BCom 1st Year Economics Price Output Decisions under imperfect Competition notes in Hindi

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BCom 1st Year Economics Price Output Decisions under imperfect Competition notes in Hindi

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BCom 2nd Year Cost Accounting Material Control Concept and Techniques Study Material

अपूर्ण प्रतियोगिता में मूल्य और उत्पादन के निर्णय

(Price And Output Decisions Under Imperfect Competition)

पूर्ण प्रतियोगिता और पूर्ण एकाधिकार दोनों ही काल्पनिक दशाएँ हैं। वास्तविक जीवन में न तो पूर्ण प्रतियोगिता ही पाई जाती है और न पूर्ण एकाधिकार। बेचम (Beacham) के शब्दों में, “वास्तविक विश्व में पूर्ण प्रतियोगिता एवं पूर्ण एकाधिकार दो छोर हैं जिनके बीच बहुत बड़ी संख्या में सीमित एकाधिकारी एक दूसरे से प्रतियोगिता करते हैं। श्रीमती जॉन रॉबिन्सन के अनुसार वास्तविक जीवन में ‘अपूर्ण प्रतियोगिता’ पाई जाती है जबकि चेम्बरलिन के अनुसार ‘एकाधिकारी प्रतियोगिता’। यद्यपि इन दोनों में थोड़ा अन्तर है किन्तु ढीले रूप में दोनों एक ही माने जाते हैं। अपूर्ण प्रतियोगिता का आशय (Meaning of Imperfect Competition)

अपूर्ण प्रतियोगिता पूर्ण प्रतियोगिता और पूर्ण एकाधिकार की दोनों चरम सीमाओं के बीच की बाजार स्थिति होती है। इसका आशय है, पूर्ण प्रतियोगिता में अपूर्णताओं की उपस्थिति। सरल शब्दों में, जब पूर्ण प्रतियोगिता की दशाओं में से किसी भी दशा का अभाव होता है तो अपूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। तकनीकी भाषा में, इस स्थिति में एक व्यक्तिगत फर्म की वस्तु की माँग पूर्णतया लोचदार नहीं होती। प्रो० लर्नर के शब्दों में, “अपूर्ण प्रतियोगिता तब पायी जाती है जबकि एक विक्रेता अपनी वस्तु के लिये एक गिरती हई मॉग रेखा का सामना करता है। अपूर्ण प्रतियोगिता एक व्यापक शब्द है। एकाधिकारी प्रतियोगिता, अल्पाधिकार, द्वयाधिकार, क्रेता-एकाधिकार आदि अपूर्ण प्रतियोगिता के ही रूप हैं। इस पुस्तक के अन्तर्गत हमारा विवेचन केवल एकाधिकारी प्रतियोगिता एवं अल्पाधिकार तक ही सीमित रहेगा।

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अपूर्ण प्रतियोगिता की विशेषतायें

(Characteristics of Imperfect Competition)

(1) क्रेताओं और विक्रेताओं का कम संख्या में होना (Small number of buyers and sellers) : इसीलिए इसमें कोई एक क्रेता या विक्रेता अपने कार्यों से वस्तु की कीमत को प्रभावित कर सकता है।

(2) क्रेताओं और विक्रेताओं को बाजारस्थिति का अपूर्ण ज्ञान 10 Enowledge of market to buyers and sellers) : इसके कारण बाजार में एक ही वस्त की विभिन्न कीमतें हो सकती हैं तथा प्रतियोगिता अपूर्ण कहलायेगी।

(3) वस्तुविभेद (Product differentiation) : अपूर्ण प्रतियोगिता में विभिन्न प्रतियोगियों की वस्तुओं में अन्तर होता है। यह अन्तर काल्पनिक हो सकता है अथवा वास्तविक। इसके कारण इसमें बाजार में वस्तुओं की कई कीमतें प्रचलित होती हैं।

(4) विज्ञापन का प्रभुत्व (Dominance of advertisement) : इसमें प्रत्येक विक्रेता विज्ञापन का सहारा लेकर अपनी वस्तु दूसरे से श्रेष्ठ सिद्ध करने का प्रयास करता है।।

(5) क्रेताओं में आलस्य और निश्चलता का पाया जाना (Ignorance and inertia of buvers) : कभी-कभी क्रेता केवल आलस्य या लापरवाही के कारण भी कम कीमत पर बेचने वाले विक्रेताओं से वस्तु नहीं खरीदते। इस कारण बाजार में वस्तु की कई कीमतें प्रचलित रह सकती हैं।

(6) ऊँचा यातायात व्यय (High transportation costs) : यदि वस्तु को विभिन्न स्थानों पर लाने-लेजाने पर ऊँची लागत पड़ती है तो विभिन्न स्थानों पर एक ही वस्तु के विभिन्न मूल्य प्रचलित हो सकते हैं और इस प्रकार बाजार में अपूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।

एकाधिकारी प्रतियोगिता का आशय

(Meaning of Monopolistic Competition)

इस स्थिति का विचार सर्वप्रथम प्रो० चैम्बरलिन ने प्रस्तुत किया। यह अपूर्ण प्रतियोगिता की वह स्थिति होती है जिसमें भिन्नित (न कि समरूप), किन्तु मिलती-जुलती वस्तुओं को बेचने वाली बहुत-सी छोटी-छोटी फर्मे होती हैं। इसमें एक ओर वस्तु-विभेद के कारण प्रत्येक विक्रेता अपने क्षेत्र में एक छोटा-सा एकाधिकारी होता है तथा एक सीमा तक वह वस्तु की कीमत को प्रभावित कर सकता है। दूसरी ओर वस्तुओं के मिलती-जुलती होने के कारण विक्रेताओं में तीव्र प्रतियोगिता भी होती है, यद्यपि यह पूर्ण नहीं होती। इस प्रकार इसमें एकाधिकार तथा प्रतियोगिता के तत्व एक साथ पाये जाते हैं। प्रो० मैकोनल के शब्दों में, “एकाधिकारी प्रतियोगिता सही रूप में एकाधिकार तथा प्रतियोगिता के मिश्रण को व्यक्त करती है; अधिक विशिष्ट रूप में एकाधिकारी प्रतियोगिता में एकाधिकारी शक्ति की न्यून मात्रा के साथ प्रतियोगिता की कुछ अधिक मात्रा का अन्तर्मिश्रण निहित होता है।”

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एकाधिकारी प्रतियोगिता की विशेषतायें

(Characteristics of Monopolistic Competition)

(1) स्वतंत्र विक्रेताओं का अधिक संख्या में होना (Large number of independent sellers) : एकाधिकारी प्रतियोगिता में विक्रेताओं की संख्या अधिक होती है किन्तु प्रत्येक विक्रेता बहुत छोटा होता है और किसी का भी उत्पादन के बड़े भाग पर नियन्त्रण नहीं होता। अतः कोई एक विक्रेता या उत्पादक अपने उत्पादन में परिवर्तन करके दूसरे विक्रेता को प्रभावित नहीं कर सकता है। इसमें विक्रेताओं में तीव्र प्रतियोगिता रहती है। वे स्वतन्त्र रूप से काम । करते हैं तथा उनमें कोई गुप्त सन्धि या समझौता नहीं होता।

(2) वस्तुविभेद (Product differentiation) : एकाधिकारी प्रतियोगिता में वस्तु-विभेद । रहता है। किन्तु ध्यान रहे कि इसमें वस्तु-विभेद पूर्ण नहीं होता अर्थात् इसमें वस्तुयें एक-दूसर। से पूर्णतया विभिन्न न होकर कुछ मिलती-जुलती होती हैं।

 (3) फर्मों का स्वतन्त्र प्रवेश और बहिर्गमन (Free entry and exit of firms) : पूर्ण प्रतियोगिता की तरह इसमें भी नयी फर्मे उद्योग में स्वतन्त्रतापूर्वक प्रवेश कर सकती हैं किन्त। वस्त-विभेद तथा वित्तीय बाधाओं के कारण यह पूर्ण प्रतियोगिता की तुलना में कुछ कठिन होता है। फर्मों के स्वतन्त्र प्रवेश व बहिर्गमन के कारण ही इसमें दीर्घकाल में पूर्ण प्रतियोगिता की तरह, प्रत्येक फर्म को केवल सामान्य लाभ ही प्राप्त होता है।

(4) गैरमूल्य प्रतियोगिता (Non-price competition) : चूँकि इसमें विभिन्न विक्रेताओं की वस्तुयें मिलती-जुलती होती हैं, इसलिये उनमें आपस में तीव्र गैर-मूल्य प्रतियोगिता होती है। इसमें प्रत्येक विक्रेता अपने ट्रेडमार्क तथा ब्राण्ड नाम पर अधिक बल देकर क्रेताओं को यह विश्वास दिलाने का प्रयत्न करता है कि उसके ब्राण्ड या ट्रेडमार्क की वस्तुयें दूसरे विक्रेताओं की वस्तुओं से अच्छी हैं। इसी से वह अपने ब्राण्ड या ट्रेडमार्क के प्रति क्रेताओं का लगाव उत्पन्न करके आंशिक एकाधिकार शक्ति प्राप्त कर लेता है।

(5) विक्रय लागत (Sellling cost) : एकाधिकारी प्रतियोगिता में विक्रय सम्वर्द्धन के लिये विज्ञापन, मुफ्त नमूने वितरण, विक्रय एजेन्टों की नियुक्ति आदि युक्तियों का सहारा लिया जाता है। अतः इसमें विक्रय लागतें रहती हैं।

(6) कम ढलवाँ माँग वक्र (Less Steepy demand curve) : इसमें माँग वक्र न तो पूर्ण प्रतियोगिता की भाँति X-अक्ष के समान्तर एक सीधी रेखा के रूप में होता है और न एकाधिकार की भाँति तेजी से गिरता हुआ (अर्थात् तीव्र ढाल वाला) ही, वरन् इसमें यह वक्र कुछ कम ढाल वाला होता है। दूसरे शब्दों में, इसमें माँग वक्र अधिक लोचदार होता है। यह वक्र एकाधिकार से तो बहुत अधिक लोचदार होता है, किन्तु पूर्ण प्रतियोगिता की भाँति पूर्णतया लोचदार नहीं होता है। चूंकि इसमें उद्योग की विभिन्न फर्मों के उत्पाद एक-दूसरे के निकट के स्थानापन्न होते हैं, अतः एक व्यक्तिगत फर्म के माँग वक्र की लोच उसके उत्पाद की दूसरे फर्मों के उत्पादों से आड़ी लोच तथा कुल उद्योग उत्पादन में उस फर्म के भाग पर निर्भर करेगा।

किसी उद्योग में एकाधिकारी प्रतियोगिता कायम रखने के लिये दो बातें आवश्यक हैं। प्रथम. विभिन्न विक्रेताओं की वस्तुओं में एक दूसरे से स्पष्ट भेद होना चाहिये। यदि ऐसा नहीं हो पाता है तो एकाधिकारी प्रतियोगिता पूर्ण प्रतियोगिता का रूप धारण कर लेगी। वस्तुतः इस वस्तु-विभेद के कारण ही एक विक्रेता कुछ सीमा तक एकाधिकारी अंश प्राप्त कर पाता है और एक सीमा तक अपनी वस्तु की कीमत को प्रभावित कर पाता है। दूसरे, इसके लिये विभिन्न विक्रेताओं की वस्तुयें एक दूसरे से पूर्णतया भिन्नित न होकर कुछ मिलती-जुलती होनी चाहिये जिससे वे एक दूसरे की निकट स्थानापन्न सिद्ध हो सकें। इस विशेषता के कारण ही इसमें एक विक्रेता की मूल्य नीति दूसरे विक्रेताओं की मूल्य नीति को प्रभावित करती है। वस्तुतः यदि इससे यह विशेषता निकाल दी जाये अर्थात् यदि वस्तु-विभेद पूर्ण हो तो एकाधिकारी प्रतियोगिता एकाधिकार का रूप ग्रहण कर लेगी।

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एकाधिकृत प्रतियोगिता के अन्तर्गत मूल्य निर्धारण

(Price Determination Under Monopolistic Competition)

एकाधिकत प्रतियोगिता के अन्तर्गत समूचे उद्योग का आगम वक्र या लागत वक्र खींचना कठिन होता है क्योंकि वस्तुयें सजातीय नहीं होती तथा बाजार में कोई एक कीमत प्रचलित नहीं होती। अतः इसमें केवल व्यक्तिगत फर्मों के आगम एवं लागत वक्र ही खींचे जा सकते हैं।।

माँग वक्र अथवा आगम वक्र: एकाधिकृत प्रतियोगिता के अन्तर्गत एक फर्म के लिये अपनी वस्तु का माँग वक्र वस्तु-विभेद के कारण तो पूर्ण प्रतियोगिता की तरह पूर्णतया लोचदार अपूर्ण प्रतियोगिता में मूल्य और उत्पादन के निर्णय नहीं होता है और निकट स्थानापन्नों की उपस्थिति के कारण एकाधिकार की तरह कठोर रूप में बेलोच नहीं होता है। वरन् यह अधिक लोचदार होने की प्रवृत्ति रखता है। यह लोच (a) उपभोक्ताओं की किसी वस्त विशेष की छाप या नाम के प्रति प्राथमिकता की मात्रा तथा (b) बाजार में क्रियाशील प्रतियोगी फों की संख्या पर निर्भर करती है। इस प्रकार इसमें माँग वक्र या AR रेखा नीचे गिरती हुई रेखा होती है।

यह ध्यान रहे कि एकाधिकृत प्रतियोगिता में सीमान्त आगम (MR) औसत आगम अर्थात् कीमत (AR or Price) से कम होता है। इसका कारण यह है कि इसमें एक फर्म को अपनी वस्तु की अतिरिक्त इकाइयों के बेचने के लिये वस्तु की कीमत कम करनी पड़ती है – तथा यह कमी केवल अतिरिक्त इकाइयों पर ही नहीं होती है बल्कि उसे पिछली सभी इकाइयों को भी इस कम की गई कीमत पर बेचना पड़ता है।

पूर्ति वक्र अथवा लागत वक्र : इसमें फर्म का अल्पकालीन औसत लागत वक्र सामान्यतया ‘U’ आकृति का होता है। वस्तु-विभेद तथा विभिन्न फर्मों की आन्तरिक बचतों की भिन्नता के कारण विभिन्न फमों के लागत वक्र एक-दूसरे से भिन्न होते हैं किन्तु विश्लेषण की सरलता के लिये हम इन्हें समरूप मान लेते हैं।

एकाधिकृत प्रतियोगिता में फर्मे अपनी वस्तू की बिक्री बढ़ाने के लिये गैर-मूल्य प्रतियोगिता को अपनाती हैं और वे विज्ञापन, प्रचार आदि पर व्यय करती हैं। इन व्ययों को ‘विक्रय लागते’ कहते हैं तथा ये वस्त की उत्पादन लागत का अंग होती हैं।

अल्पकाल में फर्म का साम्य या कीमत निर्धारण : पूर्ण प्रतियोगिता तथा एकाधिकार की तरह एकाधिकृत प्रतियोगिता के अन्तर्गत एक फर्म का अल्पकालीन साम्य उत्पादन व विक्रय की उस मात्रा पर होता है जिस पर वस्तु का सीमान्त आगम (MR) और सीमान्त लागत (MC) बराबर हों। चूँकि अल्पकाल में फर्म अपनी उत्पादन क्षमता को माँग के अनुसार नहीं समायोजित कर पाती है, अतः इसमें अल्पकाल में एक फर्म को लाभ, सामान्य लाभ तथा हानि, इन तीनों में से किसी भी स्थिति का सामना करना पड़ सकता है। यदि वस्तु की बहुत अधिक माँग है और बाजार में उसकी कोई बहुत निकट स्थानापन्न (Close substitute) नहीं है तो फर्म ऊंची कीमत रखकर लाभ कमा सकती है; यदि वस्तु की माँग कुछ कमजोर है तो फर्म को केवल सामान्य लाभ या शुन्य लाभ ही प्राप्त होगा और यदि वस्त की माँग बहत कमजोर है तो फर्म को हानि उठानी पड़ सकती है। इन तीनों स्थितियों को नीचे दिये हुए चित्र 5.1 में दिखलाया गया है :

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चित्र में MR और AR क्रमशः सीमान्त आगम और औसत आगम वक्र हैं तथा MC और AC क्रमशः सीमान्त लागत और औसत लागत वक्र हैं। फर्म के साम्य के लिये MRI और MC का बराबर होना आवश्यक है। चित्र के तीनों भागों में MC वक्र, MR वक्र को E बिन्दु पर काट रहा है। अतः फर्म वस्तु की 00 मात्रा का उत्पादन तथा PQ मूल्य निधारत। करने पर साम्य की स्थिति में होती है। AR वक्र और AC वक्र के बीच की दूरी वस्तु का प्रति इकाई लाभ या हानि दर्शाती है। चित्र के (अ) भाग में लाभ की स्थिति को दर्शाया गया है, चित्र के (ब) भाग में फर्म के सामान्य लाभ की स्थिति को दिखलाया गया है तथा चित्र के (स) भाग में फर्म की हानि की स्थिति को दर्शाया गया है।

दीर्घकाल में फर्म का साम्य या मूल्य निर्धारण : दीर्घकाल में एकाधिकृत प्रतियोगी फर्मों की प्रवृत्ति सामान्य लाभ अर्जित करने की होती है। यदि अल्पकाल में ‘समूह’ (या उद्योग) की कुछ फर्मों को लाभ प्राप्त होता है तो दीर्घकाल में इस लाभ से आकर्षित होकर नयी फर्मे ‘समूह’ में प्रवेश करेंगी तथा अधिक निकट स्थानापन्न वस्तुओं का उत्पादन बढ़ायेंगी। परिणामस्वरूप पुरानी व नई फर्मों के बीच प्रतियोगिता होगी, वस्तु का मूल्य घटेगा और यह अतिरिक्त लाभ की स्थिति समाप्त हो जायेगी। इसी तरह यदि अल्पकाल में समूह की कुछ फर्मों को हानि हो रही है तो दीर्घकाल में ऐसी फर्मे ‘समूह’ से बहिर्गमन कर जायेंगी। परिणामस्वरूप उत्पादन घटेगा, मूल्य बढ़ेगा तथा ‘समूह’ की सभी फर्मों को सामान्य लाभ प्राप्त होने लगेगा। इस प्रकार दीर्घकाल में फर्मे केवल सामान्य लाभ ही प्राप्त कर सकेंगी।

इस प्रकार पूर्ण प्रतियोगिता की तरह एकाधिकृत प्रतियोगिता में भी फर्म का दीर्घकालीन साम्य (या वस्तु के दीर्घकालीन मूल्य का Y निर्धारण) उस बिन्दु पर होता है जिस पर कीमत ।

सामान्य लाभ बिन्दु (AR) दीर्घकालीन औसत लागत (LAC) के LMC बराबर हो। दूसरे शब्दों में, फर्म के दीर्घकालीन साम्य की स्थिति में MR = MC के तथा AR = LAC के होता है। किन्तु ध्यान रहे कि इसमें औसत आगम वक्र औसत लागत वक्र को उसके न्यूनतम लागत बिन्दु से पूर्व ही स्पर्श कर लेता है। इसीलिये इसमें फर्म के उत्पादन की मात्रा उसके न्यूनतम लागत बिन्दु से कम रहती है और वह अपनी पूर्ण क्षमता का उपयोग नहीं कर पाती है। इसे दिये चित्र 5.2 पर दिखलाया । गया है। चित्र में साम्य बिन्दु  मात्रा MC के है तथा साम्य मात्रा OQ के लिये के है क्योंकि LAC वक्र P बिन्दु पर AR वक्र के लिये एक स्पर्श रेखा है।

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पूर्ण प्रतियोगिता और एकाधिकृत प्रतियोगिता में अन्तर

(Difference between Perfect Competition and Monopolistic Competition)

(1) वस्तु : पूर्ण प्रतियोगिता में वस्तुयें एकरूप होती हैं जबकि एकाधिकृत प्रतियोगिता में वस्तुयें मिलती-जुलती होती हैं।

2) बाजार ज्ञान : पूर्ण प्रतियोगिता में क्रेताओं और विक्रेताओं को बाजार का पूर्ण ज्ञान होता है जबकि एकाधिकृत प्रतियोगिता में ऐसा नहीं होता।

(3) फर्मों का प्रवेश बहिर्गमन : पूर्ण प्रतियोगिता में उद्योग में नयी फर्मों का प्रवेश या। पुरानी फर्मों का बहिर्गमन बहुत सरल होता है। एकाधिकारी प्रतियोगिता में भी फर्मों का प्रवेश व बहिर्गमन हो सकता है लेकिन यह पूर्ण प्रतियोगिता की भाँति सरल नहीं होता।

(4) वस्तु की किस्म : पूर्ण प्रतियोगिता की तुलना में एकाधिकृत प्रतियोगिता में वस्तु निकृष्ट कोटि की होती है।

(5) मूल्य निर्धारण : पूर्ण प्रतियोगिता में प्रत्येक विक्रेता ‘मूल्य-ग्रहण करने वाला’ (Price-Taker) होता है, “मूल्य निर्धारित करने वाला’ (Price-Maker) नहीं होता जबकि एकाधिकृत प्रतियोगिता में थोड़ा वस्तु-विभेद होने के कारण प्रत्येक विक्रेता एक छोटे से एकाधिकारी की भाँति होता है तथा एक सीमा तक वस्तु के मूल्य को प्रभावित भी कर सकता है।

(6) मूल्य की समानता : पूर्ण प्रतियोगिता में सम्पूर्ण बाजार में एक मूल्य पाया जाता है जबकि एकाधिकृत प्रतियोगिता में मूल्य में विभिन्नता पायी जाती है। दीर्घकाल में पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत उत्पादन औसत लागत वक्र के निम्नतम बिन्दु पर होता है अर्थात् अनुकूलतम मात्रा का उत्पादन होता है तथा कीमत कम रहती है जबकि एकाधिकृत प्रतियोगिता में प्रत्येक फर्म का दीर्घकालीन संतुलन औसत लागत वक्र के निम्नतम बिन्दु के बायीं ओर होता है।

अतः इसमें फर्म अनुकूलतम मात्रा से कम उत्पादन करती है, अतः इसमें कीमत अपेक्षाकृत के LEAR ऊँची होती है। दिये चित्र 5.3 से स्पष्ट है कि पूर्ण । प्रतियोगी फर्म का सन्तुलन E, बिन्दु पर है तथा यह औसत लागत (AC) वक्र का निम्नतम बिन्दु है। दूसरी ओर एकाधिकृत प्रतियोगी फर्म का सन्तुलन AC वक्र के निम्नतम बिन्दु से पूर्व T बिन्दु पर हो उत्पादन की मात्रा रहा है। अतः स्पष्ट है कि एकाधिकृत मूल्य OP प्रतियोगी मूल्य OP) से अधिक है तथा एकाधिकृत उत्पादन की मात्रा OM प्रतियोगी उत्पादन की मात्रा OM, से कम है।

(7) माँग रेखा का स्वरूप : पूर्ण प्रतियोगिता में एक फर्म के लिये माँग-रेखा (अर्थात औसत आगम रेखा) ‘पूर्णतया लोचदार’ (अर्थात् एक पड़ी रेखा) होती है जबकि एकाधिकत प्रतियोगिता में माँग-रेखा पूर्णतया लोचदार से कम लोचदार होती है तथा यह बायें से दायें नीचे की ओर गिरती हुई होती है।

(8) सीमान्त औसत आगम : पूर्ण प्रतियोगिता में औसत आगम सीमान्त आगम के बराबर होता है लेकिन एकाधिकृत प्रतियोगिता में औसत आगम सीमान्त आगम से अधिक होता है।

(9) औसत आगम और सीमान्त लागत : पूर्ण प्रतियोगिता में औसत आगम और सीमान्त लागत बराबर होते हैं किन्तु एकाधिकृत प्रतियोगिता में औसत आगम सीमान्त लागत से अधिक होता है।

(10) परिवहन लागतें : पूर्ण प्रतियोगिता में विक्रेता फर्मों के पास-पास होने के कारण परिवहन लागतें नहीं होती किन्तु एकाधिकृत प्रतियोगिता में ऐसा होना कोई आवश्यक नहीं होता।

(11) साधनों की गतिशीलता : पूर्ण प्रतियोगिता में उत्पत्ति के साधनों में पूर्ण गातशालता। रहती है जबकि एकाधिकृत प्रतियोगिता में साधनों की गतिशीलता में कई प्रकार का बाधाय। रहती हैं। कीमत, आगम और लागत

(12) विक्रय लागतें : पूर्ण प्रतियोगिता में गैर-मूल्य प्रतियोगिता का अस्तित्व न होने के। कारण विक्रेताओं को विज्ञापन तथा प्रचार पर धन व्यय नहीं करना पड़ता किन्तु एकाधिकृत प्रतियोगिता में वस्तु-विभेद के कारण विक्रेता को विज्ञापन व प्रचार पर बहुत खर्च करना पड़ता।

(13) व्यावहारिकता : व्यावहारिक जीवन में पूर्ण प्रतियोगिता नहीं पायी जाती। यह एक काल्पनिक स्थिति है। इसके विपरीत एकाधिकृत प्रतियोगिता एक वास्तविकता है।

एकाधिकार तथा एकाधिकृत प्रतिस्पर्धा में अन्तर

(Difference between Monopoly and Monopolistic Competition)

(1) संख्या : एकाधिकार में विक्रेता या उत्पादक केवल एक ही होता है जबकि एकाधिकृत प्रतियोगिता में बहुत से विक्रेता या उत्पादक होते हैं। अतः इसमें फर्म और उद्योग (समूह) में अन्तर पाया जाता है।

(2) वस्तु : एकाधिकार में एक ही वस्तु का उत्पादन होता है जबकि एकाधिकृत प्रतियोगिता में प्रत्येक उत्पादक भिन्न, किन्तु मिलती-जुलती वस्तु का उत्पादन करता है।

(3) विक्रय लागतें : एकाधिकार में विकय लागतें नहीं पायी जाती किन्तु एकाधिकारी प्रतियोगिता में गैर-मूल्य प्रतियोगिता के कारण विक्रय लागते अनिवार्य होती हैं।

(4) मूल्यविभेद : एकाधिकार में मूल्य-विभेद पाया जा सकता है किन्तु एकाधिकारी प्रतियोगिता में यह सम्भव नहीं होता।

(5) माँगवक्र की लोच : एकाधिकार में निकट स्थानापन्न वस्तुओं के अभाव के कारण माँग वक्र कम लोचदार होता है जबकि एकाधिकृत प्रतियोगिता में निकट स्थानापन्नों की उपस्थिति के कारण प्रत्येक फर्म का माँग वक्र अधिक लोचदार होता है।

(6) मूल्य : एकाधिकृत प्रतियोगिता की तुलना में एकाधिकार में विक्रेता वस्तु की कीमत निर्धारित करने में अधिक स्वतन्त्र होता है। इसीलिये एकाधिकार में वस्तु का मूल्य अपेक्षाकृत अधिक होता है।

(7) फर्मों का प्रवेश और दीर्घकालीन लाभ : एकाधिकार में नई फर्मों के प्रवेश पर प्रभावशाली बाधायें होती हैं। कुछ दशाओं में तो प्रवेश वर्जित ही होता है लेकिन एकाधिकृत प्रतियोगिता में दीर्घकाल में कोई फर्म ‘समूह’ में प्रवेश कर सकती है तथा उससे बाहर भी जा सकती है। यही कारण है कि एकाधिकार में एकाधिकारी दीर्घकाल में भी लाभ प्राप्त कर सकता है जबकि एकाधिकृत प्रतियोगिता के अन्तर्गत दीर्घकाल में फर्मों को केवल सामान्य लाभ ही प्राप्त होता है।

विभिन्न प्रतियोगी स्थितियों में विक्रय लागते

(Selling Costs in Different Competitive Situations)

विक्रय लागतों का आशय उस व्यय से होता है जिसे कोई फर्म उपभोक्ताओं को अन्य। फर्मों की वस्तुओं को छोड़कर अपनी वस्तु खरीदने के लिये प्रोत्साहित करने पर करती है। प्रो० चेम्बरलिन  सालिन के शब्दों में, “विक्रय लागतें किसी वस्तु के माँग वक्र के स्वरूप या स्थिति में। निर्मित करने के लिय का जाता है।” विभिन्न प्रकार के विज्ञापनों पर किया गया व्यय, वाओं का वेतन, कमीशन व भत्ता, प्रदर्शन पर किया व्यय, मुफ्त नमनों का व्यय आदि सभी विक्रय लागतों में सम्मिलित होते हैं।

विक्रय लागतों के दो प्रधान उद्देश्य होते हैं : पहला, भावी उपभोक्ताओं को अपनी वस्त गण, उपयोग, मूल्य, पूर्ति आदि के सम्बन्ध में जानकारी देना और दूसरा, उनकी रुचि व वश्यकताओं में परिवर्तन लाकर या नवीन मॉग का निर्माण करके उन्हें विज्ञापनकर्ता फर्म या योग की वस्तु खरीदने के लिये प्रोत्साहित करना। अतः यदि उपभोक्ताओं की आवश्यकताएँ निश्चित हों तथा उन्हें बाजार में उपलब्ध विभिन्न वस्तुओं के सम्बन्ध में पूर्ण जानकारी हो तो विक्रय लागतें व्यर्थ सिद्ध होंगी। इसीलिये पूर्ण प्रतियोगिता में, जहाँ एक ओर क्रेताओं को वस्तु के सम्बन्ध में पूर्ण ज्ञान होता है तो दूसरी ओर सभी वस्तुएँ समरूप होती हैं तथा विक्रय लागते महत्वहीन होती हैं। एकाधिकार के अन्तर्गत भी विक्रय लागतों की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि इसमें प्रतियोगिता नहीं होती। हाँ, एकाधिकारी अपनी वस्तु की कीमत और प्रयोग से उपभोक्ताओं को परिचित कराने, भविष्य में उन्हें अपना ग्राहक बनाये रखने तथा अन्य नये ग्राहक बनाने के लिये कभी-कभी विज्ञापन व प्रचार कर सकता है। एकाधिकृत प्रतियोगिता में जहाँ एक ओर समूह की विभिन्न फर्मों की वस्तु एक दूसरे से मिलती-जुलती व निकट स्थानापन्न होती हैं और दूसरी ओर उपभोक्ताओं को बाजार में उपलब्ध सभी वस्तुओं के सम्बन्ध में पूर्ण जानकारी नहीं होती, अतः इसमें बिक्री बढ़ाने के लिये विक्रय लागतें आवश्यक हो जाती हैं। इसमें विक्रय लागतों द्वारा फर्म उपभोक्ताओं को अपनी वस्तु के सम्बन्ध में पूर्ण जानकारी देने तथा उनमें अपनी वस्तु के लिये प्राथमिकता स्थापित करने का प्रयत्न करती है।

विक्रय लागतें फर्म के सन्तुलन को प्रभावित करती हैं। इनसे एक ओर माँग में वृद्धि होती है जिससे माँग वक्र दाहिनी तथा ऊपर की ओर खिसक जाता है और दूसरी ओर उत्पादन लागत वक्र जिसमें विक्रय लागतें भी सम्मिलित होती हैं, पहले की तुलना में एक ऊँचे स्थान पर होता है।

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सैद्धान्तिक प्रश्न

(Theoretical Questions)

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

(Long Answer Questions)

1 एकाधिकृत-स्पर्धा के बाजार से आप क्या समझते हैं ? एक ऐसे बाजार की मुख्य विशेषताओं की व्याख्या कीजिये तथा पूर्ण स्पर्धा के बाजार से इसका अन्तर स्पष्ट कीजिये।

What do you understand by a Monopolistic Competitive Market ? Explain the main features of such a market and distinguish it from a perfect competition market.

2. एकाधिकारात्मक प्रतियोगिता के मुख्य लक्षण बताइये। इस प्रकार की प्रतियोगिता किस प्रकार चल सकती है ?

Discuss the main features of monopolistic competition. How can such competition be sustained?

3. पूर्ण प्रतिस्पर्धा एवं एकाधिकृत प्रतिस्पर्धा में अन्तर स्पष्ट कीजिये। एकाधिकृत प्रतिस्पर्धा में मूल्य निर्धारण किस प्रकार होता है ?

Distinguish between Perfect Competition and Monopolistic Competition. How the price is determined under monopolistic competition?

4. पूर्ण और अपूर्ण प्रतियोगिता में अन्तर स्पष्ट कीजिये। अपूर्ण प्रतियोगिता में मूल्य निर्धारण किस प्रकार से होता है ?

Distinguish between perfect and imperfect competition? How is price determined under imperfect competition?

5. एकाधिकारी प्रतियोगिता में एक फर्म किस प्रकार मूल्य तथा उत्पादन सम्बन्धी निर्णय लेती

How price and output decisions are taken by a firm under monopolistic competition ?

6. अपूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति में एक फर्म की अल्पकालीन तथा दीर्घकालीन साम्य की स्थितियों की व्याख्या कीजिये।

Explain long-run and short-run equilibrium of a firm in case of imperfect competition.

7. एकाधिकृत प्रतियोगिता क्या होती है ? एकाधिकृत प्रतियोगिता के अन्तर्गत मूल्य निर्धारण कैसे होता है ?

What is monopolistic competition?  How the price is determined under monopolistic competition.

(II) लघु उत्तरीय प्रश्न

(Short Answer Questions)

उत्तर 100 से 120 शब्दों के बीच होना चाहिये।

The answer should be between 100 to 120 words.

1 एकाधिकार और एकाधिकारी प्रतियोगिता में अन्तर स्पष्ट कीजिये।

Distinguish between monopoly and monopolistic competition.

2. एकाधिकारी प्रतियोगिता की विशेषतायें बतलाइये।

Describe the characteristics of monopolistic competition.

3. पूर्ण प्रतियोगिता और एकाधिकारी प्रतियोगिता में अन्तर कीजिये।

Distinguish between perfect competition and monopolistic competition.

4. गैर-मूल्य प्रतियोगिता क्या है ? उदाहरण देकर समझाइये।

What is the non-price competition? Explain giving examples.

(III) अति लघु उत्तरीय प्रश्न

(Very Short Answer Questions)

(अ) एक शब्द या एक पंक्ति में उत्तर दीजिये।

Answer in one word or in one line.

1 एकाधिकारी प्रतियोगिता में ‘समूह साम्य’ शब्द को परिभाषित करो।

Define the term group equilibrium under monopolistic competition.

2. अपूर्ण प्रतियोगिता तब पायी जाती है जबकि एक विक्रेता अपनी वस्तु के लिये एक गिरती हुई मांग रेखा का सामना करता है।” यह परिभाषा किस अर्थशास्त्री ने दी है।

Imperfect competition exists when a seller faces a declining curve for his product.” Who has given this definition?

3. अपर्ण प्रतियोगिता में सन्तुलन बिन्दु पर MC वक्र, MR वक्र को ऊपर से काटता है। अथवा नीचे से अथवा बराबर से।

Under imperfect competition, at equilibrium point, MC curve intersects MR curve from above, below or by side.

4. अपूर्ण प्रतियोगिता में प्रत्येक फर्ण को अधिकतम लाभ प्राप्त होने की क्या शर्ते है

What is the condition of maximum profit to each firm under imperfect competition?

5. एकाधिकारी प्रतियोगिता में विभेदीकृत उत्पादन बेचने वाली कुछ फर्म होती हैं अथवा अनेक फर्मे।

Under monopolistic competition firms selling differentiated products are few or so many.

6. प्रतियोगिता के अर्थ में – समूह सन्तुलन ‘ की अवधारणा किस अर्थशास्त्री की है।

In the sense of competition, who has given the concept of ‘group equilibrium’.

(उत्तरमाला : 1. एकाधिकारी प्रतियोगिता के अन्तर्गत सभी फर्मों के दीर्घकालीन साम्य को समूह साम्य कहते हैं। 2. A. P. Lerner, 3. नीचे से from below4. MC = MR 5. अनेक so many 6. Prof. Chamberlin)

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chetansati

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