BCom 2nd year Principles Business Management Change Study Material notes in Hindi

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BCom 2nd year Principles Business Management Change Study Material notes in Hindi

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BCom 2nd year Principles Business Management Change Study Material notes in Hindi: Management of Change Meaning and Definition  Nature of Change Need to be Caused or Forces or Changes Process of Managing Change Process of Planned Change Resistance to Change Measures of Overcome to Resistance to Change Efforts for Managing Change Successfully Examination Question Long Answer Question Short Answer Question :

Change Study Material notes
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BCom 2nd Year Principles Business Management Leadership Study Material Notes in Hindi

 परिवर्तन का प्रबन्ध

[Management of Change]

परिवर्तन प्रकृति का नियम है (Change is the Law of Nature)। इस सत्यता का आभास हम कालचक्र पर दृष्टिपात करके कर सकते हैं। इतिहास समय-समय पर हुये परिवर्तनों का लेखा-जोखा ही तो होता है। इस संसार में कुछ चीजें नियमित व अटल हैं और उनमें से एक परिवर्तन भी है। जैसे-जैसे हम इतिहास के पन्नों को पलटते हैं, तो हम पाते हैं कि बीता हुआ कल आज से अलग था तथा यह महसूस करते हैं कि आने वाला कल आज से भिन्न होगा। ये सारी परिणति परिवर्तन के ही कारण होता है। गति जीवन का क्रम है तथा परिवर्तन गति की सार्थकता। सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक तथा तकनीकी आदि सभी क्षेत्रों में लगातार परिवर्तन हो रहे हैं, अत: उन परिवर्तनों के अनुरूप अपने आपको ढालना प्रगति के लिये अत्यन्त आवश्यक है। जीवन का यह सामान्य सा नियम प्रबन्ध पर भी लागू होता है। प्रबन्ध को गति प्रदान करने के लिए यह नितान्त आवश्यक है कि प्रबन्ध का कार्य करने वाले लोग परिवर्तन को समझें एवं उनके अनुरूप अपने को व्यवस्थित करें। व्यवसाय का समाज के विभिन्न वर्गों के प्रति उत्तरदायित्व तब तक पूरा नहीं होता जब तक वह परिवर्तन के साथ समायोजन न करे। अतः हम कह सकते हैं कि प्रत्येक उपक्रम को अपनी प्रगति व प्रभावशीलता को बनाये रखने के लिये परिवर्तन के साथ तालमेल बनाना जरूरी है।

परिवर्तन का अर्थ (Meaning of Changes परिवर्तन से आशय परम्परागत या प्राचीन के स्थान पर आधुनिकता या नवीनता के प्रचलन से है। एक संगठन अपने वातावरण के साथ निरन्तर अन्तरक्रियात्मक तथा अन्तरनिर्भरतापूर्ण रूप से सम्बन्धित होता है। इसे अपने वातावरण में होने वाले किसी भी परिवर्तन के अनुरूप अपनी आन्तरिक प्रणाली में परिवर्तन को समाहित करना पड़ता है। ये परिवर्तन उपभोक्ताओं की आदतों, प्राथमिकताओं, रुचियों, प्रतियोगिता की अवस्था, तकनीकी बदलाव, सरकारी नीतियों, औद्योगिक नीतियों इत्यादि से सम्बन्धित हो सकते हैं। परिवर्तन को | अपनाना अस्तित्व में बने रहने के लिये अनिवार्य है और परिवर्तनों के अनुसार अपने को ढालना | गतिशीलता व प्रगति का परिचायक है।

आज के प्रतियोगी युग में अनेक चुनौतियाँ प्रबन्धक. के सम्मुख होती हैं जो कि संगठनात्मक | परिवर्तन को अनिवार्य बना देती हैं। कभी-कभी प्रबन्धक स्वयं परिवर्तन नहीं करता अपित वह उस पर थोप दिया जाता है, जैसे सरकारी एवं औद्योगिक नीतियों में परिवर्तन जिसके कारण समायोजन करना जरूरी हो जाता है। भौतिक विज्ञान या रसायन विज्ञान के सिद्धान्त की तरह प्रबन्ध के सिद्धान्त कठोर नहीं होते हैं वरन् उनमें लोच होती है, इसलिये उनमें स्वयं, समय व परिस्थितियों के अनुरूप समयानुकूल परिवर्तन करना आवश्यक हो जाता है। प्रबन्धक को ‘परिवर्तन का एजेन्ट या परिवर्तक

हा जाता है। यह अचम्भे की बात है कि ‘परिवर्तन का एजेन्ट’ होते हुए भी प्रबन्धक को परिवर्तन प्रबन्ध में अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है।

चूँकि परिवर्तन लोगों की आदतों या प्रवृत्तियों को बदलता है, अतः जनसाधारण की प्रतिक्रियाएँ इसके पक्ष या विपक्ष में हो सकती हैं। यदि परिवर्तन उनके हित में तथा अनुकूल है तो वे उसका स्वागत करेंगे और इसके विपरीत, यदि प्रतिकूल है तो वे इसका विरोध करेंगे। प्रबन्धक की सफलता की कसौटी यही है कि वह परिवर्तन का प्रबन्ध सफलतापूर्वक करे।

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परिवर्तन प्रबन्ध : अर्थ एवं परिभाषा

(MANAGEMENT OF CHANGE : MEANING AND DEFINITIONS)

परिवर्तन के प्रबन्ध की अवधारणा का आशय उस व्यवस्था से है जिसमें परिवर्तनों को व्यावसायिक उपक्रमों में समायोजित किया जाता है तथा उपक्रम की सम्पूर्ण व्यवस्था को परिवर्तनों के अनुरूप बनाया जाता है। परिवर्तनों के अनुरूप व्यावसायिक उपक्रम का कार्य करना तथा प्रबन्ध व्यवस्था का संचालन करना ‘परिवर्तनों की अवधारणा’ कहलाती है। अत: किसी संस्था के आन्तरिक एव बाह्य वातावरण में हो रहे परिवर्तनों के कारण संस्था की स्थापित एवं विद्यमान कार्यप्रणाली में परिवर्तन करने पर विचार करना तथा उन्हें लागू करना ही परिवर्तन प्रबन्ध कहलाता है। जो व्यवसायिक संस्था परिवर्तनों के अनुरूप अपने आपको समायोजित करने में असमर्थ रहती हैं, वह सफलता प्राप्त नहीं कर सकती। निष्कर्ष रूप में, परिवर्तन प्रबन्ध वह कार्य या प्रक्रिया है जिसमें परिवर्तन के दुष्प्रभावों को कम करने तथा निष्पादन में वृद्धि करने की दृष्टि से संरचनात्मक, व्यवहारात्मक एवं प्रौद्योगिकीय परिवर्तनों को लाग किया जाता है।

परिवर्तन प्रबन्ध की महत्त्वपूर्ण परिभाषाएँ इस प्रकार हैं

Principles Business Management Change

1 इवेन्सविच के अनुसार, “परिवर्तन प्रबन्ध संगठन की संरचना, व्यवहार एवं प्रौद्योगिकी में परिवर्तन करके व्यक्तियों, समूहों एवं संस्था के समग्र निष्पादन के सुधार करने का एक नियोजित प्रयास है ।

2. सियालगी के अनुसार, “परिवर्तन-प्रबन्ध वह प्रक्रिया है जिसके अन्तर्गत सोच समझकर कुछ कार्यो, प्रक्रियाओं, लोगों में परिवर्तन या संशोधन करने का प्रयास किया जाता है, ताकि संस्था के अस्तित्व को सुरक्षित रखा जा सके।”

3. थॉमस एवं बेनिस के अनुसार, “किसी संरचनात्मक नवकरण, नई नीति, लक्ष्य या संचालकीय दर्शन, वातावरण एवं कार्य शैली में परिवर्तन की विचारपूर्वक रूपरेखा बनाना एवं उसे क्रियान्वित करना ही परिवर्तन-प्रबन्ध है।” परिवर्तन प्रबन्ध का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है। इसमें आन्तरिक एवं बाह्य वातावरण में हो रहे सभी परिवर्तनों को पहचानने तथा उन परिवर्तनों के अनुरूप संस्था की संरचना, तकनीक, कर्मचारियों एवं कार्यों में परिवर्तन करना सम्मिलित है। इस दृष्टि से “परिवर्तन प्रबन्ध वह व्यवस्थित या नियोजित प्रक्रिया है जिसके द्वारा संस्था के आन्तरिक एवं बाह्य वातावरण के परिवर्तनों का अध्ययन करके संस्था की संरचना, तकनीक, कार्यों तथा कर्मचारियों के व्यवहार तथा मूल्यों में आवश्यक परिवर्तन करने का व्यवस्थित प्रयास किया जाता है, ताकि संस्था को भावी आघातों या सदमों से बचाकर दीर्घकाल तक उसकी सफलता को सुनिश्चित किया जा सके।”

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परिवर्तन की प्रकृति

(Nature of Change)

परिवर्तन की प्रकृति की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

(1) परिवर्तन प्रकृति का नियम है (Change is the Rule of Nature)-परिवर्तन प्रकृति का । नियम है। इस संसार में सभी कुछ परिवर्तनशील है। मनुष्य को इन परिवर्तनशील परिस्थितियों एवं पर्यावरण के अनुसार अपने आपको समायोजित करते हुये कार्य करना पड़ता है। इसी प्रकार एक व्यावसायिक संस्था को भी इन परिवर्तनशील परिस्थितियों एवं पर्यावरण, चाहे वह आन्तरिक हों अथवा बाहरी, में अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिये कार्य करना पड़ता है। यह परिवर्तन अचानक ही नहीं अपितु प्रकृति के नियम के अनुसार होते हैं।

(2) नियोजित परिवर्तन (Planned Changes)-व्यावसायिक संस्था में परिवर्तन ऐसे होते हैं जोकि नियोजित होते हैं। उदाहरण के लिये, क्रियाओं में परिवर्तन, कार्यों में परिवर्तन, प्रक्रियाओं में परिवर्तन आदि। इनका उद्देश्य निर्धारित उद्देश्यों एवं लक्ष्यों को यथा शीघ्र एवं उत्तम विधि से प्राप्त करना होता है।

(3) परिवर्तन के कारण (Causes of Change)-परिवर्तन के अनेक कारण हो सकते हैं। कुछ परिवर्तन संगठनात्मक परिस्थितियों के कारण उत्पन्न होते हैं तो कुछ बाह्य परिस्थितियों के द्वारा संगठन पर लाद दिये जाते हैं, जैसे सरकारी नीतियों के द्वारा उत्पन्न होने वाले परिवर्तन। कई परिवर्तन सामाजिक आवश्यकताओं, समय की माँग, तकनीकी सुधार, वैज्ञानिक विकास, सामाजिक प्रगति, मानवीय प्रवृत्तियों, वैधानिक नियमों, सांस्कृतिक परिवेश तथा अन्तर्राष्ट्रीय बदलाव के कारण घटित होते हैं।

(4) परिवर्तन का मनुष्य द्वारा प्रतिरोध (Change is Resisted by Man)-मनुष्य परिवर्तन को सरलता से स्वीकार करने को तत्पर नहीं होता। जब भी कोई परिवर्तन होता है, वह उसका प्रतिरोध करता है। उदाहरण के लिये, एक संस्था में कार्यरत कर्मचारियों के कार्य स्थल में परिवर्तन, पद में परिवर्तन, कार्य-विधि में परिवर्तन, पारिश्रमिक में परिवर्तन, स्थानान्तरण, पदावनति आदि में परिवर्तन होते रहे हैं। मनुष्य द्वारा प्रतिरोध का मुख्य कारण एक निश्चित पर्यावरण या स्थान पर लम्बे समय तक कार्य करना होता है वह नये पर्यावरण में सरलता से कार्य करने को तत्पर नहीं होता। नये पर्यावरण के साथ समायोजन करने में समय लगता है।

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(5) परिवर्तन का उद्देश्य (Objective of Change)-परिवर्तन का मूलभूत उद्देश्य संगठन अथवा संस्था के लक्ष्यों को यथा शीघ्र सर्वश्रेष्ठ सम्भावित विधि से प्राप्त करना होता है।

(6) निरन्तर प्रक्रिया (Continuous Process)-परिवर्तन एक निरन्तर प्रक्रिया है जो निरन्तर चलती रहती है। इसे रोक पाना मानव-शक्ति के परे है।

(7) परिवर्तन में अनिश्चितता (Uncertainty in Change)-परिवर्तन भविष्य के लिये होत हैं। भविष्य अज्ञात है। कल क्या होने वाला है, कोई निश्चिततापूर्वक नहीं कह सकता। चूँकि परिवर्तन भविष्य के लिये होते है और भविष्य अनिश्चित है, अतएव परिवर्तनों में भी अनिश्चिता रहती है।

(8) परिवर्तन एक खतरा भी है और नहीं भी (Change is Danger)-यदि प्रबन्धक परिवर्तनों का पूर्वानुमान लगाने अथवा उनके अनुसार कार्य करने में असमर्थ रहता है तो वह समूचे संगठन के अस्तित्व एवं विकास के लिये खतरा बन सकता है। इसके विपरीत, यदि प्रबन्धक नवाचार एवं सृजनात्मक का समर्थक है और बाहरी पर्यावरण में क्या घटित हो रहा है-इसके बारे में समचित जानकारी रखता है तो परिवर्तन संगठन के विकास की असीम सम्भावनाएँ प्रस्तुत कर सकता है।

(9) परिवर्तन के तरीके (Ways of Change)-संगठन में परिवर्तन के तरीके समान न होकर अलग-अलग होते हैं; जैसे-संगठन संरचना में परिवर्तन, प्रौद्योगिकी में परिवर्तन, सेविवर्गीय नीति में परिवर्तन, कार्य करने की विधियों में परिवर्तन, बाजार के क्षेत्र में परिवर्तन, विक्रय-क्रय नीति में परिवर्तन, मोर्चाबन्दी में परिवर्तन आदि।

(10) परिवर्तन की गति एवं स्थिति में अन्तर (Change in the Speed and Degree)परिवर्तन सभी संगठनों में होते हैं, किन्तु इसकी गति एवं स्थिति समान न रहकर अलग-अलग होती है। कुछ संगठनों में बड़ी तेजी से परिवर्तन होते हैं, जबकि कुछ संगठनों में बड़ी धीमी गति से परिवर्तन होते हैं।

(11) परिवर्तन एक वास्तविकता है (Change is a Fact)-यदि देखा जाये तो परिवर्तन एक वास्तविकता है जिसे किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती है, क्योंकि हम इसे तुरन्त एवं निरन्तरता से अनुभव करते हैं। यह सम्भव है कि हम इसे पसन्द न करते हों, हमें यह पता भी न चले कि क्या परिवर्तन होने जा रहे हैं, हमें यह भी ज्ञात न हो कि परिवर्तन का सामना कैसे किया जा सकता है, परन्तु यह अटूट सत्यता है कि परिवर्तन एक वास्तविकता है।

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परिवर्तन प्रबन्ध की आवश्यकता, कारण अथवा शक्तियाँ

(NEED, CAUSES OR FORCES OF CHANGES)

जिस प्रकार परिवर्तन व्यक्ति के जीवन का एक अभिन्न अंग है, उसी प्रकार संगठन के जीवन से भी इसे पृथक् नहीं किया जा सकता है। इस सम्बन्ध में डबल्यू० बी० मिरिहा के अनुसार, “आधुनिक गतिशील संगठन में यदि कोई वस्तु स्थायी है तो वह परिवर्तन ही है।

परिवर्तन के बिना कोई संस्था प्रगति नहीं कर सकती है। संगठन में परिवर्तनों की आवश्यकता। अनेक कारणों से होती है। इन्हें निम्न दो श्रेणियों में बाँटकर अध्ययन किया जा सकता है

1 वातावरण सम्बन्धी कारण, तथा

2. आन्तरिक कारण

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प्रत्येक का विस्तृत वर्णन इस प्रकार है

1 बाह्य वातावरण सम्बन्धी कारण या शक्तियाँ (External Environmental Factors or Forces) प्रत्येक संस्था सम्पूर्ण वातावरण का एक हिस्सा होती है। सच यह है कि कोई भी संस्था अकेले में या शून्य (Vacuum) में कार्य नहीं करती है, वरन् वह बाह्य वातावरण से जुड़ी हुई होती है। प्रत्येक संस्था वातावरण की एक खली प्रणाली होती है, जो बाह्य वातावरण से सर्वाधिक रूप से प्रभावित होती है। बाह्य वातावरण के निम्नलिखित घटक परिवर्तनों को जन्म देते हैं

1 उपभोक्ता (Consumers)-उपभोक्ता संस्था के उत्पादों, उनकी किस्म, डिजाइन एवं वितरण को महत्त्वपूर्ण रूप से प्रभावित करता है। उपभोक्ता की प्रकृति, रुचियों, आवश्यकताओं, आय, आदतों आदि के फलस्वरूप व्यावसायिक संस्था को अपनी नीतियों एवं कार्यकलापों आदि में परिवर्तन करना पड़ता है।

2. आर्थिक दशाएँ (Economic Conditions)-बाह्य वातावरण की आर्थिक दशाएँ भी व्यवसासयिक संस्थाओं को अपनी नीतियों, कार्य-प्रणालियों, उत्पादन कार्यक्रमों आदि में परिवर्तन करने के लिये बाध्य कर देती हैं। इन दशाओं में मुख्य रूप से मुद्रा स्फीति, पूँजी निर्माण, मुद्रा अवमूल्यन, बचत की दर, ब्याज की दर, कीमतें, ऋण सुविधाएँ, आधारभूत संसाधन, अर्थव्यवस्था की अन्तर्राष्ट्रीय साख आदि को सम्मिलित किया जाता है।

3. सामाजिक एवं सांस्कृतिक दशाएँ (Social and Cultural Conditions)-सामाजिक एवं सांस्कृतिक दशाओं के अनुरूप भी प्रबन्धकों को अपनी संस्था में कई प्रकार के परिवर्तन करने पड़ते हैं। सामाजिक मूल्यों, परम्पराओं, सांस्कृतिक प्रतिमानों, लोगों की जीवन शैली, खान-पान, रूढ़ियों, उच्च जीवन की आकांक्षा, सामाजिक उत्थान आदि के कारण प्रबन्धकों को अपनी योजनाओं, उत्पादों, कार्य विधियों में कई समायोजन करने पड़ते हैं। अनेक दबाव समूहों-श्रम संघ, उपभोक्ता संघ, सामाजिक चेतना मंच आदि क्रियाओं के फलस्वरूप भी संगठनात्मक परिवर्तन आवश्यक हो जाते हैं।

4. प्रतिस्पर्धा का सामना (Faced to Competition)-परिवर्तन अथवा नवाचार प्रतिस्पर्धा की सन्तति है। अत्यधिक प्रतिस्पर्धा का सामना अथवा उसमें टिकने के लिये प्रबन्ध की कार्यप्रणालियों में परिवर्तन करना आवश्यक हो जाता है। इसी प्रकार प्रतिस्पर्धा का सामना करने के लिये जो भी नई-नई तकनीकें, व्यूहरचनाएँ, कार्यविधियाँ एवं व्यवस्थाएँ आयी हैं, उन्हीं के अनुरूप प्रबन्धकीय क्षेत्र में समायोजन करना पड़ता है। यदि प्रबन्ध ऐसा नहीं करता है अथवा आनाकानी करता है तो उसे कई समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है। अतः प्रतिस्पर्धा का सामना करने के लिये परिवर्तन-प्रबन्ध आवश्यक और महत्त्वपूर्ण है।

5. राजनीतिक तथा वैधानिक परिस्थितियाँ (Political and Legal Conditions)राजनीतिक तथा वैधानिक परिस्थितियाँ भी व्यावसायिक संस्थाओं को महत्त्वपूर्ण रूप से प्रभावित करती हैं। सरकार की औद्योगिक नीति, लाइसेन्सिंग नीति, आयात-निर्यात नीति, वित्तीय नीति आदि का व्यवसाय पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। सरकार द्वारा बनाये गये आर्थिक, व्यापारिक एवं औद्योगिक कानूनों (उपभोक्ता संरक्षण कानून, एकाधिकारी कानून, कारखाना अधिनियम, औद्योगिक विवाद अधिनियम, कम्पनी अधिनियम) आदि का व्यावसायिक संस्थाओं को पालन करना पड़ता है। अतः इन नीतियों, नियमों एवं कानूनों में परिवर्तन के कारण प्रबन्धकों को भी अपनी संस्थाओं में कई महत्त्वपूर्ण परिवर्तन करने पड़ जाते हैं।

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6. तकनीकी कारण (Technical Causes)-तकनीकी कारणों या शक्तियों से प्रभावित होकर भी प्रबन्धकों को संस्था में अनेक परिवर्तन करने पड़ते हैं। तकनीकी शक्तियों के परिणामस्वरूप आज निम्नलिखित परिवर्तन परिलक्षित हो रहे हैं

1 नवीन यन्त्रों का विकास।

2. उत्पादन प्रक्रिया में स्वचालित यन्त्रों का उपयोग।

3. कम्प्यूटरीकृत उत्पादन नियन्त्रण प्रक्रिया का प्रचलन।

4. कृत्रिम मानव (Robot) का उपयोग।

5. जीवन में अधिक आरामदायी एवं सुविधाजनक यन्त्रों का उपयोग (Washing machines, vacuum cleaners, cooking ranges etc.)

4. उच्च जीवनस्तर एवं आनन्ददायी उपकरणों (Air-conditioners, T.V., V.C.R., and Videogames etc.) का प्रचलन।

5. नये सूचना एवं परिवहन संसाधनों (STD Telephone Services, Fax Services, Courier Services, Air Taxi Services) का विकास।

6. कार्यालय प्रबन्ध के लिये नवीन स्वचालित यन्त्रों का विकास आदि।

7. नये प्रकार के कच्चे माल (Petro chemicals) का उपयोग।

8. शक्ति के नवीन संसाधनों (Solar energy, LP Gas, Atomic energy etc.) का विकास एवं प्रचलन।

ये तो कुछ उदाहरण हैं। अब तकनीकी परिवर्तन अत्यन्त व्यापक स्तर पर हो रहे हैं। इनमें परिवर्तन होने से प्रबन्धकों को अपनी संस्था की उत्पादन प्रणाली, कार्य प्रणाली, नीतियों, नियमों, कर्मचारियों आदि में परिवर्तन करने की आवश्यकता पड़ रही है।

7. संस्थाओं का बढ़ता हआ आकार (Increasing Size of Institution)-वतमान युग म व्यावसायिक संस्थाओं का आकार भी दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। विशिष्टीकरण के कारण तकनीकी जटिलता भी बढ़ रही है। इसी कारण संस्था के सभी विभागों की अन्तर्निर्भरता भी बढ़ती जा रही है। कोई भी विभाग अपने सभी कार्यों को दूसरे विभागों का सहयोग लिये बिना पूरा नहीं कर सकता है। अतः सभी व्यक्तियों एवं विभागों के बीच अधिक समूह भावना एवं समन्वय की आवश्यकता पड़ने लगी है। ऐसी स्थिति में प्रबन्धकों को भी अपनी नीतियों एवं कार्यप्रणाली एवं संगठन संरचना में परिवर्तन करना पड़ता है।

8. संयोजनों की बढ़ती प्रवृत्ति (Increasing Trend of Combinations)-वर्तमान युग में व्यावसायिक जगत में संयोजनों की प्रवृत्ति बढ़ रही है। संस्थाओं के सम्मिश्रण, विलियन एवं अधिग्रहण (Amalgamation, Merger and Takeover) की प्रवृत्ति बढ़ रही है। इनके परिणामस्वरूप संस्था के स्वामित्व में भी परिवर्तन हो जाता है। अतः प्रबन्धकों को नवीन स्वामित्व के दृष्टिकोण से ही अपनी कार्य शैली में परिवर्तन करना पड़ जाता है।

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9. पूँजी बाजार की दशाएँ (Conditions of Capital Market)-वर्तमान समय में पूंजी बाजार की दशाएँ बदलती जा रही हैं। पूँजी बाजार अन्तर्राष्ट्रीय हो गया है। प्रतिभूतियों के निर्गमन, उनके मल्यों में उतार-चढाव आदि के नियमन की नित नई व्यवस्थाएँ की जा रही हैं। पूँजी बाजार में ‘पारदर्शिता’ एवं ‘त्वरित सूचना सम्प्रेषण’ की आवश्यकता भी बढ़ गई है। अत: संगठनात्मक परिवर्तन आवश्यक हो गये हैं।

10. उदारीकरण एवं भूमण्डलीकरण (Liberalisation and Globalisation)-वर्तमान युग उदारीकरण एवं भूमण्डलीकरण का युग है। सभी देश इसी दिशा में दौड़ लगा रहे हैं। फलत: संगठनात्मक परिवर्तन अनिवार्य हो गये हैं।

इस प्रकार स्पष्ट है कि बाह्य वातावरण के इन तत्त्वों या शक्तियों में परिवर्तन होने के कारण व्यवसाय में अनेक परिवर्तन करने की आवश्यकता अनुभव होती है। फलतः प्रबन्धकों को वातावरण की शक्तियों से प्रेरित होकर अनेक परिवर्तनों का प्रबन्ध करना पड़ता है।

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1 आन्तरिक कारण (Internal Causes)

किसी संस्था के कार्य संचालन एवं प्रबन्ध से सम्बन्धित पहलुओं में होने वाले परिवर्तनों को आन्तरिक परिवर्तन कहते हैं। संस्था की आन्तरिक परिस्थितियों में परिवर्तन होने के कारण भी प्रबन्धकों को कई परिवर्तन करने के लिये बाध्य होना पड़ता है। परिवर्तन के कुछ प्रमुख आन्तरिक कारण निम्नानुसार हैं

(1) संस्था की नीतियों में परिवर्तन (Changes in Policies)-संस्था की नीतियों में परिवर्तन। “रणामस्वरूप भी सम्पूर्ण संस्था में परिवर्तन करना पड़ जाता है। नये बाजार में प्रवेश करने या न करने की नीति, उत्पादन क्षमता में विस्तार या संकचन की नीति कर्मचारियों के सम्बन्ध मनात, मूल्य निर्धारण सम्बन्धी नीति आदि में परिवर्तन होने पर सम्पर्ण संस्था में अनेक प्रकार के परिवर्तन करने पड़ जाते हैं।

(2) कार्यों की प्रकृति में परिवर्तन (Change in Nature of Work or Task)-तकनीकी परिवर्तनों के कारण न केवल यन्त्रों एवं उपकरणों में ही परिवर्तन हुआ है, बल्कि उन कार्यों की प्रकृति तथा प्रक्रिया में भी परिवर्तन आ गया है। जो कार्य पहले हाथ से करने पड़ते थे, वे यन्त्रों तथा उपकरणों की सहायता से किये जाने लगे हैं। इन कार्यों को करने में अब तकनीकी ज्ञान एवं प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है। फलतः कार्यों की प्रकृति से उत्पन्न परिवर्तनों के लिये भी प्रबन्धकों को अनेक परिवर्तन करने पड़ जाते हैं।

(3) कर्मचारियों तथा प्रबन्धकों में परिवर्तनसंस्था में प्रबन्धकों एवं कर्मचारियों में परिवर्तन होता ही रहता है। कभी तकनीक में परिवर्तन के कारण नये प्रबन्धकों तथा कर्मचारियों की भर्ती करनी पड़ती है। कभी-कभी प्रशिक्षण, पदोन्नति, स्थानान्तरण, पद-मुक्ति आदि के कारण भी प्रबन्धकों तथा कर्मचारियों में परिवर्तन हो जाता है। संस्थाओं के कर्मचारियों में अन्य प्रकार से भी परिवर्तन हो रहे हैं, जो निम्नानुसार हैं

(i) महिला कर्मचारियों की संख्या बढ़ रही है।

(ii) शिक्षित एवं प्रशिक्षित कर्मचारियों की संख्या बढ़ रही है अर्थात् मजदूरों (Blue collar employees) की अपेक्षा कर्मचारियों (White collar employees) की संख्या बढ़ रही है। ऐसा तकनीक परिवर्तन के कारण हो रहा है।

(iii) कर्मचारियों की इच्छाओं में परिवर्तन हो रहा है। इनमें परिवर्तन के साथ-साथ संस्था में विचार एवं नीतियाँ भी परिवर्तित होती हैं, आपसी सम्बन्धों में भी परिवर्तन आता है। अत: प्रबन्धकों को सम्पूर्ण संस्था में आवश्यक परिवर्तनों की व्यवस्था करनी पड़ती है।

(4) गतिशीलता प्राप्त करना (To Achieve Dynamism)-संस्था को निरन्तर गतिशील, सृजनात्मक, नवीन तथा लोचपूर्ण बनाये रखना अति आवश्यक होता है। जड़ता से संस्थाएँ अलाभप्रद हो जाती हैं। अत: ‘गत्यात्मक साम्य’ बनाये रखने के लिये कई परिवर्तन करने आवश्यक होते हैं।

(5) आन्तरिक प्रगति एवं विकास (Internal Growth and Development)-संस्था के निरन्तर विकास, प्रगति एवं नवप्रवर्तन के कारण भी प्रबन्धकों को कई परिवर्तन करने होते हैं। ये परिवर्तन वित्त, विनियोग, बाजार, स्थायित्व, पूर्वानुमान तकनीकों, लाइसेन्सिंग क्षमता, विदेशी विनिमय, प्रबन्धकीय कौशल आदि से सम्बन्धित हो सकते हैं।

(6) संगठन संरचना में दोष (Defects in Organization Structure)-प्रबन्धकों एवं कर्मचारियों के आपसी सम्बन्धों के ढाँचे में कछ कमियाँ उत्पन्न हो जाने पर उन्हें दूर करना आवश्यक होता है। प्रबन्धकीय स्तरों में वृद्धि, अधिकारों एवं दायित्वों के असन्तुलन, नियन्त्रण में वृद्धि, विकृत सम्प्रेषण प्रणाली, समन्वय में कठिनाई, रेखा व स्टाफ अधिकारियों में तनाव. अत्यधिक केन्द्रीकरण आदि समस्याओं के कारण भी संगठन संरचना में कुछ दोष उत्पन्न हो जाते हैं। अत: इन्हें दूर करने के लिये संगठन ढाँचे में परिवर्तन जरूरी होते हैं।

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परिवर्तन प्रबन्ध प्रक्रिया

(PROCESS OF MANAGING CHANGE)

अथवा

नियोजित परिवर्तन प्रक्रिया

PROCESS OF PLANNED CHANGE)

नियोजित परिवर्तन का अर्थ (Meaning of Planned Change)

‘नियोजित परिवर्तन’ शब्द दो शब्दों के योग से बना है जिसमें प्रथम शब्द ‘नियोजित’ एवं नीय शब्द ‘परिवर्तन’ है। प्रथम शब्द नियोजित का अर्थ जिन कम्पनियों/उद्योगों या निगमों के भागों तथा उप-विभागों में प्रत्येक चार-पाँच वर्ष के बाद एक बार संगठनात्मक परिवर्तनों को मोच-समझकर उसके अनुसार उद्देश्यों, नीतियों एवं कार्यक्रमों को तैयार करने से है। द्वितीय शब्द का अर्थ सम्पूर्ण कार्य वातावरण में उत्पन्न हए ऐसे परिवर्तन से है जो कि संगठन के ढांचे से सम्बन्धित हो। इस प्रकार संयोजित रूप में नियोजित परिवर्तन का अर्थ संस्था के किसी विभाग या उप-विभाग में वर्ष में एक बार एवं प्रत्येक चार-पाँच वर्ष के पश्चात् हुये ऐसे परिवर्तन से है जो कि संगठनात्मक ढाँचे से सम्बन्धित हो।

नियोजित परिवर्तन की विशेषताएँ (Characteristics) निम्नलिखित हैं

1 यह संगठनात्मक अस्तित्व के लिये एक चुनौती है।

2. इसमें केवल कभी-कभी हुए या होने वाले परिवर्तनों को शामिल किया जाता है।

3. यह परिवर्तन के अनुसार ही संस्था के उद्देश्य, नीतियाँ एवं कार्यक्रम तैयार करता है।

4. इसमें वे परिवर्तन ही शामिल किये जाते हैं, जिनका सम्बन्ध संगठनात्मक ढाँचे से होता है।

5. यह पुराने का स्थान नवीनता को प्रदान करता है।

6. ऐसे परिवर्तन के लिये प्रबन्धक की दरदर्शिता एवं सहभागिता का होना नितान्त आवश्यक परिवर्तनों का प्रबन्ध एक व्यवस्थित एवं क्रमबद्ध प्रक्रिया है, जो पूर्व नियोजित होती है। इस प्रक्रिया को प्राय: निम्नलिखित चरणों में पूरा किया जाता है

(1) परिवर्तनों के कारणों को ज्ञात करना (Knowing the Causes of Change)-किसा भा संस्था में परिवर्तन की आवश्यकता किन्हीं विशेष कारणों से ही उत्पन्न होती है। अत: प्रबन्धक को सर्वप्रथम उन कारणों/घटकों/तत्त्वों या शक्तियों (Forces) का पता लगाना चाहिये जिनके कारण संस्था में परिवर्तन की आवश्यकता है।

परिवर्तन के लिये प्रमुखत: (i) आन्तरिक कारण, (ii) बाह्य कारण उत्तरदायी होते हैं। आन्तरिक कारण संस्था की आन्तरिक परिस्थितियों से उत्पन्न होते हैं, जबकि बाह्य कारण बाह्य वातावरण की परिस्थितियों के कारण तथा तकनीकी परिवर्तनों के कारण उत्पन्न होते हैं। प्रत्येक प्रबन्धक को संस्था में किसी परिवर्तन पर विचार करने से पूर्व उसके कारणों को भली प्रकार ज्ञात करना चाहिये। इन कारणों का ठीक से ज्ञान होने पर ही परिवर्तनों को प्रभावपूर्ण ढंग से लागू किया जा सकता है।

(2) परिवर्तनकारी शक्तियों का विश्लेषण करना (Analysing the Forces for Changes)-कुर्त लेविन (Kurt Lewin) के अनुसार संस्था में प्रत्येक समय पर दो शक्तियाँ–ताकतें कार्य करती हैं-(i) प्रेरक शक्तियाँ (Driving Forces) तथा प्रतिरोधक शक्तियाँ (Restraining Forces) प्रेरक शक्तियाँ परिवर्तनों को लाग करने में सहायक होती हैं. जबकि प्रतिरोधक शक्तियाँ परिवर्तनों का विरोध करती हैं।

अत: प्रबन्धक को इन शक्तियों के बल का मापन करना चाहिये। प्रबन्धक को संक्षेप में निम्नलिखित बातों को ज्ञात कर लेना चाहिये

(i) परिवर्तन का क्रियान्वयन कहाँ किया जायेगा ? (ii) परिवर्तन से संस्था के कितने सदस्य प्रभावित होंगे? (iii) परिवर्तन की प्रभावपूर्ण योजना बनाने के लिये कौन उपयुक्त सूचना रखते हैं ? (iv) परिवर्तन का समर्थन करने वाले व्यक्ति कौन हैं ? (v) परिवर्तन की प्रतिरोधक शक्तियाँ क्या हैं ? | (vi) परिवर्तन की सम्भावित जोखिम एवं लाभ क्या हैं ?

(3) परिवर्तन की योजना का निर्माण (Preparing Plan for Change)-परिवर्तन के कारणों तथा परिवर्तन को प्रभावित करने वाली शक्तियों को ध्यान में रखते हुये ही प्रबन्धकों को अब परिवर्तनों की योजना बनानी चाहिये।

प्राय: संस्था में तीन प्रकार के परिवर्तन करने पड़ते हैं-(i) संगठन संरचना में परिवर्तन, (ii) तकनीक में परिवर्तन, तथा (ii) कर्मचारियों में परिवर्तन। प्रबन्धक एक समय पर इनमें से किसी भी परिवर्तन की योजना बना सकते हैं, किन्तु उन्हें एक में परिवर्तन से दूसरे पर पड़ने वाले प्रभावों को ना तथा उन्हें सहभाप्राप्त करना चाहपरिवर्तन की प्रक्रिया अवश्य ध्यान में रखना चाहिये। इसके अतिरिक्त, परिवर्तन की योजना के निर्माण के समय। निम्नलिखित बातों पर भी ध्यान देना चाहिये

(i) वैकल्पिक परिवर्तनों पर विचार करना चाहिये। (ii) परिवर्तन करने या न करने के प्रभावों का पूर्वानुमान करना चाहिये। (iii) कर्मचारियों से परामर्श करना तथा उन्हें सहभागिता देनी चाहिये। । (iv) परिवर्तन के लिये आवश्यक साधन एवं सहयोग प्राप्त करना चाहिये।

(4) परिवर्तन लाग करना (Implementation of Change)-नयाजित पारवतन का प्राक्रया म अगला कदम परिवर्तन को लाग करना है. लेकिन ये बातें ध्यान में रखना होगा हैं ।

(i) प्रबन्ध द्वारा सभी कर्मचारियों को परिवर्तन आवश्यकता एवं उनसे होने वाले लाभों की जानकारी देनी चाहिये।

(ii) कर्मचारियों को सहयोग देने की अपील करनी चाहिये। (iii) कर्मचारियों की समस्याएँ एवं शंकाएँ दूर करनी चाहिएँ। (iv) प्रबन्धकों को दूरदर्शिता एवं सहभागिता को आधार बनाना चाहिये।

(5) मूल्याँकन एवं प्रतिपुष्टि (Evaluation and Feedback)-यह परिवर्तन प्रबन्ध की प्रक्रिया का अन्तिम कदम है। इसमें प्रबन्धक यह ज्ञात करते हैं कि परिवर्तन कार्यक्रम नियोजित रूप से किया जा रहा है अथवा नहीं एवं क्या इससे अपेक्षित परिणाम प्राप्त हुये हैं। यदि निर्धारित कार्यक्रम एवं परिणामों में कोई अन्तर पाया जाता है तो प्रबन्धकों को परिवर्तन कार्यक्रम में सुधार एवं संशोधन करना चाहिये। अन्त में, परिवर्तनों को प्रभावों तथा परिणामों के मूल्यांकन के आधार पर प्रबन्धकों को प्रतिपुष्टि के रूप में सम्बन्धित सूचनाएँ परिवर्तन नियोजक को देनी चाहिएँ।

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परिवर्तन का प्रतिरोध

(RESISTANCE TO CHANGE)

व्यावसायिक अथवा औद्योगिक जीवन में परिवर्तन का होना एक सहज बात है। कई लोग परिवर्तन को एक चुनौती, अवसर या शिक्षण (Learning) के रूप में स्वीकार कर लेते हैं, किन्तु दूसरी ओर अनेक कारणों से परिवर्तन का प्रतिरोध भी किया जाता है। यदि देखा जाये तो परिवर्तनों के प्रतिरोध का मूलभूत कारण ‘यथा स्थिति’ (‘Status quo’) बनाये रखने की इच्छा है, क्योंकि ‘यथा स्थिति’ सुरक्षा की द्योतक मानी जाती है। परिवर्तन के फलस्वरूप ‘यथा स्थिति’ में बदलाव आ जाता है जोकि सुरक्षा के लिये संकट उत्पन्न कर देता है। जो लोग इससे प्रभावित होते हैं अथवा उनके प्रभावित होने की सम्भावना रहती है वे सुरक्षा की दृष्टि से परिवर्तन का प्रतिरोध करते हैं।

संकुचित अर्थ में, परिवर्तन के प्रतिरोध से आशय कर्मचारी के ऐसे प्रतिक्रियात्मक अथवा सुरक्षात्मक व्यवहार से है जिसके अन्तर्गत परिवर्तन को अर्थहीन या उसे रोकने का प्रयास किया जाता है। किन्तु विस्तृत अर्थ में परिवर्तन करने की स्थिति में परिवर्तन से प्रभावित होने वाले व्यक्तियों में एक प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है। प्रतिक्रियास्वरूप ये व्यक्ति इस प्रकार के व्यवहार को अपनाते हैं, जिससे कि अपने आप को परिवर्तन के वास्तविक अथवा कल्पित प्रभाव से रक्षा अथवा बचाव कर सकें। अतः प्रतिक्रिया-जनित इस व्यवहार को प्रतिरोध के नाम से जाना जाता है।

परिवर्तन/परिवर्तनों के प्रतिरोध में निम्नलिखित विशेषताएँ (Characteristics) देखी जा सकती

1 परिवर्तन का प्रतिरोध एक प्रतिक्रियास्वरूप होता है। _

2. परिवर्तन एवं प्रतिरोध का चोली-दामन का साथ है। अतः प्रबन्धकों को उन्हें प्राकृतिक मानना चाहिये एवं सामान्य रूप से भी लेना चाहिये।

3. परिवर्तन प्रभावित व्यक्तियों के लिये लाभदायक या हानिकारक है, से कोई सम्बन्ध नहीं होता है।

4. प्रतिरोध का आभास किसी व्यक्ति के द्वारा किये जाने वाले कार्यों या क्रियाओं से न कर उसके व्यवहार में निहित संरक्षी (Protective) क्रियाओं से किया जाता है।

5. प्रतिरोध का क्षेत्र काफी व्यापक है, क्योंकि

(i) प्रतिरोध कर्मचारियों के अतिरिक्त प्रबन्धकों, ग्राहकों, माल के स्मरणकर्ताओं, सरकार। अथवा जन-सामान्य किसी की ओर से भी हो सकता है, एवं

(ii) प्रतिरोध सभी देशों की व्यवस्थाओं में हो सकता है।

6. परिवर्तनों का प्रतिरोध वैयक्तिक, भावनात्मक, विवेकपूर्ण एवं सामूहिक आधार पर हो सकता है।

7. प्रतिरोध की प्रतिक्रिया सभी व्यक्तियों की समान अथवा एक जैसी नहीं होती है, क्योंकि अलग-अलग व्यक्ति परिवर्तन को अलग-अलग दृष्टिकोण से देखते हैं।

8. प्रतिरोध एक स्वाभाविक क्रिया है। अत: इसे न तो दबाने का प्रयास करना चाहिये एवं न ही उसका विरोध करना चाहिये।

9. प्रतिरोध की सीमा न्यूनतम से लेकर अधिकतम हो सकती है। ।

10. यह भेड़-चाल’ विरोध व्यवहार में अधिक देखने को मिलती है अर्थात् कई बार कुछ लोग इसलिये प्रतिरोध करते हैं, क्योंकि अन्य लोग ऐसा कर रहे हैं।

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परिवर्तनों के प्रतिरोध के कारण (Causes of Resistance of Changes)

अथवा

व्यक्ति परिवर्तन का प्रतिरोध क्यों करते हैं (Why the People Resist Change)

परिवर्तन के प्रतिरोध के प्रमुख घटक निम्नलिखित हैं

(1) कार्य से सम्बन्धित घटक (Work-related Factors) कार्य से जुड़े अनेक घटक हैं जो कर्मचारियों को किसी सम्भावित परिवर्तन का विरोध करने के लिये प्रेरित करते हैं। इन घटकों में मुख्य रूप से निम्न को सम्मिलित किया जा सकता है

(i) तकनीकी बेरोजगारी फैलने का डर।

(ii) कार्य वातावरण एवं कार्य की दशाओं में परिवर्तन का डर।

(iii) पदावनति एवं आधारभूत मजदूरी में कमी हो जाने का डर।

(iv) कार्य की गति बढ़ जाने (Work speedup) तथा प्रेरणात्मक मजदूरी में कमी हो जाने का डर।

(v) कार्य का आर्थिक मूल्य कम हो जाने का डर।

(vi) पदोन्नति का मार्ग बन्द हो जाने का डर।

(vii) जटिल एवं खतरनाक उपकरणों का उपयोग बढ़ जाने का डर; जैसे नवीन स्वचालित यन्त्रों व कम्प्यूटरों का विरोध किया जाना।

(viii) भत्ते व आय में कटौती की सम्भावना।

(ix) कार्य पर अधिकारियों का नियन्त्रण बढ़ जाना तथा कर्मचारियों की स्वतन्त्रता छिन जाना। निकट निरीक्षण बढ़ जाना।

(x) कार्य-भार एवं दायित्वों में वृद्धि हो जाने का डर। उपरोक्त सभी कारणों से कर्मचारी परिवर्तनों का विरोध करने लगते हैं।

(2) सामाजिक घटक (Social Factors)-यदि व्यक्ति यह महसूस करने लगे कि परिवर्तन स्थापित सामाजिक मूल्यों, मानदण्डों, मान्यताओं एवं सम्बन्धों का विनाश करेगा तो प्रतिरोध उत्पन्न होता है। इस प्रकार समूह हित एवं सामाजिक मूल्य वे आधार हैं जिनके कारण परिवर्तन का प्रतिरोध होता है।

परिवर्तनों के प्रतिरोध के सामाजिक कारण निम्नलिखित हैं

(i) सामान्यतः व्यक्ति अपने विद्यमान अन्तर्वैयक्तिक सम्बन्धों को बनाये रखना चाहता है, किन्तु परिवर्तनों के लागू करने से उनके समाप्त होने का भय बना रहता है।

(ii) श्रम संघ की नीतियाँ, मान्यताओं एवं हितों के विरूद्ध परिवर्तन।

(iii) प्रबन्धकों का उदारवादी के स्थान पर संकुचित दृष्टिकोण।

(iv) सहभागिता का अभाव ।

(v) नये सामाजिक समायोजन करने की इच्छा।

(vi) वर्तमान सामाजिक सम्बन्धों तथा बन्धनों के टूटने की आशंका।

(vii) बाह्य व्यक्तियों के हस्तक्षेप में वृद्धि की आशंका।

(viii) परिवर्तन में सहभागिता के अभाव के कारण उत्पन्न खिन्नता।

(3) वैयक्तिक घटक (Individual Factors)-कुछ वैयक्तिक कारणों अथवा व्यक्तित्व से जुड़ हुए घटकों के कारण भी परिवर्तनों का प्रतिरोध किया जाता है। इन कारणों में निम्नलिखित को। सम्मिलित किया जाता है

(i) कभी-कभी व्यक्ति अपनी वैयक्तिक कार्य प्रणाली एवं जीवन शैली में बाधा पड़ने के कारण भी अधिकार, शक्तियाँ एवं पदोन्नति प्राप्त करने से इन्कार कर देते हैं। नये कार्य को सीखने की असुविधा भी इसमें प्रमुख है। (ii) प्रत्येक परिवर्तन अनिश्चितता की जोखिम एवं डर उत्पन्न करता है। नये कार्यों में नयी चुनौतियाँ, कठिनाइयाँ तथा नयी जोखिमें होती हैं। इससे विद्यमान सुरक्षा को खतरा उत्पन्न हो जाता है। व्यक्ति नये कार्यों को करने का साहस नहीं जटा पाते हैं तथा उनका प्रतिरोध करते हैं।

(iii) कभी-कभी परिवर्तनों से कर्मचारियों के अधिकार, शक्तियाँ, साधन, कार्य स्वतन्त्रता. महत्वपूर्ण पद, प्रतिष्ठा आदि में कमी हो जाने का भय बना रहता है। अतः वे परिवर्तन का प्रतिरोध करते हैं।

(iv) कुछ परिस्थितियों में कर्मचारी परिवर्तनों के प्रभावों का सही मूल्याँकन नहीं कर पाते हैं। तथा प्रभावों को समझे बिना ही उनका प्रतिरोध करना प्रारम्भ कर देते हैं।

(v) कुछ लोग परिवर्तन स्वीकार करने की क्षमता को खो चुके होते हैं। इसके प्रमुख कारण वृद्धावस्था, मानसिक जड़ता, पुराने के साथ गहन अभ्यस्तता, भावनात्मक सम्बन्ध आदि होते हैं।

(vi) नये परिवर्तन के फलस्वरूप कर्मचारी को अधिक परिश्रम करने की आवश्यकता हो सकती है। फलत: उनका प्रतिरोध शुरू हो जाता है।

(vii) नये परिवर्तन के कारण कार्य में अधिक विशिष्टीकरण बढ़ जाने से नीरसता व ऊब बढ़ जाती है तथा वैयक्तिक महत्त्व घट जाता है। अत: यह भी प्रतिरोध का एक कारण बन जाता है।

(viii) कभी-कभी नयी कार्य-स्थिति के लिये कर्मचारी को पुनः प्रशिक्षण प्राप्त कर अपनी योग्यता व कौशल में वृद्धि करनी होती है। अत: कर्मचारी परिवर्तन से बचने लगते हैं।

(ix) परिवर्तन के कारण व्यक्ति को कई पुरानी आदतों को तिलांजलि देनी होती है, अत: इस कारण भी प्रतिरोध उत्पन्न होता है।

परिवर्तनों के प्रतिरोध के उपर्युक्त कारणों के अतिरिक्त कभीकभी परिवर्तनों का संगठन द्वारा भी प्रतिरोध (Resistance by Organization) किया जाता है, जिसके निम्नलिखित कारण हैं

1 संसाधनों की सीमितता (Limitation of Resources)-एक संगठन को परिवर्तित वातावरण के साथ अनुकूलशीलता स्थापित करनी चाहिये। लेकिन ऐसा करने पर संस्था को खर्च करना पड़ता है। इसके अतिरिक्त बहुत-सी संस्थाएँ तो इन खचों को सहन करने की क्षमता भी नहीं रखता है। ऐसी दशा में वे परिवर्तन का प्रतिरोध करती हैं।

2. अन्तरसंस्थागत समझौते (Inter-organizational Agreement)-कई बार एक संस्था द्वारा दसरी संस्था के साथ किये गये समझौते भी परिवर्तन के प्रतिरोध का कारण बन जाते हैं। ऐसी दशा में परिवर्तन को लागू करने से पूर्व उसे दूसरे संगठन के साथ किये गये समझौतों पर विचार करना आवश्यक है।

3. संगठनात्मक ढाँचा (Oganizational Structure)-समय एवं परिस्थितियों के बदलते हुये स्था अपने संगठनात्मक ढांचे में परिवर्तन करती है, वह भी प्रतिरोध का आधार हो जाता है। जैसे-नौकरशाही वाला ढाँचा। आज के नवाचार संगठनात्मक ढाँचे में इस ढाँचे का प्रतिरोध किया। जाता है।

4. अप्रचलन की लागत (Cost of Out of Date)-यदि एक संगठन एक बड़ी राशि स्थायी सापत्तियाँ तथा मानवीय संसाधनों में विनियोजित करता है, जिसका लाभ लम्बी अवधि तक संस्था उठाती है। परिवर्तन के आने से ये सम्पत्तियाँ एवं मानवीय संसाधन प्रचलन के योग्य नहीं रह पाते।। परिणामत: संगठन को इसकी एक बड़ी लागत भुगतनी पड़ती है। इन सब कारणों से परिवर्तन का प्रतिरोध किया जाता है।

परिवर्तन प्रतिरोध को कम करने के उपाय

(MEASURES OF OVERCOME TO RESISTANCE TO CHANGE)

अथवा

सफल परिवर्तनप्रबन्ध के लिये प्रयास

YEFFORTS FOR MANAGING CHANGE SUCCESSFULLY)

परिवर्तन प्रतिरोध की दशा में जहाँ एक ओर संस्था का वातावरण दूषित होता है वहीं दूसरी ओर व्यक्तियों में तनाव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। अत: इन दुष्परिणामों को रोकने के लिये उपाय किये जाने आवश्यक हैं। परिवर्तन प्रतिरोध को कम करने के प्रमुख उपाय निम्नलिखित हैं

 (1) परिवर्तनों की सही जानकारी (Correct Information About Changes)-प्राय: यह देखा गया है कि अधिकांशत: लोग परिवर्तन का प्रतिरोध इस कारण करते हैं, क्योंकि वह उनकी समझ में नहीं आता। वे नहीं जानते कि परिवर्तन का स्वरूप क्या है ? एवं उसके क्या परिणाम होंगे? अतः प्रबन्ध का यह कर्त्तव्य है कि वह परिवर्तन को कार्यान्वित करने से पूर्व परिवर्तन की आवश्यकता, स्वरूप एवं परिणामों के बारे में कर्मचारियों को व्यापक जानकारी प्रदान करे। इसके लिये उपक्रम में प्रभावी सन्देशवाहन की व्यवस्था का होना परम आवश्यक है। ऐसा करने से परिवर्तन से होने वाले प्रतिरोध में काफी कमी की जा सकती है।

(2) परिवर्तन के लिये नियोजन (Planning for Change)-प्रबन्ध को चाहिये कि वह परिवर्तन को कर्मचारियों पर थोपने के स्थान पर उसे नियोजित ढंग से लागू करे। इसका कारण यह है कि थोपे जाने वाले अथवा अनियोजित परिवर्तन के सफल होने की सम्भावनाएँ न्यून रहती हैं। परिवर्तन के लिये नियोजन करने हेतु निम्न कार्य किये जाने चाहिएँ–(i) परिवर्तन के उद्देश्यों को निर्धारित करना; (ii) परिवर्तन के मार्ग में उत्पन्न होने वाली बाधाओं का सन्तोषजनक ढंग से निराकरण करना; (iii) परिवर्तन के लागू करने के क्रम निर्धारित करना: (iv) इन क्रमों के लाग करने का समय निर्धारित करना एवं उसके लिये उपयुक्त वातावरण तैयार करना। नियोजित ढंग से परिवर्तन को लागू करने से प्रतिरोध में कमी होगी तथा उसके लागू करने में सरलता होगी।

(3) सहभागिता (Participation)-परिवर्तनों के विरोध को कम करने के लिये सहभागिता एक प्रभावी उपाय है। परिवर्तनों का निर्णय करते समय कर्मचारियों को सम्भावित समस्याओं, कठिनाइयों व सुधारों पर विचार व्यक्त करने का अवसर दिया जाना चाहिये। कर्मचारियों के विचारों को जानकर उनके सहयोग से ही परिवर्तन की योजना बनानी एवं क्रियान्वित करनी चाहिये। ।

(4) प्रभावी नेतृत्व (Effective Leadership)-प्रभावपूर्ण नेतृत्व के द्वारा लोगों को परिवर्तनों को स्वीकार करने के लिये प्रेरित किया जा सकता है। कुशल नेता परिवर्तनों को लागू करने वाला कारगर प्रतिनिधि माना जाता है, क्योंकि वह अपने अनुयायियों व अधीनस्थों का सहयोग सरलता से प्राप्त कर सकता है।

(5) आर्थिक सुरक्षा एवं गारन्टी (Economic Security and Guarantee)-यदि प्रबन्ध चाहता है कर्मचारीगण परिवर्तन को सहर्ष स्वीकार करें एवं अपना सहयोग दें तो यह परम आवश्यक है कि इस बात की पूर्ण सुरक्षा एवं गारण्टी दी जाये कि प्रस्तावित परिवर्तन से किसी भी कर्मचारी को किसी भी प्रकार के आर्थिक संकट का सामना नहीं करने दिया जायेगा। इससे उनके मन में परिवर्तन। के प्रति आर्थिक एवं मनोवैज्ञानिक निश्चितता आयेगी। परिणामस्वरूप परिवर्तन के प्रति प्रतिरोध में। कमी होगी एवं उसके कार्यान्वयन का मार्ग सुलभ होगा।

(6) शिक्षण (Education)-कर्मचारियों के साथ खुला विचार-विमर्श करके उन्हें परिवर्तनों का महत्त्व समझाया जाना चाहिये। समूह प्रस्तुतीकरण, सभा, सम्मेलन, संवाद, सम्प्रेषण बातचीत आदि के द्वारा परिवर्तनों की आवश्यकता को प्रकट किया जाना चाहिये।

(7) सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार (Sympathetic Behaviour)-यह सम्भव है कि परिवर्तन के परिणामस्वरूप कर्मचारियों की विद्यमान योग्यता एवं नैपुण्य अप्रचलन में आ जाये और उनके स्थान पर नये ज्ञान, कौशल, नैपुण्य एवं योग्यता को प्राप्त करने के लिये कठोर परिश्रम एवं प्रशिक्षण की। आवश्यकता हो। इसके कारण कर्मचारी परिवर्तन का प्रतिरोध कर संकते हैं। अत: ऐसी स्थिति में प्रबन्ध को उसकी वस्तुस्थिति को समझ कर उनके साथ सहानभूतिपूर्ण व्यवहार करना चाहिये। उन्हें परिवर्तन के अनुरूप बनाने के लिये सभी प्रकार की सुविधाएँ सहर्ष प्रदान की जानी चाहिए।

(8) परम्परागत दृष्टिकोण में परिवर्तन (Change in the Traditional Attitude)-परिवर्तन को उचित रूप से लाग करने के लिये यह परम आवश्यक है कि प्रबन्ध अपने परम्परागत दृष्टिकाण म आमूल परिवर्तन करे तथा उसके स्थान पर आधनिक दृष्टिकोण अपनाये। आधुनिक दृष्टिकोण में सामूति, सहभागिता. विनम्रता. मानवीयता. संवहन, सत्ता का विकेन्द्रीकरण, भारोपण पिचारावानमय, समझ-बझ. सहयोग की भावना. जीयो और जीने दो की भावना आदि बातें सम्मिलित हैं। इससे भी प्रतिरोध में पर्याप्त कमी होगी तथा परिवर्तन के क्रियान्वयन का मार्ग सरल हो जायेगा।

(9) लोच एवं प्रयोगात्मक दृष्टिकोण (Elastic and Experimental Outlook)-परिवर्तन को लागू करने के लिये यह आवश्यक है कि प्रबन्ध का दृष्टिकोण लोच एवं प्रयोगात्मक हो। यदि प्रयोग द्वारा परिवर्तन उपयक्त प्रतीत हो तो उसे लागू रखना चाहिये एवं उसमें संशोधन की आवश्यकता हो तो संशोधन भी करने चाहिएं। यदि किसी स्तर पर यह प्रतीत हो कि परिवर्तन अनावश्यक है, तो उसे छोड़ देना चाहिये।

(10) परिवर्तनों की उचित गति (Reasonable Speed of Changes)-प्रबन्धकीय अनुभव यह बताता है कि अत्यधिक तीव्रगति से किये गये परिवर्तनों का प्रायः अच्छा परिणाम नहीं निकलता है। सामान्यतः लोग जल्दी-जल्दी परिवर्तन पसन्द भी नहीं करते हैं। अत: परिवर्तन धीरे-धीरे उचित गति से किये जाने चाहिएँ। क्रमिक परिवर्तनों में भी थोड़ा समय अन्तराल होना चाहिये, ताकि लोग परिवर्तन को अंगीकार कर सकें।

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प्रबन्ध के उभरे क्षितिज/आयाम

(EMERGING HORIZONS OF MANAGEMENT)

अथवा

प्रबन्धकों के सामने चुनौतियाँ/कार्य

(TASKS/CHALLENGES BEFORE THE MANAGERS)

आधुनिक समय में जो घटनाएँ घटित हो रही हैं या जो परिवर्तन हो रहे हैं, वे सभी प्रबन्धकों को अपने सोच-विचार. मान्यताओं, लक्ष्यों, आस्थाओं, कार्य प्रणालियों आदि सभी में परिवर्तन करने के लिए बाध्य करने वाले हैं। ऐसे में उन्हें अनेक नये कार्यों को करना पड़ेगा, नये विचारों एवं तकनीकों को अपनाना पड़ेगा। प्रबन्धकों के समक्ष अब कुछ नये कार्य उत्पन्न होंगे, उनके कार्यों के नये क्षितिज उभरेंगे।

प्रबन्ध के उभरते आयाम पर प्रकाश डालते हुए लॉयड बेयर्ड के अनुसार, “प्रबन्ध का समग्र स्वरूप रूपान्तरित हो रहा है। नवीन विकास प्रवृत्तियाँ, मनोदशाएँ एवं नवीन चिन्तन प्रबन्ध को नई दिशा एवं नई आधार भूमि प्रदान कर रहा है।”

संक्षेप में, प्रबन्ध के उभरते आयाम या क्षितिज को इस प्रकार बतलाया जा सकता है

1 व्यूहरचनात्मक प्रबन्ध एवं नियोजन (Strategic Management and Planning)-आज की बढ़ रही प्रतिस्पर्धा तथा आगे और अधिक प्रतिस्पर्धा को ध्यान में रखते हुए भविष्य में प्रबन्धकों को व्यहरचनात्मक प्रबन्ध एवं नियोजन का सहारा लेना होगा। प्रबन्धकों को अपने वातावरण की। परिस्थितियों या दशाओं का गहन अध्ययन एवं विश्लेषण कर व्यूहरचनात्मक नियोजन करना पड़ेगा। इस हेत स्वोट विश्लेषण (SWOT-Strength, Weakness, Opportunities and Threats अर्थात् । शक्ति कमजोरी, अवसर, धमकियों एवं चुनौतियाँ) करना होगा। इससे प्रबन्धकों को संस्था के । आन्तरिक एवं बाह्य वातावरण को समझने में मदद मिलेगी, वे प्रभावी व्यूहरचनाओं का निर्माण कर सकेंगे, आन्तरिक शक्तियों का पूर उपयोग करेंगे और दोषों को या तो समाप्त करने अथवा नियन्त्रण करने में कामयाब होंगे।

2. प्रबन्ध सूचना प्रणाली (Management Information System)-आधुनिक युग में प्रबन्ध सूचना प्रणाली का विकास भी प्रबन्ध का एक उभरता आयाम है, जिसे प्रबन्धकों को अपनाना होगा। यह प्रभावशाली नियन्त्रण एवं नियन्त्रण के लिये एक महत्त्वपूर्ण साधन माना जाता है, क्योंकि इसस एक ओर तो निर्णयन की किस्म में सुधार होता है तो दूसरी ओर सुधारात्मक कार्यवाही को लागू करने के लिये प्रबन्धकों को योजना से विचलनों की पर्ण जानकारी मिलती है। परिणामस्वरूप सधारात्मक कार्यों में तीव्रता आयेगी. प्रबन्धकीय कार्यों के निष्पादन में सहायता मिलेगी और विशुद्ध निर्णय लिये जा सकेंगे। यही नहीं, प्रबन्धकों को वे ही सूचनाएँ भेजनी होंगी, जो उनके लिये उपयोगी एवं सार्थक होंगी।

3. मानवीय संसाधन लेखांकन (Human Resource Accounting)-मानवीय संसाधन, क्योंकि उपक्रम से सम्बन्धित है और उपक्रम उससे निरन्तर लाभ उठाता है, इसलिये प्रबन्धकों को उसे अपने स्वामित्व में मानना होगा। इससे उपक्रम द्वारा मानवीय संसाधनों के चयन, विकास, पदस्थापन, प्रशिक्षणार्थी एवं प्रशिक्षण आदि पर आयी लागत को मानना होगा और खाते तैयार करने होंगे। इसके अलावा इसमें संगठन के लिये व्यक्ति का आर्थिक मूल्य भी संचालित करना होगा।

4. सृजनशीलता एवं नवकरण (Creativity and Innovation)-भविष्य में वह ही प्रबन्धक होंगे जिनमें सृजनशीलता का गुण होगा तथा जो नवकरण कर सकेंगे। फलतः प्रबन्धकों को अपने आप में तथा अपने अधीनस्थों में सृजनशीलता विकसित करनी होगी। प्रबन्धकों को संस्था में ऐसे वातावरण का निर्माण करना पड़ेगा जिससे संस्था के सभी सदस्य नयी सोच विकसित कर सकें।

5. प्रबन्ध विकास पर बल (Emphasis on Management Development)-भविष्य में प्रबन्धकों को प्रबन्ध विकास पर बल देना होगा जिससे प्रबन्धकों को नवीन सिद्धान्तों, विचारधाराओं, तकनीकों की जानकारी दी जा सकेगी। प्रबन्ध विकास कार्यक्रमों का संचालन करके प्रबन्धकों को सूचना प्रौद्योगिकी, वित्तीय प्रबन्ध, व्यवहारवादी प्रबन्ध आदि से सम्बन्धित नवीन ज्ञान एवं जानकारी प्रदान की जा सकेगी। ऐसा करके प्रबन्धकों को अपने अनुभव के साथ नवीन ज्ञान एवं तकनीकों को अपनाने के लिये तैयार किया जा सकेगा। फलतः वे भावी चुनौतियों का अधिक प्रभावी ढंग से मुकाबला कर सकेंगे।

6. व्यूहरचनात्मक संयोजन/भागीदारी पर ध्यान (Seeking Strategic Alliances)प्रतिस्पर्धी वातावरण में सफल होने के लिये प्रबन्धकों को भविष्य में दूसरी संस्थाओं के साथ व्यूहरचनात्मक संयोजन/भागीदारियाँ (Alliances) करने होंगे। ऐसा करके ही वे दूसरी संस्थाओं की तकनीक, उनके ज्ञान, शोध सुविधाओं, विपणन सुविधाओं आदि का लाभ न्यूनतम लागत पर ही उठा सकेंगी। अत: प्रबन्धकों को अन्य संस्थाओं के साथ दीर्घकालीन संयोजन/सहयोग समझौतों की कला सीखनी पड़ेगी, ताकि वे पारस्परिक लाभ एवं हित में सामूहिक रूप से कार्य कर सकें।

7.बेहतर कम्पनी प्रबन्ध (Better Corporate Governance)-प्रबन्धकों का यह दायित्व है कि वे अपनी कम्पनी का बेहतर प्रबन्ध करें। यह दायित्व भविष्य में और भी बढ़ने वाला है। इ उन्हें अपने कार्यकलापों, नीतियों में पारदर्शिता लानी होगी। कम्पनियों के संचालन में केवल का औपचारिकताओं का पालन करने से ही प्रबन्धक अपने दायित्व से मुक्त नहीं हो पाएँगे। उन्हें उपभोक्ताओं, कर्मचारियों, अंशधारियों, सरकार, सामान्य जनता आदि सभी वर्गों के प्रति अपने दायित्वों को गम्भीरता से पूरा करना होगा। उन्हें उपयोगिता/सन्तुष्टि प्रदान करने के लिये उचित प्रयास करने एवं परिणाम देने होंगे। उन्हें कम्पनी के सभी हितधारियों (Stakeholders) के प्रन्यासी या ट्रस्टी के रूप में कार्य करना एवं परिणाम देना होगा।

8. उद्देश्यों द्वारा प्रबन्ध (Management by Objectives)-प्रबन्ध के उभरते आयामा म। उद्देश्यों द्वारा प्रबन्ध भी एक है। इसका सम्बन्ध व्यावसायिक क्रियाओं को सम्पादित करने से पूर्व उस क्रिया के निष्पादन के उद्देश्यों को निश्चित करने एवं तत्पश्चात उन्हें प्राप्त करने के लिये प्रबन्ध द्वारा। प्रयास किये जाने से है। इसलिये प्रबन्धकों को इसे स्वीकार करना होगा। इसका कारण यह है कि उद्देश्यों द्वारा प्रबन्ध व्यावसायिक प्रबन्ध के क्षेत्र के किसी भी क्षेत्र में प्रयक्त किया जा सकेगा, किन्तु कुछ क्षेत्रों में तो बहुत उपयोगी होगा; जैसे—विक्रय में सुधार, उत्पादों में सुधार, क्रियात्मक कायक्षमता, लाभदायकता, नवाचार, उत्पादकता, वित्तीय एवं भौतिक साधन, विकास एवं प्रवृत्ति आदि। परिणामस्वरूप प्रबन्धकीय प्रभावशीलता में वद्धि होगी. सहभागिता अवधारणाओं को बल मिलेगा, व्यक्तिगत प्रेरणा का विकास होगा और श्रम तथा प्रबन्ध के मध्य सम्बन्धों में सुधार होगा।

9.संस्था के प्रति प्रणालीगत दृष्टिकोण (Systems Approach to Organization)-भावष्य म प्रबन्धका को अपने संगठन/अपनी संस्था के प्रति प्रणालीगत दृष्टिकोण विकसित करना होगा। उन्हें सम्पूर्ण संस्था को एक सम्पूर्ण इकाई के रूप में देखना एवं समझना होगा, किन्तु सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था के सन्दर्भ में इसे इसकी एक उप-इकाई के रूप में समझना होगा। दूसरे शब्दों में, प्रबन्धकों को अपना सस्था को सम्पूर्ण वातावरण/अर्थव्यवस्था की एक उप-इकाई मानकर उसे सम्पूर्ण वातावरण के साथ जोड़कर संचालित करना होगा। ऐसा किये बिना कोई भी प्रबन्धक अपनी संस्था को आधुनिक गतिशील वातावरण में चिराय नहीं बना सकेगा।

10. सांयोगिक प्रबन्ध विचारधारा को अपनाना (Adopting Contingency Management Approach)-भावी प्रबन्धकों को प्रबन्धकीय व्यवहार में सांयोगिक या परिस्थितिगत (Contingency or Situational) प्रबन्ध विचारधारा को अपनाना होगा। वे गतिशील वातावरण में ‘लकीर से फकीर’ बने नहीं रह पाएँगे। उन्हें परिस्थितियों के अनुरूप ही उद्देश्यों, योजनाओं, नीतियों, सिद्धान्तों को अपनाना एवं समायोजित करना होगा। उन्हें प्रबन्ध के लिये उसी विधि एवं रीति को अपनाना होगा जो किसी समय विशेष की परिस्थितियों के अनुकूल होंगी।

11. कल्पनाशील नेतृत्व (Visionary Leadership)-भावी प्रबन्धकों को कल्पनाशील एवं दूरदृष्टिवान होना पड़ेगा। उन्हें भविष्य में हो सकने वाली घटनाओं तथा उत्पन्न हो सकने वाली परिस्थितियों के ठीक-ठीक स्वप्न भी देखने होंगे और जब वे सपने सच होंगे तभी वे सफल भी होंगे। प्रबन्धकों को ऐसी कल्पनाओं के लिये अपने आपको तथा अपने अधीनस्थों को समय से पूर्व तैयार रखना होगा।

12. प्रबन्ध में नीतिशास्त्र (Ethics in Management)-आधुनिक प्रबन्ध/प्रबन्धक का मूल केन्द्र मानव एवं उसके साथ व्यवहार उभरता आयाम है। इसलिये प्रबन्धकों को नीतिगत मूल्यों, मानवीय आदर्शो, पारस्परिक सम्बन्धों, नीतिगत प्रभावों एवं नेतृत्व पर विशेष ध्यान देना होगा, क्योंकि उनके नैतिक कर्त्तव्य एवं उत्तरदायित्व बहुत महत्वपूर्ण हो गये हैं। यही नहीं, प्रबन्धकों के आचरण के लिये नैतिक आचार-संहिताओं का निर्माण भी किया जाना होगा, तभी नीतिगत वातावरण का निर्माण किया जा सकेगा।

13. मानवीय सम्बन्ध विचारधारा का विकास (Development of Human Relations Thought)-मानवीय सम्बन्ध विचारधारा की यह मान्यता है कि उद्योग में कार्य करने वाले को व्यक्ति पहले मानते हैं, बाद में श्रमिक। इसलिये प्रबन्धकों को इनके साथ मानवोचित्त व्यवहार करते हए प्रबन्धकीय कार्यों को पूरा करना होगा। परिणामस्वरूप प्रबन्धकीय कार्यों का प्रभावी क्रियान्वयन, मानवीय संसाधनों का श्रेष्ठतम उपयोग, कर्मचारियों की कार्यक्षमता में वद्धि. सामाजिक उत्तरदायित्वों का निर्वाह और औद्योगिक शान्ति की स्थापना होगी।

14. सहभागिता द्वारा प्रबन्ध (Management by Participation)-आधुनिक युग में सहभागिता प्रबन्ध एक उभरता आयाम है, जिसका आशय एक व्यक्ति द्वारा उपक्रम में प्रबन्धकीय कार्यों में मानसिक एवं भावनात्मक रूप से हिस्सा लेना है। परिणामस्वरूप उपक्रम के उद्देश्यों को पूरा करना सम्भव होगा। अत: प्रबन्धकों को इस विचारधारा को स्वीकार करना होगा।

15. पर्यावरण सन्तुलन (Environment Balance)-आज वातावरणीय नियन्त्रण की समस्या वैधानिक एवं प्रबन्धकीय पहल प्रबन्धकों के लिय एक चुनौती हो गयी है। ऐसी दशा में प्रबन्धकों के लिये स्वैच्छिक प्रयासों द्वारा वातावरण पर नियन्त्रण रखना आवश्यक होगा।

16. सचना प्रौद्योगिकी (Information Technology)-प्रबन्ध के नये आयाम के रूप में । प्रबन्धकों को सूचना प्रौद्योगिकी पर निर्भर रहना होगा, ताकि आवश्यक समंक एवं सूचनाएँ प्राप्त कीपरिवर्तन का प्रबन्ध जा सकें। अत: प्रबन्धकों को प्रवनीय कार्यों (नियोजन, संगठन, समन्वय, अभिप्रेरणा, नियन्त्रण, सम्प्रेषण, निर्देशन एवं नेतृत्व आदि) के लिये तथा प्रबन्ध के क्रियात्मक क्षेत्रों के लिये समंक बैंको, कृत्रिम आसूचना कार्यक्रमों, प्रबन्ध सूचना प्रणाली जैसी ज्ञान आधारित प्रणालियों की स्थापना करनी होगी।

17. संगठन विकास (Organizational Development)-भावी प्रबन्धकों को संगठन विकास कार्यक्रम पर भी ध्यान देना होगा। संगठन विकास कार्यक्रम एक ऐसा कार्यक्रम है जिसके अन्तर्गत व्यवहारवादी विज्ञान की तकनीकों का उपयोग कर सम्पूर्ण संस्था की प्रभावशीलता में अभिवृद्धि करने का प्रयास किया जाता है। यह वह दीर्घकाल कार्यक्रम है जिससे संस्था एवं उसके सदस्यों की समस्या निवारण क्षमता का विकास किया जाता है तथा सम्पूर्ण संस्था को नवजीवन देने का प्रयास किया जाता है। इस हेतु प्रबन्धकों को अपनी संस्था के सभी सदस्यों के लिये जीवन वृति नियोजन (Career Planning) करनी होगी। संस्था में कार्य-संवर्द्धन एवं कार्य-विस्तार पर ध्यान देना होगा, ताकि लोग अधिक रुचि से कार्य कर सकें। लोगों की दसरों के प्रति समझ बढ़ाने हेतु ‘संवेदनशीलता प्रशिक्षण’ (Sensitivity training) की व्यवस्था करनी होगी। इनके अतिरिक्त भी अनेकानेक उपाय करके संगठन विकास को सुनिश्चित करना होगा।

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि प्रबन्धकों को भावी वातावरण के अनुरूप ही अपने आपको, अपने अधीनस्थों एवं संगठन को तैयार करना पड़ेगा। ऐसा करके ही राष्ट्रीय समस्याओं; जैसे—बेरोजगारी, अशिक्षा, बीमारी, भूख, अभावों आदि से छुटकारा पाया जा सकता है।

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परीक्षा हेतु सम्भावित महत्त्वपूर्ण प्रश्न

(Expected Important Questions for Examination)

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

(Long Answer Type Questions)

प्रश्न 1. नियोजित परिवर्तन से आप क्या समझते हैं ? इसकी प्रकृति एवं प्रक्रिया का वर्णन कीजिये। What do you mean by planned change ? Explain its nature and process.

प्रश्न 2. नियोजित संगठनात्मक परिवर्तन की अवधारणा एवं प्रक्रिया का विवेचन कीजिये। संगठनों में लोग इसका विरोध क्यों करते हैं ? समझाइये।

Discuss the concept and process of planned organizational change. Why do people resist to change in the organizations ? Explain.

प्रश्न 3. कर्मचारी परिवर्तन का विरोध क्यों करते हैं ? परिवर्तन की सहज स्वीकार्यता हेतु प्रबन्धकों द्वारा अपनायी जाने वाली प्रमुख रणनीतियों की चर्चा कीजिये।

Why do employees offer resistance to change ? Suggest major managerial strategies for successful accomodation of change.

प्रश्न 4. परिवर्तन के प्रतिरोध से क्या आशय है ? लोग परिवर्तन का प्रतिरोध क्यों करते हैं ? परिवर्तन के प्रतिरोध को कम कैसे किया जा सकता है ?

What is meant by resistance to change? Why do people react to change? How resistance to change can be reduced?

प्रश्न 5. परिवर्तन का प्रबन्ध क्या है? परिवर्तनीय पर्यावरण में प्रबन्ध के उप हुए क्षितिजों का वर्णन कीजिये।

What is the management of change? Describe the emerging horizons of management in a changing environment.

Principles of Business Management Change

लघु उत्तरीय प्रश्न

(Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1. परिवर्तन के प्रबन्ध को परिभाषित कीजिये तथा इसके महत्त्व की विवेचना कीजिय

Define management of change and discuss its significance.

प्रश्न 2. नियोजित परिवर्तन की प्रक्रिया को स्पष्ट कीजिये।

Discuss the process of planned change.

प्रश्न 3. लोग परिवर्तन का प्रतिरोध क्यों करते हैं ? संक्षेप में बताइये।

Why do people react to change? Explain in brief.

प्रश्न 4. परिवर्तन का प्रबन्ध पर क्या प्रभाव पड़ता है ? संक्षेप में बताइये।

What is the impact of change on management? Explain in brief.

Principles of Business Management Change

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

(Objective Type Questions)

बताइये कि निम्नलिखित वक्तव्य ‘सही हैं’ या ‘गलत’

(i) परिवर्तन प्रकृति का नियम है।

Change is the rule of nature.

(ii) परिवर्तन का मनुष्य द्वारा प्रतिरोध किया जाता हैं।

Change is resisted by man.

(iii) प्रतिरोध तथा विरोध दोनों एक दूसरे के पर्यायवाची हैं।

Resistance and oppose both are synonymous.

(iv) प्रतिरोध का मूल कारण ‘यथा स्थिति’ बनाये रखने की इच्छा है।

Basic cause of resistance is the desire to maintain ‘status quo’.

उत्तर-(i) सही, (ii) सही, (iii) गलत, (iv)

Principles Business Management Change

2. सही सही उत्तर चुनिये

(Select the correct answer)

(i) “परिवर्तन संगठन में अनिवार्य है।” यह कथन है

“Change is compulsory in management.” This statement is of:

(अ) टैरी (Terry)

(ब) ऐलन (Allen)

(स) टेलर (Taylor)

(द) फेयोल (Fayol)

(ii) परिवर्तन है

Change is : .

(अ) आवश्यक (Necessary)

(ब) समय की बर्बादी (Wastage of Time)

(स) संसाधनों की बर्बादी (Wastage of Resouces)

(द) अनावश्यक (Unnecessary) उत्तर-(i) () (ii) (अ)

Principles Business Management Change

chetansati

Admin

https://gurujionlinestudy.com

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