BCom 2nd Year Principles Organization Concepts Nature Process Significance Study Material notes in Hindi

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BCom 2nd Year Principles Organization Concepts Nature Process Significance Study Material notes in Hindi

Table of Contents

BCom 2nd Year Principles Organization Concepts Nature Process Significance Study Material notes in Hindi: Introduction Meaning and Definition of Organization Nature and Characteristics of Organization  Scope of Organization Essential Steps Involved in the Organization Process Important Objectives Organization  Principles of Organization  Characteristics of Ideal Organisation Requests  of Sound Organization Important Examination Questions Long Answer Questions Short Answer Questions Objective Type Questions :

Concepts Nature Process Significance
Concepts Nature Process Significance

BCom 2nd Year Corporate Environment Analysis Strategy Formulation Study Material Notes in hindi

संगठन : अवधारणा, प्रकृति, प्रक्रिया एवं महत्व 

Organisation : Concept, Nature, Process and Significance

प्रारम्भिक (Introduction)

संगठन प्रबन्ध का एक तन्त्र (Machanism) होता है जिसके द्वारा प्रबन्ध अपना कार्य सम्पादित करता है। जब दो या दो से अधिक व्यक्ति मिलकर प्रशासन द्वारा निर्धारित उद्देश्य की प्राप्ति के लिए कार्यशील होते हैं तो संगठन की आवश्यकता पड़ती ही है। प्रत्येक उपक्रम में नियोजन कार्य करने के बाद संगठन कार्य किया जाता है। संगठन उत्पत्ति के साधनों में मैत्रीपूर्ण संयोजन की प्रक्रिया होती है। आधुनिक युग में व्यवसाय की सफलता के लिए पाँच ‘M’_Men, Money, Machine, Material, Marketing का समुचित उपयोग करने हेतु व प्रभावपूर्ण सहयोग हेतु संगठन आवश्यक होता है।

सर्वप्रथम एफ० डब्ल्यू टेलर ने वैज्ञानिक प्रबन्ध की विवेचना में संगठन की चर्चा की, परन्तु विस्तृत और विधिवत् ढंग से मूने तथा रैले ने सन् 1931 में अपनी पुस्तक ‘Onward Industry’ में संगठन के बारे में लिखा। बाद में यही पुस्तक ‘Principles of Organisation’ नाम से प्रकाशित हुई। तदुपरान्त बेच (Breach) की पुस्तक ‘Organisation’ तथा ऐलन (Allen) की पुस्तक ‘Management and Organisation’ आधुनिक प्रबन्ध साहित्य में बेजोड़ मानी जाती हैं। आधुनिक समाजशास्त्र के जन्मदाता मैक्स वेबर ने भी संगठन पर अपने प्रभावशाली और उत्तेजक विचार रखे हैं। अर्थशास्त्र के क्षेत्र में एडम स्मिथ ने उत्पादन के पाँच साधनों, भूमि, श्रम, पूँजी, संगठन और साहस में भी संगठन की महत्ता को स्थापित किया।

Organization Concepts Nature Process

संगठन का अर्थ और परिभाषाएँ

MEANING AND DEFINITIONS OF ORGANISATION)

आंग्ल भाषा के शब्द ‘Organization/Organization’ की उत्पत्ति ‘Organism’ से हुई है, __ जिसका आशय शरीर के ऐसे टुकड़ों अर्थात् अंगों से है जो परस्पर इस प्रकार सम्बन्धित हैं कि एक पूर्ण इकाई के रूप में कार्य करते हैं। संगठन के दो महत्वपूर्ण भाग होते हैं—(1) संघटक (Organs), और (2) उनके पारस्परिक सम्बन्ध (Their Mutual Relationship)। उदाहरण के लिए मानव शरीर की संरचना को ही लीजिए। शरीर के विभिन्न छोटे-छोटे अंग; जैसे-हाथ, पैर, मुँह, आँख, नाक और मस्तिष्क आदि की अपनी सुनिश्चित एवं स्पष्ट क्रियाएँ निर्धारित हैं। ये सभी क्रियाएँ पारस्परिक रूप से एक दूसरे अंग की क्रियाओं पर आश्रित रहती हैं। चलने, दौड़ने, खाने, लिखने में सभी आवश्यक अंग प्रभावपूर्ण सहयोग से कार्य करते हैं। इसी प्रकार, वाणिज्य एवं प्रबन्ध में विभिन्न साधनों में प्रभावपूर्ण सहयोग स्थापित करने की कला को ही संगठन कहते हैं।

संगठन शब्द प्रबन्ध विज्ञान की दृष्टि से बहुअर्थी है। संगठन के अर्थ को समझने के लिए विभिन्न परिभाषाओं को निम्नलिखित वर्गों में विभक्त करना अधिक उपयुक्त रहेगा

() संज्ञा के रूप में संगठन (Organiz

Organization Concepts Nature Processation as a Noun)-संज्ञा के रूप में संगठन व्यक्तियों का एक समूह होता है जो सामान्य उद्देश्यों के लिए मिलकर कार्य करता है। इस बारे में यह स्मरणीय है कि भीड़ को संगठन नहीं कह सकते, क्योंकि वहाँ पर व्यक्तियों का समूह होने के बावजूद सामान्य उद्देश्य नहीं होता। मूने व रैले (Mooney and Railey) के अनुसार, “संगठन सामान्य हितों की पूर्ति के लिए बनाया गया मनुष्यों का एक समुदाय है।” मैकफारलैन्ड (McFarland) के अनुसार, “संगठन का आशय व्यक्तियों के एक विशेष समूह से है जो निश्चित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए मिलकर कार्य करते हैं

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() सम्बन्धों की संरचना के रूप में संगठन (Organization as a Structure of Relationships)-इस दृष्टि से संगठन मानवीय व भौतिक साधनों तथा कार्यों का परस्पर जटिल एक तन्त्र के संरचना के रूप में बनाया जाता है। यह संरचना व्यक्तियों के लम्बवत समतल (Vertical and Horizontal) सम्बन्धों, अधिकारों, दायित्यों व कर्तव्यों को दर्शाता है। शसस कि समस्त कर्मचारी एक एकीकृत इकाई के रूप में कार्य करें। निओल तथा बाण्टन (Nami and Branton) के अनुसार, “संगठन अंशत: संरचनात्मक सम्बन्धों का प्रश्न हे तथा अंशत: मानवीय सम्बन्धों का मामला है।” हॉज व जॉनसन (Hodge and Johnson) के अनुसार, “संगठन मानवीय एवं भौतिक संसाधनों तथा कार्यों का परस्पर जटिल सम्बन्ध है जो एक तन्त्र के अन्तर्जाल के रूप में बनाया जाता है।” इस प्रकार संगठन व्यक्तियों व भौतिक साधनों (भवन, मशीन, फर्नीचर, माल आदि) की वह संरचना है जिसके अन्तर्गत सहयोग व एकीकृत ढंग से लक्ष्यों को प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है।

() एक प्रक्रिया के रूप में संगठन (Organization as a Process)-इस रूप में संगठन विभिन्न क्रियाओं की एक प्रक्रिया है जिससे कि सहकारी प्रयत्न हो सकें। इस प्रक्रिया के प्रमुख अंग। निम्न हैं-(i) संस्था में किए जाने वाले कार्य का निर्धारण करना, (ii) उस कार्य को छोटी-छोटी उप-क्रियाओं में बाँटना, (iii) समानता के आधार पर उपक्रियाओं के विविध वर्ग बनाना, (iv) उन क्रियाओं को करने के लिए उपयुक्त व्यक्तियों का चुनाव व कार्य सौंपना, (v) नियुक्त व्यक्तियों को उपयुक्त अधिकार प्रदान करना, (vi) पारस्परिक सम्बन्धों को निर्धारित करना। एल० उर्विक (L. Urwick) के अनुसार, “किसी कार्य को सम्पन्न करने के लिए किन-किन क्रियाओं को किया जाये, इसका निर्धारण एवं उन क्रियाओं को व्यक्तियों में वितरण की व्यवस्था करना ही संगठन है।” लुईस एक ऐलन (Louis A.Allen) के अनुसार, “संगठन किये जाने वाले कार्यों को निश्चित एवं श्रेणीबद्ध करने, दायित्वों एवं अधिकारों को परिभाषित एवं भारार्पित करने एवं उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु व्यक्तियों को सर्वाधिक प्रभावशाली ढंग से काम करने के लिए सम्बन्ध स्थापित करने की प्रक्रिया है।”

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संगठन की प्रकृति एवं विशेषताएँ

(NATURE AND CHARACTERISTICS OF ORGANISATION)

संगठन की प्रकृति का अनुमान उसकी निम्न विशेषताओं से लगाया जा सकता है

1 उद्देश्यप्रत्येक संगठन के लिए निश्चित उद्देश्य का होना आवश्यक है। प्रशासन द्वारा निर्धारित उद्देश्यों की प्राप्ति का संगठन एक प्रभावी तन्त्र होता है जिसे प्रबन्ध द्वारा प्रयोग किया जाता

2 सहयोगपूर्ण सम्बन्धसंगठन समूह के सदस्यों के मध्य सहयोगपूर्ण सम्बन्ध (Co-operative Relationship) स्थापित करता है। संगठन एक व्यक्ति के साथ अस्तित्व में नहीं आता। इसलिए कम से कम दो या अधिक व्यक्तियों की आवश्यकता होती है। संगठन एक प्रणाली है जो भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के मध्य अर्थपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करने में सहायता करता है। सम्बन्ध समानान्तर स्तर तथा निम्न से उच्च स्तर दोनों के साथ होने चाहिएँ। सम्बन्धों की संरचना इस प्रकार की होनी चाहिए कि यह अधीनस्थ कर्मचारियों को सामहिक रूप से प्रभावशाली और सुयोग्यतापूर्ण विधियों से काम करने के लिए प्रोत्साहित करे।

3. मानवीय भौतिक संसाधनों में समन्वय-संगठन क्रियाओं को दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है मानवीय संगठन व भौतिक साधनों का संगठन। मानवीय संगठन में कर्मचारियों की आवश्यक क्रियाओं का निर्धारण, वर्गीकरण, नियुक्ति, पदोन्नति, प्रशिक्षण, अनुशासन, परिवेदना निवारण, श्रम कल्याण, अधिकार का प्रतिनिधायन, विकेन्द्रीकरण आदि को सम्मिलित किया जाता है। दसके विपरीत, भौतिक साधनों के संगठन में भवन, मशीन, औजार, फर्नीचर, माल, पत्राचार आदि की समुचित व्यवस्था और सुप्रयोग सम्मिलित होता है। इस प्रकार संगठन क्रियाओं के विस्तृत क्षेत्र में मानवीय और भौतिक साधनों का अनुकूलतम साम्य स्थापित करके प्रभावपूर्ण उपयोग सुनिश्चित किया जाता है।

4. सम्बन्धों का ढाँचाई० एफ० एल० ब्रेच, डेनियल काट्ज, डेविड क्लीपलैण्ड, कारनैल व अन्य प्रबन्ध विद्वान संगठन को सम्बन्धों का ढाँचा (Structure of Relationships) मानते हैं जिसमें संगठन : अवधारणा, प्रकृति, प्रक्रिया एवं महत्व विभिन्न अधिकारियों के आपसी सम्बन्ध, सम्पर्क अधिकारों एवं उत्तरदायित्वों को दर्शाया जाता हा बेच के अनुसार, “संगठन ढाँचे से अधिक कछ नहीं है जिसके अन्तर्गत संस्था के प्रबन्ध क उत्तरदायित्वों का निष्पादन किया जाता है।”

5. प्रबन्ध का प्रमुख कार्यप्रबन्ध के बहतेरे कार्यों में एक प्रमुख कार्य संगठन है। उपक्रम के विकास, स्थायित्व, संसाधनों के समुचित उपयोग, लागत में कमी, प्रभावशीलता में वृद्धि, मानवाय सम्बन्धों में मधुरता, सेवा भावना को प्रोत्साहन, संस्था के सामाजिक दायित्वों के निर्वाह हेतु प्रबन्ध का प्रमुख कार्य संगठन होता है।

6.साधन, साध्य नहींसंगठन एक साधन है किसी भी दशा में साध्य नहीं है। संगठन एक ऐसा साधन है जिसके अन्तर्गत उपक्रम में कार्यरत व्यक्तियों की कार्य-विधि एवं कार्यों की व्याख्या इस प्रकार की जाती है कि वे लक्ष्यों को सफलतापूर्वक प्राप्त कर सकें।

7. अन्य1) संगठन एक सामाजिक प्रणाली है और परस्परव्यापी चलों (Interacting Variables) का एक समूह है। (ii) संगठन एक चक्रीय क्रिया है न कि नियमित रूप से घटने वाली दैनिक घटना। (iii) संगठन संदेशवाहन और समस्या निवारण का साधन है। (iv) संगठन एक कला है जिसके द्वारा मानवीय और भौतिक साधनों में प्रभावपूर्ण सहकारिता स्थापित की जाती है। (v) संगठन के विविध प्रारूप एवं प्रकार होते हैं। (vi) संगठन सार्वभौमिक होते हैं और व्यावसायिक व गैर-व्यावसायिक मानवीय क्रियाओं के सम्पादन हेतु सम्पादित किये जाते हैं।

संगठन का क्षेत्र

(SCOPE OF ORGANISATION)

संगठन के अति व्यापक क्षेत्र में निम्नांकित मानवीय व भौतिक साधनों का संगठन सम्मिलित किया जाता है

() मानवीय साधनों का संगठनमानवीय साधनों के संगठन में सामूहिक लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु निम्न क्रियाएँ करनी पड़ती हैं-(i) कुल कार्य का निर्धारण और उप-क्रियाओं में विभाजन, (ii) उप-क्रियाओं का श्रम विभाजन, (iii) कर्मचारी आवश्यकताओं का संख्यात्मक व गुणात्मक अनुमान, (iv) कर्मचारियों की भर्ती, चयन, प्रशिक्षण, पदोन्नति और भुगतान, (v) कर्मचारियों के अनुशासन, परिवेदना निवारण, मनोबल, श्रम कल्याण और सुरक्षा की क्रियायें, (vi) संगठन में विविध पदों का निर्माण और उनके अधिकारों, कार्यों, दायित्वों का निर्धारण और भारार्पण, (vii) अधिकारी व अधीनस्थ के पारस्परिक सम्बन्धों का निर्धारण तथा (viii) अधिकारों का विकेन्द्रीकरण।

() भौतिक साधनों का संगठनसंगठन में मानवीय साधनों के साथ-साथ निम्नलिखित भौतिक साधनों का संगठन करना भी आवश्यक होता है-(i) स्थान का चुनाव, (ii) भवन का निर्माण, (iii) मशीनों का अभिन्यास, (iv) यंत्रों, औजारों, फर्नीचर व माल की व्यवस्था, (v) लेखांकन, वित्त एवं अंकेक्षण की व्यवस्था, (vi) पत्राचार व फाइलिंग की व्यवस्था आदि। बिना भौतिक साधनों के कर्मचारी भली-भाँति अपने कार्य का निष्पादन कर ही नहीं सकते हैं।

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संगठन प्रक्रिया के अन्तर्निहित आवश्यक कदम

(ESSENTIAL STEPS INVOLVED IN THE ORGANISATION PROCESS)

संगठन प्रक्रिया प्रत्येक प्रबन्ध को पूरी करनी पड़ती है, जिसके लिए क्रमानुसार निम्न कदम उठाने होते हैं

1 क्रियाओं की पहचान और विभाजन (Identification and Division of Activities)-संगठन प्रक्रिया का पहला कदम निश्चित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए की जाने वाली क्रियाओं की पहचान करना होता है। किये जाने वाले समस्त कार्यों को पहचानने एवं स्पष्ट परिभाषित। करने के बाद उनकी प्रकृति, आकार एवं निहित उत्तरदायित्व को ध्यान में रखते हुए उप-क्रियाओं में विभाजित किया जाता है। इन उप-क्रियाओं की एक सूची तैयार कर लेनी चाहिए।

2. समस्त क्रियाओं का समूहीकरण (Grouping of Similar Activities)-क्रियाओं की पहचान एवं विभाजन के बाद समान प्रकार की क्रियाओं को विशेष समूह में वर्गीकृत किया जाता है। उदाहरण के लिए, उपक्रम की समस्त क्रियाओं को विपणन, सेविवर्गीय, वित्त, उत्पादन, सूचना तकनीक आदि विभागों में श्रेणीबद्ध किया जा सकता है। इसके बाद विभागीय क्रियाओं को भी उप-खण्डों में बाँटा जा सकता है। उदाहरणार्थ, विपणन की क्रियाओं को क्रय, विक्रय, विज्ञापन विक्रयोपरान्त सेवा. विपणन अनसन्धान आदि उपखण्डों में बाँट सकते हैं। विभिन्न विभागों पा कार्य-भार समान रूप से वितरित होना चाहिए जिससे उपक्रम के कार्य-संचालन में सन्तुलन और समता बनी रहे। उपक्रम के सुचारू संचालन हेतु विविध विभागों के कार्य-भार का समय-समय पर। मूल्यांकन करते रहना आवश्यक होता है।

3.कर्मचारियों के मध्य कार्य का आबंटन (Allocation of WorkAmong Employees)आवश्यक क्रियाओं के समूहीकरण के पश्चात उनका वितरण विभिन्न कर्मचारियों में उनकी योग्यता। अनुभव एवं रुचि के अनुसार किया जाता है। प्रत्येक व्यक्ति को यह बता दिया जाता है कि वह किन क्रियाओं के लिए उत्तरदायी होगा. इससे कार्य सम्पादन में गति, निश्चितता और अनुशासन बढ़ता है। यदि आवश्यकता हो तो कर्मचारियों को प्रशिक्षण भी दिया जा सकता है।

4. अधिकारों का प्रतिनिधायन (Delegation of Authorities)-प्रत्येक कर्मचारी या अधिकारी को अपने उत्तरदायित्वों का निर्वाह करने के लिए उसको अधिकार का प्रतिनिधायन (भारोपण) आवश्यक होता है। संगठन के इस चरण में अधीनस्थों को उनके कर्त्तव्यों व दायित्वों के स्वभाव के अनुसार उचित अधिकार प्रादान किए जाते हैं। अधिकार एवं दायित्व में चोली-दामन का साथ होता है। बिना उचित अधिकार प्रदान किए दायित्व को सौंपने से कार्य अवरुद्ध होता है। इसके विपरीत, दायित्व से अधिक अधिकार प्रदान करने से अधिकारों के दुरुपयोग की सम्भावना बढ़ती है। कोई भी प्रबन्धक अकेले सारे कार्य नहीं कर सकता अत: उसे अधिकार और दायित्व में समानता रखते हुए उन्हें अधीनस्थों में हस्तान्तरण करना पड़ता है।

5. भौतिक साधनों की व्यवस्था (Arrangement of Physical Resources) मात्र कर्मचारियों की नियुक्ति, प्रशिक्षण, कार्य आबंटन, अधिकार प्रतिनिधान से संगठन कार्य पूरा नहीं होता, बल्कि भौतिक साधनों; जैसे-स्थान, भवन, मशीन, औजार, फर्नीचर, हवा, प्रकाश, सर्दी-गर्मी, आदि की व्यवस्था भी संगठन में करनी पड़ती है। मानवीय व भौतिक साधनों के अनुकूलतम साम्य से ही संगठन प्रक्रिया पूरी होती है।

6. संगठनात्मक और दायित्व चार्ट की तैयारी (Preparation of Organization and Responsibility Chart)-अधिकार व दायित्व का विविध स्तरीय कर्मचारियों में स्पष्ट विभाजन के बाद इसे दर्शाने वाला एक स्पष्ट चार्ट बनाया जाना चाहिए जिससे कि सबको स्पष्ट पता हो कि किसे कहाँ से अधिकार मिले हैं और कहाँ पर जवाबदेही है।

7. संगठनात्मक पस्तिका की तैयारी (Preparation of Organization Manual)-सुसगठन प्रक्रिया हेतु संगठनात्मक पुस्तिका तैयार करनी चाहिए, जिसमें कर्मचारियों की भूमिका, स्थान, स्थायी निर्देश, सुझाव विधि आदि स्पष्ट रूप से लिखी हो। इस पुस्तिका में विविध शब्दों के अर्थों में सन्देह न हो इस हेतु एक शब्दकोष (glossary) भी रहना चाहिए।

8. समन्वय एवं सन्तुलन (Co-ordination and Balance)-संगठन प्रक्रिया का अन्तिम चरण विविध प्रबन्धकीय पदों और क्रियाओं के बीच समन्वय व सन्तुलन स्थापन है। इसकी आवश्यकता इसलिए है कि उपक्रम के सभी पद और विभाग मिलकर सामान्य लक्ष्य की प्राप्ति का दिशा में अग्रसर हो सकें। अधिकार सत्तात्मक सम्बन्धों और संदेशवाहन की व्यवस्थाओं के माध्यम से उपक्रम के विविध पदों और क्रियाओं के मध्य एकीकरण और समन्वय आता है। व्यक्तियों के संगठन सम्बन्धी सम्पर्ण कलेवर से, उसमें अपने स्थान से, अन्य विभागों के सम्बन्ध से 4 अधिकारियों से भली-भाँति परिचित होना चाहिए। कर्मचारियों को पता होना चाहिए कि आवश्यकता पड़ने पर किन अधिकारियों से मार्गदर्शन व सहायता प्राप्त कर सकते हैं और वे किनके प्रति उत्तरदायी होंगे।

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संगठन का महत्त्व अथवा उद्देश्य

(IMPORTANCE OR OBJECTIVES OF ORGANISATION)

यूनाइटेड स्टेट्स स्टील कॉरपोरेशन के विक्रय के समय सन् 1901 में अमेरिका के सुप्रसित उद्योगपति एन्ड्रयू कारनेगी ने कहा था- “हमारे सारे कारखाने, व्यापार, परिवहन सुविधाएँ और धन हमसे ले लीजिए। संगठन के अतिरिक्त हमारे पास कछ न छोडिए और हम चार वषों में ही स्वय का पुनर्स्थापित कर लेंगे।”| इस कथन के एक-एक शब्द से संगठन का महत्व झलक रहा हा आशय का विचार अमिताई एटजिओनी (Amitai Etzioni) ने इस प्रकार व्यक्त किया था, हम संगठन में ही जन्म लेते हैं, संगठन में ही शिक्षा प्राप्त करते हैं तथा हममें से अधिकांश लोग जीवन का अधिकांश समय संगठन में ही व्यतीत करते हैं। हममें से अधिकांश लोग संगठन महा मरेंगे तथा अत्येष्टि भी सबसे बड़े संगठन राज्य की आज्ञा के अनसार होगी।” संगठन को प्रबन्ध का आधारशिला कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। सुसंगठन की महत्ता को स्वीकारते हुए सी० कानथ ने कहा है कि, “एक कमजोर संगठन अच्छे उत्पाद को मिट्टी में मिला सकता है, किन्तु एक अच्छा संगठन जिसके पास कमजोर उत्पाद है, अच्छे उत्पाद को बाजार से भगा सकता है।” व्यवसाय म संगठन का महत्त्व निम्नांकित विश्लेषण से स्पष्ट हो जायेगा

1 प्रबन्धकीय कार्यकुशलता में वृद्धि (Increase in Managerial Efficiency)-सगठन एक संरचना और प्रक्रिया अपने दोनों ही रूपों में प्रबन्धकों की कार्यकुशलता में बढ़ोतरी करता है। श्रेष्ठ संगठन से कार्य के दोहरीकरण, निर्णयन में विलम्ब और निष्पादन के सम्बन्ध में संशय जैसी समस्याएँ उत्पन्न नहीं होती है। उपक्रम के समस्त कर्मचारियों, योग्यताओं और गुणों का पूरा-पूरा लाभ संगठन उठाता है। निम्न प्रबन्ध स्तर के लोगों में कार्य का विभाजन करके उच्च प्रबन्ध को तुलनात्मक रूप से अधिक महत्वपूर्ण कार्य करने का सुअवसर प्राप्त होता है। औपचारिक सम्बन्धों की व्यवस्था होने से पारस्परिक मतभेद, द्वेष, संघर्ष, पुनरावृत्ति. देरी व भ्रान्ति की सम्भावना घटती है। फलतः प्रबन्ध व प्रशासन की कार्यक्षमता और उत्पादकता बढ़ती है।

2. विशिष्टीकरण को प्रोत्साहन (Motivation to Specialisation)-संगठन एक श्रेष्ठ साधन है जिसके माध्यम से विशिष्टीकरण सम्भव होता है। इसके अन्तर्गत विभिन्न व्यक्तियों में कार्य का विभाजन उनकी योग्यतानुसार किया जाता है। काफी समय तक एक ही कार्य करते रहने से कर्मचारी में विशेष दक्षता आ जाती है और अपने मशीन की छोटी-मोटी खराबी वह स्वयं सुधार लेता है। कुशल संगठन ‘सही व्यक्ति को सही काम’ दे करके विशिष्टीकरण को प्रोत्साहित करता है।

3. विभिन्न गतिविधियों पर आनुपातिक एवं सन्तुलित बल (Proportionate and Balanced Emphasis on Various Activities)-संगठन उपक्रम की विविध क्रियाओं को आनुपातिक एवं सन्तुलित महत्व प्रदान करता है। संगठन प्रक्रिया के अन्तर्गत उपक्रम की गतिविधियों को विभागों, अनुभागों, लघु कार्यांशों में विभाजित करके अधिक महत्वपूर्ण गतिविधि पर अधिक ध्यान दिया जा सकता है। प्रत्येक गतिविधि की महत्ता के अनुसार उस पर धन और समय लगाया जाता है। छोटी-मोटी एवं नैत्यक प्रकृति की समस्याएँ निम्नस्तरीय प्रबन्ध द्वारा हल किये जाने के कारण उच्च स्तरीय प्रबन्ध महत्वपूर्ण और गम्भीर समस्याओं पर ध्यान लगा पाता है।

4. सुनिश्चित वातावरण (Well-determined Environment)-एक श्रेष्ठ संगठन कर्त्तव्यों व दायित्वों के निश्चित बँटवारे, अधिकारी-अधीनस्थ सम्बन्ध के स्पष्ट निर्धारण व कर्मचारियों के उचित चयन व प्रशिक्षण द्वारा संस्था में सुनिश्चितता एवं सहयोग का वातावरण उत्पन्न करता है। प्रत्येक विभाग व कर्मचारी कर्त्तव्य, अधिकार, दायित्व, साधन और लक्ष्य को भली-भाँति जानते रहते हैं तो भ्रान्ति, झगड़े, कार्यों का दोहरापन व छूटने की सम्भावना बहुत कम हो जाती है।

5. विकास उत्पादकता को बढ़ावा (Incentive to Growth and Productivity)-किसी भी उपक्रम के विकास व उत्पादकता का इतिहास वास्तव में अच्छे व स्वस्थ संगठन की ही कहानी होती है। सुसंगठन ही विकास व उत्पादकता का मूल मंत्र होता है। खराब व रुग्ण संगठन ही पतन के सूचक होते हैं। कुशल संगठन भौतिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक वातावरण को सुन्दर बना करके पैमाने की बचतें प्रदान करते हैं और विकास व उत्पादकता को गति प्रदान करते हैं।

6. समन्वय को सुविधाजनक बनाना (Facilitates Co-ordination)-संगठन के अन्तर्गत विभिन्न विभागों. अनभागों. पदों कत्यों गतिविधियों को समाकलित किया जाता है। कुशल संगठन के द्वारा अनुशासन, आज्ञाकारिता. उत्तरदायित्व की भावना, आत्मविश्वास, रुचि, पहल, विश्वास, व्यवस्था व सहयोग का वातावरण पैदा होता है जिससे समन्वय का कार्य सुविधाजनक हो जाता है।

7. कर्मचारियों का विकास और प्रशिक्षण (Development and Training of rersonnel)-एक श्रेष्ठ संगठन कर्मचारियों के विकास और प्रशिक्षण के लिए प्रयत्न करता है। काया का युक्तिसंगत विभाजन कर्मचारियों की उपलब्ध योग्यता और विशेष गुणों का प्रयोग सुनिश्चित करता है। नए भर्ती कर्मचारी अपने कार्य के विषय में प्रशिक्षण प्राप्त करते है। उनको अनुभवी कर्मचारियों के साथ लगा दिया जाता है। एक अच्छा संगठन विभिन्न पदों पर कर्मचारियों को अभ्यास का अवसर प्रदान करके उनके विकास और पदोन्नति को सम्भव बनाता है जिससे उनका मनोबल व संतोष बढ़ता है।

8. अन्य महत्व (Other Importance)-श्रेष्ठ संगठन के अन्य महत्व निम्नलिखित हैं-(i) भ्रष्टाचार पर रोक, (ii) अधिकारों के भारार्पण में सुगमता, (iii) उपक्रम के विकास व विस्तार में सहायक, (iv) तकनीकी सुधारों का अनुकूलतम उपयोग, (v) सौहार्दपूर्ण मानवीय सम्बन्ध, (vi) सृजनात्मकता को प्रोत्साहन, (vii) प्रभावी सन्देशवाहन, (viii) अनावश्यक हस्तक्षेप में कमी, (ix) नियोजन की सफलता, आदि।

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संगठन के सिद्धान्त

PRÍNCIPLES OF ORGANISATION)

एफ० डब्ल्यू टेलर तथा हेनरी फेयोल ने संगठन के सिद्धान्तों के प्रतिपादन में पहल की है. परन्तु इस क्षेत्र में सर्वाधिक योगदान कर्नल लिण्डाल उर्विक (Col. Lyndall Urwick) का माना जाता है जिनकी 1928 में प्रकाशित पुस्तक ‘Dictionary of Industrial Administration’ में संगठन के सिद्धान्तों की स्पष्ट व्याख्या की गयी है। उर्विक की विचारधारा मूने एवं रैले (Mooney and Reiley) तथा ग्रेकुनास (Gracunas) से सर्वाधिक प्रभावित हुई और उन्होंने अपने पूर्व प्रतिपादित सिद्धान्तों में समयानुसार संशोधन और परिमार्जन भी किया। तदुपरान्त अल्फर्ड एवं बीटी, हरबर्ट ए. साइमन, कुण्ट्ज एवं ओ’डोनेल आदि ने भी संगठन सिद्धान्तों के प्रतिपादन में उल्लेखनीय योगदान दिया है। इन सभी सिद्धान्तों की संक्षिप्त व्याख्या निम्न प्रकार है

1 उद्देश्य का सिद्धान्त (Principle of objectives)-संगठन का निश्चित और स्पष्ट उद्देश्य होना चाहिए जो कि संस्था में कार्यरत प्रत्येक कर्मचारी को ठीक प्रकार से परिभाषित होना चाहिए तथा सभी विभागों व उप-विभागों की क्रियायें इन उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए की जानी चाहिएँ। उद्देश्य साध्य है जिनकी प्राप्ति के लिए संगठन साधन का काम करता है अत: उद्देश्यों की स्पष्टता संगठनात्मक कार्यों को सही दिशा प्रदान करती है।

2. नियन्त्रण के विस्तार का सिद्धान्त (Principle of Span of Control)-अधिकारियों का नियन्त्रण का क्षेत्र सीमित होना चाहिए, क्योंकि नियन्त्रण क्षेत्र व्यापक होने पर नियन्त्रण का प्रभाव कम हो जाता है। एल० उर्विक के शब्दों में, “एक व्यक्ति अधिक से अधिक पाँच या छ: सहायक कर्मचारियों की क्रियाओं पर सफलतापूर्वक नियन्त्रण रख सकता है।”

3. व्याख्या का सिद्धान्त (Principle of Explanation or Definition)-एक कुशल संगठन के लिए यह आवश्यक है कि प्रत्येक पदाधिकारी व कर्मचारी के अधिकार. कर्त्तव्य, दायित्व, अन्य अधिकारियों के साथ सम्बन्ध की स्पष्ट व्याख्या हो जिससे कि कार्य निष्पादन में किसी प्रकार को भ्रान्त धारणा न रहे। अच्छा होगा यदि व्याख्या लिखित हो और सभी सम्बद्ध पक्षकारों को ज्ञात हो। ।

4. समन्वय का सिद्धान्त (Principle of Co-ordination)-किसी व्यावसायिक संस्था के विभिन्न कार्य, साधनों, विभागों, उपविभागों की क्रियाओं में पूर्ण समन्वय होना चाहिए, ताकि पूर्व निश्चित लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सके।

5. सन्तुलन का सिद्धान्त (Principle of Balance)-संगठन की विभिन्न इकाइयों में सन्तुलन रखा जाना चाहिए। इस सिद्धान्त के अनुसार यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि कोई एक भाग या इकाई बहुत बड़ा और दूसरा भाग या इकाई बहुत छोटी न रह जाए। कुछ भागों को आवश्यकता से बहुत ज्यादा तो कुछ को बहुत कम काम नहीं दिया जाना चाहिए नहीं तो काम पर कुप्रभाव पड़ेगा मानव शरीर के विभिन्न अवयवों के बीच जैसा सन्तुलन है वैसा ही संगठन के भागों में बरकरार रहना चाहिए।

6. अधिकार का सिद्धान्त (Principle of Authority)-साधारणतया सर्वाच्च आधकार किसी एक स्तर पर केन्द्रित रहते हैं। लेकिन संस्था का कार्य विभिन्न इकाइयों एवं क्रियाआ म विभाजित होने के कारण हर स्तर पर अधिकार दिया जाना आवश्यक है। बिना अधिकार क अधीनस्थ कर्मचारी कार्य सम्पन्न नहीं कर सकते हैं।

7. उत्तरदायित्व का सिद्धान्त (Principle of Responsibility) अधिकार एवं उत्तरदायित्व एक ही सिक्के के दो पहलू होते हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार अधीनस्थ कर्मचारियों के द्वारा किये गय कार्यों के लिए उच्च अधिकारियों का पूर्ण उत्तरदायित्व होता है। अधिकारी का कर्त्तव्य है कि वह अपने अधीनस्थों का पथ-प्रदर्शन करता रहे व उन्हें प्रेरणा भी देता रहे।

8. निरन्तरता का सिद्धान्त (Principle of Continuity)-संगठन एक प्रक्रिया है जो निरन्तर चलती रहती है। अत: संगठन व्यवस्था में न केवल वर्तमान आवश्यकताओं, बल्कि भविष्य की आवश्यकताओं को भी ध्यान में रखना चाहिए।

9. एकरूपता का सिद्धान्त (Principle of Uniformity)-एक ही प्रकार के समस्त कार्यों का समह उससे सम्बन्धित विभाग को देना चाहिए इससे सफल निष्पादन होता है और कार्य के दो या अधिक बार सम्पादित होने का सन्देह समाप्त हो जाता है।

10. विशिष्टीकरण का सिद्धान्त (Principle of Specialisation)-अच्छे संगठन में व्यक्ति की क्षमता एवं इच्छा के अनुरूप ही कार्य लगातार सौंपा जाना चाहिए जिससे कि वह लगन से हमेशा वही कार्य करते हुए उस कार्य में विशिष्टता हासिल कर ले। कर्मचारियों को उनकी कार्यक्षमता. इच्छा, अनुभव, योग्यता व लगन के अनुरूप कार्य भार सौंपना ही विशिष्टीकरण को प्रोत्साहित करता

11. लोच का सिद्धान्त (Principle of Flexibility)-संगठन के अन्तर्गत समय एवं आवश्यकता के अनुसार परिवर्तन करने तथा उसे पुनर्संगठित करने के लिए पर्याप्त लोच होनी चाहिए। संगठन को अत्यधिक नियमन, लालफीताशाही व कागजी नियन्त्रण से यथासम्भव दूर रखा जाना चाहिए।

उपरोक्त सभी सिद्धान्त उर्विक द्वारा प्रतिपादित हैं जो सार्वभौमिक माने जाते हैं। इन्हें संगठन के परम्परागत अथवा चिरप्रतिष्ठित (Traditional or Classical) सिद्धान्त कहा जाता है। उपरोक्त के अतिरिक्त कुछ अन्य निम्नलिखित आधुनिक सिद्धान्त भी हैं

12. आदेश की एकता का सिद्धान्त (Principle of Unity of Command)-एक कर्मचारी को आदेश देने वाला एक ही अधिकारी होना चाहिए, क्योंकि अनेक अधिकारियों द्वारा दिए गए आदेश एक दूसरे के प्रतिकुल भी हो सकते हैं। यह भी सत्य है कि एक व्यक्ति एक ही समय में दो अधिकारियों की सेवा नहीं कर सकता है। एक कर्मचारी की एक ही अधिकारी के प्रति जवाबदेही हान स कार्य-परिणामों के प्रति व्यक्तिगत उत्तरदायित्व की भावना रहती है।

13. अपवाद का सिद्धान्त (Principle of Exception)-इस सिद्धान्त के अनुसार उच्च प्रबन्धक को चाहिए कि वह अधीनस्थों के नैत्यक कार्यों में न्यूनतम हस्तक्षेप करे। असाधारण व अपवादात्मक दशाओं में ही उच्च अधिकारी का ध्यान आकृष्ट किया जाना चाहिए जिससे कि वे महत्वपूर्ण कार्यों में अधिक समय दे सकें।

14. जाँच एवं सन्तुलन का सिद्धान्त (Principle of Checks and Balances)-इस सिद्धान्त के अनुसार किसी एक ही स्थान पर सत्ता का अधिक केन्द्रीयकरण नहीं किया जाना चाहिए। किसी एक व्यक्ति, समूह, शाखा, विभाग, स्थान द्वारा निष्पादित कार्यों की किसी दूसरे व्यक्ति, शाखा, विभाग, स्थान द्वारा जाँच एवं सन्तुलित रखने का प्रयत्न किया जाना चाहिए।

15. भूमिका निर्वाह का सिद्धान्त (Principle of Role Playing)-इस सिद्धान्त के अनुसार अपने अधिकारी से इस प्रकार की भूमिका निभाये जाने की आशा करता है जैसा कि पर स्वय आषकारा बन जाने पर निभाता। अत: प्रबन्धक को अपने अधीनस्था का इसमनापासका पाहए और यथासम्भव अपने दष्टिकोण में परिवर्तन करते रहना चाहिए।

16. न्यूनतम सत्ता स्तरों का सिद्धान्त (Principle of Minimum Levels of Authority) सिद्धान्त क अनुसार संगठन में सत्ता स्तर न्यनतम होने चाहिएँ। सत्ता स्तरों की अधिकता से निर्देश जला लम्बा हो जाती है और निम्नतम स्तर पर कार्यरत कर्मचारियों को निर्देश प्राप्त होने में। अनावश्यक विलम्ब होता है व सन्देशों की शुद्धता पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।

17. कार्यकुशलता का सिद्धान्त (Principle of Efficiency)-इस सिद्धान्त के अनुसार मानव शक्ति का उपयोग सर्वोत्तम एवं अधिकतम कार्यकुशलता स्तर तक करना चाहिए। उनका चयन उनकी योग्यता व कशलता के आधार पर करके उचित प्रशिक्षण द्वारा कार्यक्षमता बढ़ानी चाहिए।

18. सरलीकरण का सिद्धान्त (Principle of Simplification)-इस सिद्धान्त के अनुसार संगठनकर्ताओं को संरचना ऐसी बनानी चाहिए जो कि सरलतम हो और हर व्यक्ति को आसानी से बिना सन्देह के समझ में आ सके। एक उलझनपूर्ण संगठन संरचना कर्मचारियों में संदेह और विवाद पैदा करेगा और कई कार्यों में दोहरे प्रयत्न करने पड़ सकते हैं।

19. सहभागिता का सिद्धान्त (Principle of Participation)-इस सिद्धान्त के अनुसार संगठनात्मक समस्याओं के समाधान में संगठन के प्रत्येक स्तर से यथासम्भव विचार एकत्र करने चाहिएँ। प्रबन्धकों को विचार विनिमय. सहभागिता और सर्वस्वीकृति पर जोर देना चाहिए।

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आदर्श संगठन की विशेषताएँ

(CHARACTERISTICS OF IDEAL ORGANISATION)

अथवा

स्वस्थ संगठन की आवश्यकताएँ

(REQUISITES OF SOUND ORGANISATION)

संगठन स्वयं में एक साध्य नहीं अपितु साधन है। कोई भी संगठन अच्छा है या बुरा, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि वह कितनी कुशलता से उपक्रम के अन्तिम उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक होता है। आदर्श संगठन से आशय ऐसे संगठन से है जिसमें संगठन के समस्त आवश्यक सिद्धान्तों का पालन किया जाता है तथा जो उपक्रम के अन्तिम उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक होता है। पीटर एफ० डकर के शब्दों में, “आदर्श संगठन वह है जो सामान्य व्यक्तियों को असामान्य कार्य करने में सहयोग करता है।” प्रत्येक प्रबन्धक को चाहिए कि वह अपने उपक्रम में आदर्श. स्वस्थ, सदढ व कुशल संगठन का विकास करे जिनमें निम्नांकित विशेषताएँ होनी चाहिएँ।

1 उद्देश्यपरकता (Objectivity)-एक श्रेष्ठ संगठन वह माना जाता है जो शीघ्रता से ध्येय पूर्ति में सहायक हो तथा निर्धारित ध्येय को प्राप्त करने में व्याप्त संगठनात्मक बाधाओं पर विजय प्राप्त कर लेता हो। ध्येयवादिता और उद्देश्यपरकता दृष्टिकोण से ही संगठन को कई विभागों, शाखाओं व अनुभागों में विभाजित किया जाता है।

2.कार्यों का स्वस्थ वर्गीकरण (Harmonious Grouping of Functions)-अच्छे संगठन में कार्यों का इस प्रकार वर्गीकरण किया जाना चाहिए जिससे कि क्रिया, परामर्श तथा समन्वय (Action, Consulation and Co-ordination) तीनों न्यूनतम देरी तथा बिना परेशानी के हो जायें।

3. नियन्त्रण का उचित क्षेत्र (Reasonable Span of Control)-अधीनस्थों की संख्या, जो कि प्रबन्ध के प्रत्येक स्तर पर सम्बन्धित अधिकारी के नियन्त्रण में रहेगी. उचित होनी चाहिए। नियन्त्रण का क्षेत्र अधिक व्यापक अथवा अधिक सीमित नहीं होना चाहिए। किसी अधिकारी के अधानस्थ कमचारिया का सख्या पाच या छ: से अधिक नहीं होनी चाहिए।

4. कर्तव्यों दायित्वों की स्पष्ट व्याख्या (Clear Explanation of Duties and Responsibilities)—संगठन की योजना में कर्त्तव्यों, उत्तरदायित्वों व सम्बन्धों का स्पष्ट आबंटन व व्याख्या होनी चाहिए। प्रत्येक अधिकारी को अपने कार्यक्षेत्र तथा उसकी सीमाओं, कार्य स्वतन्त्रता का क्षेत्र, वह किसके प्रति उत्तरदायी है आदि के सम्बन्ध में स्पष्ट व समुचित जानकारी होनी चाहिए।

5. कर्मचारी सन्तुष्टि एवं विकास (Emplovee’s Satisfaction and Development)-एक स्वस्थ संगठन के लिए आवश्यक है कि वहाँ पर कर्मचारियों की सन्तष्टि, मनोबल व विकास पर पर्याप्त जोर देने के लिए मानवीय दृष्टिकोण अपनाया जाए।

6.साधनों का श्रेष्ठतम उपयोग (Best Utilisation of Resources)-एक स्वस्थ समा एक गुण यह भी है कि उपलब्ध भौतिक व मानवीय संसाधनों का अधिकतम व मितव्ययितापूर्ण उपयोग हो।

7. कारोबार के विस्तार का सामर्थ्य (Capacity for Business Expansion)-एक स्वस्थ संगठन के लिए आवश्यक है कि उसमें विकास और विस्तार के पर्याप्त तत्त्व मौजूद हों। यही नहीं उसमें परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तन की व्यवस्था होनी चाहिए।

8. सहयोग और समन्वय (Cooperation and Coordination)-एक स्वस्थ संगठन के परिचालन के लिए आवश्यक है कि उसमें विभागों, उप-विभागों और अनुभागों में पर्याप्त सहयोग, समन्वय और तालमेल हो जिससे कि लालफीताशाही जैसी दूषित मनोवृत्तियाँ न पनप सकें। उदाहरण के लिए, विक्रय विभाग बिना उत्पादन विभाग से उचित तालमेल के अथवा विक्रय विभाग बिना वित्त विभाग के सक्रिय सहयोग के एक दिन भी कार्य सम्पादन नहीं कर सकते हैं।

9. प्रभावी सन्देशवाहन (Effective Communication)-एक स्वस्थ संगठन में प्रभावी सन्देशवाहन न केवल आवश्यक है बल्कि अनिवार्य होता है। इससे पारस्परिक समझ का विकास होता है तथा विचारों का आदान-प्रदान शीघ्रता, आसानी. व सरलता से हो जाता है जिससे कि पारस्परिक मतभेद, टकराव व विकार उन्मूलन सम्भव होता है।

10. विशिष्टीकरण (Specialisation)-स्वस्थ संगठन में कार्यों के बँटवारे और विभागीकरण में विशिष्टीकरण की योजना लागू की जानी चाहिए। इस योजना से मानसिक व शारीरिक योग्यता के आधार पर ही कार्य आबंटित किया जाता है जिससे कर्मचारियों की निष्ठा, – ईमानदारी और सन्तोष बढ़ता है।

12. अन्य विशेषताएँ (Other Characteristics)-(अ) लोचता, (ब) स्थायित्वता, । (स) प्रभावी व गत्यात्मक नेतृत्व, (द) सरलता, एवं (य) कार्यान्वयन में सुविधा।

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परीक्षा हेत सम्भावित महत्त्वपर्ण प्रश्न

(Expected Important Questions for Examination)

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

(Long Answer Questions)

प्रश्न 1. संगठन को परिभाषित कीजिये। संगठन के उद्देश्य तथा सिद्धान्त बताइये।

Define Organization and briefly explain its objectives and principles.

प्रश्न 2. “उपकरण उद्देश्यों की प्राप्ति के साधन होते हैं तथा संगठन उपक्रम के उद्देश्यों को प्राप्त करने का एक औजार है।” इस कथन के प्रकाश में संगठन की आवश्यकता एवं महत्त्व की विवेचना कीजिये।

“Tools are devices for accomplishing purposes and organization is a tool to achieve enterprise objectives.” In the light of this statement discuss the need and importance of organization.

प्रश्न 3. संगठन को परिभाषित कीजिये। आज के इस प्रतिस्पर्धा के युग में क्या इसकी कोई आवश्यकता है। Define organization. Is there any need of it in this present era of competition.

प्रश्न 4. संगठन को परिभाषित कीजिये। संगठन को एक ‘संरचना’ और प्रक्रिया के रूप में अलग-अलग कसे समझाएंगे ? एक प्रबन्धक संगठन में ‘संगठन’ सम्बन्धी कार्य किस प्रकार। सम्पादित करता है?

Define Organization. Distinguish between organization as a structure and a process. Discuss how managers perform the functions of organizing’ in organization.

प्रश्न 5 संगठन की परिभाषा दीजिये तथा संगठन के सिद्धान्तों का वर्णन कीजिये। एक आदर्श । संगठन की विशेषताओं पर भी प्रकाश डालिये।

Define organization and discuss the principles of organization. Indicate the characteristics of an ideal organization.

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लघु उत्तरीय प्रश्न

(Short Answer Questions)

प्रश्न 1. संगठन प्रक्रिया में शामिल तत्वों का वर्णन कीजिये।

Discuss the elements involved in the organizing process.

प्रश्न 2. संगठन की प्रक्रिया की व्याख्या कीजिये।

Explain the process of organization.

प्रश्न 3. क्या संगठन एक संरचना है या एक प्रक्रिया ? एक अच्छे संगठन के सिद्धान्तों को बताइये।

Is the organization a structure or a process? Narrate the principles of a good oganization.

प्रश्न 4. संगठन की परिभाषा दीजिये तथा प्रबन्ध में उसके महत्त्व को समझाइये।

Define organization’ and explain its importance in management.

प्रश्न 5. औपचारिक एवं अनौपचारिक संगठन को समझाइये। दोनों में अन्तर स्पष्ट कीजिये।

Explain the Formal and Informal Organization. Clarify the distinction between the two.

प्रश्न 6. संगठन की प्रकृति की विवेचना कीजिये।

Discuss the nature of the organization.

प्रश्न 7. कुशल संगठन की विशेषताएँ बताइये।

Explain the characteristics of an efficient organization.

प्रश्न 8. संगठन की अवधारणा से आप क्या समझते हैं ?

What do you mean by concept of organization ?

प्रश्न 9. संगठन के महत्त्व का वर्णन कीजिये।

Explain the importance of organization.

प्रश्न 10. संगठन के उद्देश्यों का वर्णन कीजिये।

Discuss the objectives of organization.

प्रश्न 11. संगठन के आधुनिक सिद्धान्तों को समझाइये।

Discuss the modern principles of organization.

प्रश्न 12 औपचारिक तथा अनौपचारिक संगठन में अन्तर स्पष्ट कीजिये।

Distinguish between formal and informal organisation.

प्रश्न 13. औपचारिक संगठन के प्रकारों की व्याख्या कीजिये।

Discuss the types of formal organization.

Organization Concepts Nature Process

वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

1 बताइये कि निम्नलिखित वक्तव्य ‘सही हैं’ या ‘गलत’

State whether the following statements are ‘True’ or ‘False’ –

(i) संगठन का प्रबन्ध में वही महत्त्व है जो मानव शरीर में हड्डियों के ढाँचे का होता है।

The importance of organization in management is the same as that o bones structure in human body.

(ii) आदर्श संगठन वह है जो सामान्य व्यक्तियों को असामान्य कार्य करने में सहयोग करता है।

(iii) संगठन की स्थापना निम्न स्तर के प्रबन्ध द्वारा होती है।

Organization is established by lower management level.

(iv) प्रभावी प्रबन्ध के लिये स्वस्थ संगठन आवश्यक है।

Sound organization is necessary for an effective management.

उत्तर-(i) सही (ii) सही (iii) गलत (iv) सही

2. सही उत्तर चुनिये (Select the correct answer)

(i) संगठन एक समूह है Organization is a group of :

(अ) व्यक्तियों का (Persons)

(ब) परिवारों का (Families)

(स) नेताओं का (Leaders)

(द) देशों का (Countries)

(ii) संगठन में नेता हैं Leaders in the organization are

(अ) उच्च प्रबन्धक

(Top managers)

(ब) अंशधारी (Shareholders)

(स) मध्य प्रबन्धक (Middle managers)

(द) पर्यवेक्षक (Supervisors)

(iii) “गलत संगठन संरचना व्यावसायिक निष्पादन को रोकती है तथा यहाँ तक कि उसे नष्ट कर देती है।” यह कथन है

(अ) ड्रकर (Drucker)

(ब) टैरी (Terry)

(स) ऐलन (Allen)

(द) ब्रेच (Brech)

उत्तर-(i) (अ) (ii) (अ) (iii) (अ)

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chetansati

Admin

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