BCom 3rd Year Origin Growth Auditing Study Material Notes in Hindi

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Origin Growth Auditing
Origin Growth Auditing

BCom 3rd Year Corporate Accounting Underwriting Study Material Notes in Hindi

अंकेक्षण की उत्पत्ति एवं विकास

[ORIGIN AND GROWTH OF AUDITING]

अंकेक्षण एक महत्वपूर्ण व्यावसायिक कार्य है जिसमें भारी उत्तरदायित्व होता है तथा जिसके लिए पर्याप्त कुशलता एवं निर्णय की आवश्यकता होती है।

प्राचीन काल में हिसाब-किताब रखने की प्रणाली अपूर्ण थी। उन दिनों व्यावसायिक संस्थाएं छोटी-छोटी। होती थीं और उनके पास अधिक पूंजी न होने के कारण दैनिक लेन-देन भी कम होते थे। साधारणतया वे मनुष्य जो पूंजी लगाते थे संस्था के हिसाब-किताब करते थे। अतः किसी बाहरी व्यक्ति के द्वारा हिसाब-किताब का अंकेक्षण कराया जाना आवश्यक नहीं समझा जाता था।

अंकेक्षण का आशय किसी व्यापार के लेखों की गहन जांच करना है जिससे कि उनकी सत्यता एवं नियमानुकूलता का सही ज्ञान हो सके। एकाकी व्यापार तथा साझेदारी फर्म के हिसाब-किताब की जांच कराना वैधानिक दृष्टि से अनिवार्य नहीं है, परन्तु कम्पनी के खातों का अंकेक्षण वैधानिक दृष्टि से अनिवार्य है। इस प्रकार अंकेक्षण की अनिवार्यता का प्रश्न व्यावसायिक तथा औद्योगिक संस्थाओं के बड़े पैमाने पर होने वाले विकास से जुड़ा हुआ है।

Origin Growth Auditing Notes

अंकेक्षण का अर्थ

(MEANING OF AUDITING)

अंग्रेजी भाषा के शब्द आडिट (Audit) शब्द लैटिन भाषा के शब्द ‘आडिरे (Audire)’ से बना है जिसका अर्थ है सुनना (to hear)। प्राचीन काल में हिसाब-किताब रखने की प्रणाली अपूर्ण थी। उन दिनों व्यावसायिक संस्थाएं छोटी-छोटी होती थीं और उनके पास अधिक पूंजी न होने के कारण दैनिक लेन-देन भी कम होते थे। साधारणतया वे मनुष्य जो पूंजी लगाते थे, वे ही संस्था का हिसाब-किताब देखते थे। उस समय अंकेक्षण का कार्य लेखपालकों द्वारा लेखा पुस्तकों में किये गये लेखों को सुनकर किया जाता था। इस प्रक्रिया में लेखपाल द्वारा किये गए अपने सभी लेन देन के लेखों को किसी अधिकृत व्यक्ति के समक्ष सुनाया जाता था। वह अधिकृत व्यक्ति जिसे न्यायाधीश या अंकेक्षक कहा जाता था। वह लेखों को सुनने के बाद अपना मत देता था तथा आवश्यकता पड़ने पर स्पष्टीकरण भी कराता था।

एक कम्पनी के खातों के वैधानिक अंकेक्षण की पृष्ठभूमि में स्पष्ट धारणा यह है कि एकाकी व्यापार व साझेदारी फर्म में संस्था का स्वामित्व व प्रबन्ध एक ही होता है। अंकेक्षण में प्रबन्ध के द्वारा किये गये कार्यकलाप तथा लेखों की जांच स्वामी की ओर से करायी जाती है। इसके विपरीत, कम्पनी में प्रबन्ध व स्वामित्व अलग-अलग होते हैं क्योंकि उसका प्रबन्ध संचालक मण्डल के द्वारा किया जाता है, जबकि अंशधारी कम्पनी के स्वामी होते हैं। इस प्रकार, कम्पनी के स्वामी अर्थात् अंशधारी अपने हितों के संरक्षण के लिए अंकेक्षक की नियुक्ति करते हैं तथा कम्पनी के कार्यों की जांच करवाकर अंकेक्षक से प्रमाण-पत्र प्राप्त करते हैं। वास्तव में उनके हित-संरक्षण के लिए ही कम्पनी के खातों के अंकेक्षण की अनिवार्यता की गयी है।

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अंकेक्षण का विकास

(ORIGIN OF AUDITING)

(1) सन् 1494 से पूर्व वास्तव में अंकेक्षण की उत्पत्ति 18वीं शताब्दी में हुई। यों तो यूनान तथा रोम के साम्राज्यों के समय में ऐसे उदाहरण मिलते हैं जिनसे यह पता चलता है कि वहां राजकीय हिसाब-किताब। (public accounts) की जांच करने के उपाय प्रचलित थे, पर ये उपाय सभी क्षेत्रों के लिए लागू नहीं किये। गये थे। जिन मनुष्यों को हिसाब-किताब की जांच करने का कार्य दिया जाता था, वे ‘ऑडिटर’ कहलाते थे। अंग्रेजी शब्द ‘ऑडिटिंग’ लैटिन भाषा के ‘ऑडयर’ (audire) शब्द से लिया गया है, जिसका अर्थ है, ‘सुनना’ (to hear)। प्रारम्भिक युग में प्राय: यह प्रथा बन गयी थी कि हिसाब-किताब रखने वाले व्यक्ति अनुभवी तथा निष्पक्ष व्यक्तियों के पास जाते थे और वे उन हिसाबों को सुनने के पश्चात् अपना निर्णय देते थे। प्रायः न्यायाधीश इस कार्य को करते थे। अतः उस समय न्यायाधीश ही अंकेक्षक (auditor) कहलाते थे।

(2) 1494 से 1914 तक जैसे-जैसे हिसाब-किताब रखने की प्रणाली में परिवर्तन तथा सधार होते। गये, वैसे-वैसे जांच करने की आवश्यकता पर बल दिया जाने लगा। सन् 1494 में इटली देश के वेनिस शहर के निवासी ल्यूका पेसिओलो (Luca Paciolo) ने दोहरी लेखा प्रणाली (Double Entry System of Book-Keeping) को जन्म दिया। परिणामस्वरूप हिसाब-किताब रखने की एक व्यवस्थित प्रणाली मिल गयी जिसके द्वारा व्यापार का प्रत्येक लेन-देन पुस्तकों में ठीक प्रकार से लिखा जा सकता था। इसी के साथ-साथ एक विशेष घटना इंग्लैण्ड की औद्योगिक क्रान्ति थी, जिसके कारण व्यापार का स्वरूप बढ़ गया और बड़े। पैमाने की व्यापारिक संस्थाओं की स्थापना होने लगी। अधिक पूंजी की आवश्यकता की पूर्ति के लिए एकाकी। व्यापार के स्थान पर साझेदारी संस्थाएं एवं संयुक्त पूंजी वाली कम्पनियां बनने लगीं।

सन् 1844 में इंग्लैण्ड में कम्पनी अधिनियम के द्वारा कम्पनियों के लिए चिट्ठा बनाने तथा उनका अंकेक्षण कराने को वैधानिक मान्यता प्रदान की गयी। उन्नीसवीं शताब्दी में जब से व्यापार तथा उद्योग-धन्धों का विस्तार हुआ, तभी से अंकेक्षण की आवश्यकता प्रतीत होने लगी। उसका महत्व इतना बढ़ गया कि अंकेक्षण के बिना हिसाब-किताब अविश्वसनीय माने जाते थे। इसीलिए शायद सन् 1900 में इंग्लैण्ड में कम्पनी अधिनियम पास करके यह प्रावधान कर दिया गया कि प्रत्येक कम्पनी अपने हिसाब-किताब की जांच के लिए अनिवार्य रूप से अंकेक्षक की नियुक्ति करेगी।

इंग्लैण्ड में 11 मई, 1880 को इन्स्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउण्टेण्टस (Institute of Chartered | Accountants) की स्थापना हुई। इस संस्था का कार्य अंकेक्षक तैयार करना था। भारत में पहले अंकेक्षक बनने के लिए प्रायः लोग इसी संस्था का सहारा लेते थे। जनवरी 1923 में ब्रिटिश एसोसिएशन ऑफ एकाउण्टैण्ट्स एण्ड ऑडिटर्स’ (British Association of Accountants and Auditors) के नाम से एक अन्य सस्था। बनी। इस संस्था से परीक्षा पास कर लेने वाला व्यक्ति भारत में भी अंकेक्षक बन सकता था।

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भारत में अंकेक्षण

(AUDITING IN INDIA)

(1) सन् 1914 से पूर्व भारतीय कम्पनी अधिनियम, 1882 में सर्वप्रथम कम्पनी अंकेक्षण से सम्बन्धित व्यवस्था दी गयी है। इस अधिनियम की प्रथम अनुसूची में सन्निहित तालिका ‘ए’ (Table ‘A’) के 83 तक के नियमों में कम्पनी अंकेक्षण के सम्बन्ध में यह व्यवस्था है। इस तालिका में 93वें नियम के अनुत । अंकेक्षक अपनी सहायता के लिए कम्पनी के व्यय पर लेखापाल की नियुक्ति कर सकता था। इस अंकेक्षक के लिए उस समय अच्छा लेखापाल होना आवश्यक नहीं था। यह इससे स्पष्ट होता है।

(2) सन् 1914 से 1932 तक भारत में अंकेक्षण का इतिहास 1 अप्रैल, 1914 से प्रारम्भ । जबकि भारतीय कम्पनी आधनियम, 1913 (Indian Companies Act, 1913) लागू हुआ। २० कम्पनियों के हिसाब-किताब का अंकेक्षण अनिवार्य हो गया। सन 1913 से पूर्व अंकेक्षण क काय कोई विशेष योग्यता निर्धारित नहीं की गयी थी। प्रान्तीय (अब राज्य सरकारों में सबसे पहले बम्बई । ‘ने यन 1918 में लेखाकर्म तथा अंकेक्षण की शिक्षा का प्रबन्ध किया। वह जी. डी. ए. (G.D.A.) (Government Diploma in Accountancy) देने लगी। प्रायः प्रत्येक प्रान्तीय (अब राज्य सरकार जा. डी. ए. पास व्यक्तियों को अंकेक्षक नियुक्त कर लेती थी।

(3) सन 1932 से 1949 सन 1932 तक इस शिक्षा का प्रबन्ध प्रान्तीय सरकारों के हाथ म था।। तत्पश्चात् केन्द्रीय सरकार ने इस ओर ध्यान दिया और इसके लिए ऑडिटर्स सर्टिफिकेट रूल्स (Auditors | Certificate Rules) बनाये। इन नियमों के आधार पर रजिस्टर्ड एकाउण्टेण्ट (Registered Accountant) अथात् आर. ए. (R.A.) की उपाधि दिये जाने की व्यवस्था की गयी। अंकेक्षण की शिक्षा के सम्बन्ध म सलाह। दन के लिए एक इण्डियन एकाउण्टेन्सी बोर्ड (Indian Accountancy Board) की स्थापना की गयी। इस। बोर्ड में प्रायः वे ही व्यक्ति लिये जाते थे, जो लेखाकार्य में अनुभवी तथा दक्ष होते थे। पहले सरकार ही केवल इसके सदस्य नामजद करती थी. पर 1 जुलाई, 1939 से चुनाव के द्वारा भी सदस्य चुने जाने लगे।

एक उल्लेखनीय प्रयास इस सम्बन्ध में यह है कि भारत सरकार ने । मई, 1948 को एक प्रस्ताव पास । करके लेखा-विशेषज्ञ समिति’ की स्थापना की जिसने अपनी रिपोर्ट 4 जुलाई, 1948 को प्रस्तुत की तथा सिफारिश की कि देश में कानून के द्वारा ‘इन्स्टीट्यूट ऑफ एकाउण्टेण्ट्स’ की स्थापना की जाए।

(4) सन 1949 से 1956 तक सन 1949 में चार्टर्ड एकाउण्टैण्टस एक्ट (Chartered Accountants | Act), 1949 पास हुआ जो 1 जुलाई 1949 से लागू हआ। इस अधिनियम के पास हो जाने से इस शिक्षा का संचालन, प्रबन्ध तथा नियन्त्रण केन्द्रीय सरकार से हटकर एक संस्था के हाथ में चला गया जो इन्स्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउण्टैण्ट्स के नाम से इसी अधिनियम के अन्तर्गत बनाई गयी। अब अंकेक्षक बनने के लिए इस संस्था के नियमों का पालन करना पड़ता है और नियमानुसार परीक्षा देने के बाद ही कोई व्यक्ति इससे ‘चार्टर्ड एकाउण्टेण्ट’ का प्रमाण-पत्र प्राप्त कर सकता है।

इस इन्स्टीट्यूट का प्रबन्ध करने के लिए अलग से एक परिषद बनायी गयी है। इस परिषद के लिए इन्स्टीट्यूट के सदस्यों में से चुने हुए 24 सदस्य (जो fellows में से ही होंगे) होते हैं। इसके अतिरिक्त केन्द्रीय सरकार द्वारा 6 व्यक्ति परिषद के लिए नामजद किये जाते हैं। इन्स्टीट्यूट के सम्पूर्ण कार्य का संचालन इसी परिषद के द्वारा किया जाता है।

यह इन्स्टीट्यूट अपने सदस्यों का रजिस्टर रखती है। यह सदस्य दो प्रकार के होते हैं:

(i) एसोसिएट्स (Associates) ये इन्स्टीट्यूट के सदस्य होते हैं और इनका नाम इनके रजिस्टर में लिखा होता है। ये अपने नाम के आगे ए. सी. ए.’ लिख सकते हैं।

(ii) फैलोज (Fellows) एसोसिएट सदस्य कुछ निर्धारित शर्तों का पालन करने (जैसे, कम-से-कम 5 वर्ष भारत में प्रैक्टिस करने, एक निर्धारित फीस देने, आदि) के पश्चात् इन्स्टीट्यूट के फैलो सदस्य (Fellows) बन जाते हैं और अपने नाम के आगे एफ. सी. ए.’ लिख सकते हैं।

नया कम्पनी अधिनियम 1 अप्रैल, 1956 से लागू हो गया और 1913 का अधिनियम समाप्त हो गया। नये अधिनियम की व्यवस्था के अनुसार कम्पनी के अंकेक्षक के अधिकार, कर्तव्य तथा दायित्वों में महत्वपूर्ण परिवर्तन हो गये हैं। जहां तक अंकेक्षक की योग्यता का प्रश्न है, उनमें कोई नई बात नहीं हुई। अब केवल चार्टर्ड एकाउण्टेण्ट ही अंकेक्षक बन सकता है।

(5) सन् 1956 से वर्तमान समय तक–सन् 1956 के कम्पनी अधिनियम में 1960 में महत्वपूर्ण संशोधन किये गये जिनका अध्ययन एवं ज्ञान प्रत्येक अंकेक्षक के लिए अत्यन्त आवश्यक हो गया है।

कम्पनी (संशोधित) अधिनियम (सन् 1960) 28 दिसम्बर, 1960 से लागू हुआ। इसके पश्चात् कम्पनी संशोधित अधिनियम, 1965 पास हुआ। इस अधिनियम ने भी बहुत कुछ महत्वपूर्ण संशोधन कर दिये हैं जिनमें से कम्पनी अंकेक्षक के कर्तव्यों में वृद्धि, पार्षद सीमानियम के विषय में कुछ परिवर्तन आदि उल्लेखनीय हैं। कम्पनी अधिनियम के संशोधन के द्वारा केन्द्रीय सरकार को किसी भी उद्योग में संलग्न कम्पनी के लागत-लेखों का अंकेक्षण अनिवार्य करने का अधिकार दिया गया है। इस कार्य के लिए चार्टर्ड एकाउण्टेण्ट तथा लागत  एकाउण्टेण्ट (Cost Accountant) दोनों ही योग्य माने गये हैं। इसी के अन्तर्गत 1 जनवरी, 1969 से। सीमेण्ट कम्पनियों के लागत लेखों का अंकेक्षण अनिवार्य कर दिया गया है।

कम्पनी संशोधित अधिनियम, 1969 के अनुसार कम्पनी के प्रबन्ध अभिकर्ताओं, सचिव व कोषाध्यक्षों के पद समाप्त करने की व्यवस्था कर दी गयी है। कम्पनी संशोधित अधिनियम, 1971 के द्वारा कम्पनी के संचालक-मण्डल व साधारण सभा को यह अधिकार दिया गया कि वह राष्ट्रीय सुरक्षा कोष (National Defence Fund) या केन्द्रीय सरकार द्वारा स्वीकृत किसी अन्य कोष में 25,000 रु. या शुद्ध लाभ के 5% के आधिक्य में राशि हस्तान्तरित कर सकती है। कम्पनी संशोधित अधिनियम, 1972 के द्वारा प्रशासकीय सुधार आयोग की रिपोर्ट में प्रस्तुत प्रस्तावों के अनुरूप संशोधन किये गये।

कम्पनी संशोधित अधिनियम, 1974 के द्वारा जनता एवं अंशधारियों के हितों के संरक्षण के लिए कई । महत्वपूर्ण संशोधन कर दिये गये हैं। इस अधिनियम ने कम्पनी की वैधानिक व्यवस्था में कुछ गम्भीर परिवर्तन कर दिये हैं। पार्षद-सीमानियम में परिवर्तन की स्वीकृति का अधिकार अब कम्पनी लॉ बोर्ड को दिया गया है। इस संशोधन के द्वारा धारा 224A के अन्तर्गत उन दशाओं का उल्लेख किया गया है जिनमें कम्पनी का अंकेक्षक विशेष प्रस्ताव के द्वारा ही नियुक्त हो सकता है। धारा 224 में दो नयी उपधाराएं जोड़ दी गयी हैं जिनमें अंकेक्षक बनने के लिए कम्पनियों की निर्धारित संख्या दी गयी है। धारा 224(1) के एक प्रावधान के अनुसार नियुक्त या पुनर्नियुक्त होने वाले अंकेक्षक प्रत्येक कम्पनी को एक प्रमाण-पत्र लेना होगा कि उनकी नियुक्ति निर्धारित सीमाओं (specified limits) के अन्दर हुई है।

कम्पनी संशोधित अधिनियम, 1977, 13 दिसम्बर, 1977 को पास हुआ। इसके अन्तर्गत कम्पनियों के द्वारा जमा (Deposits) के स्वीकार करने सम्बन्धी व्यवस्था की गयी है। इस अधिनियम में कम्पनी अधिनियम, 1956 की धारा 58-A, 220, 293, 620 तथा 634-A में संशोधन किया गया है। सन् 1978, 1979 और 1980 में किये गये कम्पनी अधिनियम के संशोधन के द्वारा कम्पनी के खातों के सम्बन्ध में अंकेक्षक के दायित्वों में वृद्धि की गयी है।

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अब कम्पनी संशोधित अधिनियम, 2013 के द्वारा अंकेक्षक की नियक्ति, संचालकों के पारिश्रमिक, अविमोचनशील पूर्वाधिकारी अंशों के विमोचन, जन-निक्षेप (public deposits) के पुनर्भुगतान, आदि से सम्बन्धित व्यवस्थाओं में व्यापक परिवर्तन कर दिये गये हैं।

भारत में अंकेक्षक के क्षेत्र एवं अंकेक्षक के कार्यों व प्रतिवेदनों (Reports) के सम्बन्ध में व्यापक परिवर्तन किये जा रहे हैं। यह इस बात से स्पष्ट है कि भारत सरकार के 7 नवम्बर, 1975 के आदेश से [Manufacturing and Other Companies (Auditor’s Reports) Order, 1975] जो 1 जनवरी, 1976 से लागू हो गया, कुछ विशिष्ट कार्यों को करने वाली कम्पनियों के खातों की जांच कर अंकेक्षक अपनी रिपोर्ट में कुछ विशिष्ट मामलों के सम्बन्ध में अनिवार्य रूप से जानकारी देगा। इसका अर्थ यह है कि अंकेक्षक पर जांच के सम्बन्ध में विशेष दायित्व सौंपे गये हैं, जो अब तक छोड़ दिये गये थे। उसी प्रकार 1 माचे, 1976 के राष्ट्रपति के अध्यादेश (Ordinance) के द्वारा अब कम्प्ट्रोलर एण्ड ऑडिटर जनरल ऑफ इण्डिया (Comptroller and Auditor-General of India) को सरकार के विभागों व कार्यालयों से सम्बन्धित लेखाकर्म के दायित्वों (Accounting Responsibilities) से मुक्त कर दिया गया है।

अब कम्पनी लॉ बोर्ड ने उपरोक्त आदेश के स्थान पर (Notification G. S. R. No. 909 C. E.) दिनांक 7 सितम्बर, 1988 निर्गमित किया है जिसका नाम “निर्माणी और अन्य कम्पनियां (अंकेक्षक रिर्पोट आदेश 1988″ |Manufacturing and Other Companies (Auditor’s Report) Order, 1980]| दिया गया है। इस आदेश ने 1975 के पिछले आदेश को निरस्त कर दिया है। यह नवीन आदेश 1 नवम्बर, 1988 से लाग हो गया है। इस आदेश के द्वारा कुछ महत्वपूर्ण परिवर्तन तथा सुधार लाये गये हैं जिनके अनुसार।अंकेक्षक को अपनी रिपोर्ट में कुछ विशिष्ट मामलों के सम्बन्ध में उल्लेख करना होगा।

भारत में अंकेक्षण के संचालन से सम्बन्धित महत्वपूर्ण अधिनियम एवं प्रमाप

भारतवर्ष म अकक्षण के कार्य को सफलतापर्वक सम्पन्न करने एवं अंकेक्षण क्रियाओं के संचालनक लिए विभिन्न अधिनियम एवं प्रमापों की रचना की गई है जो निम्न हैं :

(1) कम्पनीज अधिनियम, 1956 संशोधित 1965 1974 1975. 1977. 1978, 1979, 1980, 1982, 1988

(2) चार्टर्ड एकाण्टैण्ट्स अधिनियम, 1949

लेखांकन प्रमाप परिषद्                                                                अंकेक्षण व्यवहार समिति

(Accounting Standard Committee)                                (Auditing Practices Board)

(3) चार्टर्ड एकाउण्टैण्ट रेगुलेशन-संशोधित 1980, 1982, 1983

(4) कॉस्ट एण्ड वर्क्स एकाउण्टेण्ट्स एक्ट, 1959

(5) लागत अंकेक्षण अधिनियम, 1970

(6) लागत अंकेक्षण (रिपोर्ट) नियम, 2001

(7) दी कण्ट्रोलर एण्ड ऑडिटर जनरल अधिनियम, 1969

(8) भारत के ऑडिटर जनरल द्वारा प्रचारित अंकेक्षण कोड

(9) केन्द्रीय सरकार के अध्यादेश

(10) सेबी (वाक्य 49)

(11) न्यायालय के निर्णय

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अंकेक्षण के महत्व में वृद्धि

अंकेक्षण के विकास के अध्ययन से पता चलता है कि गत वर्षों में अंकेक्षण का महत्व काफी बढ़ गया है। इसके निम्नांकित कारण हैं :

(1) औद्योगिक क्रान्ति का प्रभाव औद्योगिक क्रान्ति से उद्योग व व्यापार का विकास हुआ। इनके विस्तार के साथ ही साथ बैंक व बीमा जैसी सहायक संस्थाओं की प्रगति हुई। हिसाब-किताब लिखने की वैधानिक पद्धति बनायी गयी और इस प्रकार लेखाकर्म तथा अंकेक्षण के इतिहास का प्रारम्भ हुआ।

(2) व्यापरिक संगठन के कम्पनी स्वरूप का विकास औद्योगिक क्षेत्र में बड़ी पूंजी वाली संस्थाओं का जन्म हुआ। विशेष रूप से कम्पनी स्वरूप का विकास हुआ जिसमें प्रबन्ध व स्वामित्व पृथक्-पृथक हो गये। अतः निष्पक्ष अंकेक्षण आवश्यक हो गया। कम्पनी के अंशधारियों के हित-संरक्षण के लिए अंकेक्षण का कार्य अत्यावश्यक हो गया। इस सम्बन्ध में कम्पनी अधिनियम तथा अधिनियमों के अन्तर्गत अंकेक्षण अनिवार्य कर। दिया गया।

(3) करों के प्रावधानों का प्रभाव अंकेक्षित हिसाब-किताब विश्वस्त होता है जिस पर कर-अधिकारी विश्वास करते हैं। अतः व्यापारिक संस्थाओं पर लगे हुए आय-कर, विक्रय कर, मृत्यु-कर, आदि के विवादों। के निपटारे के लिए खातों का अंकेक्षण अत्यावश्यक समझा गया।

(4) उद्योगों में सरकारी हस्तक्षेप में वृद्धि प्रायः प्रत्येक देश में गत् 50 वर्षों की अवधि में सरकारी हस्तक्षेप बढ़ता चला गया। सरकार एक ओर जहां उद्योग तथा व्यापार चलाती है, वहां दूसरी ओर अपनी आय के लिए करों को एकत्रित करती है। प्रजातन्त्रीय देशों की सरकारें अपनी हिसाबदेही जनता के प्रति सिद्ध करने के लिए निष्पक्ष जांच का सहारा लेती हैं जिसके लिए खातों का अंकेक्षण आवश्यक बन जाता है।

(5) सामाजिक उद्देश्य की पूर्तिवर्तमान समय में संस्थाओं को सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति करना एक आवश्यक अंग माना जाता है। व्यापारिक जगत के लिए लाभ कमाना ही केवल प्राथमिक उद्देश्य नहीं है वरन सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति को ध्यान में रखकर लाभ कमाना सर्वोपरि माना जाने लगा है। व्यावसायिक जगत के बदलते हुए परिवेश में वे व्यावसायिक संस्थाएं अपने व्यवसाय का सफलतापूर्वक संचालन करने में सफल हो रही हैं जिन्होंने सामाजिक उद्देश्यों की पर्ति को अपने लक्ष्य में शामिल किया है। इस कारण अंकेक्षण के महत्व में वृद्धि हुई और अंकेक्षक के दायित्वों में भी वृद्धि हुई। अब सामाजिक अंकेक्षण (Social Audit) कराने वाली संस्थाएं आदर की दृष्टि से देखी जाती हैं।

(6) केन्द्र एवं राज्य सरकारों के अधिनियम-वर्तमान समय में केन्द्र एवं राज्य सरकारों ने व्यावसायिक संस्थाओं पर नियन्त्रण एवं नियमन के लिए विभिन्न कानूनों की संरचना एवं उनकी अवहेलना पर विभिन्न दण्डों का प्रावधान किया है। इस हेतु अंकेक्षक के कर्तव्यों एवं उत्तरदायित्वों में काफी वृद्धि हुई है।

(7) न्यायालयों के निर्णय न्यायालयों में विभिन्न विवादों में दिए गए निर्णयों ने अंकेक्षण के विकास को बल दिया है। न्यायालयों द्वारा व्यवसाय के वित्तीय विवरणों के प्रस्तुतीकरण पर विशेष बल दिया गया है और वर्तमान में लेखांकन सिद्धान्तों के पालन एवं अंकेक्षण मानकों की आवश्यकता पर विशेष महत्व दिया गया है।

(8) अन्तर्राष्ट्रीय लेखांकन मानकों का विकास वित्तीय लेखांकन के क्षेत्र में अन्तर्राष्ट्रीय लेखांकन प्रमापों का निर्माण कर लेखांकन प्रणाली में एकरूपता लाने का प्रयास किया गया है। इससे विभिन्न देशों के अंकेक्षकों को अन्य देशों की संस्थाओं के अंकेक्षण का भी अवसर प्राप्त होगा तथा अंकेक्षण के लिए अपनायी जा रही तकनीक में भी समानता आएगी।

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प्रमाप अंकेक्षण व्यवहार पर विवरण

(STATEMENTS ON STANDARD AUDITING PRACTICES)

अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर लेखांकन के पेशे में समानता लाने के उद्देश्य से सन् 1977 में अन्तर्राष्ट्रीय एकाउण्टैण्ट्स संघ (International Federation of Accountants-IFAC) की स्थापना की गयी है। TFAC ने अन्तर्राष्ट्रीय अंकेक्षण व्यवहार कमेटी (International Auditing Practices CommitteeIPAC) की स्थापना विश्व में अंकेक्षण व्यवहार में एकरूपता लाने के लिए की। यह कमेटी समय-समय पर अन्तर्राष्ट्रीय लेखांकन मार्गदर्शक नियमों को भी जारी करती है जिनका पालन इसके सदस्यों द्वारा किया जाता है। ICAI भी IFAC का सदस्य है और इस कारण IFAC द्वारा जारी किये गये नियमों को लागू करने के लिए बाध्य है। ICAI ने इस उद्देश्य हेतु 1982 में अंकेक्षण व्यवहार कमेटी (Auditing Practices Committee-APC) की स्थापना की।

APC का मुख्य कार्य विद्यमान अंकेक्षण व्यवहार का अवलोकन करना तथा प्रमाप अंकेक्षण व्यवहारा। पर विवरण (Statement on Standard Auditing Practices-SAPs) का निर्माण करना है ताकि इनका ICAI के काउंसिल द्वारा जारी किया जा सके।

SAPS का निर्माण करते समय APC विद्यमान कानून, रिवाज, व्यवहार व व्यावसायिक वातावरण एवं अन्तर्राष्ट्रीय अंकेक्षण नियमों को ध्यान में रखता है।

जुलाई 2002 में APCs को ICAI की काउंसिल ने अंकेक्षण व ऐसरैस प्रमाप बोर्ड (Auditing and | Assurance Standards Board-AASB) में परिवर्तित कर दिया। इसी प्रकार SAPs को भी अंकेक्षण व ऐसरैस प्रमाप (Auditing and Assurance Standards-AASs) में बदल दिया गया। जब भी काई स्वतन्त्र अंकेक्षण किया जायेगा ता AASS का पालन किया जायेगा और ICAL के सभी सदस्य अंकेक्षण का इसका पालन करेंगे। ICAI के काउंसिल ने निम्न AASs अब तक जारी किये हैं:

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प्रश्न

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

1 अंकेक्षण की उत्पत्ति और विकास को संक्षेप में बताइए।

Discuss in brief the origin and growth in Auditing.

2. भारत में अंकेक्षण की उत्पत्ति एवं विकास को समझाइए। अंकेक्षण के विकास को प्रभावित करने वाले तत्वों को समझाइए।

Discuss the origin and growth of Auditing in India. Explain the factors influencing evolution of Auditing.

3. भारत में अंकेक्षण से सम्बन्धित प्रमख नियम कौन से हैं? समझाइए।

What are the main important acts relating to auditing in India? Explain.

लघु उत्तरीय प्रश्न

1. वह यूनानी शब्द क्या है जिससे ‘अंकेक्षण’ शब्द लिया गया है तथा उस यूनानी शब्द का क्या अर्थ है ?

2. सन् 1949 से 1956 तक अंकेक्षण के इतिहास वर्णन कीजिए।

3. ए. सी. ए. कौन होता है ?

4. ‘अंकेक्षण’ शब्द की एक संक्षिप्त परिभाषा दीजिए।

5. ‘पुस्तपालन’ व ‘लेखाकर्म’ का अन्तर स्पष्ट कीजिए।

6. ‘अंकेक्षण’ के सहायक उद्देश्यों का वर्णन कीजिए।

7. आन्तरिक अंकेक्षण किसे कहते हैं ?

8. धन के गबन के चार उदाहरण दीजिए।

9. वैधानिक अंकेक्षण क्या है ?

10. औचित्य अंकेक्षण किसे कहते हैं ?

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अति लघु उत्तरीय प्रश्न

1. अंकेक्षण की प्रारम्भिक अवधारणाएं कौन कौन सी हैं ?

2. भारतीय लेखा पालक संस्थान की स्थापना किस वर्ष में हुई ?

3. अंकेक्षण कराना किस-किस के लिए अनिवार्य है ?

4. एक कम्पनी के खातों का अंकेक्षण क्यों आवश्यक है

5. क्या एक निजी सीमित कम्पनी के लिए अंकेक्षण कराना अनिवार्य है ?

6. क्या सहकारी समितियों के खातों का अंकेक्षण प्रतिवर्ष आवश्यक है?

7. अंकेक्षण की एक परिभाषा लिखिए।

8. अंकेक्षण के दो लाभ बताइए।

9. अनुसन्धान किसे कहते हैं ?

10. इन्स्टीट्यूट आफ चार्टर्ड एकाउण्टेण्ट्स (Institute of Chartered Accountants) की स्थापना कब हुई ?

11. चार्टर्ड एकाउन्टैण्ट्स ऐक्ट (Chartered Accountants Act) कब पास हुआ ?

12. भारत में किस राज्य सरकार ने और कब सर्वप्रथम अंकेक्षण की शिक्षा का प्रबन्ध किया ?

13. G.D.A. परीक्षा का पूरा नाम लिखिए।

14. भारतीय कम्पनी अधिनियम में किस सन् में सर्वप्रथम कम्पनी अंकेक्षण से सम्बन्धित व्यवस्था की गयी?

15. क्या एक प्रन्यास के लिए अंकेक्षण कराना अनिवार्य है ?

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वस्तुनिष्ठ प्रश्न

1 अंकेक्षण है:

(अ) विज्ञान                                         (ब) कला

(स) विज्ञान व कला दोनों                 (द) इनमें से कोई नहीं

2. दोहरी लेखा-पद्धति के जन्मदाता थे :

(अ) स्टीवैन्सन                           (ब) विल्सन

(स) ल्यूका पेसिओलो                 (द) चर्चिल

3. भारत में कम्पनी के खातों का अंकेक्षण किस वर्ष के कम्पनी अधिनियम द्वारा अनिवार्य किया :

(अ) 1911                     (ब) 1931

(स) 1913                     (द) 1948

4. अंकेक्षक निम्न में से किसके समान होता है ?

(अ) पालतू कुत्ता                          (ब) शिकारी कुत्ता

(स) आवारा कुत्ता                         (द) चौकसी करने वाला कुत्ता

5. निम्न में से कौन-सा अंकेक्षण वर्ष भर चलता है ?

(अ) वार्षिक अंकेक्षण                        (ब) अन्तरिम अंकेक्षण

(स) चालू अंकेक्षण                          (द) पूर्ण अंकेक्षण

6. तलपट पर प्रभाव निम्न अशुद्धि डालती है :

(अ) पूरक अशुद्धि                               (ब) सैद्धान्तिक अशुद्धि

(स) भूल की अशुद्धि                             (द) लेख की अशुद्धि

7. निम्न का अंकेक्षण अनिवार्य है :

(अ) एकाकी व्यापार                         (ब) साझेदारी

(स) कम्पनी                                  (द) किसी का नहीं

 

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