BCom 2nd Year Principles Business management Planning Concepts Types Process Notes in Hindi

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BCom 2nd Year Principles Business management Planning Concepts Types Process Notes in Hindi

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BCom 2nd Year Principles Business management Planning Concepts Types Process Notes in Hindi: Meaning and Definition of Planning  Nature and Characteristics  of Planning Essential Steps Involved in Planning Process Difference Between Planning and Forecasting Types of Planning  Principles  of Effective Planning  Importance of Planning in Management Difficulties Limitations or Criticisms of Planning Suggestions to Overcome the Limitation of Planning Examination Question Long Short Questions :

Planning Concepts Types Process
Planning Concepts Types Process

BCom 2nd Year Principles Business management Development Thought Study material notes in Hindi

नियोजन : अवधारणा, प्रक्रिया एवं प्रकार

[Planning : Concepts, Types and Process]

नियोजन प्रबन्ध का प्रथम एवं सर्वाधिक प्रमख कार्य है. अन्य सभी कार्य इसके बाद ही किये जाते हैं। यह सर्वदा उचित भी है, क्योंकि लक्ष्य निर्धारण तथा इनकी प्राप्ति के मार्ग निर्धारित किये बिना संगठन, निर्देशन, नियन्त्रण व समन्वय आदि का कोई तात्पर्य नहीं होता है। नियोजन की प्रक्रिया लक्ष्यों के निश्चयन से प्रारम्भ होती है और उनकी सफलतापूर्वक प्राप्ति होने पर उसका चक्र पूरा होता है। नियोजन के अन्तर्गत उद्देश्यों का निश्चयन किया जाता है तथा उनकी प्राप्ति हेतु नीतियों, कार्यविधियों, पद्धतियों और कार्यक्रमों की रूपरेखा बनायी जाती है। नियोजन में भविष्य के गर्भ में झांककर सर्वोत्तम वैकल्पिक कार्य-पथ को ज्ञात किया जाता है और यह अन्य सभी प्रबन्धकीय कार्यों से पहले किया जाता है।

Principles Business management Planning

नियोजन का अर्थ एवं परिभाषा

MEANING AND DEFINITION OF PLANNING)

नियोजन एक मानसिक प्रक्रिया है जिसके अन्तर्गत क्या करना है, कब करना है, कैसे एवं कहाँ करना है, किसे करना है, आदि बातों का पूर्व-निर्धारण किया जाता है। प्रबन्ध व प्रशासन के क्षेत्र में नियोजन से आशय निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए वैकल्पिक उद्देश्यों, नीतियों, कार्यविधियों एवं कार्यक्रमों में से सर्वोत्तम का चुनाव करने से लगाया जाता है। यह कार्य को करने से पहले उस पर सोच-विचार करने की बौद्धिक कसरत होती है। नियोजन में भविष्य के बारे में निर्णय लेने का भाव छिपा हुआ होता है जिससे कि भविष्य को अधिक निश्चित किया जा सके। नियोजन की प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं

1 कुण्ट्ज एवं डोनेल (Koontz and O’Donnell) के अनुसार, “नियोजन एक बौद्धिक प्रक्रिया है जो उद्देश्यों, तथ्यों एवं सुविचारित अनुमानों पर आधारित भावी कार्य-पथ का निर्धारण है।” व्याख्या-इनके मतानुसार नियोजन एक मानसिक व्यायाम है। यह गहन चिन्तन, भूतकालीन तथ्यों के विश्लेषण और भावी प्रवृत्तियों के सुविचारित अनुमान से पूरित होती है। नियोजनकर्त्ता में कठिन मानसिक श्रम, प्रचंड दूरदृष्टि और तथ्यों का विश्लेषणात्मक अध्ययन करने की क्षमता आवश्यक होती है।]

2. बिली ई० गोइट्ज (Billy E. Goetz) के अनुसार, “नियोजन मूलत: चयन करना है और नियोजन की समस्या तब पैदा होती है, जबकि वैकल्पिक कार्यपथ की खोज होती है।”व्याख्या-श्री गोइट्ज के अनुसार नियोजन मौलिक रूप में विभिन्न विकल्पों में से सर्वोत्तम का चुनाव करना है और किसी समस्या का इकलौता हल हो, तो नियोजन की आवश्यकता नहीं पड़ती है, परन्तु कुशल प्रबन्धक को चाहिए कि वह किसी भी समस्या को हल करने के लिये अन्य सम्भावित विकल्पों की खोज करके उनका तुलनात्मक अध्ययन करके सर्वोत्तम को चुने।]

3. मेरी कुशिंग नाइल्स (Marry Cushing Niles)– “नियोजन किसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए सर्वोत्तम कार्यपथ का चुनाव करने एवं विकास करने की जागरुक प्रक्रिया है। यह वह प्रक्रिया है जिस पर भावी प्रबन्ध-प्रकार्य निर्भर करते हैं।’

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[व्याख्यानाइल्स की परिभाषा यह संकेत करती है कि नियोजन पूर्व-निर्धारित लक्ष्य की प्राप्ति हेतु विविध विकल्पों में से सर्वोत्तम के चुनाव की मानसिक प्रक्रिया है। नियोजन के बाद ही प्रबन्ध के अन्य कार्य सम्पन्न होते हैं और यह समस्त प्रबन्धकीय कार्यों का आधार स्तम्भ है।

4. जाजे आर० टेरी (George R. Terry)-“नियोजन भविष्य में झांकने की एक विधि या। तकनीक हे तथा भावी आवश्यकताओं का एक रचनात्मक पनर्निरीक्षण है जिससे कि वर्तमान क्रियाओं को निर्धारित लक्ष्यों के सन्दर्भ में समायोजित किया जा सके।

टेरी ने नियोजन को पूर्वानुमान की एक विधि माना है जिसमें भावी आवश्यकताओं का रचनात्मक विश्लेषण किया जाता है। नियोजन में वर्तमान की गतिविधियों को भी पूर्व-निर्धारित लक्ष्यों के अनुसार समायोजित किया जाता है।]

5. थियो हैमन (Theo Haimann)-“नियोजन वह कार्य है जिसमें अग्रिम रूप से यह निर्धारित किया जाता है कि भविष्य में क्या करना है? इसके अन्तर्गत प्रतिष्ठान के उद्देश्यों, नीतियों, कार्यक्रमों, कार्यविधियों तथा इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए अन्य आवश्यक साधनों का चुनाव सम्मिलित होता है।”

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व्याख्याहैमन ने भी नियोजन को अग्रावलोकी माना है जिसमें उद्देश्यों, नीति, कार्यक्रम, कार्यविधि और साधन का चुनाव पर्याप्त विचार-विमर्श के बाद किया जाता है। यह आगे देखने तथा भविष्य के लिए तैयारी का कार्य है।]

निष्कर्ष नियोजन संस्था के निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए भावी कार्य-कलापों के विषय में वैकल्पिक क्रियाओं में से सर्वोत्तम का चयन है।

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नियोजन का स्वभाव लक्षण

(NATURE AND CHARACTERISTICS OF PLANNING)

नियोजन की प्रकृति अथवा स्वभाव के सम्बन्ध में निम्नलिखित विशेषताओं को ध्यान में रखना आवश्यक है

1 बौद्धिक प्रक्रिया (Intellectual Process)—नियोजन एक बौद्धिक एवं मानसिक प्रक्रिया है जो भविष्य के विषय में निर्णय लेने से सम्बन्धित होती है। यह गहन चिन्तन, तथ्यों के सारगर्भित विश्लेषण और भावी प्रवृत्तियों के सुविचारित अनुमान से पूरित होती है। नियोजनकर्ता में दूरदृष्टि, तीव्र मानसिक क्षमता, विवेक व चिन्तन का होना जरूरी है। हर कोई व्यक्ति कुशल नियोजक नहीं हो सकता है। हेयन्स एवं मेसी ने इस सन्दर्भ में उचित ही कहा है, “नियोजन एक बौद्धिक प्रक्रिया है जिसके लिए सृजनात्मक चिन्तन एवं कल्पना की आवश्यकता होती है।” इसी तथ्य को एम० ई० डिमक ने इन शब्दों में स्वीकारा है कि, “नियोजन किसी ऐसे कमरे में बन्द सिद्धान्ताचार्य का कार्य नहीं है जो दरवाजे की दरार में झांककर रूपरेखाओं का प्रतिपादन कर रहा है। यह नियोजन ही है जो कि इस बात को सम्भव बनाता है कि वह अपने उद्देश्यों को पाने के लिए ज्ञान एवं शक्ति का प्रभावकारी ढंग से संयोजन कर सके।”

2. चयनात्मक प्रक्रिया (Selective Process)-विविध प्रबन्धविद जैसे कण्ट्ज ओ’डोनेल, बिली ई० गोइट्ज, मेरी कुशिंग नाइल्स, एम० ई० हर्ले आदि नियोजन को मूलतः चयन एवं प्रक्रिया के रूप में व्याख्यायित करते हैं। नियोजन के अन्तर्गत उद्देश्यों, नीतियों, कार्यविधियों, नियमों, कार्यक्रमों, रणनीतियों एवं विधियों के विविध विकल्पों में सर्वोत्तम (The Best) का चुनाव किया जाता है। व्यवसाय की स्थापना के उपरान्त व विपणन के सम्बन्ध में विविध किस्म के निर्णय करने पड़ते। हैं। इसके अतिरिक्त, व्यवसाय के विकास व विस्तार हेतु नवउत्पादन, विवेकीकरण, वैज्ञानिक प्रबन्ध,

नियोजन : अवधारणा, प्रक्रिया एवं प्रकार सरलीकरण, संविलयन, पनर्गठन आदि के चयनात्मक निर्णय लेने होते हैं। यदि विविध विकल्प न होकर इकलौता विकल्प हो तो चुनाव अर्थात नियोजन की जरूरत ही न रहे। साथ ही, प्रबन्धक का सफलता तो इस सवात्तम क चनाव पर ही अवलम्बित होती है। नियोजन वैकल्पिक काय-पथा का जानकारा क साथ हा प्रारम्भ होता है और सर्वोत्तम विकल्प के चयन और अनगमन के साथ समान हो जाता है।

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3. सर्वोपरिता एवं निरन्तरता (Primacy and Continuity)-नियोजन प्रबन्धक कार्य है और निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है। नियोजन प्रबन्ध के सभी कार्यों में पहला स्थान रखती है। प्रबध के अन्य कार्य; जैसे—संगठन, निर्देशन. समन्वय नियन्त्रण, स्टाफिंग, अभिप्रेरण आदि सभा नियोजन के बाद ही किए जाते हैं। बिना पूर्व नियोजन के तो प्रबन्धकीय कार्यों का प्रभावी निष्पादन सम्भव ही नहीं हो सकता है। दूसरी बात यह है कि योजना निर्माण एक निरन्तर जारी रहने वाली गतिशील प्रक्रिया है। नियोजन की आवश्यकता तो व्यावसायिक जीवन में प्रतिक्षण रहती है। नियोजन का सम्बन्ध भविष्य से होता है जो पूर्णतया अनिश्चित होता है। नियोजन के द्वारा सोच-समझकर। विवेकपूर्ण ढंग से भविष्य का पूर्वानुमान लगाकर योजनाएँ बनायी जाती हैं किन्तु भावी घटनाएं पूर्णतया पूर्वानुमानों के अनुरूप तो घटित नहीं होती हैं अत: कोई भी योजना अन्तिम नहीं होती है और उसमें निरन्तर समायोजन, प्रतिस्थापन एवं संशोधन करने की गंजाइश रहती है। अत: नियोजन एक बार में सम्पन्न होने वाली क्रिया न हो कर निरन्तर व कभी समाप्त न होने वाली प्रक्रिया है।

4. सर्वव्यापकता (Pervasiveness)-नियोजन का चौथा लक्षण इसकी सर्वव्यापकता और साथ ही सार्वभौमिकता का होना है। यह समस्त प्रबन्धकों, समस्त प्रकार के संगठनों के प्रबन्ध के सभी स्तरों का आवश्यक कर्त्तव्य है। कम्पनी के संचालक मण्डल से लेकर फोरमैन तक सभी स्तरों पर नियोजन की आवश्यकता पड़ती है। सत्य तो यह है कि जब तक प्रबन्धक के पास नियोजन का कुछ कार्य, भले ही सीमित क्यों न हो, उसे प्रबन्धक की संज्ञा देना ही हास्यास्पद लगता है। नियोजन का स्वभाव और क्षेत्र प्रबन्धक के अधिकार और स्तर के अनुरूप परिवर्तित हो जाता है। शीर्ष प्रबन्ध के लिए नियोजन प्रमुख प्रकार्य होता है परन्तु मध्य व निम्न वर्गीय प्रबन्धक तो कम नियोजन से भी काम चला सकते हैं। फिर भी यह सच्चाई है कि प्रबन्ध के सभी स्तरों, समस्त संगठनों (व्यावसायिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक आदि) चाहे छोटे हों या बड़े, सभी में उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए नियोजन अपरिहार्य होता है।

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4. भविष्य के प्रति प्रतिबद्धता (Commitment to the Future)-नियोजन उपक्रम को भूत, वर्तमान और भविष्य से जोड़ते हए उसे भविष्य के लिए प्रतिबद्ध बनाता है। भावी लक्ष्य ही तो उपक्रम के साध्य होते हैं, जबकि नियोजन साधन होते हैं। नियोजन कार्य-सम्पन्नता के पूर्व की क्रिया है जिससे कि भविष्य के लक्ष्य पूर्ति में योगदान हो सके। नियोजन का उद्देश्य उपक्रम में उपलब्ध सामग्री, श्रम, प्लान्ट एवं मशीनरी के कुशल एवं मितव्ययी उपयोग द्वारा उत्पादन लागत में कमी करना और उत्पादन की किस्म में सुधार करना है। इस प्रकार नियोजन तो उपक्रम की भावी कुशलता एवं लाभदायकता को सुधारता है। यह भविष्य के बारे में निरन्तर जाँच-पड़ताल करता रहता है और आम तौर पर यथास्थिति का विलोम (Antithesis of Status Quo) होता है। वैसे तो यथास्थिति बनाये रखने के लिए भी नियोजन करना पड़ सकता है।

5. अन्य लक्षण (Others)-(i) निर्णयन भी नियोजन का ही एक अंग है अत: नियोजन का क्षेत्र निर्णयन की तुलना में व्यापक है। (ii) नियोजन का व्यावहारिक होना परम् आवश्यक है (iii) नियोजन में समय तत्त्व बहुत अधिक महत्व रखता है। (iv) नियोजन कार्य-सम्पन्नता के पूर्व की मानसिक क्रिया है। (v) नियोजन का उद्देश्य उपक्रग की कुशलता में वृद्धि करना होता है।

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नियोजन प्रक्रिया में निहित आवश्यक चरण

(ESSENTIAL STEPS INVOLVED IN PLANNING PROCESS)

नियोजन प्रक्रिया या तकनीक में अधोलिखित कदमों का अनुसरण करना उचित रहता है

1 उद्देश्य निर्धारण,

2. पूर्वानुमान लगाना,

3. विकल्पों का निर्धारण,

4. विकल्पों का तुलनात्मक मूल्यांकन,

5. श्रेष्ठतम विकल्प का चयन,

6. आवश्यक योजना एवं उपयोजना का निर्माण,

7. कर्मचारियों के सहयोग की प्राप्ति, एवं

8. अनुगमन।

1 उद्देश्य निर्धारण (Objective Determination)-नियोजन प्रक्रिया का पहला चरण उद्देश्य करना हो उद्देश्य सम्पूर्ण उपक्रम के लिए तथा उसके पश्चात् प्रत्येक विभाग के लिए चक-पृथक् निधारित किए जाने चाहिएँ। उद्देश्यों से यह स्पष्ट होता है कि क्या किया जाना है, कस किया जाना है, कहाँ और किसके द्वारा किया जाना है। ये उद्देश्य और लक्ष्य प्रबन्धकों के सामर्थ्य मार उपक्रम क ससाधनों को ध्यान में रखकर निर्धारित किए जाने चाहिएं। लक्ष्य निर्धारण के पश्चात उपक्रम के समस्त अधिकारियों एवं कर्मचारियों को योजना के लक्ष्यों से अवगत कराना आवश्यक हाता है जिससे कि वे उनकी प्राप्ति के लिए निरन्तर योजनानसार कार्य करते रहें। ये उद्देश्य पूर्णतया स्पष्ट होने चाहिएँ ताकि अधिकारीगण उन्हें सरलता से समझ करके सफलतापूर्वक क्रियान्वित कर सकें।

2. पूर्वानुमान लगाना (Forecasting)-उद्देश्य निर्धारण के उपरान्त नियोजन के आधार का निर्धारण करने के लिए पूर्वानुमान लगाए जाते हैं। पूर्वानुमान नियोजन की आधारशिला होते हैं। नियोजन एवं पूर्वानुमान का चोली-दामन का साथ होता है। पूर्वानुमान अर्थात् पूर्वदृष्टि ज्ञात तथ्यों के आधार पर भविष्य के पता लगाने का एक व्यवस्थित प्रयास होता है। हेनरी फेयोल इस पूर्वदृष्टि (Prevoyance) को नियोजन का सार तत्त्व मानते हैं। नियोजन की सफलता में पूर्वानुमान का प्रमुख योगदान होता है। भविष्य में किस प्रकार का बाजार होगा, विक्रय की मात्रा कितनी होगी, विक्रय का मूल्य क्या होगा, क्या उत्पादन किया जायेगा, उसकी लागत कितनी आयेगी, विस्तार कार्यक्रमों का वित्तीय प्रबन्ध किस प्रकार से होगा, लाभांश नीति क्या होगी इत्यादि का पूर्वानुमान करना आवश्यक होता है। उपक्रम को तमाम बाह्य एवं आन्तरिक, भौतिक एवं अभौतिक, सामाजिक एवं आर्थिक, नियंत्रणीय एवं अनियंत्रीय घटक प्रभावित करते हैं। अतः भविष्य का पूर्वानुमान करके इन घटकों का सही अनुमान एक प्रभावपूर्ण नियोजन के लिए आवश्यक चरण होता है। पूर्वानुमान की मजबूत आधारशिला पर ही नियोजन का शक्तिशाली महल तैयार हो सकता है। हेनरी फेयोल ने ठीक ही कहा है कि, “नियोजन बहुत से पूर्वानुमानों का सम्मिश्रण है।”

जेम्स डब्ल्यू० रेडफील्ड ने प्रबन्ध सलाहकार के रूप में अपने अनुभवों के आधार पर व्यावसायिक पूर्वानुमान के चार चरण बताये हैं—(अ) आधारतल का विकास करना, (ब) भावी व्यवसाय का आंकलन करना, (स) वास्तविक व अनुमानित परिणामों की तुलना, तथा (द) पूर्वानुमान प्रक्रिया में विशुद्धता लाना। पूर्वानुमान लगाने के लिए अनेक विधियाँ; जैसे-नवीनतम सूचना पद्धति, भावी कार्यक्रम के ज्ञान की पद्धति, जनता की अभिलाषाओं का विश्लेषण करने की पद्धति, सहज बुद्धि पद्धति व अर्थमितीय पद्धति आदि प्रयोग में लायी जाती हैं। भविष्य अकथनीय और अनिश्चित होता है। उचित रूप से लगाए गए पूर्वानुमान व्यावसायिक सफलता को सुनिश्चित करते हैं और सफलता मिलने में भाग्य और संयोग की भूमिका को न्यूनतम कर देते हैं। नियोजन कार्य __ में निम्नांकित कारणों से पूर्वानुमान को महत्व दिया जाना चाहिए-(i) नियोजन का सार, (ii) निर्णयों की गुणवत्ता में सुधार, (iii) प्रबन्धकीय कुशलता में वृद्धि, (iv) समन्वय का साधन, (v) नियंत्रण में सुविधा, (vi) अवसरों और खतरों का संकेत, (vii) उद्देश्य के प्रति एकनिष्ठता आदि।

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3. विकल्पों का निर्धारण (Determining of Alternatives)-नियोजन प्रक्रिया का अगला सोपान निर्दिष्ट लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए भिन्न-भिन्न वैकल्पिक तरीकों को तलाश करना है। दनिया में ऐसा कोई कार्य नहीं होता जिसे करने के लिए न्यायोचित विकल्प न हो। प्रबन्धक को कभी भी यह नहीं मान लेना चाहिए कि अमुक लक्ष्य प्राप्त करने का केवल एक अमक की प्रत्येक कार्य कई वैकल्पिक विधियों से किया जा सकता है और इनमें कौन-सी विधि सर्वश्रेष्ठ है. यह तभी जाना जा सकता है, जबकि प्रबन्धक को समस्त विधियों का पूर्व से ज्ञान हो।।

4. विकल्पों का तुलनात्मक मूल्यांकन (Comparative का तुलनात्मक मूल्यांकन (Comparative Evaluation of Alternatives)विभिन्न वैकल्पिक तरीकों के निर्धारण के उपरान्त उनका तुलनात्मक मूल्या आधार पर किया जाता है। यह कार्य उद्देश्य एवं पूर्वानुमान आधारों को ध्यान में रख है। बहुधा ऐसा होता है कि कोई कार्य करने का तरीका किसी एक दृष्टि से सर्वोत्तम प्रतात तो दूसरा तरीका किसी अन्य दृष्टि से सर्वोत्तम प्रतीत होता है। प्रबन्धक को क्रियात्मक शोध, गाणताच एवं सांख्यिकीय विधियों का उपयोग करके लागत-लाभ का सापेक्षिक मूल्यांकन करना चाहिए। उदाहरणार्थ, कार्य करने का एक तरीका बहुत लाभदायक प्रतीत होता है, परन्तु उसके लिए अत्यधिक धन की आवश्यकता प्रतीत होती है। इसके विपरीत, कार्य करने का दूसरा तरीका अपेक्षाकृत कम लाभदायक है, परन्तु उसमें कम पूँजी और जोखिम की आवश्यकता हो सकती है। इसी तरह तीसरा तरीका कम्पनी के दीर्घकालीन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए अधिक उपयुक्त हो सकता है। प्रबन्धक का चाहिए कि अपने उद्देश्यों और संसाधन सामर्थ्य के अनुसार वैकल्पिक तरीकों का सापेक्षिक मूल्यांकन करे। यह कार्य आधुनिक प्रबन्धकों द्वारा स्वॉट विश्लेषण (Swot Analysis अर्थात् Strength, Weakness, Opportunity एवं Threat का विश्लेषण) द्वारा भी किया जा रहा है।

5. श्रेष्ठतम विकल्प का चयन (Electing the Best Alternative)-नियोजन प्रक्रिया का अति महत्वपूर्ण चरण है, सर्वोत्तम विकल्प का चुनाव करना। यही निर्णय का वह बिन्दु होता है जहाँ से योजना का निर्माण होता है। यह सर्वोत्तम का चुनाव ऐसे तत्त्वों को ध्यान में रखकर किया जाता है जो व्यवसाय विशेष में अपना निर्णायक महत्व रखते हैं। कभी-कभी विकल्पों के मूल्यांकन से यह निर्णय भी निकल सकता है कि योजना के लक्ष्य की पूर्ति के लिए कोई एक तरीका सर्वोत्तम न हो करके अनेक तरीकों का अनुकूलतम संयोग अधिक उपयुक्त सिद्ध होगा। ऐसी स्थिति में किसी एक सर्वोत्तम विकल्प के चुनाव के स्थान पर अनेक तरीकों के संयोग का चयन किया जाना अधिक हितकर होता है।

6. आवश्यक योजना एवं उपयोजना का निर्माण (Formulation of Necessary and Derivative Plan)-उद्देश्य प्राप्ति के सर्वोत्तम तरीके के चयन के पश्चात् आवश्यक योजना एवं उप-योजना को अन्तिम रूप दिया जाता है। उप-योजनाएँ पूर्ण रूप से स्वतन्त्र योजनाएँ न होकर मूल योजना का ही एक अंग होती हैं और एक-दूसरे से घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित होती हैं। प्रत्येक योजना में इतनी लोच होनी चाहिए कि उसके विभिन्न अंगों में समयानुसार और आवश्यकतानुसार समायोजन किया जा सके और प्रतिद्वन्द्वियों की मोर्चाबन्दी की जा सके। मूल एवं उप-योजनाओं के सुचारु संचालन के लिए उनकी क्रियाओं का समय एवं क्रम निर्धारित किया जाना चाहिए। यह क्रम अलग-अलग विभागों, शाखाओं, उत्पादकों, कार्य करने की अवधियों (दैनिक, साप्ताहिक, मासिक, छमाही अथवा वार्षिक) के आधार पर निर्धारित किया जाना चाहिए।

7. कर्मचारियों के सहयोग की प्राप्ति (Securing Employees Cooperation)-अच्छी योजना बनाने मात्र से नियोजन प्रक्रिया पूर्ण नहीं मानी जाती, अपितु उसके क्रियान्वयन में संस्था के प्रत्येक कर्मचारी का सक्रिय सहयोग एवं सहभागिता प्राप्त करनी चाहिए। इस हेतु संस्था में कार्यरत प्रत्येक कर्मचारी को नियोजन से अवगत कराना चाहिए, उसे समझाया जाना चाहिए और टीम भावना के अनुसार उचित परामर्श लेना चाहिए। ऐसा करने से जहाँ नियोजन की गुणवत्ता में सुधार होगा वहीं कर्मचारियों में नियोजन के प्रति निष्ठा. रुचि एवं सहभागिता जागृत होगी।

8. अनुगमन (Follow-up)-केवल योजना बना देने मात्र से लक्ष्य प्राप्त नहीं हो जाते हैं। बहुत सावधानी एवं विश्लेषण के बाद बनायी गई योजनाएँ भी मूर्त रूप में असफल सिद्ध हो सकती हैं। अतः प्रबन्धकों को पुनर्निवेशन (Feed-back) की व्यवस्था करनी चाहिए और योजनाओं की व्यावहारिक क्रियाशीलता पर दृष्टि रखनी चाहिए। अनुगमन इसलिए आवश्यक है कि बदली हुई। आवश्यकताओं, परिस्थितियों एवं सम्भावित परिवर्तनों के सन्दर्भ में योजना में आवश्यक संशोधन  किया जा सके।

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नियोजन एवं पूर्वानुमान में अन्तर

(DIFFERENCE BETWEEN PLANNING AND FORECASTING)

अधिकाशतः व्यक्ति नियोजन और पर्वानमान को समानार्थी मानकर दोनों शब्दों को एक ही। अर्थ में प्रयुक्त करते हैं, जबकि ऐसा नहीं है। यद्यपि दोनों ही क्रियाएँ भविष्य से सम्बन्धित हैं और भावष्य का अनिश्चितताओं का सामना करने के लिए प्रयुक्त होती हैं, परन्तु दोनों में अन्तर है। नियोजन एक व्यापक प्रक्रिया है जिसे प्रबन्ध भविष्य की अनिश्चितताओं से लड़ने के लिए बनाता है। पूर्वानुमान नियोजन का एक औजार है जिससे प्रबन्धक यह अनुमान लगाता है कि भविष्य में क्या होगा? पूर्वानुमान नियोजन प्रक्रिया को सरल बनाता है। यदि भविष्य के बारे में पूर्वानुमान ठीक से लगा लिये जाए, तो व्यावसायिक नियोजन सगम और सरल हो जाता है। प्रबन्ध विज्ञान के जनक। हेनरी फेयोल का मत है कि ‘भविष्य को देखना’ (Prevovance) प्रबन्ध का सार है। उनके अनुसार ‘भविष्य को देखने’ में ‘भविष्य का अनमान’ (पर्वानुमान) और ‘भविष्य के लिए व्यवस्था करना। (नियोजन) सम्मिलित है। यही तो पूर्वानुमान और नियोजन का अन्तर है। पूर्वानुमान भविष्य का अनुमान होती है, जबकि नियोजन भविष्य की व्यवस्था होती है। यह बात पूर्णतया सत्य है कि पूर्वानुमान ही भावी नियोजन का महत्वपूर्ण आधार होते हैं। पूर्वानुमान जितने सत्य और वास्तविकता के निकट होंगे, नियोजन उतना ही अधिक प्रभावी और सफल होगा।

नियोजन के प्रकार

(TYPES OF PLANNING)

योजनाएँ विभिन्न प्रकार की हो सकती हैं, क्योंकि उन्हें विभिन्न आवश्यकताओं, समयों, परिस्थितियों एवं उद्देश्यों के आधार पर निर्मित किया जाता है। विभिन्न दृष्टिकोणों से नियोजन को निम्नांकित प्रकार से वर्गीकृत किया जा सकता है

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1 समय के आधार परसमय के आधार पर योजनाएँ अल्पकालीन एवं दीर्घकालीन हो सकती हैं-(अ) अल्पकालीन नियोजन-अल्पकालीन नियोजन छोटी अवधि; जैसे—दिन, सप्ताह, एक माह, तीन माह, छ: माह, एक वर्ष और कभी-कभी पाँच वर्ष तक के लिए किया जाता है। इनमें तत्कालीन समस्याओं के निराकरण की योजना बनायी जाती है। इस अल्पकालीन नियोजन को परिचालनात्मक (Action or Operational) नियोजन भी कहा जाता है, क्योंकि यह दैनिक कार्यों के लिए निम्नस्तरीय प्रबन्धकों द्वारा अल्पकाल के लिए किया जाता है। यह स्वभाव से बहुत विस्तृत एवं विशिष्ट होता है। यह स्थापित नीतियों व कार्यविधियों के स्थायी ढाँचे के परिवेश में तैयार किया जाता है। () दीर्घकालीन नियोजनयह नियोजन लम्बी अवधि; जैसे—पाँच वर्ष, दस वर्ष, बीस वर्ष के लिए किया जाता है। इसे महत्वपूर्ण एवं व्यूहरचनात्मक (Important and Strategic) नियोजन भी कहा जाता है जो उपक्रम के उच्चाधिकारियों द्वारा लक्ष्यों व साधनों के निर्धारण के लिए किया जाता है। यह संस्था को दीर्घकाल तक प्रभावित करता है और इसमें अत्यधिक जोखिम एवं अनिश्चितता निहित होती है। यह उत्पाद विविधीकरण, प्रबन्धकीय विकास, शोध एवं विकास, नये बाजार में प्रवेश, बाजार अंश में वृद्धि, पूँजी संरचना में परिवर्तन, पूँजी लागत में कमी. संयंत्र क्षमता में। विस्तार विवेकीकरण व वैज्ञानिक प्रबन्ध आदि से सम्बन्धित होता है। दीर्घकालीन नियोजन की समयावधि सामान्यतः पाँच से बीच वर्ष तक की होती है, परन्तु यह समयावधि संगठन की प्रकृति, अकार, विकास दर और वातावरणीय परिवर्तन पर निर्भर करती है।

2. प्रबन्धकीय स्तर के आधार पर-प्रबन्ध के स्तर के आधार पर नियोजन तीन प्रकार का हो सकता है-(अ) उच्चस्तरीय नियोजन-यह नियोजन उपक्रम के अध्यक्ष, सभापति संचालक मण्डल. महाप्रबन्धक जैसे शीर्ष प्रबन्धकों द्वारा किया जाता है। यह अति विश्लेषणात्मक विचारात्मक व निर्णयात्मक स्वभाव के होते हैं। शीर्ष प्रबन्धक सम्पूर्ण उपक्रम की सामान्य नीति. उद्देश्य रीति-नीति, बजट आदि तैयार करते हैं। (ब) मध्यस्तरीय नियोजन-इस प्रकार का नियोजन विभागीय प्रबन्धक व अधीक्षक द्वारा किये जाते हैं जो युक्ति के रूप में तैयार किये जाते है। इन कार्यकारी योजनाओं द्वारा उपक्रम के लक्ष्यों को प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाता है। (स निम्नस्तरीय नियोजन इनका निर्धारण पर्यवेक्षकों व फोरमैनों के द्वारा किया जाता है। यह नियोजन

नियोजन : अवधारणा, प्रक्रिया एवं प्रकार मध्यस्तरीय प्रबन्धकों को युक्तियों के निर्धारण में परामर्श देती है। निम्नस्तरीय नियोजन नियम, परियोजना, कार्यक्रम, बजट व समय तालिकाओं के निर्माण में सहाय

3. समग्रता के आधार पर समग्रता के आधार पर नियोजन दो प्रकार का होता है (अ) संगठनात्मक नियोजन-संगठनात्मक नियोजन स्वभाव से सामूहिक, संयुक्त व समान्वत इसमें सम्पूर्ण संगठन के सामूहिक एवं दीर्घकालीन उद्देश्यों एवं नीतियों का निर्धारण किया जाता हा इस नियाजन मतदथता एव संकीर्णता के स्थान पर स्थायित्व एवं समग्रता पर ध्यान केन्द्रित किया। जाता है। इस नियोजन में आन्तरिक व बाह्य दोनों घटकों पर ध्यान दिया जाता है। () क्रियात्मक नियोजनयह स्वभाव से खण्डीय होता है और विभिन्न क्रियात्मक क्षेत्रों: जैसे-उत्पादन, विभाजन, वित्त, मानव संसाधन आदि के लिए पृथक-पृथक निर्मित होता है। इस नियोजन में सगठन की समग्र दृष्टि न होकर विभाग या उप-विभाग की संकीर्ण दष्टि होती है। क्रियात्मक नियोजन में प्रायः बाहरी घटकों का विचार नहीं किया जाता है। इस प्रकार का नियोजन विभागाध्यक्षों में संकीर्णता की भावना उत्पन करता है और बहुधा विविध क्रियात्मक विभागों में पारस्परिक संघर्ष, भ्रान्ति और झगड़े उत्पन्न होते हैं। ऐसा तभी होता है जब विभागाध्यक्ष अपने-अपने विभागीय हितों पर अनावश्यक जोर देने लगते हैं।

4. औपचारिकता के आधार पर इस आधार पर नियोजन दो प्रकार का होता है-(अ) औपचारिक या लिखित नियोजन-यह नियोजन तथ्यों के व्यवस्थित संकलन व विश्लेषण, विकल्पों की खोज व तुलनात्मक अध्ययन, गहन चिन्तन आदि के बाद किया जाता है। इस प्रकार का नियोजन विधिवत, लिखित एवं स्वीकृत होता है तथा सभी सम्बन्धित विभागों एवं कर्मचारियों को सूचित होते हैं। () अनौपचारिक या गर्भित नियोजन-इस प्रकार का नियोजन मौखिक व अस्पष्ट होता है। ऐसा नियोजन भटके हुए विचारों, कदाचित घटनाओं, भावनाओं व मानवीय संवेदनाओं से उत्पन्न होता है। कुछ प्रबन्धकीय विचारक तो इस प्रकार के नियोजन को नियोजन ही नहीं मानते हैं, क्योंकि यह कोई उपयोगी उद्देश्य पूरा नहीं कर पाता है।

4. अन्य आधार पर कुछ अन्य आधारों पर नियोजन के प्रकार इस प्रकार हैं

(अ) आंतरिक व बाह्य नियोजन,

(ब) एकल उपयोग व स्थायी उपयोग नियोजन,

(स) स्थायी और अस्थायी नियोजन, व

(द) आधारभूत और आरोपित (Imposed) नियोजन।

प्रभावी नियोजन के सिद्धान्त

(PRINCIPLES OF EFFECTIVE PLANNING)

निगमित नियोजन उत्पादन, प्रौद्योगिकी, मानव, वित्तीय तथा भौतिक संसाधन, संगठन के कार्यशील आन्तरिक व बाह्य वातावरण पर निर्भर करता है। फिर भी, निम्नलिखित सिद्धान्तों का अनुसरण करके एक सुदृढ़ नियोजन किया जा सकता है

1 समयशीलता का सिद्धान्त (Principle of Timing)-नियोजन में समय तत्त्व का स्थान सर्वोपरि होना चाहिए। नियोजन करने में समय पर विशेष ध्यान रखना चाहिए, ताकि सभी कार्यक्रम और उप-योजनाएँ निर्धारित समयावधि पर पूरे हो सकें।

2. कार्यकुशलता का सिद्धान्त (Principle of Efficiency)-नियोजन की कार्यकुशलता का सिद्धान्त इस बात पर बल देता है कि सीमित लागतों एवं न्यूनतम प्रयत्नों से संसाधनों का सर्वाधिक कुशल उपयोग हो।

3. लोचशीलता का सिद्धान्त (Principle of Flexibility)-लोचशीलता का सिद्धान्त यह प्रतिपादित करता है कि योजनाएँ यथासम्भव लोचशील होनी चाहिएँ जिससे कि अप्रत्याशित घटनाओं के कारण होने वाली हानि को न्यूनतम करने हेतु इनमें अपेक्षित परिवर्तन किया जा सके।

4. उद्देश्यपूर्ति में योगदान का सिद्धान्त (Principle of Contribution to Objectives) – नियोजन का मूल ध्येय भविष्य में उपक्रम के उद्देश्यों की प्राप्ति में योगदान देना होता है और किसी भी नियोजन को जब तक उद्देश्योन्मख नहीं किया जाता तब तक वह अच्छे परिणाम नहीं दे सकता।

5. स्वीकार्यता अनुसार का सिद्धान्त (Principle of Acceptance)-इस सिद्धान्त के नियाजन तभी सफलतापर्वक क्रियान्वित हो सकता है जब उसके निर्माण की प्रक्रिया में सभी कर्मचारियों की सहभागिता हो। ऐसी दशा में वे उसे समझकर स्वीकार करेंगे। इस स्वीकार्यता हेत। कर्मचारियों को योजनाओं का उचित संदेशवाहन जरूरी होता है।

6. नियोजन आधारों का सिद्धान्त (Principle of Planning of Planning Premises)-यह सिद्धान्त इस बात पर बल देता है कि नियोजन के आधार व मान्यताओं का सही, स्पष्ट व पूर्ण ज्ञान हाना चाहिए। नियोजन के आन्तरिक व बाह्य तत्त्वों का आंकलन करके उनके अनुसार योजना बनानी चाहिए।

7. व्यापकता का सिद्धान्त (Principle of Pervasiveness)-नयाजन एक इतना प्यापक क्रिया है जिसकी आवश्यकता प्रबन्ध के सभी स्तरों को होती है। अत: नियोजन प्रबन्ध के सभी स्तरों के अनुकूल होना चाहिए।

8. प्रतिबद्धता का सिद्धान्त (Principle of Commitment)-वचनबद्धता सिद्धान्त के अनुसार नियोजन इस प्रकार से किया जाना चाहिए कि प्रबन्धकों ने संस्था से जो वायदा किया है उसे। निर्धारित समय में पूरा कर सकें।

9. नाविकीय परिवर्तन का सिद्धान्त (Principle of Navigational Change)-इस सिद्धान्त के अनुसार जिस प्रकार नाविक परिवर्तित परिस्थितियों के अनुसार पतवार की सहायता से नाव का रुख मोड़ता रहता है, उसी प्रकार, प्रबन्धकों को भी वांछित लक्ष्य की दिशा में अग्रसर रहने हेतु अपने पथ की निरन्तर समीक्षा करते रहना चाहिए और वांछित लक्ष्य की प्राप्ति हेतु आवश्यकतानुसार उसमें परिवर्तन करते रहना चाहिए।

अन्य सिद्धान्त (Other Principles)-कुछ अन्य सिद्धान्त भी हैं; जैसे

() प्राथमिकता का सिद्धान्त,

() सहयोग का सिद्धान्त,

() विकल्पों का सिद्धान्त, व

() सीमित घटकों का सिद्धान्त।

प्रबन्ध में नियोजन का महत्त्व

(IMPORTANCE OF PLANNING IN MANAGEMENT)

जिस प्रकार बिना पतवार के नाविक, बिना अध्ययन-अध्यापन के शिक्षक, बिना कलम के लेखक व बिना हथियार के सैनिक अपना कार्य सम्पन्न नहीं कर सकते, ठीक उसी प्रकार बिना नियोजन के व्यावसायिक सफलता की कामना नहीं की जा सकती। उपक्रम, चाहे वह छोटा हो अथवा बडा. चाहे उसकी क्रियाओं का क्षेत्र स्थानीय हो, प्रादेशिक हो अथवा अन्तर्राष्ट्रीय, चाहे वह निजी क्षेत्र की हो, सार्वजनिक क्षेत्र की हो अथवा मिश्रित क्षेत्र की हो, सभी के लिए नियोजन एक अपरिहार्य आवश्यकता है। नियोजन पग-पग पर व्यवसायी का मार्गदर्शन करता है, भावी कठिनाइयों एवं खतरों के प्रति सचेत करता है और उन पर विजय का मार्ग सुझाता है। कार्य सम्पादन के पूर्व नियोजन का अभाव क्रियाओं में जल्दबाजी, बेवकूफी तथा अनिश्चितता (Rashness, Imprudence, Uncertainity) का द्योतक है। न्यूमैन और समर (Newman and Summer) के शब्दों में, “एक प्रतिष्ठान बिना नियोजन के शीघ्र बिखर जायेगा, उसके कार्य उतने ही अव्यवस्थित होंगे जितने की बसन्त बयार में उड़ने वाले दिशाहीन पत्ते, और उसके कर्मचारी उसी प्रकार भ्रमित होंगे जिस प्रकार चिटियाँ अपनी उल्टी हुई वामी में होती हैं।” इसी प्रकार अर्नेस्ट सी० मिलर ने लिखा है, “बिना । नियोजन के कोई भी कार्य केवल निष्प्रयोजन क्रिया होगी जिससे अव्यवस्था के अतिरिक्त कुछ भी प्राप्त न होगा।” नियोजन की आवश्यकता महत्व एवं लाभ निम्नलिखित तथ्यों से और अधिक स्पष्ट हो जायेगा

1 भावा अनिश्चितता एवं परिवर्तनों का सामना करने के लिए (To Offset Future Uncertainties and Changes)-अगर भविष्य निश्चित होता और उसमें किसी प्रकार कपारवतन की सम्भावना नहीं हो, तो नियोजन का विशेष महत्व नहीं रहता। एक बार कार्य-प्रणाली निाश्चत करने के पश्चात् सदा उसी का अनुसरण किया जाता. परन्त व्यवहार में देखा जाता है । अनिश्चित होता है। व्यवसाय सम्बन्धी कोई भी तत्त्व: जैसे—प्रतिस्पर्धा, रोकड़ की स्थिात, माँग, उत्पादन क्षमता, लागत, राजकोषीय नीति. हडताल व तालाबन्दी आदि निश्चित आर अपरिवर्तनशील नहीं होता। इसके अतिरिक्त भौतिक जोखिमों; जैसे-भूकम्प, बाढ़, अग्निकाण्ड आदि की आशंका बनी रहती हैं। अत: प्रत्येक प्रबन्धक डन अनिश्चितताओं एवं परिवर्तनों का सामना करने के लिए पहले से ही अनुमान लगाकर तद्नुसार योजना बना लेते हैं।

2. लक्ष्यों पर ध्यान केन्द्रित करने के लिए (To Concentrate the Mind on Objectives) – नियोजन के अन्तर्गत उपक्रम के उद्देश्यों को स्पष्ट किया जाता है और इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए योजनाएँ बनाई जाती हैं। नियोजन का प्रमुख ध्येय संस्था के लक्ष्यों की ओर समस्त प्रबन्धकों का ध्यान केन्द्रित करना होता है। परिणामस्वरूप उपक्रम का प्रत्येक विभाग, अधिकारी और कर्मचारी उपक्रम के लक्ष्यों की प्राप्ति के प्रति सदैव जागरुक एवं सजग रहता है और प्राप्ति हेतु निरन्तर प्रयास करते रहते हैं। प्रत्येक विभागाध्यक्ष अपने विभाग की नीतियों, कार्यविधियों, कार्यक्रमों और रणनीतियों को अन्य विभागों का प्रतिद्वन्द्वी न बनाकर पूरक बनाने का प्रयत्न करता है, फलस्वरूप लक्ष्य प्राप्ति सरल हो जाता है। इस प्रकार नियोजन उद्देश्यों द्वारा प्रबन्ध (Management by objectives) को सफल बनाता है।

3. विभिन्न कार्यों में एकता समन्वय (Unity and Coordination in Different Activities)- नियोजन के द्वारा उपक्रम के विभिन्न विभागों एवं क्रियाओं में तालमेल और समन्वय स्थापित होता है। नियोजन के द्वारा यह प्रयत्न किया जाता है कि सम्पूर्ण संगठन संरचना में वित्तीय दोहरेपन से बचा जाय और विभिन्न क्रियाओं में टकराव न उत्पन्न हो। उपक्रम के सभी विभाग और प्रबन्धकीय क्रियाएँ एक दूसरे से कदम मिलाकर निश्चित लक्ष्य की प्राप्ति की ओर अग्रसर हों, यह नियोजन के ही द्वारा सम्भव हो पाता है। नियोजन से क्रियाओं में समानता, उद्देश्य की एकता एवं एकरूपता आती है।

4. संगठन की प्रभावशीलता में वृद्धि (Increase in Organisational Effectiveness)नियोजन से संगठन की प्रभावशीलता में भी वृद्धि सम्भव होती है। कार्यों में अनावश्यक विलम्ब न होने से लागत में भी कमी आती है, लालफीताशाही समाप्त हो जाती है और कार्य निष्पादन में तेजी आने से श्रम और समय दोनों की बचत होती है।

5. नियन्त्रण में सुगमता (Helpful in Controlling)-नियोजन तो नियन्त्रण का प्राण है। नियोजन के द्वारा भावी निष्पादन के लिए प्रमाप निर्धारित किए जाते हैं और वास्तविक निष्पादन की प्रमापों से तुलना करके विचरणांश विश्लेषण किये जाते हैं। विचरणों के प्रतिकूल होने पर सुधारात्मक कदम उठाये जाते हैं, ताकि भविष्य में क्रियाएँ प्रतिकूल परिणाम प्रदान करें। नियोजन नियन्त्रण कार्य के लिए आधार प्रस्तुत करता है।

6. उतावले निर्णयों पर रोक (Preventing Hasty Decisions)-लुइस ऐलन (Louis Allen) के अनुसार, “नियोजन के माध्यम से उतावले निर्णयों और अटकलबाजियों को समाप्त किया जाता है।” नियोजन के अन्तर्गत विभिन्न विकल्पों में से सर्वश्रेष्ठ विकल्प का चयन तत्कालीन परिस्थितियों, समस्याओं व समय के सन्दर्भ में किया जाता है। नियोजन भूल और सुधार के मार्ग से मुक्ति दिलाकर एक सुविचारित प्रगति का मार्ग प्रशस्त करता है। नियोजन के अभाव में जल्दबाजी, अनिश्चितता और बेवकफी झलकती है।

7. नई खोजों एवं सृजनात्मकता को प्रोत्साहन (Motivation to New Discoveries and Creativity)-एक सुविचारित नियोजन प्रबन्धकों को नये ढंग से काम करने के लिये सोचने को प्रेरित करता है। इससे एक खुले वातावरण में काम करने को प्रोत्साहन मिलता है। प्रबन्धकों एवं कर्मचारियों में नव-प्रवर्तन, शोध एवं सृजनात्मकता को प्रोत्साहन मिलता है।

8. मनोबल एवं अभिप्रेरणा में वृद्धि (Increase in Morale and Motivation)-एक कशल नियोजन पद्धति प्रत्येक स्तर पर कर्मचारियों की सहभागिता को प्रोत्साहित करती है जिससे उनके। मनोबल एवं अभिप्रेरण में वृद्धि होती है। संगठन में विश्वास का वातावरण. उत्तरदायित्व की भावना. एकता, कर्मचारियों में संतोष पनपता है जिसके कारण औद्योगिक भ्रान्तियों और संघर्षों में कमी आती है ।

9. प्रभावपूर्ण सन्देशवाहन एवं भारार्पण (Effective Communication and Delegation)-सुप्रभावी नियोजन पद्धति के क्रियान्वयन से प्रभावपूर्ण सन्देशवाहन होता है। उद्देश्य, नीतियाँ कार्यपद्धतियाँ रणनीतियाँ कार्यक्रम बजट आदि संस्था के समस्त कर्मचारियों को भली-भाँति ज्ञात रहते हैं। इस कारण से विविध स्तरों पर अधिकारों का प्रतिनिधायन ठीक से हो पाता है। यह अधिकारों के विकेन्द्रीकरण को प्रोत्साहित करता है।

10. राष्ट्रीय महत्व (National Importances_पूर्वानमान और नियोजन केवल एकाकी व्यावसायिक उपक्रम के लिए ही नहीं, बल्कि समग्र राष्ट्र के लिए भी उपयोगी होते हैं। प्रगतिशील राष्ट्रों में व्यावसायिक पूर्वानुमानों द्वारा व्यापार चक्रों पर नियन्त्रण, सन्तुलित आर्थिक विकास, बेकारी की समस्या का समाधान. गरीबी में कमी आदि उद्देश्य प्राप्त हो जाते हैं। भारत इसका ज्वलन्त। उदाहरण है जिसने पंचवर्षीय योजनाओं में उल्लेखनीय प्रगति की है और 21वीं सदी में नियोजन प्रणाली के तहत तेज प्रगति की ओर अग्रसर है।

अन्य महत्व (Other Importance)-(i) प्रतिस्पर्धात्मक शक्ति में सुधार, (ii) लागत में। कमी, (iii) साधनों का सही उपयोग, (iv) दूरदर्शिता, एवं (v) मानवीय व्यवहार में सुधार।

नियोजन की कठिनाइयाँ, सीमाएँ अथवा आलोचनाएँ

DIFFICULTIES, LIMITATIONS OR CRITICISMS OF PLANNING)

कुछ विद्वान नियोजन को समय, श्रम एवं धन की बरबादी एवं बरसाती ओले कहकर इसका विरोध करते हैं। उनकी धारणा है कि व्यावसायिक योजनाएँ अनिश्चित एवं अस्थिर परिस्थितियों की पृष्ठभूमि में तैयार की जाती हैं। जब इनका आधार ही अनिश्चित है, तो फिर यह कैसे माना जा सकता है कि नियोजन के द्वारा निर्धारित बातें शत-प्रतिशत सत्य ही होंगी। इस विरोध का मूल कारण नियोजन में उत्पन्न विभिन्न कठिनाइयों एवं सीमाओं का होना है जिनके कारण इसकी कटु आलोचनाएँ की जाती हैं। इनका संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार है

1 विश्वसनीय आँकड़ों का अभाव (Lack of Reliable Data)-नियोजन की सफलता तथ्यों, सूचनाओं व ऑकड़ों की विश्वसनीयता पर निर्भर करती है। ऐसे शद्ध एवं विश्वसनीय ऑकड़ों का समय पर उपलब्ध होना अपने आप में एक समस्या है। इसके अतिरिक्त नियोजन की अवधि जितनी अधिक लम्बी होगी, यह समस्या उतना ही उग्र और व्यापक रूप धारण करेगी।

2.खर्चीली प्रक्रिया (Expensive Process)-नियोजन क्रिया के लिए अपार समय, श्रम एवं धन की आवश्यकता होती है जिससे लागत बढ़ जाती है। इस हेतु विशेषज्ञों की नियक्ति करनी पड़ती है और पृथक नियोजन विभाग की स्थापना करनी पड़ती है। सूचना एकत्रण, विश्लेषण और निर्णयन । में बहुत सारा पैसा और समय लगता है जो छोटे उद्यमियों के बूते की बात नहीं होती। नियोजन से प्राप्त होने वाला लाभ किसी भी तरह उसके ऊपर आने वाली लागत से कम नहीं होना चाहिए।

3. सही पूर्वानुमानों का अभाव (Lack of Proper Forecasts)-पूर्वानुमान तो नियोजन की आधारशिला होते हैं, लेकिन भविष्य की अनिश्चितता एवं परिवर्तनशीलता के कारण भावी घटनाओं का पर्णतया सही-सही पूर्वानुमान लगाना अति कठिन होता है। पूर्वानुमान जितने अधिक समय के लिए लगाए जाते हैं उनकी विश्वसनीयता एवं प्रभावशीलता घटती जाती है।

4. सर्वोत्तम विकल्प के चुनाव में कठिनाई (Difficulty in the Selection of Best Alternative)-नियोजन के अन्तर्गत उपलब्ध विकल्पों का चयन करना एक विकट कर आज जिस विकल्प को सर्वोत्तम माना जाता है, हो सकता है कि कल वह परिवर्तित सर्वोत्तम न रहे। निःसन्देह नियोजन के कार्य में सर्वोत्तम विकल्प का चुनाव एक महत्त्वपर्ण नाका

5. अलोचपूर्णता (Inelasticity)-नियोजन से कभी-कभी अलोचपूर्णता और कठोरता का । उदय होता है। नियोजन व्यक्तिगत रुचि, मौलिकता, पहलपन और स्वतंत्रता का गला घोट कर कार्यविधियों में कठोरता, लालफीताशाही एवं विलम्ब को बढावा देता है। इस दोष से पर्याप्त सीमा तक बचा जा सकता है, बशर्ते कि विभागीय योजनाओं में कछ सीमा तक संशोधन व समायोजन करने का अधिकार विभागीय अधिकारियों को सौंप दिया जाए।

6. कठिन मानसिक प्रक्रिया (Difficult Mental Process)-नियोजन में गहन बासिर चिन्तन, अत्यधिक कागजी कार्यवाही, विश्लेषण एवं मल्यांकन की जरूरत होती है जिसके लिए योग्य विशेषज्ञों का सर्वथा अभाव पाया जाता है। बहुत से प्रबन्धक इस कष्टकारी प्रक्रिया से बचकर केवल अल्पकालीन कार्यों को सम्पादित करना ही श्रेष्ठ मानते हैं।

7. परिवर्तन का विरोध (Resistance of Change)-बहुत से लोग आमतौर पर परिवर्तन को पसन्द नहीं करते, उनका सनातनी दृष्टिकोण नियोजन के लिए एक सीमा बन जाता है। नए नियोजन से परिवर्तन होने लगते हैं और जब अधीनस्थों से नई चीजें सीखने, प्रशिक्षण लेने और पुरानी आदतों, परम्पराओं, विश्वासों व मूल्यों को छोड़ने को कहा जाता है, तो वे इसका विरोध करते हैं और संगठन का वातावरण अशान्त और तनावपूर्ण हो जाता है।

नियोजन की सीमाओं पर विजय प्राप्त करने के लिए सुझाव

(SUGGESTIONS TO OVERCOME THE LIMITATIONS OF PLANNING)

उपरोक्त वर्णित नियोजन की सीमाओं के अध्ययन से यह निष्कर्ष नहीं निकाल लेना चाहिए कि नियोजन अव्यावहारिक और अनावश्यक है। वास्तव में, नियोजन प्रबन्धकीय क्रियाओं का आधार है जिसके माध्यम से समस्त क्रियाएँ संचालित होती हैं। नियोजन की सीमाओं पर विजय प्राप्त करने के लिए और नियोजन को अधिक प्रभावी बनाने के लिए निम्न सुझाव दिए जा सकते हैं

1 नियोजन सरल एवं व्यापक होना चाहिए। सरलता होने से कर्मचारी वर्ग के लिए यह बोधगम्य होगा और व्यापक क्रियान्वयन हो सकेगा।

2. नियोजन पूर्ण होना चाहिए अन्यथा यह नियोजन को ही निष्फल कर देगा। योजनाओं में उपक्रम के आधारभूत लक्ष्यों एवं आवश्यकताओं से हटकर किसी अन्य बात का समावेश नहीं किया जाना चाहिए।

3. एक प्रभावी नियोजन वह है जो मितव्ययी हो अर्थात् समय व धन कम खर्च होता रहे।

4. प्रभावी नियोजन में लोचशीलता होनी चाहिए जिससे कि परिवर्तित परिलक्षित एवं आवश्यकताओं के अनुरूप आवश्यक समायोजन किया जा सके।

5. एक प्रभावी नियोजन में सन्तुलन के लक्षण होने चाहिएँ। योजना से लाभ स्पष्ट परिवर्तित होने चाहिएँ।

6. एक प्रभावी नियोजन में स्वामी, प्रबन्धक और अधीनस्थों की सहभागिता होनी चाहिए, तभी वे क्रियान्वयन में पूर्ण सहयोग करेंगे।

7. नियोजन में भविष्यता का ध्यान रखना अति आवश्यक है। भविष्य की आवश्यकताओं. साधनों, लक्ष्यों, प्रतिस्पर्धा, बाह्य तत्त्व आदि पर ध्यान दिया जाना चाहिए।

Principles Business management Planning

परीक्षा हेतु सम्भावित महत्वपूर्ण प्रश्न

(Expected Important Questions for Examination)

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

(Long Answer Questions)

प्रश्न 1. नियोजन की प्रकृति, महत्त्व एवं प्रक्रिया की व्याख्या कीजिये।

Explain the nature, importance and process of planning

प्रश्न 2. नियोजन की परिभाषा दीजिये। प्रबन्ध में इसके उद्देश्य एवं महत्त्व को स्पष्ट कीजिये।

Define ‘Planning’. Explain its objectives and importance in management.

प्रश्न 3. नियोजन से आप क्या समझते हैं ? नियोजन के विभिन्न चरणों को बताइये।

What do you understand by ‘Planning’ ? Discuss the different steps involved in planning.

प्रश्न 4. नियोजन किस प्रकार पूर्वानुमान से भिन्न है ? नियोजन की प्रक्रिया को संक्षेप में समझाइये।

How is planning different from forecasting ? Explain briefly the pocess of planning.

प्रश्न 5. नियोजन में किन-किन बातों को प्रबन्ध द्वारा ध्यान में रखा जाना चाहिये ? नियोजन के आधारभूत सिद्धान्तों का वर्णन कीजिये।

What points must be taken into account by management while planning ? Discuss the fundamental principles of planning.

प्रश्न 6. नियोजन से क्या आशय है ? नियोजन की विभिन्न तकनीकों की संक्षिप्त व्याख्या। उनमें निहित चरणों सहित कीजिये।

What is meant by planning ? Describe the techniques of planning while pointing out briefly the main steps involved therein.

प्रश्न 7. नियोजन को परिभाषित कीजिये। नियोजन प्रक्रिया के कदमों को समझाइये।

Define planning. Explain the steps of planning process.

प्रश्न 8. नियोजन में लोच की समस्या का वर्णन कीजिये।

Explain the problems of flexibility in planning.

प्रश्न 9. नियोजन की अवधारणा को स्पष्ट कीजिये तथा इसके प्रकारों का वर्णन कीजिये।

Explain the concept of planning and describe its types.

Principles Business management Planning

लघु उत्तरीय प्रश्न

(Short Answer Questions)

प्रश्न 1. नियोजन की अवधारणा की व्याख्या कीजिये।

Explain concept of planning.

प्रश्न 2. नीतियों एवं कार्यविधियों में अन्तर कीजिये।

Distinguish between policies and procedures.

प्रश्न 3. “नियोजन मूलत: चयन करना है।” व्याख्या कीजिये।

“Planning is fundamentally choosing.” Explain.

प्रश्न 4. नियोजन के उद्देश्य बताइये।

Explain the objectives of planning.

प्रश्न 5. नियोजन का महत्व बताइये।

Explain the importance of planning.

प्रश्न 6. एक अच्छी योजना की विशेषताएँ बताइये।

State the characteristics of a good plan.

अथवा

एक श्रेष्ठ नियोजन के आवश्यक लक्षणों को समझाइये।

Explain the essential elements of good planning.

प्रश्न 7. प्रबन्धकीय निर्णयन में नियोजन के महत्त्व की विवेचना कीजिये।

Discuss the significance of planning in managerial decision.

Principles Business management Planning

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

(Objective Type Questions)

1 बताइये कि निम्नलिखित वक्तव्य ‘सही हैं’ या ‘गलत’

Indicate whether the following statements are ‘True’ or ‘False’

(i) नियोजन प्रबन्ध का एक प्राथमिक कार्य है।

Planning is a primary function of management.

(ii) नियोजन मूलत: चयन प्रक्रिया है।

Planning is fundamentally a choosing process.

(iii) नियोजन एवं पूर्वानुमान समानार्थी हैं।

Planning and forecasting are synonymous.

(iv) नियोजन पीछे देखने वाला है।

Planning is backward looking.

उत्तर-(i) सही (ii) सही (iii) गलत (iv) गलत

Principles Business management Planning

2. सही उत्तर चुनिये

(Select the correct answer)

(i) नियोजन प्रबन्ध का कार्य है (Planning is a function of management)

(अ) प्राथमिक (Primary)

(ब) द्वितीयक (Secondary)

(स) अन्तिम (Last)

(द) इनमें से कोई नहीं (None of the above)

(ii) संगठन की किस तरह की योजना दिन-प्रतिदिन के संचालन से विशेष रूप से सम्बद्ध है?

(अ) रणनीतिक योजना (Strategic plans)

(ब) संचालनात्मक योजना (Operational plans)

(स) दीर्घकालिक योजना (Long-range plans)

(द) एक उपयोग योजना (Single use plans)

(iii) “नियोजन भविष्य को पकड़ने के लिये बनाया गया पिंजरा है।” यह कथन है

“A plan is a trap to capture the future”. This statement is of

(अ) न्यूमैन (New man)

(ब) हर्ले (Hurley)

(स) ऐलन (Allen)

(द) टैरी (Terry)

(iv) नियोजन का आधार है (Base of Planning is)

(अ) पूर्वानुमान (Forecasting)

(ब) विकल्प (Alternatives)

(स) निर्णयन (Decision making)

(ग) चयन (Selection)

उत्तर-(i) (अ) (ii) (ब) (iii) (स) (iv) (अ)

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chetansati

Admin

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