BCom 1st Year Business Economics Price Output Decision Under Oligopoly Study material Notes in Hindi

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BCom 1st Year Business Economics Price Output Decision Under Oligopoly Study material Notes in Hindi

Table of Contents

BCom 1st Year Business Economics Price Output Decision Under Oligopoly Study material Notes in Hindi: Meaning of Oligopoly Characteristics of Oligopoly Comparison of Monopoly and Oligopoly Price and Output Decisions Under Oligopoly Caused of Price Leadership Various Forms of price Leadership Conditions Necessary For Effective Price Leadership A Firm Behavior under Monopolistic  Conditions :

Price Output Decision Under
Price Output Decision Under

BCom 1st year Insolvency Accounts Study Material notes In Hindi

अल्पाधिकार के अन्तर्गत मूल्य और उत्पादन के निर्णय

(Price and Output Decisions Under Oligopoly)

अल्पाधिकार का आशय

(Meaning of Oligopoly)

यह अपूर्ण प्रतियोगिता का वह रूप है जिसमें बाजार में परस्पर निर्भर थोडे से विक्रेता होते हैं और प्रत्येक कुल पूर्ति के एक बड़े भाग पर नियन्त्रण रखता है तथा वह बाजार में वस्तु के मूल्य को प्रभावित कर सकता है। मेयर्स के शब्दों में, “अल्पाधिकार बाजार की उस अवस्था को कहते हैं जहाँ विक्रेताओं की संख्या इतनी कम होती है कि प्रत्येक विक्रेता की पूर्ति का बाजार की कीमत पर प्रभाव पड़ता है तथा प्रत्येक विक्रेता इस बात को जानता है।” प्रो० लेफ्टविच के अनुसार, “अल्पाधिकार बाजार की वह दशा है जिसमें थोड़े विक्रेता पाये जाते हैं और प्रत्येक विक्रेता की क्रियाएँ दूसरों के लिये महत्वपूर्ण होती हैं।” स्टिगलर के शब्दों में, “अल्पाधिकार वह स्थिति है जिसमें एक फर्म अपनी बाजार नीति अंशतः कुछ निकट प्रतिद्वन्द्वियों के प्रत्याशित व्यवहार पर आधारित करती हैं।” इसमें विभिन्न विक्रेताओं की वस्तुयें समरूप हो सकती हैं और भेदित भी। समरूप वस्तु की स्थिति में इसे विशुद्ध अल्पाधिकार तथा भेदित वस्तु की स्थिति में इसे भेदित अल्पाधिकार कहते हैं। विशुद्ध अल्पाधिकार की स्थिति में पारस्परिक निर्भरता का अंश अधिक होता है तथा भेदित अल्पाधिकार की स्थिति में कुछ कम। बाजार में प्रायः ऐसी ही प्रतिस्पर्धा देखने को मिलती है। इस्पात, सीमेंट, चीनी, मोटर आदि उद्योग अल्पाधिकार के उदाहरण हैं।

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अल्पाधिकार की विशेषतायें

(Characteristics of Oligopoly)

(1) थोड़े विक्रेता (Few Sellers) : इसमें विक्रेता थोड़ी संख्या में होते हैं किन्तु वे दो से अधिक तथा पूर्ण प्रतियोगिता से कम होते हैं। इसीलिये ही किसी एक विक्रेता के उत्पादन में वृद्धि या कमी का बाजार मूल्य पर भारी प्रभाव पड़ता है।

(2) समरूप अथवा भेदित वस्तुएँ (Homogeneous or Differentiated Products): इसमें विभिन्न उत्पादक समरूप वस्तु का उत्पादन कर सकते हैं अथवा भेदित वस्तु का। समरूप वस्तु की स्थिति में इसे विशुद्ध अल्पाधिकार तथा भेदित वस्तु की दशा में इसे भेदित अल्पाधिकार कहते हैं।

(3) पारस्परिक निर्भरता (Inter-dependence) : विक्रेताओं की संख्या कम होने तथा उनकी वस्तुयें एक दूसरे के समान अथवा मिलती-जुलती होने के कारण वे एक दूसरे की अच्छी स्थानापन्न होती हैं जिसके कारण विभिन्न विक्रेताओं में पारस्परिक निर्भरता पायी जाती है। उनकी पारस्परिक निर्भरता की मात्रा अल्पाधिकार की प्रकृति के अनुसार अलग-अलग होती है। विशुद्ध अल्पाधिकार की दशा में पारस्परिक निर्भरता की मात्रा अधिक होती है किन्तु भेदित अल्पाधिकार की दशा में यह कुछ कम होती है। इसमें उनकी वस्तु की माँग की आड़ी लोच ऊँची होती है। इसीलिये वे एक दूसरे की मूल्य तथा उत्पादन नीति पर भली-भाँति विचार करते हैं।

(4) माँग वक्र की अनिश्चितता (Indeterminate of Demand Curve) : इसमें किसी फर्म के माँग-वक्र का स्वरूप स्पष्ट नहीं होता क्योंकि इसमें कोई फर्म अपनी कीमत-उत्पादन नीति के प्रति प्रतियोगियों की प्रतिक्रियाओं के बारे में भविष्यवाणी नहीं कर सकती। किन्तु सामान्यतया इसमें फर्म का माँग-वक्र पूर्ण लोचदार से कम अर्थात् गिरता हुआ होता है।

(5) मूल्य स्थिरता (Price Rigidity) : मूल्य परिवर्तन के प्रति प्रतिद्वन्द्वी फर्मों की प्रतिक्रिया के सम्बन्ध में अनिश्चितता के कारण इसमें मूल्यों में स्थिरता रहती है। मूल्य वृद्धि का दूसरी फर्मों द्वारा अनुसरण न करने तथा मूल्य में कमी करने पर मूल्य युद्ध के भय से कोई भी फर्म मूल्य परिवर्तन पसन्द नहीं करती

(6) गैर-मूल्य प्रतियोगिता (Non-price Competition) : इसके अन्तर्गत प्रत्येक फर्म मूल्य प्रतियोगिता से बचती है। अपना बाजार भाग बढ़ाने के लिये फर्मे उधार की सुविधा, उपहार, मरम्मत व रखरखाव की लम्बी गारंटी आदि प्रलोभनों से ग्राहकों को अपनी ओर आकर्षित करती हैं।

(7) विज्ञापन एवं विक्रय सम्वर्द्धन क्रियायें (Advertisement and Sales Promotion Activities) : इसमें ऐसी क्रियाओं पर अधिक धन व्यय किया जाता है। समरूप वस्तु की तुलना भेदित वस्तु की दशा में यह व्यय अधिक किया जाता है।

(8) फर्मों के प्रवेश एवं बहिर्गमन में कठिनाई (Problem in the Entry and Exit of Firms) : इसमें भारी विज्ञापन व विक्रय सम्वर्द्धन व्ययों तथा वित्तीय, तकनीकी, कच्चे माल आदि सम्बन्धी बाधाओं के कारण नयी फर्मों का प्रवेश तथा पुरानी फर्मों का बहिर्गमन कठिन होता है।

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एकाधिकार व अल्पाधिकार की तुलना

(Comparison of Monopoly and Oligopoly)

(1) एकाधिकार में वस्तु के विक्रेता की संख्या एक होती है जबकि अल्पाधिकार में यह संख्या दो से अधिक या कुछ होती है।

(2) एकाधिकार में स्थानापन्न वस्तुयें नहीं होती जबकि अल्पाधिकार में निकट स्थानापन्न वस्तुयें पाई जाती हैं।

(3) एकाधिकार में एक वस्तु होती है जबकि अल्पाधिकार में समरूप या भिन्नित वस्तुयें हो सकती हैं।

(4) एकाधिकार में मूल्य ऊँचा रखा जाता है एवं विक्रेताओं में कोई समझौता करने का प्रश्न नहीं होता जबकि अल्पाधिकार में यही उचित रहता है कि उत्पादक मूल्य व उत्पादन की मात्रा आपसी समझौते द्वारा पहले से ही निर्धारित कर लें।

(5) एकाधिकार बाजार का एक काल्पनिक स्वरूप होता है जबकि अल्पाधिकार व्यवहार में काफी देखने को मिलता है।

(6) एकाधिकार में दीर्घकाल में भी अधिक लाभ कमाया जा सकता है जबकि अल्पाधिकार में ऐसा सम्भव नहीं है। हाँ, नई फर्मों के प्रवेश में कठिनाई के कारण यह सम्भव हो सकता है।

(7) एकाधिकार में मॉग वक्र (Demand Curve) का पता लगाया जा सकता है लेकिन अल्पाधिकार में इसका पता लगाना कठिन होता है।

(8) अल्पाधिकार में कीमत दृढ़ता पायी जाती है किन्तु एकाधिकार में ऐसा नहीं होता है।

(9) एकाधिकार के अन्तर्गत विज्ञापन और विक्रय सम्वर्धन का व्यय अल्पाधिकार की तुलना में काफी कम होता है।

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अल्पाधिकार के अन्तर्गत मूल्य तथा उत्पादन निर्णय

(Price and Output Decisions Under Oligopoly)

अल्पाधिकार के अन्तर्गत मूल्य तथा उत्पादन सम्बन्धी निर्णय अन्य बाजार स्थितियों से भिन्न होते हैं। इसमें उद्योग की फर्मे परस्पर सम्बन्धित और एक दूसरे से जानकार होती हैं। उनमें आपस में सामान्यतया कोई प्रकट अथवा गुप्त समझौता रहता है। इसमें प्रत्येक फर्म अपनी उत्पादन व मूल्य नीतियाँ निर्धारित करते समय उद्योग की अन्य फर्मों की प्रतिक्रिया पर गंभीरतापूर्वक विचार करती है। किसी एक अल्पाधिकारी द्वारा अपनी वस्तु का मूल्य निर्धारण अन्य अल्पाधिकारियों की प्रतिक्रिया पर निर्भर करता है और इस प्रतिक्रिया का सही अनुमान लगाना कठिन है। इसीलिये इसके अन्तर्गत किसी फर्म के साम्य की स्थिति और साम्य मूल्य का निर्धारण अत्यन्त जटिल समस्या है। इसमें एक ओर तो सभी फर्मे अपने व्यक्तिगत लाभ को अधिकतम करना चाहती हैं और इस कारण इनमें परस्पर अविश्वास तथा विरोध की भावना रहती है लेकिन दूसरी ओर सभी फर्मे आपसी मूल्य-युद्ध के परिणामों को समझती हैं, अतः उनमें परस्पर सहयोग तथा समन्वय की भावना रहती है। इसीलिये इसके अन्तर्गत मुल्य निर्धारण के उतने ही तरीके हो सकते हैं जितने प्रकार का व्यवहार ये फर्मे कर सकती हैं। सामान्यतया इसके अन्तर्गत मूल्य निर्धारण की निम्न दशायें पायी जाती हैं :

(1) स्वतन्त्र मूल्य निर्धारण अथवा गुटबंदी रहित मूल्य निर्धारण (Independent Pricing or Pricing Without Collusion) : इसका आशय उद्योग की प्रत्येक फर्म द्वारा अपनी स्वतन्त्र मूल्य और उत्पादन नीति के अपनाने से है। इस स्थिति में व्यापार जगत में बहुत ही अनिश्चितता और असुरक्षा का वातावरण रहता है। इसमें वास्तविक कीमत । एकाधिकारात्मक कामत आर प्रतियोगात्मक कामत की दो चरम सीमाओं के बीच में ही रहती है किन्तु वास्तविक कीमत क्या होगी, यह बाजार में प्रचलित परिस्थितियों और वस्तु की प्रकृति (समरूप या भिन्नित) पर निर्भर करेगा। यदि समस्त अल्पाधिकारी फर्मे पूर्णतया समरूप वस्तु का उत्पादन करती हैं तो स्वतन्त्र-मूल्य निर्णय का परिणाम मूल्य में एकरूपता होगा। हाँ, इस स्थिति में कोई फर्म अपने उत्पाद का मूल्य घटाकर दूसरे के बाजार को हड़पने का प्रयत्न कर सकती है। अतः इस स्थिति में उनमें मूल्य-युद्ध के कारण उत्पादन एवं कीमत में अनिश्चितता बनी रहती है। इसमें मूल्य किसी अनिश्चित स्तर पर स्थिर हो सकता है तथा धीरे-धीरे संतोषजनक कीमत-स्तर पर पहुँचने के पश्चात् फर्मों में मूल्य-परिवर्तन के प्रति अरुचि हो जाती है। अपने बाजार भाग को बढ़ाने के लिये इसमें गैर-मूल्य प्रतियोगिता का सहारा लिया जाता है। यदि अल्पाधिकारी फर्मों की वस्तुओं में भिन्नता है तो ऐसी स्थिति में प्रत्येक फर्म एक – एकाधिकारी की स्थिति में होगी किन्तु इस स्थिति में भी एक फर्म को दूसरी फर्मों की उत्पादन और मूल्य नीतियों पर समुचित ध्यान देना होगा।

स्वतन्त्र-मूल्य निर्धारण में उद्योग की समस्त फर्मों में परस्पर विरोध, अनिश्चितता व असुरक्षा बनी रहने के कारण ही अल्पाधिकारी फर्मों में गुटबंदी एवं मूल्य नेतृत्व की ओर अग्रसर होने की प्रवृत्ति पायी जाती है।

(2) गुटबन्दी के अन्तर्गत मूल्य निर्धारण (Pricing Under Collusion) : गुटबंदी का आशय विभिन्न विक्रेताओं के बीच मूल्य जोर उत्पादन के सम्बन्ध में किसी प्रकार के प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष समझौते से होता है। यह दो प्रकार की होती है : (i) पूर्ण गुटबंदी तथा (ii) अपूर्ण गुटबंदी।

(i) पूर्ण गुटबंदी (Perfect Collusion) : इसके अन्तर्गत मूल्य और उत्पादन की मात्रा के निर्धारण के सम्बन्ध में व्यक्तिगत फर्मों की स्वतन्त्रता समाप्त हो जाती है। इसमें एक केन्द्रीय सस्था (जिसे कारटेल कहते हैं) की स्थापना की जाती है जिसे व्यक्तिगत फमों के सम्बन्ध म प्रबन्धकीय निर्णयन और बाजार क्रियाओं के लिये पूर्ण अधिकार दे दिया जाता है। इसका उद्देश्य व्यक्तिगत फर्मों की लाभ स्थिति में सुधार लाना होता है। यह कारटेल (Cartel) अपने गुट की प्रत्येक फर्म के लिये उत्पत्ति की मात्रा, मूल्य और विक्रय-क्षेत्र निर्धारित करता है और धीरे-धीरे यह संस्था एक एकाधिकारी का रूप धारण कर लेती है। अतः एक एकाधिकारी की तरह यह संस्था अपने गुट के सदस्यों को अधिकतम लाभ प्रदान करने के लिये वह मात्रा तथा मूल्य निर्धारित करती है जिस पर सम्पूर्ण उद्योग की सीमान्त लागत (TMC) उद्योग के सीमान्त आगम (TMR) के बराबर हो। इसे चित्र 6.1 में दर्शाया गया है। इसमें सम्पूर्ण उद्योग का माँग TMR वक्र TAR है तथा TMR कुल सीमान्त उत्पादन-मात्रा आगम है। TMC, TMR को E बिन्दु पर काट रही है। अतः सम्पूर्ण उद्योग द्वारा OP मूल्य पर OQ मात्रा में उत्पादन बेचा जायेगा। इस मूल्य पर ही उद्योग का सम्पूर्ण लाभ अधिकतम होगा। कारटेल के अनेक रूप हो सकते हैं, जैसे : लाभ-विभाजन कारटेल (Profit Sharing Cartel), बाजार-विभाजन कारटेल (Market Sharing Cartel) आदि। लाभ-विभाजन कारटेल पूरे उद्योग के लिये उत्पादन की मात्रा और मूल्य निर्धारित करके अपने गुट की प्रत्येक इकाई के लिये उत्पादन की मात्रा निर्धारित कर देता है। कारटेल का उद्देश्य न्यूनतम लागत पर उत्पादन प्राप्त करना होता है। अतः वह प्रत्येक फर्म के उत्पादन का कोटा इस प्रकार निर्धारित करता है कि प्रत्येक की अपने-अपने लिये निर्धारित कोटा के निर्माण की सीमान्त लागत समान हो। इसमें विक्रय कार्य कारटेल सँभालती है और उद्योग के कल लाभों को इसकी विभिन्न इकाइयों में किसी पर्व निर्धारित आधार पर बाँट दिया जाता है।इसके विपरीत बाजार विभाजन कारटेल के अन्तर्गत गुट की सदस्य फर्मों के बीच बाजार का स्पष्ट विभाजन कर दिया जाता है तथा प्रत्येक फर्म स्वीकृत योजनानुसार अपनी वस्तु बेचती है। इसमें । सभी उत्पादकों की एकरूप वस्तयें सम्पूर्ण बाजार में एक ही मल्य पर बेची जाती हैं। इसलिये इसमें विभिन्न फमें अपनी लागत स्थिति की भिन्नता के आधार पर असमान लाभ कमाती हैं। पूर्ण गुटबन्दी की स्थिति अस्थायी एवं काल्पनिक होती है क्योंकि इसमें सदस्य फर्मों के बीच । उत्पादन अभ्यंश (कोटा) व लाभ के विभाजन पर मतभेद हो जाते हैं. अतः कुछ फमें शीघ्र ही । इस गठबन्धन से अलग हो जाती हैं। इसी प्रकार उद्योग में नई फर्मों में प्रवेश सभा पूर्ण । गुटबन्दी की स्थिति समाप्त हो जाती है। इसके अतिरिक्त गटबन्दी को समाप्त करने क ालय सरकार हस्तक्षेप भी कर सकती है।

(ii) अपूर्ण गुटबन्दी (Imperfect Collusion) : इसमें उद्योग की समस्त फर्मों के बीच वस्तु क मूल्य तथा उत्पादन-मात्रा के सम्बन्ध में केवल ‘भले आदमियों का समझौता’ ही होता। है। यद्यपि इसमें प्रत्येक फर्म अपने मुल्य तथा उत्पादन में परिवर्तन करने का अधिकार रखती है किन्तु व्यवहार में उनमें परस्पर सहमति से कार्य करने की प्रवृत्ति पायी जाती है। वास्तविक जीवन में गुटबन्दी का यह स्वरूप ही अधिक देखा जाता है। अपूर्ण गुटबन्दी का एक बहु-प्रचलित रूप मूल्य नेतृत्व है।

मूल्य नेतृत्व (Price Leadership) : मूल्य-नेतृत्व अल्पाधिकारी फर्मों की अपूर्ण गुटबन्दी होती है। इसमें उद्योग की समस्त फर्मे किसी एक बड़ी व शक्तिशाली फर्म को अपना मूल्य-नेता मान लेती हैं और उसकी मूल्य-नीति का अनुसरण करती हैं। नेता फर्म द्वारा मूल्य निर्णय सम्बद्ध बाजार दशाओं, सरकारी करारोपण और उत्पादन की लागत में परिवर्तनों को ध्यान देते हुये किये जाते हैं। अनुसरणकर्ता फर्मे नेता द्वारा निर्धारित मूल्य पर ही अपना माल बेच सकती हैं अथवा अपने-अपने उत्पाद की किस्म भिन्नता को ध्यान में रखते हुये नेता द्वारा निर्धारित मूल्य से एक निश्चित अन्तर पर। इसके लिये कोई औपचारिक समझौता नहीं होता, वरन् यह तो परस्पर समझदारी से होता है। आर्थर बर्न्स (Arthur Burns) के अनुसार, “यदि एक ही फर्म द्वारा सदैव या प्रायः कीमत में परिवर्तन किये जाते हैं और यदि सदैव या प्रायः अन्य विक्रेता कीमत के इन्हीं परिवर्तनों का अनुकरण करते हैं तो इस प्रकार की कीमत-स्पर्धा मूल्य-नेतृत्व के अन्तर्गत आती है।” ध्यान रहे कि मूल्य नेता सामान्यतया मूल्य वृद्धि में ही नेतृत्व करता है। यह उन उद्योगों में अधिक पाई जाती है जो कि समरूप या प्रमापित वस्तुओं का उत्पादन करते हैं, जैसे सीमेन्ट, तेल, चीनी, इस्पात आदि। यह उद्योग के समस्त बाजारों में हो सकता है अथवा केवल कुछ बाजारों में। बहुधा मूल्य नेता सभी बाजारों के लिये ही नेता बन जाता है। यह भी हो सकता है कि एक फर्म एक क्षेत्र में मूल्य नेता हो तथा दूसरे क्षेत्र में अनुयायी। इसी तरह यह भी सम्भव है कि मूल्य-नेतृत्व उद्योग की कुछ बड़ी फर्मों के बीच परिवर्तित होता रहे, किन्तु व्यवहार में एक ही फर्म लम्बे काल तक मूल्य नेता बनी रहती है। अतः अपने अनुसरणकर्ताओं की वफादारी बनाये रखने के लिये नेता को मूल्य परिवर्तन तभी करने चाहिये जबकि वह यह महसूस करे कि लागत और बाजार दशाओं में परिवर्तन स्थायी होंगे। ध्यान रहे कि मूल्य-नेतृत्व में गैर-मूल्य प्रतियोगिता पर कोई प्रतिबन्ध नहीं होता।

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मूल्य नेतृत्व के कारण (Causes of Price Leadership)

मूल्य नेतृत्व निम्न कारणों से उत्पन्न होता है :

1 प्रबल फर्म (Dominant Firm) : मूल्य नेता सामान्यतया अपने उद्योग की प्रबल फर्म होती है।

2. नीची लागत वाली फर्म (Low Cost Firm) : मूल्य नेता फर्म वस्तु को कम लागत पर उत्पादन करने वाली फर्म होती है।

3. बाजार में पर्याप्त भाग (Substantial Share in the Market) : बहुधा उद्योग की सबसे बड़ी फर्म मूल्य नेता बन जाती है क्योंकि उसे उद्योग माँग और पूर्ति की सही जानकारी होती है।

4. पहल (Initiative): बहुधा उत्पाद को सबसे पहले विकसित करने वाली फर्म ही उस उद्योग की नेता फर्म बन जाती है।

5.सुदृढ़ मूल्य नीति के लिये प्रसिद्धि (Reputation for Sound Price Decisions): उद्योग की कुशल और अनुभवी फर्म भी नेता बन जाती है क्योंकि उद्योग की अन्य फर्मे उसकी मूल्य नीति को सही मानने लगती हैं।

6. आक्रामक मूल्य निर्धारण (Aggressive Pricing) : एक फर्म अपने उत्पाद के मूल्य में लगातार कमी लाकर रूढ़िवादी प्रतियोगियों से बाजार हथिया सकती है और इस प्रकार उद्योग का नेतृत्व हथिया सकती है।

7. फर्म का दीर्घकालीन लाभ इतिहास, सुदृढ़ प्रबन्ध, सुदृढ़ वित्तीय संसाधन और उत्पाद नवकरण भी उसे मूल्य नेता बना सकता है।

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मूल्य नेतृत्व के विभिन्न स्वरूप

(Various Forms of Price Leadership)

मूल्य नेतृत्व तीन प्रकार की फर्मों द्वारा सम्भव होता है : (i) कम लागत वाली फर्म, (ii) प्रबल फर्म, (iii) बैरोमीटरीय फर्म।

(i) कम लागत वाली फर्म द्वारा मूल्य नेतृत्व (Price Leadership by a Low Cost Firm) : किसी फर्म की उत्पादन लागत उद्योग की अन्य फर्मों की तुलना में कम होने पर वह फर्म अन्य फर्मों की तलना में कम कीमत पर भी अपना माल बेचकर लाभ कमा सकती है। अतः ऐसी फर्म मूल्य नेता बन जाती है तथा अन्य फर्मे उसके अनुसार ही अपनी वस्तु का मूल्य निर्धारित करती हैं। इस स्थिति को निम्नलिखित रेखाचित्र 6.2 में स्पष्ट किया गया है।

इस रेखाचित्र में दो ऐसी फर्मों के उत्पादन मूल्य के साम्य की स्थिति को प्रदर्शित किया गया है जिनकी उत्पादन लागतें एक दूसरे से पर्याप्त भिन्न हैं। चित्र में दोनों फर्मों के सीमान्त आगम और औसत आगम को क्रमशः MR और AR वक्रों द्वारा प्रदर्शित किया गया है। चित्र में नीची लागत वाली फर्म की अल्पकालीन औसत लागत और अल्पकालीन औसत सीमान्त लागत क्रमशः SAC2 और SMC, वक्रों पर दिखलायी गयी हैं तथा ऊँची उत्पादन-मात्रा लागत वाली फर्म के ये वक्र SAC औ चित्र 6.2 SMC, हैं।

नीची लागत वाली फर्म OQ, मात्रा के लिये OP, मूल्य निर्धारित करके साम्य की स्थिति में होती है जबकि ऊँची लागत वाली फर्म OQ, मात्रा के लिये OP, मूल्य निर्धारित करके साम्य की स्थिति में होती है। चूंकि ऊँची लागत वाली फर्म को बाजार में नीची लागत वाली फर्म से प्रतियोगिता करनी होती है तथा बाद वाली फर्म पहले वाली फर्म से लाभप्रद स्थिति में होती है, अतः नीची लागत वाली फर्म अपने आप ही मूल्य नेता बन जाती है और उसके द्वारा निर्धारित मूल्य को उद्योग की अन्य सभी फर्मे अपना लेती हैं।

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(ii) प्रबल फर्म द्वारा मूल्य नेतृत्व (Price Leadership by a Dominant Firm) : बाजार में प्रबल फर्म वह होती है जो वस्तु की कुल पूर्ति का बहुत बड़ा भाग उत्पादित करती है। यह फर्म एकाधिकार जैसी स्थिति में होती है और अपने लाभों को अधिकतम करने के लिये वह मूल्य निर्धारित करेगी जिस पर उसकी सीमान्त लागत उसके सीमान्त आगम के बराबर हो। उद्योग की अन्य फर्मे पूर्ण प्रतियोगिता की तरह उस मूल्य को दिया हुआ मानकर अपने-अपने उत्पादन को उस बिन्दु पर समायोजित करेंगी जिस पर उनकी सीमान्त लागते मूल्य नेता द्वारा निर्धारित कीमत के बराबर होती हैं। ध्यान रहे कि नेता द्वारा निर्धारित मूल्य पर छोटी-छीटी फर्मों का माँग वक्र पूर्णतया लोचदार होता है अर्थात् वे इस मूल्य पर चाहे जितनी वस्तुयें बेच सकती हैं। इस स्थिति में मूल्य निर्धारण को चित्र में दर्शाया गया है।

चित्र में मान लीजिये DD बाजार माँग वक्र है। प्रबल फर्म के औसत आगम और सीमान्त आगम वक्र क्रमशः AR और MR हैं। प्रबल फर्म का सीमान्त लागत वक्र है। इस स्थिति में प्रबल फर्म का साम्य E बिन्दु पर होता है तथा वह OP मूल्य निर्धारित करके OQ, मात्रा बेचेगी। 0 Q Q, Q X छोटी फर्मे इस OP मूल्य को दिया हुआ मानकर उत्पादन-मात्रा उतना उत्पादन करेंगी जिससे उनकी सीमान्त लागत

चित्र 6.3 और सीमान्त आगम बराबर हों। ध्यान रहे कि इस स्थिति में PS रेखा छोटी फर्मों की सीमान्त आगम रेखा होगी। चित्र में ESMC वक्र छोटी फर्मों की संयुक्त सीमान्त लागत प्रदर्शित कर रहा है। अतः वे OQ2 मात्रा का उत्पादन करके साम्य की स्थिति को प्राप्त होंगी। ध्यान रहे कि OP, मूल्य पर बाजार की पूरी मांग को छोटी फमें पूरी कर सकती हैं किन्तु OP मूल्य के कारण ये कल बाजार माँग 00 के केवल 00, भाग की ही पर्ति करेंगी तथा शेष भाग प्रबल फर्म पूरी करेगी।

(iii) बैरोमीटरीय प्रकार का मूल्य नेतृत्व (Price Leadership of Barometric Type) : इसमें मूल्य नेता फर्म अन्य फर्मों के लगभग समान आकार की होती है किन्तु उद्योग की सभी फर्मे उस फर्म द्वारा निर्धारित कीमत को बदलती बाजार स्थितियों का सही बैरोमीटर मानती हैं और आपसी प्रतियोगिता से बचने के लिये उसके द्वारा निर्धारित मूल्य का ही अनुकरण करती हैं। वस्तुतः इसमें मूल्य नेता फर्म की मूल्य-उत्पादन नीति बाजार-दशाओं (अर्थात् बाजार में वस्तु की माँग और पूर्ति की दशाओं) की अनुयायी होती है। ऐसे मूल्य नेता को अपना नेतृत्व बनाये रखने के लिये अपनी कार्यवाहियों की अन्य फर्मों की प्रतिक्रिया पर समुचित ध्यान देना चाहिये। कभी-कभी तो नेता फर्म अनुयायी फर्मों द्वारा किये गये मूल्य परिवर्तन की ही पुष्टि कर देती है।

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सफल मूल्य नेतृत्व की आवश्यक दशायें

(Conditions Necessary for Effective Price Leadership)

तृत्व की सफलता निम्न बातों पर निर्भर करती है :

(1) प्रतियोगियों की प्रतिक्रियाओं का सही अनुमान : यदि यह अनुमान गलत हुआ तो मूल्य नेतृत्व समाप्त हो सकता है।

(2) मूल्य का एकाधिकार स्तर पर निर्धारण : नेता को मूल्य लगभग एकाधिकार स्तर पर निर्धारित करना चाहिये। किन्तु इसके लिये उसे उद्योग की कुल माँग और कुल पूर्ति का सही अनुमान लगाना होगा।

(3) अनुयायियों की वफादारी व सच्चाई : यदि अनुयायियों की उत्पादन लागत नेता फर्म से कम है तो वे अपनी वस्तु को नेता द्वारा निर्धारित मूल्य से कम पर बेच सकती हैं। इस स्थिति में मूल्य नेतृत्व असफल हो जायेगा।

(4) विद्रोही फर्मों से मूल्य-युद्ध की सामर्थ्य : मूल्य नेता को उद्योग की विद्रोही फर्मों से मूल्य-युद्ध का सामना करने और जोखिम वहन के लिये तैयार रहना चाहिये।

(5) मूल्य परिवर्तन बार-बार तथा अमहत्वपूर्ण राशि के न किये जायें : मूल्य नेता को मूल्य में परिवर्तन तभी करने चाहियें जबकि वस्तु की लागत और माँग में स्थायी परिवर्तन के कारण ऐसा करना आवश्यक हो गया हो। थोड़ी-थोड़ी मात्रा में तथा बार-बार मूल्य परिवर्तन से उसके नेतत्व और प्रतिष्ठा को ठेस पहँचती है। साथ ही अनयायियों को मूल्य समायोजन की कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। इससे कई बार अनुयायी फर्मे मूल्य परिवर्तन का अनुसरण नहीं करती हैं।

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(6) दीर्घकालीन हित : मूल्य नेता को अल्पकालीन लाभों के स्थान पर उद्योग के दीर्घकालीन हित पर ध्यान देना चाहिये।

(7) वस्तु की किस्म और उपयोगिता का उच्च स्तर : यदि विभिन्न फर्मों की वस्तुओं में स्पष्ट भेद है तो मूल्य नेता को अपनी वस्तु की किस्म और उपयोगिता का उच्च स्तर बनाये रखना चाहिये।

(8) मूल्य नेता में प्रतियोगियों के बिक्री तथा विज्ञापन के दबावों, उद्योग में नई फर्मों के प्रवेश, अनुयायी फर्मों के तीव्र विकास आदि को रोक पाने की सामर्थ्य होनी चाहिये।

(9) मूल्य नेता और अनुयायी फर्मों के बीच विशेषकर मूल्य निर्धारण के सम्बन्ध में उचित ” मात्रा में समझदारी और आपसी विश्वास होना चाहिये। एक मूल्य नेता को अपने अनुयायियों के विचारों का स्वागत करना चाहिये और उनका अपने मूल्य निर्धारण में उचित ध्यान देना चाहिये।

(10) मूल्य नेता को जहाँ तक हो सके मूल्यों में कमी करने की नीति से बचना चाहिये अन्यथा अनुयायी फर्मों की उसके प्रति वफादारी कम हो जायेगी।

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अल्पाधिकार की दशा में एक फर्म का व्यवहार

(A firm’s behaviour under oligopolistic conditions)

अल्पाधिकार के अन्तर्गत एक फर्म की मूल्य परिवर्तन के प्रति अरुचि रहती है। इसके निम्न कारण हैं : (1) प्रत्येक विक्रेता यह जानता है कि उसके द्वारा वस्तु के मूल्य में कमी किये जाने पर दूसरे विक्रेता भी अपनी वस्तु का मूल्य उतना ही कम कर देंगे और वह अपने बाजार भाग को नहीं बढ़ा सकेगा। किन्तु उसकी इस कार्यवाही से उसके कुल विक्रय आगम अवश्य घट जायेंगे।

(2) इसमें कोई विक्रेता मूल्य वृद्धि में पहल करने के लिये भी तैयार नहीं होता क्योंकि उसको भय रहता है कि यदि उद्योग की अन्य फर्मों ने उसका अनुसरण नहीं किया तो उसकी कुल बिक्री कम हो जायेगी।

(3) एक बार मूल्य में कमी करने के बाद उसमें वृद्धि करना कठिन होता है क्योंकि भविष्य में किसी फर्म द्वारा मूल्य बढ़ाने पर यदि अन्य फर्मे उसका अनुसरण न करें तो मूल्य बढ़ाने वाली फर्म की कुल बिक्री कम हो जायेगी।

(4) मूल्य में कमी से प्रतिस्पर्धियों में मूल्य-युद्ध की सम्भावनायें बढ़ जाती हैं, विशेषतया तब जबकि फर्मों की सीमान्त लागत औसत लागत से बहुत कम हो। इससे उद्योग की सभी फर्मों को हानि होती है।

(5) सभी फर्मों को यह जानकारी होती है कि उद्योग माँग अत्यधिक बेलोचदार होती है। अतः वस्तु के मूल्य में कमी कर देने पर कुल विक्रयों में इतनी वृद्धि नहीं होती जिससे मूल्य में कमी को भी पूरा किया जा सके।

उपरोक्त कारणों से ही इस बाजार स्थिति में उद्योग की समस्त कम्पनियाँ आपसी समझौते स एक स्थिर मूल्य नीति का अनसरण करती हैं। हाँ, इसमें एक व्यक्तिगत कम्पनी अपन बाजार भाग में वृद्धि के लिये गप्त मुल्य रियायतें तथा गैर-मूल्य प्रतियोगिता का सहारा लेती है क्योकि इसका प्रतिव्याघात (Retaliation) अत्यन्त कठिन होता है। इसके लिये विज्ञापन और विक्रय सम्वर्द्धन की नयी-नयी विधियों का सहारा लिया जाता है। इसमें व्यक्तिगत प्रचार, मुफ्त नमूने वितरण, वस्तु की डिजाइन व पैकिंग को आकर्षक बनाने, किस्म सुधार, सरल शर्तों पर उधार, विक्रय उपरान्त सेवा, घर पर माल की सुपुर्दगी, अधिक लम्बी अवधि के लिये वस्तु की गारन्टी व मरम्मत सेवा आदि विक्रय प्रोत्साहक यक्तियों का विशेष महत्व रहता है।

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अल्पाधिकार में कीमत निर्धारण की एक महत्वपूर्ण विशेषता कीमत दृढ़ता (Price Rigidity) है। कीमत दृढ़ता का आशय उन परिस्थितियों से होता है जिनमें कीमत एक ही स्तर पर स्थिर बनी रहती है, चाहे माँग तथा पूर्ति की परिस्थितियों में परिवर्तन क्यों न आ जाय। इस कीमत दृढ़ता के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं :

(1) गुटबंदी का अभाव (Absence of Collusion) : अल्पाधिकार में गुटबन्दी के अभाव में उद्योग में अनिश्चितता रहती है। प्रत्येक अल्पाधिकारी फर्म का माँग वक्र अनिश्चित रहता है और इसीलिये उसकी कीमत तथा उत्पादन वा भी अनिश्चित होती है। ऐसी अनिश्चितताओं के कारण अल्पाधिकारी फर्मे किसी उपयुक्त एवं संतोषजनक कीमत की खोज में रहती हैं और जैसे ही यह कीमत निश्चित हो जाती है, वे उसमें परिवर्तन नहीं चाहेंगी। यह प्रवृत्ति ही मूल्य दृढ़ता को जन्म देती है।

(2) मूल्यों का बना रहना (Maintenance of Prices) : ब अल्पाधिकारी फर्मे गिरती माँग का सामना करती हैं तो वे अपने विक्रय सम्वर्द्धन उपायों को और तेज कर देती हैं ताकि वर्तमान मूल्य पर वर्तमान बिक्री को बनाये रखा जा सके।

(3) मूल्य परिवर्तन के प्रति अनिच्छुक (Reluctant to Price Change) : यदि फर्म ने प्रचलित कीमत के विज्ञापन पर पर्याप्त व्यय किया है तो वह कीमत में परिवर्तन नहीं लाना चाहेगी क्योंकि इसका उपभोक्ताओं पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।

(4) प्रतिद्वन्द्विता (Rivalry) : यदि प्रचलित कीमत प्रतिद्वन्द्वियों के बीच अनेक समझौतों तथा परामर्श के पश्चात् निश्चित की गयी है तो अल्पाधिकारी फर्मे कीमत में परिवर्तन करके पुनः झंझट में नहीं पड़ना चाहेंगी।

(5) माँग व पूर्ति की स्थितियाँ (Demand and Supply Conditions) : यदि किसी समझौते के आधार पर उद्योग में नये प्रतियोगियों के प्रवेश को हतोत्साहित करने के लिये कीमत निम्न स्तर पर स्थिर की गयी है तो ये फर्मे अपने ही दीर्घकालीन हित को दृष्टिगत रखते हुए तब तक किसी परिवर्तन के लिये नहीं तैयार होंगी जब तक कि माँग और पूर्ति की दशाओं में पर्याप्त परिवर्तन न आ जाये।

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कीमत-दृढ़ता का विकुंचित माँग वक्र द्वारा स्पष्टीकरण

अल्पाधिकार के अन्तर्गत पर्याप्त सीमा तक कीमत दृढ़ता पायी जाती है। इस तथ्य का स्पष्टीकरण हार्वर्ड विश्वविद्यालय के प्रो० पॉल एम० स्वीजी (Paul M. Sweeny) ने एक विकंचित माँग वक्र की सहायता से दिया है। यहाँ पर यह बतलाना आवश्यक होगा कि विकुंचित माँग वक्र विश्लेषण अल्पाधिकार में मूल्य और उत्पादन का निर्धारण नहीं करता वरन यह तो इस तथ्य को प्रकट करता है कि एक बार मूल्य-मात्रा के समायोजन के पश्चात अल्पाधिकारी फमें मूल्य में परिवर्तन क्यों नहीं करतीं। यह विश्लेषण दो मान्यताओं पर आधारित है : (1) उद्योग अपनी परिपक्वता की अवस्था में आ चुका है। (2) इसके प्रतिद्वन्द्वी मूल्य में वृद्धि का अनुसरण नहीं करते वरन् मूल्य में कमी का अनुसरण करते हैं।

प्रो० स्वीजी के अनुसार एक अल्पाधिकारी फर्म को विकुंचित माँग वक्र का सामना करना पड़ता है। इस वक्र में एक कोना (Kink) होता है जिस पर कीमत स्थिर रहती है। माँग वक्र के इस कोने से माँग की लोच में एकाएक परिवर्तन आ YA जाता है। मॉग वक्र का इस कोने से ऊपर वाला भाग अधिक लोचदार होता है तथा नीचे वाला भाग कम लोचदार होता है। बराबर दिये चित्र 6.4 में एक अल्पाधिकारी फर्म का विकुंचित माँग वक्र SKL है जिस पर प्रचलित मूल्य KQ या OP पर एक कोना K बिन्दु पर है तथा फर्म का साम्य OP मूल्य पर OQ मात्रा के साथ हो रहा है। स्वीजी ने प्रारम्भिक मूल्य स्तर KQ को दिया हुआ माना है और इसके निर्धारण की कोई व्याख्या नहीं की है। फर्म इस उत्पादन-मात्रा या KQ मूल्य में परिवर्तन के लिये प्रोत्साहित नही होती क्योंकि उसे पूर्वाभास होता है कि यदि कीमत K बिन्दु से ऊपर को जाती है तो अन्य प्रतिद्वन्द्वी फर्मे उसका अनुसरण नहीं करेंगी और वह अपने वर्तमान बाजार का महत्वपूर्ण भाग खो बैठेगी (क्योंकि K बिन्दु के बायीं ओर उसका माँग वक्र अधिक लोचदार होता है)।

इससे उसकी कुल विक्रय राशि व कुल लाभ की मात्रा घट जायेगी। इसके विपरीत यदि फर्म कीमत K बिन्दु से नीचे गिराती है तो दूसरी फर्मे अपना बाजार भाग बनाये रखने के लिये तत्काल ही अपनी कीमत गिरा देंगी और वह अपने बाजार भाग में कोई उल्लेखनीय वृद्धि नहीं कर सकेगी (क्योंकि K बिन्दु के दायीं ओर उसका माँग वक्र कम लोचदार होता है)। हाँ, इससे उसकी कुल विक्रय राशि व लाभ की मात्रा में अवश्य कमी आ जायेगी। अतः उद्योग में OP कीमत दृढ़ बनी रहेगी।

उत्पादन लागत व माँग में परिवर्तन पर कीमत दृढ़ता का स्पष्टीकरण

लागतों में परिवर्तन (Change in Costs) : अल्पाधिकार में फर्म की लागत दशाओं में परिवर्तन आ जाने पर भी वह अपने वस्तु की कीमत में परिवर्तन नहीं करती। दिये । चित्र 6.5 में SKL फर्म का विकुंचित माँग वक्र है तथा SABC सीमान्त आगम वक्र है जिसमें । AB अन्तराल (gap) है जो कि टूटी रेखा (dotted line) द्वारा दिखलाया गया है। AB अन्तराल की लम्बाई कोने पर माँग वक्र के ऊपर और नीचे वाले भाग के ढालों (Slopes) 0 Q, Q के बीच अन्तर के आनुपातिक होती है।

SABC वक्र में AB अन्तराल मूल्य के K

बिन्दु पर आ जाने से सीमान्त आगम के एकाएक AQ से गिरकर BQ हो जाने के फलस्वरूप आया है। जब तक अल्पाधिकारी फर्म का MC वक्र MR वक्र को उसके अन्तराल भाग AB के अन्तर्गत होता है तब तक फर्म को मल्य तथा उत्पादन में परिवर्तन के लिये प्रेरणा नहीं रहगा। जसा कि चित्र से स्पष्ट है कि फर्म की उत्पादन लागत में वृद्धि के फलस्वरूप सीमान्त लागत का स्थिति MC, MC, अथवा MC होने तक मूल्य में वृद्धि नहीं होगी और फर्म इस लागत वृद्धि को स्वयं सहेगी किन्तु यदि लागत वक्र MR वक्र को A बिन्दु से ऊपर काटता है। (जैसा कि चित्र में MC, वक्र द्वारा दिखलाया गया है) तो अल्पाधिकारी मूल्य में वृद्धि होगी तथा यह KQ से बढ़कर K,Q, हो जायेगा और साम्य की मात्रा घटकर OQ, रह जायेगी। इसी तरह उत्पादन लागत में अत्यधिक कमी के कारण यदि MC वक्र MR वक्र को B बिन्द के नीचे काटता है तो अल्पाधिकारी मल्य में कमी की जा सकती है। इस प्रकार स्पष्ट है कि एक सीमा तक लागतों में परिवर्तन पर अल्पाधिकारी मूल्य स्थिर बने रहते हैं।

माँग में परिवर्तन (Change in Demand) : अल्पाधिकार के अन्तर्गत वस्तु की माँग में परिवर्तन आ जाने पर भी मूल्य स्थिर रहता है। माँग में परिवर्तन आ जाने पर विकुंचित माँग वक्र की स्थिति अवश्य बदल जाती है। माँग में वृद्धि पर यह आगे खिसक जाता है तथा माँग में कमी पर यह पीछे खिसक जाता है किन्तु इन परिवर्तनों का अल्पाधिकारी मूल्य पर तब तक कोई प्रभाव नहीं पडेगा जब तक कि फर्म का MC वक्र उसके परिवर्तित MR वक्र को उसके अन्तराल वाले भाग पर काटता है।

उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि लागत और माँग में परिवर्तन आ जाने पर एक अल्पाधिकारी फर्म तब तक मूल्य में परिवर्तन नहीं करेगी जब तक कि इसका सीमान्त लागत वक्र उसके सीमान्त आगम वक्र को उसके अन्तराल वाले भाग में काटता है। इस भाग से ऊपर-नीचे काटने पर ही एक फर्म मूल्य परिवर्तन कर सकती है।

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अल्पाधिकार के अन्तर्गत फर्मों की मूल्य और उत्पादन नीति

(Price and Output Policy of Firms Under Oligopoly)

अल्पाधिकार के अन्तर्गत उद्योग की फर्मे अपनी स्वतंत्र मूल्य नीति अपना सकती हैं अथवा आपसी सन्धि की नीति। यदि फर्मे स्वतन्त्र मूल्य नीति अपनाती हैं तो इसे टकराव की स्थिति कहेंगे और इस प्रक्रिया में वे केवल सामान्य लाभ कमाती हैं। दूसरी ओर यदि वे मूल्य, मात्रा व बाजार के सम्बन्ध में आपस में कोई सन्धि कर लेती हैं तो वे अतिरिक्त या असामान्य लाभ कमाती हैं। इन दोनों स्थितियों का विवेचन नीचे दिया गया है।

यदि फमें टकराती हैं (If the firms Collide) : यदि उद्योग की प्रतिद्वन्द्वी फर्मे अपनी स्वतन्त्र मूल्य और उत्पादन नीति अपनाती हैं तो व्यापार जगत में बहुत ही अनिश्चितता और असुरक्षा का वातावरण रहता है। ऐसा व्यवहार प्रतिद्वन्द्वियों के आपसी अविश्वास और विरोध के कारण होता है। इसमें यदि कोई फर्म अपनी वस्तु का मूल्य कम करती है तो उद्योग की अन्य फर्मे भी अपना बाजार भाग बचाये रखने के लिये अपनी वस्तुओं का मूल्य कम कर देती हैं और बहुधा उनमें मूल्य-युद्ध छिड़ जाता है। किन्तु दीर्घकाल में जब उद्योग की फर्मों में परिपक्वता आ जाती है और वे ‘जियो और जीने दो’ के सिद्धान्त को अपना लेती हैं तो बाजार में मल्य स्थिरता की स्थिति आ जाती है और प्रत्येक फर्म सामान्य लाभ अर्जित करती को स्वीजी के विकुचित मांग वक्र मॉडेल में भी यही बतलाया गया है कि अल्पाधिकारी माँग वक्र के कोने पर स्थिर हो जाता है और उस पर प्रत्येक अल्पाधिकारी सामान्य लाभ प्राप्त करता है।

यदि फर्मे सन्धि कर लेती हैं (If the firms Collude) : अल्पाधिकारी फर्मों के बीच सन्धि दो प्रकार की होती है : पूर्ण सन्धि (Perfect Collusion) और अपूर्ण सन्धि (Imperfect Collusion)। पूर्ण सन्धि की दशा में सभी सदस्य फर्मों के सहयोग से एक केन्द्रीय संस्था (जिसे कारटेल कहते हैं) की स्थापना की जाती है जिसे अपने गुट की फर्मों के सम्बन्ध में प्रबन्धकीय निर्णयन और बाजार क्रियाओं के लिये पूर्ण अधिकार दे दिया जाता है। कारटेल का उद्देश्य सदस्य फर्मों के संयुक्त लाभों को अधिकतम करके प्रत्येक व्यक्तिगत फर्म की लाभ स्थिति में सुधार लाना होता है। इसके लिये कारटेल अपने गुट की प्रत्येक फर्म के लिये उत्पादन की मात्रा, मूल्य और विक्रय क्षेत्र निर्धारित करता है। कुल उत्पादन-मात्रा और मूल्य निर्धारित करने से पूर्व कारटेल उद्योग के माँग वक्र का अनुमान लगाता है। इसके पश्चात् विभिन्न उत्पादन-मात्राओं के लिये व्यक्तिगत फर्मों के सीमान्त लागत वक्रों से कुल सीमान्त लागत वक्र ज्ञात किया जाता है। फर्मों के संयुक्त लाभ को अधिकतम करने के लिये कारटेल उस उत्पादन-मात्रा और कीमत को निर्धारित करता है जिस पर सम्पूर्ण उद्योग की सीमान्त लागत उद्योग के सीमान्त आगम के बराबर हो। इस उत्पादन को न्यूनतम कुल लागत पर प्राप्त करने के लिये कारटेल अपने गुट की प्रत्येक फर्म का उत्पादन कोटा इस प्रकार निर्धारित करता है जिससे प्रत्येक फर्म की अपने-अपने कोटे के उत्पादन की सीमान्त लागत एक समान आये। कारटेल उद्योग के कल लाभ को सदस्य फर्मों में किसी पूर्व निर्धारित आधार पर बाँटता है। इस प्रकार इस स्थिति में प्रत्येक सदस्य फर्म स्वतन्त्र मूल्य निर्धारण की स्थिति से अधिक लाभ प्राप्त करती है।

पूर्ण सन्धि एक काल्पनिक व अस्थायी स्थिति है क्योंकि उत्पादन के कोटा व लाभ के विभाजन पर सदस्य फर्मों में अक्सर मतभेद उत्पन्न हो जाते हैं और कुछ फर्मे गुट को छोड़ देती हैं। इसके अतिरिक्त उद्योग में नयी फर्मों के प्रवेश पा जाने पर भी पूर्ण गुटबन्दी की स्थिति समाप्त हो जाती है। अतः व्यवहार में अपूर्ण सन्धि की स्थिति पायी जाती है। अपूर्ण सन्धि का एक बहु-प्रचलित रूप उद्योग नेतृत्व है। यह दो प्रकार का होता है : मूल्य नेतृत्व (Price leadership) और मात्रा नेतृत्व (Quantity leadership)। मूल्य नेतृत्व के अन्तर्गत उद्योग की सभी फर्मे बिना किसी औपचारिक समझौते के अपने मूल्य नेता द्वारा अपनायी गयी मूल्य नीति का अनुसरण करती हैं। मूल्य नेतृत्व कम लागत वाली फर्म, प्रबल फर्म और बैरोमीटरीय फर्म द्वारा ही सम्भव होता है। मात्रा नेतृत्व के अन्तर्गत मात्रा नेता कुल बाजार पूर्ति का बड़ा भाग स्वयं लेता है तथा शेष भाग अनुयायियों द्वारा विभाजित कर लिया जाता है।

संक्षेप में, सन्धिपूर्ण अल्पाधिकार के अन्तर्गत, चाहे वह कारटेल के रूप में हो अथवा नेतृत्व के रूप में, प्रत्येक अल्पाधिकारी फर्म सामान्य से अधिक लाभ अर्जित करती है।

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सैद्धान्तिक प्रश्न

(Theoretical Questions)

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

(Long Answer Questions)

1 अल्पाधिकार किसे कहते हैं ? एकाधिकार और अल्पाधिकार के बीच अन्तर स्पष्ट कीजिये।

What is Oligopoly? Differentiate between Monopoly and Oligopoly.

2. अल्पाधिकार की दशाओं में मूल्य और उत्पादन के निर्णय किस प्रकार लिये जाते हैं ?

Explain how price and output decisions are taken under conditions of oligopoly.

3. मूल्य-नेतृत्व का अर्थ समझाइये। सफल मूल्य नेतत्व के लिये कौनसी दशायें आवश्यक हैं ?

Explain the meaning of ‘Price Leadership’. What are the conditions necessary for effective price leadership?

4. अल्पाधिकार क्या है ? अल्पाधिकार की दशा में एक फर्म का व्यवहार कैसा होता है ?

What is Oligopoly? How does a firm act under monopolistic conditions?

5. अल्पाधिकार में मूल्य स्थिरता पर प्रकाश डालिये।

Explain price rigidity under Oligopoly.

6. अल्पाधिकार के अन्तर्गत यदि फर्म टकराती हैं तो वे केवल सामान्य लाभ अर्जित करती हैं; यदि वे सन्धि कर लेती हैं तो अतिरिक्त लाभ अर्जित कर सकती हैं। विवेचन कीजिये।

If the firm under Oligopoly collide, they earn only normal profits; if they collude, super normal profits can be earned.’ Comment.

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(II) लघु उत्तरीय प्रश्न

(Short Answer Questions):

उत्तर 100 से 120 शब्दों के बीच होना चाहिये।

The answer should be between 100 to 120 words.

1 अल्पाधिकार क्या है ? इसकी मख्य विशेषतायें बतलाइये।

What is Oligopoly ? Describe its main characteristics.

2. मूल्य नेतृत्व का अर्थ समझाइये।

Explain the meaning of price leadership.

3. अल्पाधिकार में मूल्य स्थिरता के कारण बतलाइये।

What are the causes of price rigidity under oligopoly.

4. अल्पाधिकारी फर्मों की मूल्य परिवर्तन के प्रति विरुचि के क्या कारण हैं ?

What are the causes of the aversion of monopolistic firms towards price change?

5. विकुंचित माँग वक्र द्वारा कीमत-दृढ़ता की व्याख्या कीजिये।

Explain price rigidity by kink demand curve.

6. अल्पाधिकार और एकाधिकार में अन्तर कीजिए।

Distinguish between oligopoly and monopoly.

7. पूर्ण गुटबंदी में मूल्य निर्धारण समझाइये।

Explain pricing under perfect collusion.

8. मूल्य नेतृत्व के क्या कारण हैं ?

What are the causes of price leadership?

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III. अति लघु उत्तरीय प्रश्न

(Very Short Answer Questions)

(अ) एक शब्द या एक पंक्ति में उत्तर दीजिये।

Answer in one word or in one line.

1 अल्पाधिकार क्या है ?

What is oligopoly?

2. भारत में अल्पाधिकार उद्योगों के पाँच उदाहरण दीजिये।

Give five examples of oligopoly industries in India.

3. मूल्य नेतृत्व के तीन प्रकार बतलाइये।

Name the three forms of price leadership.

4. कीमत दृढ़ता क्या है ?

What is price rigidity?

(उत्तरमाला : (1) यदि बाजार में परस्पर निर्भर थोड़े से विक्रेता हों, उनका वस्तु की पूर्ति के बड़े भाग पर नियंत्रण हो तथा वह बाजार में वस्तु के मूल्य को प्रभावित कर सकता हो।

(2) (i) इस्पात उद्योग (ii) चीनी उद्योग (iii) सीमेन्ट उद्योग (iv) मोटर गाड़ी उद्योग (v) कम्प्यूटर निर्माण उद्योग (vi) पेट्रोल (vii) कुकिंग गैस।

(3) (i) कम लागत वाली फर्म द्वारा नेतृत्व (ii) प्रबल फर्म द्वारा नेतृत्व (iii) वैरोमीटरीय प्रकार का नेतृत्व।

(4) कीमत दृढ़ता का आशय वस्तु की कीमत का एक ही स्तर पर स्थिर बना रहने से है।)

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(ब) निम्नलिखित कथन सत्य हैं अथवा असत्य। पुष्टि कीजिये।

State whether the following statements are true or false.

1 भारत में साइकिल का बाजार अल्पाधिकार से मिलता है।

The cycle market in India resembles with oligopoly.

2. अल्पाधिकार में दो विक्रेता होते हैं।

Under oligopoly the number of sellers is two.

3. अल्पाधिकार के अन्तर्गत विभिन्न विक्रेताओं के उत्पाद भिनित हो सकते हैं अथवा एक से।

Under oligopoly, the products of different sellers may be differentiated or similar.

(उत्तरमाला : सत्य : 1,3; असत्य : 2)

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(स) रिक्त स्थानों की पूर्ति करो

(Fill in the blanks) :

1 अल्पाधिकार के अन्तर्गत विभिन्न उत्पादक ……….. वस्तु का उत्पादन कर सकते हैं अथवा ………. वस्तु का।

Under oligopoly goods of different producers may be ……. or …..

2. अल्पाधिकार के अन्तर्गत फर्म के माँग वक्र का स्वरूप ………. होता है।

Under oligopoly demand curve of a firm is …………

3. मूल्य स्थिरता ………. की एक विशेषता है।

Price rigidity is a common feature of ……..

4. मूल्य नेतृत्व ………. गुटबन्दी का सर्वाधिक प्रचलित स्वरूप है।

Price leadership is a most popular form of ……. collusion.

5. अल्पाधिकार दो प्रकार का होता है- विशुद्ध अल्पाधिकार और ………. अल्पाधिकार।

Oligopoly is of two types — pure oligopoly and …….. monopoly.

6. उत्पादकों के बीच पारस्परिक निर्भरता …………. बाजार में अधिक होता है ।।

Mutual dependence among producers is more in ………. market.

7. अल्पाधिकार में विक्रेताओं की संख्या ………. होती है।

Under monopoly, the number of sellers is ……….

(उत्तरमाला : (1) समरूप, भेदित homogeneous, differentiated (2) अनिर्धारणीय indeterminate (3) अल्पाधिकार oligopoly (4) अपूर्ण imperfect (5) भेदित discriminatory (6) अल्पाधिकार oligopoly (7) कुछ few)

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(द) सही विकल्प का चयन करो

(Choose the correct answer) :

1 निम्नलिखित में से कौनसा अल्पाधिकारी दशाओं से मेंल नहीं खाता :

(अ) वस्तु-विभेद

(ब) प्रतियोगिता

(स) सामान्य लाभ

(द) द्वियाधिकार

(इ) बाजार दशाओं को परिवर्तित करने की विक्रेता की असमर्थता।

Which of the following is incompatible with oligopolistic conditions:

(a) Product Differentiation

(b) Competition

(c) Normal Profits

(d) Duopoly

(e) Inability of the seller to alter market conditions.

2. अल्पाधिकारी बाजार में :

(अ) अधिक संख्या में विक्रेता और कुछ क्रेता होते हैं।

(ब) कुछ विक्रेता और कुछ क्रेता होते हैं।

(स) कुछ विक्रेता और बड़ी संख्या में क्रेता होते हैं।

In an oligopolistic market, there are :

(a) A large number of sellers and few buyers

(b) Few sellers and few buyers

(c) Few sellers and a large number of buyers.

3. सीमेन्ट उद्योग उदाहरण है :

(अ) पूर्ण प्रतियोगिता का

(ब) एकाधिकार का प्रतियोगिता का

(द) अल्पाधिकार का।

Cement industry is an example of:

(a) Perfect competition

(b) Monopoly

(c) Imperfect competition

(d) Oligopoly

4. प्रो० पॉल एम० स्वीजी ने सिद्धान्त प्रतिपादित किया –

(अ) वैरोमीटरीय मूल्य नेतृत्व का

(ब) विकुंचित माँग वक्र का

(स) पूर्ण सन्धि का

(द) उपर्युक्त में से कोई नहीं।

Prof. Paul M. Sweezy advanced the theory of –

(a) barometeric price leadership

(b) kinked demand curve (c) perfect collusion

(d) none of the above.

5. अल्पाधिकार किस बाजार की एक किस्म है ?

(अ) पूर्ण प्रतियोगिता

(ब) अपूर्ण प्रतियोगिता

(स) एकाधिकार

(द) एकाधिकारी प्रतियोगिता।

Oligopoly is a form of which market ?

(a) perfect competition

(b) imperfect competition

(c) monopoly

(d) monopolistic competition.

(उत्तरमाला : (1) d, (2) c, (3) d, (4) b, (5) b)

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chetansati

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