BCom 2nd year Principle Maximum Social Advantage Study Material Notes in hindi

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BCom 2nd year Principle Maximum Social Advantage Study Material Notes in Hindi

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Social Advantage Study Material
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BCom 3rd Year Nature Importance Financial Money Study Material notes in Hindi

अधिकतम सामाजिक लाभ का सिद्धान्त

[Principle of Maximum Social Advantage

“सार्वजनिक वित्त के क्रिया-कलापों के परिणामस्वरूप उत्पादित धन की मात्रा और प्रकृति में तथा व्यक्तियों। तथा विनिमय वर्गों के मध्य वितरण के परिणामस्वरूप जो परिवर्तन आते हैं, क्या वे समग्र समाज के लिए लाभप्रद है ? यदि हैं, तो वे क्रियाकलाप न्यायोचित हैं अन्यथा नहीं… राजस्व की सर्वोत्तम प्रणाली वह हैं। जिससे राज्य अपने कार्यों के द्वारा अधिकतम लाभ की प्राप्ति करता है।”

-डाल्टन

लोकवित्त के विषय में प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों के विचार बहुत सीमित थे। उनका यह मानना था कि राज्य का कार्यक्षेत्र नियन्त्रित एवं सीमित होना चाहिए तथा राज्य को कम से कम व्यय करना चाहिए। इस विषय में जे० बी० से० का कथन था कि “अर्थ प्रबन्धन की वही योजना सबसे उचित है जिसमें न्यूनतम व्यय किया जाय और करों में सबसे उत्तम कर वह है जिसकी मात्रा सबसे कम हो।” रिकार्डो ने इनका समर्थन करते हुए कहा कि “यदि तुम शान्तिमय सरकार चाहते हो तो बजट को कम करना होगा।”2 इस क्रम को आगे बढ़ाते हुए श्री हेनरी पारनैल ने कहा, “व्यवसाय को बनाये रखने तथा विदेशी आक्रमण से रक्षा करने के लिए जो अनिवार्य तत्व है, इसके अतिरिक्त व्यय का प्रत्येक अंग अपव्यय है। तथा जनता के ऊपर अत्याचार है।”3|

सरकार द्वारा किये गये करारोपण तथा व्यय का देश में उपभोग, उत्पादन तथा राष्ट्रीय आय के वितरण पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। राज्य की वह वित्तीय तथा राजकोषीय व्यवस्था जिससे सामाजिक कल्याण में वृद्धि होती है उचित मानी जाती है। सामाजिक लाभ के सम्बन्ध में प्राचीन अर्थशास्त्रियों ने कुछ सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया। इनमें से कुछ महत्वपूर्ण नियम निम्न प्रकार हैं

1 न्यूनतम करारोपण का सिद्धान्त (Principle of Minimum Taxation)-यह राजस्व का सबसे पुराना सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त के प्रतिपादक फ्रांस के अर्थशास्त्री जे० बी० से० थे। इस सिद्धान्त के अनुसार सरकार को कम से कम व्यय करना चाहिए तथा नागरिकों पर कम से कम करारोपण करना चाहिए। यह सिद्धान्त बहुत लोकप्रिय हुआ, क्योंकि उस समय यह आम धारणा थी कि सरकारी व्यय सदैव अनुत्पादक होता है और व्यक्ति द्वारा किया गया व्यय उत्पादक होता है, इसलिए सार्वजनिक व्यय न्यूनतम होना चाहिए।

आलोचना-यह सिद्धान्त प्राचीनकाल के लिए तो उपयुक्त था, परन्तु आधुनिक काल में सरकारों के कार्यक्षेत्र में विस्तार हुआ है, इसलिए यह सिद्धान्त आधुनिक काल में उचित नहीं है।

2. न्यूनतम त्याग का सिद्धान्त (Principle of Minimum Sacrifice)-उन्नीसवीं शताब्दी में प्रतिपादित इस सिद्धान्त के अनुसार सार्वजनिक व्यय का भार समाज पर इस प्रकार वितरण किया जाना चाहिए कि पूरे समाज तथा समाज की सभी इकाइयों को न्यूनतम सामूहिक त्याग करना पड़े। इस सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक कर बुरा होता है।

आलोचना-यह सिद्धान्त केवल आय पक्ष पर ही बल देता है, व्यय पक्ष पर नहीं, इसलिए एक पक्षीय होने के कारण यह सिद्धान्त कमजोर है।

3.मितव्ययिता का सिद्धान्त (Principle of Economy)-इस सिद्धान्त में सार्वजनिक व्यय में मितव्ययिता पर पूरा बल दिया गया है। इसके अनुसार सरकार अपने व्यय में उतनी सावधानी नहीं बरत सकती जितना एक व्यक्ति बरत सकता है। सरकार द्वारा किये गये व्यय अधिकतर अनावश्यक तथा अविवेकशील होते हैं, इसलिए सरकार को मितव्ययिता के सिद्धान्त का पालन करना चाहिए।

आलोचना-इस सिद्धान्त में सरकारी व्यय को अनावश्यक तथा अविवेकशील माना गया है, परन्तु वास्तविकता यह है कि सार्वजनिक व्यय कठोर नीतियों के अनुसार किये जाते हैं, इसलिए यह सिद्धान्त पूर्ण रूप से उचित नहीं है।

आधुनिक विचारधारा-आधुनिक अर्थशास्त्री प्राचीन अर्थशास्त्रियों की इस बात से सहमत नहीं हैं कि प्रत्येक कर एक बुराई है तथा सरकार द्वारा किया गया व्यय अनुत्पादक होता है। डॉ० डाल्टन के अनुसार, “कोई व्यय उत्पादक है अथवा नहीं, इसकी जाँच आर्थिक कल्याण की उत्पन्न मात्रा से की जानी चाहिए।”

आधुनिक विचारधारा के अनुसार ऐसे सिद्धान्त की खोज करना आवश्यक है जो लोक वित्त के आय और व्यय दोनों ही क्षेत्रों पर लागू हो सके। इस विषय में डॉ० डाल्टन ने कहा है, “लोकवित्त के मूल में एक बुनियादी सिद्धान्त होना चाहिए। इसे हम अधिकतम सामाजिक लाभ का सिद्धान्त कह सकते हैं। यह सिद्धान्त ही लोकवित्त का आधार है।”

अधिकतम सामाजिक लाभ का सिद्धान्त

(Principle of Maximum Social Advantage)

राज्य की राजकोषीय क्रियाएँ किसी देश की अर्थव्यवस्था पर प्रभाव डालती हैं। सरकार द्वारा आय प्राप्ति के लिए किये गए उपाय (करारोपण) तथा सार्वजनिक व्यय का देश में उपभोग, उत्पादन तथा वितरण पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। अतः हमारे पास कुछ मानदण्ड होने चाहिएँ जिससे हम पता लगा सकें कि करारोपण, सार्वजनिक व्यय तथा सार्वजनिक ऋण जो लिये गये हैं वह उचित हैं या नहीं क्योंकि सरकार द्वारा अपनाई गई नीतियों के कारण समाज के एक वर्ग से दूसरे वर्ग की क्रय शक्ति में अनेक आदान-प्रदान होते हैं तथा यह ही सार्वजनिक आय का स्वरूप ले लेते हैं। आधुनिक कल्याणकारी राज्य में ऐसे मानदण्ड जनता के आर्थिक कल्याण के सूचक हैं। यदि राज्य की क्रिया से आर्थिक कल्याण में वृद्धि हुई है तो वह क्रिया उचित है और यदि नहीं तो वह अनुचित है। डाल्टन का मत है किकोई व्यय उत्पादक है या नहीं, इसकी जाँच उस व्यय की आर्थिक कल्याण की उत्पादकता से ज्ञात होती है। जैसे-शिक्षा एवं स्वास्थ्य पर किया गया व्यय प्रायः व्यक्तिगत भोग-विलासों एवं नवीन पूंजी माल पर किये जाने वाले व्यय की अपेक्षा अधिक उत्पादक एवं कल्याणकारी होता है। राज्य की नीति के इस निदेशक सिद्धान्त को डाल्टन ने “अधिकतम सामाजिक लाभ का सिद्धान्त” कहा है। प्रो० पीगू ने इसे “अधिकतम कुल कल्याण” (Maximum Aggregate Welfare) का सिद्धान्त कहा है। इस सिद्धान्त को “राजस्व का सिद्धान्त” भी कहा जाता है।

सिद्धान्त की व्याख्या (Explanation of Principle)-इस सिद्धान्त का प्रतिपादन ब्रिटिश अर्थशास्त्री प्रो० डाल्टन ने किया। प्रो० डाल्टन के अनुसार, “राजस्व की सर्वोत्तम प्रणाली वह है जिससे सरकार अपने कार्यों द्वारा अधिकतम सामाजिक लाभ की प्राप्ति करती है।”2 इस प्रकार अधिकतम सामाजिक लाभ के सिद्धान्त के अनुसार सरकार की वित्तीय क्रियाओं का उद्देश्य सामाजिक लाभ को अधिकतम करना होता है।

एक ओर सरकार सार्वजनिक आय ‘करों’ के रूप में जनता से लेती है जो कि समाज के कुछ वर्गों (धनी) पर लगता है तथा दूसरी ओर सार्वजनिक व्यय के रूप में सरकार जनता के दूसरे वर्ग (निर्धन) पर समाज कल्याण के कार्यों के रूप में; जैसे-निःशुल्क शिक्षा, सस्ता राशन, चिकित्सा, आवास, पेंशन (वृद्धावस्था एवं विधवा आदि) व्यय करती है।

सरकार जिस वर्ग (उच्च वर्ग) पर कर लगाती है उन्हें असन्तुष्टि प्राप्त होती है, क्योंकि उन्हें त्याग करना पड़ता है, जबकि जिन व्यक्तियों पर यह व्यय किया जाता है उन्हें लाभ मिलता है अर्थात उन्हें सन्तुष्टि प्राप्त होती है। जैसे-जैसे करों में वृद्धि की जाती है करारोपण की प्रत्येक अगली इकाई से होने वाली हानि अर्थात् सीमान्त अनुपयोगिता बढ़ती जाती है। दूसरी ओर जैसे-जैसे सार्वजनिक व्यय में वृद्धि की जाती है वैसे-वैसे व्यय की सीमान्त उपयोगिता घटती जाती है, क्योंकि व्यक्तियों की आय माचक्ष। या परोक्ष रूप से वृद्धि हो जाती है जिससे आय की सीमान्त उपयोगिता कम होती जाती है।

अतः इस सिद्धान्त के अन्तर्गत ऐसी व्यवस्था की जाती है कि सार्वजनिक व्यय से प्राप्त होने वाली सीमान्त उपयोगिता करदाता की सीमान्त अनुपयोगिता के बराबर हो। यहीं बिन्दु सन्तुलन का बिन्द होता है। यदि सरकार अपनी आय और व्यय सम्बन्धी क्रियाओं को इस अधिकतम सामाजिक लाभ के बिन्दु से पूर्व ही रोक देती है या इससे आगे बढ़ती है तो समाज को अधिकतम सामाजिक लाभ प्राप्त नहीं होगा।

उदाहरण : अधिकतम सामाजिक लाभ सिद्धान्त को निम्नलिखित सारणी द्वारा समझाया जा सकता है

आय एवं व्यय का ईकाई

कर की प्रत्येक इकाई से उत्पन्न अनुपयोगिता

लोक व्यय की प्रत्येक इकाई से उत्पन्न उपयोगिता

1

10 50

2

15

40

3

20

30

4

25 25
5 40

15

6

50

10

 

उपरोक्त तालिका से स्पष्ट है कि कर देने से होने वाली उपयोगिता तथा लोक व्यय से मिलने वाली उपयोगिता दोनों चौथी इकाई पर एक समान हैं, अतः अधिकतम सामाजिक लाभ प्राप्त करने हेतु चौथी इकाई के बाद न तो कर लगाना चाहिए और न व्यय करना चाहिए।

चित्र द्वारा स्पष्टीकरण-प्रस्तुत चित्र में OX रेखा पर कर एवं व्यय की इकाई तथा OY रेखा पर त्याग एवं सन्तुष्टि की इकाइयाँ दिखाई गई हैं। UU रेखा उपयोगिता रेखा है जो सार्वजनिक व्यय से प्राप्त सीमान्त उपयोगिता को दर्शाती है। यह रेखा बताती है कि सार्वजनिक व्यय बढ़ने पर सीमान्त उपयोगिता की मात्रा कम हो जाती है। Ss रेखा त्याग रेखा है जो कर से उत्पन्न त्याग को बताती है। यह रेखा बताती है कि कर वृद्धि से क्रमशः त्याग बढ़ता है। E बिन्दु पर ये दोनों रेखाएँ मिलती हैं। यही आदर्श बिन्द है जहाँ पर सीमान्त त्याग तथा सीमान्त सन्तुष्टि बराबर हैं। यहीं सामाजिक लाभ अधिकतम होगा।

निष्कर्षतः इस सिद्धान्त की तीन प्रमुख बातें हैं

1 इस सिद्धान्त का मुख्य आधार समाज कल्याण है।

2. जिस बिन्दु पर करारोपण से होने वाले सीमान्त त्याग तथा व्यय से होने वाला लाभ बराबर है। वह बिन्दु ही अधिकतम सामाजिक कल्याण का बिन्दु है।

3. इस सिद्धान्त के द्वारा सामाजिक आय तथा व्यय की सीमा निर्धारण की व्याख्या की जा सकती

कुल सामाजिक लाभ तथा कुल सामाजिक त्याग विधि-अधिकतम सामाजिक लाभ के सिद्धान्त को कल सामाजिक लाभ (Total Social Benefit, TSB) तथा कुल सामाजिक त्याग (Total Social Sacrifies. TSS) वक्र से भी समझाया जा सकता है। जब कूल सामाजिक लाभ तथा कल सामाजिक त्याग के बीच अन्तर अधिकतम होता है, तब अधिकतम सामाजिक लाभ प्राप्त होता है।

उपरोक्त चित्र 3.2 में TSB वक्र कुल सामाजिक लाभ को तथा TSS वक्र कुल सामाजिक त्याग का वक्र है। इसके मध्य A तथा B बिन्दु पर इनमें अन्तर सबसे अधिक है अतः सरकार को OQ कर लगाकर इसे पुनः जनता पर व्यय कर देना चाहिए, तभी अधिकतम सामाजिक लाभ प्राप्त किया जा सकता है।

लोक व्यय का वितरण-यदि व्यय करने के मद अधिक हों तो सरकार के सामने समस्या रहती है कि किस मद पर कितना व्यय किया जाये ? इसके लिए सरकार को व्यय विभिन्न मदों या उपयोगों पर इस प्रकार करना चाहिए कि इनसे प्राप्त होने वाली सन्तुष्टि का स्तर समान हो अर्थात लोक व्यय का आधार समसीमान्त उपयोगिता नियम होना चाहिए।

रेखाचित्र 3.3 में दो मद A तथा B को लिया गया है जब A मद पर व्यय किया जाता है तो AA’ उपयोगिता वक्र प्राप्त होता है तथा जब B मद पर व्यय किया जाता है तो BB उपयोगिता वक्र प्राप्त होता है। यदि OM धनराशि A मद पर तथा ON राशि B मद पर व्यय की जाती है तो

अर्थात् KM = TN

कर भार का वितरण-सरकार के सामने एक और मुख्य प्रश्न होता है कि कर भार का वितरण समाज के विभिन्न वर्गों पर किस प्रकार किया जाये ? अधिकतम लाभ तभी प्राप्त किया जा सकता है, जबकि आगम (आय) से सामूहिक त्याग की मात्रा न्यूनतम तथा लोक व्यय से उपलब्ध कुल लाभ अधिकतम हो, किन्तु सीमान्त त्याग को न्यूनतम तभी किया जा सकता है, जबकि प्रत्येक करदाता पर करों का भार इस प्रकार पड़े कि प्रत्येक करदाता का सीमान्त त्याग बराबर हो।

उदाहरण-माना A और B दो करदाता हैं और दोनों से एक-एक रुपया कर के रूप में लिया जाता है। यदि A पर पड़ने वाला अतिरिक्ति भार B की तुलना में अधिक है तो कर भार A पर कम करके B पर बढ़ाना उचित होगा और यह प्रक्रिया जब तक करनी होगी जब तक कि A तथा B पर सीमान्त भार बराबर न हो जाये।

उपरोक्त चित्र 3.4 में AA’ वक्र A पर कर लगाने के परिणामस्वरूप होने वाला सीमान्त त्याग वक्र है तथा BB वक्र B पर कर लगाने के परिणामस्वरूप होने वाला सीमान्त त्याग वक्र है। A से OM तथा B से ON कर वसूल किया जाता है तो दोनों का सीमान्त त्याग बराबर है।

निष्कर्ष स्वरूप हम कह सकते हैं कि MN अधिकतम सामाजिक लाभ का सिद्धान्त दो मौलिक नियमों पर आधारित है

(1) सीमान्त उपयोगिता हास नियम (Law of Diminishing Marginal Utility)

(2) समसीमान्त उपयोगिता नियम (Law of Equi-marginal Utility) नियम का मूल सार निम्नलिखित बिन्दुओं द्वारा व्यक्त किया जा सकता है

1  विभिन्न दशाओं में होने वाले व्यय की सीमान्त इकाइयों से मिलने वाली सीमान्त उपयोगिता (लाभ) समान होनी चाहिए।

2. लोक व्यय से मिलने वाला सीमान्त लाभ लोक आगम से उत्पन्न सीमान्त त्याग के बराबर होना | चाहिए।

3. लोक आगम के विभिन्न स्रोतों पर पड़ने वाला सीमान्त भार बराबर होना चाहिए।

मसग्रेव के विचार (View of Musgrave)-मसग्रेव ने भी अधिकतम सामाजिक लाभ सिद्धान्त पर अपने विचार प्रस्तुत किये। मसग्रेव ने डाल्टन के अधिकतम सामाजिक लाभ के सिद्धान्त को “बजट निर्धारण का अधिकतम कल्याण सिद्धान्त (Maximum welfare principle of budget determination)” कहा। मसग्रेव के अनुसार, “जहाँ राजकोषीय क्रियाओं से समाज को मिलने वाले सीमान्त शुद्ध लाभ शून्य हो जाते हैं वह बिन्दु बजट का अनुकूलतम बिन्दु होता है।

उपरोक्त चित्र में X-अक्ष पर बजट के आकार, Y(+)-अक्ष पर सीमान्त सामाजिक लाभ (MSB) तथा Y -)-अक्ष पर सीमान्त सामाजिक त्याग (MSS) को दर्शाया गया है। सीमान्त सामाजिक लाभ में से सीमान्त सामाजिक त्याग को घटाने पर शुद्ध सामाजिक लाभ (NSBC) की प्राप्ति होती है जिसे वक्र की सहायता से दर्शाया गया है। शुद्ध सामाजिक लाभ वक्र X-अक्ष को E को बिन्दु पर काटता है जहाँ पर सीमान्त शुद्ध लाभ शून्य है। E बिन्दु बजट के अनुकूलतम आकार को व्यक्त करता है, क्योंकि इस बिन्दु पर कुल शुद्ध सामाजिक लाभ अधिकतम है तथा इस बिन्दु पर सीमान्त सामाजिक लाभ तथा सीमान्त सामाजिक त्याग बराबर है। श्रीमती हिक्स के विचार (Views of Mrs. Hicks)

श्रीमती उर्सला हिक्स ने राजस्व नीति निर्धारण के लिए दो मुख्य बातों पर जोर दिया–(1) उत्पादन स्तर तथा (2) उपयोगिता स्तर। इनका संक्षिप्त विवेचन निम्न प्रकार हैं

1 उत्पादन स्तर-श्रीमती हिक्स का विचार है कि, “प्रत्येक आर्थिक क्रियाओं का अन्तिम उद्देश्य मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति करना है अतः अधिकतम उत्पादन किया जाना चाहिए और उत्पादन का यह स्तर उस समय प्राप्त किया जा सकता है जब साधनों का विभाजन उचित ढंग से हो।”।।

2. उपयोगिता स्तर-इस सम्बन्ध में श्रीमती हिक्स के अनुसार, “उत्पादन को अधिकतम करना ‘उत्पादन अनुकूलतम’, साधनों के आबंटन से सम्बन्धित है, उत्पादन को अधिकतम करने की शर्ते यह हैं कि उत्पादन की दी हुई व्यवस्था के अन्तर्गत यह असम्भव रहेगा कि घटकों को पुनः आबंटन करके एक वस्तु के उत्पादन को दूसरी वस्तु के उत्पादन को घटाये बिना बढ़ाया जाये।”

श्रीमती हिक्स द्वारा बताये गए विचार का आधार सैद्धान्तिक है अतः इसे व्यावहारिक रूप देना अति कठिन है।

अधिकतम सामाजिक लाभ की आर्थिक कसौटी

(Economic Test of Maximum Social Advantage)

प्रो० डाल्टन ने अधिकतम सामाजिक लाभ की जाँच के लिए कुछ सुझाव प्रस्तुत किए जिनकी सहायता से हम पता लगा सकते हैं कि राजस्व की किसी भी नीति द्वारा आर्थिक कल्याण में वृद्धि होती है अथवा नहीं। ये मुख्यतः पाँच कसौटियाँ हैं

कसौटियाँ

1 शान्ति एवं सुरक्षा 2. उत्पादन में सुधार 3. आर्थिक विषमता में सुधार 4. आर्थिक जीवन में स्थायित्व 5. भावी पीढ़ी पर प्रभाव

1 शान्ति एवं सुरक्षा (Peace and Security)-किसी भी देश के विकास एवं उन्नति के लिए आवश्यक है कि उसमें आन्तरिक शान्ति एवं बाह्य तथा आन्तरिक सुरक्षा बनी रहे। इसलिए सरकार को इनसे सम्बन्धित वित्त नीतियाँ बनानी चाहिएँ जिससे सामाजिक कल्याण में वृद्धि होती है।

2. उत्पादन में सुधार (Improvement in Production)-सामाजिक लाभ की यह दूसरी कसौटी है यदि वित्तीय नीतियों के परिणामस्वरूप उत्पादन में वृद्धि होती है तो नीतियाँ उचित मानी जाती हैं अथवा नहीं।

3. आर्थिक विषमता में कमी (Reduction in Economic Inequalities)-आय तथा सम्पत्ति का असमान वितरण आर्थिक विकास में बड़ी बाधा है। सार्वजनिक आय तथा सार्वजनिक व्यय द्वारा इस समस्या को हल किया जा सकता है। धनी वर्ग पर अपेक्षाकृत अधिक कर लगा कर तथा समाज कल्याण के कार्यक्रमों द्वारा निधन वर्ग पर खर्च करके इस समस्या को हल किया जा सकता है। यदि आर्थिक नीति के द्वारा ऐसा कर पाना सम्भव है तो वह नीति उपयुक्त है अन्यथा नहीं।

4. आर्थिक जीवन में स्थायित्व (Stability in Economic Life)-आर्थिक प्रणाली तथा रोजगार स्तर में स्थिरता द्वारा सामाजिक कल्याण में वृद्धि होती है तथा जिन उपायों के द्वारा यह सम्भव है उन्हें वांछनीय माना जाता है।

5. भावी पीढ़ी पर प्रभाव (Effect on Future Generation)-भविष्य की नींव वर्तमान पर टिकी होती है। इसलिए राजस्व की नीतियाँ ऐसी होनी चाहिएँ कि अगली पीढ़ी का भविष्य सुरक्षित रहे। उदाहरण के लिए यदि सरकार भारी मात्रा में ऋण लेकर उसे अनुत्पादक कार्यों में खर्च करती है तो आगामी पीढ़ी पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।

अधिकतम सामाजिक लाभ के सिद्धान्त का महत्त्व

(Importance of Principle of Maximum Social Advantage)

अधिकतम सामाजिक लाभ के सिद्धान्त का व्यवहारिक प्रयोग कठिन है तथापि इसका अपना महत्व है जो कि निम्न प्रकार है

1 पूर्व सिद्धान्तों की तुलना में उत्तम (Better than Earlier Theories)-इस सिद्धान्त से पूर्व जो सिद्धान्त प्रचलित थे उनके अनुसार प्रत्येक कर बुरा होता है, सरकार को कम से कम व्यय करना चाहिए जबकि यह सिद्धान्त बताता है कि एक निश्चित सीमा तक कर लगाने तथा व्यय करने से सामाजिक कल्याण में वृद्धि होती है।

2.आर्थिक नीतियों का लक्ष्य (Objectives of Economic Policies)-इस सिद्धान्त से ही आर्थिक नीतियों का लक्ष्य निर्धारित किया जा सका तथा प्रत्येक राजस्व नीति का अन्तिम उद्देश्य अधिकतम सामाजिक लाभ निश्चित हो सका।

3. लाभ तथा लागत दोनों का महत्व (Importance to Both Cost and Benefit)-इस सिद्धान्त से पूर्व सरकार अपनी आय के अनुसार सन्तुलित बजट बनाती थी, किन्तु इसके बाद इस दृष्टिकोण में बदलाव आया तथा सरकार लाभ तथा लागत दोनों को ध्यान में रखकर अधिकतम सामाजिक कल्याण के लिए कार्य करने लगी।

4. सार्वजनिक व्यय का स्वरूप (Nature of Public Expenditure )-इस सिद्धान्त से पहले सार्वजनिक वयय को कम से कम करने का प्रयास किया जाता था, जबकि इस सिद्धान्त के बाद यह धारणा बदल गयी तथा सार्वजनिक व्यय, समाज की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर किया जाने लगा।

5. सामाजिक लाभ की माप सम्भव (Measurement of Social Benefit Possible)-कुछ परिस्थितियों में सामाजिक लाभ की माप सम्भव है, जबकि यह सर्वदा कठिन कार्य है। प्राक्रतिक आपदाः जैसे-बाढ़ नियन्त्रण पर किये गये खर्च से होने वाले लाभ का अनुमान आसानी से नहीं लगाया जा सकता

अधिकतम सामाजिक लाभ सिद्धान्त की आलोचना

(Criticism of Principle of Maximum Social Advantage)

अधिकतम सामाजिक लाभ का सिद्धान्त सैद्धान्तिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है, परन्तु व्यवहारिक नहीं है, क्योंकि इसकी व्यवहारिकता बहुत सीमित है जिस कारण से इसे लागू करने में बहुत कठिनाई । होती है जिनमें से कुछ कठिनाइयाँ निम्नवत् हैं

1 लाभ तथा त्याग का मापन सम्भव नहीं (The Measurement of Benefits and Sacrifice not Possible)-यह सिद्धान्त सीमान्त लाभ तथा सीमान्त त्याग पर आधारित है, जबकि व्यवहारिक रूप में इनका मापन सम्भव नहीं है, क्योंकि यह दोनों ही व्यक्तिगत विचार हैं, न कि वस्तुगत। अतः इनकी माप सम्भव नहीं है।

2. आय और व्यय का सम्बन्ध (Relation between Income and Expenditure)-जाती वित्त-व्यवस्था की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि उसमें प्रायः व्यय की राशि पहले निर्धाति है और फिर आय के साधन जटाये जाते हैं, किन्तु यदि आवश्यक मात्रा में कर प्राप् आनुपातिक रूप से व्यय में कटौती कर दी जाती है अथवा घाटे की वित्त-व्यवस्था पर अपनाया जाता है। आवश्यक मात्रा में कर प्राप्त हों तो या तो कभी-कभी ऋण लेकर भी कमी की पूर्ति कर ली जाती निक राज्य बजट सायों (मुद्रा स्फीति तथा ऋण) में कर भार या उपयोगिताओं का पता लगाना कठिन है। व्यय करने और प्र.

3. वर्तमान त्याग और भावी उपयोगिता की समP resent Sacrifice and Future Utility)-अनेक सार्वजनिक व्यय भविष्य अथवा दी आय तथा व्ययोण से किये जाते हैं। यह बात विकास वित्त पर विशेष रूप से लागू होती है। ऐसी स्थिति मनथा इसके द्वार-भार तत्काल पड़ता है। अतः भविष्यकालीन लाभ (जो विकास योजनाओं के पूरा होने पर प्राप करों के रूप में वर्तमान त्याग के बीच तुलना करना सम्भव नहीं हो पाता और फलस्वरूप अधिक जिक लाभ की धारणा काल्पनिक प्रतीत होने लगती है।

4.राजस्व क्रियाओं पर गैर-आर्थिक घटकों का प्रभाव (Effect of Nonc omic Factors on Fiscal Activities)-यदि हम यह भी मान लें कि उपयोगिता और त्याग का माप और उनकी तुलना सम्भव है तो भी इस सिद्धान्त के व्यावहारिक प्रयोग में कठिनाइयाँ आती हैं, क्योंकि राजस्व की क्रियाएँ अनेक गैर-आर्थिक, व्यक्तिगत और राजनैतिक घटकों से प्रभावित होती हैं।

निष्कर्ष (Conclusion)-इस सिद्धान्त की उपर्युक्त व्यावहारिक कठिनाइयों के कारण ही डाल्टन ने लिखा है. “यह सिद्धान्त सरल है. स्पष्ट और शोधपूर्ण है, लेकिन इसको व्यवहार में प्रयोग करना उतना ही कठिन है।” (The principle is obvious, simple and far reaching though its practical application is often very difficult).

परीक्षा हेतु सम्भावित महत्त्वपूर्ण प्रश्न

(Expected Important Questions for Examination)

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न (Long Answer Questions)

प्रश्न 1. “राजस्व की सर्वोत्तम प्रणाली वह है जिसके अन्तर्गत राज्य अपने कार्यों द्वारा अधिकतम सामाजिक लाभ प्राप्त कर सकता है।” इस कथन की पूर्ण व्याख्या कीजिये।

“The best use of public finance is that which secures the maximum social advantage from the operations which it conduct.” Explain fully.

प्रश्न 2. “सार्वजनिक व्यय और सार्वजनिक आय का आधारभूत सिद्धान्त अधिकतम सामाजिक लाभ है।” इस कथन को स्पष्ट कीजिये।

“The fundamental principle underlying public expenditure and public revenue is that of a maximum social advantage.”‘ Discuss the above statement.

प्रश्न 3. अधिकतम सामाजिक लाभ के सिद्धान्त को समझाइये। राज्य की वित्तीय क्रियाओं के लिये इसका क्या महत्त्व है ?

Explain the principle of Maximum Social Advantage. What is its importance to the state’s financial activities?

लघु उत्तरीय प्रश्न (Short Answer Questions)

प्रश्न 1. अधिकतम सामाजिक लाभ के सिद्धान्त के अनुसार कर भार का वितरण समाज के विभिन्न वर्गों पर किस प्रकार किया जाना चाहिये।

How tax burden should be allocated to various sections of society according to the principle of maximum social advantage.

प्रश्न 2. अधिकतम सामाजिक लाभ सिद्धान्त पर मसग्रेव के विचार बताइये।

State the view of Musgrave about the doctrine of maximum social advantage.

प्रश्न 3. अधिकतम सामाजिक लाभ की कसौटियाँ बताइये।

State the tests of maximum social advantage.

प्रश्न 4. अधिकतम सामाजिक लाभ के सिद्धान्त का महत्त्व बताइये।

State the importance of the principle of maximum social advantage.

प्रश्न 5. अधिकतम सामाजिक लाभ के सिद्धान्त की प्रमुख सीमाएँ क्या हैं ?

What are the main limitations of the principle of maximum social advantage?

 

chetansati

Admin

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