BCom 1st Year Business Economics Price Output Decisions Under Discrimination Monopoly Notes in Hindi

BCom 1st Year Business Economics Price Output Decisions Under Discrimination Monopoly Notes in Hindi

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BCom 1st Year Business Economics Price Output Decisions Under Discrimination Monopoly Notes in Hindi: Meaning of Price Discriminations or discriminations monopoly Objectives of Price Discrimination Necessary Condition for Price Discriminations Types of Price Discrimination Difference Between Perfect or Pure COmpetition and Monopoly  Is Monopoly Price always higher than Competitive price Long term Factors Affecting the Price Policy of monopolies:

Decisions Under Discrimination Monopoly
Decisions Under Discrimination Monopoly

BCom 1st Year Economics Price Output Decisions Under Perfect Competition Notes in hindi

विभेदकारी एकाधिकार के अन्तर्गत मूल्य और उत्पादन के निर्णय

(Price And Output Decisions Under Discriminating Monopoly)

मूल्यविभेद या विभेदकारी एकाधिकार का आशय

(Meaning of Price Discrimination or Discriminating Monopoly)

एक ही समय पर एक जैसी ही वस्तु का एक ही बाजार में या विभिन्न बाजारों में एक ही क्रेता या विभिन्न क्रेताओं से विभिन्न मूल्य वसूल करना मूल्य-विभेद या विभेदकारी एकाधिकार कहलाता है। श्रीमती जॉन रॉबिन्सन के शब्दों में, “एक ही नियंत्रण के अन्तर्गत उत्पादित एक ही वस्तु को विभिन्न क्रेताओं को विभिन्न कीमतों पर बेचने का कार्य मूल्य-विभेद कहलाता है। प्रो० जे० एस० बेन के शब्दों में, “मूल्य-विभेद विशेषतया विक्रेताओं की उस क्रिया की ओर संकेत करता है जिसके द्वारा वह समान वस्तु का एक साथ ही विभिन्न क्रेताओं से भिन्न-भिन्न मूल्य वसूल करता है। मिल्टन एच० स्पेन्सर के शब्दों में, “किसी विक्रेता द्वारा एक ही वस्तु के लिये उसी अथवा विभिन्न क्रेताओं से भिन्न-भिन्न कीमतें, तद्नुसार लागतों में अन्तर के बिना, लेने की परिपाटी को मूल्य-विभेद कहा जाता है। इस प्रकार मूल्य-विभेद के अन्तर्गत विभिन्न क्रेताओं से एक ही वस्तु के भिन्न-भिन्न मूल्य लिये जाते हैं। मूल्य-विभेद और मूल्य विभिन्नता में अन्तर है। मूल्य विभिन्नता से आशय वस्तु की लागत में अन्तर के बराबर मूल्य में अन्तर करना है।

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मूल्यविभेद के उद्देश्य (Objectives of Price Discrimination)

मूल्य-विभेद का प्रधान उद्देश्य विक्रय आगम को अधिकतम करके, अधिकतम लाभ कमाना होता है। इस प्रधान उद्देश्य के अतिरिक्त इसके निम्न उद्देश्य और हो सकते हैं :

(1) भविष्य में विक्रय बढ़ाने के लिये क्रेताओं से वर्तमान में कम मूल्य वसूल करना और उन्हें उस वस्तु का आदी बनाना।

(2) क्रेता की देय क्षमता के अनुसार मूल्य वसूल करने के उद्देश्य से धनिकों से अधिक मूल्य वसूल करना तथा निर्धनों से कम।

(3) वस्तु का स्टॉक अधिक हो जाने पर उसे निकालने के लिये कम मूल्य वसूल करना।

(4) एक नये बाजार में वस्तु के प्रवेश के लिये कम मूल्य वसूल करना।

(5) अपने प्रतियोगियों को बाजार से हटाने के लिये या उन्हें कमजोर करने के लिये उनके बाजारों में क्रेताओं से कम मूल्य वसूल करना।

(6) एक एकाधिकारी अपने लाभों को अधिकतम करने के लिये मूल्य-विभेद की नीति अपना सकता। है। वह उन क्रेताओं से अधिक मूल्य वसूल करेगा जिनकी माँग बेलोचदार है।

(7) उत्पादक द्वारा उपभोक्ताओं की बचत को स्वयं हड़पने के लिये उनसे अधिक मूल्य वसूल करना।

(8) बची (Surplus) प्लान्ट क्षमता के उपयोग के लिये किसी विशेष आर्डर पर कम मूल्य वसूल करना जिससे फर्म के कुल लाभ बढ़ाये जा सकें।

(9) पूर्वानुमानित प्रतियोगिता के लिये पहले से मार्ग रोकना।

(10) विभिन्न ग्राहकों से उनकी भौगोलिक स्थिति के आधार पर विभिन्न मूल्य वसूल करना।

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मूल्यविभेद की आवश्यक दशायें

(Necessary Conditions for Price Discrimination)

यह निम्न परिस्थितियों में सम्भव है :

(1) एकाधिकारी स्थिति : पूर्ण प्रतियोगिता में मूल्य-विभेद सम्भव नहीं। इसके लिये विक्रेता फर्म का एकाधिकारी स्थिति में होना आवश्यक है। यदि उद्योग की समस्त फर्मों के बीच मूल्य-विभेद के लिये स्पष्ट समझौता हो गया है तो भी मूल्य-विभेद सम्भव है।

(2) पृथक बाजार : मूल्यविभेद के लिये यह आवश्यक है कि वस्तु के दो या अधिक पृथक बाजार हों। वे एक दूसरे से पर्याप्त दूर होने चाहिये जिससे सस्ते बाजार से वस्तु महँगे बाजार में न पहुँच सके। विभिन्न बाजारों को पृथक रखने वाली बातें निम्नलिखित हैं :

() क्रेताओं की विशेषतायें :

(i) क्रेताओं की अज्ञानता : यदि क्रेताओं को पृथक्-पृथक् मूल्य लिये जाने का ज्ञान न हो तो मूल्य-विभेद चलता रहेगा।

(ii) क्रेताओं की अविवेकपूर्ण धारणा : यदि क्रेता अधिक मूल्य को वस्तु की अच्छी किस्म का प्रतीक मानते हैं तो मूल्य-विभेद चलता रहेगा।

(iii) बहुत थोड़ा मूल्यान्तर : बहुत से क्रेता मूल्यों में थोडे अन्तर की ओर ध्यान नहीं देते। .

() वस्तु या सेवा की प्रकृति : यदि वस्तु एक प्रत्यक्ष सेवा है, जैसे डाक्टर या वकील की सेवा तो मूल्य-विभेद सफलतापूर्वक चलता रहेगा।

() क्रय शक्ति में विभिन्नता : बहुत से विक्रेता, जैसे डाक्टर, वकील आदि अपनी वस्तु या सेवा के क्रेताओं से उनकी हैसियत के अनुसार मूल्य वसूल करते हैं।

() भौगोलिक दूरी और प्रशुल्क बन्धन : दो बाजारों के बीच दूरी अधिक होने पर परिवहन लागतों के कारण उनमें एक वस्तु भिन्न मूल्यों पर बेची जा सकती है। इसी तरह दो देशों के बीच सीमा-शुल्कों के कारण भी एक वस्तु के भिन्न मूल्य पाये जा सकते हैं।

() सरकारी नियम : कुछ दशाओं में सरकार नियम बनाकर मूल्य-विभेद को सम्भव बनाती है। उदाहरण के लिये एक बिजली कम्पनी औद्योगिक व घरेलू प्रयोग के लिये बिजली दरों में अन्तर रखती

() आदेश पर विक्रय : यदि माल ग्राहक के आदेश पर तैयार किया जाता है तो प्रायः उसे यह पता नहीं हो पाता है कि उस प्रकार की वस्तु के लिये पहले क्रेताओं ने कितना मूल्य दिया है।

(3) माँग की लोच मे अन्तर होना चाहिये जिससे जिस बाजार में वस्तु की मांग बेलोचदार है या कम लोचदार है. वहाँ वस्तु का ऊँचा मुल्य निर्धारित किया जा सकता है तथा जिस बाजार में वस्तु की माँग अधिक लोचदार है, वहाँ वस्तु का नीचा मूल्य निर्धारित किया जा सकता है। ऐसा करने पर ही एक एकाधिकारी अपने लाभों का अधिकतम कर सकता है।

मूल्यविभेद के प्रकार (Types of Price Discrimination) – मूल्यविभेद कई प्रकार के हो सकते हैं  ।

प्रबन्धकीय अर्थशास्त्र

(1) व्यक्तिगत मूल्य-विभेद,

(2) भौगोलिक मूल्य-विभेद,

(3) व्यापारानुसार या प्रयोगानुसार मूल्य-विभेद,

(4) वर्गानुसार मूल्य-विभेद,

(5) समयानुसार मूल्य-विभेद,

(6) छूट देकर मूल्य-विभेद ।

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(1) व्यक्तिगत मूल्यविभेद (Personal Price Discrimination) – जब अलग-अलग ग्राहकों से अलग-अलग कीमतें ली जा रही हों तो इसको व्यक्तिगत मूल्य-विभेद कहते हैं। उदाहरण के लिये फर्म के कर्मचारियों, अंशधारियों या व्यक्तिगत सम्बन्धियों से वस्तु का मूल्य कम वसूल किया जा सकता है।

(2) भौगोलिक मूल्यविभेद (Geographical Price Discrimination) – जब भिन्न-भिन्न स्थानों पर वस्तु की भिन्न-भिन्न कीमतें रखी जाती हैं तो इसे भौगोलिक मूल्य-विभेद कहते हैं। जब विक्रेता सम्पूर्ण देश को कई क्षेत्रों में बाँट देता है और प्रत्येक क्षेत्र के लिये अलग-अलग मूल्य निर्धारित करता है। तो उसे क्षेत्रीय-मूल्य विभेद कहते हैं। भारत जैसे बड़े देश में इस प्रकार के मूल्य-विभेद के पर्याप्त अवसर हैं। यह निम्न तीन प्रकार का हो सकता है –

(1) एफ० ओ० बी० फैक्ट्री मूल्य-निर्धारण (E.O. B. Factory Pricing)- इस विधि के अन्तर्गत विक्रय कारखाने पर ही पूर्ण मान लिया जाता है तथा क्रेता को माल की सुपुर्दगी कारखाने के गेट पर ही दे दी जाती है। अतः इसमें क्रेता स्वयं यातायात के तरीके का चयन करता है और माल को अपने गोदाम तक ले जाने की परिवहन लागतें स्वयं वहन करता है। यह मूल्य निम्न दो प्रकार का होता हैं ।

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() भाड़ा रहित समान एफ० ओ० बी० मूल्य (Uniform F. O. B. Price with no freight absorption or Uniform Mill-Net)- इसमें विक्रेता का कारखाना शुद्ध मूल्य (Mill-Net Price) सभी स्थानों के क्रेताओं के लिये एक समान होता है, चाहे क्रेता के स्थान की दूरी कितनी भी क्यों न हो। विभिन्न क्रेताओं के लिये माल की परिवहन लागतें उनकी दूरी के अनुसार अलग-अलग होने के कारण उसमें वस्तु का सुपुर्दगी मूल्य (Delivered Price) विभिन्न स्थानों के लिये भिन्न-भिन्न हो सकता है और मूल्य विभेद की स्थिति बन जाती है। इस विधि में विक्रेता को सभी क्रेताओं से समान मूल्य लेना सम्भव होता है तथा वह परिवहन की जोखिम तथा ढुलाई में देरी के दायित्व से मुक्त हो जाता है। किन्तु इसमें दूरस्थ क्रेताओं का सुपुर्दगी मूल्य ऊँचा रहने के कारण विक्रेता को इन क्रेताओं को बनाये रखना कठिन हो जाता है। इस स्थिति का सामना करने के लिये विक्रेता भाड़ा सहित एफ० ओ० बी० मूल्य की विधि अपना सकता है।

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() भाड़ा सहित एफ० ओ० बी० मूल्य (F. O. B. Price with freight absorption) – विभिन्न स्थानों की परिवहन लागत में पर्याप्त अन्तर के कारण एक विक्रेता फर्म भाड़े की लागत को ध्यान में रखते हुए मूल्य निर्धारण की ऐसी विधि अपना सकती है जिसमें दूर स्थान के क्रेताओं को उनकी दूरा क आधार पर वस्तु के कारखाना मूल्य में कछ रियायत कर दी जाती है तथा इस प्रकार समीप के क्रेताओं के साथ मुल्य-विभेद करके उन्हें अपने साथ बनाये रख सकता है। इसमें भाड़े का नियंत्रित समावेश (नियम द्वारा सीमित) हो सकता है अथवा अनियंत्रित।।

(II) समान सुपुर्दगी मूल्य निर्धारण (Uniform Delivered Pricing)- इसमें सभी स्थानों के क्रेताओं के लिये एक समान सुपुर्दगी मूल्य रखा जाता है। यह दो प्रकर का होता है –

() एकल क्षेत्र सुपुर्दगी मूल्य अथवा डाक टिकट मूल्य निर्धारण (Single Zone Delivered Price or Postage Stamp Pricing)- इस विधि के अन्तर्गत विक्रेता सभी स्थानों के क्रेताओं के लिये एक समान सुपुर्दगी मूल्य रखता है। इस विधि में विक्रेता परिवहन लागतें स्वयं वहन करता है तथा इसकी अनुमानित औसत लागत वस्तु के सुपुर्दगी मूल्य में सम्मिलित करके निकट एवं दूर के सभी

प्रबन्धकीय अर्थशास्त्र यदि परिवहन लागत अधिक हो तथा उत्पादन केन्द्र छितराये हुए हों तो यह विधि अनुपयुक्त रहती

() बहुआधार बिन्दु मूल्य निर्धारण (Multiple-Basing Point Pricing) – इस विधि से मूल्य निर्धारण में कई उत्पादन केन्द्रों को आधार बिन्दु बनाया जाता है। इसमें सुपुर्दगी मूल्य ज्ञात करने के लिये सम्बन्धित क्रेता के निकटतम उत्पादन केन्द्र (या आधार बिन्दु) के फैक्ट्री मूल्य में उस केन्द्र से क्रेता के स्थान की एक प्रमापित दर से परिवहन लागतें जोड़ी जाती हैं, चाहे माल किसी भी उत्पादन केन्द्र से क्यों न भेजा जाय। इस प्रणाली से मूल्य-विभेद होता है क्योंकि इसमें कुछ काल्पनिक भाड़े (phantom freights) शामिल किये जाते हैं। ‘भाड़ा समानीकरण मूल्य निर्धारण (Freight Equalization Pricing)- इसमें सभी संयंत्र मूल्य निर्धारण बिन्दु होते हैं। वस्तु का सुपुर्दगी मूल्य निकटवर्ती संयंत्र के फैक्ट्री मूल्य में क्रेता की प्रमापित परिवहन लागत जोड़कर ज्ञात किया जाता है। यदि किन्हीं क्रेताओं के सम्बन्ध में किसी विक्रेता का संयंत्र अन्य प्रतियोगियों की तुलना में दूर पड़ता है तो ऐसे क्रेताओं के लिये प्रतियोगी विक्रेता के निकटतम संयंत्र से परिवहन लागत चार्ज की जा सकती है। इस मूल्य में वास्तविक भाड़ा शामिल होता है, काल्पनिक भाड़ा नहीं

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(3) व्यापारानुसार अथवा प्रयोगानुसार मूल्यविभेद (Tradewise or Usewise Price Discrimination)- यदि विक्रेता वस्तु या सेवा के प्रयोग के आधार पर कीमत में भेद करता है तो इसे व्यापारानुसार या प्रयोगानुसार मूल्य-विभेद कहते हैं। जनोपयोगी संस्थाओं में सामान्यतया उपभोक्ता श्रेणियों के आधार पर मूल्य-विभेद किया जाता है। उदाहरण के लिये विद्युत पूर्ति कम्पनी घरेलू प्रयोग और औद्योगिक प्रयोग के लिये भिन्न-भिन्न दरें चार्ज करती है।

(4) वर्गानुसार मूल्यविभेद (Classwise Price Discrimination) – कई बार विक्रेता धनी वर्ग से अधिक मूल्य चार्ज करता है तथा गरीब वर्ग से कम। इसके औचित्य को सिद्ध करने के लिये वह अमीर वर्ग के प्रयोग की वस्तु पर पृथक् लेबिल का भी प्रयोग कर सकता है।

(5) समयानुसार मूल्यविभेद (Timewise Price Discrimination)- इसके अन्तर्गत विक्रेता का उद्देश्य विभिन्न समयों में क्रेता की माँग की लोच के अन्तरों के आधार पर मूल्य-विभेद करके लाभ कमाना होता है। उदाहरण के लिये दिन की अपेक्षा रात में टेलीफून की दरें कम रखी जाती हैं। इसे Clock Time मूल्य-विभेद कहते हैं। Clock Time मूल्य-विभेद को लाभदायक बनाने के लिये दो दशाओं की आवश्यकता होती है- (1) क्रेताओं द्वारा अन्य समयों की अपेक्षा एक विशेष समय पर क्रय करने के लिये आतुर होना जिससे माँग की लोच में महत्वपूर्ण अन्तर किया जा सके। (2) उत्पाद या सेवा का (सम्पूर्ण या उसके भाग में) उपयोग स्थगित सम्भव न होना।

यदि किसी विशेष मौसम के आधार पर वस्तु या सेवा का मूल्य कम कर दिया जाय तो इसे Calender Time मूल्य-विभेद कहते हैं। उदाहरण के लिये जाड़ों में बिजली के पंखों के मूल्य कम हो जाते हैं।

(6) छूट देकर मूल्यविभेद (Discount Price Discrimination)- विक्रेता अपने क्रेताओं को अलग-अलग प्रकार से छूटें देकर भी मूल्य-विभेद कर सकता है। ये चार प्रकार की होती हैं –

() वितरक छूट (Distributors’ Discount)-वितरक छट का आशय उन मूल्य-कटौतियों से होता है जो कि विक्रता विभिन्न प्रकार के व्यापारियों व अन्य विशेष क्रेताओं को उनकी स्थिति के अनसार देता है। एक उत्पादक के लिये असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य होगा कि वह अपनी वस्तु को स्वयं क्रेताओं को पहुँचाये। अतः इस प्रक्रिया को पूरा करने के लिये वह वितरक नियुक्त करता है। इसके अतिरिक्त थोक विक्रेताओं, आढ़तियों तथा फुटकर विक्रेताओं को भी वस्तु का सीधा विक्रय किया जा सकता है। इन समस्त विक्रय सहायकों को उनके पारिश्रमिक स्वरूप जो छट प्राप्त होती है, उसे ही कहते हैं। जोलडान के शब्दों में, “Distributors discounts are price deductions that systematically make the net price vary according to the buyers’ position in क्योकिं एकाधिकार में मूल्य और उत्पादन के निर्णय है क्योंकि एकाधिकार के अन्तर्गत नई फर्मों के प्रवेश की सम्भावना नहीं होती। अतः दीर्घकाल में एकाधिकारी निश्चित रूप से लाभ ही कमाता है। उसके लाभ की मात्रा (1) वस्तु की माँग की लोच तथा (ii) दीर्घकालीन औसत लागत के व्यवहार पर निर्भर करती है। यदि माँग लोचदार है तो वह नीचा मूल्य निर्धारित करके बिक्री की मात्रा बढ़ाकर अपना कुल लाभ। अधिकतम कर सकता है।

चूँकि दीर्घकाल में एकाधिकारी उद्योग के विस्तार या संकुचन की पूर्ण सम्भावनायें रहती हैं, अतः इस काल में वस्तु की औसत लागत प्रभावित होगी तथा औसत लागत का व्यवहार के सिद्धान्त में कोई मौलिक अन्तर नहीं आता। प्रत्येक स्थिति में एकाधिकारी का प्रयत्न अपने कुल एकाधिकारी लाभ को अधिकतम करने का रहेगा और ऐसा करने के लिये वह अपने उत्पादन में तब तक विस्तार करता जायेगा जब तक कि सीमान्त लागत सीमान्त आगम के उत्पत्ति नियम पर निर्भर करता है। यदि उसके उद्योग में लागत हास नियम क्रियाशील हो रहा है तो वह कम मूल्य रख कर अधिक मात्रा में उत्पादन का प्रयास करेगा। लागत वृद्धि नियम के अन्तर्गत वह ऊँची कीमत निर्धारित करके उत्पादन की मात्रा कम रखेगा। लागत समता नियम की दशा में लागतों का मूल्य निर्धारण पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इसे नीचे दिये चित्र 3.3 में स्पष्ट किया गया है।

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उपरोक्त चित्र के तीनों भागों (अ, ब, स) में आगम वक्रों (MR और AR) को गिरते | हुए दिखाया गया है किन्तु लागत वृद्धि नियम, लागत हास नियम तथा लागत समता नियम के | क्रियाशील होने के कारण चित्र के (अ), (ब) और (स) भागों में लागत वक्रों (LAC और LMC) को क्रमशः ऊपर उठते हुए, नीचे गिरते हुए तथा क्षैतिज दिखाया गया है। चित्र के (अ) और (ब) भागों में LMC वक्र MR वक्र को E बिन्दु पर काटता है तथा (स) भाग में D बिन्दु पर काटता है। तीनों भागों में एकाधिकारी का साम्य वस्तु की OQ मात्रा तथा BQ मूल्य पर होता है तथा सभी स्थितियों में उसका लाभ आयत ABCD के क्षेत्रफल के बराबर

पूर्ण अथवा विशुद्ध प्रतियोगिता और एकाधिकार में अन्तर

(Difference between Perfect or Pure Competition and Monopoly)

(1) दोनों की दशाओं में अन्तर : पूर्ण प्रतियोगिता और एकाधिकार की दशाय एक पूत। के विपरीत हैं। वस्तुतः पूर्ण प्रतियोगिता में प्रतियोगिता पूर्ण होती है जबकि एकाधिकार में प्रतियोगिता का अभाव पाया जाता है क्योंकि (i) पूर्ण प्रतियोगिता में वस्तु के बहुत से विक्रेता होते हैं और उनमें से किसी का भी बाजार की पूर्ति पर प्रभावपूर्ण नियन्त्रण नहीं होता जबकि एकाधिकार में वस्तु का केवल एक विक्रेता होता है और उसका वस्तु की पूर्ति पर पूर्ण नियन्त्रण होता है, (ii) पूर्ण प्रतियोगिता में नयी फर्मों के प्रवेश की स्वतन्त्रता रहती है जबकि एकाधिकार में नयी फर्मों के प्रवेश पर प्रभावपूर्ण बाधायें रहती हैं, (iii) पूर्ण प्रतियोगिता में विभिन्न फर्मों की वस्तुयें समरूप होने के कारण पूर्ण स्थानापन्न होती हैं जबकि एकाधिकार में एकाधिकारी की। वस्तु की कोई निकट स्थानापन्न वस्तु ही नहीं होती, (iv) पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत फर्म ‘मूल्य ग्रहण करने वाली’ होती है जबकि एकाधिकारी फर्म ‘मूल्य निर्धारक’ होती है, (v) पूर्ण प्रतियोगिता में किसी विशेष समय पर बाजार में वस्तु का केवल एक मुल्य ही प्रचलित होता है। जबकि एकाधिकार में एकाधिकारी ग्राहकों के विभिन्न वर्गों में माँग की लोच की विभिन्नता के आधार पर ‘मूल्य विभेद’ कर सकता है।

(2) ‘फर्मऔर उद्योगमें अन्तर : पूर्ण प्रतियोगिता में ‘फर्म’ और ‘उद्योग’ पृथक-पृथक होते हैं जबकि एकाधिकार में ये एक ही होते हैं।

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(3) फर्म के लिए वस्तु की माँग पूर्णतया लोचदार’ होती है। इसीलिये एक प्रतियोगी फर्म का माँग विपरीत एकाधिकार में वस्तु की माँग ‘कम लोचदार’ होती है। अतः एकाधिकारी फर्म का माँग वक्र (या औसत आगम वक्र) बायें से दायें नीचे की ओर ढाल होता है।

(4) सीमान्त और औसत आगम में अन्तर : पूर्ण प्रतियोगिता में सीमान्त आगम (MR) और औसत आगम (AR) बराबर होते हैं, अतः इसमें MR और AR वक्र एक ही होते हैं जबकि एकाधिकार में सीमान्त आगम औसत आगम से कम होता है। इसलिए इसमें MR वक्र AR वक्र के नीचे रहता है।

(5) मूल्य और उत्पादन की स्थितियों में अन्तर : पूर्ण प्रतियोगिता और एकाधिकार दोनों  में ही फर्म का साम्य उस बिन्दु पर होता है जहाँ सीमान्त आगम (MR) और सीमान्त लागत (MC) एक दूसरे के बराबर हों। इस समानता के बावजूद दोनों के मूल्य और उत्पादन के निर्धारण में निम्न अन्तर पाया जाता है :

() मूल्य में अन्तर : चूँकि पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत AR = MR तथा साम्य की स्थिति में MR = MC होता है, अतः इसमें AR = MC। दूसरी ओर एकाधिकार में चूंकि AR, MR से अधिक होता है तथा साम्य की स्थिति में MR = MC, अतः इसमें AR > MCनिष्कर्ष रूप में पूर्ण प्रतियोगिता में मूल्य सीमान्त लागत के बराबर होता है जबकि एकाधिकार में मूल्य सामान्यतया सीमान्त लागत से अधिक

() फर्म के आकार या उत्पादन में अन्तर : पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत दीर्घकालीन साम्यावस्था में प्रतिस्पर्धी फर्मे अनुकूलतम आकार की होती हैं और वे अपनी पूर्ण क्षमता तक उत्पादन करती हैं। दूसरी ओर एकाधिकार के अन्तर्गत दीर्घकाल में। एकाधिकारी फर्म अनुकूलतम से कम आकार की होती है और वह अपनी पूर्ण क्षमता से कम उत्पादन करती है। संक्षेप में, एकाधिकार में पूर्ण प्रतियोगिता की तुलना में कम उत्पादन होता है। एकाधिकारी मूल्य के प्रतियोगी मूल्य से अधिक होने तथा एकाधिकारी उत्पादन के प्रतियोगी उत्पादन से कम होने के परिणामस्वरूप एकाधिटार में उपभोक्ता की बचत में हानि होती है।

एकाधिकार में मूल्य और उत्पादन के निर्णय सीमान्त लागत (MC) वक्र के सीमान्त आगम (MR) वक्र के काटने में अन्तर : पूर्ण प्रतियोगिता में MC वक्र MR वक्र को केवल नीचे से ही काट सकता है परन्त एकाधिकार में यह ऊपर, नीचे या समानान्तर अवस्था में भी काट सकता है। दूसरे शब्दों में, एकाधिकारी फर्म सभी प्रकार के MC वक्रों के साथ सन्तुलनावस्था को प्राप्त हो सकती है । चाहे वह ऊपर उठ रहा हो, नीचे गिर रहा हो अथवा स्थिर रह रहा हो जबकि एक स्पर्धी फर्म तो केवल ऊपर उठते हए MC वक्र के साथ ही सन्तुलनावस्था को प्राप्त हो सकती है।

(7) लाभ की स्थिति में अन्तर : अल्पकाल में दोनों में ही लाभ, सामान्य लाभ तथा हानि, तीनों ही स्थितियाँ सम्भव हैं, यद्यपि एकाधिकार में सामान्य लाभ या हानि की प्रवत्ति बहत कम रहती है किन्तु दीर्घकाल में एक स्पर्धात्मक फर्म को केवल सामान्य लाभ ही प्राप्त होता है। जबकि एकाधिकारी फर्म को निश्चय ही लाभ प्राप्त होता है।

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क्या एकाधिकारी मूल्य सदैव प्रतिस्पर्धात्मक मूल्य से अधिक होता है ?

(Is monopoly price always higher than competitive price ?)

लोगों की सामान्य धारणा यह होती है कि एकाधिकारी मूल्य प्रतिस्पर्धात्मक मूल्य से अधिक होता है। सैद्धान्तिक दृष्टिकोण से भी यह सच ही है। इसका कारण यह है कि पूर्ण प्रतियोगिताके अन्तर्गत मूल्य निर्धारण उद्योग की कुल माँग और कुल पूर्ति के साम्य के द्वारा होता है तथा किसी भी फर्म का वस्तु की पूर्ति पर पूर्ण अधिकार नहीं होता है। प्रत्येक प्रतिस्पर्धी फर्म उद्योग द्वारा निर्धारित मूल्य को दिया हुआ मानकर अपनी उत्पादन-मात्रा इस प्रकार समायोजित करती है कि उसकी सीमान्त लागत इस मूल्य के बराबर हो जाय। इस प्रकार पूर्ण प्रतियोगिता में मूल्य  की प्रवृत्ति सीमान्त लागत के बराबर रहने (अर्थात् AR or Price = MC) की होती है।

इसके विपरीत एकाधिकारी का अपनी वस्तु की पूर्ति पर पूर्ण अधिकार होता है, अतः वह अपने

लाभों को अधिकतम करने के लिये ऐसा मूल्य निर्धारित करता है जो प्रायः सीमान्त लागत से _अधिक होता है क्योंकि AR > MR तथा MR = MC, अतः AR > MC। इसके अतिरिक्त दीर्घकाल में पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत AR = AC के होता है लेकिन एकाधिकार के अन्तर्गत AR>AC । अतः स्पष्ट है कि एकाधिकारी मूल्य स्पर्धात्मक मूल्य से ऊँचा होता है।

एकाधिकारी मल्य वस्त की लागत से कितना अधिक होगा, यह बात वस्त की माँग की लोच तथा औसत लागत के व्यवहार पर निर्भर करती है किन्तु ध्यान रहे कि यह मूल्य प्रतिस्पर्धात्मक मूल्य से ऊँचा नहीं हो सकता क्योंकि (1) सम्भावित प्रतियोगिता का भय, (2) विदेशी प्रतियोगिता का भय, (3) स्थानापन्नों के आविष्कार का भय, (4) माँग में कमी का भय, ___(5) सरकारी हस्तक्षेप का भय और (6) उपभोक्ताओं द्वारा बहिष्कार का भय ऐसे तत्व हैं जो कि एकाधिकारी को मनमाना मूल्य निर्धारित करने से रोकते हैं।

यह आवश्यक नहीं है कि एकाधिकारी मूल्य सदैव ही प्रतिस्पर्धात्मक मूल्य से अधिक ही हो। निम्न दशाओं में यह इससे कम भी हो सकता है :

(1) यदि वस्तु की माँग लोचदार हो और एकाधिकारी उत्पत्ति वृद्धि नियम (या लागत हास नियम) के अन्तर्गत उत्पादन कर रहा हो अर्थात् उसकी AC और MC रेखायें तेजी से नीचे की ओर गिर रही हों तो वह नीचा मूल्य रखकर अधिक मात्रा में वस्तुयें बेचकर अपने कुल लाभों को अधिकतम करना चाहेगा।

(2) यदि किसी क्षेत्र में एकाधिकारी बड़े पैमाने के उत्पादन की बचतों के प्राप्त करने के परिणामस्वरूप एकाधिकार की स्थिति प्राप्त करता है तो उसके उत्पादन व्यय (औसत लागत) और विक्रय व्यय के कम होने के कारण वह स्पर्धात्मक दशाओं की अपेक्षा नीचा मूल्य निर्धारित करेगा। दशाओं के बावजूद कुल मिलाकर एकाधिकारी मूल्य की प्रवृत्ति स्पर्धात्मक मूल्य से अधिक रहने की होती है

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एकाधिकारी लाभ और माँग की लोच का सम्बन्ध

(Relationship between a Monopolist’s Profit and Elasticity of Demand)

चूँकि एकाधिकारी अपने क्षेत्र में अकेला विक्रेता होता है, अतः उसका वस्तु की पूर्ति पर पूर्ण नियन्त्रण होता है। किन्तु ध्यान रहे कि उसका वस्तु की पूर्ति और उसके मूल्य दोनों पर एक साथ नियन्त्रण नहीं हो सकता। वह इनमें से किसी एक को ही निर्धारित कर सकता है। यदि वह वस्तु का मूल्य निर्धारित करता है तो इस मूल्य पर ग्राहकों की माँग के अनुसार ही वस्तु की पूर्ति करनी होगी। यदि वह पूर्ति की मात्रा निर्धारित करता है तो इस पूर्ति की मात्रा को बेचने के लिये माँग के अनुसार ही मूल्य निर्धारित करना होगा। अतः स्पष्ट है कि वह इन दोनों में से किसी एक को ही निर्धारित कर सकता है, दोनों को नहीं। प्रायः वह मूल्य को निश्चित करता है और उसके अनुसार वस्तु की पूर्ति को समायोजित करता है। यही उसके लिये अधिक लाभदायक होता है। उसका उद्देश्य अपने ‘शुद्ध एकाधिकारी लाभ’ को अधिकतम करना होता है। शुद्ध एकाधिकारी लाभ का आशय प्रति इकाई लाभ से नहीं होता वरन इसका आशय कुल लाभ से होता है। अपने इस उद्देश्य को पूरा करने के लिये उसे वस्तु की माँग की लोच पर ध्यान देना चाहिये।

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साधारणतया वस्तु की माँग जितनी अधिक बेलोचदार होती है, एकाधिकारी की स्थिति उतनी ही अधिक सुदृढ़ होती है और वह उतना ही अधिक एकाधिकारी लाभ प्राप्त करता है। इसके विपरीत वस्तु की मॉग जितनी अधिक लोचदार होती है, उसकी स्थिति उतनी ही अधिक कमजोर होती है तथा उसे उतना ही कम एकाधिकारी लाभ प्राप्त होता है।

अतः अपने लाभों को अधिकतम करने के लिये वह बेलोचदार माँग की दशा में वस्तु का ऊँचा मूल्य निर्धारित करता है क्योंकि वह जानता है कि मूल्य के अधिक होने का वस्तु की माँग पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता है। किन्तु ध्यान रहे कि इस स्थिति में भी मूल्य वृद्धि की एक सीमा होती है जिससे अधिक मूल्य बढ़ाये जाने पर उपभोक्ता वस्तु का उपभोग बहुत कम कर सकता है अथवा पर्णतया त्याग सकता है। ऐसी स्थिति में बाजार में उसकी वस्त को माँग बहुत घट जाती है। इस स्थिति में उसका प्रति इकाई लाभ भले ही अधिक रहे किन्त उसका कुल लाभ अवश्य ही कम हो जायेगा। अतः बेलोचदार माँग वाली वस्तुओं की दशा में भी एक सीमा के पश्चात मूल्य वृद्धि लाभप्रद नहीं रहती।

वस्तु की माँग अत्यधिक लोचदार होने की दशा में एक एकाधिकारी को अपने कुल लाभ अधिकतम करने के लिये वस्तु का मूल्य अपेक्षाकत कुछ नीचा ही रखना चाहिये क्योंकि ऐसी मूल्य नीति अपनाने पर उसके विक्रय की मात्रा में बहुत तेजी से वृद्धि होती है जिसके फलस्वरूप उसका प्रति इकाई लाभ कम रहते हुये भी कुल लाभ बढ़ जाता है।

वस्तु की मांग कम लोचदार होने की दशा में वह वस्तु का मूल्य अपनी इच्छानुसार बढ़ा सकता है। इसका उसके विक्रय की राशि पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता क्योंकि इस स्थिति में उपभोक्ताओं द्वारा उस वस्तु पर किया जाने वाला व्यय सदा स्थिर रहता है। इस दशा में एकाधिकारी मूल्य निर्धारण प्रमुखतया उसकी फर्म में क्रियाशील उत्पत्ति के नियम के आधार पर होता है। लागत वृद्धि नियम के लागू होने पर वह मूल्य कुछ ऊँचा रखेगा तथा लागत हास नियम के लागू होने पर वह अपेक्षाकृत नीचा मूल्य रखेगा।

ध्यान रहे कि अल्पकाल की तुलना दीर्घकाल में वस्तु की माँग की मूल्य-लोच बहत की है। एक चतुर एकाधिकारी को अपनी मूल्य नीति निर्धारित करते समय इस तथ्य को ध्यान में रखना चाहिये। यदि एकाधिकारी लगातार मूल्य वृद्धि की नीति अपनाता जाता है। तो उपभोक्ता धीर-धीरे उस वस्तु का उपभोग कम कर देते हैं, पूर्णतया त्याग देते हैं अथवा। उसके किसी स्थानापन्न का योग करने लगते हैं और कालान्तर में उनमें एकाधिकारी की उस वस्तु के उपभोग की आदत समाप्त हो जाती है तथा उसका विक्रय सदा-सदा के लिये कम हो जाता है। दूसरी ओर लम्बे काल तक मूल्यों को नीचे स्तर पर रखने से वस्तु के उपभोग में स्थायी वद्धि होती है क्योंकि नीचे मूल्य पर पूराने उपभोक्ता उस वस्तु का पहले से अधिक उपभोग करने लगते हैं तथा धीरे-धीरे कुछ नये लोग भी उस वस्तु के उपभोग के आदी हो जाते हैं और इस प्रकार वस्तु की माँग स्थायी रूप से बढ़ जाती है।

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एकाधिकारी मूल्य नीति को प्रभावित करने वाले दीर्घकालीन तत्व

(Long-term factors affecting the price policy of a monopolist)

एकाधिकारी का उद्देश्य अपने शब्द्ध एकाधिकारी लाभ’ को अधिकतम करना होता है। अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये उसे अपनी मूल्य नीति निर्धारित करते समय निम्न तत्वों पर विशेष ध्यान देना चाहिये :

(1) वस्तु की माँग की लोच (Elasticity of demand of the commodity) : इसकी व्याख्या पूर्व की जा चुकी है।

(2) कार्यशील उत्पत्ति नियम (Applicable law of returns) : दीर्घकाल में एकाधिकारी उद्योग के विस्तार व संकुचन की पूर्ण सम्भावनायें रहती हैं, अतः इस काल में वस्तु की औसत लागत में अन्तर आ सकता है तथा यह उस. उद्योग में क्रियाशील उत्पत्ति के नियम से प्रभावित होती है। अतः उसे मूल्य निर्धारित करते समय उद्योग में क्रियाशील उत्पत्ति नियम पर भी ध्यान देना चाहिये। यदि उद्योग में उत्पत्ति हास नियम (अथवा लागत वृद्धि नियम) क्रियाशील है तो उसे वस्तु की पूर्ति को नियन्त्रित करके ऊँचा मूल्य निर्धारित करना चाहिये क्योंकि उत्पादन की मात्रा कम रखने पर उसकी प्रति इकाई उत्पादन लागत कम आयेगी। इसके विपरीत यदि वस्तु का उत्पादन उत्पत्ति वृद्धि नियम (अथवा लागत हास नियम) के अन्तर्गत हो रहा है तो उसे नीचा मूल्य रखकर अधिक से अधिक वस्तुओं के विक्रय का प्रयत्न करना चाहिये क्योंकि वस्तु के उत्पादन की मात्रा के बढ़ाने पर प्रत्येक अगली इकाई की लागत घटती जाती है और इस प्रकार उसकी औसत लागत भी कम होती जाती है। इस स्थिति में उसका प्रति इकाई लाभ भले ही कुछ कम हो जाये किन्तु कुल लाभ बढ़ जायेगा। उत्पत्ति समता नियम (अथवा लागत स्थिरता नियम) लागू होने की दशा में उसका निर्णय प्रमुखतया माँग की लोच से प्रभावित होगा।

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(3) नयी फर्मों से सम्भावी प्रतियोगिता (Possible Competition from new firms) : यदि एकाधिकारी को अपने उद्योग में नयी फर्मों के प्रवेश की सम्भावनाएँ नहीं हैं तो प्रवेश कठिन न हो तो ऊँचे मूल्य निर्धारण से उस उद्योग में नयी फर्मों के प्रवेश, अतः प्रतियोगिता की सम्भावनायें अधिक हो जाती हैं। इस स्थिति में उसे नीचा मूल्य रखकर भावी प्रतियोगियों को उद्योग में प्रवेश के लिये हतोत्साहित करना चाहिये।

(4) स्थानापन्न वस्तुओं की उपलब्धता और उनके मूल्य (Availability and price of substitutes) : एक एकाधिकारी को अपनी वस्तु के विद्यमान तथा सम्भावी स्थानापन्न वस्तुओं के मूल्यों, उनकी पूर्ति, उन पर नियन्त्रण की सम्भावना आदि बातों पर भी ध्यान देना याहिये। निकट स्थानापन्नों की पर्याप्त मात्रा तथा कम मूल्य पर उपलब्धता की दशा में उसे अपनी वस्तु का मूल्य नीचा ही रखना चाहिये जिससे उपभोक्ता उसकी वस्तु के स्थानापन्नों की ओर आकर्षित न हों। इसके विपरीत स्थिति में वह ऊँचा मूल्य निर्धारण की नीति अपना सकता है।।

(5) जनमत (Public Opinion) : एकाधिकारी को जनमत की अवहेलना नहीं करनी चाहिये। अतः मूल्यों में वृद्धि करते समय उसे जनता के विरोध, उपभोक्ताओं द्वारा वस्तु के बहिष्कार, सरकारी हस्तक्षेप आदि की सम्भावनाओं पर उचित ध्यान देना चाहिये। एक प्रजातान्त्रिक व समाजवादी देश में इस तत्व का महत्व और भी अधिक बढ़ जाता है।

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सैद्धान्तिक प्रश्न

(Theoretical Questions)

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

(Long Answer Questions)

1 एकाधिकार क्या है ? एकाधिकार को उत्पन्न करने वाले कारकों को बतलाइये। एकाधिकारी शक्ति को सीमित करने वाले तत्वों का विवेचन करो।

What is ‘Monopoly’ ? State the factors which give rise to monopoly. Describe the factors limiting the monopoly power.

2. एकाधिकार अमिश्रित वरदान नहीं है।” स्पष्ट कीजिये।

“Monopoly is not an unmixed blessing.” Explain.

3. एकाधिकार की परिभाषा दीजिये तथा समझाइये कि एकाधिकारी दशाओं के अन्तर्गत मूल्य कैसे निर्धारित होता है।

Define Monopoly and explain how price is determined under monopoly conditions.

4. एक एकाधिकारी फर्म किस प्रकार अपना उत्पादन व मूल्य निर्धारित करती है ?

How does a monopolist firm determine its price and output ?

5. आप एकाधिकार और अल्पाधिकार से क्या समझते हैं ? एकाधिकार में मूल्य निर्धारण कैसे होता है ?

What do you mean by Monopoly and Oligopoly ? How is price determined in monopoly?

6. ‘एकाधिकार क्या है ? अल्पकाल और दीर्घकाल में एक एकाधिकारी कीमत और उत्पादन का निर्धारण किस प्रकार करता है ?

What is ‘Monopoly’ ? How is price and output determined by a monopolist in short-term and long-term ?

7. एकाधिकार क्या है ? एकाधिकार के अन्तर्गत कीमत कैसे निर्धारित होती है ? क्या एकाधिकारी कीमत हमेशा प्रतियोगी कीमत से ऊँची होती है ?

What is ‘Monopoly’ ? How is price determined under monopoly ? Is monopoly price always higher than competitive price ?

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8. ‘एकाधिकार तथा ‘पूर्ण स्पर्धा’ में भेद बताइये। क्या एकाधिकारिक कीमत प्रतिस्पर्धात्मक कीमत से सदैव ऊँची होती है ?

Distinguish between ‘Monopoly’ and ‘Perfect Competition.’ Is monopoly price always higher than competitive price?

9. माधिकारी के लाभ आर माग की लोच के सम्बन्ध को समझाइये।

Fix amine the relation between a monopolist’s profit and elasticity of demand.

10. एकाधिकार किसे कहते हैं ? उन दीर्घकालीन तत्वों की विवेचना कीजिये जो एक एकाधिकारी की मूल्य नीतियों को प्रभावित करते हैं।

What is ‘Monopoly’ ? Discuss the long-run considerations which affect the price policies of a monopolist.

11. एकाधिकारी एक साथ कीमत तथा पूर्ति की मात्रा दोनों को निश्चित नहीं कर सकता।” इस कथन के संदर्भ में एकाधिकारी मूल्य निर्धारण की पूर्ण व्याख्या कीजिए।

“A monopolist can not fix both price and output simultaneously.” In the light of this remark discuss the price determination under monopoly.

12. एकाधिकारी साम्य को संक्षेप में समझाइये।

Explain in brief Monopoly Equilibrium.

13. एकाधिकार और अल्पाधिकार से आप क्या समझते हैं ? एकाधिकार में मूल्य निर्धारण कैसे होता है ?

What do you mean by monopoly and oligopoly ? How price is determined in monopoly ?

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(II) लघु उत्तरीय प्रश्न

(Short Answer Questions)

उत्तर 100 से 120 शब्दों के बीच होना चाहिये।

The answer should be between 100 to 120 words.

1 एकाधिकार को उत्पन्न करने वाले कारकों को बतलाइये।

State the factors which give rise to monopoly.

2. क्या एकाधिकारी कीमत हमेशा प्रतियोगी कीमत से ऊँची होती है?

Is monopoly price always higher than competitive price?

3. एकाधिकारी के लाभ और माँग की लोच के सम्बन्ध को समझाइये।

Examine the relationship between a monopolist’s profit and elasticity of demand.

4. एक अधिकारी की मूल्य नीतियों को प्रभावित करने वाले दीर्धकालीन तत्वों की विवेचना करों करो।

Discuss the long-run considerations which affect the price policies of a monopolist.

5. एकाधिकारी शक्ति को सीमित करने वाले तत्वों का विवेचन करो।

Describe the factors limiting the monopoly power.

6. क्या एक एकाधिकारी मूल्य और पूर्ति की मात्रा दोनों को एक साथ नियंत्रित कर सकता है?

Can a monopolist control both price and supply simultaneously?

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III. अति लघु उत्तरीय प्रश्न

(Very Short Answer Questions)

(अ) एक शब्द या एक पंक्ति में उत्तर दीजिये।

Answer in one word or in one line.

1 विशुद्ध एकाधिकार की परिभाषा दीजिये।

Define the term pure monopoly.

2. क्या एक एकाधिकारी दीर्घकाल में लाभ, सामान्य लाभ अथवा हानि अर्जित करता है ?

Does a monopolist earn profit, normal profit or loss in the long period.

3. एकाधिकार की दशा में AR चक्र और MR वक्र खींचिये।

Draw AR curve and MR curve in a condition of monopoly.

4. एक एकाधिकारी को सामान्य लाभ के अतिरिक्त प्राप्त होने वाले लाभ को क्या कहते हैं ?

What we call the profit received by a monopolist in excess of normal price.

5. एकाधिकारी प्रतियोगिता में फर्म के संतुलन की शर्त बतलाइये।

State the conditions of a firm’s equilibrium under monopoly competition.

 

 

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chetansati

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