच्छाओं, भावनाओं. अभिलाषाओं आदि की ओर कोई ध्यान नहीं दिया जाता था। कर्मचारी मात्र दास बनकर नियोक्ता के यहाँ कम वेतन पर अधिक समय तक कार्य करता था। कर्मचारी को उत्पादन के अन्य साधनों की तरह केवल एक साधन माना जाता था जिसके श्रम का अन्य साधनों की तरह क्रय-विक्रय किया जा सकता था। फलतः उस समय अभिप्रेरण का कोई महत्व नहीं था। लेकिन वैज्ञानिक प्रबन्ध के प्रादुर्भाव और परिस्थितियों में तीव्र पहुए परिवर्तन ने नियोजकों को मानवीय सम्पदा पर सर्वाधिक ध्यान देने के लिए विवश कर और कर्मचारी के श्रम को क्रय-विक्रय की वस्तु न मानकर उत्पादन का एक अभिन्न अंग माना जाने लगा। फलत: अभिप्रेरण की आवश्यकता एवं महत्व को स्वीकार किया गया। वैज्ञानिक प्रबन्ध के जन्मदाता एफ० डबल्य टेलर (E.W. Taylor) ने भी अभिप्रेरण के महत्व को स्वीकार किया और प्ररणात्मक मजदूरी पद्धति पर बल दिया। एलेन (Allen) का मानना है कि, “अपर्याप्त अभिप्रेरित व्यक्ति सर्वाधिक सुदृढ़ संगठन का प्रभाव भी समाप्त कर देते हैं।” (Poorly motivated people can nullify the soundest organisation)

अभिप्रेरण के महत्व का विस्तृत अध्ययन करने से पूर्व हमें यह समझ लेना चाहिए कि ‘कार्य की क्षमता’ (Capacity of work) और ‘कार्य करने की इच्छा ‘ (Will to work) दो अलग-अलग बातें हैं। एक व्यक्ति शारीरिक, मानसिक, तकनीकी, सभी दृष्टियों से कार्य करने के योग्य हो, लेकिन वह कार्य करना नहीं चाहता अर्थात् उसकी कार्य करने की इच्छा नहीं है तो ऐसी स्थिति में आवश्यकता इस बात की है कि उसकी कार्य के प्रति इच्छा जागृत की जाए और इस हेतु उसे अभिप्रेरित किया जाए। जनरल फूड कॉरपोरेशन (General Food Corporation) के भूतपूर्व अध्यक्ष क्लेरेन्स फ्रान्सिस (Clarence Francis) ने ठीक ही कहा है : “आप किसी व्यक्ति का समय खरीद सकते हैं,

आप एक विशिष्ट स्थान पर किसी व्यक्ति की शारीरिक उपस्थिति खरीद सकते हैं, लेकिन आप किसी व्यक्ति का उत्साह, पहलपन या वफादारी नहीं खरीद सकते।” अभिप्रेरण की आवश्यकता एवं महत्व को हम निम्न शीर्षकों द्वारा और अच्छी तरह स्पष्ट कर सकते हैं

1 संगठन के उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायता (Helps in Achieving Organisational Objectives)-अभिप्रेरणा के द्वारा कर्मचारियों को उन कार्यों को करने के लिए अभिप्रेरित किया जाता है जिनसे संस्था के उद्देश्यों को प्राप्त किया जायेगा। अभिप्रेरण से कर्मचारियों की कार्य करने की इच्छा जाग्रत होती है और उनके प्रयास निर्धारित लक्ष्यों की ओर अग्रसर होते हैं।

2. अच्छे मानवीय सम्बन्धों का निर्माण (Builds Good Human Relations)-मानवीय सम्बन्ध विचारधारा इस बात पर जोर देती है कि कर्मचारी पहले मानव है और बाद में कर्मचारी। अत: उसके साथ मानवतावादी दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए। अब वह विचारधारा पुरानी पड़ गई है जो कर्मचारी को उत्पादन के अन्य साधनों के समान क्रय-विक्रय की वस्तु मानकर चलती थी। कर्मचारियों के साथ अच्छे सम्बन्धों का निर्माण करके उनकी कार्यकुशलता में वृद्धि के साथ-साथ उत्पादकता में भी वृद्धि की जा सकती है। अभिप्रेरणात्मक विचारधाराओं एवं सिद्धान्तों की सहायता से मानवीय व्यवहार के कारणों की जानकारी करके उनको निर्देशित किया जा सकता है। इस प्रकार अभिप्रेरण से अच्छे मानवीय सम्बन्धों का निर्माण होता है।

3. कर्मचारियों की आवश्यकताओं की सन्तुष्टि (Satisfaction of the Needs of Personnel)-अभिप्रेरण एवं कर्मचारी की आवश्यकताओं की सन्तुष्टि में प्रत्यक्ष सम्बन्ध है। इसलिए कर्मचारियों को उचित रूप से अभिप्रेरित करने हेतु उसकी असन्तुष्ट आवश्यकताओं का पता लगाया जाता है और उन्हें सन्तुष्ट किया जाता है। इस प्रकार अभिप्रेरण से कर्मचारी की आर्थिक, सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं की सन्तुष्टि ही नहीं होती है, अपितु उनकी कार्य सन्तुष्टि का स्तर (Level of Job Satisfaction) भी बढ़ जाता है।

4. कर्मचारियों के सहयोग में वृद्धि (Increasing Co-operation of Employees)आधुनिक प्रबन्ध में कर्मचारियों का सहयोग प्राप्त करना प्रबन्धकों के सामने एक बहुत बड़ी चुनौती है। आज का कर्मचारी संगठित एवं जागरूक है। इसलिए उनसे सहयोग लेने के लिए अभिप्रेरण की आवश्यकता होती है, क्योंकि प्रबन्धक अभिप्रेरण द्वारा कर्मचारियों की कार्य करने की इच्छा जागृत करते हैं, उपक्रम के लक्ष्यों की जानकारी देते हैं और उनकी अवधारणाओं को सन्तुष्ट करते हैं। इन सबके परिणामस्वरूप कर्मचारियों के सहयोग में वृद्धि होती है।

5. कर्मचारियों के मनोबल में वृद्धि (Increasing in Employee’s Morale)-अभिप्रेरणाओं से जब एक कर्मचारी की विभिन्न प्रकार की आवश्यकताएँ सन्तुष्ट हो जाती हैं तो वह निश्चय ही मन लगाकर कार्य करता है और उसके मनोबल में वद्धि होती है। इस प्रकार अभिप्रेरणाएँ कर्मचारियों के मनोबल का निर्माण करने और उसमें वृद्धि करने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करती है।

6. कर्मचारियों की कार्यकशलता एवं उत्पादकता में वृद्धि (Increases Efficiency and Productivity)-अभिप्रेरणा से मानवीय इच्छाओं एवं भावनाओं की सन्तुष्टि होती है। इसके परिणामस्वरूप कर्मचारियों में कार्य करने की इच्छा उत्पन्न होती है। इसी से अन्ततोगत्वा कर्मचारिया की कार्यकुशलता एवं उत्पादकता में वृद्धि होती है।

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7. कर्मचारी समस्याओं में कमी (Minimizes Emplovee Problems) –आभरण कर्मचारियों एवं प्रबन्धकों के मध्य पारस्परिक विश्वास एवं सहयोग को बढ़ाता है। फलस्वरूप अनेक कर्मचारियों की समस्याओं; जैसे- अनुपस्थिति, शिकायतें, समय व सामग्री का दुरुपयोग, असन्तोष, नैराश्य, तोड़-फोड़, घेराव, हड़ताल आदि में कमी हो जाती है।

8. निष्पादनयोग्य वातावरण का सृजन (Creation of Performance Environment)संगठन में कार्य करने की इच्छा, आदेशों का पालन, लक्ष्य-प्राप्ति की भावना, कार्यक्षमता में वृद्धि आदि प्रेरणात्मक वातावरण में ही सम्भव है। कार्यों के कुशल निष्पादन के लिए अभिप्रेरण द्वारा ही उचित वातावरण का निर्माण किया जा सकता है।

9. प्रबन्धकीय कार्यों का आधार (Basis of Managerial Functions)-प्रबन्ध के विभिन्न कार्यों; जैसे—नियोजन, संगठन, नियन्त्रण, समन्वय आदि को कुशलतापूर्वक सम्पन्न करने के लिए कर्मचारियों को अभिप्रेरित करना आवश्यक होता है। बेच (Breach) के शब्दों में, “अभिप्रेरण की समस्या प्रबन्ध कार्यवाही की कुंजी है।”

10. परिवर्तन में सुविधा (Facilitates Changes)-अभिप्रेरणा की अच्छी व्यवस्था से ही संस्था में परिवर्तनों को आसानी से लागू किया जा सकता है। इससे कर्मचारियों के परिवर्तनों के प्रति रुख को सकारात्मक बनाया जा सकता है और नकारात्मक रुख को बदला जा सकता है। अभिप्रेरित कर्मचारी प्रबन्धकों द्वारा किये जाने वाले तकनीकी एवं प्रबन्धकीय परिवर्तनों को स्वीकार ही नहीं करते बल्कि अपनी ओर से भी परिवर्तनों का सुझाव देते हैं। स्पष्ट है कि प्रत्येक संस्था में परिवर्तनों को अपनाने एवं लागू करने के लिए अभिप्रेरणा की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है।

अभिप्रेरण की विधियाँ तथा प्रकार

(METHODS AND TYPES OF MOTIVATION)

एक व्यावसायिक उपक्रम के प्रबन्धक द्वारा जो अभिप्रेरक (Motivator) अपने कर्मचारियों को अभिप्रेरित करने के काम में लिये जा सकते हैं, उन्हें निम्नलिखित चार वर्गों में विभाजित किया जा सकता है

(I) धनात्मक एवं ऋणात्मक अभिप्रेरण;

(II) व्यक्तिगत एवं सामहिक अभिप्रेरण;

(III) आन्तरिक एवं बाहरी अभिप्रेरण; तथा

(IV) वित्तीय एवं अवित्तीय अभिप्रेरण।

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(A) धनात्मक एवं ऋणात्मक अभिप्रेरण (Positive and negative Motivation) (अनात्मक या सकारात्मक अभिप्रेरण पुरस्कार विचारधारा पर आधारित है। फ्लिप्पो (Flippo) के अनुसार, “धनात्मक अभिप्रेरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा लाभ या पुरस्कार की सम्भावना से दूसरों का अपनी इच्छानसार कार्य करने के लिए अभिप्रेरित किया जाता है।”

फिलिप्पो के अनुसार धनात्मक अभिप्रेरणाएँ देने की प्रमुख विधियाँ निम्नलिखित हैं

(i) कार्य के लिए सुझाव देना तथा प्रशंसा करना।

(ii) सूचनाएँ देना।

(iii) अधीनस्थों में व्यक्तिगत रूप से रुचि लेना।

(iv) प्रतिस्पर्धाएँ आयोजित करना।

(v) हिस्सा प्रदान करना।

(vi) गौरव प्रदान करना।

(vii) उत्तरदायित्वों का प्रत्यायोजन करना।

(viii) अधिक वेतन देना।

कर्मचारियों को अभिप्रेरित करने की धनात्मक अभिप्रेरणाएँ सबसे प्रमुख विधि हैं। सामान्यतः इसी विधि का प्रयोग किया जाता हैं। इससे कर्मचारियों की कार्य क्षमता को सरलतापूर्वक बढ़ाया जा सकता है तथा संस्था के प्रति अपनत्व की भावना का विकास किया जा सकता है।

ऋणात्मक अभिप्रेरण का सम्बन्ध भय, कठोरता, धमकी तथा आलोचनाओं से है। ये प्रेरणाएँ किसी विशिष्ट को निरुत्साहित करने के लिए अधिक काम में ली जाती हैं। इन प्रेरणाओं में निम्नलिखित को शामिल किया जा सकता है

(i) सेवामुक्ति का भय (ii) धमकी देना या उपेक्षा करना। (iii) वेतन में कटौती या वेतन वृद्धि रोकना। (iv) निम्न-स्तरीय व्यवहार। (v) कुछ उपलब्ध सुविधाओं की कटौती या समाप्ति। (vi) पदावनति (Demotion) (vii) डाँट-फटकार देना। (viii) जबरी-छुट्टी (Lay-off) करना।

ऋणात्मक अभिप्रेरणाएँ अधिक सफल नहीं हो पाती हैं। अनेक अध्ययनों तथा शोधों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि ऋणात्मक अभिप्रेरणाएँ केवल अल्पकाल में ही उपयुक्त हो सकती हैं। दीर्घकाल में ये अपना विपरीत प्रभाव दिखाती हैं। लिकर्ट (Likert) के अनुसार, “दीर्घकाल में ऋणात्मक अभिप्रेरणाएँ उत्पादकता को कम करती हैं।”

धनात्मक एवं ऋणात्मक अभिप्रेरणा में अन्तर

(Distinction between Positive and Negative Motivation)

II व्यक्तिगत एवं सामूहिक अभिप्रेरण (Individual and Group Motivation) – व्यक्तिगत अभिप्रेरणाओं से आशय ऐसी प्रेरणाओं से है जिनके द्वारा एक व्यक्ति को व्यक्तिगत रूप से प्रेरित करने का प्रयास किया जाता ह। इन प्रेरणाओं से एक व्यक्ति को व्यक्तिगत सन्तष्टि मिलती उसकी कार्यक्षमता में वृद्धि होती है तथा वह अपने आपको कार्य करने के लिए प्रेरित कर पाता है। इन प्रेरणाओं में निम्नलिखित को सम्मिलित किया जा सकता है।

(I) प्रशंसा तथा नौकरी की सुरक्षा।

(ii) प्रेरणात्मक वेतन पद्धति।

(iii) भावी पदोन्नति का प्रलोभन

(IV) रचनात्मक प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन देकर।

अभिप्रेरणाओं से आशय ऐसी प्रेरणाओं से है जो कि समह को एक साथ अधिक मेहनत से कार्य करने के लिए प्रेरित करती हैं। इन प्रेरणाओं से आपसी संघर्ष एवं मतभेद कम होते हैं, पर्यवेक्षण का भार कम हो जाता है तथा सामूहिक व्यवहार में सुधार आता है। इनमें निम्नलिखित को सम्मिलित किया जा सकता है

(i) विशिष्ट वार्षिक वृद्धियाँ।

(ii) अधिलाभांश तथा सामूहिक पुरस्कार।

(iii) पेन्शन एवं लाभों में सहभागिता।

(iv) समितियों का निर्माण।

(v) दलीय भावना का विकास।

(vi) कुशल सम्प्रेषण व्यवस्था आदि।

(III) आन्तरिक एवं बाहा अभिप्रेरण (Internal and External Motivation) आन्तरिक अभिप्रेरण (Internal Motivation)-आन्तरिक अभिप्रेरण से तात्पर्य उन प्रेरणाओं से है जिनका सम्बन्ध प्रत्यक्ष कार्य से है। इनका उपयोग करने से कर्मचारी कार्य करने को अधिक प्रेरित होता है। दूसरे शब्दों में, आन्तरिक अभिप्रेरणाएँ वे हैं जो कि कार्य के समय उत्पन्न होती हैं। ये अभिप्रेरणा कार्य के समय सन्तुष्टि प्रदान करती हैं और कर्मचारियों की सामाजिक तथा स्वाभिमान सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति करती हैं। ये अभिप्रेरणाएँ काफी अधिक होती हैं तथा इनकी प्रकृति प्रायः अमौद्रिक होती है। इनमें सम्मान, उत्तरदायित्व मान्यता, सहभागिता आदि को सम्मिलित किया जाता

बाहा अभिप्रेरणा वह है जो कि कार्य के आन्तरिक स्रोतों से प्राप्त होती है। ये अभिप्रेरणा कार्य के समय उत्पन्न नहीं होती है एवं इनका लाभ कार्य के उपरान्त ही प्राप्त होता है। अधिक वेतन, सीमान्त लाभ (fringe benefits), सेवानिवृत्ति योजनाएँ, जीवन बीमा, विश्राम का समय, छुट्टियाँ आदि वित्तीय बाहा अभिप्रेरणा के उदाहरण हैं। हर्जबर्ग (Herzberg) ने उन्हें स्वास्थ्य तत्त्व या जीवन रक्षक तत्त्व (hygiene or maintenance factors) के नाम से सम्बोधित किया है।

(IV) वित्तीय तथा अवित्तीय अभिप्रेरणाएँ (Financial and Non-financial Motivations/ Incentives)-वित्तीय प्रेरणाएँ वे हैं जो कि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मुद्रा से सम्बन्धित होती हैं। वित्तीय प्रेरणाओं में वेतन, मजदूरी, बोनस, सेवा निवृत्ति लाभ, लाभ विभाजन, छुट्टियों का वेतन, जीवन बीमा, नि:शुल्क चिकित्सा सेवा आदि को सम्मिलित किया जाता है। यह तो हम जानते ही हैं कि मुद्रा एक महत्वपूर्ण अभिप्रेरक तत्त्व है जो केवल भौतिक सुख ही नहीं वरन् स्वाभिमान सम्बन्धी आवश्यकताओं की सन्तुष्टि भी करती है।

अवित्तीय प्रेरणाएँ वे हैं जो प्रत्यक्ष रूप से मुद्रा से सम्बन्धित नहीं होती हैं। ये अभिप्रेरणाएँ मनुष्य में उच्च स्तरीय आवश्यकताओं; जैसे-स्वाभिमान व आत्म विकास की आवश्यकताओं के सम्बन्ध में सन्तुष्टि प्रदान करती हैं। ये अभिप्रेरणाएँ मनोवैज्ञानिक हैं जो कि कर्मचारियों की आन्तरिक भावनाओं से सम्बन्ध रखती हैं। अवित्तीय अभिप्रेरणाओं में प्रशंसा करना, हिस्सेदारी, उच्च स्तरीय उत्तरदायित्व प्रदान करना कार्य के निर्णयों में हिस्सा प्रदान करना, अधिकार देना. अच्छी कार्य दशाएँ उत्पन्न करना आदि को शामिल किया जाता है। ड्यूबिन (Dubin) के अनुसार, “अवित्तीय अभिप्रेरणाएँ मानसिक पुरस्कार हैं।”

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गैरवित्तीय प्रेरणाओं के कुछ महत्त्वपूर्ण उदाहरण

(SOME IMPORTANT EXAMPLES OF NON-FINANCIAL INCENTIVES)

1 नौकरी की सुरक्षा (Security of Service)—प्रत्येक कर्मचारी चाहता है कि उसकी नौकरी में छंटनी तथा सेवा-मुक्ति की जोखिम न हो। सामान्यतया यह देखा गया है कि एक व्यक्ति अस्थाई नौकरी की अपेक्षा स्थाई नौकरी होने पर अधिक मन लगाकर कार्य करता है। इसलिए यदि कमचारियों में उनकी नौकरी की सरक्षा का भाव उत्पन्न कर दिया जाए तो वे उपक्रम के कार्यों का सम्पादन अधिक रुचि एवं अपनी सम्पूर्ण शक्ति से करेंगे।

2. पद (Status)-संगठन संरचना में व्यक्ति का अच्छा पद एवं स्थिति उसे अधिक कार्य के लिए अभिप्रेरित करती है। अच्छा पद व्यक्ति को प्रतिष्ठा एवं सम्मान देने के साथ-साथ उसमें आशा, महत्वाकांक्षा एवं उपलब्धि का भाव उत्पन्न करता है। योग्य व्यक्ति को उचित पद प्रदान करके उसकी निराशा व कुण्ठा को समाप्त किया जा सकता है तथा उसकी भूमिका को सक्रिय बनाया जा सकता है।

3. विकास के अवसर (Growth Opportunities)-प्रत्येक व्यक्ति विकास एवं उन्नति के अवसर चाहता है। इससे वह अपनी योग्यताओं, कौशल एवं सम्भवनाओं को विकसित कर सकता है। अत: संगठन में पदोन्नति, प्रशिक्षण, शिक्षा व अन्य विकास की योजनाओं के द्वारा कर्मचारियों को अभिप्रेरित किया जा सकता है।

4. कार्य में गर्व (Pride in the Job)-प्रत्येक व्यक्ति प्रतिष्ठित संस्थाओं में गौरवपूर्ण कार्य करना चाहता है। संगठन की ख्याति व छवि से व्यक्ति की सामाजिक प्रतिष्ठा पर प्रभाव पड़ता है। अत: संस्था की प्रतिष्ठा में वृद्धि के साथ-साथ उसके कार्यों को भी गौरवपूर्ण बनाकर व्यक्ति को संगठन में रुके रहने के लिए प्रेरित किया जा सकता है।

5. पुरस्कार या दण्ड (Reward or Punishment)-अधिक एवं अच्छा कार्य करने पर पुरस्कार एवं कम काम करने पर दण्ड की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए। इससे अच्छा काम करने वाले को प्रेरणा मिलती है और कम काम करने वाले को अच्छा काम करने का मौका मिलता है। जहाँ अधिक एवं कम काम करने वाले को एक ही मापदण्ड से आँका जाता है, वहाँ अच्छा काम करने वाले निरुत्साहित हो जाते हैं। पुरस्कार का प्रावधान कर्मचारी में संस्था के प्रति निष्ठा एवं विश्वास उत्पन्न करना है।

6. कार्यचक्र एवं परिवर्तन (Job-rotation and Alteration)-कुछ संस्थाएँ अपने कर्मचारियों को अभिप्रेरणा देने के लिए कार्य-चक्र विधि का प्रयोग करती हैं। इस विधि में कर्मचारियों को थोड़े-थोड़े समय के लिए विभिन्न कार्यों पर लगाया जाता है। इससे वह एक कार्य करते हुए थकता नहीं है और कार्य में रुचि बनी रहती है। इस विधि द्वारा सभी कर्मचारियों को सब। कार्य करने का अवसर मिलता है, इससे उनके ज्ञान एवं चातुर्य में वृद्धि होती है।

7. कार्य विस्तार (Job Enlargement)-कार्य विस्तार के अन्तर्गत कार्य को विविध (Varied) प्रकृति का बनाकर इसकी नीरसता को समाप्त किया जाता है। इससे कार्य में न केवल थकान, ऊब व निराशा समाप्त हो जाती है, बल्कि कार्य में रुचि एवं चुनौती भी उत्पन्न होती है।

8. कार्य सम्पन्नता (Job Enrichment)-कार्यसम्पन्नता के द्वारा कार्य में एक चुनौती, महत्ता एवं उपलब्धि का भाव उत्पन्न किया जाता है। इसके द्वारा कर्मचारियों के उत्तरदायित्वों व चुनौतियों को विस्तृत किया जाता है। इसमें कार्य के निष्पादन के साथ-साथ उसके नियोजन व नियन्त्रण आदि पहलुओं को सौंप दिया जाता है।

9. सहभागिता (Participation)-संस्था के महत्वपूर्ण निर्णयों. योजनाओं व कार्यक्रमों में कर्मचारियों को भागीदार बनाकर उनको अभिप्रेरित किया जा सकता है। सहभागिता से कर्मचारियों में आत्म-विश्वास व सन्तुष्टि व सम्मान की भावना उत्पन्न होती है। वे संस्था के प्रति अधिक जागरूक, उत्तरदायी एवं सृजनशील बन जाते हैं।

10. कुशल सम्प्रेषण व्यवस्था (Efficient Communication System)-उपक्रम में कार्य करने वाले व्यक्तियों का सहयोग प्राप्त करने के लिए एक प्रभावशाली सम्प्रेषण व्यवस्था का निर्माण करना अधिक लाभदायक होगा। कुशल सम्प्रेषण व्यवस्था के माध्यम से एक प्रबन्धक कर्मचारियों को कम्पनी की समस्त योजनाओं से अवगत करा सकता है तथा उपक्रम के कर्मचारी के मन में उत्पन्न भमों को तरन्त समाप्त कर सकता है, जिनका कर्मचारियों की कार्य-क्षमता पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है।

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11. मान्यता (Recognition)-यदि कर्मचारियों के कार्यों को मान्यता प्रदान की जाए तो से अच्छे काम की अपेक्षा की जा सकती है। यदि एक प्रबन्धक अथवा पर्यवेक्षक अपने अधीन काम करने वाले व्यक्तियों के कार्यों की प्रशंसा करता है तो निःसन्देह वे कर्मचारी पूर्व की अपक्षा कार्य करगे, क्योंकि मान्यता एवं प्रशंसा से उन्हें आत्मिक सन्तुष्टि मिलेगा।

12. अधिकारों का प्रत्यायोजन (Delegation of Authority)-आधक अभिप्राय अपन आधिकारों में से कछ अधिकार अपने अधीनस्थों को प्रदान करने सहा (Delegation of Authority)-अधिकारों के प्रत्यायोजन का अधीनस्थ का अपन उच्च अधिकारी से यदि अधिक अधिकार प्राप्त होंगे तो उसमें विश्वास एप अपनत्व का भावना उदय होगा जो कि उसे अधिक कार्य करने की शक्ति प्रदान कर सकगा।

अभिप्रेरण की तकनीकें अथवा उपकरण

(TECHNIQUES OR METHODS OF MOTIVATION)

(1) कुशल नेतृत्व द्वारा (Motivation by Efficient Leadership)-प्रत्येक प्रबन्धक अपनस उच्च अधिकारियों के नेतृत्व में कार्य करता है और साथ ही अपने अधीनस्थों को नेतत्व प्रदान करता हैं चारियों को कार्य करने के लिए प्रेरित करने की शक्ति ही नेतत्व कहलाती है। प्रबन्धक अपन व चातर्य, विवेक आदि से अधीनस्थों को कार्य करने हेत अभिप्रेरित करता है। एक सस्था म पिबन्धक अपने अधीनस्थों को कार्य करने हेतु अभिप्रेरित करने की क्षमता रखता है जिसमे काय देत अभिप्रेरित करने की योग्यता होती है। इतिहास इस बात का गवाह है कि महात्मा गाँधी, बुद्ध, हिटलर, शिवाजी आदि महान् नेताओं में अपने अनुयायियों को चरम लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए

अभिप्रेरित करने की अपार क्षमता थी। प्रबन्धक भी अपनी नेतत्व क्षमता द्वारा अधीनस्थों के कार्य को 4 सही दिशा दिखाता है, उनकी समस्याओं को सुनता है, निदान करता है और सौहार्दपूर्ण सम्बन्धों की V स्थापना करता है। परिणामस्वरूप अधीनस्थ कार्य हेतु अभिप्रेरित होते हैं और संस्था की प्रगति में चार खं चाँद लगाते हैं।

(2) उद्देश्यों के स्पष्टीकरण द्वारा अभिप्रेरण (Motivation by Objectives Explanation) – कर्मचारियों को अभिप्रेरित करने का एक सरल तरीका यह होता है कि संगठन के सभी व्यक्तियों को संस्था के लक्ष्यों व उद्देश्यों की स्पष्ट जानकारी प्रदान की जाए। उन्हें यह भी बताया जाए कि संस्था के हित और उनका व्यक्तिगत हित अलग-अलग नहीं हैं। संस्था के लक्ष्यों की पूर्ति में ही उनके लक्ष्यों की पूर्ति निहित है। ऐसी पूरकता समझाने पर कर्मचारीगण लक्ष्य सम्वर्द्धन हेतु प्रेरित हो उठेंगे।

(3) स्वस्थ प्रतिस्पर्धा द्वारा अभिप्रेरण (Motivation by Healthy Competition)-आज का यग प्रतिस्पर्धा का युग है। जिस प्रकार खेल के मैदान में प्रतिद्वन्दी को पराजित करने की भावना है, उसी प्रकार संस्था के कर्मचारियों में विगत रिकार्डस (Previous Records) को तोड़ने की दौड़ और अन्य प्रतिस्पर्धा संस्थाओं से विजय प्राप्त करने की भावना होती है। यह भावना कर्मचारियों को और अधिक काम करने के लिए अभिप्रेरित करती है। इस आपसी प्रतिस्पर्धा में ध्यान रहे कि यह स्वस्थ होनी चाहिएँ न कि गलाकाट। साथ ही, प्रतिस्पर्धा द्वारा अभिप्रेरण में सतर्कता यह बरतनी चाहिए कि अकुशल कर्मचारी हिम्मत हार कर कार्य करना बन्द न कर दें।

(4) सहभागिता द्वारा अभिप्रेरण (Motivation by Participation)-किसी उपक्रम में कार्यरत श्रमिकों से संयुक्त परामर्श करके, उनके साथ विचार विमर्श करके उनको निर्णय में सम्मिलित करके तथा प्रबन्ध में सहभागिता देकर उन्हें अभिप्रेरित किया जा सकता है। व्यक्ति ऐसे विषयों पर जो प्रत्यक्ष रूप से उन्हें प्रभावित करते हैं, के सम्बन्ध में सलाह देकर गौरव का अनुभव करते हैं और ऐसी मनोवैज्ञानिक सन्तुष्टि प्राप्त करते हैं जो कितनी भी राशि द्वारा प्राप्त नहीं होती।

(5) चनौती द्वारा अभिप्रेरण (Motivation by Challange)-जिस तरह युवा वर्ग को जोश दिला करके कितना भी कठिन कार्य कराया जा सकता है, उसी तरह अगर प्रबन्धक संस्था के लक्ष्यों को चुनौती के रूप में रखें और कर्मचारीगण उस चुनौती को स्वीकार कर लें तो उत्पादकता अवश्य बढ़ती है। चुनौती के लिए उपयुक्त वातावरण तैयार करना पड़ता है। चुनौती द्वारा अभिप्रेरण प्रदान करते समय इस बात पर विशेष रूप से ध्यान दिया जाना चाहिए कि उसके लिए जो भी पुरस्कार घोषित किया जाए, वह कार्य निष्पादन के उपरान्त तत्काल दिया जाए।

(6) आकर्षण द्वारा अभिप्रेरण (Motivation by Attraction)-कर्मचारियों को अच्छा कार्य करने के प्रति आकर्षण पैदा करके अभिप्रेरित किया जा सकता है। जो कर्मचारी अच्छा कार्य करते हैं, उसे निर्धारित अवधि अथवा उससे पूर्व पूरा कर लेते हैं, उनकी प्रशंसा करनी चाहिए, उनके कार्य को मान्यता दी जानी चाहिए और उन्हें परस्कत करना चाहिए। ऐसा करने से अन्य कर्मचारी भी अच्छा कार्य करने को अभिप्रेरित होते हैं।

(7) मानवीय व्यवहार द्वारा अभिप्रेरणा (Motivation by Human Behaviour)-यह निाववाद सत्य है कि एक कर्मचारी पहले मानव है बाद में कर्मचारी। वह अपने श्रम को बेचता है, स्वयं को नहीं। कोई भी कर्मचारी चाहे कितना ही छोटा क्यों न हो, वह अच्छे व्यवहार की कामना करता है। अतः प्रबन्धक को कर्मचारी की रुचियों. भावनाओं, इच्छाओं की कद्र करते हुए मानवोचित व्यवहार करके अभिप्रेरित करना चाहिए। प्रबन्धक उनका शोषण न करें, दलित वर्ग का सदस्य न समझें, अपने और उनके बीच दूरी न रखें, तो कर्मचारी निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए अभिप्रेरित

होते हैं।

(8) अन्य (Others)-उपरोक्त के अतिरिक्त कुछ अन्य तकनीकें भी हैं-(i) स्वस्थ कार्य दशाएँ उपलब्ध कराकर, (ii) सेवा की सुरक्षा कराकर, (iii) विभिन्न कल्याणकारी योजनाएँ प्रारम्भ कराकर, (iv) प्रशिक्षण व्यवस्था कराकर, (v) पदोन्नति के अवसरों में वृद्धि करके, (vi) अधिकारों का प्रतिनिधायन करकर, (vii) अवित्तीय प्रेरणाएँ प्रदान करके इत्यादि।

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अभिप्रेरण की सुदृढ़ व्यवस्था के अनिवार्य तत्व

(ESSENTIALS OF SOUND MOTIVATIONAL SYSTEM)

कूण्टज तथा ओ’डोनेल के अनुसार एक सुदृढ़ अभिप्रेरण व्यवस्था की निम्नलिखित चार विशेषताएँ हैं

(1) उत्पादकता (Productivity)-अभिप्रेरण की श्रेष्ठ व्यवस्था वह है जिसके द्वारा अभिप्रेरित होकर कर्मचारी अधिक कुशलता व परिश्रम से कार्य करके उपक्रम की उत्पादकता में वृद्धि कर सके।

(2) प्रतिस्पर्धा (Competition)-एक अच्छी अभिप्रेरण व्यवस्था में कर्मचारियों को अधिक से अधिक कार्य करने तथा आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलनी चाहिए।

(3) व्यापकता (Comprehensiveness)-अभिप्रेरण व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए कि उनसे कर्मचारियों की प्राथमिक, सामाजिक तथा वैयक्तिक आवश्यकताएँ सन्तुष्ट हो सकें। अभिप्रेरण की योजना संगठन के समस्त कर्मचारियों पर समान रूप से लागू करनी चाहिए।

(4) लोच (Flexibility)-अभिप्रेरण की व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए जिसमें समय के परिवर्तन के साथ तथा संस्था की आवश्यकता के अनुरूप आवश्यक परिवर्तन किये जा सकें।

अभिप्रेरणा के सिद्धान्त अथवा विचारधाराएँ

(THEORIES OF MOTIVATION)

कुछ महत्वपूर्ण अभिप्रेरणा सिद्धान्तों की विवेचना निम्नलिखित है

(1) मैस्लो का आवश्यकता क्रमबद्धता का सिद्धान्त

(Maslow’s Need Hierarchy Theory)

इस विचारधारा का प्रतिपादन 1943 ई० में अमेरिका के विख्यात मनोवैज्ञानिक अब्राहम एच० मैस्लो (Abraham H. Maslow) द्वारा किया गया था। इसे अभिप्रेरणा की सर्वश्रेष्ठ विचारधाराओं में माना जाता है। उनके अनुसार मानव की आवश्यकताएँ अनन्त हैं और एक साथ उन्हें सन्तुष्ट नहीं किया जा सकता है। इन आवश्यकताओं में एक निश्चित क्रमबद्धता होती है और व्यक्ति को कार्य के प्रति रुचि एवं शक्ति उत्पन्न कराने हेतु उसकी एक के बाद दूसरी आवश्यकताओं को क्रमबद्धता में सन्तष्ट करना आवश्यक होता है। मैस्लो ने आवश्यकताओं को निम्नलिखित पाँच वर्गों में विभाजित किया है

1 शारीरिक आवश्यकताएँ (Physiological Needs)-मैस्लो के अनुसार, सबसे पहले समय की शारीरिक आवश्यकताएँ होती हैं। इनमें उन्होंने भोजन, प्यास, नींद, स्वास्थ्य, विश्राम और काम भावना को शामिल किया है। इन आवश्यकताओं की पूर्ति परमावश्यक होती है और पूरा न होने पर मृत्यु तक हो सकती है।

2. सुरक्षा आवश्यकताएँ (Safety Needs)-इन आवश्यकताओं में मैस्लो ने सुरक्षा, स्थायित्व, आराम, शान्ति और नौकरी की सरक्षा आदि को शामिल किया है। शारीरिक आवश्यकताआ की पूर्ति के बाद कर्मचारी रोजगार की सुरक्षा चाहता है।

3. प्रेम सामाजिक आवश्यकताएँ (Love and Social Needs)-इन आवश्यकताआ म व्यक्ति को अपनत्व तथा प्रेम सम्बन्धी आवश्यकताएँ आती हैं। इनमें दसरों से अपनी प्रशसा या मान्यता प्राप्त करना, अपनत्व की भावना का पोषण. समह की सदस्यता प्राप्ति, साथियों से प्रेम व स्नेह प्राप्त करना तथा सामूहिक कार्यों में हाथ बँटाने की इच्छा आदि आवश्यकताएँ सम्मिलित है। यदि मानव की इन आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं होती है तो कर्मचारी के लिए समा में रहना सम्भव नहीं हो पाता है। उसके मन में सदैव भय बना रहता है कि कहीं उसका सामाजिक बहिष्कार न हो जाए।

4. आत्मसम्मान एवं अहम् सम्बन्धी आवश्यकताएँ (Self Esteem and Ego Needs)व्यक्ति की सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति के बाद सम्मान एवं स्वाभिमान आवश्यकताओं का जन्म होता है। इस प्रकार आवश्यकताओं की क्रमबद्धता में इनका चौथा स्थान है। इन आवश्यकताओं में प्रतिष्ठा पाने की इच्छा और अहम् शान्त करने की इच्छा प्रमुख है। इन आवश्यकताओं से कुछ तो सन्तुष्ट हो जाते हैं और कुछ जीवन-पर्यन्त सन्तुष्ट नहीं हो पाते हैं। एक कर्मचारी जितने अधिक ऊँचे पद पर होगा उसकी सम्मान एवं स्वाभिमान को आवश्यकताएँ उतनी ही अधिक होंगी।

5. आत्मविकास सम्बन्धी आवश्यकताएँ (Self-acualisation Needs)-मैस्लो की आवश्यकता की क्रमबद्धता में अन्तिम स्थान आत्म-विकास की आवश्यकताओं का है जिन पर कि व्यक्ति सबसे अन्त में ध्यान देता है। प्रत्येक व्यक्ति की यह इच्छा होती है कि जो कुछ उसमें बनने की योग्यता है वह उसके योग्य बन जाए। इन आवश्यकताओं में आत्म शक्तियों को पहचानना, कार्य को चुनौती के रूप मे स्वीकार करके उसे परा करना, बौद्धिक जिज्ञासा तथा उसकी सन्तुष्टि, सृजनात्मक व अच्छे विचारों की प्रशंसा तथा उसकी वास्तविकता को स्वीकार करना आदि को सम्मिलित किया जा सकता है। मैस्लो के अनुसार, “एक संगीतकार को संगीत बनाना चाहिए एक कलाकार को चित्र बनाना चाहिए, एक कवि को लिखना चाहिए, यदि वह अन्ततोगत्वा प्रसन्न होना चाहता है। एक व्यक्ति को जो हो सकता है उसे वह होना चाहिए। इन आवश्यकताओं को हम आत्म-विकास कह सकते हैं।”

मैस्लो का मत है कि एक मनुष्य उपरोक्त पाँचों आवश्यकताओं को इसी क्रम में सन्तुष्ट करने का प्रयत्न करता है, क्योंकि उसे उसकी तीव्रता इसी क्रम में अनुभव होती है।

मैस्लो का कहना है कि शारीरिक आवश्यकताएँ क्रमबद्धता के निम्नतम स्तर पर होते हुए भी सर्वाधिक प्रभुत्व वाली होती हैं, क्योंकि इनका सम्बन्ध अस्तित्व में बने रहने से होता है। एक बार। जब किसी विशेष स्तर की आवश्यकताएँ पर्याप्त रूप से सन्तुष्ट

का आवश्यकताएँ पर्याप्त रूप से सन्तुष्ट हो जाती हैं तो अगली उच्चस्तरीय आवश्यकताएँ कार्यशील हो जाती हैं। ऐसा इसलिए होता है कि एक बार जब कोई आवश्यकता सन्तुष्ट हो जाती है तब वह व्यक्ति के व्यवहार को अभिप्रेरित नहीं करती। सिर्फ असन्तुष्ट आवश्यकताएँ ही लोगों को कार्य करने के लिए बाध्य करती है। आत्म विकास की आवश्यकता सर्वाधिक उच्चस्तरीय आवश्यकता है। यह व्यक्ति की सम्भावना के अधिकतम विकास तक पहुंचने की आवश्यकता है। इसकी पूर्ण सन्तुष्टि सम्भव नहीं होती है, इसलिए यह आवश्यकता सदैव असन्तुष्ट बनी रहती है। मैस्लो का मत है कि उच्च स्तरीय आवश्यकताओं की तुलना में निम्न स्तरीय आवश्यकताओं में तीव्रता अधिक पायी जाती है। लोग निम्न स्तरीय आवश्यकताओं को अधिक महत्व देते हैं और पहले उनकी सन्तुष्टि चाहते हैं फिर वे क्रमशः सीढ़ी-दर-सीढ़ी उच्च स्तरीय आवश्यकताओं की तरफ बढ़ते हैं। एक बार जब पर्याप्त रूप से किसी स्तर विशेष की आवश्यकताएँ सन्तुष्ट हो जाती हैं तो व्यक्ति उच्च स्तरीय आवश्यकताओं की तरफ बढ़ते हैं और उसकी सन्तुष्टि चाहते हैं। अगली उच्च स्तरीय आवश्यकताओं की ओर बढ़ने की एक पूर्ण भावना यह है कि उससे पहले वाली निम्न स्तरीय आवश्यकता पर्याप्त रूप से सन्तुष्ट कर ली जाए। वस्तुत: उच्च स्तरीय आवश्यकताओं का उदय होना निम्न स्तरीय आवश्यकताओं की सन्तुष्टि का परिणाम है। दबाव की दशा में सबसे पहले उच्च स्तरीय आवश्यकताओं का परित्याग किया जाता है। ____ मैस्लो का अभिमत है कि अभिप्रेरण की प्रक्रिया और कुछ नहीं, बल्कि इन आवश्यकताओं को जगाने, स्पष्ट करने और उनको अनुभव कराने की प्रक्रिया है जिससे कि प्रबन्धक कर्मचारियों को यह बता सकें कि आप अधिक से अधिक काम में सहयोग देकर किस प्रकार इनकी पूर्ति कर सकते हैं। व्यक्ति स्वयं अपनी आवश्यकताओं से ही प्रेरित होता है और किसी तत्त्व से नहीं, अत: अभिप्रेरण की प्रक्रिया में प्रबन्ध को यही जानना होता है कि अमुक कर्मचारी में कौन-सी आवश्यकता किस स्तर पर विद्यमान है। यह जान लेने के बाद वह उस व्यक्ति के लिए उपयुक्त अभिप्रेरण का उत्प्रेरक चुन कर लागू कर सकता है।

संक्षेप में, मैस्लो (Maslow) के अनुसार आवश्यकता का क्रम विभिन्न बातों पर निर्भर करता है, उनमें से कुछ प्रमुख बातें निम्नलिखित हैं

(i) उच्च आवश्यकताएँ निम्न आवश्यकताओं की सन्तष्टि का परिणाम होती हैं।

(ii) कोई भी आवश्यकता मनुष्य के लिए अभिप्रेरण का कार्य तब करेगी, जबकि उसकी अन्य निम्न-स्तरीय आवश्यकताएँ पूरी हो चुकी हों।

(iii) आवश्यकताएँ जितनी ऊँची होंगी, जीवन रक्षा की दृष्टि से उनका उतना ही कम महत्व होगा।

(iv) उच्च आवश्यकताओं की पूर्ति में मानसिक तनाव कम होता है।

(v) उच्च आवश्यकताओं की पूर्ति से मानसिक सन्तोष में वृद्धि होती है।

(vi) उच्च आवश्यकताएँ बाहा वातावरण तथा आर्थिक दशा पर निर्भर करती हैं।

(vii) व्यक्ति के आत्म-मूल्याँकन में उच्च-स्तरीय आवश्यकताओं की भूमिका अधिक महत्वपूर्ण होती है।

मान्याएँ (Assumptions)

मैस्लो की विचारधारा निम्नलिखित मान्यताओं पर आधारित है

1 मानव की आवश्यकताएँ निरन्तर रूप से जन्म लेती रहती हैं। उसकी एक आवश्यकता की सन्तुष्टि होने के साथ ही दूसरी आवश्यकता जन्म ले लेती है। यह प्रक्रिया आजन्म चलती रहती है।

2. मानव की कोई भी असन्तुष्ट या नई आवश्यकता उसे कार्य करने के लिए प्रेरित करती है। सन्तुष्ट आवश्यकता प्रेरित नहीं करती है।

3. आवश्यकताओं को क्रमबद्ध किया जा सकता है। शारीरिक आवश्यकताएँ निम्नतर स्तर पर होती हैं, परन्तु अतिआवश्यक होती हैं। इसके बाद क्रमशः सुरक्षा सम्बन्धी, सामाजिक, स्वाभिमान तथा आत्म-विकास की आवश्यकताएँ जन्म लेती हैं।

4. मस्ला ने पांचों आवश्यकताओं को उच्च-स्तरीय एवं निम्न-स्तरीय आवश्यकताआ म विभक्त किया है। शारीरिक एवं सरक्षा सम्बन्धी आवश्यकताएँ निम्न-स्तरीय आवश्यकताए है, जबकि सामाजिक, स्वाभिमान एवं आत्म-सम्मान की आवश्यकताएं उच्च-स्तरा आवश्यकताएँ हैं।

5. मास्लो का यह भी मानना है कि निम्न-स्तरीय आवश्यकताओं की सन्तुष्टि मूलतः बाहा स्रोतों से होती है, जबकि उच्च-स्तरीय आवश्यकताओं की सन्तष्टि अन्तर्मन से हा होती है।

6. मैस्लो का यह भी विश्वास था कि लोगों को प्रथम चार आवश्यकताएँ (शारारिक, सुरक्षा सम्बन्धी, सामाजिक तथा स्वाभिमान की आवश्यकता) तब अभिप्रेरित करती हैं, जबकि उसके पास उनकी कमी होती है, किन्तु सर्वोच्च आवश्यकता अर्थात् आत्म-विकास की आवश्यकता तब अभिप्रेरित करती है, जबकि व्यक्ति के पास अप्रयुक्त क्षमताएँ व योग्यताएँ होती हैं।

7. मैस्लो का यह भी मानना है कि किसी भी व्यक्ति की कोई भी आवश्यकता पूर्णतः सन्तुष्ट नहीं होती है। आवश्यकताएँ उचित स्तर तक ही सन्तुष्ट हो पाती हैं। प्रबन्धकों को अपने अधीनस्थों को अभिप्रेरित करने के लिए उनकी असन्तुष्ट आवश्यकताओं को ज्ञात करना चाहिए तथा उन्हें सन्तुष्ट करने हेतु मार्गदर्शन करना चाहिए।

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गुण या योगदान (Merits or Contribution)

मैस्लो की आवश्यकता-अनुक्रम विचारधारा को अभिप्रेरणा की श्रेष्ठतम विचारधाराओं में गिना जाता है। इस विचारधारा के पक्ष में मुख्यत: निम्नलिखित तर्क दिये जाते है

1 यह तर्कपूर्ण विचारधारा है, क्योंकि इस विचारधारा के अनुसार कोई भी व्यक्ति जो कुछ करता है अपनी विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही करता है।

2. इस विचारधारा के अनुसार सन्तुष्ट आवश्यकताएँ अभिप्रेरित नहीं करती हैं। अत: प्रबन्धक अपने अधीनस्थों की असन्तुष्ट आवश्यकताओं पर ही ध्यान देते हैं।

3. यह विचारधारा प्रबन्धकों को यह भी जानकारी देती है कि कोई भी अधीनस्थ आवश्यकता के अगले क्रम पर तभी आगे बढ़ता है, जबकि उसकी निचले स्तर की आवश्यकताओं की उचित स्तर तक सन्तुष्टि हो जाती है।

4. यह विचारधारा मानवीय आवश्यकताओं को समझने का समुचित आधार प्रदान करती है।

5. यह विचारधारा मानव व्यवहार को प्रभावित करने वाले घटकों/कारणों को समझने में सहायता देती है। इसका कारण यह है कि यह विचारधारा यह स्पष्ट करती है कि विभिन्न व्यक्ति समान परिस्थितियों में भी भिन्न-भिन्न व्यवहार क्यों करते हैं।

आलोचनात्मक मूल्याँकनमैस्लो का सिद्धान्त सहज व बोधगम्य होने के कारण आकलन करता है। यह मानवीय अभिप्रेरण का एक सामान्य सिद्धान्त है जिसे मोटे तौर पर सभी संस्कृतियों में लागू किया जा सकता है। यह मानवीय आवश्यकताओं की एक समग्र तस्वीर प्रस्तत कर इस बात को स्पष्ट करता है कि व्यक्ति किस तरह से अभिप्रेरित होता है। इसकी तार्किक प्रतीत होती है कि असन्तुष्ट आवश्यकताएँ व्यक्ति के व्यवहार पर हावी रहती है। यह सिद्धान्त किसी संगठन में विभिन्न स्तरों पर कार्यरत लोगों की अपूरित आवश्यकताओं की पहचान करके अभिप्रेरण के साधन के रूप में उनकी सन्तुष्टि के लिए आवश्यक उपायों की रूपरेखा बनाने तथा नई उच्च स्तरीय आवश्यकताओं को जागृत करने के लिए प्रबन्धकों का मार्गदर्शन करती है। इन विशेषताओं और उपादेयताओं के बावजूद क्रिस आगारिस (Cris Argyris),पोर्टर (Porter), बेनिस (Bennis),सेलिस (Sayles) आदि ने इस सिद्धान्त की कटु आलोचना निम्न आधारों पर की है

1 आवश्यकताओं का उपर्युक्त वर्गीकरण प्रत्येक क्षेत्र में उपयुक्त नहीं कहा जा सकता है। आलोचकों का यह विचार है कि सभी व्यक्ति मैस्लो के द्वारा बताये गये क्रम में अपनी आवश्यकताओं को पूरा नहीं करते हैं।

2. वर्गीकरण की अस्पष्टता-अधिकांश आवश्यकताओं के एक दूसरे में व्याप्त होने के कारण उनमें स्पष्ट अन्तर कर पाना सम्भव नहीं है। इसके अतिरिक्त मैस्लो के इस वर्गीकरण को अन्तिम नहीं माना जा सकतां स्वयं मैस्लो ने कछ वर्ष बाद दो अन्य आवश्यकताओं-एकीकरण (Integration or Wholeness) तथा आध्यात्मिक आवश्यकताओं का वर्णन किया है।

3. यह विचारधारा मानती है कि मनुष्य की एक समय में एक ही प्रकार की आवश्यकता होती है, जबकि व्यवहार में व्यक्ति की एक समय में एक से अधिक आवश्यकताएँ भी हो सकती हैं।

4. यह विचारधारा व्यक्तियों की आवश्यकताओं की सन्तुष्टि पर आधारित है, किन्तु कुछ आवश्यकताएँ कभी भी सन्तुष्ट नहीं होती हैं।

5. यह मान्यता उचित नहीं है कि जब तक निम्न स्तर की आवश्यकताएँ पूरी नहीं होती हैं, तब तक उच्च स्तर की आवश्यकताओं की सन्तष्टि कोई प्रेरणा नहीं देती है।

6. व्यवहार की जटिलता-मानवीय व्यवहार विभिन्न घटकों से निर्धारित एवं प्रेरित होता है। अत: कई बार प्राथमिक आवश्यकताओं की सन्तुष्टि न होने पर भी सामाजिक व स्वाभिमान सम्बन्धी आवश्यकताएँ उत्पन्न हो सकती हैं।

7. सभी कर्मचारियों की आवश्यकता अनुक्रम एक समान नहीं होता है। आर्थिक-सामाजिक रूप से समृद्ध कर्मचारियों की उच्च-स्तरीय आवश्यकताएँ होती हैं, जबकि आर्थिक-सामाजिक रूप से पिछड़े कर्मचारियों की आवश्यकताएँ निम्नस्तरीय ही होती हैं।

8. सामान्य मनुष्य इतना दूरदर्शी नहीं होता है कि वह अपनी भावी आवश्यकताओं का पहले से ही अनुमान लगा ले।

9.सभी व्यक्ति सदैव अपनी किन्हीं आवश्यकताओं के कारण ही किसी कार्य को करने के लिए अभिप्रेरित नहीं हो सकते हैं उनके पीछे कुछ और कारण भी हो सकते हैं।

उपर्युक्त सभी आलोचनाओं के उपरान्त भी यह विचारधारा काफी लोकप्रिय विचारधारा है। प्रबन्धक व्यक्तियों को अभिप्रेरित करने के लिए उनकी आश्यकताओं को समझने की कोशिश करते हैं और उन्हें सन्तुष्ट करते हैं।

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हर्जबर्ग की द्विघटक आरोग्य विचारधारा

(Herzberg’s Two Factor Hygene Theory)

20 वीं शताब्दी के पाँचवे दशक के उत्तरार्द्ध (During late 1950s) में अमेरिकी व्यवहारवादी मनोवैज्ञानिक फ्रेडरिक हर्जबर्ग (Fredrick Herzberg) एवं उनके सहयोगियों ने अभिप्रेरणा की एक नई विचारधारा का प्रतिपादन किया। इस विचारधारा को द्विघटक आरोग्य विचारधारा (Two factor hvcene theory) अथवा अभिप्रेरणा-आरोग्य विचारधारा (Motivation-hygene theory) के नाम से जाना जाता है। यह विचारधारा “Physiological Service Pittsburgh” क्षेत्र के लगभग 200 इंजीनियरों एवं लेखपालों (Accountants) की कार्य प्रवृत्तियों पर किए गए प्रयोगात्मक शोध से प्राप्त निष्कर्षों पर आधारित है। शोध के दौरान सभी 200 कर्मचारियों से निम्नलिखित दो प्रश्न पूछे गये

 (1) जब व्यक्ति अपने कार्य से असन्तष्टि प्राप्त करते हैं तो इस असन्तुष्टि का कारण वह वातावरण है जिसमें वे कार्य करते हैं। हर्जबर्ग ने इस वातावरण को प्रभावित करने वाले घटको का ‘स्वास्थ्य या आराग्य घटकों (Hygiene Factors) के नाम से पुकारा है। ये सभी घटक मनुष्य का वातावरण से सम्बन्धित हैं और मनुष्य को सन्तुष्ट होने से रोकते हैं। इन सभी घटकों को हर्जबर्ग और। उनके सहयोगियों ने बाहा घटक माना है।

(2) जब व्यक्ति कार्य से सन्तुष्टि प्राप्त करते हैं तो यह केवल उनके द्वारा किए गए कार्य से ही प्राप्त हुई मानी जाती है। अन्य शब्दों में कार्य-सन्तुष्टि केवल निष्पादित कार्य से ही प्राप्त की जा सकती है। हर्जबर्ग ने सन्तुष्टि प्रदान करने वाले घटकों को ‘अभिप्रेरक घटक या तत्त्व’ (Motivators) के नाम से सम्बोधित किया है। ये सभी तत्त्व मनुष्य को अधिक कुशलता के साथ कार्य करने के लिए अभिप्रेरित करते हैं। इन सभी घटकों को हर्जबर्ग एवं उनके सहयोगियों ने कार्य के आन्तरिक घटक माना है। स्पष्ट है कि हर्जबर्ग और उनके सहयोगियों ने कार्य असन्तुष्टि के लिए स्वास्थ्य/आरोग्य तत्त्वों एवं कार्य सन्तुष्टि के लिए अभिप्रेरक तत्त्वों को उत्तरदायी माना है। दोनों घटकों की विस्तृत विवेचना निम्न प्रकार है

1 आरोग्य/स्वास्थ्य या पोषक घटक (Hygene or Maintenance Factors)-आरोग्य घटकों का सम्बन्ध कार्य वातावरण (Job Context) से होता है तथा ये कार्य के बाहा घटक होते हैं। ये कर्मचारी की कार्यक्षमता को बनाये रखते हैं, अत: इन्हें अनुरक्षण तत्त्व (Maintenance Factors) भी कहा जाता है। वस्तुत: ये तत्त्व असन्तुष्टि (Dissatisfaction) को दूर करके अभिप्रेरण के लिए एक उचित आधार तैयार करते हैं। दूसरे शब्दों में, इनके अभाव में व्यक्ति को कष्ट व असन्तोष होगा, किन्तु इनके होने से या अनुकूल होने से व्यक्ति को सन्तुष्टि या प्रेरणा प्राप्त नहीं होगी। ये असन्तोष उत्पन्न करने वाले घटक (“Dissatisfiers”) हैं, अभिप्रेरक नहीं। हर्जबर्ग ने आठ आरोग्य घटकों की पहचान की है जो इस प्रकार हैं : संस्था की नीतियाँ, संस्था का प्रशासन, कार्यदशाएँ, कार्य-सुरक्षा, वेतन, अनुषंगी लाभ (Fringe benefits), पर्यवेक्षण की किस्म तथा अधिकारियों, सहकर्मियों एवं अधीनस्थों में पारस्परिक सम्बन्ध।

हर्जबर्ग का मानना था कि कर्मचारियों में सन्तोष स्तर बनाये रखने हेतु (For maintaining) संस्था के कार्य वातावरण में इन घटकों की उपस्थिति अनिवार्य है। इन घटकों की अनुपस्थिति या कमी कर्मचारियों में असंतोष उत्पन्न कर सकती है। अत: कर्मचारियों में असन्तोष नहीं पनपने हेतु संस्था के कार्य वातावरण में इन घटकों का विद्यमान होना अनिवार्य है।

हर्जबर्ग ने आरोग्य (Hygiene) शब्द का प्रयोग चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में प्रयुक्त प्रतिरोधक और परिवेशात्मक (Prevention and environmental) के समतुल्य किया है। उदाहरणार्थ, प्रदूषण रहित जल बीमारी को रोकता है, किन्तु बीमारी का इलाज नहीं करता है। ठीक उसी तरह से आरोग्य घटक कार्य के प्रति ऋणात्मक अनुभवों व असन्तुष्टि को रोकता है। गेलरमैन (Gellerman) के अनुसार, “आरोग्य तत्त्व व्यक्तियों को अच्छा अभिप्रेरण देने के लिए बहुत आवश्यक हैं, किन्तु वे स्वयं अभिप्रेरित करने में असमर्थ हैं। ये मनोबल की छत्रछाया में आवश्यक आधार तो बना सकते हैं, परन्तु ये व्यक्तियों को अपने कार्यों को अच्छी तरह से करने में किसी प्रकार की अभिप्रेरणाएँ प्रदान नहीं करते।”

2. अभिप्रेरण या सन्तोषदायी घटक (Motivators or Satisfiers)-ये कार्य से सम्बन्धित घटक (Job Content Factors) होते हैं। ये व्यक्ति को अधिक एवं अच्छा कार्य करने के लिए प्रेरित करते हैं । इन्हें सन्तुष्टि प्रदान करने वाले तत्त्व (Satisfiers) भी कहा जाता है। हर्जबर्ग का मत है कि अभिप्रेरक तत्त्वों के द्वारा ही व्यक्तियों को अभिप्रेरित किया जा सकता है, स्वास्थ्य तत्त्वों के द्वारा नहीं। हर्जबर्ग ने ऐसे छ: घटकों की पहचान की है जो इस प्रकार हैं : उपलब्धियाँ, मान्यता या सम्मान, उत्तरदायित्व, विकास, व्यक्तिगत उन्नति, कार्य की प्रकृति। यदि संस्था में ये घटक पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होते रहते हैं और इनमें वृद्धि होती रहती है तो कर्मचारियों की सन्तुष्टि में भी वृद्धि होती है। फलतः कर्मचारी अभिप्रेरित होते हैं।

हर्जबर्ग का सझाव था कि संस्था के कार्य वातावरण में पर्याप्त मात्रा में आरोग्य या पोषक घटक बनाये रखना चाहिए ताकि असन्तोष उत्पन्न ही न हो सके। इसी प्रकार, प्रबन्धकों को संस्था के भीतर अभिप्रेरक या सन्तोषदायी घटक भी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध करने चाहिएँ, ताकि कर्मचारी सन्तुष्ट एवं अभिप्रेरित हो।

संक्षेप में, हर्जबर्ग की द्विघटक आरोग्य विचारधारा को निम्नलिखित चित्र की सहायता से सरलतापूर्वक समझाया जा सकता है

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हर्जबर्ग द्विघटक अभिप्रेरणा विचारधारा हर्जबर्ग की द्विघटक आरोग्य विचारधारा के पक्ष में तर्क (Arguments in Favour)

1 यह विचारधारा कर्मचारी को कार्य पर बनाये रखने वाले या सन्तोष के स्तर को बनाये रखने वाले घटकों तथा सन्तोष में वृद्धि करने वाले घटकों या अभिप्रेरक घटकों के बीच स्पष्ट अन्तर करती है।

2. यह विचारधारा कार्य संरचना में कार्य-समृद्धि (Job-enrichment) के महत्व को भी स्पष्ट करती है।

3. यह अभिप्रेरणा की विवेकपूर्ण विचारधारा है जो कारण एवं परिणाम का स्पष्टीकरण प्रस्तुत करती है।

4. यह विचारधारा कार्य की प्रकृति एवं कार्य की सन्तुष्टि से अभिप्रेरण के स्तर पर पड़ने वाले प्रभावों को स्पष्ट करती है।

5. यह विचारधारा तर्कसंगत निष्कर्ष प्रस्तुत करती है, क्योंकि यह प्रयोगात्मक शोधों पर आधारित है।

6. यह विचारधारा कर्मचारियों को अभिप्रेरित करने के लिए ठोस उपायों का सुझाव देती है।

दोष/सीमाएँ अथवा आलोच एँ (Demerits/Limitations or Criticisms)

इस विचारधारा की कुछ प्रमुख आलोचनाएँ निम्नलिखित हैं

1 यह विचारधारा कर्मचारियों की बहत ही सीमित संख्या (200 कर्मचारियों) पर शोध के आधार पर विकसित की गई है। अत: इससे प्राप्त निष्कर्षों से कछ भी सामान्यीकरण करना उचित नहीं है।

2. यह विचारधारा काफी संकुचित है, क्योंकि यह अभिप्रेरण की विषय-वस्तु के समस्त पहलुओं पर विचार नहीं करती है।

3. इसमें बनाए गए दो प्रकार के घटकों के मध्य अन्तर करना एवं समझना कठिन है, क्योंकि एक व्यक्ति के लिए जो आरोग्य घटक है, वही दूसरे व्यक्ति के लिए अभिप्रेरक घटक हो सकते हैं। व्यवहार में आरोग्य घटकों तथा अभिप्रेरक घटकों का वर्गीकरण अत्यन्त कठिन होता है। अतः ऐसा वर्गीकरण अव्यावहारिक है।

4. यह विचारधारा इस मान्यता पर आधारित है कि आरोग्य घटक अभिप्रेरित नहीं करते,केवल अभिप्रेरक घटक ही अभिप्रेरित करते हैं, किन्तु आलोचकों का कहना है कि दोनों ही प्रकार के घटक अभिप्रेरित करते हैं। वास्तव में, विकासशील देशों तथा प्रबन्ध के निचले स्तरों पर आरोग्य तत्त्व भी अभिप्रेरणा प्रदान करते हैं।

5. इस विचारधारा की आलोचना इसलिए भी की जाती है कि वास्तविक जीवन में सन्तुष्टि एवं कार्य निष्पादन में कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं होता है। व्यवहार में अनेक व्यक्ति ऐसे मिल जाएँगे जो अपने कार्य से तो सन्तुष्ट हैं, परन्तु उनका कार्य निष्पादन परिणाम बहुत अधिक अच्छा नहीं है।

6. कुछ का यह भी आरोप है कि सभी अभिप्रेरक घटकों पर समुचित ध्यान नहीं दिया गया है। यहाँ तक पदोन्नति एवं पारस्परिक सम्बन्धों, अच्छे वेतन को अभिप्रेरक तत्त्वों मे सम्मिलित नहीं किया गया है।

7. यह विचारधारा केवल प्रबन्धकीय स्तर के कर्मचारियों पर ही है, सामान्य कर्मचारियों अथवा श्रमिकों पर नहीं।

8. इस विचारधारा ने अभिप्रेरणा एवं सन्तुष्टि का सम्बन्ध अत्यधिक सरल बना दिया है, जबकि वास्तव में ऐसा नहीं है।

9. यह विचारधारा किसी व्यक्ति के निष्पादन स्तर की अपेक्षा ‘सन्तुष्टि’ अथवा ‘असन्तुष्टि’ पर ही अधिक ध्यान देती है। उपर्युक्त आलोचनाओं के बावजूद भी यह स्वीकार किया जाता है कि हर्जबर्ग की द्विघटक आरोग्य विचारधारा अभिप्रेरण में कार्य-केन्द्रित घटकों की ओर ध्यान आकर्षित करती है. श्रेष्ठतम विचारधाराओं में गिनी जाती है, कर्मचारी अभिप्रेरण को समझने हेतु महत्वपूर्ण अन्तर्दृष्टि प्रदान करती है और अभिप्रेरण के लिए कार्य सम्पन्नता एवं कार्य की पुनर्रचना पर पर्याप्त ध्यान भी देती है।

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मैस्लो एवं हर्जबर्ग सिद्धान्तों की तुलना और सम्बन्ध

(COMPARISON AND RELATION OF MASLOW AND HERZBERG THEORIES)

मैस्लो और हर्जबर्ग दोनों ने मानवीय आवश्यकताओं की पहचान करके अभिप्रेरण के सामान्य सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है। दोनों विचारधाराओं में कोई खास विरोधाभास नहीं है और दोनों एक दूसरे की पूरक हैं। मैस्लो की शारीरिक, सुरक्षात्मक और सामाजिक आवश्यकताओं को हर्जबर्ग ने आरोग्य घटकों की श्रेणी में रखा है, जबकि विकास की आवश्यकता अभिप्रेरक है। हर्जबर्ग ने मैस्लो की स्वाभिमान आवश्यकताओं (आत्म-सम्मान, आत्म-विश्वास, स्वायत्तता, प्रतिष्ठा, शक्ति और मान्यता आदि) के कुछ भाग को अभिप्रेरकों में और कुछ भाग को आरोग्य घटकों में शामिल किया है। वास्तव में, दोनों सिद्धान्त समान मान्यताओं पर आधारित हैं कि मानव व्यवहार मानवीय आवश्यकताओं से संचालित होता है। दोनों सिद्धान्त व्यक्तिगत व्यवहार, जो समय और स्थान पर बदलते रहते हैं, का अभिप्रेरण पर प्रभाव स्पष्ट नहीं करते हैं। इन दोनों ही सिद्धान्तों ने अभिप्रेरण प्रक्रिया को अति सरलीकृत करके आवश्यकता को ही अभिप्रेरण का आधार माना है।

मैस्लो एवं हर्जबर्ग की विचारधाराओं का सावधानीपूर्वक, गहन अध्ययन एवं विश्लेषण किया जाए तो इन दोनों में निम्नलिखित समानताएँ (Similarities) विद्यमान है

1 दोनों ही विचारधाराएँ मानवीय आवश्यकताओं पर आधारित हैं। मैस्लो ने आवश्यकताओं को प्रत्यक्ष रूप में आधार माना है, जबकि हर्जबर्ग ने अप्रत्यक्ष रूप में।

2. दोनों ही विचारधाराएँ अभिप्रेरण की तकनीकों व साधनों का वर्णन करती हैं।

3. दोनों ही विचारधाराएँ इस मान्यता पर आधारित हैं कि आवश्यकताएँ वे प्रेरक शक्ति हैं, जो व्यक्ति को कुछ करने के लिए प्रेरित करती हैं।

4. दोनों ही विचारधाराएँ मनोवैज्ञानिक विश्लेषण पर आधारित हैं।

5. दोनों ही विचारधाराएँ आवश्यकताओं की सन्तुष्टि पर आधारित हैं।

6. दोनों ही विचारधाराएँ प्रबन्ध जगत में व्यावहारिक एवं लोकप्रिय रही हैं।

7. दोनों ही विचारधाराएँ अभिप्रेरण में व्यक्तिगत भिन्नताओं को स्पष्ट करने में भी असफल रही हैं।

8. मैस्लो ने पाँच वर्गों में आवश्यकताओं का वर्गीकरण किया है, जबकि हर्जबर्ग ने दो वर्गों में आवश्यकताओं को वर्गीकृत किया है, किन्तु इनमें सभी आवश्यकताएँ सम्मिलित हैं। मैस्लो द्वारा वर्गीकृत प्रथम तीन आवश्यकताएँ (शारीरिक, सुरक्षात्मक, सामाजिक तथा कुछ अहंकारी आवश्यकताएँ)हर्जबर्ग के आरोग्य तत्त्वों में आ जाती हैं। इसी प्रकार मैस्लो के वर्गीकरण की शेष आवश्यकताएँ (कुछ अहंकारी तथा आत्म-विकास की आवश्यकताएँ) हर्जबर्ग के अभिप्रेरक तत्त्वों में निहित हैं।

स्पष्ट है कि मैस्लो एवं हर्जबर्ग की विचारधारा में पारस्परिक सम्बन्ध (Relationship in Maslow’s and Herzberg’ Theories) है, जिसे निम्नलिखित चित्र की सहायता से स्पष्ट किया जा सकता है

(III) मैकगर काएक्सतथावाईसिद्धान्त

(McGregor’s ‘X’ and ‘Y’ Theory)

कर्मचारी अभिप्रेरण हेतु अमेरिकी विद्वान डगलस मैकग्रेगर (Douglas McGregor) की दो विचारधाराएँ हैं जिन्हें एक्स सिद्धान्त (X Theory) और वाई सिद्धान्त (Y Theory) के नाम से जाना जाता है। इन दोनों विचारधाराओं की मेकग्रेगर ने अपनी पुस्तक “The Human Side of the Enterprise” में विस्तृत विवेचना की है। मैकग्रेगर लम्बे समय तक अमेरिका के मीशीगन विश्वविद्यालय में प्रबन्ध विज्ञान के प्रोफेसर पद पर कार्यरत रहे, उन्होंने उपक्रम में मानवीय तत्त्व को महत्वपूर्ण मानते हुए श्रमिकों को दो वर्गों में विभक्त किया। उनके अनुसार कुछ श्रमिक ऐसे होते हैं जो काम नहीं करना चाहते और कुछ श्रमिक ऐसे होते हैं जो स्वयं ही कार्य करने को तत्पर रहते हैं, बशर्ते कि उनको उपयुक्त वातावरण प्रदान किया जाए। जो श्रमिक काम नहीं करना चाहते, आलसी होते हैं और काम से जी चुराने की प्रवृत्ति होती है, उन्हें प्रेरित करने के लिए ‘मैकग्रेगर ने एक्स सिद्धान्त’ का प्रतिपादन किया। दूसरी श्रेणी के श्रमिक जो काम करने को इच्छुक होते हैं और आगे बढ़ना चाहते हैं, उन्हें अभिप्रेरित करने के लिए ‘मैकग्रेगर ने वाई सिद्धान्त’ का प्रतिपादन किया। मैकग्रेगर ने अपनी पुस्तक और शोध पत्रों के माध्यम से पेशेवर प्रबन्धकों को यह पथ प्रदर्शित किया कि श्रमिकों में विभेदता होने के कारण उनकी सामाजिक, मानसिक और भावनात्मक मान्यताएँ अलग-अलग होती हैं, अत: श्रमिकों को एक ही उपाय से अभिप्रेरित नहीं किया जा सकता। दोनों सिद्धान्तों की विस्तृत विवेचना निम्नलिखित है

() एक्स विचारधारा (‘X’ Theory)-यह विचारधारा प्रबन्ध के परम्परागत दर्शन पर आधारित है एवं इस बात पर बल देती है कि मानव/कर्मचारियों पर कठोर नियन्त्रण रखा जाना चाहिए। यह विचारधारा मानव व्यवहार के प्रति निराशाजनक एवं नकारात्मक दृष्टिकोण का अनुसरण करती है। संक्षेप में, यह विचारधारा मानव व्यवहार के सम्बन्ध में निम्नलिखित मान्यताओं पर आधारित है

1 एक सामान्य व्यक्ति स्वभावत: आलसी होता है। वह काम करना पसन्द नहीं करता है तथा काम को टालना चाहता है। वह जितना सम्भव हो, कम से कम काम करना चाहता है ।

2. सामान्यतः कर्मचारी काम करना नहीं चाहते हैं। अतः उन्हें काम करने हेतु बाध्य करने के लिए प्रताड़ित करना, भय दिखाना, दण्ड देना या नियन्त्रित करना पड़ता है

3. एक सामान्य व्यक्ति में आकांक्षा या अभिलाषा की कमी पायी जाती है एवं वह जिम्मेदारी से बचना चाहता है तथा दसरों के निर्देशन में ही कार्य करना पसन्द करता हैं ।

4. एक सामान्य व्यक्ति अपेक्षाकृत कम महत्वाकांक्षी होता है। वह केवल कार्य-सुरक्षा या रोजगार की गारण्टी चाहता है।

5. अधिकांश व्यक्ति संगठनात्मक समस्याओं के समाधान हेतु सीमित क्षमता रखते हैं अर्थात् । सृजनात्मक क्षमता का अभाव होता है।

6. जीवन निर्वाह एवं सुरक्षा (Physiological and Safety) आवश्यकताओं के लिए आधिकाशा व्यक्तियों को अभिप्रेरण की आवश्यकता होती है।

7. अधिकांश व्यक्तियों पर पर्याप्त नियन्त्रण की आवश्यकता होती है।

8. अधिकांश व्यक्तियों को संगठनात्मक उद्देश्यों से कोई सरोकर नहीं होता है।

उपर्युक्त मान्यताओं के अनुसार यह विचारधारा इस बात पर बल देती है कि प्रबन्धकों को कर्मचारियों को निर्देशित करना चाहिए. उन पर कठोर नियन्त्रण रखना चाहिए और उनकी क्रियाओं का पर्याप्त पर्यवेक्षण करना चाहिए। साथ ही कर्मचारियों को अभिप्रेरित करने के लिए मौद्रिक एवं अमौद्रिक तथा सकारात्मक एवं नकारात्मक अभिप्रेरण विधियों का सहारा लेना ही प्रबन्धकों के लिए श्रेयकर होता है। इस प्रकार यह विचारधारा निरंकुश प्रबन्धकीय शैली (Autocratic Managerial Style) का प्रतिनिधित्व करती है और मानवीय व्यवहार को किसी भी प्रकार का महत्त्व प्रदान नहीं करती है। अतः स्वयं मैकग्रेगर ने मानवीय व्यवहार का पर्याप्त महत्व प्रदान करने के लिए वाई. विचारधारा (Theory •Y’) का विकास किया।

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आलोचनाएँइस विचारधारा की प्रमुख कमियाँ निम्नानुसार हैं

(i) यह विचारधारा मानव व्यवहार के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण अपनाती है। यह मानवीय प्रतिष्ठा पर आघात करती है।

(ii) यह मानवीय आवश्यकताओं व भावनाओं को नकारती है।

(iii) यह साधनों को उपयोग में लाने का उत्तरदायित्व प्रबन्धकों पर डालती है।

(iv) यह भय एवं दण्ड के आधार पर कर्मचारियों से काम लेती है।

(v) यह प्रबन्धकों को निरंकुश बनने की प्रेरणा देती है।

(vi) यह विचारधारा मानव के बाहा स्वरूप पर ही बल देती है, उसके अन्तर्मन को नकारती

(vii) इस विचारधारा ने मनुष्य को केवल आर्थिक मनुष्य ही मान लिया है, जो ठीक नहीं है।

(viii) यह मानव व्यवहार की परम्परागत अवधारणा पर आधारित है, अत: वर्तमान युग में

अव्यावहारिक है। इस विचारधारा की मान्यताओं एवं निष्कर्षों को स्वयं मैकग्रेगर ने स्वीकार नहीं किया उनके अनुसार कठोर नियन्त्रण द्वारा व्यक्तियों को अभिप्रेरण करने का तरीका न तो व्यावहारिक ही है, न ही न्यायसंगत। यह विचारधारा उस स्थिति में बिल्कुल महत्वहीन है, जबकि एक व्यक्ति अपनी प्राथमिक आवश्यकताओं; जैसे-शारीरिक एवं सुरक्षा की आवश्यकताओं को सन्तुष्ट कर चुका है।

() वाई विचारधारा (‘Y’ Theory)-‘वाई’ विचारधारा उपर्युक्त वर्णित “एक्स’ विचारधारा के बिल्कुल विपरीत है। यह विचारधारा यह मानकर चलती है कि मनुष्य अपनी प्रकृति से आलसी और कामचोर नहीं होते। वे स्वयं निर्देशित होते हैं और उन्हें यदि उचित रूप से अभिप्रेरित किया जाए तो वे कार्य के प्रति सकारात्मक रुख रखते हैं। अत: प्रबन्धकों का यह मुख्य कार्य है कि वह कर्मचारियों में इस छिपी हुई शक्ति को विकसित करे। प्रबन्धक पर्याप्त अभिप्रेरण के माध्यम से कर्मचारियों को अपने लक्ष्यों की प्राप्ति की ओर अग्रसर कर सकता है। संक्षेप में यह विचारधारा निम्नलिखित मान्यताओं पर आधारित है

1 सामान्यतः कोई भी व्यक्ति काम को नापसन्द नहीं करता है या कामचोर नहीं होता है। प्रत्येक व्यक्ति काम को उतना ही सहज एवं स्वाभाविक रूप से लेता है। जैसे—वह खेलकद आराम या मनोरंजन की क्रियाओं को लेता है, परन्तु शर्त यह है कि संस्था में करने का उचित वातावरण हो एवं उसे कार्य करने का अवसर दिया जाना चाहिए।

2. जब कर्मचारी कार्य के लिए प्रतिबद्ध हो जाते हैं तो वे स्वयं अपना निर्देशन एवं नियन्त्रण कर लेते हैं। बाहरी नियन्त्रण, अनुशासन, भय एवं दण्ड से कायो का नहीं करवाया जा सकता है।

3. सामान्यत: व्यक्ति यह सोचते हैं कि कार्य के लिए प्रतिबद्ध होने के कारण ही उन्हें पुरस्कार मिलेगा।

4. उचित परिस्थितियों में एक औसत व्यक्ति न केवल उत्तरदायित्वों का निर्वाह करना वरन् उन्हें करना भी सीख लेता है। उत्तरदायित्व को टालना, महत्वाकांक्षा का अभाव तथा सुरक्षा पर बल देना सामान्य रूप से अनुभव के परिणाम हैं, ये मानव के जन्मजात गुण नहीं होते हैं।

5. संगठनात्मक समस्याओं के समाधान के लिए कल्पनाशीलता, सृजनात्मक एवं कार्य कुशलता के उपयोग की क्षमता केवल कुछ व्यक्तियों में ही नहीं होती है, वरन् समस्त व्यक्तियों में व्यापक रूप से पायी जाती है।

6. व्यक्तियों में अभिप्रेरण सामाजिक प्रतिष्ठा तथा आत्म-विकास के स्तरों पर ही घटित नहीं होता है, बल्कि इनके साथ-साथ शारीरिक एवं सुरक्षा स्तरों पर भी कर्मचारी अभिप्रेरित होते हैं।

7. वर्तमान औद्योगिक दशाओं में, औसत मानव की बौद्धिक क्षमताओं का केवल आंशिक उपयोग ही किया जा रहा है।

मूल्याँकन‘वाई’ विचारधारा मानव व्यवहार के प्रति एक नवीन दृष्टिकोण प्रदान करती है। यह प्रबन्धकों को कर्मचारियों की क्षमताओं एवं उनके व्यवहार के प्रति सकारात्मक रुख अपनाने पर जोर देती है। यह संस्थागत एवं वैयक्तिक लक्ष्यों को एक मानती है तथा कर्मचारियों पर न्यूनतम नियन्त्रण एवं निर्देशन रखने पर बल देती है। इस विचारधारा के प्रमुख गुण निम्न प्रकार हैं

(i) यह मानव को विवेकशील एवं सृजनशील मानती है।

(ii) यह मानव के सम्मान एवं महत्व को स्वीकार करती है।

(iii) यह संस्था के एवं वैयक्तिक लक्ष्यों में एकीकरण करती है।

(iv) यह संस्था में जनतान्त्रिक व्यवस्था को प्रोत्साहित करती है।

(v) यह आत्म-नियन्त्रण एवं स्वतः निर्देशन के महत्व को स्वीकार करती है।

(vi) यह मनुष्य के समग्र रूप पर ध्यान देती है। यह उसके आर्थिक पहलू को ही नहीं, वरन् सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक आयाम पर भी विचार करती है।

कुछ लोग इस विचारधारा की आलोचना भी करते हैं। उनके अनुसार यह कोई नवीन विचारधारा नहीं है। यह व्यक्ति पर बहुत अधिक दायित्व डाल देती है। यह उसे स्व-विवेक से प्रेरित मानती है। यह व्यक्ति को बहुत अधिक सृजनशील मानती है। प्राय: मानवीय क्षमताओं एवं सृजनशीलता का उपयोग करने के लिए उपयुक्त वातावरण का निर्माण करना बहुत कठिन होता है। मैकग्रेगर का मत है कि प्रबन्धकों को इन दोनों विचारधाराओं की मान्यताओं के आधार पर व्यक्तियों के स्वभाव, लक्षणों एवं व्यवहार का अध्ययन एवं अवलोकन करके अभिप्रेरण की उचित विधि अपनानी चाहिए।

‘X’ विचारधारा एवंविचारधारा में अन्तर

(Difference between Theory ‘X’ and Theory ‘Y’)

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(IV) विलियम आउची की अभिप्रेरणजेड विचारधारा

(William Ouchi’ Theory Z of Motivation)

विलियम जी० आउची अमेरिका के केलिफोर्निया विश्वविद्यालय के प्रबन्ध स्कूल में प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं। प्रो० विलियम आउची ने प्रबन्ध विषय पर अनेक पुस्तकें लिखी, उनमें एक मुख्य पुस्तक “Theory Z : How American Business Can Meet the Japanese Challenge” है। यह पुस्तक सन् 1981 ई० में अमेरिका की A Von द्वारा प्रकाशित की गयी थी एवं उस समय सर्वाधिक बिकने वाली पुस्तकों में से एक थी। उन्होंने यह पुस्तक कई अमरीकी एवं जापानी कम्पनियों के प्रबन्धकीय व्यवहार का अध्ययन करने के बाद लिखी। इस अध्ययन के बाद प्राप्त निष्कर्षों को उन्होंने ‘जेड विचारधारा’ (Theory z) का नाम दिया। जिन अमरीकी कम्पनिया का उन्होंने अध्ययन किया उन्हें जेड संगठन (Z Organisations) के नाम से सम्बोधित किया है। इन कम्पनियों में आई० बी० एम० (IBM), ह्यूलेट-पेकार्ड (Hewelett-Packard), इन्टेल, पी० एण्ड जा० । (P and G), इस्टर्न कोडक आदि प्रमुख हैं। 1970 एवं 1980 के दशक में अमेरिकी उद्योगों की अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में हिस्सेदारी लगातार कम होती जा रही थी जबकि जापान की हिस्सेदारी बढ़ती जा रही थी।

स्पष्ट है कि “जैड विचारधारा एक व्यापक प्रबन्धकीय विचारधारा है जो कुछ अमरीकी एवं जापानी कम्पनियों में प्रबन्ध व्यवहार के अध्ययन एवं विश्लेषण के बाद विलियम आउची ने प्रतिपादित की है।”

विलियम आउची की जेड विचारधारा अभिप्रेरण का एक महत्वपूर्ण विचार है। यह अभिप्रेरण दष्टिकोण ‘जापानी प्रबन्ध व्यवहारों’ पर आधारित है। आउची ने पाश्चात्य फर्मों को जापानी प्रबन्ध कला को अपना कर अपने कर्मचारियों को अभिप्रेरित करने का सझाव दिया। उन्होंने अपने अध्ययनों में पाया कि जापानी उद्योगों की प्रगति का मुख्य आधार उद्योग को परिवार की भाँति (Family like) संचालित करना है तथा एक “औद्योगिक वंश” (Industrial Clan) का निर्माण करना है। जापानी उद्योग श्रम एवं प्रबन्ध के पारस्परिक विश्वास, पैतृकवादी व्यवहार, कर्मचारियों के प्रति सम्मान, निर्णय-सहभागिता, कर्मचारी सन्तुष्टि एवं स्वतन्त्र संगठनात्मक निष्ठा एवं कर्मचारी विकास के प्रतीक हैं। प्रो० आउची का मत है कि जापानी उद्योग अमेरिकन फर्मों के लिए ‘आदर्श’ (Model) साबित हो सकते हैं। प्रोफेसर आउची जापानी कम्पनियों की अधिकतम उत्पादकता एवं औद्योगिक सफलता का श्रेय उक्त कम्पनियों के श्रेष्ठ प्रबन्ध दर्शन को देते हैं।

आउची कहते हैं कि अब तक अमेरिकन प्रबन्धकों की यह मान्यता रही है कि उत्पादकता बढ़ाने में ‘टेक्नोलॉजी’ की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है, किन्तु जेड विचारधारा निगमीय जगत में कर्मचारियों के अभिप्रेरण एवं अधिक उत्पादकता के लिए “मानवीय सम्बन्धों” की ओर प्रबन्धकों का ध्यान आकर्षित करती है। आउची के अनुसार, “उत्पादकता के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए संगठनों को प्रौद्योगिकी विकास के स्थान पर” व्यक्तियों के समन्वय (To co-ordinate people)की योग्यता विकसित करनी चाहिए।

संक्षेप में. आउची का मत है कि जापानी उद्योगों की सफलता का रहस्य उनकी श्रेष्ठ प्रबन्ध कला में निहित हैं, जबकि अमेरिका में प्रबन्ध की अपेक्षा प्रौद्योगिकी (Technology) पर बल दिया जाता रहा है। ‘जेड विचारधारा’ उद्योगों में दलीय भावना एवं समझौते पर बल देती है। यह विचारधारा प्रबन्ध के संगठनात्मक एवं व्यवहारवादी (Behaviour) पहलू को महत्व प्रदान करती है।

आउची के मतानुसार ‘जेड विचारधारा’ निम्नलिखित तीन सिद्धान्तों पर आधारित है

1 प्रबन्ध एवं श्रमिकों में पारस्परिक विश्वास (Mutual Trust)|

2. सम्पर्णता विचारधारा (Wholistic Approach) में संगठन के सदस्यों को सम्पर्णता में व्यवहार करना चाहिए। उन्हें संगठन की सफलता में मानवीय सम्बन्धों पर बल देना चाहिए, ताकि उत्पादकता अधिक हो सके।

3. कार्य लो एवं निकालो’ (Hire and Fire) के स्थान पर ‘कार्य लो एवं विकास करो’ (Hire and Develop) की नीति का अनुसरण करना।

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मुख्य विशेषताएँ (Main Features)

आउची कीजेडविचारधारा जापानी उद्योगों के प्रबन्ध दर्शन पर आधारित है एवं उद्योगों के समूह भावना (Team Work) एवं समझौते (Agreement) पर बल देती है। जेड विचारधारा की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

1 सम्पूर्ण व्यक्तित्व पर ध्यान (Wholistic Concern)-जेड विचारधारा की मान्यता है कि कार्य केवल जीविका अर्जन ही नहीं है, वरन् यह हमारी जिन्दगी का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा भी है। अ श्रमिक के व्यक्तित्व को सम्पूर्ण दृष्टि से देखा जाना चाहिए, ‘छिपो व खोजो’ (Hide and Sa) दष्टिकोण से नहीं। यह विचारधारा श्रमिक को कार्य घण्टों के अनुसार, ‘मशीन’ एवं ‘व्यक्ति’ के बीच विभाजित नहीं करती है, वरन् उसे हर समय एक ‘मानव’ के रूप में देखती है। यह श्रमिक कर्तव्य का पूर्ण सम्मान करती है। इस विचारधारा के अनुसार मानवीय कार्य की दशाएँ संगठन म उत्पादकता एवं लाभों में वृद्धि ही नहीं करती, वरन् कर्मचारियों का आत्म-सम्मान भी करती हैं।

2. पारस्परिक विश्वास (Mutual Trust)-जेड विचारधारा मानती है कि संस्था में पारस्परिक विश्वास एवं भरोसे का वातावरण होना चाहिए। पारस्परिक विश्वास एवं भरोसे के लिए संस्था के सदस्यों का मस्तिष्क खला रहना चाहिए तथा आपसी सम्बन्धों में भी खुलापन होना चाहिए। __आउची कहते हैं कि, “उत्पादकता एवं भरोसा साथ-साथ चलते हैं” (Productivity and trust go hand in hand)। प्रबन्धकों एवं श्रमिकों के बीच पारस्परिक अविश्वास से कार्य का वातावरण दूषित हो जाता है। दोनों वर्गों के मध्य विश्वास की भावना बनी रहनी चाहिए।

3. मानवीय सम्बन्धों पर ध्यान (Attention to Human Relations)-आउची ने उत्पादकता वृद्धि के लिए मानवीय सम्बन्धों को सुदृढ़ बनाने के लिए निम्नलिखित तीन बातों पर जोर दिया है

(i) प्रबन्धकों एवं कर्मचारियों/श्रमिकों के बीच विश्वास की भावना बनी रहनी चाहिए। (ii) प्रबन्धक में व्यक्तियों की सूक्ष्मता, गूढ़ता एवं दुर्बोधता को समझ पाने की योग्यता होनी चाहिए। (iii) उत्पादकता में वृद्धि के लिए प्रबन्धकों एवं श्रमिकों के मध्य आत्मीयता, सहयोग, घनिष्ठता एवं अनुशासित नि:स्वार्थता की भावना होनी चाहिए। इस प्रकार आउची ने अपनी ‘जेड’ विचारधारा से स्पष्ट किया कि अभी तक अमेरिकी प्रबन्धक यह मानते रहे कि टेक्नोलॉजी के द्वारा ही उत्पादकता में वृद्धि की जा सकती है, उचित नहीं है।

4. अनौपचारिक या एकीकृत संगठनयह विचारधारा सुझाव देती है कि अनौपचारिक संगठन विकसित करने चाहिएँ। संस्था का कोई संगठन चार्ट, उसमें कोई भी विभाग या उपविभाग या कोई भी दृश्यमान ढाँचा नहीं होना चाहिए। यह विचारधारा इस बात पर बल देती है कि संस्था में समूल भावना एवं सहयोग की भावना होनी चाहिए जिससे वे संस्था की समस्याओं के समाधान हेतु मिलकर संसाधनों एवं सूचनाओं का उपयोग कर सकें। इसके अतिरिक्त, संस्था में पदों एवं कार्यों का विशिष्टीकरण न्यूनतम होना चाहिए।

5.संस्था तथा कर्मचारियों के बीच घनिष्ठ सम्बन्धों की स्थापना (Strong Bond Between Employees and Organisation)-जेड विचारधारा इस बात पर बल देती है कि संस्था तथा उसके कर्मचारियों के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध होने चाहिएँ। विलियम आउची ने इसके लिए निम्नांकित सुझाव दिए हैं

(i) आजीवन रोजगार (Employment) देना चाहिए-आउची ने देखा कि जापान की अधिकांश कम्पनियों में जीवनकालिक रोजगार की व्यवस्था है। कोई भी जापानी कर्मचारी नियुक्ति प्राप्त करने के साथ ही उस फर्म का एक अभिन्न अंग–’संगठन व्यक्ति’ (Organisation Man) बन जाता है। जिस प्रकार परिवार में जन्म लेते ही शिशु परिवार का एक अंग बन जाता है, उसी तरह वहाँ कम्पनी में आते ही कर्मचारी संस्था के सभी अधिकारों व दायित्वों से जुड़ जाता है तथा सभी साथी कर्मचारियों में समान त्याग की भावना उत्पन्न हो जाती है। दूसरे अर्थ में कर्मचारी एवं संस्था के बीच पर्ण आसक्ति, अपनत्व एवं सदस्यता की भावना उत्पन्न हो जाती है। फलस्वरूप, मन्दी के समय में कर्मचारियों की छंटनी नहीं की जाती, वरन् अच्छा समय आने तक उनकी वेतन-वृद्धियाँ रोक ली। जाती हैं। इस प्रकार जेड विचारधारा उद्योगों में ‘सुदृढ़ अनुरक्ति’ (Powerful Attachment) ‘सहभागी अनभव’ (Shared Experience) एवं ‘सामूहिक कार्यनीति’ (Collective Work Ethic) को प्रोत्साहित करती है। परिवार की भाँति इसमें एक अयोग्य कर्मचारी की भी पूर्ण देखभाल हो जाती है (Even the not very competent may be taken care of)|

(ii) छंटनी तथा जबरन छुट्टी (Lay off) जैसी कार्यवाही नहीं करनी चाहिए।

(iii)  वित्तीय तथा गैर-वित्तीय प्रेरणाओं से कर्मचारियों को अभिप्रेरित करना चाहिए।

(iv) लम्बवत् (Vertical) पदोन्नति के स्थान पर समानान्तर (Horizontal) विशेष बल देना चाहिए।

प्रत्येक कर्मचारी की जीविका या जीवनवत्ति की योजना (Career Plan) बनाया जाना चाहिए, ताकि प्रत्येक कर्मचारी संस्था में उचित पद तक पहुँच सके। जेड विचारधारा इस बात पर जोर देती है कि कर्मचारियों की जीवनवृत्ति पथ (Career paths) गैर-विशिष्टीकृत आधार पर निर्धारित करनी चाहिए। कर्मचारियों को अपने कार्यकारी जीवन में विविध कार्यों का अनुभव मिलना चाहिए। इसके लिए कर्मचारियों का कार्य-परिवर्तन (Job-rotation) करते रहना चाहिए तथा ठापक प्रशिक्षण देना चाहिए।

6. सामूहिक निर्णयन (Collective Decision-making)-जेड विचारधारा एक ऐसे प्रबन्ध दर्शन में विश्वास करती है जो वास्तव में जनतान्त्रिक होता है अर्थात जहाँ समस्त छोटे-बड़े निर्णय श्रम सहभागिता के आधार पर लिए जाते हैं। ये निर्णय सर्वसम्मति से लिए जाते हैं। इन निर्णयों को लेने से पूर्व कर्मचारियों के साथ पर्याप्त विचार-विमर्श एवं विचार मन्थन किया जाता है। सामूहिक निर्णय हो जाने के बाद उस निर्णय की अवज्ञा करने अथवा इसके विपरीत कार्य करने की सम्भावना समाप्त हो जाती है। साथ ही सामूहिक निर्णयों का क्रियान्वयन भी सरल एवं प्रभावपूर्ण होता है।

7.सामूहिक उत्तरदायित्व (Collective Responsibility)-जेड विचारधारा समूह एवं दल पर ध्यान देती है, व्यक्तियों पर नहीं। इस विचारधारा में “सामहिक दायित्वों’ के विचार को प्रबल मान्यता दी जाती है। संगठन में होने वाली किसी भी प्रकार की हानि अथवा दायित्वों के लिए समस्त कर्मचारी जिम्मेदार होते हैं। सामूहिक दायित्व कर्मचारी में संगठन निष्ठा, अपनत्व, त्याग की भावना विकसित करता है। कर्मचारी पारस्परिक कर्त्तव्यों से बंध जाते हैं। साथ ही, सामूहिक दायित्व व्यक्ति में नैतिकता, दलीय भावना व पारस्परिक विश्वास को जन्म देता है।

8. सांस्कृतिक ढाँचा (Cultural Framework)-प्रो० आउची ने अपने अध्ययनों में देखा कि जापानी संगठन एक भिन्न प्रकार के सांस्कृतिक ढाँचे एवं परिवेश में कार्य करते हैं। यही सांस्कृतिक परिवेश कम्पनियों को एक ऐसे दर्शन एवं मूल्यों को अपनाने के लिए प्रेरित करता है जिनकी सत्ता का आधार नैतिक एवं वैधानिक होता है। इसी आधार पर कर्मचारी कम्पनी की सत्ता को स्वीकार करते हैं तथा मानते हैं। सत्ता के इस नैतिक आधार के कारण ही उपक्रम एवं उसके कर्मचारी एक परिवार, समुदाय एवं वंश (Clan) में बदल जाते हैं। इस पारिवारिक वातावरण के परिणामस्वरूप कम्पनी की नीतियों एवं योजनाओं में परिवर्तन आ जाता है। सत्ता, श्रम-प्रबन्ध के पारस्परिक विश्वास, घनिष्ठता, प्रेरणा, सहभागिता, सहयोग एवं सन्तुष्टि पर आधारित होती है। फलस्वरूप, उत्पादकता में तीव्र गति से वृद्धि हो जाती है।

9. अन्तर्निहित नियन्त्रण प्रणाली (Implicit Control Mechanism)-आउची ने देखा कि पाश्चात्य देशों में उद्योगों के विभिन्न पहलुओं (कर्मचारी एवं कार्य पर) नियन्त्रण रखने के लिए बाहा विधियों का प्रयोग किया जाता है किन्तु ये सदैव कार्य में बाधक होते हैं। किन्तु उन्होंने जापानी उद्योगों के अध्ययन के दौरान पाया कि यहाँ नियन्त्रण प्रणाली संगठन-संरचना में अन्तर्निहित होती है।

जेड विचारधारा की आलोचनाएँ (Criticisms of Z Theory)

1 ‘जेड’ विचारधारा एक सम्पूर्ण प्रबन्धकीय विचारधारा है, न कि अभिप्रेरण की विचारधारा। इसका कारण यह है कि यह अभिप्रेरण से सम्बन्धित समस्याओं का पूर्ण समाधान प्रस्तुत नहीं करती है।

2. यह संस्था में एक समान संस्कृति के विकास पर बहुत जोर देती है जो बहुत ही कठिन है।

3. आउची ने अपनी विचारधारा में जो जीवन-पर्यन्त रोजगार का सुझाव दिया, वह व्यवहार में क्रियान्वित करना सम्भव नहीं है।

4. कर्मचारियों की निर्णयन में सहभागिता में अनेक कठिनाइयाँ आती हैं।

5. सभी देशों में सांस्कृतिक भिन्नता पाई जाती है। इसलिए सभी देशों में एक-सा प्रबन्धकीय व्यवहार अपनाया नहीं जा सकता है।

6. जेड विचारधारा में कोई नवीनता नहीं है, क्योंकि हर्जबर्ग ने अपनी आरोग्य अभिप्रेरण विचारधारा में यह बात पहले ही स्पष्ट कर दी थी कि श्रमिकों की अपने कार्य से सन्तुष्टि बहुत महत्वपूर्ण है।

7. जापानी कम्पनियों की कार्यप्रणाली एवं कार्य दशाओं का सही मूल्याँकन सम्भव नहीं है।

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(V) उर्विक काजेडसिद्धान्त (‘Z’ Theory of Urwick)

कर्नल लिण्डाल एफ० उर्विक (L.E. Urwick) ने जैड सिद्धान्त का प्रतिपादन एक्स और वाई सिद्धान्त के प्रतिक्रिया स्वरूप किया। यह सिद्धान्त प्रबन्ध के क्षेत्र में मानवीय व्यवहार को सामाजिक परिप्रेक्ष्य में समझने, निर्देशित करने एवं नियन्त्रण करने से सम्बन्धित है। समाजशास्त्री प्रबन्ध को एक सामाजिक संस्था की संज्ञा देते हैं और जैड सिद्धान्त समाज विज्ञान, मानव रचना विज्ञान, मनोविज्ञान, दर्शन शास्त्र एवं व्यवहार विज्ञान की प्रयुक्ति को स्वीकृति प्रदान करता है।

इस सिद्धान्त की अवधारणा यह है कि प्रत्येक व्यक्ति एक उपभोक्ता है, भले ही वह उत्पादक, प्रबन्धक, कर्मचारी, चिकित्सक, वकील, अध्यापक, छात्र, खिलाड़ी, व्यवसायी, राजनीतिज्ञ, बेरोजगार व्यक्ति या गृहणी आदि क्यों न हो। जैड सिद्धान्त उपभोक्तामयी मानव समाज की सेवा पर बल देता है। यह सिद्धान्त व्यवसाय को विपणन के रूप में प्रतिस्थापित करने में विश्वास रखता है। मानव की सामाजिक एवं आर्थिक आवश्यकताओं का निर्धारण समाज में रहने वाले विभिन्न व्यक्तियों की इच्छा के अनुरूप होता है। अत: कार्मिकों को अभिप्रेरित करते समय उनकी सामाजिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखना चाहिए। कोई भी व्यक्ति परिवर्तन का विरोध उस समय ही करता है, जबकि उसकी सामाजिक आवश्यकताओं को कोई खतरा हो जाता है। सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति होने पर उत्पादन में अभूतपूर्व वृद्धि होती है और मानवीय सम्बन्ध मधुर बनते हैं। सामाजिक आवश्यकताओं में समूह प्रेरणाएँ, सामाजिक प्रतिष्ठा, उन्नति के अवसर, सन्तोषप्रद कार्य दशाएँ, प्रबन्ध एवं लाभ में सहभागिता आदि प्रमुख हैं। उर्विक एवं ब्रीच के अनुसार, “सामाजिक आवश्यकताएँ स्त्रियों व पुरुषों की मार्गदर्शक, उत्तेजक और नेतृत्व करने वाली शक्ति होती है जो प्रबन्ध के वास्तविक उत्तरदायित्वों का निर्धारण करती है।” इस प्रकार यह सिद्धान्त कर्मचारियों को सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति के अनुरूप उन्हें अभिप्रेरित करने पर बल देता है।

विशेषताएँजेड सिद्धान्त की प्रमुख मान्यताएँ एवं विशेषताएँ निम्नानुसार हैं

(1) विश्व का प्रत्येक मानव पहले उपभोक्ता है बाद में चिकित्सक, कृषक, वकील आदि। (2) यह व्यवसाय को विपणन के रूप में प्रतिस्थापित करने में विश्वास करता है। (3) यह सिद्धान्त सामाजिक एवं आर्थिक आवश्यकताओं के निर्धारण का आधार स्वतन्त्र समाज के लोगों की पसन्द को मानता है। (4) प्रत्येक संस्था का यह उत्तरदायित्व है कि वह मानव, मुद्रा, माल, मशीन आदि का उपयोग संगठनात्मक व्यवहार एवं आर्थिक लक्ष्यों की पूर्ति में करे। (5) उपभोक्ता द्वारा उत्पाद विकास एवं नवाचार की माँग का कारण सामाजिक, वैज्ञानिक एवं तकनीकी प्रगति है। (6) यह उत्पादक एवं उपभोक्ता को परस्पर सदविश्वास से काम करने पर बल देता है। (7) परिवर्तन का विरोध तभी होता है. जबकि उपभोक्ता की सामाजिक आवश्यकता की पूर्ति में बाधा हो। (8) यह सिद्धान्त प्रबन्धकीय निर्णयों एवं सन्देशवाहन के जाल को अपने क्षेत्र में समाविष्ट करता है। (9) सन्देशवाहन की बाधाओं मनोबल, अनुशासन एवं आत्म-विश्वास के माध्यम से दूर किया जाना चाहिए। मल्याँकन-जेड सिद्धान्त मानवीय व्यवहार एवं अभिप्रेरण के मनन, चिन्तन. अध्ययन. विश्लेषण में प्रबन्धकों का मार्गदर्शन करता है। यह संगठन के उद्देश्यों, नीतियों व व्यवहारों व समाजोन्मुखी बनाने का प्रयास करता है तथा प्रजातान्त्रिक मूल्यों की रक्षा करता  हैं ।

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परीक्षा हेतु सम्भावित महत्त्वपूर्ण प्रश्न

(Expected Important Questions for Examination)

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न 

(Long Answer Questions)

प्रश्न 1. अभिप्रेरण की अवधारणा को समझाइये तथा अभिप्रेरणा को प्रभावित करने वाल। घटकों का उल्लेख कीजिये। अभिप्रेरण के ‘एक्स’ एवं ‘वाई’ सिद्धान्त को संक्षेप में लिखिये।

Explain the concept of motivation and state the factors affecting motivation. Describe briefly the X and Y theory of motivation.

प्रश्न 2. अभिप्रेरणा से आप क्या समझते हैं ? इस सम्बन्ध में डगलस मैकग्रेगर के विचारों का आलोचनात्मक मूल्याँकन कीजिये।

What do you mean by motivation ? Critically examine Douglas McGregor’s approach in this regard.

प्रश्न 3. मैस्लो तथा हर्जबर्ग द्वारा दी गई अभिप्रेरणा विचारधाराएँ समझाइये। उनकी समानताएँ एवं अन्तर भी बताइये।

Explain the motivation theories as given by Maslow and Hezberg. Also explain their similarities and differences.

प्रश्न 4. अभिप्रेरणा का विवेचन कीजिये तथा अभिप्रेरणा के मैस्लो सिद्धान्त को भी समझाइये।

Discuss motivation and also explain Maslow theory of motivation.

प्रश्न 5. ‘अभिप्रेरणा’ से आप क्या समझते हैं ? इस सम्बन्ध में मैस्लो द्वारा प्रतिपादित आवश्यकताओं के क्रमबद्धता सिद्धान्त की विवेचना कीजिये।

What do you understand by ‘Motivation’ ? Discuss Malow’s hierarchy of needs in that connection.

प्रश्न 6. वित्तीय एवं अवित्तीय प्रेरणाओं में अन्तर कीजिये। ऐसी कुछ अवित्तीय प्रेरणाओं को समझाइये जिन्हें कर्मचारियों को प्रदान किया जा सकता है।

Differentiate between Financial and Non-Financial incentives. Explain some of the non-financial incentives which can be provided to employees.

प्रश्न 7. “अभिप्रेरण परिस्थिति उन्मुखी है।” इस सन्दर्भ में वित्तीय और अवित्तीय अभिप्रेरणाओं की परिस्थितियों के आधार पर उपयुक्तता की विवेचना कीजिये।

“Motivation is circumstances oriented”. In this context discuss the suitability of financial and non-financial incentives on the basis of circumstances.

प्रश्न 8. अभिप्रेरणा से आप क्या समझते हैं ? अभिप्रेरणा की एक्स एवं वाई सिद्धान्त का संक्षेप में वर्णन कीजिये।

What do you mean by motivation ? Describe briefly the X and Y theory of motivation.

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लघु उत्तरीय प्रश्न

(Short Answer Questions)

प्रश्न 1. अभिप्रेरणा की ‘जेड’ विचारधारा क्या है ? समझाइये।

What is the theory ‘Z’ of Motivation ? Explain. financial and non-financial incentives.

प्रश्न 3. मैस्लो के “उच्च क्रम आवश्यकताओं” और हर्जबर्ग के “अभिप्रेरक कारकों’ में क्या सम्बन्ध है?

Is there a relationship between Maslow’s higher order needs and Herzberg’s motivation factors

प्रश्न 4. गैर-मौद्रिक अभिप्रेरणा का महत्त्व स्पष्ट कीजिये।

Illustrate the significance of non-monetary motivation.

प्रश्न 5. मौद्रिक अभिप्रेरणा का महत्त्व स्पष्ट कीजिये।

Illustrate the significance of monetary motivation.

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प्रश्न 6. आधुनिक व्यावसायिक उपक्रमों में अभिप्रेरण हेतु मुद्रा का प्रमुख स्थान है, विवेचना कीजिये।

Money holds the key to motivation in modern business enterprises. Discuss.

प्रश्न 7. अभिप्रेरण के महत्त्व को बताइये। अवित्तीय अभिप्रेरणा को समझाइये।

State the importance of motivation. Explain non-financial motivation.

प्रश्न 8. मैकग्रेगर के अभिप्रेरणा सिद्धान्त का वर्णन कीजिये।

Explain McGregor’s theory of motivation.

प्रश्न 9. मैस्लो के अभिप्रेरणा सिद्धान्त का वर्णन कीजिये।

Explain Maslow theory of motivation.

प्रश्न 10. हर्जबर्ग के अभिप्रेरणा सिद्धान्त का उल्लेख कीजिये।

Discuss Herzberg’s theory of motivation.

प्रश्न 11. विभिन्न मौद्रिक अभिप्रेरणााओं का उल्लेख कीजिये।

Discuss different financial incentives.

प्रश्न 12. अवित्तीय अभिप्रेरणा का वर्णन कीजिये।

Explain non-financial incentives.

प्रश्न 13. अभिप्रेरणा में मैकग्रेगर के सिद्धान्त ‘एक्स’ तथा सिद्धान्त ‘वाई’ का अन्तर स्पष्ट कीजिये।

Distinguish between McGregor’s theory X and theory Y of motivation.

प्रश्न 14. वित्तीय और गैर-वित्तीय प्रेरणाओं में अन्तर कीजिये। Distinguish between Financial and Non-Financial incentives.

प्रश्न 15. सकारात्मक और नकारात्मक प्रेरणाओं पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिये।

Write a short-note on positive and negative incentives.

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वस्तुनिष्ठ प्रश्न

(Objective Type Questions)

  1. बताइये कि निम्नलिखित वक्तव्य ‘सही हैं’ या ‘गलत’

State whether the following statements are ‘True’ or ‘False’ —

(i) श्रमिकों की प्रबन्ध में भागीदारी एक वित्तीय अभिप्रेरणा है।

Workers’ participation in management is financial motivation.

(ii) अभिप्रेरण मानवीय सन्तुष्टि का कारण एवं परिणाम दोनों है।

Motivation is cause and effect of satisfaction both.

(iii) अवित्तीय प्रेरणाएँ कर्मचारियों को अभिप्रेरित नहीं करती हैं।

Non-financial incentives do not motivate employees.

(iv) मैस्लो ने आवश्यकताओं को चार वर्गों में विभाजित किया है।

Maslow divided the needs into four categories.

(v) मैकग्रेगर ने अभिप्रेरण के एक्स सिद्धान्त का प्रतिपादन किया।

McGregor propounded the X theory of motivation.

(vi) जैड विचारधारा के जन्मदाता आऊची हैं।

Ouchi is the founder of Z Theory.

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उत्तर-(i) गलत (ii) सही (iii) गलत (iv) गलत (v) सही (vi) सही सही उत्तर चुनिये

(Select the correct answer)

(i) एक्स तथा वाई अभिप्रेरण सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है

(X and Y theory has been propounded by) :

(अ) मैस्लो (Maslow)

(ब) आऊची (Ouchi)

(स) हर्जबर्ग (Herzberg)

(द) मैकग्रेगर (McGregor)

(ii) अभिप्रेरणा है (Motivation is) :

(अ) आन्तरिक भावना (Internal feeling)

(ब) बाहरी भावना (External feeling)

(स) उपर्युक्त ‘अ’ व ‘ब’ दोनों (Both (a) and (b))

(द) इनमें से कोई नहीं (None of these)

(iii) अभिप्रेरणा का प्रकार नहीं है (Types of Motivation is not) :

(अ) धनात्मक और ऋणात्मक (Positive and Negative)

(ब) वैयक्तिक और समूह कार्य (Individual and Group Work)

(स) वित्तीय और अवित्तीय (Financial and Non-Financial)

(द) वैयक्तिक और समूह अभिप्रेरणा (Individual and Group motivation)

(iv) मैस्लो विचार सम्बन्धित है (Maslow theory is related to) :

(अ) नेतृत्व (Leadership)

(ब) नियोजन (Planning)

(स) नियन्त्रण (Controlling)

(द) अभिप्रेरण (Motivation)

उत्तर-(i) () (ii) (अ) (iii) (ब) (iv) (द)

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chetansati

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