BCom 2nd Year Principles Business management Development Thought Study material notes in Hindi

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BCom 2nd Year Principles Business management Development Thought Study material notes in Hindi

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Development Thought Study material
Development Thought Study material

BCom 2nd Year Principles Business management Concept Nature Significance Study Material Notes in Hindi

प्रबन्ध विचारधारा का विकास

[Development of Management Thought]

प्रबन्ध की कहानी कहाँ से और कब से आरम्भ हई यह निश्चित रूप से तो कहना कठिन है, परन्तु इतना अवश्य कहा जा सकता है कि प्रबन्ध का सम्बन्ध मानव सभ्यता के आदिकाल से ही ह। वस्तुतः प्रबन्ध की कला उतनी ही पुरानी है जितनी मानव सभ्यता। जैसे ही मनुष्यों ने समूहों में रहना और कार्य करना आरम्भ किया वैसे ही प्रबन्ध का प्रादुर्भाव हुआ। प्राचीनकाल में प्रबन्ध के सिद्धान्ता का प्रयोग चर्च, सेना तथा सरकारी संस्थाओं में होता था। सोपान श्रंखला, कार्यात्मक विशिष्टीकरण, स्टॉफ विशेषज्ञ आदि सिद्धान्तों की उत्पत्ति सेना में हुई थी। एथेंस कामनवेल्थ. मिस्र के पिरामिड, चीनी विचारकों के लेखों दिल्ली के लौहस्तम्भ तथा मोहनजोदडों की खदाई में प्रबन्ध एवं संगठन के प्रमाण मिलते हैं। बाइबल, भगवद् गीता, कौटिल्य के अर्थशास्त्र आदि ग्रंथों में प्रबन्ध एवं प्रशासन के सिद्धान्तों तथा विधियों का उल्लेख पाया जाता है।

Principles Business management Development

अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में हई औद्योगिक क्रान्ति के परिणामस्वरूप सर्वप्रथम इंग्ले में, फिर यू० एस० ए० व यूरोप के देशों में और फिर एशिया व अन्य महाद्वीपों में कारखाना प्रणाली का जन्म हुआ। कारखानों में काफी संख्या में लोग सामूहिक रूप से कार्य करने लगे, जबकि अब तक लोग कुटीर उद्योग के रूप में अपने पारिवारिक सदस्यों के साथ घर पर या दकानों में छोटे स्तर पर उत्पादन कार्य करते थे। कारखाना प्रणाली के साथ प्रारम्भ हुई औद्योगीकरण की इस प्रक्रिया में श्रमिकों व अन्य उत्पादन संसाधनों के प्रभावपूर्ण प्रबन्ध की आवश्यकता हुई। इसने समयानुसार विभिन्न प्रबन्धकीय विचारों व सिद्धान्तों को जन्म दिया। संक्षेप में, प्रबन्ध विचारधारा के विकास का अध्ययन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है

1. प्रतिष्ठित प्रबन्ध पद्धति (Classical Management System),

2. नव-प्रतिष्ठित प्रबन्ध पद्धति (Neo-classical Management System)|

प्रतिष्ठित प्रबन्ध पद्धति

(CLASSICAL MANAGEMENT SYSTEM)

इस प्रबन्ध पद्धति में औपचारिक अधिकार, संगठनात्मक उद्देश्यों, कार्य विभाजन एवं समन्वय पर बल दिया गया है। व्यवस्था एवं तर्कसंगत ढांचा इस पद्धति के आधार स्तम्भ हैं। फ्रेडरिक विन्सलो टेलर एवं हेनरी फेयोल मुख्य रूप से प्रतिष्ठित प्रबन्धशास्त्रियों में अग्रणी माने जाते हैं। प्रतिष्ठित प्रबन्ध पद्धति की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

1 प्रबन्ध व्यावहारिक अनुभवों का अध्ययन है।

2. व्यावहारिक अनुभवों के आधार पर प्रबन्ध के सिद्धान्त विकसित किए जा सकते हैं।

3. इन सिद्धान्तों का उपयोग प्रबन्धकों के प्रशिक्षण तथा विकास में किया जा सकता है।

4. प्रबन्ध के सिद्धान्त सार्वभौमिक हैं।

5. औपचारिक संगठन एवं सम्प्रेषण प्रबन्ध के मुख्य साधन हैं।

6. कर्मचारियों को आर्थिक प्रलोभन द्वारा अभिप्रेरित किया जा सकता है तथा उन्हें अधिक परिश्रम के लिए उत्साहित किया जा सकता है।

आलोचनात्मक मूल्यांकन (Critical Appraisal)—यह प्रबन्ध पद्धति सरल है एवं इससे प्रबन्ध के कार्यों तथा सिद्धान्तों का पता चलता है। यह पद्धति व्यावहारिक निपुणता तथा अनुभव पर भी पर्याप्त बल देती है। इससे प्रबन्धकों के प्रशिक्षण तथा विकास का आधार प्राप्त होता है। इस पद्धति में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का महत्व भी बताया गया है।

परन्तु इस पद्धति की कड़ी आलोचना हुई है। सर्वप्रथम, मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि इस पद्धति में कार्य को मनुष्य से अधिक महत्व दिया गया है। यह मानवीय सम्बन्धों के महत्व को अनदेखा करती है। दूसरे, यह गलत मान्यताओं पर आधारित है। इसमें अनौपचारिक संगठन, अनौपचारिक सम्प्रेषण, गैरवित्तीय उत्प्रेरक आदि पर पर्याप्त बल नहीं दिया गया है। तीसरे, इसके सिद्धान्त ठोस तथा सार्वभौमिक नहीं हैं। अनभव सभी समस्याओं का समाधान नहीं है, क्योंकि परिस्थितियाँ निरंतर बदलती रहती हैं।

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प्रतिष्ठित प्रबन्ध पद्धति के आधार स्तम्भ

(PILLARS OF CLASSICAL MANAGEMENT SYSTEM)

प्रतिष्ठित प्रबन्ध पद्धति के मख्य आधारस्तम्भ निम्नलिखित है(अ) वैज्ञानिक प्रबन्ध,

() प्रशासनिक सिद्धान्त,

() दफ्तरशाही मॉडल।

() वैज्ञानिक प्रबन्ध (Scientific Management)

फ्रेडरिक डब्ल्य० टेलर (1856-1915) वैज्ञानिक प्रबन्ध के जन्मदाता माने जाते हैं। उन्होंने फिलाडलफिया की एक कम्पनी में मशीन प्रशिक्षार्थी के रूप में कार्य आरम्भ किया और अपनी प्रतिभा तथा परिश्रम के बल पर कछ वर्षों में ही बैथलहेम स्टील कम्पनी के मुख्य प्रबन्धक बन गये। वे जीवन भर अनुसंधान करते रहे और व्यक्तिगत अनुभव तथा अनुसंधानों के आधार पर उन्होंने प्रबन्ध में सर्वथा नवीन विचारों को जन्म दिया जिन्हें वैज्ञानिक प्रबन्ध की संज्ञा दी गई। टेलर ने अपने विचारों को अपनी दो पुस्तकों Principles of Scientific Management (1913) तथा Shop Management (1903) में प्रस्तुत किया है।

अर्थ एवं परिभाषा (Meaning and Definition)-सरल शब्दों में वैज्ञानिक प्रबन्ध का अर्थ है-प्रबन्ध कार्य में रूढ़िवादी पद्धति (Rule of Thumb Method) और भूल सुधार प्रणाली (Trial and Error Method) के स्थान पर तर्कसंगत एवं वैज्ञानिक विधियों का प्रयोग करना। टेलर के अनुसार, “वैज्ञानिक प्रबन्ध यह जानने की कला है कि आप व्यक्तियों से क्या कार्य कराना चाहते हैं और फिर यह देखना है कि वे इसको सर्वोत्तम एवं सबसे किफायती तरीके के साथ पूरा करते हैं।। वैज्ञानिक प्रबन्ध वह सुव्यवस्थित प्रबन्ध है जिसमें निरीक्षण, विश्लेषण, प्रयोग तथा तर्कों का उपयोग किया जाता है।

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वैज्ञानिक प्रबन्ध के सिद्धान्त

(PRINCIPLES OF SCIENTIFIC MANAGEMENT)

टेलर ने अपने समस्त परीक्षणों और परिणामों के आधार पर वैज्ञानिक प्रबन्ध के कुछ महत्वपूर्ण सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया। टेलर ने इन सिद्धान्तों को संक्षेप में निम्नलिखित रूप में प्रस्तुत किया

विज्ञान, कि अनुमान (Science, not rule of thumb)

संगति, कि असंगति (Harmony, not discard)

सहयोग, कि व्यक्तिवाद (Co-operation, not individualism)

सीमित उत्पादन के स्थान पर अधिकतम उत्पादन (Maximum output, in place of restricted output)

प्रत्येक व्यक्ति का चरम कुशलता एवं सम्पन्नता तक विकास (The development of | each man to his greatest efficiency and prosperity)

इस प्रकार वैज्ञानिक प्रबन्ध की योजना को सफल बनाने के लिए टेलर ने निम्नांकित 5 सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है

1 विज्ञान, कि अनुमानइस सिद्धान्त के अनुसार वैज्ञानिक प्रबन्ध में सभी कार्य ‘गलती करो और सुधारो’ पद्धति के स्थान पर वैज्ञानिक एवं तर्कपूर्ण पद्धतियों के आधार पर किये जाते हैं। वैज्ञानिक पद्धति का अभिप्राय ऐसी पद्धति से होता है जो प्रयोगों द्वारा विकसित की गयी हों।

2.संगति, कि असंगति वैज्ञानिक प्रबन्ध का दसरा सिद्धान्त यह है कि सस्था मावाभन्न। स्तरों पर पाई जाने वाली असंगतियों अर्थात मेल नहीं खाने वाली या प्रतिकल स्थितियों को समाप्त करके उन्हें अनुकूल बनाया जाये। इस सिद्धान्त के आधार पर कच्चे माल, कार्य पद्धतियाँ, मशीनो तथा अन्य नीतियों में विभिन्नताओं के स्थान पर एकरूपता आती है।

3. सहयोग, कि व्यक्तिवादवैज्ञानिक प्रबन्ध का यह भी एक महत्वपूर्ण सिद्ध न केवल कर्मचारियों में आपस में बल्कि कर्मचारियों और मालिक के बीच भी सहयोग हो। टेलर महोदय ने मालिकों तथा कर्मचारियों के मध्य सहयोग स्थापित करने के लिए मानसिक क्रान्ति का आवश्यकता पर विशेष बल दिया।

4. सीमित उत्पादन के स्थान पर अधिकतम उत्पादन-वैज्ञानिक प्रबन्ध का चौथा सिद्धान्त उत्पादन को अधिकतम करने पर जोर देता है जिससे अधिकतम लाभ हो और उत्पादन प्रक्रिया से सम्बन्धित सभी पक्षों को लाभ मिल सके। इस प्रकार यह सीमित उत्पादन की विचारधारा के विरुद्ध आन्तरिक रहता है।

5. प्रत्येक व्यक्ति का अधिकतम कुशलता एवं सम्पन्नता तक विकास-वैज्ञानिक प्रबन्ध में प्रत्येक श्रमिक को उनकी अधिकतम कुशलता एवं सम्पन्नता तक पहुँचाने का भरसक प्रयास किया जाता है। इस दृष्टि से श्रमिकों का चयन वैज्ञानिक पद्धति पर किया जाता है। तत्पश्चात् उन्हें आवश्यक प्रशिक्षण प्रदान किया जाता है। प्रशिक्षण के बाद कर्मचारियों को कार्य का उचित वितरण किया जाता है। कर्मचारियों को निरन्तर ऊँची दर से तथा प्रेरणादायक विधि से पारिश्रमिक प्रदान किया जाता है। इसका श्रमिकों की उत्पादकता पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है।

वैज्ञानिक प्रबन्ध का मूल्यांकन (Appraisal of Scientific Management)-टेलर ने प्रबन्ध के वैज्ञानिक पहलू को उजागर किया तथा प्रबन्ध के व्यवस्थित अध्ययन की नींव रखी। उन्होंने प्रबन्ध में मानसिक क्रान्ति पर तथा वैज्ञानिक नियमों पर बल दिया। प्रबन्ध को कुशल बनाने के लिए उन्होंने अनेक तरीके भी दिये; जैसे—क्रियात्मक (Functional Foremanship), विभेदात्मक मजदूरी प्रणाली (Differential Piecerate Plan), समय अध्ययन (Time Study), गति अध्ययन (Motion Study), प्रमापीकरण (Standardisation) आदि।

टेलर के वैज्ञानिक प्रबन्ध की निम्नलिखित आलोचनाएँ हुई हैं

1 टेलर की मान्यता है कि एक व्यक्ति समूह की अपेक्षा व्यक्तिगत रूप से कार्य करता है। यह मान्यता गलत है, क्योंकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और वह मिलकर कार्य करना चाहता है। टेलर ने एक कर्मचारी के व्यवहार एवं कार्य पर समूह के प्रभाव को नहीं बताया है।

2. टेलर ने कर्मचारी की अपेक्षा मशीन पर अधिक बल दिया है। उसने मानवीय पक्ष की उपेक्षा की है।

3. टेलर ने वैज्ञानिक तकनीक तथा कारखाना स्तर की समस्याओं पर अधिक विचार किया है। उसने प्रशासन के सर्वमान्य सिद्धान्तों पर ध्यान नहीं दिया है।

4. टेलर ने विशिष्टीकरण की आवश्यकता पर अत्यधिक बल दिया है. किन्त आवश्यकता से अधिक विशिष्टीकरण कार्य में थकावट तथा नीरसता लाता है।

5. टेलर ने श्रमसंघों को अनावश्यक माना है। उनके अनुसार वैज्ञानिक प्रबन्ध के लाभों को जानने के पश्चात् श्रमिकों को किसी प्रकार की सौदेबाजी की आवश्यकता नहीं होगी, किन्तु आधुनिक युग में यह बात सही नहीं लगती।

इन आलोचनाओं के बावजूद यह कहना सर्वथा उचित है कि टेलर के विचार प्रबन्ध के विकास में मौलिक हैं तथा उन्हें आधुनिक प्रबन्ध का जन्मदाता कहा जाता है

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() प्रशासनिक सिद्धान्त

(Administrative Theory)

प्रशासनिक सिद्धान्त अथवा प्रबन्ध प्रक्रिया पद्धति (Management Process Approach) का। विकास मुख्यतया फ्रांस के विद्वान हेनरी फेयोल (Henri Fayol) ने किया है। हेनरी फेयोल (1841-1925) ने एक खनिज कम्पनी में जूनियर इंजीनियर की नौकरी शुरू की। अपनी लगन एवं योग्यता से कार्य करके वे 1888 में इस कम्पनी के प्रबन्ध संचालक के पद पर पहुंच गए। उन्होंने प्रशासन के सिद्धान्तों की सार्वभौमिकता पर बल दिया है। उनके प्रबन्ध के सिद्धान्त जीवन के सभी क्षेत्रों में लाग होते हैं, परन्तु ये मार्गदर्शक हे कड़े नियम नहीं। उनकी इस मान्यता के आधार पर उन्होंने प्रबन्ध के 14 सिद्धान्त प्रस्तुत किए हैं। फेयोल ने प्रबन्धकों के लिए औपचारिक शिक्षा एवं प्रशिक्षण पर बल दिया। उनके अनुसार एक अच्छे प्रबन्धक में शारीरिक स्वास्थ्य एवं स्फूर्ति, बौद्धिक क्षमता. नेतिकता, सामान्य व विशिष्ट ज्ञान तथा अनभव सम्बन्धी गण होने चाहिएं। फेयोल कविचार। उनकी पुस्तक General and Industrial Management में उपलब्ध हैं। ।

प्रबन्ध प्रक्रिया का विश्लेषण करके फेयोल ने प्रबन्ध के कार्यों को नियोजन, संगठन, निर्देशन (Command), समन्वय एवं नियन्त्रण के रूप में परिभाषित किया है। उनके अनुसार सभी औद्योगिक उपक्रमों में 6 क्रियाएँ होती हैं

(i) तकनीकी (Technical) : उत्पादन व निर्माण,

(ii) वाणिज्यिक (Commercial) : क्रय-विक्रय,

(iii) वित्तीय (Financial) : पूँजी की प्राप्ति एवं उपयोग,

(iv) सुरक्षा (Security): जान एव माल की सुरक्षा,

(v) लेखांकन (Accounting) : लागत नियन्त्रण, सांख्यिकीय आदि,

(vi) प्रबन्धकीय (Managerial)

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प्रबन्ध के सिद्धान्त

(PRINCIPLES OF MANAGEMENT)

प्रबन्ध के सिद्धान्तों की चर्चा करने से पूर्व उपयुक्त होगा कि संक्षेप में सिद्धान्त का अर्थ समझ लिया जाय।

सिद्धान्त का अर्थ (Meaning of Principle)-सिद्धान्त से तात्पर्य ऐसे आधारभूत सत्य से है जो चिन्तन का आधार या मार्गदर्शक बन सके एवं जिसका सामान्य नियम के रूप में प्रयोग किया जा सके, सिद्धान्तों का निर्माण या तो शोध के द्वारा हो सकता है और या अभ्यास के व्यवहारात्मक विश्लेषण के आधार पर।

प्रबन्ध के सिद्धान्त का अर्थ (Meaning of Principles of Management)-प्रबन्धकीय क्रियाओं को सफलतापूर्वक सम्पन्न करने के लिए जिन आधारभूत नियमों का उपयोग किया जाता है, उन्हें ‘प्रबन्ध के सिद्धान्त’ कहते हैं। दूसरे शब्दों में, प्रबन्धकीय अनुभवों एवं शोध कार्यों के आधार पर प्रबन्ध प्रक्रिया को प्रभावपूर्ण बनाने के लिए जो आधारभूत सर्वमान्य सत्य खोजे गये हैं उन्हें ही ‘प्रबन्ध के सिद्धान्त’ कहते हैं।

चूँकि प्रबन्ध एक सामाजिक विज्ञान है, अत: उसके सिद्धान्त अनुभव (experience) और अभ्यास पर ही आधारित हैं। यही कारण है कि वे प्राकृतिक विज्ञान के सिद्धान्तों की भाँति पूर्ण और अचूक न होकर सामाजिक विज्ञानों के सिद्धान्तों की भाँति सामान्य रूप से ही सत्य होते हैं।

संक्षेप में, प्रबन्ध के सिद्धान्त प्रबन्धकीय क्रियाओं के मार्गदर्शन हेतु वे आधारभूत सत्य के विवरण हैं जिनकी सहायता से व्यावसायिक परिस्थितियों व समस्याओं को भली प्रकार समझा जा सकता है. कशल निर्णय लिए जा सकते हैं एवं संगठनात्मक कार्यकुशलता में सुधार किया जा सकता

प्रबन्ध के सिद्धान्तों की आवश्यकता (Needs of Principles of Management)-प्रबन्ध के लिए प्रबन्धकीय सिद्धान्तों का उतना ही महत्व है जितना कि डॉक्टर के लिए चिकित्सा विज्ञान का अथवा वकील के लिए देश के सन्नियमों का। प्रबन्ध के सिद्धान्तों की आवश्यकता के सम्बन्ध में निम्नलिखित बिन्दु स्मरणीय हैं—(1) इनके प्रतिपादन से निश्चित ही प्रबन्धकीय कार्यकशलता में सधार होता है। उर्विक (Urwick) के मतानुसार, ‘प्रबन्ध के सिद्धान्तों के प्रयोग से प्रबन्धक. समस्याओं के समाधान में मार्गदर्शक रेखाओं का प्रयोग करके सफल हो सकता है तथा उसे जोखिमपर्ण तीर एवं तुक्के जैसी अवैज्ञानिक तकनीकों का सहारा नहीं लेना पड़ता। (2) प्रबन्ध के सिदान्तों के बिना प्रबन्ध विज्ञान की प्रकृति का समझना या प्रबन्धकीय प्रशिक्षण प्राप्त करना. सम्भव नहीं होता। (3) प्रबन्ध के सिद्धान्त भावी शोध हेत मार्ग-प्रशस्त करते हैं। (4) प्रबन्ध क सिद्धान्त मानवीय व भौतिक साधनों का श्रेष्ठतम उपयोग करने में सहायता करत हा

विभिन्न विद्वानों के मतप्रबन्ध के अधिकांश सिद्धान्तों का प्रतिपादन अभ्यासरत प्रबन्धका द्वारा ही किया गया है और साथ ही कुछ लेखकों ने भी प्रबन्ध विज्ञान के सिद्धान्त प्रतिपादित किया है, परन्तु प्रबन्ध की परिभाषा एवं कार्यों की भाँति प्रबन्ध के सिद्धान्तों के सम्बन्ध में भी प्रबन्ध के विद्वान एकमत नहीं हैं। भिन्न-भिन्न विद्वानों ने प्रबन्ध के भिन्न-भिन्न सिद्धान्त बताये हैं। सर्वप्रथम हनरा फेयोल ने सन् 1916 में प्रबन्ध के 14 सिद्धान्त प्रतिपादित किये जो आज भी अपनी विशिष्ट उपयोगिता रखते हैं। उर्विक ने 6, जार्ज आर० टैरी ने 28 कण्ट्रज एवं ओ’डोनेल ने 15, काथ डेविस ने 4 सिद्धान्तों की सूची तैयार की है। वर्तमान समय में प्रबन्ध के सिद्धान्तों की बड़ी व्यापक सची है। अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से हम पहले फेयोल द्वारा प्रतिपादित 14 सिद्धान्तों की व्याख्या करेंगे, क्योंकि इनके द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त ही अधिक तर्कपूर्ण, व्यावहारिक एवं विस्तृत हे

और इसके बाद अन्य विद्वानों द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों का सार प्रस्तुत करेंगे।

हेनरी फेयोल द्वारा प्रतिपादित प्रबन्ध के सिद्धान्त

1 कार्य का विभाजन (Division of Work)-इसे विशिष्टीकरण का सिद्धान्त भी कहते हैं। इस सिद्धान्त की मान्यता यह है कि प्रत्येक व्यक्ति प्रत्येक प्रकार के काम करने के योग्य नहीं है; अत: जो व्यक्ति शारीरिक व मानसिक दृष्टि से जिस कार्य के करने के योग्य हो, उसे वही कार्य सौंपा जाना चाहिए। फेयोल के मतानुसार विशिष्टीकण एवं प्रमापीकरण के लाभों को प्राप्त करने के लिए कार्य का विभाजन अति आवश्यक है। कार्य विभाजन व विशिष्टीकरण का सिद्धान्त सभी कार्यों पर चाहे वे प्रबन्धकीय हों या तकनीकी, समान रूप से लागू किया जाना चाहिए। कार्य के विभाजन के आधार पर उपयुक्त कार्य के लिए उपयुक्त व्यक्ति की नियुक्ति (Appointment of right man to right job) करके श्रेष्ठ किस्म का और अधिक मात्रा में कार्य कराया जा सकता है।

2. अधिकार एवं उत्तरदायित्व (Authority and Responsibility)-फेयोल के अनुसार अधिकार और उत्तरदायित्व सहगामी हैं अर्थात् ये एक ही सिक्के के दो पहलू के समान हैं। यदि किसी व्यक्ति को कोई उत्तरदायित्व सौंपा जाता है, तो उस दायित्व को पूरा करने के लिए उसे अधिकार भी दिये जाने चाहिएँ। बिना अधिकार के कोई भी व्यक्ति कुशलतापूर्वक अपने कर्त्तव्य का निर्वाह नहीं कर सकता, परन्तु इस सम्बन्ध में यह ध्यान रखें कि उत्तरदायित्वों एवं अधिकारों में समानता होनी चाहिए। यदि उत्तरदायित्व अधिक और अधिकार कम हैं, तो उत्तरदायित्व को भली प्रकार पूरा नहीं किया जा सकता और इसके विपरीत यदि उत्तरदायित्व कम हैं और अधिकार अधिक हैं, तो अधिकारों के दुरुपयोग की सम्भावना बनी रहती है। अतः अधिकार एवं उत्तरदायित्व में एकरूपता रहना आवश्यक है।

3. अनुशासन (Discipline)-अनुशासन से आशय अपने से उच्च अधिकारों की आज्ञा | पालन करने, नियमों के प्रति आस्था तथा सम्बन्धित अधिकारियों के प्रति आदर का भाव रखने से है। एक औद्योगिक संस्था में अनुशासन बनाये रखने की बहुत आवश्यकता है तथा एक अच्छा नेता ही अच्छा अनुशासन कायम कर सकता है। फेयोल के शब्दों में, “बुरा अनुशासन एक बुराई है जो प्रायः बुरे नेतृत्व से आती है। किसी भी संस्था में अनुशासन बनाये रखने के लिए यह आवश्यक है कि उच्च कोटि के सुयोग्य निरीक्षकों की नियुक्ति की जाय, आदेशों या नियमों का उल्लंघन करने वालों के लिए दण्ड की उचित व्यवस्था हो तथा अपने अधीनस्थ कर्मचारियों के साथ न्यायपूर्ण व्यवहार किया जाय।

4. आदेश की एकता (Unity of Command)-इस सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक कर्मचारी को उससे एकदम उच्च अधिकारी (Immediate Boss) के द्वारा ही आदेश मिलने चाहिएँ, न कि अन्य। उच्च अधिकारियों से। अनेक अधिकारियों से आदेश मिलने पर कर्मचारी न केवल भ्रमित । (Confused) हो सकता है, अपितु वह अपने दायित्व से भी विमुख हो सकता है।

5. निर्देश की एकता (Unity of Direction)–कार्य में एकरूपता तथा समन्वय लाने के लिए, यह सिद्धान्त अत्यन्त आवश्यक है, जिस प्रकार एक शरीर के दो सिर होने पर मानव, मानव न होकर दानव हो जाता है. ठीक ऐसी ही स्थिति एक कार्य के लिए दो पर्यवेक्षकों के होने पर हो जाती ह। अत: किसी एक उद्देश्य की पर्ति हेत क्रियाओं के एक समह का संचालन केवल एक ही व्यक्ति द्वारा किया जाना चाहिए तथा उसकी एक ही योजना होनी चाहिए।

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6. सामान्य हितों के लिए व्यक्तिगत स्वार्थों का समर्पण (Subordination of Individual nerest to the Comman Good)-फेयोल के मतानुसार, एक कुशल प्रशासक को चाहिए कि वह सस्था के हितों एवं व्यक्तिगत स्वार्थ में समन्वय व सामंजस्य बनाये रखे। यदि कभी इन दोनों में सघर्ष उपस्थित हो जाय, तो व्यक्तिगत हितों की अपेक्षा सामान्य हितों को ही प्राथमिकता दी जानी चाहिए। यह उसी दशा में सम्भव हो सकता है. जबकि प्रबन्धकीय व्यवहार में न्याय, दृढ़ता तथा सतर्कता हो। आलस्य, स्वार्थ, कमजोरी, अज्ञानता. कार्य में ढिलाई आदि कुछ ऐसे कारण हैं जो सामूहिक हित के महत्व को कम कर देते हैं।

7. कर्मचारियों का पारिश्रमिक (Remuneration of Personnel)-इस सिद्धान्त के अनुसार कर्मचारियों को पारिश्रमिक देने की पद्धति सन्तोषजनक तथा न्यायोचित होनी चाहिए। इस सम्बन्ध में महत्वपूर्ण तथ्य यह है कितथा कर्मचारियों दोनों की दृष्टि से उचित होना चाहिए अन्यथा संस्था में तनाव की स्थिति बनी रहेगी। अत: पारिश्रमिक देने की पद्धति ऐसी होनी चाहिए जिसमें पारिश्रमिक की सरक्षा हो, अधिक कार्य करने पर अधिक पुरस्कार की व्यवस्था हो और एक निश्चित सीमा से अधिक भुगतान न हो।

8. केन्द्रीकरण (Centralisation)-केन्द्रीकरण एक ऐसी स्थिति होती है जिसके अन्तर्गत सभी प्रमुख अधिकार किसी एक व्यक्ति या विशिष्ट पद के पास सुरक्षित रहते हैं अर्थात् इस व्यवस्था के अन्तर्गत अधिकारों का सहायकों को भारार्पण नहीं किया जाता है। इसके विपरीत, विकेन्द्रीकरण एक ऐसी व्यवस्था होती है जिसके अन्तर्गत सभी अधिकार किसी विशिष्ट व्यक्ति या पद के पास एकत्रित नहीं होते, अपितु अधिकार उन व्यक्तियों को भारार्पित कर दिये जाते हैं जिनसे यह सम्बन्धित होते हैं। फेयोल ने केन्द्रीकरण व विकेन्द्रीकरण को समझाते हुए कहा है कि वे सभी चीजें जो सहायकों के महत्व को बढ़ाती हैं, विक्रेन्दीयकरण हैं और इसके विपरीत वे सभी चीजें जो सहायकों के महत्व को कम करती हैं, केन्द्रीकरण हैं। अत: दोनों की पूर्णता अवांछनीय है। दोनों के मध्य संस्था की आवश्यकता एवं परिस्थिति के अनुसार किसी ऐसी स्थिति को व्यवहार में लाना चाहिए जिससे संस्था के कर्मचारियों को अपनी योग्यता का प्रदर्शन करने का पूर्ण अवसर मिल सके और संस्था निरन्तर प्रगति कर सके।

9. क्रम श्रृंखला या पदाधिकारी सम्पर्क श्रृंखला (Scalar Chain)-इससे आशय उच्चतम पदाधिकारी (Top Management) से लेकर निम्नतम पदाधिकारी तक के बीच सम्पर्क की व्यवस्था के क्रम से है। फेयोल के मतानुसार संस्था के पदाधिकारी ऊपर से नीचे की ओर एक सीधी रेखा के रूप में संगठित होने चाहिए तथा किसी भी अधिकारी को अपनी सत्ता-श्रेणी का उल्लंघन नहीं करना चाहिए। इस सिद्धान्त को दोहरी सीढ़ी G. A. R. चित्र के माध्यम से स्पष्ट किया जा सकता है।

इस सिद्धान्त के अनुसार यदि कोई आदेश A विभाग से F विभाग को जाना है, तो यह आदेश क्रमानुसार B, C, D, E विभागों से होता हुआ F विभाग को पहुँचेगा। इस प्रकार यदि F विभाग Q विभाग से सम्पर्क स्थापित करना चाहता है, तो प्रथम श्रेणी पर पहले F विभाग से प्रत्येक विभागीय स्तर के द्वारा होते हुए A विभाग तक जाना होगा और तत्पश्चात् । A विभाग से दूसरी श्रेणी पर Q विभाग तक जाना होगा।

हाँ, यदि सत्ता रेखा के यन्त्रवत अनुसरण से कुछ देरी या हानि की आशंका हो, तो उसका उल्लंघन अवांछनीय न होगा। दूसरे शब्दों में F/2… संचार को तीव्रगामी बनाने के उद्देश्य से इस व्यवस्था में संस्था की / आवश्यकता तथा परिस्थिति के अनुसार समायोजन किये जा सकते हैं।

10. व्यवस्था (Order) यह सिद्धान्त सामग्री और कर्मचारी दोनों की व्यवस्था से सम्बन्धित हा फयाल के अनुसार, ‘प्रत्येक वस्त के लिए एक निश्चित स्थान एवं प्रत्येक वस्तू अपनानाश्चत स्थान पर’ होनी चाहिए और ‘प्रत्येक व्यक्ति के लिए एक निश्चित स्थान एवं प्रत्येक व्यक्ति अपन स्थान पर’ होना चाहिए। ऐसी व्यवस्था होने से सामग्री की क्षति एवं समय की बरबादी को रोका जा सकता है।

11. समता या न्याय (Equity)-समता का आशय कर्मचारियों के प्रति न्यायोचित तथा उदारता का भाव रखने से है अर्थात संमता. न्याय तथा दया का मिश्रण है। कर्मचारिया क साथ व्यवहार करते समय और विशेषकर दण्ड देते समय केवल न्यायिक पक्ष को ही ध्यान में नहीं रखना चाहिए, अपितु दया और मानवता को भी महत्व देना चाहिए। इसके अतिरिक्त सभी कर्मचारियों के साथ व्यवहार की समानता भी आवश्यक है। कर्मचारियों के साथ समानता का व्यवहार करने से कर्मचारियों में कार्य के प्रति लगन तथा संस्था के प्रति लगाव पैदा होता है।

12. कर्मचारियों के कार्यकाल में स्थायित्व (Stability of Tenure of Personnels)-फेयोल के मतानुसार जहाँ तक सम्भव हो सके कर्मचारियों के कार्यकाल में स्थायित्व होना चाहिए जिससे कि वे निश्चित होकर लगन से कार्य कर सकें। किसी नये कर्मचारी द्वारा किसी नवीन काम को सीखने तथा कुशलतापूर्वक उसके निष्पादन में समय लगना स्वाभाविक है। अत: यदि उस अवधि के पूर्व ही उसे निकाल दिया जाय अथवा काम सीखने का समुचित समय न दिया जाय, तो वह न्यायसंगत न होगा। कर्मचारियों द्वारा जल्दी-जल्दी संस्था को छोड़कर चले जाना प्रायः कुप्रबन्ध का ही परिणाम होता है। यह न केवल संस्था की दृष्टि से हानिकारक है, बल्कि कर्मचारियों के मनोबल पर भी इसका बुरा प्रभाव पड़ता है।

13. पहल क्षमता (Initative)-पहल क्षमता से अभिप्राय किसी योजना को सोचने प्रस्तावित करने और उसको लागू करने की स्वतन्त्रता से है। प्रत्येक प्रबन्धक को चाहिए कि वह अपने अधीनस्थ कर्मचारियों को पहल करने का अवसर प्रदान करे। अधीनस्थ कर्मचारियों के अच्छे सुझाव एवं योजनाओं को क्रियान्वित किया जाना चाहिए और उनकी सहायता की जानी चाहिए।

14. सहयोग की भावना (Espirit de Corps)-फेयोल ने मिलकर कार्य करने की भावना पर अधिक बल दिया है। समस्त संगठन को एक टीम की भाँति सहयोगपूर्वक काम करना चाहिए। पारस्परिक सहयोग ही कार्यसिद्धि का मूल मन्त्र है। सहयोग भावना को प्रेरित करने के लिए आदेश की एकता के सिद्धान्त का कठोरता से पालन होना चाहिए तथा सन्देशवाहन प्रणाली अत्यन्त प्रभावशाली होनी चाहिए और कर्मचारियों के साथ-साथ मिलकर कार्य करने का वातावरण विकसित किया जाना चाहिए।

हेनरी फेयोल का यह दृढ़ विश्वास था कि उपरोक्त सिद्धान्तों का प्रयोग न केवल व्यावसायिक संस्थाओं में वरन् आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक आदि सभी संस्थाओं में समान रूप से किया जा सकता है।

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प्रबन्ध के अन्य महत्वपूर्ण सिद्धान्त

(OTHER IMPORTANT PRINCIPLES OF MANAGEMENT)

हेनरी फेयोल के समय के बाद प्रबन्ध एवं औद्योगिक परिस्थितियों में अनेक परिवर्तन हए हैं। इन परिवर्तित परिस्थितियों में प्रबन्ध के कुछ अन्य सिद्धान्तं और खोजे गये हैं जिनका संक्षिप्त वर्णन निम्न प्रकार है

1 प्रयोग एवं योजना (Experiment and Planning)-आधुनिक वैज्ञानिक युग में संस्थाओं की विभिन्न क्रियाओं के लिए भिन्न-भिन्न प्रयोग (Experiments) प्रबन्ध की सफलता के प्रमुख अग बन गये हैं। इसके साथ ही साथ कार्यों को करने से पूर्व योजनाएँ बनायी जाती हैं और फिर नियोजित तरीके से कार्य कराये जाते हैं। नियोजित तरीके से कार्य कराने पर कम प्रयास एवं कम लागत स अधिक परिणाम प्राप्त होते हैं।

2. प्रमापीकरण (Standardisation)-प्रमापीकरण से आशय उत्पादन की एक ऐसी व्यवस्था से है जिसके अन्तर्गत एक निश्चित आकार, प्रकार, गुण, भार एवं विशेषता वाली वस्तुओं तथा सेवाओं का उत्पादन बड़े पैमाने पर किया जाता है। प्रमापीकरण का उद्देश्य यन्त्रीकरण, विशिष्टीकरण और बड़े पैमाने के उत्पादन की मितव्ययिताओं को प्राप्त करना है। प्रमापीकरण से ग्राहकों को वस्तुओं का चयन करने में बहुत सुविधा होती है और संस्था की ख्याति में भी वृद्धि होती है।

3. स्वास्थ्यप्रद कार्य का दशाएं (Healthy Working Condition)-कमचा कार्यकुशलता और काम करने के स्वास्थ्यप्रद वातावरण में प्रत्यक्ष सम्बन्ध होता है। इसलिए कर्मचारियों की कार्यकुशलता में वृद्धि करने के लिए यह आवश्यक है कि सस्था म जल विश्राम गृह, स्नानागार, स्वच्छ पीने का पानी. मनोरंजन. समचित प्रकाश एवं हवा, मशीनों की आड़ सामग्री (Fencing) आदि की उचित व्यवस्था होनी चाहिए।

4. आधुनिक दृष्टिकोण (Modern Outlook)-प्रबन्धकों को आधुनिक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए तथा धर्म-जाति से सम्बन्धित परातन मान्यताएँ व्यावसायिक कार्य के मार्ग में बाधा नहीं बननी चाहिएँ।

Principles Business management Development

मूल्यांकन (Appraisal)-फेयोल ने प्रबन्धकीय विचारधारा के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। उनके योगदान की समीक्षा नीचे दी गयी है

1 उन्होंने प्रबन्ध के सामान्य सिद्धान्तों का प्रतिपादन करके प्रबन्ध के विस्तृत दृष्टिकोण को प्रस्तुत किया है।

2. उन्होंने प्रबन्ध को सार्वभौमिकता प्रदान की है। उनसे पहले यह समझा जाता था कि प्रबन्ध की आवश्यकता केवल व्यवसाय में ही होती है।

3. शिक्षा एवं प्रशिक्षण के महत्व को स्पष्ट कर फेयोल ने सिद्ध कर दिया कि प्रबन्धक पैदा नहीं होते बनाये जाते हैं।

4. उन्होंने प्रबन्ध प्रक्रिया का विधिवत विश्लेषण करके प्रबन्ध के कार्यों को स्पष्ट किया है। कुछ विद्वानों ने फेयोल के सिद्धान्तों की आलोचना की है। उनका कहना है कि ये सिद्धान्त सामान्य ज्ञान पर आधारित हैं तथा इनमें विरोधाभास है। फेयोल ने प्रबन्धकीय शिक्षा की प्रकृति एवं सामग्री को स्पष्ट नहीं किया है। उनके सिद्धान्त सार्वभौमिक नहीं है तथा सभी परिस्थितियों में समान रूप से लागू नहीं होते। फेयोल ने मानवीय सम्बन्धों पर भी पर्याप्त ध्यान नहीं दिया है।

टेलर बनाम फेयोल (Taylor V/s. Fayol)

टेलर और फेयोल दोनों ही प्रबन्ध के आधारस्तम्भ हैं। दोनों ही विद्वानों ने प्रबन्धकीय कुशलता को बढ़ाने के लिए विचार प्रदान किए हैं। दोनों के विचार उनके व्यक्तिगत अनुभवों पर आधारित हैं। उनके विचारों में निम्नलिखित असमानताएँ हैं

1 टेलर के अध्ययन का केन्द्रबिन्दु कारखाना तथा श्रमिक हैं, जबकि फेयोल के अध्ययन का केन्द्रबिन्दु उच्चस्तरीय प्रबन्ध व उसकी समस्याएँ हैं।

2. टेलर ने कार्यक्षमता के सुधार पर अधिक बल दिया है, जबकि फेयोल ने ऐसे सिद्धान्तों का विकास किया है जिन्हें सामान्य रूप से कहीं भी लागू किया जा सकता है। टेलर का दृष्टिकोण तकनीकी है, जबकि फेयोल का दृष्टिकोण अधिक व्यापक है।

3. टेलर के सिद्धान्त वास्तविक प्रयोगों पर आधारित हैं, जबकि फेयोल के सिद्धान्त सामान्य ज्ञान एवं अनुभव पर आधारित हैं।

4. टेलर का दृष्टिकोण सूक्ष्म (Micro view) हैं, जबकि फेयोल ने समष्टि दृष्टिकोण (Macro view) अपनाया है।

5. टेलर की अपेक्षा फेयोल की विचारधारा अनुमानित कम तथा व्यावहारिक अधिक है।

6. फेयोल की विचारधारा सार्वभौमिक है, जबकि टेलर की विचारधारा एकांगी है।

7. टेलर का अध्ययन उपरोमुखी (Up-ward) है। उसने निम्नस्तरीय प्रबन्ध से उच्च-स्तरीय प्रबन्ध की ओर बढ़ने का प्रयास किया है।

उपरोक्त अंतरों के बावजूद टेलर तथा फेयोल के विचारों में कोई विरोधाभास नहीं है। उनके कार्य एक दूसरे के पूरक हैं तथा उनके विचारों में अंतर का कारण उनकी जीवन स्थिति है। उर्विक के शब्दों में, “टेलर तथा फेयोल दोनों के कार्य एक दूसरे के पूरक हैं। दोनों ने यह अनभव किया कि प्रबन्ध के प्रत्येक स्तर पर कर्मचारियों तथा उनके प्रबन्ध की समस्या औद्योगिक सफलता की

प्रबन्ध विचारधारा का विकास कुंजी है। दोनों ने ही इस समस्या के समाधान के लिए वैज्ञानिक तरीकों का प्रयोग किया है। यद्यपि टेलर ने मुख्यत: औद्योगिक प्रबन्ध के क्रम में नीचे से ऊपर की ओर क्रियात्मक स्तर पर कार्य किया है, जबकि फेयोल ने जनरल मैनेजर के पद पर ध्यान केन्द्रित करके नीचे की ओर कार्य पर जार दिया है। तथापि यह अन्तर उनके भिन्न व्यवसायों का प्रतिबिम्ब मात्र है।” टेलर को वैज्ञानिक प्रबन्ध का पिता कहा जाता है, तो फेयोल को प्रबन्ध के सिद्धान्तों का पिता कहना उचित होगा।

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() दफ्तरशाही मॉडल (Bureaucracy Model)

जर्मन समाजशास्त्री मैक्स वेबर (1864-1920) ने दफ्तरशाही संगठन को प्रबन्धकीय समस्याओं के निराकरण एवं व्यक्तियों के नियन्त्रण का सर्वाधिक विवेकपूर्ण साधन माना है। इस विचारधारा में औपचारिक संगठन, प्राधिकार, विशिष्टीकरण, नियमों, अव्यक्तिगत सम्बन्धों तथा प्रबन्धकों के प्रशिक्षण पर अत्यधिक बल दिया गया है। इनसे एक आदर्श संगठन के निर्माण की कल्पना की गई है, परन्तु इनसे सम्प्रेषण, पहल करने की शक्ति तथा अभिप्रेरणा में कठिनाई होती है। दफ्तरशाही विचारधारा से निर्णय में देरी, दृढ़ता (Regidity). उत्कंठा (Anxiety), आदि विकार उत्पन्न होते हैं। अत: दफ्तरशाही विचारधारा आदर्शात्मक या शैक्षणिक (Academic) अधिक और व्यावहारिक कम है।

2. नवप्रतिष्ठित प्रबन्ध पद्धति

(NEO-CLASSICAL MANAGEMENT SYSTEM)

सन् 1919 में प्रथम विश्व युद्ध समाप्त होने के उपरान्त 1920 के दशक में विश्व में ऐसे तीव्र परिवर्तन हुए कि उन्होंने लोगों के सोचने की दिशा ही बदल दी। विश्व शान्ति के लिए लीग ऑफ नेशन्स (League of Nations) की स्थापना की गई, रूस में लेनिन ने पूँजीपति वर्ग को नष्ट कर समाजवादी राज्य की स्थापना की एवं विश्व में अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग तथा मानवीय अधिकारों पर जोर दिया जाने लगा। इस समय के प्रबन्ध ने समाज के बदलते दृष्टिकोण को अनुभव किया।

उसे अब टेलर का वैज्ञानिक प्रबन्ध, जिसमें श्रमिक को मशीन की तरह मान लिया गया है एवं श्रमिक की व्यक्तिगत भावनाओं तथा आकांक्षाओं को कोई महत्व प्रदान नहीं किया गया है, अव्यवहारिक नजर आने लगा। फलस्वरूप उद्योगों में अब मानव सम्बन्ध प्रबन्ध (Humance Relations Management) पर शोध व प्रयोग प्रारम्भ कर दिए गए जिनमें ‘हॉथोर्न परीक्षण’ सर्वाधिक महत्वपूर्ण माने जाते हैं। इन्हें नव प्रतिष्ठित प्रबन्ध शास्त्रियों की संज्ञा दी जाती है। नव प्रतिष्ठित समूह में हॉथोर्न परीक्षण एवं व्यवहारवादी दृष्टिकोण वाले प्रबन्ध शास्त्रियों को सम्मिलित किया जाता है।

() हॉथोर्न परीक्षण (1927-1932) (Hawthorne Experiments : 1927-1932)

प्रबन्ध में मानवीय विचारधारा का सूत्रपात मुख्यतया हॉथोर्न परीक्षणों से हुआ। ये परीक्षण अमेरिका के Haward Business School में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर एल्टन मायो एवं उनके साथियों ने 1927-32 वेस्टर्न इलेक्ट्रिक कम्पनी के हाथोन स्थित कारखाने में किये थे। इन परीक्षणों का उद्देश्य उत्पादन तथा कारखाने की दशाओं में सम्बन्ध मालूम करना था। इन परीक्षणों में निम्नलिखित अध्ययन मुख्य हैं

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1 जाँच कक्ष अध्ययन (Test Room Studies)-जाँच कक्ष अध्ययन के अन्तर्गत मायो ने दो अध्ययन किये। प्रथम, अध्ययन में प्रकाश व्यवस्था के परिवर्तन से कर्मचारियों की उत्पादन क्षमता पर होने वाले प्रभाव को जॉचा गया। मायो ने पाया कि प्रकाश का उत्पादन क्षमता पर कोई महत्वपूर्ण प्रभाव नहीं पड़ता। द्वितीय, अध्ययन में कर्मचारियों को दो समूहों में बाँटकर उन्हें अलग-अलग कमरों में कार्य करने के लिए कहा गया। एक समह में कार्यानुसार मजदूरी, मध्यांतर, कार्य के कम घंटे आदि सुविधाएँ दी गयीं जिनसे उत्पादन में वृद्धि हई। मायो दल इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि श्रमिकों की कार्यक्षमता को बढ़ाने में भौतिक वातावरण की अपेक्षा प्रबन्धकों का व्यवहार एवं कर्मचारियों का मनोबल अधिक महत्वपूर्ण है। स्वतन्त्रतापूर्वक कार्य करने का अवसर, अनौपचारिक संगठन तथा सामाजिक सम्बन्ध एवं मनोबल उत्पादन बढ़ाने में सहायक होते हैं।

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2. साक्षात्कार अध्ययन (Interviewing Studies)-इस अध्ययन में कर्मचारियों का उनके। काय एवं निरीक्षकों के प्रति दष्टिकोण ज्ञात करने के लिए उनसे स्वतन्त्र साक्षात्कार किया गया। इनस निम्नलिखित तथ्य प्रकट हुए

() श्रमिकों के मनोबल को ऊँचा रखने के लिए उन्हें अपनी शिकायतों तथा परेशानियों को स्पष्ट करने की स्वतन्त्रता या अवसर प्रदान करना आवश्यक है।

() शिकायतें सदैव वास्तविक तथ्यों को इंगित नहीं करतीं। ये प्रायः अंत:मन में छिपी व्यथाओं का लक्षण होती हैं।

() कारखाने के आन्तरिक एवं बाह्य वातावरण से कर्मचारियों की मांगों पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है।

() किसी कर्मचारी की सन्तुष्टि का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि वह किस सामा तक सस्था में अपने सामाजिक अस्तित्व को समझता है और उस प्राप्त कर

4. अवलोकन अध्ययन (Observational Studies)-इस अध्ययन में पूराने तरीकों को बदल बिना श्रमिकों एवं उनके निरीक्षकों के सामाजिक सम्बन्धों को ज्ञात करने का प्रयास किया गया। इस उद्देश्य के लिए श्रमिकों को चौदह-चौदह के समूहों में विभाजित किया गया। इस अध्ययन से यह निष्कर्ष निकला कि प्रत्येक श्रमिक का व्यवहार उसके समूह द्वारा नियन्त्रित होता है। कोई भी श्रमिक समूह के सामाजिक दबाव के विरूद्ध कार्य नहीं करना चाहता। अत: अनौपचारिक संगठन व्यक्तियों के विचारों तथा व्यवहार पर अत्यधिक प्रभाव डालता है।

उपरोक्त परीक्षणों से निम्नलिखित निष्कर्ष निकाले गए

1. श्रमिकों के मनोबल तथा उत्पादकता को बढ़ाने में उनकी सुरक्षा, मान्यता तथा आत्मीयता काम की दशाओं से अधिक महत्वपूर्ण है।

2. कर्मचारी केवल आर्थिक लाभ ही नहीं चाहते वे सामाजिक प्राणी भी हैं। भौतिक सुविधाओं की अपेक्षा सामाजिक तथा मनोवैज्ञानिक तत्त्व उनके व्यवहार तथा कार्यकुशलता पर अधिक प्रभाव डालते हैं।

3. कारखाने के अनौपचारिक समूह श्रमिक के दृष्टिकोण तथा कार्यक्षमता पर नियन्त्रण रखते हैं। कार्य एक सामूहिक क्रिया है।

4. शिकायतें कुछ तथ्यों के विवरण मात्र नहीं हैं, अपितु ये असन्तुष्टि का लक्षण हैं।

5. प्रबन्धकों का कर्मचारियों के साथ मानवीय व्यवहार, कर्मचारियों की कार्यकुशलता बढ़ाता है और साथ ही उन्हें सामाजिक सन्तुष्टि प्रदान करता है।

6. एक स्थापित समाज से नए समाज में परिवर्तन कारखाने के सामाजिक जीवन में उथल-पुथल मचाता है।

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हॉथोर्न परीक्षणों ने प्रबन्ध के अध्ययन एवं विकास को नई दिशा प्रदान की। इन परीक्षणों के बाद रोथलिस बर्जर, मेकग्रेगर,हर्जबर्ग, फोलेट आदि अनेक विद्वानों ने लम्बी अवधि तक प्रयोग किए। इन प्रयोगों ने प्रबन्ध में मानवीय व्यवहार विचारधारा को जन्म दिया। इस विचारधारा के अनुसार व्यवसाय की समस्त क्रियाओं का आधार मानव है। यदि मानव के व्यवहार, भावनाओं तथा आकांक्षाओं को भली-भाँति समझ लिया जाए, तो उनसे कार्य आसानी से कराया जा सकता है। अतः प्रबन्धकों को अपने अधीनस्थों की भावनाओं का आदर करना चाहिए तथा आपसी सम्बन्ध (Inter-personal relation) विकसित करने चाहिएँ।।

मानवीय व्यवहार विचारधारा समाजशास्त्र तथा मनोविज्ञान के उन आधारभूत सिद्धान्तों की तरफ ध्यान दिलाती है जिनसे श्रमिकों को सामाजिक तथा मानसिक रूप से सन्तुष्ट रखा जा सकता है। इस विचारधारा के समर्थक श्रमिक को कार्यों का केन्द्रबिन्दु मानते हैं, मशीन का पूर्जा नहीं। उन्होंने प्रबन्धकीय समस्याओं के निवारण के लिए मानवीय दृष्टिकोण अपनाने, कर्मचारियों को निर्णयन में। हिस्सा देने, अनौपचारिक समूहों को बढ़ावा देने, व्यक्ति विचार विमर्श करने आदि पर बल दिया।

मूल्यांकन (Appraisal) मानवीय व्यवहार विचारधारा से प्रबन्ध के विकास में निःसन्देह एक क्रांतिकारी मोड़ आया। इससे व्यावसायिक जगत में मानव का महत्व बढ़ा, परन्तु कुछ विद्वानों ने प्रबन्ध विचारधारा का विकास इस विचारधारा की आलोचना की है। सर्वप्रथम. इस विचारधारा में मानव पक्ष पर अत्यधिक जोर दिया गया है जिससे प्रबन्ध का कलापक्ष तो अधिक मजबत बन गया है एवं विज्ञान पक्ष कमजोर पड़ गया है। दूसरे, इस विचारधारा में व्यापक सामाजिक वातावरण को अनदेखा किया गया है। व्यवसाय समाज का अंग है और इस पर समाज की परिस्थितियों का गहरा प्रभाव पड़ता है। मानवीय व्यवहार ही सम्पूर्ण प्रबन्ध नहीं है और इसके अतिरिक्त प्रबन्ध के अन्य पहलओं पर ध्यान देना आवश्यक है। पीटर कर के शब्दों में, “यद्यपि मानवीय सम्बन्ध विचारधारा ने प्रबन्ध को नया रूप दिया है तथा

किया है, परन्तु इसने कोई नवीन विचारधारा प्रस्तुत नहीं की है। मानवीय सम्बन्धों की यह विचारधारा आपसी सम्बन्धों तथा अनौपचारिक समूहों पर विशेष जोर देती है। इस विचारधारा का प्रारम्भिक पहलू व्यक्तिगत मनोविज्ञान है न कि श्रमिक तथा कार्य।” (ब) प्रबन्ध का व्यवहारवादी विज्ञान के रूप में विकास (Development of Management as Behavioural Science)

एल्टन मायो तथा उसके सहयोगियों द्वारा किए गए हॉथोर्न परीक्षणों ने उद्योगों में मानवीय सम्बन्धों की नींव डाली और यह सिद्ध कर दिया कि भौतिक तत्त्वों की तुलना में उत्पादकता में वृद्धि की दृष्टि से मानवीय तथा सामाजिक तत्त्व अधिक प्रभावपूर्ण होते हैं, परन्तु बाद में किए गए अनेक शोध अध्ययनों ने यह इंगित किया है कि हाथोर्न प्रयोगों द्वारा प्रतिपादित मानवीय सम्बन्ध सिद्धान्त यद्यपि उपयोगी हैं, परन्तु वे आज की बदली हुई परिस्थितियों में कर्मचारियों तथा संगठन के विकास सम्बन्धी समस्याओं का पूर्ण निराकरण करने में असमर्थ हैं। सन् 1940 के बाद मानवीय सम्बन्ध की विचारधारा और अधिक विकसित हुई। व्यवहारवादी प्रबन्धशास्त्रियों के अनुसार एक प्रसन्नचित्त एवं सखी व्यक्ति दूसरों की अपेक्षा अधिक अच्छा कार्य करता है। लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए मानवीय व्यवहार को समझना अत्यन्त आवश्यक है। प्रमुख व्यवहारवादी प्रबन्धशास्त्रियों द्वारा दिये गये योगदान की संक्षिप्त सूची निम्न प्रकार है

(i) डगलस मेकग्रेगर (Mc Gregor)-एक्स एवं वाई सिद्धान्त (ii) मैस्लो (Maslo)-आवश्यकता स्तर (Need Hierachy)

(iii) हर्जबर्ग (Herzberg)-प्रेरणा का स्वास्थ्य सिद्धान्त एवं कार्य सम्पन्नता (Hygiene theory and job enrichment)

(iv) ब्लैक एवं मोटन (Black and Mouton)-प्रबन्धकीय ग्रिड (Managerial grid) (v) सेयल्स (Sayales)-अवैयक्तिक व्यवहार (Impersonal Behaviour) (vi) बेनिस (Bennis)—संगठनात्मक विकास (Organisational Development)

व्यवहारवादी दृष्टिकोण के क्षेत्र में योगदान करने वाले उपर्यक्त विद्वानों के सिद्धान्तों ने निम्न तीन बातों पर मुख्य रूप से जोर दिया है

1 व्यक्तिगत भिन्नताएँ (Individual Differences)-ये सिद्धान्त यह मानते हैं कि एक संगठन में कार्यरत प्रत्येक कर्मचारी में भावनाओं, आकांक्षाओं तथा दृष्टिकोणों के आधार पर भिन्नता पाई जाती है तथा उन्हें सही प्रकार से अभिप्रेरित करने के लिए इन भिन्नताओं की जानकारी होना आवश्यक है।

2. अनौपचारिक कार्यसमूह (Informal Work-groups)-कर्मचारियों के अनौपचारिक कार्य समूह होते हैं जिनमें कार्य करने से उन्हें सन्तुष्टि मिलती है, अतः प्रबन्ध को चाहिए कि वह औपचारिक संगठन संरचना करते समय अनौपचारिक कार्यसमूहों को ध्यान में रखें।

3. प्रबन्ध में भागीदारी (Participation in Management)-व्यवहारवादी दृष्टिकोण वाले लगभग सभी विद्वान यह मानते थे कि प्रबन्ध में श्रमिकों तथा अन्य कर्मचारियों की भागीदारी उनके अन्दर उत्तरदायित्व की भावना उत्पन्न करती है और इससे उनकी उत्पादकता में वृद्धि होती है। स्वयं कार्य तथा कार्य की दशाएँ भी अच्छे अभिप्रेरक माने जाते हैं।

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प्रबन्ध की प्रणालीगत विचारधारा

(THE SYSTEM APPROACH TO MANAGEMENT)

प्रबन्ध में प्रणाली दृष्टिकोण का विकास मुख्यतया 1950 के बाद हुआ। वैज्ञानिक प्रबन्ध काल । तथा व्यवहारवादी प्रबन्ध काल में प्रबन्ध के जो भी सिद्धान्त विकसित किए गए हैं वे एक संस्था या। संगठन तक ही सीमित थे। _ प्रणाली विचारधारा के अनसार प्रत्येक संगठन को एक प्रणाली या तन्त्र के रूप में देखा जाना चाहिए, जिसके सभी विभाग व उपविभाग परस्पर सह-सम्बन्धित व अन्तर्निर्भर होते हैं। एक विभाग या उपविभाग के कार्यों का प्रभाव अन्य सभी विभागों व उपविभागों व समग्र संगठन के कार्य संचालन पर पड़ता है। इसलिए सम्पर्ण उपक्रम का प्रबन्ध उसे एक प्रणाली मानकर किया जाना चाहिए। प्रत्येक विभाग व अनभाग की प्रत्येक क्रिया का संचालन अन्य विभागों व अनुभागों और समग्र उपक्रम के कार्य-निष्पादन पर पड़ने वाले प्रभाव को ध्यान में रखकर करना चाहिए। जैसे, उत्पादन विभाग द्वारा उत्पाद में वांछित सुधार न करने पर विपणन विभाग के विक्रय लक्ष्य की पूर्ति न हो। सकेगी, जिससे उपक्रम का लाभ का लक्ष्य भी प्राप्त न हो सकेगा। इसी प्रकार सेविवर्गीय विभाग के कुशल न होने पर कर्मचारी का मनोबल गिर सकता है, जिससे सम्पूर्ण उपक्रम की कुशलता में गिरावट आयेगी, विपणन विभाग द्वारा उधार की अवधि बढ़ा देने पर वित्त विभाग के लिए रोकड़ सन्तुलन बनाये रखने में कठिनाई आ सकती है। इस प्रकार समग्र उपक्रम, एक प्रणाली या पद्धति की तरह है। प्रणाली प्रबन्ध (Systems Management) की तुलना हम मानव शरीर से कर सकते हैं। जिस प्रकार मानव शरीर में पाचन क्रिया, श्वसन क्रिया तथा मल-मूत्र त्यागन क्रिया पृथक्-पृथक् अस्तित्व वाली क्रिया या प्रणालियाँ (Systems) हैं, परन्तु वे अन्तर्सम्बन्धित भी हैं। एक क्रिया या प्रणाली में गड़बड़ी होने पर अन्य क्रियाएँ भी प्रभावित होती हैं एवं शरीर स्वस्थ नहीं रहता। इसी प्रकार संस्था का आन्तरिक संगठन पृथक प्रणालियाँ हैं, परन्तु वे अन्तर्सम्बन्धित भी हैं और संस्था के सुचारु रूप से संचालन के लिए इन सभी तन्त्रों में सामंजस्य पैदा करना जरूरी है।

जिस प्रकार किसी इंजिन के एक भी हिस्से में कोई विसंगति होने पर पूरे इंजिन की कार्य-प्रणाली अवरुद्ध हो जाती है, वही स्थिति व्यावसायिक उपक्रम की भी होती है। अन्तर केवल इतना है कि इंजिन एक बन्द प्रणाली है, क्योंकि यह बाह्य परिस्थितियों से अप्रभावित रहता है, जबकि व्यावसायिक उपक्रम को एक खुली प्रणाली (Open System) माना जाता है, क्योंकि यह बाह्य परिस्थितियों से बहुत अधिक प्रभावित होता है। वस्तुतः व्यावसायिक उपक्रम एक खुला तंत्र है जो अपने इर्द-गिर्द की घटनाओं एवं परिस्थितियों से प्रभावित होता है और उन्हें प्रभावित करता है। इस तन्त्र के विभिन्न तत्त्व एक दूसरे पर निर्भर हैं तथा किसी एक तत्त्व में खराबी आ जाने से सम्पूर्ण तन्त्र में गड़बड़ हो जाती है।

इस विचारधारा के अनुसार समस्त क्रियाओं को एकीकृत करके उनका अध्ययन करना चाहिए, ताकि सही निर्णयन एवं निर्धारित उद्देश्यों की प्राप्ति न्यूनतम लागत पर सम्भव हो सके। सम्पूर्ण प्रणाली को ध्यान में रखकर ही सही प्रबन्धकीय निर्णय लिये जा सकते हैं।

मान्यताएँ एवं विशेषताएँ (Assumptions and Characteristics)-प्रबन्ध की प्रणालीगत । विचारधारा की प्रमुख मान्यताएँ एवं विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

(i) इस विचारधारा की यह मान्यता है कि प्रबन्धक समूचे संगठन को एक एकीकृत प्रणाली (Unified System) मानकर प्रबन्ध करते हैं।

(ii) इसमें एक मुख्य प्रणाली होती है तथा अनेक उप-प्रणालियाँ होती हैं।

(iii) मुख्य प्रणाली तथा समस्त उप-प्रणालियों में अन्तर्सम्बन्ध होते हैं। एक उप-प्रणाली के द्वारा काम करना बन्द किये जाने पर मुख्य प्रणाली भी काम करना बन्द कर देती है।।

(iv) इस विचारधारा के समर्थको का मानना है कि सगठन एक खली पाली System) है जो बाह्य वातावरण से जुड़ी हुई होती है। ।

(v) प्रबन्ध की प्रणालीगत विचाराधारा वातावरण की आवश्यकता के अनसारसमलित होती है।

(vi) संगठन एक गतिशील प्रणाली है जिसके सभी निर्णय गतिशील परिस्थितियों में किये जाते हैं।

(vii) यह विचारधारा समग्र दृष्टिकोण अपनाती है। उप-प्रणालियाँ स्वतन्त्र होते हुए भा समन्वित रूप में योगदान करती हैं।

(viii) यह विचारधारा बह-विषयक दृष्टिकोण अपनाती है। यह मानती है कि संगठन बहु-आयामी, बहु-स्तरीय तथा बहु-तत्त्वों से युक्त (Multi-Variate) प्रणाली है। अत: विभिन्न घटकों पर विचार किया जाना आवश्यक होता है।

(ix) इस विचारधारा के अनुसार संगठन विभिन्न कार्यों तथा विभागों का संकलन मात्र नहीं है, बल्कि यह एक समन्वित तथा एकीकृत इकाई है।

(x) इस विचारधारा के अनुसार प्रमुख प्रणाली का उत्पादन उसकी उप-प्रणालियों से अधिक होता है।

(xi) यह विचारधारा सूचनाओं, सामग्री, ऊर्जा के प्रवाह (Flow) पर बल देती है।

प्रणालीगत विचारधारा की उपयोगिता (Utility of System Approach)-प्रणाली दृष्टिकोण संगठन व प्रबन्ध के अर्थपूर्ण विश्लेषण को समझने के लिए महत्वपूर्ण आधार प्रदान करता है। संगठन पर पड़ने वाले विभिन्न प्रभावों को समझने में सहायता प्रदान करता है, संगठन तथा वातावरण के मध्य सम्बन्ध स्थापित करता है। समाज तथा व्यवसाय की पारस्परिक निर्भरता पर बल देकर यह विचारधारा आज के तीव्र गति से बदलते वातावरण में अधिक उपयोगी सिद्ध होती है।

इस विचारधारा को उपयोगी बतलाते हुए कोरथ एवं रेचेल (Coruth and Rachel) कहते हैं कि “प्रणालीगत विचारधारा व्यावसायिक निर्णय प्रक्रिया में क्रान्ति ला रही है, क्योंकि इससे विस्तृत सूचनायें तत्काल प्राप्त हो जाती हैं जिनकी अच्छे निर्णयों में आवश्यकता पड़ती हैं।”

प्रणालीगत विचारधारा की कमियाँ/सीमाएँ (Limitations of System | Approach) यद्यपि प्रबन्ध की प्रणालीगत विचारधारा ने प्रबन्ध को एक नई दिशा प्रदान की है, परन्तु इसके बावजूद भी यह विचारधारा प्रबन्धकीय समस्याओं के समाधान में बहुत व्यावहारिक नहीं मानी जाती। इस विचारधारा की कुछ कमियाँ/सीमाएँ निम्नलिखित हैं

(i) कुछ आलोचकों के अनुसार वातावरण की विभिन्न प्रणालियों तथा उप-प्रणालियों के आपसी प्रभावों का ठीक प्रकार से अध्ययन कर पाना असम्भव होता है। इस दृष्टि से यह विचारधारा अव्यावहारिक प्रतीत होती है। यह विचारधारा सैद्धान्तिक अधिक है। | (ii) यह विचारधारा प्रबध की किसी तकनीक/उपकरण का वर्णन नहीं करती है। यह केवल चिन्तन का एक ढंग (Way of thinking) है।

(ii) यह विचारधारा विभिन्न प्रणालियों के मध्य विद्यमान सम्बन्धों एवं आश्रितताओं की प्रकृति को स्पष्ट नहीं करती है।

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सम्भाव्यता/आकस्मिकता या प्रासंगिक विचारधारा

(CONTINGENCY APPROACH)

यह विचारधारा प्रबन्ध सिद्धान्त का नवीनतम दृष्टिकोण है। यह विचारधारा प्रबन्ध सिद्धान्त की सार्वभौमिक प्रकृति को अस्वीकार करती है अर्थात् इस विचारधारा के अनुसार कोई भी प्रबन्धकीय सिद्धान्त या कार्य (action) ऐसा नहीं हो सकता जो कि सभी परिस्थितियों में उचित या अनुकूल सिद्ध हो। अनेक बार प्रबन्धकों ने अनुभव किया है कि जो सिद्धान्त अथवा तकनीक विशेष परिस्थिति में सफल हई है वही अन्य परिस्थितियों में असफल रही है। इस प्रकार के अनुभवों ने प्रासंगिक विचारधारा (Contingency Approach) को जन्म दिया। इस विचारधारा का विकास मुख्य रूप से टॉम बर्स, डब्ल्यू स्टाकर, जोन वुड़वार्ड, पाल लारेस, जे० लार्च एवं जेम्स थॉम्पसन, आदि विद्वानों ने किया है। इस विचारधारा के अनुसार प्रबन्ध पूर्व-निर्धारित अथवा रिडीमेड़ नहीं है, वरन् एक प्रबन्धक को क्या करना चाहिए यह सम्बन्धित परिस्थिति पर निर्भर करता है। अत: प्रबन्धक को वही विधि या मार्ग अपनाना चाहिए जो विद्यमान परिस्थिति में प्रासंगिक होता है अर्थात् जो समय की मांग होती है। इस प्रकार इस विचारधारा के अनुसार प्रबन्धक के कार्य एवं निर्णय तत्कालीन परिस्थितियों से प्रभावित होते हैं।

मान्यताएं एवं विशेषताएँ (Assumptions and Characteristics)-सम्भाव्यता अथवा आकस्मिकता विचारधारा की प्रमुख मान्यताएँ एवं विशेषताएँ निम्नलिखित है

1 इस विचारधारा के अनुसार ऐसा कोई भी सर्वश्रेष्ठ मार्ग, तकनीक अथवा विधि नहीं है। जिसके द्वारा सभी प्रबन्धकीय समस्याओं का समाधान किया जा सके।

2. यह विचारधारा प्रबन्ध कार्य को परिस्थितिजन्य अथवा सांयोगिक (Situational or Contingent) मानती है अर्थात् प्रबन्धकों को प्रत्येक प्रबन्धकीय निर्णय लेते समय विद्यमान परिस्थितियों पर निर्भर करना पड़ता है।

3. यह विचारधारा निर्णयों के लेने अथवा कार्यों को करने से पूर्व उनके प्रभावों से उत्पन्न होने वाले परिणामों पर भी ध्यान देती है।

4. इस विचारधारा के अनुसार प्रबन्धक वही व्यवहार करत हैं जो परिस्थितियों की माँग के अनुकूल होते हों।

5. यह विचारधारा प्रबन्ध विधि एवं निर्णयों को पर्यावरण से जोड़ने पर बल देती है।

6. विशिष्ट संगठन-पर्यावरण-सम्बन्धों के कारण कोई क्रिया ऐसी नहीं है, जोकि सार्वभौमिक

हो।

7. यह विचारधारा प्रबन्धकीय निर्णयों एवं तकनीकों को परिस्थितियों के सन्दर्भ में समायोजित करने पर बल देती है।

8. संगठन-संरचना ऐसी होनी चाहिए, ताकि वह संगठन को बाहरी पर्यावरण के साथ स्वस्थ अन्तर्सम्बन्धों की स्थापना में सहायता प्रदान कर सके।

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सम्भाव्यता/प्रासंगिक विचारधारा का उदाहरण द्वारा स्पष्टीकरण 

(Explanation of Contingency Approach by Means of an Illustration)-

मान लीजिए कि एक व्यावसायिक उपक्रम में उत्पादन में वृद्धि करने के लिए वहाँ पर कर्मचारियों को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है। ऐसी स्थिति में प्रतिष्ठित प्रबन्ध विचारक कार्य-सरलीकरण योजना लागू करने का सुझाव देंगे। व्यवहारवादी प्रबन्ध विचारक कार्य के वातावरण को कार्य एनरिचमेण्ट योजना द्वारा मनोवैज्ञानिक रूप से अभिप्रेरित करने का सुझाव देंगे। इसके विपरीत, प्रासंगिक विचारधारा को अपनाने वाले प्रबन्धक पहले तो विद्यमान परिस्थिति एवं पर्यावरण का विस्तृत रूप में अध्ययन करेंगे। तत्पश्चात् यह पता लगाने की चेष्टा करेंगे कि विद्यमान परिस्थितियों में कौन-सी सर्वोत्तम प्रबन्ध तकनीक, विधि अथवा सिद्धान्त कार्य करेगा। वे यह देखेंगे कि यदि कर्मचारी अकशल हैं और संसाधनों का अभाव है तो कार्य सरलीकरण की योजना अपनाना श्रेष्ठ रहेगा। इसके विपरीत, यदि कर्मचारी कुशल हैं और प्रबन्ध उनकी योग्यता में गर्व का अनुभव करता है, तो वे कार्य एनरिचमेण्ट योजना को लागू करने का निर्णय लेंगे। इस उदाहरण से स्पष्ट हो जाता है कि प्रासंगिक विचारधारा विद्यमान परिस्थिति एवं पर्यावरण की आवश्यकता के अनुरूप प्रबन्ध करने पर बल देती है।

मूल्यांकन (Appraisal)-प्रासंगिक विचारधारा व्यवसाय तथा उसके पर्यावरण में उचित सम्बन्ध बनाए रखने में सहायक है। इस विचारधारा से संगठन तथा पर्यावरण के आपसी सम्बन्ध का पता चलता है। यह विचारधारा व्यावहारिक दृष्टि से अधिक सही लगती है और प्रबन्धकों को निरन्तर जागरुक रखती है। इसे अपनाकर प्रबन्धक बदलती हुई परिस्थितियों में व्यवसाय की सफलता कायम रख सकते हैं, परन्तु यह विचारधारा अभी पूर्ण रूप से विकसित नहीं हुई है।

संक्षेप में, इस विचारधारा के प्रमुख गुण निम्नलिखित हैं(i) यह विचारधारा व्यावहारिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है। (ii) इस विचारधारा के आधार पर ठोस निर्णय लिये जा सकते हैं। (iii) यह विचारधारा प्रबन्धक को परिस्थिति की जटिलताओं के प्रति सचेत करती है।

(iv) यह विचारधारा परिस्थिति की जोखिमों, अनिश्चितताओं एवं दुष्प्रभावों से संगठन की रक्षा करती है।

प्रबन्ध विचारधारा का विकास

(v) यह विचारधारा व्यक्तियों, कार्यों तथा प्रबन्ध की अन्तर्निर्भरता को समझने में सहायक होती है।

(vi) यह विचारधारा परिवर्तनों का प्रबन्ध करने में सहायता करती है।

सीमाएँ (Limitations)-यद्यपि प्रासंगिक विचारधारा का प्रबन्ध के विकास में महत्वपूर्ण योगदान है, परन्तु इसमें निम्नलिखित महत्वपूर्ण कमियाँ अथवा सीमाएँ दृष्टिगोचर होती हैं

1 इस विचारधारा को सैद्धान्तिक रूप से समझना आसान है, परन्तु व्यवहार में प्रयोग करना बहत जटिल है। कभी-कभी परिस्थितियों की जटिलता एवं तीव्रता के कारण उनको समझना कठिन हो जाता है।

2. प्रासंगिक विचारधारा के सम्बन्ध में अभी तक Experimental एवं Research कार्य बहुत कम हुआ है जिसके कारण ऐसे सिद्धान्त विकसित नहीं हो सके हैं, जो यह बता सकें कि अमुक परिस्थितियों में अमुक प्रबन्धकीय तकनीक उपयुक्त रहेगी। इसलिए प्रबन्धक इस विचारधारा का पूर्ण उपयोग नहीं कर पा रहे हैं।

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परीक्षा हेतु सम्भावित महत्वपूर्ण प्रश्न

(Expected Important Questions for Examination)

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

(Long Answer Questions)

प्रश्न 1. ‘वैज्ञानिक प्रबन्ध’ क्या है ? प्रबन्ध के क्षेत्र में एफ० डब्लयू० टेलर की भूमिका एवं योगदान की विवेचना कीजिये।

What is ‘Scientific Management’ ? Discuss the role and contribution of E. W. Taylor in the field of scientific management.

प्रश्न 2. प्रबन्ध सम्बन्धी विचारधारा के सम्बन्ध में टेलर एवं फेयोल के योगदान को समझाइये।

Explain the contributions of Taylor and Fayol to management thought.

प्रश्न 3. वैज्ञानिक प्रबन्ध से आप क्या समझते हैं ? इसके सिद्धान्तों को संक्षेप में समझाइये।

What do you mean by scientific management ? Discuss its principles in brief.

प्रश्न 4. प्रबन्ध के विषय में हेनरी फेयोल के योगदान की विस्तृत समीक्षा कीजिये।

Discuss in detail the contribution of Henry Fayol to Management.

प्रश्न 5. प्रबन्ध सम्बन्धी विचारधारा के सम्बन्ध में टेलर एवं फेयोल के योगदान को समझाइये तथा उनकी तुलना कीजिये।

Explain and compare the contributions of Taylor and Fayol to management thought.

प्रश्न 6. प्रबन्ध के क्षेत्र में एल्टन मेयो के योगदान की विस्तृत समीक्षा कीजिये।

Discuss in detail the contribution of Elton Mayo in the field of management.

प्रश्न 7. प्रबन्ध के क्षेत्र में नव-प्रतिष्ठित दष्टिकोणों की विवेचना कीजिये।

Discuss the neo-classical approaches to management.

प्रश्न 8. प्रबन्ध के व्यवहारवादी तथा संयोगिक दृष्टिकोण से क्या आशय है ? इनकी विशेषताएँ व उपयोगिता समझाइये।

What do you understand by behavioural and contingency approach to management ? Examine their characteristics and utility.

Principles Business management Development

लघु उत्तरीय प्रश्न

(Short Answer Questions)

प्रश्न 1. वैज्ञानिक प्रबन्ध दृष्टिकोण को संक्षेप में समझाइये। ”

Scientific Approach to Management.” Discuss in short.

प्रश्न 2. प्रबन्ध के क्षेत्र में टेलर के योगदान का वर्णन कीजिये।

Describe Taylor’s contributions in the field of management.

प्रश्न 3. व्यवहारवादी दृष्टिकोण क्या है?

What is behavioral approach?

प्रश्न 4. प्रबन्ध की प्रासंगिक विचारधारा को स्पष्ट कीजिये।

Clearly explain the contingency approach to management.

प्रश्न 5. प्रबन्ध की प्रणालीगत विचारधारा पर टिप्पणी लिखिये।

Write a short note on the system approach to management.

Principles Business management Development

वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

1 बताइये कि निम्नलिखित कथन ‘सही हैं’ या ‘गलत’

Indicate whether the following statements are ‘True’ or ‘False

(i) ‘विज्ञान न कि अनमान’ सिद्धान्त हेनरी फेयोल ने प्रतिपादित किया

Henry Fayol propounded the principle of Science, not rule of thumb’.

(ii) हेनरी फेयोल अमेरिका के निवासी थे।

Henry Fayol was the resident of America.

(iii) टेलर द्वारा प्रतिपादित 14 सिद्धान्त हैं।

The 14 principles are propounded by Taylor.

(iv) प्रबन्ध का व्यवहारवादी सिद्धान्त के रूप में विकास एल्टन मायो ने किया।

Elton Mayo is the founder of behavioural science in management.

(v) प्रासंगिक विचारधारा प्रबन्ध सिद्धान्त की सार्वभौमिक प्रकृति को अस्वीकार करती है।

उत्तर-(i) गलत (ii) गलत (iii) गलत (iv) सही (v)

2. सही सही उत्तर चुनिये (Select the Correct Answer)

(i) निम्नलिखित में से कौन सा वैज्ञानिक प्रबन्ध से सम्बन्धित है ?

From the following who is related to scientific management?

() आर० एस० डाबर (R. S. Davar)

() एफ० डब्लयू० टेलर (F. W. Taylor)

() हेनरी फेयोल (Henry Fayol)

() इनमें से कोई नहीं (None of the above)

Principles Business management Development

chetansati

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